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मंगलवार, 8 सितंबर 2009

आत्म केंद्रीयता और स्वार्थ

शनिवार को  अत्यावश्यक कार्य करते हुए रविवार के दो बज गए, सोए थे कि बेटे को स्टेशन छोड़ने जाने के लिए पाँच बजे ही उठना पडा़। अब ढाई घंटे की नींद भी कोई नींद है। सात बजे वापस लौटे तो नींद नहीं आई। नेट पर कुछ पढ़ते रहे। आठ बजे सुबह सोने गए तो दस बजे टेलीफोन ने जगा लिया। महेन्द्र नेह का फोन था। पाण्डे जी का एक्सीडेंट हो गया है हम पुलिस स्टेशन में हैं रिपोर्ट लिखा दी है, पुलिस वाले धाराएँ सही नहीं लगा रहे हैं, आप आ जाओ। जाना पड़ा। पुलिस स्टेशन पर उपस्थित अधिकारी परिचित था। मैं ने कहा 336 कैसे लगा रहे हैं भाई 338 लगाओ। रस्सा गले में फाँसी बन गया होता तो पाण्डे जी का कल्याण ही हो गया था। अधिकारी ने कहा 337 लगा दिया है। अब अन्वेषण में प्रकट हुआ तो 338 भी लगा देंगे। मैं बाहर आया तो वहाँ एक परिचित कहने लगा -राजीनामा करवा दो। मैं ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया पुलिस अधिकारी ने रपट पर पाण्डे जी के हस्ताक्षर करवा कर उन्हें चोट परीक्षण के लिए अस्पताल भिजवा दिया। थाने के बाहर ही मोटर का वहाँ परिचित फिर मिला और कहने लगा ड्राइवर मेरा भाई है राजीनामा करवा दो, भाई और मालिक दोनों को ले आया हूँ। इन लोगों में से एक ने भी अब तक यह नहीं पूछा था कि दुर्घटना में घायल को कितनी चोट लगी है। मालिक के पास कार थी। लेकिन पाण्डे जी को पुलिसमेन उन की मोटर सायकिल पर ही बिठा कर अस्पताल ले गया। बस मालिक ने यह भी नहीं कहा कि मेरी कार में ले चलता हूँ। 

मुझे गुस्सा आ गया। मैं ने तीनों को आड़े हाथों लिया। "तुम्हें शर्म नहीं आती, तुम राजीनामे की बातें करते हो, तुमने पाण्डे जी से पूछा कि उन को कितनी लगी है? तुमने तो उन्हें अस्पताल तक ले जाने की भी न पूछी, किस मुहँ से राजीनामे की बात करते हो?

घटना वास्तव में अजीब थी। पाण्डे जी मोटर सायकिल से जा रहे थे। पास से बस ने ओवर टेक किया और उस में से एक रस्सा जिस का सिरा बस की छत पर बंधा था गिरा और उस ने पांडे जी की गर्दन और मोटर सायकिल को लपेट लिया। पांडे जी घिसटते हुए दूर तक चले गए। कुछ संयोग से और कुछ पांडे जी के प्रयत्नों से रस्सा गर्दन से खुल गया। वरना फाँसी लगने में कोई कसर न थी। पांडे जी के छूटने के बाद भी रस्सा करीब सौ मीटर तक मोटर सायकिल को घसीटते ले गया। पांडे जी का शरीर सर से पैर तक घायल हो गया। 

मैं जानता हूँ। उन्हें कोई गंभीर चोट नहीं है। पैर में फ्रेक्चर हो सकता है लेकिन उस की रिपोर्ट तो डाक्टर के  एक्स-रे पढ़ने पर आएगी। आईपीसी की धारा 279 और 337 का मामला बनेगा, जो पुलिस बना ही चुकी है। एक में अधिकतम छह माह की सजा और एक हजार रुपए का जुर्माना और दूसरी धारा में छह माह की सजा और पाँच सौ रुपया जुर्माना है। दोनों अपराध राज्य के विरुद्ध अपराध हैं।  राजीनामा संभव नहीं है। यह ड्राइवर जानता था  और इसीलिए ड्राइवर मुकदमा दर्ज होने के पहले ही राजीनामा करने पर अड़ा था। उसे अपने मुकदमे की तो चिंता थी, लेकिन यह फिक्र न थी कि घायल को कितनी चोट लगी है। 

दूसरी ओर बस का मालिक निश्चिंत खड़ा था उस पर कोई असर नहीं था। वह जानता था कि उसे सिर्फ पुलिस द्वारा जब्त बस को छुड़वाना है जिसे उस का स्थाई वकील किसी तरह छुड़वा ही लेगा। ड्राइवर पेशी करे या उसे सजा हो जाए तो इस से उसे क्या? वह तब तक ही उसे मुकदमा लड़ने का खर्च देगा जब तक ड्राइवर उस की नौकरी में है। बाद में उस की वह जाने। आज के युग ने व्यक्ति को कितना आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बना दिया है।

18 टिप्‍पणियां:

  1. जी हां द्विवेदी जी...ये तो बिल्कुल सच बात है..मैं फ़िलहाल ऐमएसीटी की कोर्ट में ही हूं....इसलिये देख रहा हूं..वैसे भी दिल्ली जैसे शहर में स्थिति इससे भी ज्यादा बदतर है..लोगों को सिर्फ़ उस दिन एहसास होता है ..जिस दिन दुर्घटना में कोइ अपना होता है...

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  2. हाँ यही तो सच है आज की दुनिया का !

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  3. बड़ी खतरनाक स्थिति है ट्रैफ़िक की आपके यहां.

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  4. स्वार्थ का इससे बड़ा उदाहरण और भला क्या होगा?

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  5. अंधे जहां के अंधे रास्ते, जाएं तो जाएं कहां...

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  6. इस भीड़ भरी दुनिया में सब को बस अपना ही ख्याल रहता है.
    बहुत कम लोग है जो दूसरों की खुशी मे भी अपनी खुशी समझते हैं..

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  7. क्या किया जाये? सभी जगह ऐसे ही हालात हैं.

    रामराम.

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  8. शुक्र है पाण्डे जी को ज्यादा चोट नहीं लगी.

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  9. शर्मनाक है इस वृत्ति का पनपते जाना।

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  10. संवेदनहीन समाज है .द्रिवेदी जी...

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  11. आपकी यह पोस्ट समाज के चेहरे से नकाब उठती है.. मगर कही मुझे लगता है यदि पांडे जी (व्यक्तिगत नहीं समझे, सिर्फ किरदार लिया है) बस के ड्राईवर होते तो वे भी यही करते जो उन लोगो ने किया.. हम सब चेहरों पर मुखौटे लिए घूम रहे है.

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  12. जब स्वार्थ मनुज पर छाता है, नैतिकता मार गिराता है!

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  13. परंतु आपने यह तो बताया ही नहीं कि केस को लडते लडते पांडेजी लंगडे या बूढे भी हो सकते हैं.... हमारा कानून ही ऐसा है ना!!!

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  14. बहुत ही शर्मनाक घटना, लेकिन यह आम है ओर यही सच है आज का, इंसनियत मर सी गई है, ओर जिन मै इंसानियत बची है, उन्हे लोग बुद्धु ओर बेवकुफ़ समझते है....

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  15. संवेदनायें मर रही हैं बहुत चिन्ताजनक स्थिति है समाज की चलो ये खुशी की बात है कि पान्डे जी बच गये आभार्

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  16. "क्या थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी...." ये दुष्ट हमारा भारत कब हमसे चुरा ले गए, हमें पता भी न लगा.

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  17. aap ko nirantar padh raha hoon bakalam khud me, majedar style hai anoothi ,sansmaran me nai bilkul.
    aapke blog dekh kar anand aagaya.
    mera hardik abhivadan .namaskar sweekare.
    aapka hi ,
    dr.bhoopendra Rewa MP

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