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शनिवार, 23 मई 2009

सब पूँजी के चाकर : जनतन्तर कथा (33)

हे, पाठक!
साँयकाल सनत राजभवन की रौनक देखने चला गया और सूत जी नगर भ्रमण को।  नगर में लोग अपने कामों व्यस्त रहते हुए बीच बीच में माध्यमों पर मंत्रीपरिषद को शपथ लेते देख रहे थे।  कुछ नए चेहरों को छोड़ कर सब वही पुराने चेहरे थे।  किसी में विशेष उत्साह दिखाई नहीं पड़ता था।  उमग भी रहे होंगे तो केवल वे लोग जिन के निकट के लोग मंत्री परिषद में शामिल हो गए थे।  यह सोचने की रीत बन गई थी कि चलो अपना आदमी मंत्री परिषद में स्थान पा गया, कभी वक्त पड़ा तो काम  आएगा।   राजधानी अपने पुराने ढर्रे पर आने लगी थी।  चुनाव की चहल पहल समाप्त हो चुकी थी।  सूत जी ऐसे ही नगर भ्रमण करते रहे।  जब उन्हें अनुमान हो चला कि सनत वापस लौट आया होगा, तो वे भी यात्री निवास पहुँच गए।  सनत उन की प्रतीक्षा कर रहा था।  उस से पूछा कैसा रहा समारोह? तो उत्तर मिला -पहले की तरह, कुछ विशेष नहीं था।  हाँ, गठबंधन के एक दल के लोगों द्वारा शपथ ग्रहण न कर पाने की चर्चा जरूर थी।  भोजनादि से निवृत्त हो कर दोनों विश्राम के लिए कक्ष में पहुँचे तो सूत जी बोले -मैं सोचता हूँ मुझे कल नैमिषारण्य के लिए प्रस्थान कर देना चाहिए। 
सनत यह सुनते ही उदास हो कर बोला -गुरूवर! इस बार आप का साथ बहुत रहा।  अनेक बातें सीखने को मिलीं, आप चले जाएंगे तो बहुत दिनों तक मन नहीं लगेगा।  मैं भी कल ही निकल लूंगा।  आप बहुत कहते रहे नैमिषारण्य आने के लिए।  इस बार समय निकलते ही आऊंगा, कुछ दिन रहूँगा, आप से बहुत कुछ जानना, सीखना है।  लेकिन गुरूदेव! मेरा कल का प्रश्न अनुत्तरित है।  उस का उत्तर तत्काल जानने की इच्छा है।  यदि आप बता सकें तो आज की रात ही उसे स्पष्ट करें।

 हे, पाठक!
सूत जी बोले -सनत! अवश्य बताऊंगा। तुम निकट आ कर बैठो।
सनत सूत जी की शैया के निकट ही जा बैठा।  सूत जी कहने लगे -तुम्हारा प्रश्न था कि क्या वायरस दल चौथाई मतों के आस पास ही बना रहेगा, क्या इस से अधिक प्रगति नहीं कर पाएगा?
देखो भाई, यह युग पूँजी का युग है।  सारी सांसारिक गतिविधियों का संचालन पूँजी करती है।  पूँजी की शक्ति यह है कि वह सदैव स्वयं की वृद्धि के लिए काम करती है।  वस्तुतः पूँजी ही अपनी समृद्धि की आवश्यकताओं के लिए मर्त्यलोक पर राज्य करती है।  वह समय समय पर अपने अवरोधों को नष्ट  करती रहती है।  पूँजी सदैव मनुष्यों की बलि लेती है।  वह कभी किसी को उस के श्रम की पूरी कीमत नहीं देती।  यही उस की समृद्धि का रहस्य है।  वही उसे भोग पाता है जो उस पर नियंत्रण कर लेता है।  पूँजी की समृद्धि से ही किसी देश की समृद्धि आँकी जाती है।  जनतंत्र में जो महापंचायत है उस पर पूँजी ही का नियन्त्रण रहता है।  वह चुन चुन कर अपने सेवकों को महापंचायत में लाती है।  उस का प्रयत्न रहता है कि  महापंचायत उस के श्रेष्ठतम सेवकों के हाथों में बनी रहे।  सेवकों में इतनी कुशलता होनी चाहिए कि वे जनता का समर्थन लगातार प्राप्त करते रहें।   जनता के आक्रोश को विद्रोह की स्थिति तक न पहुँचने दें।  बैक्टीरिया दल उस का सब से अच्छा सेवक है।  यही कारण है कि उस ने सब तरह के साधनों और प्रयत्नों से उसे वापस महापंचायत में पहुँचाने में सफलता प्राप्त कर ली।
सूत जी थोड़ा रुके तो सनत बोल पडा़ -मेरा प्रश्न तो अनुत्तरित ही रह गया।


हे, पाठक!
सूत जी आगे बोले -तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इसी में छिपा है।  यथार्थ यह है कि लाल फ्राक वाली बहनों को छोड़ दें तो सभी मौजूदा दल पूँजी के चाकर हैं।  लेकिन उसे सब से अधिक पसंद वह है जो जनता में विद्रोह को रोके रखे और पूंजी स्ववृद्धि करती रहे।  अब हम वायरस दल की बात करें तो वह सदैव कुछ इस तरह का काम करता रहता है जिस से जनता संप्रदायों के आधार पर बंटी रहे।  उस दल की उत्पत्ति का आधार ही संप्रदाय है।  यह सही है कि जिस संप्रदाय का वह पक्षधर है वह भारतवर्ष का सब से बड़ा संप्रदाय है।  लेकिन उस की अनेक शाखाएँ हैं, ऊंच-नीच के विभाजन हैं।   इस कारण यह आधार उस की लोकप्रियता को संकुचित करता है।  इस संप्रदाय के आधे मत भी वह कभी प्राप्त नहीं कर सका और न कर सकेगा। इस कारण से  वायरस दल कभी भी अपनी चौधाई स्थिति से नहीं उबर सकेगा।  उसे अपने विकास के लिए अपना आधार बदलना पड़ेगा, और यदि वह ऐसा करता है तो वह फिर वायरस दल नहीं रह जाएगा।   इस के लिए उसे एक नया रूप चाहिए और एक नया नाम भी।  कुछ समझ आया सनत? -सूत जी ने पूछा।

-सब समझ आ रहा है।   सनत बोला -लेकिन आप ने लाल फ्रॉक वाली बहनों को पृथक क्यों रखा?

सूत जी बोले- वे यथार्थ में अन्य दलों से भिन्न थीं।  उन का उद्देश्य जनता को पूँजी पर बलि होने से मनुष्यों की रक्षा करना था।  लेकिन यह एक लम्बी कहानी है।  मुझे कण्ठ में रुक्षता अनुभव हो रही है, कुछ शीतल जल दो।
-अभी लाता हूँ गुरुदेव यह कह कर  सनत जल लाने के लिए उठा लेकिन जल ऊष्ण था।  वह दूरभाष पर यात्री निवास के सेवक को शीतल जल भेजने को कहने लगा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

14 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी भी एक बालसुलभ जिज्ञासा है शांत करें

    लेकिन आप ने लाल फ्रॉक वाली बहनों को पृथक क्यों रखा?

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  2. सूत जी अब डिरेल हो रहे हैं। पूंजी और साम्यवादी चक्कर में मती पड़ें। उनका ॠषित्व दाव पर लग जायेगा। तोगड़ियाटिक स्वर प्रतिपक्ष में मुखर होने लगते हैं! :)

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  3. मतलब कुछ ऐसा: रहिमन पूंजी राखिये. बिन पूंजी सब सून !

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  4. हमें तो लगा था कि सूत जी अब निकल लिए मगर ये तो अभी भी टिके हैं भई!!

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  5. पाण्डेय जी,
    आप को नहीं लगता कि उनका (सूत जी) 'अनवरत ' मानसिक संघर्ष पुराने फ्रेमवर्क को तोड़ देना चाहता है ?
    क्योंकि ये सब आपके मानसिक फ्रेमवर्क की इच्छानुसार नहीं है इसलिए हो सकता है वे 'डीरेल्ड' दिखाई देते हों.

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  6. इस कथा से हमेँ राजनीति के दाव पेँच काफी समझ मेँ आने लगे हैँ सो आपका शुक्रिया दीनेश भाई जी
    - लावण्या

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  7. जब हर शै दो में बंटी हो और सभी ऋषियों ने अपना-अपना पक्ष चुन लिया हो तो सूत जी के ऋषित्व का पक्षालंबी होना भी स्वाभाविक हैं अलबता वे सुप्रीम पक्षालंबी ऋषित्व को प्राप्त हो रहें हैं.

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  8. जनतन्तर की कथा सुनने आ गया हूं मैं भी। मजा आ रहा है!

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  9. सही, पूंजी यानी विश्व बैंक का चाकर हमारा हुक्मरान. लाल बहनें भी बंगाल में इसी पूंजी की चाकरी के लिए प्रतिस्पर्धा करने लगी थीं पर न खुदा ही मिला, न विसाले सनम

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  10. अब तथाकथित लाल फ्रॉक वाली बहनों की पृथकता भी शायद संदेह के घेरे में है..
    अभी भी वे अलग जरूर हैं, पर इस संदेह की उत्पत्ति के यक्षप्रश्नों से भटकाव उन्हें बुर्जुआ मुख्यधारा में ले ही आएगा...
    आप अपनी कथा में उनकी इस अलग छवि और अंतर्विरोधों पर प्रकाश डालें हे सूत जी...

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  11. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  12. Ek ziddi dhun,
    सही कहा आपने परंतु केवल विश्व बैंक की पूँजी का ही क्यों भारत के पूंजीपतियों का क्यों नहीं? शहरों में तो पहले ही लाल फ्राक की बहनों की कद्र नहीं थी और अब वे देहात में भी पिटने लगी क्योंकि भूमि सुधारों द्वारा जिस किसान को इन्होने ज़मीन दी थी वही ज़मीन आज देशी-विदेशी पूँजी को दरकार है. तीन खंडों में सत्ता हासिल करने के बाद इसे इन्कलाब की परिणति तक पहुँचाने का इनके पास न तो कोई प्रोग्राम था और न ही ये सत्ता सुख त्यागकर संसद से लोगों के बीच सड़कों पर उतर सकती थीं.

    इन्होने संसद-सुख अपनाकर लोगों पर बुर्जुआ ज़ुर्मों की इन्तहा कर दी जिसके लिए इन लाल फ्राक वाली बहनों को बुर्जुआओं का ही नहीं बल्कि वर्तमान चीन में सत्तासीन इन्हीं की तरह नकली कम्युनिस्ट भाईयों जो मार्केट आधारित समाजवाद की नयी खोज किए हुए हैं, देङ-पंथियों का भी नैतिक समर्थन हासिल था. ऐसे में सूत जी द्वारा "कण्ठ में रुक्षता अनुभव हो रही है, कुछ शीतल जल" की मांग जायज़ है.

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  13. लाल फ्राक वाली बहनों की शरारतें अब किसी को नहीं लुभातीं। उन्हें अच्छा सबक सिखाया लोगों ने।

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  14. आपकी कथा में रोचकता और नवीनता बनी है .

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....