हे, पाठक!
मन भर कर रबड़ी छक लेने के बाद भोजन मात्र औपचारिकता रह गई थी। भोजनशाला में अधिक देर नहीं लगी। सूत जी, सनत और उस का शिष्य तीनों भोजन कर बाहर आए तो अर्धरात्रि में अभी भी पाँच घड़ी समय शेष था। सनत के शिष्य को तो घर जाना था। तीनों पैदल ही टहलने निकले। सनत शिष्य को दूर तक छोड़ आए। बात करते करते वापस सितारा पहुँचे। बातें करने के लालच में सनत रात सूत जी के साथ ही रुक गया। सनत बता रहा था कि इस बार पता ही नहीं लग रहा है कि जनता क्या करेगी? सूत जी चाचा वंशजों के बारे में जानना चाहते थे।
हे, पाठक!
दोनों गुरू चेले शैयासीन हो कर बतियाने लगे। सनत बता रहा था। चाचा वंश के माँ बेटे तो संसद में पहुँच ही रहे हैं। पर इधर विद्रोही ने भी नाटक कम नहीं किया। पर माया ने उसे खूब अन्दर पहुँचाया। कोई दूसरा दल होता तो शायद इतनी साहस नहीं दिखाता। सूत जी ने सहमति व्यक्त की -हाँ, यह तो सही है कि वह महिला यदि सही रास्ते पर चले तो साहसी तो बहुत है। दलित उस के पीछे चल भी पड़े हैं, लेकिन उन में भी दल में वही लोग उच्च स्थान हथियाये हुए हैं जिन्हों ने गलत तरीकों से पैसा बना लिया है। इसी से उस के जीते हुए प्रत्याशी अवसर मिलने पर कहीं भी खिसकने को तैयार मिलते हैं। उस ने कुछ सवर्णों को अवश्य आकर्षित किया है। लेकिन दल में धनिक दलितों और गरीब दलितों का द्वैत भी बन चला है, सत्ता और आरक्षण का लाभ धनिक ही उठा रहे हैं, यह द्वैत माया को अवश्य ही ले डूबेगा। -गुरूदेव आप सच कहते हैं, ऐसा ही हो रहा है। सनत सूत जी की हाँ में हाँ मिलाता जा रहा था। -पर जिस तरह बहुत सारे दल खंड में मैदान में आ गए हैं उस में बैक्टीरिया दल को कुछ अतिरिक्त लाभ मिल सकता है।
हे, पाठक!
सनत बोला तो इस बार सूत जी ने भी हाँ भर दी कि हो सकता है पहले की अपेक्षा कुछ बढ़त मिल जाए। लेकिन बैक्टीरिया दल के पास अब आगे बढ़ने को कुछ रह भी नहीं गया है। वह यथास्थिति में फँस कर रह गई है। गरीबों के लिए उस के पास कुछ भी नया नहीं है। वह केवल और केवल वर्तमान अर्थव्यवस्था की गति को तेज करने का प्रयत्न करती है। अर्थव्यवस्था की गति तेज होती है तो आम लोगों को उस का तनिक लाभ मिलता ही है। उसी के भरोसे यह जनता में विश्वास बनाए हुए है। जिस दिन यह टूटेगा। तब लोग इसे छोड़ भागेंगे। सूत जी की इस बात पर सहमति व्यक्त करते हुए सनत कहने लगा -छोड़ तो अभी भी भाग लें, यदि कोई दूसरा विकल्प हो। इस समय कोई विकल्प खड़ा होने ले तो जनता के बीच काम कर सब को किनारे कर सकता है। लेकिन हालात ऐसे हैं, कोई विकल्प सामने आ ही नहीं रहा है। लोग जनतंतर से ऊबने लगे हैं, मत डालने से कतराने लगे हैं। सोचते हैं, मत देने से कुछ बदल तो रहा नहीं है। दे कर भी क्या करें? वैसे लाल फ्राक वाली बहनें कोशिश में लगी तो हैं।
हे, पाठक!
इस अंतिम बात पर सूत जी सनत से सहमत न हो सके। कहने लगे -पिटे पिटाए स्वयंभुओं को एकत्र करने भर से विकल्प नहीं खड़े होते। स्थाई और दीर्घकालीन विकल्प पीड़ित जनता के संगठनों को एक साथ एक लक्ष्य के साथ एकत्र करने से ही खड़ा हो सकता है। जो भी इन्हें एकत्र कर लेने का कठोर श्रम करेगा और अपने नेतृत्व में विश्वास पैदा कर सकेगा वही इन का नेतृत्व कर सकता है। सनत ने एक आह भरी - न जाने कब ऐसा होगा? सूत जी ने सनत में विश्वास जगाया -होगा अवश्य होगा। परिस्थितियों से जनता सीख रही है। जब दाल पकने लगेगी देगची का ढक्कन स्वयमेव ही भाप को बाहर निकलने को सरक लेगा। सूत जी बोले अब रात बहुत हो चली है। कुछ निद्रा भी ले लें। सुबह फिर आगे की योजना भी बनानी है। दोनों गुरू-शिष्य शीघ्र ही खर्राटे लेने लगे। सनत शिष्य बुद्धिमान था जो यहाँ से सरक लिया। वरना इधर रुक जाता तो उसे तो खर्राटों में सारी रात जागना ही पड़ता।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
अच्छा हुआ सूत सनत विश्राम किये -उन्हें भी आराम करना चाहिए ! नहीं तो जन्तन्तर चर्चा बीच में नहीं रूक जायेर्गी ? अभी तो १६ और आगे भी इसे चलना ही है !
जवाब देंहटाएंबहुत अबाध गति से चल रही है कथा. जय हो.
जवाब देंहटाएंबोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
रामराम.
बड़ा जटिल लिखा है मित्र
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चल रही है कथा. सूतजी के सफ़र में आगे क्या हुआ? किस दिशा में चले वो... दक्षिण जाना कब हो रहा है?
जवाब देंहटाएंचलती रहे कथा तभी तो अपुन लोग का ज्ञानवर्धन होगा .
जवाब देंहटाएंसूत सनत्कुमार चुनाव के चक्कर में ब्रह्मविद्या से विपथ हुये चले जा रहे हैं। ये ऋचायें कब रचेंगे?!
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