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शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

सच कहा........

महेन्द्र 'नेह' का एक और गीत

सच कहा 


सच कहा
   सच कहा
     सच कहा

बस्तियाँ बस्तियाँ सच कहा
कारवाँ कारवाँ सच कहा

सच कहा जिंदगी के लिए
सच कहा आदमी के लिए
सच कहा आशिकी के लिए

सच कहा, सच कहा, सच कहा

सच कहा और जहर पिया
सच कहा और सूली चढ़ा
सच कहा और मरना पड़ा

पीढ़ियाँ पीढ़ियाँ सच कहा
सीढ़ियाँ सीढ़ियाँ सच कहा

सच कहा, सच कहा, सच कहा

सच कहा फूल खिलने लगे
सच कहा यार मिलने लगे
सच कहा होठ हिलने लगे

बारिशें बारिशें सच कहा
आँधियाँ आधियाँ सच कहा

सच कहा, सच कहा, सच कहा
                            -महेन्द्र नेह

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बेहतरीन रचना ’सच कहा’ -कितनी सत्य-आभार आपका महेन्द्र नेह जी को पढ़वाने का.

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  2. अजी बहुत सारा सच कहा, बहुत सुंदर सच के लिये एक सची टिपण्णी भी हमारी ओर से.
    धन्यवाद

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  3. आंखों ने पढा,
    जुबां नही होती आंखों की।
    महसूस किया मन ने,
    पर
    नहीं जुबां मन के पास भी।
    जुबां की होती नहीं नजर,
    बिना देखे कहे क्‍या वह?
    तय हुआ
    मिल कर बोलेंगे तीनों।
    और तीनों बोले,
    सच कहा! सच कहा! सच कहा!

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  4. सच कहा...बहुत सुंदर गीत-रचना...
    शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुन्दर रचना। वैसे सच का कमिटमेण्ट कितना तनाव जेनरेट करता है कि क्या बतायें।
    सच हमें मुक्त भी करता है और सीमाओं में भी बांधता है। बहुत उधेड़बुन है।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर रचना। वैसे सच का कमिटमेण्ट कितना तनाव जेनरेट करता है कि क्या बतायें।
    सच हमें मुक्त भी करता है और सीमाओं में भी बांधता है। बहुत उधेड़बुन है।

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