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शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

अनिल पुसदकर जी, संजीत त्रिपाठी और पाबला जी के साथ दोपहर का भोजन

 त्रयम्बक जी के जाने के पहले ही एक फोन पुसदकर जी के पास आया।  फोन पर उत्तर देते हुए पुसदकर जी ने  कहा कि वे किसी मेहमान के साथ प्रेस क्लब में व्यस्त हैं, अभी नहीं आ सकते हाँ मिलना हो तो वे खुद प्रेस क्लब आ जाएँ।  खुद पुसदकर जी ने बताया कि यह रायपुर के मेयर का फोन था।  मुझे बुला रहा था, मैं ने उसे यहाँ आने के लिए कह दिया है।  कुछ देर में ही रायपुर के नौजवान मेयर सुनील सोनी अपने एक सहायक के साथ वहाँ विद्यमान थे।  पुसदकर जी ने मेरा व पाबला जी का मेयर से परिचय कराया और फिर मेयर को कहने लगे कि वे प्रेस क्लब और पत्रकारों के लिए उतना नहीं कर रहे हैं जितना उन्हें करना चाहिए।  उसी समय उन्हों ने संजीत त्रिपाठी को कुछ लाने के लिए कहा।  संजीत जो ले कर आए वह एक खूबसूरत मोमेण्टो था।  उन्हों ने मेयर को कहा कि प्रेस क्लब द्विवेदी जी के आगमन पर उन्हें मोमेंटो देना चाहता था।  अब जब आप आ ही गए हैं तो यह आप के द्वारा ही दिया जाना चाहिए।  आखिर मेयर ने मुझे प्रेस क्लब की वह मीठी स्मृति मोमेंटो भेंट की।  कॉफी के बाद मेयर वहाँ से प्रयाण कर गए।

तब तक दो बजने को थे।  पुसदकर जी ने हमें दोपहर के भोजन के लिए चलने को कहा।  हम सभी नीचे उतर गए।  पुसदकर जी की कार में हम तीनों के अलावा केवल संजीत त्रिपाठी थे। पुसदकर जी  खुद वाहन ड्राइव कर रहे थे।  वे कहने लगे अगर समय हो तो भोजन के बाद त्रिवेणी संगम है वहाँ चलें, यहाँ से तीस किलोमीटर दूर है।  मैं ने और पाबला जी ने मना कर दिया इस में रात वहीं हो जाती।  मैं उस दिन रात का खाना अपने भाई अवनींद्र के घर खाना तय कर चुका था, यदि यह न करता तो उसे खास तौर पर उस की पत्नी को बहुत बुरा महसूस होता।  मैं पहले ही उसे नाराज होने का अवसर दे चुका था और अब और नहीं देना चाहता था। अगले दिन मेरा दुर्ग बार में जाना तय था और कोटा के लिए वापस लौटना भी।  रास्ते मे पुसदकर जी रायपुर के स्थानों को बताते रहे, यह भी बताया कि जिधर जा रहे हैं वह वही क्षेत्र है जहाँ छत्तीसगढ़ की नई राजधानी का विकास हो रहा है।  कुछ किलोमीटर की यात्रा के बाद हम एक गेस्ट हाऊस पहुंचे जो रायपुर के बाहर था जहाँ से एयरपोर्ट और उस से उड़ान भरने वाले जहाज दिखाई दे ते थे। बीच में हरे खेत और मैदान थे।  बहुत सुंदर दृश्य था।  संजीत ने बताया कि यह स्थान अभी रायपुर से बाहर है लेकिन जैसे ही राजधानी क्षेत्र का विकास होगा यह स्थान बीच में आ जाएगा।

किसी ने आ कर बताया कि भोजन तैयार है। बस चपातियाँ सेंकनी हैं।  हम हाथ धोकर अन्दर सजी डायनिंग टेबुल पर बैठ गए।  भोजन देख कर मन प्रसन्न हो गया। सादा सुपाच्य भोजन था, जैसा हम रोज के खाने में पसंद करते हैं।  सब्जियाँ, दाल, चावल और तवे की सिकी चपातियाँ।  पुसदकर जी कहने लगे भाई कुछ तो ऐसा भी होना चाहिए था जो छत्तीसगढ़ की स्मृति बन जाए, लाल भाजी ही बनवा देते।  पता लगा लाल भाजी भी थी।  इस तरह की नयी खाद्य सामग्री में हमेशा मेरी रुचि बनी रहती है।  मैं ने भाजी के पात्र में हरी सब्जी को पा कर पूछा यह लाल भाजी क्या नाम हुआ।  संजीत ने बताया कि यह लाल रंग छोड़ती है।  मैं ने अपनी प्लेट में सब से पहले उसे ही लिया।  उन का कहना सही था। सब्जी लाल रंग छोड़ रही थी।  उसे लाल के स्थान पर गहरा मेजेण्टा रंग कहना अधिक उचित होगा।  संजीत ने बताया कि यह केवल यहीं छत्तीसगढ़ में ही होती है, बाहर नहीं।  सब्जी का स्वाद बहुत कुछ हरी सब्जियों की ही तरह था। सब्जी अच्छी लगी।  उसे खाते हुए मुझे अपने यहाँ के विशेष कट पालक की याद आई जो पूरी सर्दियों हम खाते हैं। बहुत स्वादिष्ट, पाचक और लोह तत्वों से भरपूर होता है और जो हाड़ौती क्षेत्र में ही खास तौर पर होता है, बाहर नहीं। हम उसे देसी पालक कहते हैं। दूसरी चीज जिस की मुझे याद आई वह मेहंदी थी जो हरी होने के बाद भी लाल रंग छोड़ती है।

भोजन के उपरांत हमने करीब दो घंटों का समय उसी गेस्ट हाउस में बिताया।  बहुत बातें होती रहीं।  छत्तीसगढ़ के बारे में, रायपुर, दुर्ग और भिलाई के बारे में, बस्तर और वहाँ के आदिवासियों के बारे में माओवादियों के बारे में और ब्लागिंग के बारे में, ब्लागिंग के बीच समय समय पर उठने वाले विवादों के बारे में।  माओवादियों के बारे में पुसदकर जी और संजीत जी की राय यह थी कि वास्तव में ये लोग किसी वाद के नहीं है, उन्हों ने केवल माओवाद और मार्क्सवाद की आड़ ली हुई है, ये पड़ौसी प्रान्तों के गेंगेस्टर हैं और यहाँ बस्तर के जंगलों का लाभ उठा कर अपने धन्धे चला रहे हैं।  इन का आदिवासियों से कोई लेना-देना नहीं है।  आदिवासी भी एक हद तक इन से परेशान हैं।  इन का आदिवासियों के जीवन और उत्थान से कोई लेना देना नहीं है।  पुसदकर जी कहने लगे कि कभी आप फुरसत निकालें तो आप को बस्तर की वास्तविकता खुद आँखों से दिखा कर लाएँ।  ब्लागिंग की बातों के बीच संजीत ने छत्तीसगढ़ में एक ब्लागर सम्मेलन की योजना भी बनाने को पुसदकर जी से कहा।  उन्हों  ने कोशिश करने को अपनी सहमति दी। 

चार बजे के बाद कॉफी आ गई जिसे पीते पीते हमें शाम के वादे याद आने लगे।  मैंने चलने को कहा।  हम वहाँ से प्रेस क्लब आए तब तक सांझ घिरने लगी थी।  हमने संजीत और पुसदकर जी से विदा ली। वे बार बार फुरसत निकाल कर आने को कहते रहे और मैं वादा देता रहा।  मुझे भी अफसोस हो रहा था कि मैं ने क्यों रायपुर के लिए सिर्फ आधे दिन का समय निकाला।  पर वह मेरी विवशता थी। मुझे शीघ्र वापस कोटा पहुँचना था।  दो फरवरी को बेटी पूर्वा के साथ बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) जो जाना था।   हम संजीत और पुसदकर जी से विदा ले कर पाबला जी की वैन में वापस भिलाई के लिए लद लिए।

कल के आलेख पर आई टिप्पणियों में एक प्रश्न मेरे लिए भारी रहा कि मैं ने संजीत के लिए कुछ नहीं लिखा।  इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मेरे लिए आज भी कठिन हो रहा है।  मुझे पाबला जी के सौजन्य से जो चित्र मिले हैं उन में संजीत एक स्थान पर भी नहीं हैं।  वे रायपुर में छाया की तरह हमारे साथ रहे।  वार्तालाप भी खूब हुआ। लेकिन? पूरे वार्तालाप में व्यक्तिगत कुछ भी नहीं था।  उन के बारे में व्यक्तिगत बस इतना जाना कि वे पत्रकार फिर से पत्रकारिता में लौट आए हैं और किसी दैनिक में काम कर रहे हैं जिस का प्रतिदिन एक ही संस्करण निकलता है।  वास्तव में उन के बारे में मेरी स्थिति वैसी ही थी जैसे किसी उस व्यक्ति की होती जो वनवास के समय राम, लक्ष्मण से मिल कर लौटने पर राम का बखान कर रहा होता और जिस से लक्ष्मण के बारे में पूछ लिया जाता।  मिलने वाले का सारा ध्यान तो राम पर ही लगा रहता लक्ष्मण को देखने, परखने का समय कब मिलता? और राम के सन्मुख लक्ष्मण की गतिविधि होती भी कितनी? मुझे लगता है संजीत को समझने के लिए तो छत्तीसगढ़ एक बार फिर जाना ही होगा।  हालांकि संजीत खुद अपने बारे में कहते हैं कि वे जब से जन्मे हैं रायपुर में ही टिके हुए हैं।  उन्हों ने अपना कैरियर पत्रकारिता को बनाया।  उस में बहुत ऊपर जा सकते थे।  लेकिन? केवल रायपुर न छोड़ने के लिए ही उन्हों ने पत्रकारिता को त्याग दिया और धंधा करने लगे।  मन फिर पत्रकारिता की ओर मुड़ा तो वे किसी छोटे लेकिन महत्वपूर्ण समाचार पत्र से जुड़ गए।  उन की विशेषता है कि वे स्वतंत्रता सेनानियों के वंशज हैं और आज भी उन्हीं मूल्यों से जुड़े हैं।  खुद खास होते हुए भी खुद को आम समझते हैं।  आप खुद समझ सकते हैं कि उन्हें समझने के लिए खुद कैसा होना होगा?

22 टिप्‍पणियां:

  1. वनवास के समय राम, लक्ष्मण से मिल कर लौटने पर राम का बखान कर रहा होता और जिस से लक्ष्मण के बारे में पूछ लिया जाता। मिलने वाले का सारा ध्यान तो राम पर ही लगा रहता लक्ष्मण को देखने, परखने का समय कब मिलता?
    दिनेश जी बहुत ही सुंदर शव्दो मे आप नेसंजीत जी के बारे बताया,आप की यह यात्रा बहुत प्यारी लगी, ओर लाल सब्जी सुन कर मुंह मे पानी आ गया, मुझे भी नयी नयी चीजे खाने का शोक है, अनिल जी की मेहमान नवाजी भी उन जेसी अच्छी लगी,
    आप का धन्यवाद इस सुंदर लेख के लिये

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  2. अच्छा लगा आपकी यात्रा और मुलाकात का वर्णन! हाँ...लाल भाजी मैंने भी खायी है पर मुझे ख़ास पसंद नहीं आई थी!हो सकता है तब अच्छी न बनी हो!

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  3. द्विवेदी जी बहुत बढ़िया वर्णन्। संजीत बहुत ही नेक, जहीन और दिल का अच्छा इंसान है।

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  4. संजीत को समझने के लिए तो छत्तीसगढ़ एक बार फिर जाना ही होगा।

    वाह! हमें एक और बहाना मिला, द्विवेदी जी को खींच लाने का :-)

    पाबला जी के सौजन्य से जो चित्र मिले हैं उन में रायपुर में छाया की तरह हमारे साथ रहे, संजीत एक स्थान पर भी नहीं हैं।

    भई, मेरे मनोमष्तिक के केंद्रबिंदु में तो द्विवेदी जी थे। इसलिए थोड़ी गफलत हो गयी :-)

    यात्रा विवरण बहुत अच्छा लग रहा है।

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  5. आपके यात्रा वृतांत का मजा ले रहे हैं चटखारे ले लेकर.

    रामराम.

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  6. दिनेश भाई जी , आज सँजीत जी से मिलकरभी खुशी हुई -- हमेँ आप सभी को सँग देख कर हुई !! :)
    और मेम्हदी जैसी लाल भाजी तो कभी ना खाई ना उसके बारे मेँ सुना ही कभी - वाह !
    अच्छा लिखा मिलन का वृताँत --

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  7. उस सब्जी में मेरी भी रूचि बढ़ रही है -पुसदकर जी पढ़ रहे हों तो अडवांस में यह मीनू नोट कर लें !

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  8. sanjeet sabse pahale mere pass 2002 me tab aaye jab mai jansatta ke raipur edition ke sampadak ki jimmedari nibha raha tha .usase pahale tatkaleen mukhyamantri yani ajit jogi ke yeha se humare prabandhan ko sandesh bhi bheja gaya tha.yeh jankari milte hi maine tai kar liya tha ki 10-15 din bad unhe bahar jana hoga kyoki sifarish ka arth kam nahi aana hota hai.par sirf kaam ke chalte hi sanjeet haumari team ka hissa bane rahe .ab aur behatar likh rahe hai.lal bhaji sahi me swadist hoti hai.

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  9. संजीत भाई (जिन्हें मैं सुनील कहता हूँ) की दो तस्वीरें लगा रखी हैं आपने… असली वाली कौन सी है? बालों वाली या विग वाली? :) :) :) पुसदकर जी एक रायपुर में ब्लॉगर सम्मेलन करवाकर ही रहेंगे… और मध्यप्रदेश में रहने वाले ब्लॉगरों को आने-जाने का किराया और मध्यप्रदेश के बाहर से उस सम्मेलन में आने वालों को "लाल भाजी" प्रदान की जायेगी… यह घोषणा भी की गई है…

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  10. अपनत्‍व लिए, आनन्‍ददायक विवरण। ऐसी प्रस्‍तुतियों में व्‍यावहारिक कठिनाई यही होती है कि किसी न किसी के साथ अत्‍याचार हो ही जाता है।

    लाल भाजी केवल उसी अंचल में होती है। मैंने बरसों तक इसका भरपूर सेवन किया है। 'सितारा' होटलो के बारे में तो मालूम नहीं किन्‍तु 'ढाबा' किस्‍त की सभी होटलों में यह सहजता और प्रचुरता से आगे बढकर 'अनिवार्यत:' मिलती ही मिलती है।

    आपने उसी का स्‍वाद याद दिला दिया।

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  11. प्रभो प्रभो, पिछली पोस्ट में अजीत भैया ने शिकायत की कि संजीत की चर्चा कम की पर इस पोस्ट में मुझे लग रहा है किस संजीत की चर्चा ज्यादा हो गई।
    Shy nature का होने के कारण बड़ा अजीब सा लगने लगता है अगर ऐसी किसी चर्चा मुझे पर ही केंद्रित हो जाए।

    बस आप सबका आशीर्वाद है जो स्नेह के रूप में मुझे मिल रहा है और मिलता रहेगा ऐसी आशा है।

    सूचना, जिन-जिन को लाल भाजी चखनी हो फौरन छत्तीसगढ़/रायपुर आने का कार्यक्रम बनाएं।

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  12. badhiya varnan..laal bhaaji hamarey ..jharkhand me shayad laal saag ke naam se milti hai..

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  13. वकील साब आपका बडप्पन है जो आपने हम जैसे छोटे भाईयो की इतनी तारीफ़ कर दी जिसका हक़दार कम-से-कम मैं तो नही हूं।वैसे आपके जाने के बाद हमको भी लगा की मुलाक़ात क़ाफ़ी छोटी थी।उसे कई गुना ज्यादा बडी होना था।खैर उम्मीद है आप अगली बार आएंगे तो उस कमी को दूर ज़रूर कर देंगे।आपका हमेशा स्वागत है छत्तीसगढ मे,और हम लोगो को इंतज़ार रहेगा आपके आने का।

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  14. रायपुर यात्रा वृदांत पढ़कर अच्छा लगा. धन्यवाद.

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  15. आदरणीय पंडित जी, कृपया पुसदकर जी तक यह संदेश पहुँचा दें, कि इस सब्जी का नाम भी दें.. कहीं यह चुकंदर प्रजाति की कोई सब्जी तो नहीं,
    क्योंकि यह बंगाल में एक प्रचलित सब्जी है, और देशी पालक पर आपका ही एकाधिकार नहीं, यह अवध में भी होती है.. पसंद की जाती है.. और देशी कहलाने के बावज़ूद भी सामन्य पालक से मँहगी होती है.. और खुशबू ?
    अय..हय, आपका टिप्पणी बक्सा लार से भी ग जायेगा :)

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  16. @ डा० अमर कुमार
    डाक्टर साहब! मुझे अवध का पता नहीं था। क्यों कि अवध के जो लोग इधर रहते हैं वे इस से परिचित नहीं। पर जिस तरह उस के स्वाद का वर्णन किया है, लगता है वही है।
    मैं ने लाल भाजी के बारे में पूछा था लेकिन वहाँ इसे लाल भाजी ही कहा जाता है। पत्ते की सब्जी बनती है और चुकन्दर से बिलकुल भिन्न है। हाँ वैज्ञानिक नाम के बारे में तो रायपुर के डॉ. अवधिया जरूर बता देंगे। उन से पूछ देखते हैं।

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  17. वाह! यह वृतान्त पढ़कर ब्लॉगरिया-अपनत्व का भाव और मजबूत हो उठा। धन्यवाद।

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  18. बहुत ही बढ़िया लगा आपका यह यात्रा वर्णन बहुत से लोगों से मिल लिए आप तो ..लाल भाजी मैंने भी पहली बार सुनी ..

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  19. वाह...रायपुर प्रवास की यह कड़ी कुछ विशिष्ट सी लगी। लालभाजी हमें बहुत प्रिय है। यहां खूब मिलती है...इसे चावल के साथ भी खाया जाता है...

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  20. यात्रा वृतान्त अच्छा लगा। खासतौर पर भ्राता लक्ष्मण का उल्लेख। अन्तर्जाल पर संजीत की शख्सियत एक मददगार की है जो हर समय मदद करने को तत्पर रहता है। अपने इस खास स्वभाव के कारण कई लोग उन्हें जानते हैं।

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  21. संजीत के बारे में और अधिक जानने की चाह भी मुझे आपके पीछे की पोस्ट्स की ओर खींच लाई थी। जहाँ तक मैं उन्हें जानती हूँ वे बहुत से लोगों को हिन्दी ब्लॉगिंग में लाए। मेरी व न जाने कितने ब्लॉगरों की सहायता को सदा तत्पर रहे हैं। उनसे बात करके सदा खुशी होती है।
    धन्यवाद।

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  22. लाल भाजी मेरे विचार से लाल चौलाई है। इसे अंग्रेजी में amaranthus कहा जाता है। amaranthus के ही बीजों को ही फुलाकर चौलाई(शायद रामदाना भी कहा जाता है) के लड्डू बनते हैं,जो उपवास में खाए जाते हैं। हरी चौलाई भी इसी की एक प्रजाति है।लाल amaranthus के फूल रानी रंग के होते हैं। हरी भाजी के हल्के हरे से रंग के। एक सजावटी किस्म के रानी रंग के जो सूखने पर भी वैसे ही बने रहते हैं।
    घुघूती बासूती

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
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