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मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

मेरे सीने में आग पलती है

और  आज पढिए पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़ल "मेरे सीने में आग पलती है"


ग़ज़ल
मेरे सीने में आग पलती है
  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

अपने उद्गम से जब निकलती है
हर नदी तेज़-तेज़ चलती है

टकरा-टकरा के सिर चटानों से
धार क्या जोश में उछलती है

गोद पर्वत की छोड़ कर नदिया
आ के मैदान में सँभलती है

जाने क्या प्यास है कि मस्त नदी
मिलने सागर से क्या मचलती है

ख़ुद को कर के हवाले सागर के
कोई नदिया न हाथ मलती है

शैर मेरे कहाँ क़याम करें
अब ग़ज़ल की ज़मीन जलती है

नाम सूरत लिबास सब बदला
फिर भी सीरत कहाँ बदलती है

कैसे तुझ को बसा लूँ दिल में ‘यक़ीन’
मेरे सीने में आग पलती है

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15 टिप्‍पणियां:

  1. पंडित जी आज तो आप कानून की किताबों और गलियारों से निकल कर आए। अच्‍छा लगा। पुरुषोत्‍तम जी की की गजल अच्‍छी लगी। आप दोनों का आभार।

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  2. बहुत सुंदर गजल प्रस्तुत करने के लिए आभार.

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  3. गजल तो सदैव की तरह 'शानदार-जानदार' है ही किन्‍तु जिस रंग विधान में उसकी प्रस्‍तुति हुई है, वह गजल के प्रभाव को केवल 'सहस्रगुना' ही नहीं करता, 'गजल' को 'बोलती गजल' बना रहा है। आप उत्‍कृष्‍ट 'कला निदेशक' के रूप में प्रकट हुए हैं।

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  4. "कैसे तुझ को बसा लूँ दिल में ‘यक़ीन’
    मेरे सीने में आग पलती है"

    गजब की अभिव्यक्ति, सशक्त निर्देश !!

    हां चित्र आपने बडे जतन से ढूंढ निकाले हैं!!

    सस्नेह -- शास्त्री

    पुनश्च: उम्मीद है कि अन्य लेखकों की रचनाये शामिल करने के बाद अनवरत-सप्तरंग निखरेगा!!

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  5. वाह पंडीत जी वाह,बढिया गज़ल पढने का मौका देने का आभार्।

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  6. हमसे पूछें तो सटीक चित्र संकलित करना ग़ज़ल लिखने से ज्यादा मुश्किल काम है. ग़ज़ल अच्छी थी. आभार.

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  7. इसे पढने के बाद यकीन जी की और ग़ज़लें पढने का मन होने लगा है

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  8. नाम सूरत लिबास सब बदला
    फिर भी सीरत कहाँ बदलती है//bahut khuub...sundar gazal

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  9. बहुत ही बेहतरीन गज़ल प्रेषित की है।आभार।

    ख़ुद को कर के हवाले सागर के
    कोई नदिया न हाथ मलती है

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  10. बहुत बेहतरीन, प्रस्तुती भी लाजबाव.
    धन्यवाद

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  11. बेहतरीन कृति पढवाने का शुक्रिया जी !
    - लावण्या

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  12. अंतिम दो लाईनें जबरदस्त

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