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शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !

 आज के आम मनुष्य को अपनी रोटी कमाने से ले कर जीवन स्तर पर टिके रहने के लिए जिस कदर व्यस्त रहना पड़ रहा है उस में कई सवाल खड़े होते हैं। क्या मनुष्य ने इतना ही व्यस्त रहने के लिए इतनी प्रगति की थी? इन्हीं प्रश्नों से जूझता है, महेन्द्र 'नेह' का यह गीत ....





'गीत'       
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !    

दौड़, भोर से        
शुरू हो गई                       
हॉफ रहीं                           
बोझिल संध्याऐं !                        
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !                   

तंत्र मंत्रों से तिलिस्मों से                   
बिंधा वातावरण                       
प्रश्न कर्ता मौन हैं    
हर ओर            
अंधा अनुकरण    
वेगवती है                           
भ्रम की आँधी                           
कांप रहीं                            
अभिशप्त दिशाऐं !                       
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !                   

सेठ, साधु, लम्पटों के                    
एक से परिधान                       
फर्क करना कठिन है                    
मिट गई है इस कदर पहचान                
नग्न नृत्य                           
करती सच्चाई                           
नाच रहीं                           
अनुरक्त ऋचाऐं                       
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !                   

14 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद नेह जी के काव्य के लिये
    और हाँ २००९ शुभ हो -
    आपके समस्त परिवार के लिये -

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  2. दौड़, भोर से
    शुरू हो गई
    हॉफ रहीं
    बोझिल संध्याऐं !
    मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
    आज की सच्चाई कविता के रुप मै लिख दी, बहुत सुन्दर.
    महेन्द्र नेह जी का दिली धन्यवाद, ओर नव वर्ष मंगल मय हो,
    आप का भी बहुत बहुत धन्यवाद इस कविता को हम तक पहुचाने का.

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  3. बहुत बढ़िया बात दिल को छू गयी!

    ---
    तखलीक़-ए-नज़र
    http://vinayprajapati.wordpress.com

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  4. "वेगवती है
    भ्रम की आँधी
    कांप रहीं
    अभिशप्त दिशाऐं !"

    अत्यन्त प्रभावी रचना.महेन्द्र 'नेह' जी की रचना के लिये आपको धन्यवाद.

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  5. बहुत ही सुन्दर और यथार्थपरक।
    Wordsworth की याद ताज़ा हो
    गई:-
    What is this life so full of care;
    We have no time to stand and stare.
    इतनी अच्छी कविता के लिये आभार।

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  6. नेह जी की अभिव्यक्ति बहुत सुंदर होती है-

    सेठ, साधु, लम्पटों के
    एक से परिधान
    फर्क करना कठिन है
    मिट गई पहचान

    ये पंक्तियां मनभायीं...

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  7. बहुत सत्य और सशक्त अभिव्यक्ति ! नेह जी को नमन !

    रामराम !

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  8. बहुत सुंदर शुक्रिया इसको पढ़वाने के लिए

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  9. सेठ, साधु, लम्पटों के
    एक से परिधान
    फर्क करना कठिन है
    मिट गई है इस कदर पहचान
    कविता नहीं, यह तो परिदृश्‍य का यथास्थिति चित्रण है ।

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  10. सच है - तृष्णा है तो मृगतृष्णा है

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  11. वेगवती है
    भ्रम की आँधी
    कांप रहीं
    अभिशप्त दिशाऐं ...

    बहुत सुंदर गीत.नेह साब को बहुत-बहुत बधाई इस रचना पर द्विवेदी जी को ढ़ेर सारा धन्यवाद इसे पढ़वाने के लिये

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