आज अब्दुल करीम तेलगी याद आ रहा है। काश वह पकड़ा न गया होता, उस का कारोबार बदस्तूर जारी होता और मुझे मिल जाता। मैं उस से छोटा सा सौदा करता कि वह मुझे जरूरत के स्टाम्प सप्लाई करता रहे।
कुछ दिन पहले एक दावा पेश किया था। मात्र ढाई लाख रुपए की वसूली का था। कोर्ट फीस अर्थात न्याय शुल्क के लिए स्टाम्प चाहिए थे, कुल रुपए 12, 115 रुपयों के। पाँच-पाँच हजार के दो स्टाम्प मिले और शेष 2515 के लिए 75 रुपए के 33 स्टाम्प और चालीस रुपए के चिपकाने वाले टिकट लगाकर 12, 115 रुपयों का सेट बनाया गया। कुल 35 स्टाम्प पेपर हुए। इन में से दावा टाइप हुआ केवल चार पेज पर शेष 31 पेपर पर लिखना पड़ा कि यह कोर्टफीस स्टाम्प फलाँ दावे के साथ संलग्न है।
एक स्टाम्प पेपर का कागज कम से कम एक रुपए का जरूर होगा। इस से अधिक का भी हो सकता है। उस पर उस की तकनीकी छपाई। वह भी कम से कम एक-दो रुपए की और होगी। इस तरह एक पेपर पर तीन रुपए का खर्च। 31 स्टाम्प बेकार हुए यानी 100 रुपए पानी में गए। 31 स्टाम्पों पर इबारत लिखने में श्रम हुआ वह अलग। इस से फाइल मोटी हो गई। उस के रख रखाव के लिए अदालत को अधिक जगह चाहिए। उठाने रखने में अधिक श्रम होगा वह अलग। फाइल की मोटाई देख कर जज डरेगा कि न जाने क्या होगा इस फाइल में ? तो अदालत में मुकदमों की इफरात के इस युग में फाइल की मोटाई दूर से देख कर ही जज रीडर को उस की तारीख बदलने को बोलेगा। मुकदमे के निपटारे में देरी लगेगी सो अलग। अगर हजार रुपए वाले और पाँच सौ रुपए के तो स्टाम्प होते केवल पाँच। 29 बेशकीमती कागज बचते। उन्हें बनाने के लिए काटे जाने वाला एक आध पेड़ बचता।
राजस्थान सरकार ने कोर्टफीस बढ़ा दी। पता लगा 4640 रुपए के कोर्टफीस स्टाम्प और लगाने होंगे। खरीदने गए तो पता लगा पाँच हजार से नीचे केवल पचास रूपए का स्टाम्प उपब्ध है। 4640 रुपयों के लिए गिनती में आएंगे कम से कम 93 स्टाम्प। इन सब पर लिखना पड़ेगा कि ये किस दावे के साथ संलग्न है। वरना दावा आगे नहीं बढ़ेगा। अब 93 बेशकीमती कागज और नत्थी होंगे। फाइल चार गुना मोटी हो जाएगी। क्या हाल होगा मुकदमे का? कितने पेड़ काटे जाएँगे?
चक्कर यह है कि स्टाम्प कहीं छपते हैं। फिर राज्य सरकार उन्हें खरीदती है। फिर जिला कोषागारों को भेजती है। जहाँ से स्टाम्प वेण्डर इन्हें खरीदते हैं। स्टाम्प वेंडर क्या करें जिला कोषागार में ही स्टाम्प उपलब्ध नहीं है। तेलगी पता नहीं किस जेल में सश्रम कारावास काट रहा है? उस से स्टाम्प के छापाखाने और देश भर में वितरण का काम इस जेल श्रम के बदले करवाया लिया जाए तो सरकार और देश को घाटा नहीं होगा। कम से कम नौकरशाहों से तो अच्छा ही प्रबंधन वह कर सकता है। इन से घटिया तो वह शर्तिया ही नहीं होगा। जनता को भी राहत मिलेगी और जजों को भी। फाइलें भारी नहीं होंगी और पेड़ भी कम काटे जाएंगे।
पेड़ों के बारे में आपने इतना सोचा और पुण्य का कार्य किया अन्यथा किसे फिकर है. हमने सुना था कि फ्रांकिंग मशीन का प्रयोग कहीं हो रहा है. स्टंप पेपर छापने की जगह चिपकाने वाले (हाइ वॅल्यू) स्टंप लागू कर दें तो बर्बादी काफ़ी रुक जाएगी. आभार.
जवाब देंहटाएंअच्छा, तेलगी जी ने बहुत देश सेवा करी थी। उन्हें पर्यावरण मित्र तो घोषित किया जाना चाहिये।
जवाब देंहटाएंकुछ और समाधान निकलना चाहिये स्टाम्प पेपर का।
यह शुद्ध रूप से लचर प्रबन्धन का उदाहरण है। यहाँ उत्तर प्रदेश के कोषागारों में तो इसकी उल्टी समस्या है। सरकार स्टाम्प से होने वाली आय को बढ़ाने के लिए इतना जोर लगाती है कि कोषागारों की स्टॉक क्षमता से अधिक स्टाम्प की आपूर्ति सेक्योरिटी प्रेस के डिपो से करा दी जाती है।
जवाब देंहटाएंसभी कोषागारों और उपकोषागारों में जनता को सीधी बिक्री के लिए काउन्टर खोले गये हैं। जहाँ से मुद्रित मूल्य पर कोई भी इन्हें अपनी जरूरत के डिनोमिनेशन का स्टाम्प खरीद सकता है। स्टाम्प वेन्डरों को भी अधिक से अधिक स्टाम्प लेने के लिए दबाव बनाया जाता है।
सरकार रोज इससे होने वाली आय को बढ़ाने के लिए जोर लगाती है। सरकारी अधिकारी भी लक्ष्य पूरा करने के लिए चिन्तित रहते हैं। कभी कभी तो डिपो से जबरिया इतना स्टाम्प आ जाता है कि रखने के लिए स्थान कम पड़ जाता है यहाँ।
तेलगी साहब इस काम को सिर्फ़ पांच प्रतिशत खर्च मे निपटा सकते हैं ! और उसमे से भी करोडों रुपये कमा लेंगे :)
जवाब देंहटाएंवैसे फ़्रेन्किन्ग मशीन का उपयोग क्यों नही किया जा रहा है ? यह समझ से बाहर की बात है !
आदमी अपना दावा लिख कर लेजाये और उन पर देय कोर्ट फ़ीस चुका कर स्टाम्पिन्ग करवा ले !
राम राम !
एक विचारोत्तेजक मुद्दा उठाया है हमारी बहरी और अंधी सरकार के सामने - पर क्या करें, वह न पढ़ सकते हैं न सुन सकते है। तो वही बात हुई ना- भैंस के आगे बीन.... या फिर, कह सकते है -हमारी सरकार ‘पेन्नी वाइज़, पौंड फूलिश’ को सार्थक कर रही है।
जवाब देंहटाएंसही मुद्दा उठाया है। वैसे सिध्दार्थ जी से ले लिजिये, खुद ही बता रहे हैं कि उनके यहाँ ज्यादा स्टॉक है :) अच्छी पोस्ट।
जवाब देंहटाएंइन्टरनेट का युग आ गया पर ये पुराने तौर तरीके आज भी हर सरकारी कामकाज पर कुँडली मारे बैठे हैँ और प्रगति रोके हुए हैँ कोई तो उपाय हो ताकि २१ वी सदी का आगमन हो पाये --
जवाब देंहटाएं- लावण्या
लगता है हम आज भी लकीर कै फ़कीर है, अरे एक रुपये कै कागज से काम चल सकता है, बाकी फ़ीस के रुप मे रुपये पेसे लेलेने चाहिये ओर एक रसीद काफ़ी है.
जवाब देंहटाएंजान कारी के लिये धन्यवाद
जवाब देंहटाएंताऊ के सुझाव पर गौर करने, और इसको आगे बढ़ाये जाने की ज़रूरत है !
आख़िर ताऊ किसका है, हुँह ?
सुब्रमन्यन जी और ताऊ से सहमत हूँ - अदालतों में इस तरह के शुल्क के लिए फ्रैंकिंग मशीन या उसके किसी विकल्प का प्रयोग होना ही चाहिए. वरना अदालत के बैंक खाते में जमा करके रसीद लगाने जैसी कोई व्यवस्था हो.
जवाब देंहटाएंइससे करारा तमाचा सरकार के लिये और क्या होगा। बहुत सही लिखा आपने।
जवाब देंहटाएंएक दो साल पहले पायलट प्रोजेक्ट के रूप में एक योजना शुरू की गई थी जिसमे फीस जमा करके ऑनलाइन स्टाम्प पेपर जैसी व्यवस्था थी. उस व्यवस्था के बारे में जितना हमें पता चला था उस हिसाब से वो योजना न सिर्फ़ नकली स्टाम्प पेपर की परेशानी ख़त्म करती थी बल्कि कागजों की बचत को भी बढावा देती थी .
जवाब देंहटाएंअभी उस योजना का क्या हुआ पता नही
आपने तो 'एक तीर में दो शिकार' कर दिए । स्टाम्प प्रणाली की दुरुहता और अव्यावहारिकता तो उजागर की ही 'फाइल की मोटाई दूर से देख कर ही जज रीडर को उस की तारीख बदलने को बोलेगा' जैसी बात लिख कर न्यायाधीशों की मानसिकता और न्याय प्रणाली की नंगी हकीकत भी उजागर कर दी ।
जवाब देंहटाएंएडेसिव स्टाम्प लगाने और फ्रेंकिंग का विकल्प निस्सन्देह विचारणीय है । मेरी जानकारी के अनुसार, सम्पत्तियों के पंजीयन प्रकरणों में, मध्य प्रदेश में फ्रंकिंग की व्यवस्था कर दी गई है ।
रेलवे स्टेशन पर टिकटों की बिक्री वाली प्रणाली को प्रयोग करके सभी अदालतों के लिये स्टाम्प पेपर की बिक्री का एक सेंट्रल नेटवर्क नहीं बनाया जा सकता क्या ?
जवाब देंहटाएंसभी बिक्री सेंटर कम्प्यूटर से जुडे रहेगें और इससे होने वाली कमाई का भी बेहतर प्रबन्धन हो सकेगा ।