हसन सरूर लंदन से दी हिन्दू के लिए लिखते हैं .......
पूंजीवाद के वैश्विक संकट के समय कार्ल मार्क्स पश्चिम में फिर से फैशन में लौट आए हैं। उन का मौलिक काम दास कैपीटल फिर से बेस्ट-सेलर्स की सूची में है। उन की अपनी मातृभूमि जर्मनी में इस किताब की अलमारियां खाली हो रही हैं, क्यों कि असफल बैंकर्स और स्वतंत्र बाजार के अर्थशास्त्रियों की वैश्विक आर्थिक गलन को समझने की कोशिश नाकाम रही। मार्क्स के जन्मस्थान ट्रायर में दर्शनार्थियों की संख्या अचानक बढ़ गई है और एक फिल्मकार एलेक्जेंडर क्लूग दास कैपिटल के फिल्मीकरण की योजना बना रहे हैं। फ्रांसिसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने इसे दिशा-निर्धारक कहा है, जर्मन वित्त मंत्री पीर स्टीनब्रुक सर्वत्र इस की प्रशंसा कर रहे हैं और पोप इस के महान विश्लेषणात्मक गुणों की सराहना।
आर्चविशप कैंटरबरी रोवन विलियम्स मार्क्स के विश्लेषण को स्मरण करते हुए कहते हैं कि मार्क्स ने बहुत पहले दिखा दिया था कि निरंकुश पूँजीवाद एक प्रकार की पौराणिक कथा, घिसी हुई वास्तविकता और निर्जीव शक्तियों का अभिकर्ता हो जाएगा।
आखिर क्या है? इस मार्क्स की दास कैपीटल में कि इस के लेखक को पूरी एक शताब्दी तक जम कर गालियाँ दी गई, जम कर कोसा गया। आज फिर उन्हीं गालियाँ देने वालों के अनुयायी फिर से उसी मार्क्स को स्मरण कर रहे हैं। आखिर कुछ तो लिखा होगा उस ने।
बहुत पहले, करीब तीस साल पहले जब कार्ल मार्क्स भारत में बहुत चर्चा का विषय था। मैं ने पूंजी का हिन्दी अनुवाद खरीदा था, बहुत सस्ते में। मगर इस साल दीवाली की सफाई में वह नहीं मिला। मुझे उसे पढ़ने की फुरसत मिलती इस से पहले कोई उसे खुद अपने पढ़ने के लिए या फिर अपना पुस्तकालय सजाने के लिए ले गया।
सोचता हूँ मार्क्स की पूंजी दास कैपिटल की एक प्रति मैं भी कहीं से प्राप्त कर पढ़ लूँ। जान लूँ , कि क्यों इन तमाम जाने माने लोगों को यह किताब पूँजी के वैश्विक संकट के समय याद आ रही है? वह मुझे मिल गई तो उसे जरूर पढ़ूंगा और आप को बताऊंगा भी, कि क्या लिखा है उस में?
पढ़ लीजिये... सार-सन्क्षेप हमें बता दीजियेगा...वैसे ऐसा बहुत बार होता है जिसे गलियाँ दो अरसे बाद उसे ही सर -आंखों पर बिठाओ..पहले आर्ट ऑफ़ वार की धूम थी प्रबंधन में अब गीता की है
जवाब देंहटाएंहर समय इसे जिन्दा रखने और इसे लेकर धूम मचा देने वाले लोग हुए... चे गुएआरा के बारे में तो आप जानते ही होंगे. रोचक तो है ही, भले पूर्णतया व्यवहारिक ना हो पाया हो... शायद उस तरीके से किसी ने कोशिश ही नहीं की... या फिर मानव जाती उतनी परफेक्ट ही नहीं !
जवाब देंहटाएंहाँ एक बात है ख़बर हिंदू की है जो पूरा ही लेफ्टिस्ट अखबार है...ऐसी खबरों में बड़ा एकतरफा है यह अखबार.
समय के साथ परिवर्तन होता रहता है ! ये भी इसी के अंतर्गत है !
जवाब देंहटाएंयही दिक्कत है - फैशन स्थाई नहीं होता। जब तक हम दास कैपीटल पढ़ेंगे, तब तक फैशन बदल जायेगा!
जवाब देंहटाएंबाजार ढहने लगे तो मार्क्स की याद आ रही है. नौकरियां छूटने लगीं तो ट्रेड यूनियन की याद आने लगी. दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय.....
जवाब देंहटाएंअति कहीं नहीं चल पाती । विचारधाराओं के अन्धानुयायी उसे 'शाब्दिक रूप से' लागू करना चाहते हैं । हम भारतीय मध्यम मार्ग की मानसिकता वाला समाज हैं । चरमपंथी हमें स्वीकार नहीं । यदि मार्क्स को भारतीय सन्दर्भों में व्यावहारिकता से लागू किया जाए तो यह यहां सफल हो सकता है । लेकिन हमारे वाम मित्र अति पर आ जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे कि दक्षिणपंथी अति पर आ जाते हैं - हम देख ही रहे हैं । वैसे, आपसे 'दास केपिटल सार' की प्रतीक्षा रहेगी ।
जवाब देंहटाएंइसका नाम हमने भी खूब सुना है और पढने की इच्छा भी है.. देखिये कब तक पढ़ पाते हैं?
जवाब देंहटाएंअच्छी चीजें जरूर पढ़ी जानी चाहिए, पूर्वाग्रह रहित, ताकि अब तक जो कुछ कहा गया है, वह सही है या गलत, इसकी परख कर सकें। जरूर इंतजार करूँगा आपके निष्कर्ष का।
जवाब देंहटाएंमार्क्स के रिवायिवल पर समझबूझ कर ही कुछ कहना होगा !
जवाब देंहटाएंमार्क्स की पूँजी हिन्दी में तो 250 पृष्ठ के आस-पास है अन्तर्जाल पर। अंग्रेजी में तो है ही और जर्मन में भी। मेरे पास तो तीनों हैं। लिंक ध्यान नहीं लेकिन आसान है, अगर चाहें तो। मार्क्स ही समाधान दिखते हैं हमें। अरुण आदित्य जी की बात सही लग रही है।
जवाब देंहटाएंपूँजी का संक्षिप्त हिन्दी संस्करण अन्तर्जाल पर ओमप्रकाश कश्यप जी के चिट्ठे पर मिल जाएगा।
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