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शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़ल ... खो रही है ज़िन्दगी

आज फिर से आप को ले आया हूँ, 
मेरे दोस्त और आप के लिए अब अजनबी नहीं  पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़लों की महफिल में।

पढ़िए हालात पर मौजूँ उन की  ये बेहतरीन ग़ज़ल...

खो रही है ज़िन्दगी
पुरुषोत्तम 'यकीन'

भूख से बिलख-बिलख के रो रही है ज़िन्दगी
अपने आँसुओं को पी के सो रही है ज़िन्दगी

चल पड़ी थी गाँव से तो रोटियों की खोज में
अब महा नगर में प्लेट धो रही है ज़िन्दगी

या सड़क की कोर पर ठिठुर रही है ठंड में
या क़दम-क़दम पसीना बो रही है ज़िन्दगी

नौचते हैं वासना के भूखे भेड़िए कभी
जब्र की कभी शिकार हो रही है ज़िन्दगी

हड्डियों के ढाँचे-सी खड़ी महल की नींव में 
पत्थरों को नंगे सर पे ढो रही है ज़िन्दगी
अजनबी-से लग रहे हैं अपने आप को भी हम
सोचिए कि ग़ैर क्यूँ ये हो रही है ज़िन्दगी

बस रही है झौंपड़ी में घुट रही है अँधेरों में 
कब से रोशनी की आस पी रही है ज़िन्दगी

कीजिए 'यक़ीन' मैं ने देखी .ये हर जगह
 लीजिए संभाल वरना खो रही है ज़िन्दगी
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10 टिप्‍पणियां:

  1. यकीन मानिए 'यकीन' साहब सरल भाषा और गुनगुनाने वाले अंदाज में वो सब कुछ कह जाते हैं जो कलिष्ट भाषा में भी लोग नहीं कह पाते ! मुझे तो सबसे अच्छी बात यही लगी.

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  2. बस रही है झौंपड़ी में घुट रही है अँधेरों में
    कब से रोशनी की आस पी रही है ज़िन्दगी

    -'यकीन' साहब को पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.

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  3. यकीन जी का काव्य तो गरीबी, उसके कारण और उसके निर्मूलन के उपाय पर सोचने को बाध्य कर रहा है।
    और उसमें व्यक्तिगत यत्न सबसे महत्वपूर्ण लग रहा है!

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  4. अब मैं भी यकीन का फैन हो चला हूँ -आपको भी आभार उनसे मुलाक़ात कराने केलिए !
    कविता मानों उनसे चुपचाप बह बह चलती है -यह उनकी उनुभूतियों की गहनता ही तो है

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  5. कमाल हैं "यकीन" साहब. आप का बहुत बहुत शुक्रिया ये ग़ज़ल पढ़वाने का. जगजीत सिंह की गाई एक ग़ज़ल का एक शेर याद आ गया :

    "ज़िन्दगी को क़रीब से देखो
    इस का चेहरा तुम्हें रुला देगा"

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  6. yakeen saheb ko padhane ka mauka diya,aabhar aapko,yakeenan zindagi ka sach kah gaye yakeen

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  7. अजनबी-से लग रहे हैं अपने आप को भी हम
    सोचिए कि ग़ैर क्यूँ ये हो रही है ज़िन्दगी

    बहुत खूब ..इसको पढ़वाने का शुक्रिया ..

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  8. कब से रोशनी की आस पी रही है ज़िन्दगी...
    वाकई एक एक शेर सच्चे हैँ
    - लावण्या

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  9. चल पड़ी थी गाँव से तो रोटियों की खोज में
    अब महा नगर में प्लेट धो रही है ज़िन्दगी


    बहुत सुंदर!

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