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गुरुवार, 21 अगस्त 2008

दया धरम का मूल है, दया कीजिए!

मेरी बेटी पूर्वा का एक आलेख आजाद भारत की बेटियाँ अनवरत के पिछले दो अंकों में प्रकाशित हुआ। पहले अँक पर आठवीं टिप्पणी थी.....
सच ने कहा .... एक प्रश्न है दिमाग में कल जब पोस्ट करें तो उसका उत्तर भी अगर दे सके तो आभार होगा।
पूर्वा आप की पुत्री है, उसने स्त्री विमर्श पर लिखा हैं, और भी बहुत सी महिलाएँ स्त्री विमर्श पर लिख रही हैं। पर उनके ब्लॉग पर लोगो के जो कमेन्ट आते हैं, उस प्रकार के कमेन्ट यहाँ नहीं हैं. इस का कारण क्या ये तो नहीं है कि लोग केवल उन स्त्रियों के कार्यो को ही "मान्यता" देते हैं जो पुरूष के संरक्षण मे रह कर काम करती हैं।
आप के जवाब का इंतज़ार रहेगा

सवाल गंभीर था। मैं उस का उत्तर देना भी चाहता था। लेकिन आलेख पूरा होने और उस पर भरपूर टिप्पणियाँ आने के बाद ही। मैं ने अपना इरादा आलेख के उत्तरार्ध पर चिपका भी दिया।
दूसरे अंक पर ‘सच’ की दूसरी ही टिप्पणी थी और उस में कुछ तीखे और गंभीर सवाल भी....
सच ने कहा .... "आलेख के पूर्वार्ध पर "सच" की टिप्पणी व अन्य टिप्पणियों पर बात अगले आलेख में..........."
क्यों सब की संवेदनाये इतनी विक्षिप्त हैं?? क्यों नारी स्वतंत्रता को लोग आतंक समझते हैं? और नारी विमर्ष को अपशब्द कहते हैं? क्यों जरुरी हैं "संरक्षण" नारी का?

कुल पन्द्रह टिप्पणियों के बाद सोलहवीं पतिनुमा प्राणी जी की अवतरित हुई .....
पतिनुमा प्राणी जी ने कहा .... मुझे एक बात पर आश्चर्य हो रहा है कि आलेख के दोनों भागों पर 'पहुँची हुयी भारतीय स्त्रियाँ' और 'आँख की किरकिरी' वालों की तरफ से कोई जानी-पहचानी प्रतिक्रिया क्यों नहीं आयी!
आलेख में मूल तौर पर दहेज को कारक माना गया है। लेकिन उन परिवारों में, जहाँ दहेज कोई मायने नहीं रखता, वहाँ भी तो यही हाल है।
इस पर ब्लाग नारी की संचालिका रचना जी की टिप्पणी थी........
रचना ने कहा .... नारी ब्लाग के आठ और चोखेरबाली के दो सदस्य इस और पिछले आलेख पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं।
मैं सोचती हूँ कि यह पढ़ने और जानने के पहले कि इन दोनों सामुहिक ब्लागों पर कितने सदस्य हैं? और उन का योगदान क्या है? आप को इन कथित “पतिनुमा प्राणी” को बता देना चाहिए कि वह इन दोनों सामुहिक ब्लागों की महिला ब्लागरों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करना बंद करे।
मैं यह टिप्पणी पढ़ता उस के पहले ही जवाब में पतिनुमा प्राणी जी का यह संदेश आ चस्पा हुआ...
पतिनुमा प्राणी जी ने कहा .... अरे रचना जी! मैने शुरू ही कहाँ किया है, जो आप रूकने को कह रही हैं!!
भई, मेरे विचार हैं, यदि आपको पसंद नहीं आ रहे तो यह महिलायों का abuse (इसका बेहतर हिंदी अनुवाद आप ही बता सकतीं हैं) करना कैसे हो गया?
मेरी टिप्पणी में आपको यही शब्द दिखे? बाकी शब्द नहीं? हर बात को आप नारी प्रजाति पर आक्रमण क्यों समझ लेती हैं?
दूसरों को तो आप समझाती रहतीं हैं कि प्रतिक्रियावादी न बने। स्वयं क्या कर रहीं हैं।
बेहतर होता यदि मेरी टिप्पणी के बाकी हिस्से पर आपकी बुद्धिमता भरी बातों से हम पुरूषों को भी कुछ ज्ञान हासिल हो पाता।
वैसे यहाँ, द्विवेदी जी के ब्लॉग पर, इन औचित्यहीन बातों पर तो कोई तुक नहीं। उनसे क्षमा चाहता हूँ।
रचना जी से अनुरोध है कि वे अपने या मेरे ब्लॉग पर ही अपनी बात रखें। दूसरों के कंधों का सहारा न लें।
मैं व्यस्त भी था, और थका हुआ भी। मैं ने दोनों टिप्पणियाँ वहाँ से उड़ा दीं।
अज्ञातों की टिप्पणियों के लिए तो मेरे ब्लागों का प्रवेश-द्वार बंद है। रचना जी से मैं परिचित हूँ। वे न तो अपनी पहचान छुपाती हैं और न ही विचार। वे जो भी कहना चाहती हैं, डंके की चोट कहती हैं। कभी किसी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग नहीं करतीं। हाँ उन्हें किसी भी महिला को कहा गया अपशब्द बुरा लगता है। जब भी ऐसा होता है वे सिर्फ कहती हैं ... अपना मुहँ बन्द करो, हिन्दी में बोले तो शट-अप। मैं पतिनुमा प्राणी जी से परिचय करना चाहता था। पहली फुरसत में मैं ने उन के नाम पर चटका लगाया, तो परिणाम जो आया वह आप के सामने है।
पतिनुमा प्राणी।
इसे पढ़ा, और विचार किया, तो क्रोध बिलकुल नहीं उपजा। उपजता भी कैसे? आखिर ये पतिनुमा प्राणी जी हैं क्या? मात्र एक पर्दानशीन ब्लागर। बेचारे! पैंतालीस वसंत गुजार चुके हैं। एक महिला ने उन्हें जन्म दिया। लगा, माता जी, से नाराज हैं, कि जन्म ही क्यों दिया? और भगवान जी से भी, कि अठारवीं शताब्दी में नम्बर लगाया था, पैदा किया बीसवीं के उत्तरार्ध में जा कर। भगवान जी से नाराजी में फिर एक पाप कर डाला, ब्याह कर लिया। जरूरत थी एक संतान की, पैदा हो गईं दो, वो भी एक साथ। यहाँ भगवान जी ने उन के साथ फिर अन्याय किया। ब्याह कर के चाहा था कि पत्नी घऱ रहेगी, पति की सेवा करेगी, आज्ञा पालन करेगी, बच्चों को पालेगी और कभी अपनी चाह, आकांक्षाएँ व्यक्त नहीं करेगी। पर पैदा करने में भगवान जी ने जो देरी की, उस के नतीजे में अँगूठाछाप की जगह पाला पड़ा ऐसी पत्नी से जो आकांक्षा रखती है। पति की मेहरबानी पर जीने के स्थान पर, खुद कुछ करना चाहती है, कुछ बनना चाहती है। कई बार राह रोकने पर भी नहीं मानती। अपनी ही राह चली जाती है। कुछ कहें तो बराबर की बजातीं है।
अब करें तो क्या करें? बेचारे पतिनुमा प्राणी जी। अलावा इस के कि भड़ास निकालें। वह भी निकालने की नहीं बनती। यहाँ कोई बराबर की बजाने वाले मिले तो क्या करेंगे? पहुँच गए काली कमली वाले की शरण में। एक कमली खुद के लिए भी ले आए। अब उसे ओढ़ते हैं, पहचान छुपाते हैं, और भड़ास निकालते हैं। जो खुद ही छुपा फिर रहा हो, उसे क्या कहा जाए? और कैसे कहा जाए? अब दीवार को तो कह नहीं सकते न? कहने के बाद उस के चेहरे की मुद्राएँ देखने का अवसर जो नहीं मिलता।
वैसे भी कभी सोचा है आप ने? कि भड़ास निकालने वाले को रोकने पर उसे कितनी परेशानी होती है? सोच भी नहीं सकते। सोचने की जरूरत भी नहीं। फिर याद आया “दया धरम का मूल है”, दया बहुत बड़ी चीज है, दया कीजिए धरम होगा। हमें क्रोध के स्थान पर आई दया, और दया के लिए सर्वोत्तम पात्र दिखाई दिए ...  पतिनुमा प्राणी जी ।

20 टिप्‍पणियां:

  1. क्या आपसे वैचारिक असहमति रखना ही नारी विरोधी होना है ?
    "सच "के सवाल का जवाब में मेरा सवाल ही जवाब है ,कई बार मैंने देखा है जब आप वहां वैचारिक असहमति जताते है तो बहस मुड जाती है ,अपने मुद्दे से भटक जाती है ...अनूप जी के साथ एक बहस किस ग़लत रूप में पहुँची थी ....मुझे अब भी याद है...तो इसलिए टिप्पणियों का फर्क होता है......
    हर मुद्दे को स्त्री ओर पुरूष के चश्मे से नही देखना चाहिए ...

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  2. @ अनुराग जी,
    प्रश्न वैचारिक असहमति का नहीं। वह तो विमर्श में सदैव ही बना रहेगा। प्रश्न प्रयुक्त होने वाली शब्दावली का है, और विमर्श में कोई बुरका पहन कर नहीं आता।

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  3. हर मुद्दे को स्त्री ओर पुरूष के चश्मे से नही देखना चाहिए ...


    मेने तो बस इतन पूछा था की पुरवा के स्त्री विमर्श के लेख पर सब ने एक सुर से सही का निशाँ लगाया क्योकि उसके पिता के ब्लॉग पर ये लेख था . अन्य ब्लॉग पर अगर स्त्री विमर्श होता हैं तो गलियाँ और अपशब्दों की टिप्पानी होती हैं . ये भेद बाव क्यों ??
    burka pehan kar bhi vimarsh ho saktaa heaen par burka pehan kar apshbd kehanaa ???
    to purva ki post par apshabd kyu nahin ?? sirf is liyae kyoki wo sanrakshan mae pita kae

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  4. 'सच' और 'अनुराग' जैसी ही जिज्ञासा मेरी भी थी कि '…आलेख के दोनों भागों पर 'पहुँची हुयी भारतीय स्त्रियाँ' और 'आँख की किरकिरी' वालों की तरफ से कोई जानी-पहचानी प्रतिक्रिया क्यों नहीं आयी!'
    .
    अब जिनकी दाढ़ी नहीं, वे भी तिनका खोजने लगे! मूल विचारोत्तक मुद्दा भूल गये!! यहाँ तक कि द्विवेदी जी भी अपना वादा '..."सच" की टिप्पणी व अन्य टिप्पणियों पर बात अगले आलेख में...' भूल कर दया-धर्म में उलझ गये।
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    हम तो भई, पढ़ते आयें हैं कि किसी की ओर एक ऊँगली दिखायी जाती है तो बाकी सभी ऊँगलियां अपनी ओर ही होती हैं!
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    वैसे यह पढ़े जाने के बाद कि '... नाराजी में फिर एक पाप कर डाला, ब्याह कर लिया।' ऐसा लगा कि क्या हम सब, पापियों की संतानें हैं? बिन ब्याहे संबंध रखने वाले देवता हैं और उनकी संताने, संत!?
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    पहला पत्थर वह ही मारे जिसने पाप न किया हो जो पापी न हो।
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    सच, अनुराग के प्रश्नों के जवाब की प्रतीक्षा रहेगी।
    यह टिप्पणी लिखते-लिखते लेखक प्रेमचंद जी का एक वाक्यांश याद आ गया कि पुरूष, स्त्री के गुण अपना ले तो देवता बन जाता है और स्त्री, पुरूषों के गुण अपना ले तो कुलटा कहलाती है।
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    इस उम्मिद के साथ कि यह टिप्पणी 'उड़ायी' नहीं जायेगी।

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  5. ab yah vimarsh danger zone men jaa rahaa hai ...phoot lenaa hee behtar !

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  6. patinuma pranii bhai
    mera prashn alag haen aur uska jwaab aap bhi daesaktey haen ?? ki aap ko diwedi ji ki beti ki post par aap ko koi objection nahin hua wahii agar yae post 'पहुँची हुयी भारतीय स्त्रियाँ' और 'आँख की किरकिरी' ki hotee to aap is ko ek जानी-पहचानी प्रतिक्रिया kehtey .
    aap ke prshn kaa uttar 'पहुँची हुयी भारतीय स्त्रियाँ' diya jaa chuka haen ki 10 'पहुँची हुयी भारतीय स्त्रियाँ' apnii pratikriya dae chuki haen ab aap kyaa pratikriya padhna chahtey haen unki so aap bataye .
    rahee baat कुलटा aur देवता ki to yae sab naam aap jaese soch kae vyaktiyon kae hee diyae hua haen premchand ji nae kewal us soch ko shabd daekar baraabri ki baat ko samjhaaney ki koshish kii haen
    purush karae to theek strii karey to annacharn ???? kyon itni vidrup soch haen

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  7. With due respects, , ब्लॉगर को अपनी पहचान बताने या न बाताने का अधिकार तो होना ही चाहिए. आख़िर संसद में भी गुप्त मतदान तो होता ही है. हाँ, अपने ब्लॉग पर आपको भी पूरा अधिकार है कि आप किस तरह की टिप्पणियां आने दें.

    मैं तो इतना ही कहूंगा कि मतभेदों के होते हुए भी हम खुले दिल से दूसरों के दृष्टिकोण को समझने की कोशिश करें तो यह दुनिया कहीं ज्यादा सुंदर हो जायेगी! एक महापुरुष ने कहा है, "केवल मूर्ख और मृतक ही अपने विचार कभी नहीं बदलते"

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  8. पढ़ो और फूट लो भाई... माहौल गर्म है। पोलिटिकल करेक्टनेस की सलाह इसी बवाल से बचने को दी जाती है।
    लेकिन यह बात बहुत अच्छी है कि "केवल मूर्ख और मृतक ही अपने विचार कभी नहीं बदलते।"

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  9. एक निवेदन:
    यदि मेरी किसी बात पर प्रतिक्रिया व्यक्त करनी हो तो मेरे ही ब्लॉग पर यहाँ का उद्धरण दे अपनी प्रतिक्रिया दें।
    इस मंच पर मात्र द्विवेदी जी के प्रयासों और आलेखों पर ही टिप्पणी दें।
    वैसे आप सभी के विचारों पर आधारित एक पोस्ट शीघ्र ही मेरे ब्लॉग पर होगी।
    शीघ्र ही मिलेंगे, हम लोग!

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  10. स्त्री विमर्श और उसके पीछे के तमाम विमर्शों की गम्भीर पडताल की है आपने। पढकर अच्छा लगा।

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  11. साहित्यकार मात्र साहित्यकार होता है। उसको नारी-पुरूष के मुद्दों पर जातिगत विरोधों से ऊपर उठकर सोचना चाहिए। ब्लाग पर लोग कुछ अच्छा पढ़ने आते हैं यह देखने नहीं कि कौन जीता और कौन हारा। मेरा सभी लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी गरिमा का ख्याल रखें । सस्नेह

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  12. निस्‍सन्‍देह महत्‍वपूर्ण यह नहीं है कि किसने लिखा । क्‍या लिखा है, यही महत्‍वपूर्ण होता है । लेकिन 'अज्ञात कुलशील' होने का दुरुपयोग भी नहीं किया जाना चाहिए । अपने लिखे की जिम्‍मेदारी ली ही जानी चाहिए । ऐसे अज्ञात नामों से लिखने में यह सुविधा हथियाये रखी जाती है कि एक ही व्‍यक्ति अलग-अलग अज्ञात नामों से परस्‍पर प्रतिकूल टिप्‍णियां करने का 'सुख' उठाता रहे । लिहाजा, 'उत्‍तरदायी टिप्‍पणी' वही होगी जो अपनी पहचान उजागर कर की जाए ।

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  13. निस्‍सन्‍देह महत्‍वपूर्ण यह नहीं है कि किसने लिखा । क्‍या लिखा है, यही महत्‍वपूर्ण होता है । लेकिन 'अज्ञात कुलशील' होने का दुरुपयोग भी नहीं किया जाना चाहिए । अपने लिखे की जिम्‍मेदारी ली ही जानी चाहिए । ऐसे अज्ञात नामों से लिखने में यह सुविधा हथियाये रखी जाती है कि एक ही व्‍यक्ति अलग-अलग अज्ञात नामों से परस्‍पर प्रतिकूल टिप्‍णियां करने का 'सुख' उठाता रहे । लिहाजा, 'उत्‍तरदायी टिप्‍पणी' वही होगी जो अपनी पहचान उजागर कर की जाए ।

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  14. निस्‍सन्‍देह महत्‍वपूर्ण यह नहीं है कि किसने लिखा । क्‍या लिखा है, यही महत्‍वपूर्ण होता है । लेकिन 'अज्ञात कुलशील' होने का दुरुपयोग भी नहीं किया जाना चाहिए । अपने लिखे की जिम्‍मेदारी ली ही जानी चाहिए । ऐसे अज्ञात नामों से लिखने में यह सुविधा हथियाये रखी जाती है कि एक ही व्‍यक्ति अलग-अलग अज्ञात नामों से परस्‍पर प्रतिकूल टिप्‍णियां करने का 'सुख' उठाता रहे । लिहाजा, 'उत्‍तरदायी टिप्‍पणी' वही होगी जो अपनी पहचान उजागर कर की जाए ।

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  15. निस्‍सन्‍देह महत्‍वपूर्ण यह नहीं है कि किसने लिखा । क्‍या लिखा है, यही महत्‍वपूर्ण होता है । लेकिन 'अज्ञात कुलशील' होने का दुरुपयोग भी नहीं किया जाना चाहिए । अपने लिखे की जिम्‍मेदारी ली ही जानी चाहिए । ऐसे अज्ञात नामों से लिखने में यह सुविधा हथियाये रखी जाती है कि एक ही व्‍यक्ति अलग-अलग अज्ञात नामों से परस्‍पर प्रतिकूल टिप्‍णियां करने का 'सुख' उठाता रहे । लिहाजा, 'उत्‍तरदायी टिप्‍पणी' वही होगी जो अपनी पहचान उजागर कर की जाए ।

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  16. 'अपशब्द न लिखें' ऐसा कहते-कहते ख़ुद ही अपशब्द लिखने लगना क्या सही है? दिनेश जी आपके ब्लाग पर आज आया हूँ पर जो लिखा पाया वह अच्छा नहीं लगा.

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  17. मैं शोभा जी से पूर्णतः सहमत हूं. हमें महिला और पुरुष के चश्मे को उतार फ़ेंकना चहिये.

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  18. blog aur saahitya mae antar haen , blog ek daairy haen apney vichaaro ko abhivyakt karney kii . kuch log kavita laekh ityadi likh kar is par saahitay bhi likh rahey haen par sab blog ssahitya kae liyae nahin haen so shobha aur raashtr premi ji discussions kae liyae bhi bloging ek medium haen .

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....