मैं जब हिन्दी चिट्ठे पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि कुछ लोग इस बात से परेशान हैं, कि कुछ हिन्दी चिट्ठे अपने चिट्ठाकारों के लिए रुपया या डॉलर जो भी हो, धन कमा रहे हैं। भाई आप नहीं चाहते कि लक्ष्मी आप के घर या बैंक खाते में आए, तो आप मत आने दीजिए उसे। मगर जहाँ आ रही है, उन्हें तो भला-बुरा मत कहिए। आप कह भी देंगे तो जिस के घर आ रही है वहाँ आना बन्द न कर देगी और आप के बैंक खाते का रुख भी नहीं करने वाली। आप फिजूल में ही पड़ौस के केमिस्ट की दुकान पर बरनॉल की बिक्री बढ़ा रहे हैं।
ठहरिए! जरा सोचिए! कितना कमा रहा है, एक हिन्दी चिट्ठाकार अपने हिन्दी चिट्ठे से? सोचने में परेशानी हो रही है तो आप किसी तरह पता लगा लीजिए एडसेंस से।
अब मैं तो देख रहा हूँ नियमित रूप से लिखने वाले और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले पाँच हिन्दी चिट्ठौं में से एक पाण्डे ज्ञानदत्त जी को। उन को इस का भारी शोक है कि लोग विज्ञापनों को क्लिक ही नहीं करते। दूसरे हम हैं जो रोज अपना एडसेंस खाता क्लिक कर-कर परेशान हैं, उस में जमा डॉलर उतना का उतना ही पड़ा रहता है। जैसे हमारे चिट्ठे किसी गली के ट्रेफिक-जाम में फँस गए हों। अब आज का हमारा एडसेंस का ऑल टाइम खाता देखिए और खुद ही बताइए कि हमने पिछले पाँच माह में क्या कमाया अपने दो हिन्दी चिट्ठों से?
देख लिया?
कुल 3.13 डॉलर!
आह! कितनी बड़ी रकम है। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मैं यह सोच कर प्रसन्न होऊँ या माथे पर हाथ धर कर बैठूँ कि इस से कहीं अधिक धन तो वह बरनॉल बेचने वाला केमिस्ट कमा चुका होगा।
खैर हमें नहीं सोचना यह सब, और भी ग़म हैं सोचने को दुनियाँ में।
मगर मैं सोच तो सकता ही हूँ, और क्यों न सोचूँ कि दुनियाँ गोल है। कोई सोच पर पहरा कैसे लगा सकता है।
मार पीट कर गैलीलियो से चर्च हिमायतियों ने कहलवाया कि उसने गलत कहा कि धरती गोल है, वह तो वाकई चपटी है। जेल से छूटने पर उस से पूछा। मैं ने सोचा धरती गोल है, उन्होंने कहलवा लिया चपटी। पर मेरे सोच पर कोई पहरा नहीँ। कहूँगा नहीं तो क्या? सोच तो सकता ही हूँ कि धरती गोल ही है। पर हुआ क्या? गैलिलियो ने सोचा, कुछ और ने सोचा, और धरती चपटी से गोल हो गई। अब तो चर्च भी कह रहा है कि धरती गोल ही है। मुझे पुरानी धरती का कोई चित्र नहीं मिल रहा जब धरती गोल थी। सब जगह तलाश किया तो पता लगा तब कैमरा नहीं बना था।
तो मैं सोच रहा हूँ कि क्यों न कमाएं हिन्दी चिट्ठे अपने चिट्ठाकारों के लिए?
क्या कहा? आप भी सोचना चाहते हैं, ऐसा ही कुछ। तो चलिए हमारे साथ।
आखिर कबीरदास जी कह गए हैं-जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।
आप साथ चले तो रहेगी चर्चा जारी, वरना हम अकेले ही सोचेंगे। अपने चिट्ठे पर लिखेंगे भी। आप आज ही थोक में बरनॉल खरीद लाइए होलसेल केमिस्ट से जल्दी ही मांग और दाम बढ़ने वाले हैं।
क्या पता सोचते-सोचते चपटी धरती गोल हो ही जाए।
सर, हमारा तो भंडार भर रहा है,
जवाब देंहटाएंआपके ज्ञान-दान से,
आपकी दी गयी जानकारियों से
मेरा तो मानना ही रहा है - भूखे पेट भजन न होय गोपाला. आमतौर पर आर्थिकता किसी भी कार्य के लिए सबसे बेहतर मोटिवेटर होता है ये बात भी तय है.
जवाब देंहटाएंहिन्दी चिट्ठे भी कमाई का जरिया बन सकते (बनेंगे,) बशर्तें वे डिजिटल इंस्पायरेशन, क्विक ऑनलाइट टिप जैसे समर्पित चिट्ठे बनें. अभी तो हिन्दी पाठकों का (चिट्ठों का भी, तीन हजार हिन्दी चिट्ठों से कुछ नहीं हो सकता) घोर अकाल है. लूज-लूज सिचुएशन है - सामग्री नहीं है तो पाठक नहीं है. सामग्री होगी तो पाठक होंगे...
मेरा पिछला अकाउंट पता नहीं क्यों गूगल ने डिलीट कर दिया, उसमें 26$ थे..
जवाब देंहटाएंअभी नया अकाउंट बनाया है और पिछले 1 सप्ताह में अभी तक 2.89$ हो गये हैं..
वैसे रवि जी की बात से सहमत हूं.. :)
आप तो खूब लिखें,बरनौल के ग्राहकों की परवाह किये बगैर.
जवाब देंहटाएंपूरी सहमति है। भले ही अभी हिन्दी चिट्ठाकारी से कमाई प्रतीकात्मक भर है तब भी इसे जारी रखना चाहिए।
जवाब देंहटाएंविज्ञापन क्लिक करने का लेकर भी चिट्ठाकार कुछ उदारता बरत सकते हैं :) पर इतना तय है कि हिन्दी को मिलने वाले विज्ञापनों की दर इतनी कम है कि क्लिक मिलने से भी रोकड़ नहीं बन पाती।
रविरतलामी से पूर्ण सहमति। वे न देते तो वही टिप्पणी मैं देता।
जवाब देंहटाएंभविष्य में - यानी 3-4 साल बाद अगर मैं स्टे किया ब्लॉगरी में तो उससे कमाई एक महत्वपूर्ण फेक्टर होगा।
हम तो यही कहेंगे की उम्मीद पर दुनिया कायम है। :)
जवाब देंहटाएंमैंने पिछले साल रोमन हिन्दी चिट्ठे पर एड लगा कर देखना चाहा था कि देखें इससे क्या परिणाम निकलते हैं. शुरुआत तो धीमी गति से हुई पर एडसेंस के दसवें महिने से से मेरा वो चिट्ठा इंटरनेट का खर्च निकालने में समर्थ है। इसलिए हिम्मत ना हारें और सार्थक सामग्री चिट्ठे पर डालते रहें।
जवाब देंहटाएंलक्ष्मी मैया का वरदान बनती ब्लोगरी को भला कौन आवकार् न देगा ? कोई इत्त मूर्ख नही ! -
जवाब देंहटाएंलावन्या
http://www.lavanyashah.com/2008/04/report-from-front-lines.html
जवाब देंहटाएंदिनेश भाई साहब्,
आपके अनुरोध पर अम्रीका के बारे मेँ भी एक पोस्ट लिखी है -अवश्य देखेँ =
स स्नेह्,
लावन्या