अनवरत
क्या बतलाएँ दुनिया वालो! क्या-क्या देखा है हमने ...!
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मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (7) : चौधरी चाचा की तमन्ना पूरी हो गई
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हे, पाठक! लट्ठों की नाव, पार लग ही गई। सवारियाँ सतरंगी थीं। झण्डा एक हो गया था। ऊपर के वस्त्र भी बदल गए थे। पर अंतर्वस्त्र पुराने ही रहे...
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सोमवार, 6 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (6) : खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा।
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हे, पाठक! सब जानते हैं, 'जो पैदा होता है, वह मरता है', "जो आता है, उसे जाना भी पड़ता है' पर कोई मानने को तैयार नहीं। ये ...
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शनिवार, 4 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (5) : अगिया बैताल और राजपथ पर ठाटें मारता दावानल
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हे! पाठक, परदेसी बनियों के चले जाने भर से भारतवर्ष में जनतंतर नहीं आया था। परदेसी बनिए तो भारतवर्ष जैसा था वैसा छोड़ गए, टुकड़े और कर ...
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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
फिर से आएँगे खुशहाल लमहे
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फिर से आएँगे खुशहाल लमहे दिनेशराय द्विवेदी अब छोड़ो भी बार बार उदास होना जिन्दगी में आया कोई लाल गुलाब की तरह दे गया बहुत ...
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मंगलवार, 31 मार्च 2009
जमाना है परेशान, वाकई परेशान!
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जमाना है परेशान! जमाना है परेशान वाकई परेशान! आमादा भी है उतर भी आता है लड़ने पर करता है प्रहार भी हम पर वह हो जाता है और परेशान ...
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सोमवार, 30 मार्च 2009
चुनाव युद्ध के नियम और उन्हें तोड़ने की तैयारी : जनतन्तर-कथा (4)
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हे, पाठक! जब भरतखंड के टुकड़े कर के परदेसी बनिया चलता बना तो बड़ा टुकड़ा मिला उसे भरतखंड कैसे कहते सो इस का नाम रखा भारतवर्ष। यह भारतवर्ष ...
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रविवार, 29 मार्च 2009
जनतन्तर-कथा (3) : खंडित भरतखंड में जनतंतर का जनम
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हे! पाठक, एक जमाना था, जब लिखने और पढ़ने का रिवाज नहीं था। उस जमाने में लोग कथाएँ कण्ठस्थ कर लिया करते थे और सभाओं में सुनाया करते थे। एक...
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