अनवरत
क्या बतलाएँ दुनिया वालो! क्या-क्या देखा है हमने ...!
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मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
तेरह दिन की सरकार : जनतन्तर-कथा (11)
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हे, पाठक! नौ वीं महापंचायत पाँच साल के बजाय केवल सोलह महीने चली। कोई एक पार्टी नहीं थी जो महा पंचायत में बहुमत में होती और नेता चुन कर उस...
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रविवार, 12 अप्रैल 2009
नेता, स्टेरॉयड और बाजुओं की बल्लियाँ : जनतन्तर-कथा (10)
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हे, पाठक! दो सौ बरस से भी अधिक काल तक भरत खंड के देसी बासियों की छाती पर मूंग दलने के बाद, बिदेसी यूँ ही अचानक अपने डेरे तम्बू समेट कर नहीं...
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शनिवार, 11 अप्रैल 2009
बोफोर्स और मंडल-कमंडल : जनतन्तर-कथा (9)
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हे, पाठक! देश के वोट डालने वाले लोगों में से लगभग आधों ने जवानी पर भरोसा किया था। पर नेता के इरादे सही होने पर भी शायद वह अनुभव हीन था। ...
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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (8) : देश ने जवानी पर भरोसा किया
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हे, पाठक! यह भारतवर्ष का आठवीं पंचायत का चुनाव था। लट्ठा पार्टी बिखर चुकी थी। दो बरस से भी कम समय में लट्ठों ने अपनी अपनी नालायकी साबित क...
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मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (7) : चौधरी चाचा की तमन्ना पूरी हो गई
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हे, पाठक! लट्ठों की नाव, पार लग ही गई। सवारियाँ सतरंगी थीं। झण्डा एक हो गया था। ऊपर के वस्त्र भी बदल गए थे। पर अंतर्वस्त्र पुराने ही रहे...
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सोमवार, 6 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (6) : खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा।
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हे, पाठक! सब जानते हैं, 'जो पैदा होता है, वह मरता है', "जो आता है, उसे जाना भी पड़ता है' पर कोई मानने को तैयार नहीं। ये ...
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शनिवार, 4 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (5) : अगिया बैताल और राजपथ पर ठाटें मारता दावानल
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हे! पाठक, परदेसी बनियों के चले जाने भर से भारतवर्ष में जनतंतर नहीं आया था। परदेसी बनिए तो भारतवर्ष जैसा था वैसा छोड़ गए, टुकड़े और कर ...
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