एक खेत मजदूर अक्सर खेत मजदूर के घर या छोटे किसान के घर पैदा होता है, मजदूरी करना उसकी नियति है, वह वहीं काम करते हुए अभावों में जीवन जीता है। उसकी आकांक्षा होती है कि उसके बच्चे जैसे तैसे कुछ पढ़ लिख जाएँ, खेत की मजदूरी करने के बजाए कहीं शहर में बाबू, या किसी कारखाने की नौकरी करें, वहीं घर वर बना लें और इस नर्क से निकल जाएँ। शहर के कारखानों में मशीनों पर काम करने वाले, लोडिंग अनलोडिंग में बोझा उठाने वाले, निर्माण में काम करने वालेे, खानों में काम करने वाले, मंडियों में बोझा ढोने वाले मजदूर चाहते हैं कि वे अपने इस नर्क से निकलें कोई सफेद कालर वाला काम कर लें। पर अधिकांश नहीं कर पाते और उसी नर्क में मर जाते हैं। किसान जिनके पास खेत हैं वे भी अपने खेतों में फसलें उगाते हुए , कर्जों और मौसम की मार झेलते हुए जीते रहते हैं उनमें से थोड़े बहुत निकल कर सफेदपोश भले ही हो जाएँ। पर रहते उसी किसानी में हैं।
इनके बाद आते हैं नगरीय टटपूंजिए वे हमेशा सपना देखते हैं कि डंडी मार कर या कोई तिकड़म कर के, या उनमें से कोई सरकारी नौकरी में लग गया हो तो रिश्वत खाते हुए थोड़ी बड़ी पूंजी इकट्ठा कर लें और ऐसा धंधा करें जिससे दिन दूनी और रात चौगुनी कमाई कर लें और वे नहीं तो उनके बच्चे ही ऐश की जिन्दगी जी लें। पर ऊपर की पायदान पर चढ़ने की कोशिश करने वालों में से ज्यादातर दूसरी तीसरी मंजिल पर चढ़ते हुए ऊँचाई से गिर कर घायल होते हैं, या मर जाते हैं और उनकी संतानें उसी नगरीय मजूरों की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं। कुछ जरूर ऐसे होते हैं जो बड़े पूंजीपतियों और अफसरों की चम्पी मारते हुए तीसरी चौथी मंजिल पर चढ़ने में कामयाब हो जाते है, पर उन्हें अपने ही लोगों की तरह नीचे गिरने और घायल हो कर पड़े रहने या मर जाने का भय हमेशा सताता रहता है। इन्हीं में वे लोग भी हैं जो ऊंचाई चढ़ने का स्वप्न नहीं देखते बस चाहते हैं किसी तरह उनके बच्चे उनसे थोड़ा बेहतर कर लें या उन्हीं की तरह जी लें और नीचे न गिरें।
इनके बाद बड़े सरकारी अफसर हैं जिन्हें आप ब्यूरोक्रेट्स कहते हैं इनसे नाभिनालबद्ध नेता हैं जो कभी इस और कभी उस सरकार में बने रहते हैं, या लगातार सरकार में होने का प्रयत्न करते रहते हैं। ये सभी इस मौके में लगे रहते हैं कि अपना कोई बड़ा उद्योग या बिजनेस स्थापित कर लें और नीचे की पायदान के लोगों के श्रम का उपयोग करते हुए अतिरिक्त श्रम का दोहन करते हुए टॉप के 10-20-50-100 या 1000 पूंजीपतियों की श्रेणी में पहुँच जाएँ।
सबसे ऊपर ये टॉप के 10-20-50-100 या 1000 पूंजीपति हैं, जो बाकी सबको हाँकते रहते हैं, देश की जमीन के ऊपर की और जमीन के नीचे की तमाम संपदा को निचोड़ते रहते हैं। इनकी सारी ताकत इस बात में लगी रहती है कि कैसे उनकी पूंजी दिन चौगुनी और रात अठगुनी होती रहे। इनमें कौन लोग शामिल हैं ये हर कोई जानता है।
मंदिर का एक निर्धन संपत्तिहीन पुजारी, ज्योतिषी और कथावाचक जो टटपूंजिए बनियों की बिरादरी के मंदिर की पूजा करने की नौकरी करता था, उसके दोनों बेटे सरकारी अध्यापक हो गए थे। बड़े बेटे के घर दूसरे बच्चे ने जन्म लिया। पहली बेटी थी जो पैदा होने के चंद दिन बाद मर गयी। दूसरे के बाद अनेक बच्चे पैदा हुए लेकिन चार बेटे और दो बेटियाँ जीवित रहे। बड़े बेटे को जब गणित और भाषा पढ़ने हुनर आ गया तो घर में रखी धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला। स्कूल में भर्ती होने के साथ ही विज्ञान से साबका पड़ा। वह दोनों के बीच झूलता हुआ जब इस हालत में पहुँचा कि उसे जीवन जीने के लिए कुछ करना पड़ेगा, तब उसने बहुत सपने देखे। कभी कलट्टर जैसा अफसर बनने का, वैज्ञानिक बनने का पर वह पुजारी, ज्योतिषी, कथावाचक और अध्यापक कतई नहीं बनना चाहता था, क्योंकि इन पेशों की हकीकत जान चुका था।
उसका ध्यान इंजिनियरिंग की तरफ था लेकिन उसे जीवविज्ञान पढ़ना पड़ा। कुछ दिन उसके आसपास के लोग उसे डाक्टर कहते रहे कि शायद बन जाए। लेकिन वह लोगों को सचाई बताने के चक्कर मेंं पत्रकार हो गया। भीतर घुस कर देखने पर पता लगा कि वे अर्धसत्य के वाहक भर हैं। ज्यादातर सच वह होता है जो अखबारों के मालिक बताना चाहते हैं। क्रूर सच तो शायद कभी बाहर ही नहीं आता। तब उसने सब कुछ छोड़ कर वकील बनना चुना जो मजदूरों की पैरवी करना चाहता था। वकालत करते हुए उसे 45 साल से ज्यादा हो गया है।
रतन टाटा मर गया। वकील की पत्नी कल रात काम से निपटने के बाद मोबाइल पर कोई वीडियो देख रही थी। वकील के पूछने पर उसने बताया कि रतन टाटा के बारे में बता रहे हैं, बहुत बड़ा उद्योगपति था। वकील बोला, वह देश के टॉप के उद्योगपति घराने का बेटा था, उससे ऊपर जाने की इस दुनिया में कोई जगह नहीं थी। उसने दुनिया के टॉप उद्योगपतियों में शामिल होने की कोशिश जरूर की होगी, पर सफल नहीं हुआ। लेकिन नीचे गिरने से बचता रहा, इस तरह गिरने से बचना ही उसकी सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। हम अपने पिता दादा से बेहतर स्थिति में आ सके और अपने से नीचे की श्रेणी के लोगों के साथ जो अन्याय होता है उस को थोड़ा बहुत कम करने की कोशिश करते हुए, अपने जीवन के लिए जीने के साधन जुटाते हुए जी रहे हैं। हमारे बच्चे हम से बेहतर मजदूरी करते हुए जी रहे हैं और चाहते हैं कि समाज एक ऐसी शक्ल ले ले जिसमें सभी यथाशक्ति काम करें और उन्हें अपनी जरूरत की तमाम चीजें मिलती रहें। जिससे समाज के तमाम लोग बराबरी महसूस करते हुए जी सकें। न कोई छोटा हो न महान हो। न कोई टाटा बिरला, डालमिया, अम्बानी, अडानी हो और न कोई बोझा ढोते हुए या मशीन चलाते हुए बीमार हो कर बिना इलाज और भोजन, कपड़ा और छत के अभाव में जिए। हम थोड़ा बहुत हमारे इस लक्ष्य से काम करते भी हैं। मुझे लगता है हम बेहतर हैं और थोड़ा बेहतर करने की कोशिश करते रहते हैं। ये अखबार, ये मीडिया कभी नहीं छापता कि कोई मजदूर अभावों में मर गया। कभी किसी दुर्घटना में मजदूर मर जाते हैं तो उनकी केवल संख्या छपती है इस तरह कोई विरुदावली नहीं गाता। ये उन्हीं टॉप के 10-20-50-100 या 1000 लोगों के चाकर हैं। ये टॉप के 10-20-50-100 या 1000 लोग समाज में न रहें, एक वर्ग के रूप में हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएँ। मेरी सोच में दुनिया में कोई वर्ग ही नहीं रहे, हमारा समाज वर्गहीन हो जाए तो साँस में साँस आए। मनुष्य और प्रकृति दोनों साँस लेते हुए चैन से जी सकें।
इति संवाद:।।
11.10.2024