@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

बुधवार, 3 जून 2020

बाबूजी की साइकिल

बाबूजी पंचायत समिति में स्कूल इंस्पेक्टर हुए तो उन्हें गाँवों के स्कूलों का निरीक्षण करने जाना पड़ता था। वहाँ जाने के लिए साइकिल, मोटर साइकिल और जीप ही साधन थे। सरकार ने तो कुछ उपलब्ध नहीं करा रखा था। बस भत्ता दे दिया करती थी। बाबूजी ने तब तक खुद कभी साइकिल तक नहीं चलाई थी। पैदल चलने के अभ्यासी थे। साइकिल उन्हें लक्जरी नजर आती थी। पच्चीस-तीस किलोमीटर जा कर काम कर के लौट आना उन के लिए साधारण बात थी। कई अध्यापक अपने गाँवों से दूर 10 से 30 किलोमीटर तक के स्कूलों में रोज आते जाते थे और उन्हों ने साइकिलें ले रखी थीं। ऐसे में इन्स्पेक्टर निरीक्षण करने पैदल पहुँचता तो कई संकट खड़े हो जाते। एक तो निकलते ही अध्यापकों को खबर हो जाती कि आज इंस्पेक्टर साहब किधर निरीक्षण करने वाले हैं और पहले ही सतर्क हो जातेनिरीक्षण का मतलब ही न रह जाता। रास्ते में हर कोई उन्हें अपनी साइकिल के कैरियर पर बिठा कर ले जाने की पेशकश करता। फिर लोग भी मजाक करते कि कैसे इंस्पेक्टर हैं साइकिल तक नहीं रखते, कम से कम मोटर साइकिल तो होनी चाहिए। पंचायत समिति के स्टाफ ने कम से कम साइकिल जरूर खरीद लेने की सलाह दी। उन्हें चलाना नहीं आता था। किसी सहकर्मी ने उन्हें चलाना सिखा दिया। नहीं सिखा पाया तो पैडल मार कर खुद से साइकिल पर चढ़ना नहीं सिखा पाया। वे खुद भी आजीवन यह तकनीक नहीं सीख पाए। उन्हों ने जब तक साइकिल चलाई तब तक किसी ऊँची जगह पर से साइकिल की सीट पर चढ़ कर साइकिल चलाते रहे। जब तक साइकिल पर चढ़ने लायक ऊँचा पत्थर आदि नहीं मिलता वे उसे साथ ले कर पैदल चलते रहते।

जब ये वाली साइकिल घर में आयी तब मैं नवीं कक्षा में पढ़ रहा था, उम्र बारह की हो चुकी थी। दूसरे साथी किराए की साइकिल ला कर चलाना सीख चुके थे। वे किराए पर घण्टे दो घण्टे के लिए साइकिल लाते और कैंची चलाते रहते। हम बड़ी हसरत से उन्हें देखते रहते। बाबूजी से तो कभी कहने की हिम्मत भी न पड़ती कि उन से किराए पर साइकिल लाने को पूछ लें। दाज्जी का मैं बहुत लाड़ का था। उन्हें डर लगता कि कहीं गिर गया या किसी और ने गिरा दिया या किसी बड़े वाहन ने टक्कर मार दी तो मुझे चोट लग जाएगी। उन्हों ने भी कभी अनुमति नहीं दी। उन दोनों की अथॉरिटी के बिना अम्माँ तो कभी इजाजत देने से रही। तो इस तरह साइकिल चलाने की विद्या के मामले में मैं भी कोरा था। बस एक ही हसरत थी कि कभी तो घर में साइकिल आएगी, तभी सीखेंगे और चलाएंगे। किराए की साइकिल ले कर सीखना और चलाना भी कोई चलाना है।

अब साइकिल घर में आ ही गयी थी तो मैं उसकी सेवा में लग गया। बाबूजी को ले जाने के लिए रोज उसे झाड़ पोंछ कर टनाटन रखता। घर हमारा सड़क से ऊंचा था। सीढ़ियों से आना जाना पड़ता था। रोज सुबह साइकिल को घर से उठा कर सड़क तक रखने और शाम हो जाने पर सड़क से उठा कर वापस घर में रखने का काम भी मैं ही करता। कभी उसे चलाने की हिम्मत भी नहीं होती। अब समस्या यह थी कि किसी तरह बाबूजी को यह विश्वास हो जाए कि मैं ने साइकिल चलाना सीख लिया है, तो साइकिल चलाने को मिले। मैं जुगाड़ में था कि यह कैसे हो।

मेरे एक फूफाजी थे, वे भी अध्यापक थे। कई साल तक वे नगर के स्कूल में ही थे। फिर उन की पदोन्नति हुई तो पदस्थापन 12 किलोमीटर दूर हुआ। उन्हों ने साइकिल खरीदी, सीखी और उसी से नौकरी जाने लगे। मेरी उन से खूब पटती थी। इतवार को उनकी छुट्टी रहती। आखिर एक इतवार उन के घर गया और साइकिल सिखाने की फरमाइश की। वे तुरन्त तैयार हो गए। साइकिल निकाली उस की सीट पर मुझे बैठाया। बोले पैडल और हेण्डल को नहीं देखना। बस सामने सड़क पर देखना। मैं पीछे कैरियर से पकड़ता हूँ गिरने नहीं दूँगा। तुम पैडल मारो और चलाओ। सीखना तो था ही। गिरने विरने और थोड़ा बहुत छिल जाने का डर पहले ही घर रख कर आया था। गिर भी गया तो फूफाजी साथ थे, फर्स्ट एड उन्हों ने ही कर देनी थी।

मैं ने पैडल मारा, साइकिल चली और चलती गयी। गति बढ़ती गयी। कोई चालीस पचास गज चल चुकी तब ध्यान आया कि फूफाजी पीछे से पकड़े भी हैं कि नहीं। मैं ने ब्रेक लगाया और साइकिल टेड़ी कर के बायाँ पैर जमीन पर जमा दिया। साइकिल रुक गयी। हम दोनों गिरने से बच गए। मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो फूफाजी दस गज पीछे मुस्कुराते हुए चले आ रहे थे। बोले साइकिल चलाना तो तुम्हें आता है, बस अभ्यास करना शेष है। मुझे भी थोड़ा कोन्फिडेंस आ गया। फिर उन्हों ने मुझे साइकिल पर पैडल से चढ़ना और उतरना सिखाया आधे घण्टे बाद जब मैं इन दोनों करतबों में कामयाब हो गया तो उन्हों ने मुझे चलाने को साइकिल दे दी। मैं ने उस पहले दिन ही करीब एक घण्टे साइकिल चलाई। चौड़ी सड़क पर, फिर गली में। आखिरी बार फूफाजी उन के घर के सामने सड़क पर खड़े थे और मैं सामने की ढाई फुट की संकरी गली में से निकल कर उन तक पहुँचा तो कहने लगे। तुम आज से अपनी साइकिल बेधड़क चला सकते हो। जिस गली से साइकिल चलाते हुए निकल कर आए हो उस से तुम्हारा इम्तिहान हो चुका है और तुम पास हो गए हो। मैं ने उन्हें कहा, “जब तक आप खुद बाबूजी को इस इम्तिहान का रिजल्ट नहीं बता देंगे, मुझे साइकिल नहीं मिलेगी।“

अगले इतवार फूफाजी हमारे घर आए। बाबूजी को पूरा किस्सा सुनाया कि मैं ने कैसे साइकिल चलाना सीखा है, और अब अच्छी तरह साइकिल चला सकता हूँ। उन्हें किस्सा सुनाते देख मैं वहाँ से खिसक कर दूसरे कमरे में चला गया और वहाँ से छिप कर उन की बातें सुनता रहा। फूफाजी ने उन्हें खास तौर पर यह बताया कि मैं पैडल से चढ़ना उतरना भी सीख चुका हूँ। बाबूजी मेरी इस कामयाबी पर बहुत खुश थे।

कुछ दिन बाद बाबूजी को किसी काम से छुट्टी लेनी पड़ी। उन्हें साइकिल की जरूरत नहीं थी। मैं ने अवसर देख कर पूछा, “मैं साइकिल स्कूल ले जाऊँ?”

उन्हों ने मेरी ओर देखा। मैं बहुत सहमा हुआ खड़ा था। मुझे देख कर वे मुस्कुराने लगे।

“ले जाओ, पर गिरना गिराना मत।“ मैं फौरन वहाँ से खिसक लिया। कहीं बाबूजी का इरादा बदल न जाए। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था।

उस के बाद दो साल और बाबूजी इंसपेक्टर रहे। फिर उन का स्थानान्तरण विषय अध्यापक के पद पर दूर के कस्बे में हो गया। वे वहीं जा कर रहने लगे। हम दादाजी के साथ अपने शहर में ही रहते रहे। तब यह साइकिल स्थायी रूप से मेरी हो गयी।



शनिवार, 23 मई 2020

इन्सान के पैर


जिन सड़कों पर हम चले
जिन पर चलते हुए
कुचले गए भारी वाहनों से
उन सड़कों से पहले
कुछ और था वहाँ

गाड़ियों के चलने से बनी गडार
उस से भी पहले
वहाँ थी पगडण्डियाँ
जिन्हें बनाया था
इन्सान के पैरों की छाप ने

तो सड़कें आयीं
बहुत बाद में
वे इन्सान के चलने से
धरती पर पड़े निशानों की
तीसरी पीढ़ी हैं।





बुधवार, 20 मई 2020

फेक न्यूज : हमें खुद को परिष्कृत करना होगा।

एनडीटीवी इंडिया के डिजिटल एडिटर विवेक रस्तोगी का एक साक्षात्कार समाचार मीडिया डॉट कॉम ने प्रकाशित किया हैइस में उन्होंने फेक न्यूज' के बारे में पूछे गए प्रश्न कि, "फेक न्यूज का मुद्दा इन दिनों काफी गरमा रहा है। खासकर विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फेक न्यूज की ज्यादा आशंका रहती है। आपकी नजर में फेक न्यूज को किस प्रकार फैलने से रोका जा सकता है? का उत्तर देते हुए कहा है .... 

Vivek Rastogi
"फेक न्यूज का मुद्दा कतई नया नहीं है और इस पर चर्चा लम्बे अरसे से चली आ रही है। संकट काल में इसके फैलाव की आशंका बढ़ जाती है, क्योंकि हमारे समाज का एक काफी बड़ा हिस्सा शोध और सत्यापन की स्थिति में नहीं होता, और न ही उन्हें इसकी आदत रही है। मीडिया संस्थानों की विश्वसनीयता उनके अपने हाथ में होती है। अगर सभी संस्थान एनडीटीवी की भाँति कोई भी समाचार 'सबसे पहले' देने के स्थान पर 'सही समाचार' देने का लक्ष्य बना लें, तो इस समस्या से कुछ हद तक छुटकारा पाया जा सकता है। रही बात सोशल मीडिया की, तो हमारे-आपके बीच ही, यानी हमारे समाज में ही कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्हें किसी सत्यापन की जरूरत महसूस नहीं होती, जिसके चलते फेक न्यूज़ ज़ोर पकड़ती है। वैसे, फेक न्यूज़ फैलाने के पीछे लोगों के निहित स्वार्थ भी होते हैं और अज्ञान भी। इसलिए, इसके लिए सभी को मिलजुलकर प्रयास करने होंगे। सोशल मीडिया पर समाचार पढ़ने वालों को जागरूक करना होगा कि वे हर किसी ख़बर पर सत्यापन के बिना भरोसा न करें।"

मेरा भी सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों से यह अनुरोध है कि वे विवेक रस्तोगी की इस बात को गाँठ बांध लेना चाहिए कि, हम किसी भी समाचार जो हमें किसी भी स्रोत से मिला हो उसे आगे सम्प्रेषित करने के पूर्व जाँच लेना चाहिए कि कहीं वह फेक तो नहीं हैं। यहाँ सोशल मीडिया पर सभी विचारधारा और विचारों वाले लोग हैं, अक्सर लोग अपनी विचारधारा या स्वयं को अच्छे लगने वाले समाचारों, सूचनाओँ आदि को सही मान कर जल्दी में सम्प्रेषित कर देते हैं, यहीं हम से चूक होती है। हम मिथ्या और गलत चीजों को आगे बढ़ने का अवसर दे देते हैं। 

यदि हम चाहते हैं कि भविष्य की दुनिया अच्छी सच्ची और इन्सानों के रहने लायक हो तो हमें झूठ को इस दुनिया से अलग करना होगा, और इसका आरम्भ हम स्वयं से कर सकते हैं। हम खुद तक पहुँचने वाली सूचनाओं को ठीक से जाँचें और उन्हें आगे काम में लें। यही चीज हमारे लिए आगे बहुत काम देगी। इसी से हमारी विश्वसनीयता भी बनी रहेगी। वर्ना फैंकुओँ की दुनिया में कोई कमी नहीं है। खास तौर पर उस समय में जब उन में से अनेक आज राष्ट्र प्रमुखों के स्थान पर बैठे हैं।

मुझे लगता है हमें आज और इसी पल इस काम को आरंभ कर देना चाहिए, इसे अपनी आदत बना लेनी चाहिए। एक तरह से यह स्वयम् को  परिष्कृत (Refine) करना होगा।


शनिवार, 16 मई 2020

निक नेम


मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“


कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

निक नेम

मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“

कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

शुक्रवार, 15 मई 2020

गौरैया


पता नहीं दोनों क्या कर रहे थे। लेकिन पर फड़फड़ाने की आवाजें बहुत जोर की थीं। फिर एक-एक कर तिनके गिरना शुरु हुए। मैं वहाँ से चला आया। कुछ देर बाद शोभा ने आ कर बताया कि उन्हों ने अपना घर गिरा कर नष्ट कर दिया है। मैं ने जा कर देखा तो सारी बालकनी में कबूतर का घोंसला गिरा पड़ा था, एक अंडा टूटा हुआ पड़ा था, उसकी जर्दी फ्लोर पर बिखरी थी। इसका मतलब था कि उनका अंडा कच्चा ही था। मैं तो यह समझे बैठा था कि अंडों से बच्चे निकल आए हैं, और उड़ने की कोशिश में घोंसले के तिनके नीचे गिरा रहे हैं। अब शाम पड़े ये बालकनी का कूड़ा साफ कर के धोने का काम और सिर पर आ गया था।

संतान की चाह रखने वालों का अंडा टूट कर गिर जाने से अच्छा नहीं लग रहा था। मन उदास हो गया था। सोच रहा था कि एक छोटी सी दुर्घटना कैसे जीवन को अंडे से खोल के बाहर निकलने के पहले ही समाप्त कर देती है। मुझे कबूतर जोड़े पर गुस्सा भी बहुत आया। आखिर वे वहाँ इस तरह क्यों फड़फड़ा रहे थे? मैं ने कबूतरों को इस तरह फड़फड़ाते हुए तब देखा था जब ऐसे ही अंडा फूटा था। तब भी उनका घौंसला इसी ए.सी. के ऊपर रखे गत्ते पर था। जोड़े की ऐसी ही हरकतों से गत्ता सरक कर लटक गया था और नीचे गिरने को था। मैं एक डंडे से उसे वापस ए.सी. पर सरकाना चाह रहा था कि कबूतर ने हरकत की और घोंसला अंडों समेत नीचे गिर गया। उस वक्त मुझे कुछ अपराध बोध था कि मेरी डंडे से गत्ता सरकाने की कोशिश उस दुर्घटना का पूरा नहीं तो आंशिक कारक जरूर था।

तभी एसी के ऊपर से चीं..चीं की आवाजें आईं। यह बड़े अचरज की बात थी। मैंने ऊपर देखा और आवाज पर गौर किया तो समझ गया कि वे गोरैया के बच्चों की आवाजें हैं। असल में एसी के ऊपर एक थर्माकोल चिपका हुआ गत्ता रखा था, जिससे पक्षी ए.सी. में तिनके न गिराएं। उस थर्माकोल में कुछ जगह थी। उसे अपनी चोंचों से खोद खोद कर गोरैया के जोड़े ने अपने घोंसले के लायक चौड़ा कर लिया था। वहाँ उसने अंडे दिए हुए थे। शायद उन से बच्चे निकल आए थे।

चीं चीं चीं ... गोरैया के बच्चे फिर गीत गा रहे थे। मेरी उदासी कुछ कम हो गयी।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

कोविद-19 से लड़ाई मैदान में हमें खुद लड़नी पड़ेगी?


पिछले चार-पाँच दिनों से जिस तरह की रिपोर्टें आ रही हैं उन से लग रहा था कि भारत में 75-80 प्रतिशत कोरोना संक्रमित ऐसे हैं जिनमें कोई लक्षण ही नहीं नजर आ रहे हैं। वे समाज में खुले घूम रहे हैं और निश्चित ही अनेक को संक्रमित भी कर रहे हैं। इस पर कल ही लिखना चाहता था, पर अधिकारिक निष्कर्ष के बिना इस लेख को ले कर मेरी कुटाई भी हो सकती थी। लेकिन कल एमआईसीआर ने भी इस तथ्य की पुष्टि कर दी है।

इस स्थिति में यदि हम देश को कोविद-19 मुक्त करना चाहें तो देश के हर निवासी का हमें टेस्ट करना पड़ेगा वह भी एक बार नहीं कम से कम कुछ कुछ अन्तराल से तीन बार। फिर उन्हें क्वेरंटाइन कर के उनके संक्रमण को समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और उन्हें जीवित बनाए रखने के प्रयास भी जारी रखने होेगे। देश को सारी दुनिया से तब तक काट कर रखना होगा जब तक कि दुनिया कोविद-19 से मुक्त न हो जाए। जो मैं कह रहा हूँ, वह भारत के किसी एक नगर के लिए भी संभव नहीं है। राज्य और देश तो बहुत दूर की बातें हैं। फिर?

हमने देश को लॉकडाउन करके 40 करोड़ रोज मजदूर आबादी को संकट में डाल दिया है। उन्हें उनके घरों तक या जहाँ उन्हें काम उपलब्ध हो सके वहाँ तक पहुँचाने में हम असमर्थ हैं। हमने उन्हें परिस्थितियों की दया पर छोड़ दिया है। हम बाहर पढ़ रहे बच्चों को लाने मे राज्यों की मशीनरी झोंक चुके हैं। पर देश का निर्माण करने और उसे चलाने वाले मजूरों के लिए हमारे पास कुछ नहीं है।

लॉकडाउन के एक माह में हम बेहाल हो चुके हैं। हम अधिक दिनों तक इस बीमारी का बोझा नहीं ढो सकते। सरकारें दिवालिया होने की कगार पर हैं। हम रिजर्व बैंक के रिजर्व को खर्च कर रहे हैं। उसका भी अधिक लाभ जनता को नहीं, वित्तीय पूंजी के रक्षक और पूंजीपतियों की सेवा करने वाले बैंकों को मिल रहा है।

लॉकडाउन  इस महामारी का इलाज नहीं है, न ह ो सकता है।  इस लॉकडाउन ने हमें रुक कर सोचने का मौका दिया है।  फिलहाल हमें सामाजिक सामञ्जस्य के साथ भौतिक दूरी (सामाजिक दूरी नहीं)  का अभ्यास करना है,  मास्क लगाने, नियमित रूप से हाथ साफ करने   तथा दूसरे साफ सफाई के तरीके  अपनाने और उन्हें आदत बना लेने  की जरूरत है। यही इस महामारी का इलाज हैं। 

आने वाला वक्त मुझे लगता है ऐसा हो सकता है बीमारी और मौत का डर छोड़ कर हमें अपनी वास्तविक गति में आने को बाध्य होना पड़ेगा। वही इस का इलाज भी होगा। हमें कोविद-19 से  लड़ाई हमें  घरों में छुप कर नहीं बल्कि मैदान में आ कर  खुद लड़नी होगी। लड़ाई में जरूर कुछ हजार या लाख खेत रह सकते हैं। तो वे तो अब भी खेत रह रहे हैं। पर अभी हमने सब कुछ दाँव पर लगा रखा है। तब शायद सब कुछ दाँव पर नहीं होगा। क्या होगा? यह तो भविष्य ही बता सकता है।


मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

भारतीय दलितों के अमर सेनानी -डॉ. भीमराव अम्बेडकर

डाक्टर भीमराव अम्बेडकर ने देश के दलित, आदिवासी और निम्न जातियों के उत्पीड़न के हिन्दू (सनातन) धर्म के आधारों को खुल कर लोगों के सामने रखा और उसके विरुद्ध दलितों को एकजुट हो कर उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार किया। यहाँ तक कि उन्होंने हजारों लोगों के साथ हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया। उन्होंने भारतीय संविधान को तैयार करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। भारतीय संविधान का मूल ढाँचा उनके बिना तैयार नहीं हो सकता था।

उनसे बहुत असहमतियाँ हैं, जो उनकी दार्शनिक समझ से संबंधित हैं। वे बार-बार और लगातार दर्शन के भाववादी आधारों पर चोट करते रहे, लेकिन उससे अन्त तक मुक्त नहीं हो सके। भौतिकवादी दर्शनों के संसार की तरफ उनके पग बार बार उठते लेकिन पता नहीं किस मोहपाश के कारण वे वापस लौट जाते। यही एक कारण था कि वे किसी भी भौतिकवादी दर्शन को कभी ठीक से समझ ही नहीं सके। उनकी दार्शनिक समझ के इस अधूरेपन के कारण ही आज वे स्थितियाँ दलितों के बीच मौजूद हें जिसके कारण मनुवादी सत्ता को बार बार दलितों, आदिवासियों और पिछ़ड़ी जातियों की एकता तोड़ने में सफलता मिलती रही है। उनके तमाम लेखन में भाववाद के प्रति जो मोह है, उसी ने उनके जीवित रहते ही उनमें देवत्व उत्पन्न कर दिया। आज तो दलितों के एक बहुत बड़े हिस्से ने उन्हें भगवान का दर्जा दे दिया है। वे उन्हे उसी तरह पूज रहे हैं जैसे हिन्दू अपने देवताओं गणेश, शिव, विष्णु और ब्रह्मा को पूजते हैं। यही एक चीज है जो उनके तमाम संघर्षों को फिर से उसी भाववादी कीचड़ के सागर में डुबो देती है।

बावजूद अपनी इस कमजोरी के उन्होंने दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों के उत्थान और उनमें से हीनताबोध को नष्ट करने का जो बड़ा ऐतिहासिक काम किया है। उसके लिए वे भारतीय दलितों के अमर सेनानी के रूप  में सदैव याद किए जाएंगे। उनका नाम अमर हो गया है वह इतिहास के पृष्ठों से कभी मिटाया नहीं जा सकता।

आज उनके जन्मदिन पर उनके तमाम महान कार्यों के लिए मैं उनका नमन करता हूँ।