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गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

समय-2009, समय-2010

समय-2009, समय-2010
  • दिनेशराय द्विवेदी

जा रहा हूँ,  मैं
कभी न लौटने के लिए 
हमेशा की तरह

तुम विदा  करो मुझे
खुशी-खुशी 
या फिर  नाराजगी  के साथ
या दुखी हो कर
मेरा जाना  तय है
हमेशा की तरह

मैं  नहीं रुकता  कभी 
किसी हालत में
मैं आता हूँ, मैं जाता  हूँ
मैं रहता हूँ तुम्हारे साथ
हर दम,  हमेशा
शायद तुम मुझे नहीं पहचानते
तो पहचानना सीखो
जिस ने पहचाना 
उस ने जिया है जीवन 
नहीं पहचाना जिस ने 
वह रहा असमंजस  में हमेशा
हमेशा की  तरह


नाम  नहीं था कोई मेरा
तुमने ही मुझे नाम दिया
किसी ने दिन कहा
किसी ने बांटा मुझे
प्रहरों, मुहुर्तों, घड़ियों,
पलों, विपलों, निमिषों में
किसी ने इन्हें जोड़ 
सप्ताह,  पखवाड़े, महीने 
मौसम, साल और सदियाँ  बना डालीं
कोई  युग और महायुग भी बना दे 
तो भी मैं रुकूंगा  नहीं
आना  और जाना  
मेरा स्वभाव है
मैं आता रहूंगा
मैं जाता  रहूँगा
तुम हो तब भी
तुम नहीं रहोगे तब भी
हमेशा, हमेशा की तरह

मैं जा रहा हूँ
प्रसन्नता के साथ
विदा  करो मुझे ......


लो  मैं  आ रहा हूँ फिर
मुझे पहचानो
स्वागत करो मेरा
प्रसन्नता के साथ

जिओ जीवन 
मेरे  साथ
हमेशा,  हमेशा की तरह।


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सभी को मुबारक हो आने वाला साल !
सब के लिए लाए खुशियाँ आने वाला साल !  

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 चित्रों पर दोहरा क्लिक कर  पूरे आकार में देखें

मेट्रो, पराठा-गली, शीशगंज गुरुद्वारा और लाल-किला

      मेट्रो में यात्री पीछे खिड़की में एक 
यात्री, मेरी  और पूर्वा  की प्रतिच्छाया


सीट  पर बैठी  बंगाली युवती की मेरी  तरफ  पीठ थी  लेकिन जो लड़का  उस से बात  करने में मशगूल था  उस का चेहरा  मेरी  तरफ  था। वे दोनों  मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली आदि  नगरों  की बातें  करते हुए कलकत्ता की उन से तुलना  कर रहे थे। मुद्दा  था नगरों  की  सफाई। युवक कुछ ही देर  में  समझ  गया कि मैं उन की बातों में रुचि ले रहा हूँ। यकायक उसे अहसास हुआ  कि उन की उन की भाषाई गोपनीयता  टूट  रही  है। उन की  किसी बात पर मुझे  हँसी आ गई। तभी  युवक ने  मुझ से पूछ ही लिया - आप को बांग्ला आती  है? -नहीं आती। पर ऐसा भी नहीं कि बिलकुल ही नहीं आती, कुछ तो समझ ही सकता हूँ।  धीरे-धीरे वह युवक मुझ से बतियाने  लगा। मैं ने उसे बताया कि कलकत्ता  भले ही आज बंगाली संस्कृति  का केन्द्र बना हो।  पर उसे बसाने वाले  अंग्रेज ही थे। इसी बातचीत में लोकल  नई दिल्ली पहुँच गई। मैं उतरा  और  पूर्वा  और शोभा को देखने  लगा। वह जल्दी  ही दिखाई दे गई।
शीशगंज गुरुद्वारा

म पुल पार  कर स्टेशन से बाहर निकले। सामने ही मेट्रो स्टेशन में उतरने के लिए द्वार था। हम उस में घुस लिए। शोभा पहली बार  दिल्ली आई  थी। हमने  मेट्रो स्टेशन पर  मेट्रो का मानचित्र दिखाने वाले तीन पर्चे  उठाए, एक-एक तीनों  के लिए। गंतव्य तलाश करने लगे। कुछ महिलाएँ  अलग लाइन लगाए हुए थीं। पूर्वा  उधर ही बढ़ी। कुछ ही सैकंड में  वापस आ कर कॉमन लाइन में  लग  गई।  उस ने बताया कि टोकन  के  लिए महिलाओं  की  अलग लाइन नहीं है। मुझे  प्रसन्नता हुई कि  मेट्रो में तो कम  से कम स्त्री -पुरुष भेद समाप्त  हुआ। वह कुछ ही देर  में टोकन लाई और एक-एक हम दोनों  को  दे दिए। अब हमें  सीक्योरिटी  गेट  से अंदर जाना था। मेरा  स्त्री -पुरुष समानता का भ्रम यहाँ टूट  गया। यहाँ फिर स्त्री -पुरुषों के  लिए अलग-अलग गेट  थे। पूर्वा और शोभा जल्दी ही अंदर  पहुँच गईं।  पुरुषों की  पंक्ति स्त्रियों से कम से कम आठ  गुना अधिक थी। मुझे अंदर पहुंचने  में  तीन-चार मिनट  अधिक लगे।
जैन मंदिर चांदनी चौक

मारा  पहला  गंतव्य पहले से तय था। डेढ़  बज  रहे थे और हमें लंच करना था। चांदनी चौक पहुँच कर सीधे पराठे वाली गली जाना  था और पराठे चेपने  थे। एक  ही  स्टेशन बीच  में पड़ता  था। यह  मेट्रो की  ही  मेहरबानी थी कि हम मिनटों में चांदनीचौक में थे। शीशगंज  गुरुद्वारा से आगे ट्रेफिक रोका  हुआ था।  किसी वाहन  को अंदर  नहीं जाने दिया जा रहा  था। सड़क पर  वाहन न होने से वह  बहुत  खुली-खुली लग रही थी। लोग  बेरोक-टोक  सड़क पर चल रहे थे। मुझे लगा कि जब दिल्ली  में स्वचलित  वाहन नहीं रहे होंगे  तब चांदनीचौक  कितना  खूबसूरत होता  होगा। हम  पराठा गली में पहुँचे  तो दुकानों  में  बहुत भीड़  थी। सब  से पुरानी  दुकान  पर जी टीवी वाले किसी कार्यक्रम  की शूटिंग  कर  रहे थे।  मुझे  तुरंत खुशदीप  जी का स्मरण हुआ। हो  सकता है इस कार्यक्रम का निर्माण वही करा रहे हों। खैर, हमें  जल्दी ही  वहाँ जगह  मिल गई। हमने एक-एक परत  पराठा और  एक-एक मैथी का  पराठा खाया और एक लस्सी पी। आठ-दस वर्ष पहले पराठों में  जो  स्वाद  आया था  अब वह नहीं  था।  लगता  था  जैसे अब ये दुकानें केवल  टीवी से मिले प्रचार को भुना  रही हैं। भोजन  के उपरांत वहीं  गली  में एक-पान  खाया और हम गली से बाहर  आए।
लाल किला


ल्लभगढ़  से रवाना  होने  के पहले पूर्वा ने कहा था, हम  गुरुद्वारा  जरूर चलेंगे, वह  मुझे अच्छा लगता  है। वहाँ सब कुछ  बहुत  स्वच्छ  और शांत  होता  है। लेकिन शीशगंज गुरुद्वारा  में अंदर जाने  के लिए लोगों  की  संख्या  को देख उस का इरादा  बदल गया और हम आगे बढ़  गए। मैं ने गुरुद्वारा के  कुछ चित्र अवश्य वहीं सामने के  फुटपाथ पर  खड़े हो  कर लिए।  हमने  नीचे भूतल  पर बनी सुरंग  से सड़क  पार  की और निकले  ठीक लाल किला के सामने। वहाँ द्वार  बंद था। बोर्ड  पर लिखा था। किला सोमवार के अलावा  पूरे  सप्ताह देखा  जा सकता  है। हमारी बदकिस्मती  थी कि हम वहाँ सोमवार  को ही पहुँचे थे।  हम ने बाहर गेट  से ही किले  के चित्र  लिए और वापस मेट्रो  स्टेशन की  ओर चल दिए।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

छुट्टियों का एक दिन ..... दिल्ली की ओर ........

दिसंबर 26, 2009 को इस ब्लाग पर आलेख लिखा था अब हुई छुट्टियाँ शुरू, और दिसंबर 27 को अली भाई की मजेदार टिप्पणी मिली .......

वकालत व्यवसाय है ...लत नहीं...सो छुट्टी मुमकिन है...पर ब्लागिंग लत है...व्यवसाय नहीं...कभी छुट्टी लेकर बताइये !
हाहाहा !




इंडिया  गेट  के सामने  खिले फूल
त ही सही, पड़ गई सो पड़ गई। और  भी कई लतें हैं जो छूटती नहीं। पर  उन का उल्लेख फिर कभी, अभी बात छुट्टियों की। दिसंबर 27 को दी इतवार (दीतवार) था। बेटी पूर्वा का अवकाश। सुबह का स्नान, नाश्ता वगैरह करते-करते इतना समय हो गया कि कहीं बाहर जाना मुमकिन नहीं था।  दिन में कुछ देर आराम किया फिर शाम को  बाजार जाना हुआ। पूर्वा को घर का सामान खरीदना था। जाते समय  तीनों पैदल गए। बाजार में सामान लेने के साथ एक-एक समोसा  खाया गया। वापस आते वक्त सामान होने के कारण दोनों माँ-बेटी को  रिक्शे पर रवाना कर  दिया । मैं पैदल  चला। रास्ते में पान की गुमटी मिली तो पान खाया, लेकिन वह मन के मुताबिक न था। पान वाले से बात भी की। वह कह रहा था। पान का धंधा हम पान वालों ने ही बरबाद कर दिया है। हम ही लोगों ने पहले गुटखे बनाए। लोगों को अच्छे  लगे तो पूंजी  वाले उसे ले  उड़े। उन्हों ने पाउचों में उन्हें भर दिया। खूब विज्ञापन  किया। अब गुटखे के ग्राहक हैं, पान के नहीं, तो पान कैसे मजेदार बने?  बड़े चौराहों पर जहाँ पान के दो-तीन सौ ग्राहक दिन में हैं, वहाँ अब भी पान मिलता है, ढंग  का। खैर उस की तकरीर सुन हम वापस लौट लिए।  शाम फिर बातें करते बीती। भोजन कर फिर एक बार पैदल निकले  पान की तलाश में इस बार भी जो गुमटी मिली वहाँ फिर दिन वाला किस्सा था। सोचता रहा कहीँ ऐसा न हो कि किसी जमाने में पान गायब ही हो ले। पर जब मैं मध्यप्रदेश और राजस्थान के अपने हाड़ौती अंचल के बारे में सोचता हूँ तो लगता है यह सब होने में सदी तो  जरूर ही  लग जाएगी।  हो सकता है तब तक लोगों  की गुटखे  की लत  वापस  पान पर लौट  आए।
स दिन कुछ और न लिखा गया। हाँ, शिवराम जी की एक कविता जरूर आप लोगों तक पहुँचाई। वह भी देर रात को। इच्छा तो यह भी थी कि तीसरा खंबा पर भारत का  विधि इतिहास की अगली  कड़ी लिख कर ही खुद को  रजाई के हवाले किया जाए। पर बत्ती जल रही थी। पूर्वा और उस की प्यारी  माँ  सो  चुकी थीं। मुझे लगा बत्ती उन की नींद में खलल डाल सकती है। देर रात तक जागने का सबब यह भी हो सकता है कि सुबह देर तक नींद न खुले। अगले दिन पूर्वा का अवकाश का  दिन था। हो सकता है वह सुबह सुबह कह दे कि कहीं घूमने चलना है, और मैं देर से नींद खुलने के कारण तैयार ही न हो सकूँ। आखिर मैं ने भी बत्ती बंद कर दी और रजाई की  शरण ली।
सुबह तब हुई, जब शोभा ने कॉफी की प्याली बिस्तर पर ही थमाई। कोटा में यह सौभाग्य शायद ही कभी मिलता हो।  मैं ने भी उसे पूरा सम्मान दिया।  बिना बिस्तर से नीचे उतरे पास रखी  बोतल से दो घूंट पानी गटका और कॉफी पर पिल  पड़ा।  हमेशा कब्ज की आशंका से त्रस्त आदमी के लिए यह खुशखबर थी, जो कॉफी का आधा प्याला अंदर जाने  के बाद पेट के भीतर से आ रही थी। जल्दी से कॉफी पूरी कर भागना पड़ा। पेट एक  ही बार में साफ हो लिया।  नतीजा ये कि स्नानादि से सब से पहले मैं निपटा। फिर शोभा और सब से बाद में पूर्वा। पूर्वा ने स्नानघर से बाहर निकलते ही घोषणा की कि दिल्ली घूमने चलते हैं। हम ने तैयारी आरंभ कर दी। फिर  भी घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए। बल्लभगढ़ से 11.20 की  लोकल पकड़नी थी। टिकटघर पर लंबी लाइनें थीं। ऐसे  में टिकटबाबुओं को  तेजी से काम निपटाना  चाहिए। पर  वे पूरी सुस्ती से अपनी  ड्यूटी कर रहे थे। मुझे पुरा अंदेशा था कि टिकट  मिलने  तक  लोकल निकल  जाने वाली थी। पर पूर्वा किसी तरह टिकट  ले आई। लोकल दस मिनट लेट  थी, हम उस में सवार हो सके।  नई दिल्ली स्टेशन के लिए। 

स्टेशन पर  से बहुत भीड़ चढ़ी। पूर्वा और शोभा चढ़ीं महिला डब्बे में मैं  जनरल  में। बैठने का कोई  स्थान न था। गैलरी में  खड़ा रहा। फरीदाबाद से दो लड़के  चढ़े, बड़े-बड़े बैग लिए। भीड़ के कारण फंस गए थे वे। एक का सामान उठा कर आगे खिसकाया  तो  गैलरी में जगह हुई। दूसरा वहीं खड़ा रहा। उस ने बताया कि वह गाँव जा है,  भागलपुर, बिहार, उस का नाम अविनाश है। यहाँ दिल्ली में बी.ए. पार्ट फर्स्ट में पढ़ता है। मैं समझा वह भागलपुर के नजदीक किसी  गाँव का रहा होगा, पर उस ने बताया कि वह भागलपुर शहर का ही है। तो फिर वह बी.ए. पार्ट फर्स्ट  करने यहाँ दिल्ली क्यों आया? यह तो वह वहाँ रह कर भी कर सकता था ? पर उस ने खुद ही बताया कि वहाँ दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते थे। इसलिए  पिताजी ने उसे यहाँ डिस्पैच कर दिया। यहाँ दो हजार में कमरा लिया है और एक डिपार्टमेंटल स्टोर पर सेल्समैन का  काम करता है। शाम तीन से ड्यूटी आरंभ होती है जो रात ग्यारह बजे तक चलती है। तीन बजे के पहले अपने क़ॉलेज पढ़ने जाते हैं। तब तक  अंदर  डब्बे  में  जगह हो गयी थी। अविनाश  अंदर डब्बे में  खसक  लिया।  उस की जगह दो और लड़के वहाँ आ कर  खड़े हो गए।  उन में से  एक  कोई बात  दूसरे को सुना रहा था।  वह हर वाक्य  आरंभ करने के पहले हर बार भैन्चो जरूर बोलता था। कोई  तीन-चार  मिनट में ही मेरे तो कान पक गए। पर उसे बिलकुल अहसास  नहीं था। वह उस का उच्चारण वैसे ही कर रहा था। हवन करते समय पंडित  हर मंत्र  के पहले ओउम  शब्द का उच्चारण करता है। मैं ने उन की बात से अपना ध्यान हटाने को 180 डिग्री घूम  गया। अब मेरा मुहँ अंदर सीट पर बैठै लोगों की ओर था। वहाँ सीट पर बैठी एक लड़की पास खड़े एक  लड़के के साथ  बातों में मशगूल थी। दोनों बांग्ला बोल रहे थे। मैं  उन  की बांग्ला समझने की कोशिश में लग  गया।
गे का विवरण  कल  पर दिल्ली में लिए कुछ चित्र  जरूर  आप  के लिए ......

शीशगंज गुरुद्वारा

रविवार, 27 दिसंबर 2009

मैं ने चाहा तो बस इतना

ल बल्लभगढ़ पहुँचा  था। ट्रेन में राही मासूम रज़ा का उपन्यास 'कटरा बी आर्ज़ू' को दूसरी बार पढ़ता हुआ। किताब  पढ़ना बहुत अच्छा लगा। चौंतीस-पैंतीस वर्षों  पहले की यादें ताजा हो गईं। अभी पूरा नहीं पढ़ पाया  हूँ,  पूरी  होगी तो अपनी प्रतिक्रिया भी लिखूंगा। जैसा  कि मशहूर है रज़ा साहब जहाँ पात्र की  जरूरत  होती थी यौनिक  गालियों का उपयोग करने से नहीं चूकते थे। इस उपन्यास में भी  उनका उपयोग  किया गया है, जो कतई बुरा  नहीं लगता।  कोशिश करूंगा का  एक-आध वाक़या  आप के सामने भी रखूँ। आज  दिन भर पूरी तरह आराम  किया। धूप में नींद  निकाली। शाम बाजार तक घूम कर आया। अभी लोटपोट  पर  ब्लागिंग  की दुनिया पर  नजर डाली है।  एक दो टिप्पणियाँ भी की  हैं। अधिक इसलिए नहीं कर  पाया कि यहां पालथी  पर बैठ  कर टिपियाना पड़ रहा है,जिस की आदत नहीं है। पर ऐसा ही  चलता रहा तो दो -चार दिनों में यह भी आम हो जाएगा। शिवराम जी का कविता संग्रह "माटी मुळकेगी एक  दिन" साथ है, उसी से एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ.....

मैं ने चाहा तो बस इतना
  • शिवराम
मैं  ने  चाहा तो  बस इतना 
कि बिछ सकूँ तो बिछ  जाउँ
सड़क की तरह 
दो बस्तियों के बीच


दुर्गम पर्वतों  के आर-पार
बन जाऊँ  कोई सुरंग


फैल जाऊँ
किसी पुल की तरह
नदियों-समंदरों की छाती  पर


मैं ने  चाहा 
बन जाऊँ पगडंडी
भयानक जंगलों  के  बीच


एक प्याऊ 
उस रास्ते पर
जिस से लौटते हैं
थके हारे कामगार


बहूँ पुरवैया  की तरह
जहाँ सुस्ता रहे हों
पसीने से तर -बतर किसान


सितारा  आसमान का 
चाँद या सूरज
कब बनना  चाहा  मैं ने
 
मैं ने चाहा बस इतना 
कि, एक जुगनू
एक चकमक
एक मशाल
एक लाठी बन जाऊँ मैं
बेसहारों का सहारा।
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शनिवार, 26 दिसंबर 2009

अब हुई छुट्टियाँ शुरू


ज कल तो खूब मजे हैं, छुट्टियाँ चल रही हैं। यह वाक्य पिछले चार माह में अनेक बार सुनने को मिला। मैं  हर बार कहता  हूँ -कैसी  छुट्टियाँ? तो लोग तुरंत वकीलों की हड़ताल की ओर इशारा कर देते  हैं।  
ड़ताल का अर्थ कम  से कम वकीलों के लिए छुट्टियाँ नहीं हो सकता।  हड़ताल  में हम भले  ही अदालतों  में नहीं जा रहे हों लेकिन अपने मुवक्किलों का इतना  तो  ध्यान रखना  ही होता  है कि  उन  के किसी  मुकदमे में  उन  के किसी  हित की हानि न हो।  रोज अदालत जाना  जरूरी है। रोज के मुकदमों  में  अदालत ने क्या कार्यवाही  की  है , या केवल तारीख बदल दी है इस का पता  लगाना  जरूरी  है।  वही  सुबह समय  से अदालत तक जाना और  वही शाम पाँच बजे वापस लौटने  का क्रम  जारी है। शाम को दफ्तर में वही  समय से बैठना  फाइलों को तारीखें  बदल कर उन की सही जगह रखना। वही  मुवक्किलों  का आना,  उन  की समस्याएँ सुलझाना आदि  सब कुछ जारी  है। इस बीच  किसी को तत्काल किसी उपाय की जरूरत हुई तो उसे उस की व्यवस्था भी कर के  दी  और  उस के हितों की सुरक्षा भी की। जब हम पूर्णकालिक रूप से इस प्रोफेशन में व्यस्त  हों तो यह कैसे कहा जा  सकता था कि हम छुट्टियों  पर  हैं।  
वास्तव  में वकीलों  की  हड़ताल को हड़ताल की संज्ञा देना ही गलत है। इसे  अधिक  से अधिक  अदालतों का  बहिष्कार कहा जा सकता है। बस फर्क  पड़ा  है  तो  यह कि वकीलों की  कमाई  इस बीच लगभग शून्य या उस से कम ही रही है। वकील अपने वकालत के खर्च  भी पूरी  तरह नहीं निकल पा रहे हैं। वकीलों का मानना है  कि वे प्रोफेशन के हिसाब से कम से कम साल भर  पिछड़ गए  हैं। ऐसे में  उन से कोई  कहे कि वे छुट्टियाँ मना रहे हैं, तो उन पर क्या गुजरती होगी ये तो वही बता  सकता  है जिेसे यह सब सुनता पड़ा हो। हो सकता  है कुछ  गुस्सा भी  आता  हो। लेकिन यह  प्रोफेशन ही ऐसा है, उसे भी वकील मुस्कुराकर  या  उसे विनोद में बदल कर विषय  को ही गुम कर  देता  है । अब  आंदोलन अंतिम  दौर  में  है। सरकार से बात जारी है। हो सकता है नए साल के पहले सप्ताह में कोई  हल  निकल आए। 
 ड़ताल में ही सही अब वाकई ऑफिशियल छुट्टियाँ आरंभ हो गई  हैं। अब अदालतें  दो जनवरी  को ही खुलेंगी। हर अवकाश में बच्चे  घर आते  थे तो हमें घर ही रहना होता था। इन छुट्टियों में यह संभव नहीं हुआ। बेटा  बंगलुरू  में  है, उस  का आना  संभव नहीं था।  बेटी पूर्वा  भी इन दिनों अपने काम  में  व्यस्त है उस का आना भी संभव नहीं  था। अब हमारा छुट्टियों में घर रहना बहुत बोरिंग  होता, तो हम ने पूर्वा के पास  जाने का प्रोग्राम बना  लिया। तो हम आज बल्लभगढ़ आ गए। अब पूरी तरह अवकाश  पर हैं। अदालत और घर से पूरी तरह मुक्त। लोटपोट साथ लाए हैं, नैट कनेक्शन बेटी के पास है, तो गाहे-बगाहे हिन्दी ब्लाग  महफिल में हाजरी बजाते रहेंगे। 

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

वैलकम मिलेनियम!

दस वर्ष पहले हमने नई सहस्त्राब्दी का स्वागत किया। कवि-नाटककार शिवराम ने भी हमारे साथ उस का स्वागत किया। पढ़िए मिलेनियम के स्वागत में उन की कविता जो उन के संग्रह "माटी मुळकेगी एक दिन" से ली गई है।


वैलकम मिलेनियम!

  • शिवराम
जिनके बंद हो गए कारखाने 
छिन गया रोजगार
जो फिरते हैं मारे मारे
आओ! उन से कहें-
चीयर्स! वैलकम मिलेनियम! हैप्पी न्यू ईयर!


जिन की उजड़ गई फसलें
नीलाम हो गए कर्ज के ट्रेक्टर
बिक गई जमीन
जो विवश हुए आत्महत्याओं के लिए
उन के वंशजों से कहें-
चीयर्स! वैलकम मिलेनियम! हैप्पी न्यू ईयर!


उन बच्चों से जिन के छूट गए स्कूल
उन लड़कियों से 
जो आजन्म कुआँरी रहने को हो गई हैं अभिशप्त
उन लड़कों से 
जिन की एडियाँ घिस गई हैं
काम की तलाश में


उन से कहें 
चीयर्स! वैलकम मिलेनियम! हैप्पी न्यू ईयर!


गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

शाजापुर टू आगर वाया 'धूपाड़ा' सिटी

स के नजदीक पहुँचते ही दरवाजे के नीचे खड़े कंडक्टर ने पूछा कहाँ जाना है? आगर', मैं ने बताया और पूछा  -'जगह मिलेगी, हम तीन सवारी हैं।
-क्यों नहीं मिलेगी। उस ने तुरंत ही कहा और ले जा कर हमें बस में आगे ड्राइवर के केबिन में जमा दिया। मुझे लगा, अब केबिन में कोई नहीं आएगा। लेकिन उस के बाद भी कंडक्टर तीन-चार लोगों को वहाँ जमा गया। वह एक छोटी बस थी। कुल तीस सवारी बैठ सकतीं थीं, लेकिन साठ से ऊपर तो वह बस के अंदर जरूर ही जमा चुका था। बस चल दी। कंडक्टर टिकट बनाने आया। तीन सवारी के 105 रुपए हुए। मैं ने कहा -भैया तीन में पांच का कंसेशन नहीं करोगे? उस ने कहा -पाँच रुपया कौन बड़ी बात है? आप सौ ही दे दीजिए। उस ने सौ में तीन टिकट बना दिए। ड्राइवर केबिन के पास तीन-चार लड़के खड़े थे, दो बोनट पर बैठे थे। वे आपस में चुहलबाजी कर रहे थे। ड्राइवर भी उन्हीं की मंडली का दिखाई पड़ा। वह भी चुहल में शामिल हो गया। वे कर्णप्रिय मालवी बोल रहे थे, जो शायद अब गांवों या छोटे कस्बों में ही सुन पाना संभव है। मैं मालवी का आनंद लेने लगा। इस उम्र के लड़कों की बातचीत में अक्सर  कुछ गालियों का समावेश रहता है और सामान्य यौनिक गालियों का वे तकिया कलाम की तरह अवश्य प्रयोग करते हैं। करीब आधे घंटे से ऊपर चली चुहल में एक बार भी किसी यौनिक तो क्या, साधारण गाली या अपशब्द का भी उन्हों ने प्रयोग नहीं किया था। यह मेरे लिये सुखद अनुभव था। हम गाली-विहीन बोलचाल की भाषा की तलाश सभ्य कहलाए जाने वाले नगरीय मध्यवर्ग में तलाश कर रहे हैं और भविष्य में उस की संभावनाएँ तलाश कर रहे हैं।  लेकिन वह यहाँ बिना किसी श्रम के इन ग्रामीण नौजवानों में सहज उपलब्ध थी। हो सकता है वे कुछ विशिष्ठ परिस्थितियों में उन का प्रयोग करते हों लेकिन इस सार्वजनिक बस में अनायास बातचीत के मध्य उन्हों ने पूर्ण शालीन भाषा का प्रयोग किया था। बस सारे रास्ते चालीस या उस से कम की गति से ही चल रही थी और मार्ग के 55 किलोमीटर उसने दो घंटे में पूरे करने थे। सड़क एक बस की चौड़ाई जितनी थी। सामने से कोई वाहन आने पर दोनों में से किसी एक को या दोनों को सड़क के नीचे उतरना पड़ता था।
 मैं ने उन में अपनापा महसूस किया तो मैं भी उन की चुहल में शामिल हो गया। मैं किसी मुकदमे की बहस के सिलसिले में शाजापुर (म.प्र) गया था। बहस संतोष जनक हो गय़ी थी और हम वापस लौट रहे थे। शाजापुर से आगर तक यह बस थी। आगर से हमें कोटा की बस पकड़नी थी। मेरे मुवक्किल हरस्वरूप माथुर और उन के भतीजे प्रदीप मेरे साथ थे। बस एक स्थान पर रुकी वहाँ एक मार्ग अलग जा रहा था। बस उसी मार्ग पर मुड़ी। मैं ने उत्सुकता से एक नौजवान से पूछा -बस इधर जाएगी?
उत्तर मिला -बस एक किलोमीटर 'धूपाड़ा' तक जाएगी। फिर वापस लौट कर यहीं आएगी।
एक किलोमीटर गाँव तक बस का सवारियों को उतारने चढ़ाने के लिए जाना कुछ अजीब सा लगा। मैं ने पूछा -  'धूपाड़ा' बड़ा गाँव है?
-बड़ा गाँव ? सिटी है साहब, सिटी।
बताने वाला संभवतः विनोद कर रहा था। मैं ने भी  विनोद में सम्मिलित होते हुए पूछा -तो वहाँ नगर पालिका जरूर होगी?
-पंद्रह हजार की जनसंख्या है। लेकिन नगर पालिका हम बनने नहीं देते। हाउस टैक्स और न जाने क्या क्या टैक्स लग जाएंगे, इस लिए। और ये जो आप ने मोड़ पर घर देखे थे ये 'धूपाड़ा' की कॉलोनी है। अब वह नौजवान वाकई विनोद ही कर रहा था।
मैं ने भी उस विनोद का आनंद लेने के लिए उस से पूछा -तो भाई! इस सिटी की खासियत क्या है?
-यहाँ लोहे और इस्पात के औजार बनते हैं। गैंती, फावड़ा, कैंची, संडासी आदि। उस ने  और भी अनेक औजारों के नाम बताए।
-तब तो यहाँ सरौतियाँ भी बनती होंगी?  मैं ने पूछा।
-हाँ, बनती हैं और बहुत अच्छी बनती हैं। छोटी-बड़ी सब तरह की। आप को लेनी हो तो दरवाजे के अंदर चले जाइए, अंदर दाएं हाथ पर दुकान में मिलेगी, तीस रुपए की एक। 

ब तक बस रुक चुकी थी। पास ही एक सुंदर मुगल कालीन और उसी शैली का विशाल दरवाजा था। दरवाजे की ठीक से मरम्मत की हुई थी और उसे सुंदर रंगों से रंगा हुआ भी था। पूरा गाँव एक फोर्ट वाल के अंदर था। फोर्टवाला के बाहर खाई थी। शाम पूरी तरह घिर आयी थी। मेरे ससुराल में सरौतियाँ दस से बीस रुपए में मिल जाती हैं। मैं ने सरौती लेने का विचार त्याग दिया। लेकिन तब तक माथुर साहब कहने लगे -ले आते हैं, वकील साहब। यहाँ की निशानी रहेगी। मैं ने कहा -बस इतने थोड़े ही रुकेगी? तो ड्राइवर ने कहा -आप ले आओ हम तब तक चाय पिएंगे। माथुर साहब का आग्रह देख मैं नीचे उतरा। पास ही एक मूत्रालय बना देखा जिस में पुरुषों और स्त्रियों के लिए सुविधा थी। हम ने उस का इस्तेमाल किया, फिर चले 'धूपाड़ा' सिटी में।

अंदर पुराने नगर के चिन्ह स्पष्ट थे रास्ते के दोनों और दुकानें बनी थीं। दरवाजे से  पहली और दूसरी दुकानें लुहारों की थी। दुकानें क्या? उन की कार्यशाला भी वही थी। लोहा गरम करने के लिए धौंकनियाँ बनी थीं और कूटने के लिए स्थान बने थे।  इन के आगे चौराहा था जहाँ से दाएँ बाएँ फिर बाजार निकल रहे थे। हमने पहली ही दुकान पर सरौतियाँ देखीं। विभिन्न आकार और बनावट की थीं। सुंदर कारीगरी भी की हुई थी। हमने सब से छोटी और कम कीमत की साधारण सरौती पसंद की। उस से सुपारी काट कर देखी। सख्त सुपारी भी ऐसे कट रही थी जैसे आलू काट रहे हों। मैं जितनी सरौतियाँ अब तक इस्तेमाल कर चुका था  उन में वह सब से तेज थी। हम ने उन्हीं में से दो खरीदीं। एक मेरे लिए और एक माथुर साहब के लिए। हमारे पूछने पर दुकानदार ने बताया कि ये स्टील की बनी हैं, और बेकार हुई कमानी के लोहे की नहीं, बल्कि नए इस्पात की हैं। वे टाटा का इस्पात प्रयोग करते हैं। गाँव कब का बसा है? पूछने पर बताया की कम से कम तीन-चार सौ साल पहले का है और संभवतः पाटीदारों का बसाया हुआ है। उत्तर कितना सही था यह तो रेकॉर्ड से ही पता लग सकता है। बताया कि यहाँ के औजार प्रसिद्ध हैं और आस पास के कस्बों में ही खप जाते हैं। इतने  में बस के हॉर्न की आवाज सुनाई दी। हम समझ गए कि हमें वापस पुलाया जा रहा है। हम तेजी से वापस लौटे। बस चलने को स्टार्ड खड़ी थी। हम ने अपनी सीट संभाली और बैठ गए।