@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी

दि कोई पूछे कि भारत में सब से अधिक क्या होता है? तो सब से आसान उत्तर है, जी चुनाव!
बिलकुल सही है यहाँ चुनाव ही सब से अधिक होते हैं। शायद सब से मजबूत जनतंत्र की यही निशानी है, या फिर जनतंत्र है, यह साबित करने को यह सब करना होता है। अब देखिए ना, अभी मई में देश भर में लोकसभा के चुनाव हुए ही थे। पूरे दो माह तक देश इन की चपेट में रहा।  ये चुनाव निपटे ही  थे कि फिर से चुनाव के लिए मतदाता सूचियों में संशोधन का काम आरंभ हो गया। नवम्बर में नगर निगम के चुनाव जो होने थे। इस बार इस चुनाव में बहुत कुछ बदला गया। वार्डों का पुनर्सीमांकन किया गया। नए सिरे से पर्चियाँ डाल कर तय किया गया कि किस वार्ड से किस-किस तरह का आरक्षण रहेगा। ऐन वक्त पर यह भी तय हुआ कि इस बार मेयरक का चुनाव वार्ड पार्षद के स्थान पर सीधे जनता ही करेगी। इस जरा सी बात ने बहुत कुछ बदल दिया। पन्द्रह वर्ष से नगर निगम पर काबिज भाजपा को जनता ने विदा किया और मेयर कांग्रेसी चुन दिया। साथ में तीन चौथाई से अधिक वार्ड पार्षद भी कांग्रेस के चुन दिए।

स बीच कोटा के वकील 29 अगस्त को हड़ताल पर चले गए। हड़ताल एक सौ दस दिन पूरे कर के भी जारी है।  बून्दी और झालावाड़ जिलों के वकील भी इस हड़ताल में शामिल हैं। चाहते हैं कि कोटा में हाईकोर्ट की एक अदद बैंच स्थापित की जाए। एक चौथाई साल  हड़ताल चलते हो चुका है, लेकिन कोई नतीजा ही सामने नहीं है। जिस दिन नगर निगम के चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होनी थी उस के ठीक पहले मुख्यमंत्री ने बुलाया, बात की। वे सभी मांगें मानने को तैयार थे। लेकिन हाईकोर्ट के मामले में आश्वासन तो दूर मुहँ से कुछ भी निकालने को मना कर दिया। वे जोधपुर से हैं जहाँ हाईकोर्ट की मुख्य पीठ है। वहाँ के लोग जयपुर में स्थापित की गई बैंच को ही पिछले 32 साल में बर्दाश्त नहीं कर पाए तो एक और बैंच को कैसे बर्दाश्त कर पाएंगे। यह बात मुख्यमंत्री के मुहँ से निकले तो कैसे? आखिर उन्हें अगली बार फिर वहीं से चुनाव जो लड़ना है। मुख्यमंत्री और तमाम राजनेता चुनाव में व्यस्त हो गए। इधर हड़ताल जारी रही। 

चुनाव के दौरान ही केन्द्रीय विधि मंत्री से दिल्ली में प्रतिनिधि मंडल ने भेंट की उन्हें सब कुछ बताया। उन के मुख से केवल इतना ही निकला कि 2010 में हाईकोर्टों की बैंचें खोलने के प्रस्ताव हैं। इन में एक बैंच राजस्थान में स्थापित की जाएगी।  स्थापना कहाँ हो? इस के लिए तथ्यात्मक रिपोर्ट के साथ राज्य सरकार रिपोर्ट करेगी तब निर्णय हो सकेगा। वकीलों का आंदोलन फिर से वहीं आ गया था। गेंद फिर से राज्य सरकार के पाले में थी। चुनाव संपन्न हो गए।  उसी दौर में कोटा अभिभाषक परिषद के सदस्य और कोटा  ही विधायक चुने गए राजस्थान के विधिमंत्री से बात हुई तो कहने लगे अभी चुनाव में व्यस्त हूँ, चुनाव नतीजे निकलते ही आप लोगों से आ कर मिलता हूँ। हड़ताल चलती रही। जब हड़ताल आरंभ हुई थी तो  बार काऊंसिल के चुनाव  की तैयारी आरंभ हो चुकी थी और कहा जा रहा था कि हड़ताल तो चुनाव की वजह से हो रही है जिस से उम्मीदवारों को  प्रचार का अवसर मिल जाए। हड़ताल के बीच ही राजस्थान की बार कौंसिल के चुनाव हो लिए। डेढ़ माह बाद  ठीक दो दिन पहले उस के नतीजे भी आ चुके हैं। हड़ताल फिर भी जारी है।

ब अभिभाषक परिषद के चुनाव आ गए हैं। सब चुनाव टल सकते हैं लेकिन अभिभाषक परिषद के नहीं। विधान में लिखा है कि दिसम्बर की 15 तारीख तक किसी भी हाल में चुनाव संपन्न किए जाएंगे और जनवरी की 3 तारीख तक हर हाल में नयी कार्यकारिणी को कार्यभार सोंप दिया जाएगा। तब से ये दो तारीखें पत्थर की लकीर हो गई हैं। लोगों ने अपने अपने नामांकन भर दिए हैं। परिषद के अध्यक्ष के लिए नौ और सचिव के लिए ग्यारह उम्मीदवार मैदान में हैं। कल नामांकन वापसी का दिन है। उस के बाद ही पता लगेगा कि कितने उम्मीदवार मैदान में रह गए हैं। जिन उम्मीदवारों को चुनाव लड़ना ही है, उन्हों ने प्रचार आरंभ कर दिया है।  वकील जब शाम को घर लौटते हैं और पत्नियाँ उन की जेब तलाशी करती हैं तो वहाँ रुपयों की जगह उम्मीदवारों द्वारा याद्दाश्त के लिए दी गई पर्चियाँ  निकलती हैं। उन्हें भी पता लग चुका है कि चुनाव आ गया है। वे पूछती हैं। इस चुनाव के बाद तो कोई चुनाव नहीं है न? जवाब मिलता है  -नहीं, अब कम से कम एक-दो माह तो कोई चुनाव नहीं है, तो वे कहती हैं तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी।

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?


'कहानी'
आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?  

  • दिनेशराय द्विवेदी 
भाई साहब ने दो दिन पहले फोन किया था कि मैं रविवार की रात को उपलब्ध रहूँगा या नहीं? बताया कि उन्हों ने विनय को फोन किया था, लेकिन वह गाँव गया हुआ है, तब तक लौटेगा नहीं। उन्हें नागपुर बेटे के पास जाना है और कोई उपलब्ध नहीं हो रहा है। मैं ने कहा वासु के बेटे की शादी है उस के संगीत कार्यक्रम में रहना होगा। पर नौ बजे तक छूट लूंगा। जब कोई उपलब्ध नहीं हो रहा है तो मेरे पास कोई विकल्प  नहीं रह गया था मैं ने कहा मैं आ जाउंगा आप को ट्रेन पर छोड़ दूंगा।
भाई साहब अध्यापक थे। फिर प्रिंसिपल और इंस्पेक्टर भी रहे। हमेशा सादगी भरा जीवन रहा उन का। अब भी शिष्य उन्हें पूछते रहते हैं। भाभी जी का देहांत हो चुका है। बेटी ससुराल में है। बेटा नागपुर में व्यवसाय कर रहा है। यहाँ के वे रहने वाले नहीं हैं। लेकिन उन के बहुत रिश्तेदार यहीँ रहते हैं। उन्हों ने भी कभी एक बड़ा सा भूखंड ले कर कुछ हिस्से पर मकान बना लिया था। वक्त गुजरने के साथ कौड़ियों के मोल लिया भूखंड लाखों, करोड़ से भी ऊपर का हो चुका है।  तीन सप्ताह बेटे के पास और पाँच  सप्ताह अकेले घऱ में रहते हैं। दो कमरे किराए पर दे रखे हैं। किराएदार से मकान की सुरक्षा रहती है। साल भर पहले बीमार हुए, रीढ़ की हड़्डी में बीमारी है, चार माह तो बिलकुल बिस्तर पर रहे। डाक्टर ने कुछ चलने फिरने की छूट दी तो अब पाँच सप्ताह बेटे के पास और तीन सप्ताह यहाँ मकान में रहने लगे हैं। अभी भी बेल्ट बांध कर रहना पड़ता है।
मैं भूल गया मुझे भाई साहब को छोड़ने जाना है। मैं वासु के बेटे की शादी की संगीत पार्टी में था। तभी वहाँ विनय पत्नी सहित दिखाई दिया। मुझे याद आया भाई साहब को छो़ड़ने जाना है। मुझे आश्चर्य हुआ कि विनय तो गांव गया हुआ था। उस ने मुझे देख अभिवादन किया। मैं ने पूछा गाँव नहीं जाते आज कल। तो कहा वहीं से आ रहा हूँ अभी, इस शादी के कारण। खाना आरंभ हो गया था। मैं ने पत्नी को इशारा किया और खुद खाना आरंभ कर दिया। कुछ देर में ही पत्नी भी आ गई। हम वहाँ से विदा ले घर पहुँचे। साढ़े नौ बज चुके थे। मैं ने रेलवे को फोन कर पूछा पता लगा ट्रेन सही समय 9.55 आ रही है। तभी भाई साहब का फोन आ गया। हम तुरंत रवाना हो गए। उन के साथ एक सूटकेस और एक बड़ा बैग था। दोनों का वजन पंद्रह-पंद्रह किलो से कम न था, एक पानी की कैटली थी। मैं ने सामान कार में रखा और हम रवाना हो गए। रास्ते में भाई साहब ने बताया कि उन्हों ने शादी में विनय की मदद की थी। विनय ने पिछले महिने ही रकम वापस उन के खाते में जमा करा दी है। सूटकेस और बैग में वजन अधिक है पुल पार कर प्लेटफार्म तक जाने में कठिनाई होगी। कुली कर लें तो बेहतर होगा। पर कुली ट्रेन में सामान चढ़ाने तक नहीं रुकेगा।

हाँ कार पार्क की वहाँ कुली नहीं था। मैं ने सूटकेस और बैग को उन में लगे पहियों पर खींचा और पुल तक ले गया। वे वाकई वजनी थे और आसानी से खिंच भी नहीं रहे थे। भाई साहब उन्हें खींचते तो रीढ? वापस आठ माह पुरानी स्थति में पहुँच जाती। मुझे अपनी किशोरावस्था याद आ गई मैं ने एक हाथ में बैग और एक में सूटकेस उठाया और पुल पर चढ़ गया। इसी तरह दूसरे प्लेटफार्म पर उतरा। हम करीब आधे घंटे पहले प्लेटफार्म पर थे।  अच्छी खासी सर्दी के बावजूद में पसीने में नहा गया था।  मैं ने कहा आजकल स्लीपर में परेशानी होती है। कई बार सवारियां अधिक हो जाती हैं। वे बताने लगे बेटा तो हमेशा एसी के लिए बोलता है पर मुझ से एसी बर्दाश्त नहीं होता, और फिर इस सर्दी में?
ट्रेन वक्त पर ही आ गई। उन्हे और उन का सामान चढाया। उन की बर्थ पर कोई सोया हुआ था और बर्थों के बीच फर्श पर भी। सीटों के नीचे सामान रखने को स्थान बिलकुल रिक्त न था। सोये हुए को जगाया गया। उसने तुरंत बर्थ खाली कर दी। सोये हुए के बारे में पूछा तो वह बताने लगा उन के साथ है। उन्हों ने छह टिकट कराए थे लेकिन दो वेटिंग में रह गए। उन्हों ने सामान को किसी तरह रखवाया। भाई साहब को लेटने की जगह मिल गई। गाड़ी चल दी तो हम वापस चले आए।
ह सब कल की बात थी। मैं सुबह काम पर चला गया। वापस लौटते हुए वासु के घर गया। कल वजन उठाने का करतब करने का नतीजा आने लगा था। हाथ, पैर और पीठ तीनों अकड़ना आरंभ कर चुके थे। मैं ने वासु को बताया कि मुझे भाई साहब को छोड़ने जाना पड़ा था। स्लीपर में बर्थ रिजर्व होते हुए भी मुश्किल से सफर किया होगा उन्हों ने। वासु कह रहा था। एसी में क्यों नहीं जाते? और बार बार यहाँ आने की जरूरत क्या है? बेटे के साथ क्यों नहीं रहते? आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

सौंदर्य और सार -शिवराम के कुछ दोहे

पिछले दो दिनों से आप अनवरत पर शिवराम की कविताएँ पढ़ रहे हैं। नवम्बर में जब मैं यात्रा पर था तो उन की तीन पुस्तकों का लोकार्पण हुआ। यात्रा से लौटते ही उन की तीनों पुस्तकें मिलीं, उन्हें पढ़ रहा हूँ। शिवराम का बहुत कुछ साथ रह कर सुना पढ़ा है। पर जब वह सब कुछ पुस्तक रूप में सुगठित हो कर आया है तो अहसास हो रहा है कि वे कितने बड़े कवि हैं। वास्तव में पुस्तकबद्ध साहित्य अपनी कुछ और ही छाप छोड़ता है। तीन पुस्तकों में एक "खुद साधो पतवार" उन के दोहों की पुस्तक है। दोहों में एक विशेषता है कि वे संक्षिप्त और स्वतंत्र होते हैं। सारा सौंदर्य और सार चंद शब्दों में व्यक्त होता है। उन के अर्थ के अनेक आयाम होते हैं। यहाँ उन के कुछ दोहे प्रस्तुत कर रहा हूँ जो साहित्य के सब से प्राचीन विवाद 'तत्व और रूप' या 'सौन्दर्य और सार' पर अपनी बात कह रहे हैं।  

सौंदर्य और सार
  • शिवराम

दृष्टि जो अटके रूप में, सार तलक नहिं जाय।
सुंदरता के सत्य को, समझ वो कैसे पाय।।


मन, दृष्टि और वस्तु का, द्वंद जो ले आकार।
तब कोई रूप अनूप बन, होता है साकार।।


रूप अनोखा है मगर, सारहीन है सार।
ऐसी थोथी चारुता, आखिर को निस्सार।।


सुंदरता मन में बसे, बसे दृष्टि के माँहि।
असली सुंदर वो छवि, जाकी छवि मन माँहि।।


सुंदरता के मर्म की, क्या बतलाएँ बात।
किसी को दिन सुंदर लगे, किसी को लगती रात।।

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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

'अनहद' शिवराम की कविता

ल शिवराम की कुछ अटपटी सी, लटपटी सी कविता "सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प" आप के सामने थी। आज उन की एक बहुत ही लघु कविता आप के सामने है। यह शिल्प का अनुपम उदाहरण है कि कितने कम शब्दों में जबर्दस्त कविता की जा सकती है। न्यूनतम शब्द होते हुए भी  अपनी विषय वस्तु को पूरी तीव्रता से रख देती है।

अनहद

  •  शिवराम
कौन कहता है
कि-
हर चीज की 
एक हद होती है

तुम्हारा ज़ब्र
अनहद,

हमारा सब्र
अनहद।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

"सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"

'शिवराम' बहुत बड़े लेखक हैं, नामी नाटककार हैं, उन के नाटकों के बहुत भाषाओं में अनुवाद हुए हैं, वे देश में और बाहर खेले गए हैं, वे समर्थ कवि भी हैं और ऊपर से आलोचक भी हैं। पर वे अभी पत्रिकाओं नाट्य, साहित्य और सांस्कृतिक संगठनों तक सीमित हैं। उन के नाटकों और कविताओं की कुछ किताबें प्रकाशित हुई हैं लेकिन सीमित संख्या में। जब आप उन की चर्चा करते हैं तो मैं केवल चर्चा सुन कर रह जाता हूँ। मैं उन्हें पढ़ना चाहता हूँ। लेकिन कैसे पढ़ूँ? उन की किताब मुझे मिले तब न। उन की रचनाएँ इंटरनेट पर किसी तरह आ जाएँ तो मैं पढ़ भी सकता हूँ और लोगों को पढ़ने के लिए कह भी सकता हूँ। इंटरनेट महत्वपूर्ण साहित्य को विश्व भर में उपलब्ध कराने का माध्यम बन रहा है। ब्लाग इस कमी की पूर्ति कर रहे हैं।
ज शाम अजित वडनेरकर जी से फोन पर लंबी बात हुई तो यह सब उन्हों ने कहा, मैं ने गुना। वास्तव में इंटरनेट और ब्लाग की यह भूमिका बहुत बड़ी है। उन से और भी बात हुई कि ब्लाग पर क्या लिखना चाहिए? लेकिन वह फिर कभी। अभी संदर्भ में 'शिवराम' आ गए हैं, तो उन की एक विचित्र कविता पढ़िए!  पढ़िए क्या गुनगुनाइए! और कोई धुन पकड़ में आ जाए तो उसे औरों को भी सुनाइए। कविता का शीर्षक है  "सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"

"सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"
  •  शिवराम
मनमोहन की नाव में, छेद पचास हजार।
तबहु तैरे ठाट से, बार बार बलिहार।।

नाव नदिया में डूबी
नदी की किस्मत फूटी
नदी में सिंधु डूबा जाय
सिंधु में सेतु रहा दिखाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

वाम झरोखा बैठिके, दाँयी मारे आँख।
कबहु दिखावे नैन तो, कबहु खुजावे काँख।।
नयन से नयन लड़ावै
प्रेम बढ़तो जावै
नयनन कुर्सी रही इतराय
'सेज' में मनुआ डूबो जाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

माया सच्ची, माया झूठी, सिंहासन की माया
ये जग झूँठा, ये जग साँचा, ये जग ब्रह्म की माया।।
माया ब्रह्म के अंग लगे
ब्रह्मा माया में रमे
ब्रह्म को माया रही लुभाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

अड़ अड़ के वाणी हुई, अड़ियल, चपल, कठोर।
सपने सब बिखरन लगे, घात करी चितचोर।।
चित्त की बात निराली
तुरप बिन पत्ते खाली
चेला चाल चल रहा
गुरू अब हाथ मल रहा
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।


अब आप ही बताएँ कि कैसी रही कविता? और कैसी रही गप्प?

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

ऐ लड़की * महेन्द्र 'नेह' की एक कविता

महेन्द्र नेह की एक कविता उन के सद्य प्रकाशित संग्रह थिरक उठेगी धरती से ...

ऐ लड़की
  • महेन्द्र  'नेह'
ऐ, लड़की
ऐ, लड़की
तू प्यार के धोखे में मत आ


ऐ, लड़की
तू जिसे प्यार समझे बैठी है
वह और कुछ है
प्यार के सिवा


ऐ, लड़की तूने
अपने पाँव नहीं देखे
तूने अपनी बाँहें नहीं देखीं
तूने मौसम भी तो नहीं देखा


ऐ, लड़की
तू प्यार कैसे करेगी?
ऐ, लड़की
तू अपने पाँवों में बिजलियाँ पैदा कर

 ऐ, लड़की
तू अपनी बाँहों में पंख उगा
ऐ, लड़की
तू मौसम को बदलने के बारे में सोच
ऐ, लड़की
तू प्यार के धोखे में मत आ।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए

पिछले आलेख पर बड़े भाई ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी थी .....
"ज्ञानदत्त G.D. Pandey 1 December, 2009 4:31 PM   मन्दी? कहां है मन्दी? रेल यातायात डील करते समय मुझे मन्दी नहीं दीखती। कितना सीमेण्ट, कोयला, स्टील, उर्वरक ... सब चले जा रहा है अनवरत। और बहुत कुछ जा रहा है पूर्वान्चल/बिहार को! मुझे बताया गया कि ग्रोथ रेट सात परसेण्ट के आस-पास है। विपक्ष जोर लगा कर भी मंहगाई को सफल चुनावी मुद्दा नहीं बना पाया। सो मन्दी तो मिथक है। जिसे हम सब एक्स्प्लेनेशन के लिये पाल रहे हैं"


लेकिन उन लाखों लोगों से पूछें जो मंदी के नाम पर छंटनी के फलस्वरूप बेरोजगार कर दिए गए हैं। उन से पूछें जिन से उन के  माथे पर छंटनी की तलवार लटका कर आठ घंटों के स्थान पर चौदह और सोलह घंटे काम लिया जा रहा है या उन से कम वेतनों पर काम करने की नयी सेवा शर्तें तय करा ली गई हैं। उन विद्यार्थियों से पूछें जिन के कैंपस सेलेक्शन के बाद अभी तक नियुक्तियों का पता नहीं है। जहाँ नियुक्तियाँ हो भी रही हैं वहाँ वेतन लगभग आधे कर दिए गए हैं। एक सोफ्टवेयर इंजिनियर को छह से दस हजार प्रतिमाह की नौकरी के प्रस्ताव मिल रहे हैं। उन के लिए मंदी है। नहीं है तो फिर जनता को झाँसा दे कर लूटा जा रहा है।

ज्ञान जी ने जो उदाहरण दिए हैं वे सब रेलवे से संबद्ध हैं। भारतीय रेलवे आबादी और उस की जरूरतों के मुकाबले बहुत छोटी हो गई है। उस के पास सवारियाँ ढोने को कम गाड़ियाँ हैं। जो हैं उन्हें चलाने के लिए पर्याप्त रेलपथ नहीं हैं। गाड़ियों की सूची इतनी व्यस्त है कि एक जरा सी भी बाधा से कई दिनों तक का मामला खराब हो जाता है। इधर कोटा के आसपास जो थर्मल बिजलीघर हैं उन के बारे में पिछले दिनों खबर थी कि कोयला समय पर नहीं पहुँचा, केवल सात दिनों का स्टॉक रह गया। जो व्यवसाय समाज की आवश्यकता से बहुत न्यून हो जाएगा वहाँ मंदी क्या असर दिखाएगी? लेकिन जिन व्यवसायों में पिछले सालों में मुनाफा बरस रहा था। सारी फालतू पूँजी वहीं समेट दी गई। अतिउत्पादन से वहाँ मंदी आनी ही थी। नतीजा यह हुआ कि बहुत सी इकाइयाँ बैठ गई और उन में लगी पूँजी की कीमत नगण्य हो गई। यही तो मंदी का गणित है।


कुछ क्षेत्रों में तेजी से पूँजी का बहना, उस का संकेन्द्रण और अतिउत्पादन। बाकी सब क्षेत्रों में तो मंदी नहीं दिखाई देगी। वहाँ तो पूँजी का अभाव महंगाई को ही बढ़ाएगा। यही कारण है कि एक ओर मंदी का विशाल दानव दिखाई पड़ता है तो दूसरी ओर महंगाई की दानवी मुहँ बाए खड़ी हो जाती है। आज की अर्थव्यवस्था में जो उत्पादन की अराजकता है। वही तो इन संकटों की जन्मदाता है। एक वर्ष प्याज और टमाटर के भाव आसमान पर होते हैं तो अगले वर्ष उसी की खेती बहुसंख्यक किसान करते हैं और फिर अतिउत्पादन से दोनों सड़ने लगते हैं। लागत न मिलने पर किसान आत्महत्या पर मजबूर हो जाते हैं।
सीमेंट, कोयला, स्टील और उर्वरक ये सब जीवन के लिए आधारभूत वस्तुएं हैं। इन के उत्पादन में मुनाफा कम है और लागत के लिए विशाल पूंजी की आवश्यकता है। इतनी बड़ी पूँजी कौन लगाए? इनमें मंदी का क्या असर हो सकता है? एक बात और, मंदी के बहाने बढ़ाई गई बेरोजगारी, वेतनों में कमी और महंगाई। उपभोक्ताओं की जेब में पहुँचने वाली धनराशि को बड़ी मात्रा में कम करती है और बाजार सिकुड़ता है। यह मंदी के प्रभाव में और तेजी लाती है।


मंदी तो है। मेरा कहना तो यही था कि अर्थव्यवस्था के नियोजन से इस मंदी पर काबू पाया जा सकता है।  किन हम आग लगने पर कुआँ खोदने दौड़ते हैं। पहले से पानी की व्यवस्था नहीं रखते या फिर आग न लगने देने के साधन नहीं करते। क्या हमें वे नहीं करने चाहिए? बड़े भाई ने विपक्षी दलों द्वारा महंगाई के मुद्दे का लाभ न उठा सकने पर निराशा जाहिर की है, पर विपक्षी दल है कहाँ? सब पक्ष में ही खड़े हैं कोई खुल कर खड़ा है तो कोई पर्दे के पीछे। विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए।