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शनिवार, 9 अगस्त 2008

हमारी चिंता का विषय, जीता जागता, मेहनत करता हुआ इन्सान हो

  • आत्माराम
इस सृष्टि में समाज और इन्सान से परे धर्म का कभी कोई अस्तित्व न पहले रहा था और न ही आज है। लेकिन इससे भी पहले इस बात को कबूल करने कि जरूरत है कि इन्सान और समाज की पैदाइश से पहले इस सृष्टि का अस्तित्व था और सौ फीसदी था। यह बात सुनते हुए आप मन ही मन मुझसे एक सवाल कर सकते हैं कि सृष्टि की उत्पत्ति किसने की? मैं कहूंगा मैं नहीं जानता। लेकिन इतना तो जरूर ही जानता हूँ कि मानव इस सृष्टि पर बहुत ही बाद में उत्पन्न हुआ जीव है। लेकिन मैं यह नहीं कहूंगा कि मानव को भगवान ने पैदा किया। क्योंकि मैं नहीं जानता कि यह बात सही है या गलत। मैं कहूंगा मुझे नहीं मालूम। इसी सिलसिले में मैं कहूंगा कि धर्म की उत्पत्ति तो समाज के बहुत कुछ विकसित हो जाने के बाद की बात है, और इस सच्चाई को बार बार दोहराने की जरूरत ही नहीं है कि धर्म को मानव ने ही पैदा किया है। उस वक्त तक मानव का दिमाग इतना विकसित हो चुका था कि वह अपने और प्रकृति के बीच के संबंधों को समझने की प्रक्रिया में से गुजरते हुए, अपने संबंधों को परिभाषित भी करने लगा था। अनजानी और रहस्यमयी चीजों को परिभाषित करते वक्त अपने विचारों को उन रहस्यों पर आरोपित भी करने लग गया था। हम सोच सकते हैं कि इसी प्रक्रिया में कहीं न कहीं मानव ने धर्म संबंधी बातें भी सोची होंगी। ऐसा समझा जाता है कि मानव समाज के विकास की प्रक्रिया में, नगरों के बसने और उनके विकसित होने के इतिहास में ही कहीं न कहीं धर्म की उत्पत्ति की बात भी छुपी हुई है।
एक मत यह भी है कि, धर्म की उत्पत्ति उस वक्त की बात है, जब आम जनता की मेहनत को लूटने वाला एक ताकतवर तबका जन्म ले चुका था और उसने आम जनता पर विधिवत राज करना भी प्रारंभ कर दिया था। अर्थात हमारा मानव समाज सीधे-सीधे दो हिस्सों में बंट चुका था। उनमें से एक मेहनत करने वालों का हिस्सा था और दूसरा मेहनत को लूटकर राज करने वालों का। अब यह अलग बात है कि धर्म ने समाज के दोनों हिस्सों को किस तरह प्रभावित किया, और दोनों हिस्सों ने किस-किस रूप में धर्म को अपनाया। हम यह तो नहीं जानते कि इसकी उत्पत्ति के पीछे किसी व्यक्ति या समाज विशेष का हाथ रहा होगा। लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि इसके उपयोग में निश्चित ही एक खास वर्ग का हाथ जरूर रहा है। वर्णों और जातियों में विभक्त हमारे समाज में धर्म की धारणा के अलग अलग पैमाने किस तरह तय हुए होंगे ? इसका इतिहास जानना बहुत ही दिलचस्प होगा।
हमारे लिए यह जानना भी बहुत दिलचस्प रहेगा कि हर नये धर्म की पैदाइश का आधार ही, साधारण जनता को पुराने समाज के जुल्मों से मुक्ति दिलाना रहा है। जैसे बौद्ध धर्म का आधार सनातनी ब्राह्यणी समाज-व्यवस्था में जकड़ी भारतीय जनता को मुक्ति दिलाना ही रहा था। यह अलग बात है कि ऐसा संभव नहीं हुआ। क्यों कि धर्म में एक सीमा के बाद मानव समाज के भविष्य की कोई साफ़ सुथरी अवधारणा ही नहीं रह जाती है। जहां तक मानव को दुःखों से मुक्ति मिलने का सवाल है- हम कहना चाहेंगे कि मानसिक गुलामी से मुक्ति की राह ढूंढे बिना सामाजिक मुक्ति के रास्ते पर चलना बहुत कठिन है।
आज तक समाज मुक्ति के परे मानव मुक्ति की कोई अलग अवधारणा नहीं देखी गयी। इस जगत को छोड़कर कोई हिमालय में जाकर बैठ जाय तो वह शख्स हमारी चिंता का विषय नहीं हो सकता। हमारी चिंता का विषय जीता जागता और मेहनत करता हुआ इन्सान ही हो सकता है। जैसे आप, जो पढ़ रहें हैं और मैं, जो लिख रहा हूँ।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

मानव की अनुपस्थिति में धर्म का कोई अस्तित्व नहीं

  • आत्माराम
आजकल धर्म पर बड़ी बातें हो रही है। हम भी इससे अछूते नहीं हैं। हमें भी इस दिशा में अपनी बात कहनी चाहिये। कहने का मतलब है-बहुजन समाज के हित की बात कहनी चाहिये। हमारी समझ में आता है कि धर्म को वही आदमी ठीक से समझ सकता है, जो इस बात पर यकीन करता हो कि, मनुष्य का जन्म इसी पृथ्वी पर हुआ है और वह सतत विकास करता हुआ, आज यहां तक पहुंचा है। विकास की इस यात्रा की दिशा क्या रही, उसकी प्रकृति कैसी रही और किन किन कष्टप्रद प्रक्रियों से मनुष्य समाज को गुजरना पड़ा? हम सोचते हैं कि यात्रा संबंधी इन बुनियादी बातों को जानना ही धर्म को सही अर्थों को जानना होगा। क्यों कि धर्म की यात्रा मानव समाज की यात्रा से अलग हो ही नहीं सकती। हम सब जानते हैं कि मानव की अनुपस्थिति में धर्म की कल्पना तक नहीं की जा सकती। अतः अगर कोई आदमी समाज विकास की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को मानने और जानने से इनकार करता है तो यह समझना चाहिये कि वह शख्स निश्चित ही समाजविरोधी सोच का शिकार हो चुका है। इसलिए अनिवार्य रूप से वह धर्म विरोधी भी है। हमें इस सच्चाई को भी कबूल करना चाहिये कि मानव समाज सतत गतिशील है और यह गतिशीलता, समाज के भीतर मौजूद आंतरिक द्वंद्व के कारण ही है। यही आंतरिक द्वंद्व समाज के विकसित की एक मात्र और बुनियादी वजह भी है। और बुनियादी षर्त भी है। जिस तरह इस समाज की गतिशीलता में ही उसकी विकास के बीज छुपे हुए हैं, उसी तरह उसकी विकास प्रक्रिया में ही उसके धार्मिक होने के बीज भी छुपे हुए हैं। अतः समाज विकास प्रक्रिया को समझने के साथ ही आप अनिवार्य रूप से धर्म और उसके प्रभाव के इतिहास को, इतिहास विकास की प्रक्रिया को भी समझ पायेंगे। क्यों कि हम फिर इस बात को दोहराना चाहते हैं कि मानव समाज के बाहर और मनुष्य जीवन के परे, जैसा कि हम अनुभव करते आये है- धर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है। 
आज मैं अपनी वकालत के सिलसिले में कोटा के बाहर हूँ, और आप के लिए प्रस्तुत है मेरे एक मित्र 'आत्माराम' का धर्म के विषय पर यह आलेख....
यह बात भी सौ फीसदी सही है कि, इस पृथ्वी पर इन्सान की पैदाइश से पहले, धर्म की पैदाइश ही नहीं हुई थी और यह बात भी शतप्रतिशत सही है कि धर्म को किसी अलौकिक शक्ति ने पैदा नहीं किया है। यह तो मनुष्य की पैदाइश ही है। मनुष्य समाज ने अपनी विकास यात्रा में अपनी सुविधा के लिए हजारों अच्छी-बुरी चीज़ें पैदा कीं। आप जानते ही हैं कि उनमें से करोड़ों चीजें अब व्यावहार में नहीं हैं, जो कल तक व्यवहार में थीं। इसी तरह धर्म भी है। आज उसका स्वरूप ठीक ठीक वही नहीं है जो कल तक था। लेकिन जब धर्म की उत्पत्ति का सवाल उठता है तो लोग तपाक से पूछ बैठते हैं- कि भाई आखिर इसका उत्स कहां है ? निश्चित ही इस सवाल का जवाब गणित के किसी प्रमेय को हल करने की तरह प्राप्त नहीं किया जा सकता। और न ही किसी वट वृक्ष के नीचे बैठकर तपश्चर्या करने से। इस सवाल का जवाब मानव समाज की विकास प्रक्रिया के भीतर छुपा हुआ है। अतःधर्म को समझने की बुनियादी शर्त है-मानव समाज की विकास यात्रा को जानना-समझना। यह इसलिए भी जरूरी है कि धर्म का संबंध समाज से है इसलिए इन्सान से भी है। इस सृश्टि में समाज और इन्सान से परे धर्म का कभी कोई अस्तित्व न पहले कभी रहा था और न ही आज है। इसलिए जिसे धर्म की सांगोपांग जानकारी चाहिये, उसके लिए मानव समाज के विकास का इतिहास पढना अनिवार्य है।

धर्म के बारे में एक अत्यंत मार्मिक टिप्पणी के साथ इस बात को कभी आगे फिर से चालू रखने के लिए छोड़ देते हैं। कहा गया है कि - 
‘‘....धर्म का इतिहास केवल मानव मस्तिष्क की भटकनों अथवा भ्रांतियों का इतिहास नहीं है।.... अगर ऐसा होता तो मानव जाति के इतिहास में उसकी भूमिका बड़ी ही साधारण रही होती।’’ आप इस बात पर गौर कीजिये कि इस परिवर्तनशील सृष्टि और क्षण-क्षण बदलते हुए विश्व में आखिर धर्म के इस तरह अतिदीर्घजीवी होने के क्या कारण है? (जारी)

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं ...... पुरुषोत्तम 'यकीन की ग़ज़ल

पुरुषोत्तम 'य़कीन' से आप पूर्व परिचित हैं। उन की एक ग़ज़ल का पहले भी आप अनवरत पर रसास्वादन कर चुके हैं। जब जम्मू-कश्मीर में वोट के लिए छिड़ा दावानल मंद होने का नाम नहीं ले रहा है। वहाँ उन की यह ग़ज़ल प्रासंगिक हो आती है......


लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं

 पुरुषोत्तम 'यकीन'


न वो गिरजा, न वो मस्जिद, न वो मंदर बनाते हैं
लड़ाते हैं हमें और अपने-अपने घर बनाते हैं
हम अपने दम से अपने रास्ते बहतर बनाते हैं
मगर फिर राहबर रोड़े यहाँ अक्सर बनाते हैं
कहीं गड्ढे, कहीं खाई, कहीं ठोकर बनाते हैं
यूँ कुछ आसानियाँ राहों में अब रहबर बनाते हैं
बनाते क्या हैं, बहतर ये तो उन का खुदा ही जाने
कभी खुद को खुदा कहते कभी शंकर बनाते हैं
अभयदानों के हैं किस्से न जाने किस ज़माने के
हमारे वास्ते लीड़र हमारे डर बनाते हैं
न कुछ भी करते-धरते हों मगर इक बत है इन में
ये शातिर रहनुमा बातें बहुत अक्सर बनाते हैं
न जाने क्यूँ उन्हीं पर हैं गड़ी नज़रें कुल्हाड़ों की
कि जिन शाखों पे बेचारे परिन्दे बनाते हैं
इसी इक बात पर अहले-ज़माना हैं ख़फ़ा हम से
लकीरें हम ज़माने से ज़रा हट कर बनाते हैं
दिलों में प्यार रखते हैं कोई शीशा नहीं रखते
बनाने दो वो नफ़रत के अगर पत्थर बनाते हैं
'य़कीन' अब ये ज़रूरी है य़कीन अपने हों फ़ौलादी
कि अफ्व़ाहों के वो बेख़ता नश्तर चलाते हैं
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muslim.outrage.over.pope.benedict.2

बुधवार, 6 अगस्त 2008

महेन्द्र 'नेह' का गीत .... मारे गए बबुआ

 

मित्र  महेन्द्र 'नेह' श्रेष्ठ कवि-गीतकार तो हैं ही, पेशे से क्षति-निर्धारक, बोले तो 'सर्वेयर'। बीमा कंपनियों के लिए क्षतियों का निर्धारण करते हैं। बरसों तक मोटर दुर्घटनाओँ की क्षतियाँ आँकीं हैं। जब सड़क पर यातायात अधिक हो जाता है, तो सड़क को चौड़ा किया जाता है। यकायक सड़क पर वाहनों की रफ्तार बढ़ जाती है। इस घटना को उन्हों ने देश में आयातित वाहनों की बाढ़ के साथ गीत में बांधा। गीत प्रस्तुत है.......
मारे गए बबुआ
  • महेन्द्र 'नेह'

सड़क हुई चौड़ी
मारे गए बबुआ।
मारे गए बबुआ हो
मारे गए रमुआ......

लोहे के हाथी और लोहे के घोड़े
बेलगाम हो कर के सड़कों पे दौड़े
मची है होड़ा होडी़
मारे गए बबुआ।
नई-नई घोड़ी विलायत से आई
नए-नए रंगों की महफिल सजाई
बिदक गई घोड़ी
मारे गए बबुआ।

चंदा औ सूरज सी जोड़ी रुपहली
ज़ालिम जमाने के पहियों ने कुचली
बिगड़ गई जोड़ी
मारे गए बबुआ। 
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शनिवार, 2 अगस्त 2008

क्या व्यवस्था अव्यवस्था में से जन्म लेगी ?

“एक रविवार, वन आश्रम में” श्रंखला की 1, 2, 3, 4, 5, और 6 कड़ियों को अनिल पलुस्कर, अनिता कुमार, अरविन्द मिश्रा, अशोक पाण्डे, डॉ. उदय मणि कौशिक,ज्ञानदत्त पाण्डे, इला पचौरी, Lलावण्या जी, नीरज रोहिल्ला, पल्लवी त्रिवेदी, सिद्धार्थ,स्मार्ट इंडियन, उडन तश्तरी (समीरलाल), अनुराग, अनूप शुक्ल, अभिषेक ओझा, आभा, कुश एक खूबसूरत ख्याल, डा० अमर कुमार, निशिकान्त, बाल किशन, भुवनेश शर्मा, मानसी, रंजना [रंजू भाटिया], राज भाटिय़ा, विष्णु बैरागी और सजीव सारथी जी की कुल 79 टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। आप सभी का बहुत-बहुत आभार और धन्यवाद। आप सभी की टिप्पणियों ने मेरे लेखन के पुनरारंभ को बल दिया है। मेरा आत्मविश्वास लौटा है कि मैं वैसे ही लिख सकता हूँ, जैसे पहले कभी लिखता था।

इस श्रंखला में अनेक तथ्य फिर भी आने  से छूट गए हैं। मुझे लगा कि उद्देश्य पूरा हो गया है और मैं ने उन्हें छूट जाने दिया। ब्लाग के मंच के लिए आलेख श्रंखला फिर भी लम्बी हो चुकी थी। छूटे प्रसंग कभी न कभी लेखन में प्रकट अवश्य हो ही जाएंगे।  इस श्रंखला से अनेक नए प्रश्न भी आए हैं। जैसे लावण्या जी ने सिन्दूर के बारे में लिखने को कहा है। यह भी पूछा है कि यह कत्त-बाफले क्या हैं? इन प्रश्नों का उत्तर तो मैं कभी न कभी दे ही दूंगा। लेकिन इन प्रश्नों से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पहले जो इस तरह के आश्रम आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के स्रोत हुआ करते थे सभी का किसी न किसी प्रकार से पतन हुआ है। दूसरी ओर हम सोचते हैं कि ज्ञान के क्षेत्र में भारत आज भी दुनियाँ का पथ प्रदर्शित करने की क्षमता रखता है। तो फिर आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के नए केन्द्र कहाँ हैं? वे है भी या नहीं?

हर कोई चाहे वह साधारण वस्त्रों में हो या फिर साधु, नेता और किसी विशिष्ठ पोशाक में। केवल भौतिक सुखों को जुटाने में लगा है। लोगों को अपना आर्थिक और सामाजिक भविष्य असुरक्षित दिखाई पड़ता है। लोगों को जहाँ भी सान्त्वना मिलती है उसी ओर भागना प्रारंभ कर देते हैं। निराशा मिलने तक वहीं अटके रहते हैं। बाद में कोई ऐसी ही दूसरी जगह तलाशते हैं।

अब वे लोग कहाँ से आएंगे जो यह कहेंगे कि पहले स्वयं में विश्वास करना सीखो (स्वामी विवेकानन्द), और जब तक हम खुद में विश्वास नहीं करेंगे। तब तक इस विश्व में भी अविश्वास बना ही रहेगा। हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे और न ही नए युग की नयी चुनौतियों का सामना कर सकेंगे। पर जीवन महान है। वह हमेशा कठिन परिस्थितियों में कुछ ऐसा उत्पन्न करता है जिस से जीवन और उस की उच्चता बनी रहती है। हमें विश्वास रखना चाहिए कि जीवन अक्षुण्ण बना रहेगा।

किसी ने जो ये कहा है कि व्यवस्था अव्यवस्था में से ही जन्म लेती है, मुझे तो उसी में विश्वास है।

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में (6) ... ज्ञान और श्रद्धा

दुकानदार 24-25 वर्ष का नौजवान था। यहां तो बहुत लोग आते हैं? मैं ने उस से पूछा।

-हाँ, मंगल और शनिवार तो बहुत लोग आते हैं। उन दो दिनों में दुकानदारी भी अच्छी होती है। यूँ कहिए कि सप्ताह भर की कमाई इन दो दिनों में ही निकलती है। कुछ लोग रविवार या किसी छुट्टी के दिन आते हैं। बाकी दिन तो घटी-पूर्ती के ही हैं।

-स्टेशन से यहाँ तक की सड़क तो कच्ची है, गड्ढे भी बहुत हैं। जीपें भी दो ही चल रही हैं। बड़ी परेशानी होती होगी?

नहीं उस दिन तो आस पास के स्टेशनों पर रुकने वाली सभी ट्रेनें बीच में, आश्रम के नजदीक खड़ी हो जाती हैं। लोग उतर कर पैदल आ जाते हैं, एक किलोमीटर से भी कम पड़ता है।

यह व्यवस्था रेल्वे प्रशासन स्तर पर है या मौखिक इसे पता करने का साधन मेरे पास नहीं था। लेकिन लोग कह रहे थे कि यह रेल चालकों के सहयोग से ही होता है और, यह कुछ वर्षों से स्थाई व्यवस्था बन गई है।

-आश्रम कब से है यहाँ?

अभी जो बाबा हैं उन के पिता जी ने ही बनाया था। मंदिर भी उन के ही जमाने का है। वे बहुत पहुँचे हुए थे। उन के पास बहुत लोग आते थे। उन के बाद से आना कम हो गया था। पर कुछ बरसों से अभी वाले बाबा पर भी बहुत लोगों का विश्वास जमने लगा है। लोगों का आना बढ़ता जा रहा है। मंदिर का तो कुछ खास नहीं, पर लोग बाबा से ही मिलने आते हैं।

इतनी बात हुई थी कि मेरा लिपिक जीतू वहाँ आ गया, बोला –भाई साहब आप की कॉफी तो बनेगी नहीं पर नीबू बहुत हैं, मैं शिकंजी बना देता हूँ। मैं उस के साथ लौट कर आ गया। उसी ने याद दिलाया कि मेरी जेब में विजय भास्कर चूर्ण के पाउच पड़े हैं। उसने पूछा –आप ने नहीं लिया। मैं ने कहा –नहीं।

मैं विजया लेने का अभ्यासी नहीं। पर कहीं पार्टी-पिकनिक में उस से मुझे कोई परहेज नहीं। शायद मेरा शरीर ही ऐसा है कि मुझ पर उस का कोई विपरीत असर नहीं होता। मैं ने एक पाउच चूर्ण निकाल कर खा लिया, वह कुछ हिंग्वाष्टक के जैसे स्वाद वाला था। थोड़ी देर में जीतू मेरी शिकंजी ले आया। उस के पीने के बाद मेरा टहलने का मन हुआ तो मैं परिक्रमा पद-पथ पर चल पड़ा। दूसरे छोर पर शिव-मंदिर के पीछे हो कर दूसरे कोने पर पहुँचा तो वहाँ निर्माणाधीन सड़क दिखाई दी तो आश्रम का मानचित्र पूरी तरह साफ हो गया। उधर आश्रम और मंदिर का प्रवेश द्वार बनना था। जिस ओर जीप ने हमें उतारा था वह बाद में पिछवाड़ा हो जाना था। इस निर्माणाधीन सड़क के पार कुछ सौ मीटर से पहाड़ी श्रंखला शुरू होती थी, जो दूर तक चली गई थी। पहाड़ियों के बीच से एक बरसाती नाला निकलता था, जो ठीक आश्रम के पास हो कर जा रहा था। आश्रमं के ऊपर सड़क के उस पार पहाड़ी के नीचे आसानी से एनीकट बनाया जा सकता था। जिस में बरसात का पानी रुक कर एक तालाब की शक्ल ले सकता था। ऊपर पहाड़ियों में भी एक-दो स्थानों पर पानी को रोक कर भूमि और क्षेत्र में पानी की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती थी। पर यह सब जंगल क्षेत्र था और शायद इस खर्च को सरकार फिजूल समझ रही थी। पर यह काम तो आश्रम के भक्त एक श्रमदान योजना के तहत भी कर सकते थे। इस से आश्रम का पड़ौस सुन्दर तो हो ही सकता था। आश्रम की भूमि के लिए सिंचाई का साधन भी उपलब्ध हो सकता था। मैं ने यह सुझाव लौट कर आश्रम भक्तों को दिया भी। लेकिन उन की इस में कोई रुचि नहीं थी। आश्रम में ट्यूबवैल पानी के लिए उपलब्ध था ही। यदि आश्रम के नेतृत्व में वाकई ऐसा कुछ हो जाए और उस का क्षेत्र में अनुसरण हो, तो सवाई माधोपुर व करौली जिलों में पानी की जो कमी दिखाई देती है उस का कुछ हद तक हल निकाला जा सकता है।

मैं परिक्रमा पूरी कर वापस लौट आया। मुझे पूरे परिक्रमा पद-पथ पर सभी लोग उलटे आते हुए दिखे तो मुझे शंका हुई कि मैं ने कहीं विपरीत परिक्रमा तो नहीं कर ली है। मैं ने खुद को जाँचा तो मैं सही था। मैं ने पूछा भी तो वहाँ के एक साधू ने बताया कि यहाँ विपरीत दक्षिणावर्त परिक्रमा ही की जाती है। क्यों कि यहाँ केवल शिव और हनुमान के मंदिर हैं और हनुमान भी शिव के रुद्र रूप ही हैं। मैं इस का अर्थ नहीं समझा। मैं ने पहली बार विपरीत परिक्रमा करते लोगों को देखा था। वापस लौटा तो भोजन को तैयार होने में आधे घंटे की देरी थी। अब यहाँ भोजन और रवानगी के सिवाय कुछ बचा न था।

मैं सुबह देखे स्नानघर की ओर चल दिया। वहाँ शौचादि से निवृत्त हो स्नान किया तो दिन भर की गर्मी का अहसास धुल गया। स्नान से विजया ने अपना असर दिखाना प्रारंभ कर दिया था, भूख सताने लगी थी। भोजन के स्थान पर पहुँच मंदिर के लिए भोग की पत्तल तैयार करवाई और नन्द जी के भाई को लेकर मंदिर भेजा। इधर महिलाओं को भोजन कराने को बैठाया। दूसरी पंगत में हम बैठे और तीसरी में बाकी लोग निपटे। उधर जीप आ चुकी थी। एक ही होने से लोगों को कई किस्तों में स्टेशन पहुँचाया। मैं अन्तिम किस्त में स्टेशन पहुँचा। हमें रेल का अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा, कुछ ही देर में जोधपुर भोपाल गाड़ी आ गई और हम रात्रि को ग्यारह बजने तक अपने घर पहुँच गए।

इस यात्रा में एक कमी मुझे बहुत अखरी। मैं जब घर से निकला था तो मुझे विश्वास था कि इस आश्रम में मुझे कुछ तो आध्यात्मिक और दर्शन चर्चा का अवसर प्राप्त होगा। लेकिन वहाँ उस का बिलकुल अभाव था। अध्ययन-अध्यापन बिलकुल नदारद। उस के स्थान पर कोरी अंध-श्रद्धा का ही फैलाव वहाँ नजर आया। नगरीय वातावरण से दूर पर्वतीय वनांचल में स्थित ऐसे आश्रम में जिसे जन सहयोग भी प्राप्त हो, कम से कम संस्कृत और भारतीय दर्शन के अध्ययन का केन्द्र आसानी से विकसित किया जा सकता है। इसे किसी विश्वविद्यालय से मान्यता भी दिलाई जा सकती है। ज्ञान का वहाँ प्रवेश हो सकता है। लेकिन शायद वहाँ ऐसा कभी नहीं हो सकेगा। मुझे आश्रम के वर्तमान विकास का प्रेरणा स्रोत अंध-श्रद्धा में दिखाई दिया, और जहाँ ज्ञान का प्रकाश फैलता है वहाँ अंध-श्रद्धा का कोई स्थान नहीं होता।

बुधवार, 30 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में (5) .... बाबा की कीर्ति

मैं -बाबा, समस्या तो नहीं कहूँगा, हाँ चिन्ताएँ जरूर हैं। बेटी पढ़-लिख गई है, नौकरी करती है। उस की शादी होना चाहिए, योग्य वर मिलना चाहिए।

बाबा -बेटी की आप फिक्र क्यों करते हैं। वह स्वयं सक्षम है, और आप की चिन्ता वह स्वयं ही दूर कर देगी। बाबा बोले।

मैं -समस्या ही यही है कि बेटी कहती है कि वर तलाशना पिता का कर्तव्य है उस का नहीं। फिर वह शुद्ध शाकाहारी, ब्राह्मण संस्कार वाला, उसे और उस के काम को समझने वाला वर चाहती है, और जहाँ तक मेरा अपना दायरा है, मुझे कोई उस की आकांक्षा जैसा दिखाई नहीं देता।

बाबा –हाँ, तब तो समस्या है। फिर भी आप चिंता न करें। वर्ष भर में सब हो लेगा। आप की चिंता दूर हो जाएगी। और बताएँ।

मैं –बेटे के अध्ययन का आखिरी साल है। वह चिंतित है कि उस का कैम्पस सैलेक्शन होगा या नहीं। नौकरी के लिए चक्कर तो नहीं लगाने पड़ जाएंगे?

बाबा -केंम्पस तो नहीं हो सकेगा। लेकिन प्रयत्न करेगा, तो उसे बिलकुल बैठा नहीं रहना पड़ेगा। वैसे, आप को दोनों ही संतानों की ओर से चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है।

मैं ने कहा –बाबा, एक नया मकान भी बनाना चाहता हूँ, अपने हिसाब का?

बाबा -आप की वह योजना दीपावली के बाद ही परवान चढेगी। ..... और कुछ?

मुझे बाबा थके-थके और विश्राम के आकांक्षी प्रतीत हुए। वे आराम चाहते थे। मैं भी वहाँ से खिसकना चाहता था। हम ने बाबा को नमस्कार किया और वहाँ से चल दिए। हमारे साथ के लोग भी सब चले आए। हम सीढ़ियों से नीचे उतर कर आए ही थे कि पीछे से किसी ने आ कर सीढ़ियों का दरवाजा अंदर से बन्द कर लिया। बाबा अब विश्राम कर रहे थे।

जो काम बाबा कर रहे थे, वह मैं अपने परिवार में हमेशा से होता देखता आया था। मेरे दादा खुद ज्योतिषी थे। वे जन्म पत्रिकाएँ बनाते थे। लोग उन के पास समस्याएँ ले कर आते थे, और वे परंपरागत ज्योतिष ज्ञान के आधार पर उन्हें सलाह देते थे, उन की चिन्ताएँ कम करते थे और उन्हें समस्याओं के हल के लिए कर्म के मार्ग पर प्रेरित करते थे। पिता जी खुद श्रेष्ठ अध्यापक थे। परंपरागत ज्योतिष ज्ञान उन्हों ने भी प्राप्त किया था। प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त होने पर वे नित्य दोपहर तक घर पर आने वाली लड़कियों को पढ़ाते थे, जिन में अधिकांश उन के अपने विद्यार्थियों की बेटियाँ होती थीं। अपरान्ह भोजन और विश्राम के उपरांत उन के पास उन के परिचित मिलने आते और तरह तरह की समस्याएँ ले कर आते। वे उन्हें ज्योतिष के आधार पर या अपने अनुभव व ज्ञान के आधार पर कर्म के लिए प्रेरित करते थे। जहाँ हो सकता था उन की सहायता भी करते। अधिकांश लोगों की समस्याएं हल हो जाती थीं। दादाजी और पिताजी को इस तरह लोगों की समस्याएँ हल करने में सुख मिलता था। दोनों ही अच्छे ज्योतिषी जाने जाते थे। लेकिन न तो दादा जी ने और न ही पिता जी ने ज्योतिष को अपने जीवन यापन का आधार बनाया था।

मेरे दादाजी, पिताजी और 'बाबा' में एक मूल अंतर था। दादाजी और पिताजी ने कभी इस बात का उपक्रम नहीं किया था कि कोई अतीन्द्रिय शक्ति है, जिस से वे लोगों का कल्याण कर रहे थे। लेकिन बाबा यह कर रहे थे। वे लोगों को अपने अनुभव और सामान्य अनुमान से सांत्वना देते थे। बाबा के उत्तरों में कुछ भी असाधारण नहीं था। वे केवल लोगों को उन की समस्याओं को निकट भविष्य में हल होने का विश्वास जगाते थे। असंभव हलों के होने से इन्कार कर देते थे। और संभव हलों को हासिल करने के लिए लोगों को प्रयत्न करने को प्रेरित करते थे। मेरे समक्ष तो ऐसी कोई बात सामने नहीं आई थी, लेकिन मुझे अनेक लोगों ने यह भी बताया था कि लोग समस्याओं के हल के लिए उपाय करने के लिए भी उन से पूछते थे और वे लोगों को उपाय भी बताते थे। इन उपायों में एक उपाय यह भी था कि भक्त यहाँ या कहीं भी हनुमान मंदिर की 11, 21, 51 परिक्रमा लगाना जैसे उपाय सम्मिलित थे। ये उपाय ऐसे थे जिन में समय तो खर्च होता था पर पैसा नहीं, और जो लोगों में, स्वयं में विश्वास जगाते थे तथा समस्या के हल के लिए कर्म करने को प्रेरित करते थे। अधिकांश लोग स्वयं के प्रयासों से ही समस्याओं का हल कर लेने में समर्थ होते थे। लोगों का बाबा में विश्वास उपज रहा था। कुछ जंगल में स्थित मंदिर में बैठे हनुमान जी का लोगों पर प्रभाव था। बाबा के भक्तों की संख्य़ा में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी, उन में अतीन्द्रीय शक्तियाँ होने के विश्वासियों की संख्या लगातार बढ़ रही थी,  जो आश्रम और बाबा की कीर्ति और भौतिक समृद्धि का विस्तार कर रही थी।

सीढ़िय़ों से नीचे उतर कर घड़ी देखी तो चार बज चुके थे। मुझे कॉफी की याद आने लगी थी। चाय मैं सोलह वर्षों से नहीं पीता और कॉफी यहाँ उपलब्ध नहीं थी। सुबह रवाना होने की हड़बड़ी में मुझे कॉफी के पाउच साथ रखने का ध्यान नहीं रहा था। मैं ने बाहर दुकानों पर जा कर पता किया तो एक दुकान वाला रखता ही नहीं था। दूसरे ने कहा -उस के यहाँ खतम हो गई है। शायद वह अधिक होशियार था जो यह प्रदर्शित नहीं करना चाहता था वह कॉफी रखता ही नहीं। मैं दुकानदारों से आश्रम के बारे में बातें करने लगा। (अगले आलेख में समाप्य)