पिछले आलेख में मैं ने चार-चार बच्चों वाली औरतों और लाल बत्ती पर कपड़ा मारने का नाटक कर के भीख मांगने वाले बच्चों का उल्लेख किया था। अनेक बार इन से व्यवहार करने पर लगा कि यदि इन्हें प्रेरित किया जाए और इन्हें अवसर मिले तो ये लोग काम पर लग सकते है। यह भी नहीं है कि समाज में इन के लिए काम उपलब्ध न हो। लेकिन यह तभी हो सकता है जब कोई इस काम उपलब्ध कराने की परियोजना पर काम करे।
वकालत में आने के पहले जब मुझ पर पत्रकारिता के उच्च स्तर में प्रवेश का भूत सवार हुआ तो मुम्बई जाना हुआ था। वहाँ मैं जिन मित्र के घर रुका वे प्रतिदिन कोई 9 बजे अंधेरी के घर से अपने एयरकंडीशन मार्केट ताड़देव स्थित अपने कार्यालय निकलते थे और कोई दो किलोमीटर की दूरी पर एक पार्किंग स्थान पर रुकते थे। वहाँ एक पान की थड़ी से अपने लिए दिन भर के लिए पान लिया करते थे। जब तक उन का पान बनता तब तक एक लड़का आ कर उन की कार को पहले गीले और फिर सूखे कपड़े से पोंछ देता था। उस के लिए 1978 में एक या दो रुपया प्रतिदिन उस लड़के को मिल जाता था। इसी तरह अभी फरवरी में जब मुझे फरीदाबाद में पाँच-छह दिन रुकना पड़ा था तो वहाँ सुबह सुबह कोई आता था और घरों के बाहर खड़े वाहनों को इसी तरीके से नित्य साफ कर जाता था। प्रत्येक वाहन स्वामी से उसे दो सौ रुपये प्राप्त होते थे। यदि यह व्यक्ति नित्य बीस वाहन भी साफ करता हो तो उसे चार हजार रुपए प्रतिमाह मिल जाते हैं जो राजस्थान में लागू न्यूनतम वेतन से तकरीबन दुगना है।
बाएँ जो चित्र है वह बाबूलाल की पान की दुकान का है जो मेरे अदालत के रास्ते में पड़ती है। बाबूलाल इसे सुबह पौने नौ बजे आरंभ करते हैं। दिन में एक बजे इसे अपने छोटे भाई को संभला कर चले जाते हैं। शाम को सात बजे आ कर फिर से दुकान संभाल लेते हैं। दुकान इतनी आमदनी दे देती है कि दो परिवारों का सामान्य खर्च निकाल लेती है। लेकिन बाबूलाल के दो बेटियाँ हैं, जिन की उन्हें शादी करनी है एक बेटा है जो अजमेर में इंजिनियरिंग पढ़ रहा है। उस ने अपनी सारी बचत इन्हें पढ़ाने में लगा दी है। नतीजा भी है कि बेटियाँ नौकरी कर रही हैं। लेकिन शादी बाबूलाल की जिम्मेदारी है और उस के लिए उस के पास धन नहीं है। उसे कर्जा ही लेना पड़ेगा। मैं ने बाबूलाल से अनेक बार कहा कि उस की दुकान पर कार वाले ग्राहक कम से कम दिन में बीस-तीस तो आते ही होंगे। यदि उन्हें वह अपना वाहन साफ कराने के लिए तैयार कर ले और एक लड़का इस काम के लिए रख ले तो पाँच छह हजार की कमाई हो सकती है। लड़का आराम से 25-26 सौ रुपए में रखा जा सकता है जो बाबूलाल के उद्यम का छोटा-मोटा काम भी कर सकता है। लेकिन बाबूलाल को यह काम करने के लिए मैं छह माह में तैयार नहीं कर सका हूँ।
मुझे ज्ञानदत्त जी का उद्यम और श्रम आलेख स्मरण होता है जिस में उन्हों ने कहा था कि उद्यमी की आवश्यकता है। उन का कथन सही था। श्रम तो इस देश में बिखरा पड़ा है उसे नियोजित करने की आवश्यकता है। इस से रोजगार भी बढ़ेगा और मजदूरी मिलने से बाजार का भी विस्तार होगा। लेकिन इस काम को कौन करे। जो भी व्यक्ति उद्यम करना चाहता है वह अधिक लाभ उठाना चाहता है और इस तरह के मामूली कामों की ओर उस का ध्यान नहीं है। सरकारों पर देश में रोजगार बढ़ाने का दायित्व है वह पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर है जो कोई भी परियोजना आरंभ होते ही पहले उस में अपने लिए काला धन बनाने की जुगत तलाश करने लगते हैं। यह काम सामाजिक संस्थाएँ कर सकती हैं। लेकिन शायद इन कामों से नाम श्रेय नहीं मिलता। संस्था के पदाधिकारियों को यह और सुनने को मिलता है कि इस धंधे में उस ने अपना कितना रुपया बनाया। इसी कारण वे भी इस ओर प्रेरित नहीं होते। न जाने क्यों समाजवाद लाने को उद्यत संस्थाएँ और राजनैतिक दल भी इसे नहीं अपनाते। जब कि इस तरह वे अपनी संस्थाओं और राजनैतिक दलों के लिए अच्छे पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी कर सकते हैं।
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शनिवार, 27 जून 2009
बुधवार, 21 जनवरी 2009
बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है
"पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में बहस का यह न तो समय है, न ही गुंजाइश. लेकिन मौजूदा संकट से हमने सीखा है कि अगर बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है." .....
यह दुनिया के सब से ताकतवर देश के नए राष्ट्रपति के पहले भाषण का मुख्य अंश है। यह कह रहा है कि पूंजी
मनुष्य को नियंत्रित नहीं कर सकती, उस का नियंत्रण मनुष्य के हाथों में होना चाहिए। पूंजी का अपना चरित्र है। वह अपने भले के लिए काम करती है और इस के लिए वह मनुष्यों की, उन के जीवन की परवाह नहीं करती। पूंजी को मनुष्यों के जीवन के अनुकूल नियंत्रित करना होगा।
शायद यही इस सदी का सब से बड़ा सच है। अमरीकी जनता ने पूंजी के मनुष्य पर प्रभुत्व को पराजित कर दिया है। बराक ओबामा की जीत पूंजी के प्रभुत्व पर मनुष्य की जीत है। यह दूसरी बात है कि कोई भी सत्ताधारी हार कर भी नहीं हारता। वह बाजी को पलटने का प्रयत्न करता है। फिर से अपनी पुरानी सत्ता की स्थापना के प्रयत्नों में जुट जाता है। यही बराक ओबामा के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है कि पूंजी के फिर से प्रभुत्व प्राप्त करने की कोशिशों को वे नाकाम कर दें। मनुष्य के पूंजी पर प्रभुत्व को कायम ही नहीं रखें, उसे और मजबूत बनाएँ।
वे आगे घोषणाएँ करते हैं...
"हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."
"अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे।"
"पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."
"हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके."
"अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."
अमरीका के 44वें राष्ट्रपति की इन घोषणाओं की दिशा में यदि अमरीका चल पड़ा तो तो न केवल अमंरीका बदलेगा, सारी दुनिया बदलेगी। बस अमरीका की तासीर उसे इस दिशा में चलने तो दे।
यह दुनिया के सब से ताकतवर देश के नए राष्ट्रपति के पहले भाषण का मुख्य अंश है। यह कह रहा है कि पूंजी
मनुष्य को नियंत्रित नहीं कर सकती, उस का नियंत्रण मनुष्य के हाथों में होना चाहिए। पूंजी का अपना चरित्र है। वह अपने भले के लिए काम करती है और इस के लिए वह मनुष्यों की, उन के जीवन की परवाह नहीं करती। पूंजी को मनुष्यों के जीवन के अनुकूल नियंत्रित करना होगा।
शायद यही इस सदी का सब से बड़ा सच है। अमरीकी जनता ने पूंजी के मनुष्य पर प्रभुत्व को पराजित कर दिया है। बराक ओबामा की जीत पूंजी के प्रभुत्व पर मनुष्य की जीत है। यह दूसरी बात है कि कोई भी सत्ताधारी हार कर भी नहीं हारता। वह बाजी को पलटने का प्रयत्न करता है। फिर से अपनी पुरानी सत्ता की स्थापना के प्रयत्नों में जुट जाता है। यही बराक ओबामा के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है कि पूंजी के फिर से प्रभुत्व प्राप्त करने की कोशिशों को वे नाकाम कर दें। मनुष्य के पूंजी पर प्रभुत्व को कायम ही नहीं रखें, उसे और मजबूत बनाएँ।
वे आगे घोषणाएँ करते हैं...
"हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."
"अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे।"
"पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."
"हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके."
"अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."
अमरीका के 44वें राष्ट्रपति की इन घोषणाओं की दिशा में यदि अमरीका चल पड़ा तो तो न केवल अमंरीका बदलेगा, सारी दुनिया बदलेगी। बस अमरीका की तासीर उसे इस दिशा में चलने तो दे।
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रविवार, 28 दिसंबर 2008
पूँजीवाद, समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद के बहाने
उस दिन के आलेख को लोगों की उन के नजरिए के अनुरूप टिप्पणीयाँ मिलीं। लेकिन मैं तो उस घटना से यही समझा था कि समाज में लालच को नियंत्रित करने के लिए एक राजनैतिक शक्ति की आवश्यकता है। जिस से समाज में आवश्यकता और उत्पादन का संतुलन न गड़बाड़ाए। संभवतः मार्क्सवाद में इसे ही प्रोलेटेरियन की डिक्टेटरशिप कहा है।
जहाँ तक मार्क्सवाद और समाजवाद पर कुछ कहने की बात है। उतनी कूवत शायद अभी मुझ में नहीं। वहाँ हाथ धरने के पहले शायद बहुत अध्ययन की जरूरत है। अभी पूंजी को हाथ लगाया है। उस के संदर्भ ग्रंथों की सूची देख कर ही भय लगा। कैसे अकेले मार्क्स ने इतने ग्रन्थों को घोटा होगा? क्या उस की ताकत रही होगी? और उस ताकत के पैदा होने का जरिया क्या रहा होगा?
उस पोस्ट पर वरुण के अतिरिक्त अनूप शुक्ल, Ratan Singh Shekhawat, प्रवीण त्रिवेदी,Arvind Mishra, Anil Pusadkar, ताऊ रामपुरिया, प्रशांत प्रियदर्शी PD, डा. अमर कुमार, विष्णु बैरागी, Gyan Dutt Pandey, Alag sa, डॉ .अनुराग, राज भाटिय़ा और कार्तिकेय की प्यारी टिप्पणियाँ मिलीं। सभी का बहुत आभार।
मंगलवार, 25 नवंबर 2008
सब तें मूरख उन को जानी। जनता जिन ने मूरख मानी।।
अनवरत के आलेख पर एक टिप्पणी आई .....
आज तक जैसे लोग चुनकर आए और जिस तरह आए, उससे तो यही मानना पड़ता है कि जनता पागल नहीं तो कम से कम बेवकूफ ज़रूर है। वरना क्यों कोई सडांध और बीमारी के बीच रहना चाहेगा? वह भी तब जब सारे काम ईमानदारी से करवाने का ब्रह्मास्त्र जनता के ही हाथ में हो?
इस टिप्पणी से सहमति की बात तो कोसों दूर है, इस ने मेरा दिल गहरे तक दुखाया। ऐसा नहीं है कि यह वाक्य पहली बार जेहन में पड़ा हो। रोज, हाँ लगभग रोज ही कोई न कोई यह बात मेरे कान में डाल देता है। लेकिन या तो उसे लोगों की नासमझी समझ कर छोड़ देता हूँ। ऐसी ही बात कोई सुधी कहता है तो पता लगता है, हम ने ही उसे गलत समझा था। उसे अभी सुध आने में वक्त लगेगा।
उन मित्र का नाम मुझे पता नहीं, वे बनावटी नाम से ही ब्लॉग जगत में उपस्थित हैं। पहचान छुपाने के पीछे उन की जरूर कोई न कोई विवशता रही होगी। मुझे उन का नाम जान ने में भी कोई रुचि नहीं है। वैसे भी मुझे जीवन में जब जब भी लगा कि कोई व्यक्ति अपनी पहचान छुपाना चाहता है तो मैं ने उसे जान ने का प्रयत्न कभी नहीं किया। जान भी लूँ तो उस से हासिल क्या? जब कभी मुझे लगा कि मैं कहीं अवाँछित हूँ, तो मैं वहाँ से हट गया। बहुत ब्लॉग हैं जहाँ लगा कि मैं टिप्पणीकार के रूप में अवांछित हूँ तो मैं ने वहाँ जाना बन्द कर दिया। आखिर हर किसी को अपनी निजता को बनाए रखने का अधिकार है। मैं हर किसी कि निजता की रक्षा का हामी हूँ, सिर्फ अपनी खुद की निजता के सिवा।
मुझे संदर्भित टिप्पणीकार की समझ से भी कोई परेशानी नहीं है। लेकिन जनता एक समष्टि है, उस के प्रति तनिक भी असम्मान मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाया। मुझे लगता है जैसे मेरे ईश्वर का अपमान कर दिया गया है। लगता है जैसे मेरी अपनी भावनाएँ किसी ने चीर दी हैं।
आखिर यह जनता क्या है?
जी, जनता में मैं हूँ, आप हैं, सारे ब्लागर हैं, सारे टिप्पणीकार हैं, सारे पाठक हैं।
जनता में मेरे माता-पिता हैं, ताई है, चाची है, ताऊ हैं, चाचा हैं। बेटे और बेटी हैं, भतीजे-भतीजी हैं।मुहल्ले के बुजुर्ग हैं, स्कूल और कॉलेज में पढने वाले बच्चे हैं, और वे भी हैं जो किसी कारण से स्कूल का मुँह नहीं देख पाए या कॉलेज तक नहीं जा सके। आप के हमारे नाती है पोते हैं।
जनता में मेरे अध्यापक हैं, गुरू हैं। जनता में राम हैं, जनता में कृष्ण हैं, जनता में ही ईसा और मुहम्मद हैं। जनता में ही बुद्ध हैं, गुरू-गोविन्द हैं।
कुदरत ने इन्सान को दिमाग दिया, कि वह कुछ सोचे, कुछ समझे और फिर फैसले करे। मैं भी ऐसा ही करता हूँ। लेकिन कभी मेरा इन्सान फंस जाता है। दिमाग काम करने से इन्कार कर देता है। तब मेरे पास एक ही रास्ता बचता है, जनता के पास जाऊँ। मैं जाता हूँ। वह मुझे बहुत प्रेम करती है। मुझे समझती है। वह प्यार से मुझे बिठाती है, थपथपाती है, मुझे आराम मिलता है, वह फिर से सोचना सिखाती है। जब फूल मुऱझा कर गिरने को होता है तो वह उसे फिर से जीवन देती है। जब अंधेरा छा जाता है, तो वही मार्ग दिखाती है। वह मुझे प्राण देती है, मैं जी उठता हूँ।
पश्चिम से ले कर पूरब तक सब परेशान हैं, मंदी का जलजला है, बड़े बड़े किले गिर रहे हैं, प्राचीरें ढह रही हैं, लोग उन के मलबे के नीचे दबे कराह रहे हैं, कुछ उन के नीचे दफ्न हो गए हैं कभी वापस न लौटने के लिए। हर कोई कांप रहा है। फिर भी विश्वास व्यक्त किया जाता है -यह तूफान निकल जाएगा, जितना नुकसान करना है कर लेगा। लेकिन दुनिया फिर से चमन होगी, बहारें लौटेंगी। फिर से खिलखिलाहटें और ठहाके गूंजेंगे। लेकिन इस आस-विश्वास का आधार क्या है?
वही जनता न? वह फिर से कुछ करेगी, और खरीददारी के लिए बाजार आएगी।
1975 से 1977 तक देश एक जेलखाना था। नेता बंद थे और जनता भी। जेलखाने से पिट कर निकले तो उत्तर-दक्षिण, पूरब-पच्छिम एक साथ हो लिए। उन्हें कतई विश्वास नहीं था कि कुछ कर पाएँगे। वह जनता ही थी जिसने एक तानाशाह के सारे कस-बल निकाल दिए और उन्हें सब-कुछ बना दिया। लेकिन जब पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण जनता को मूर्ख मान फिर से अपनी ढपली अपना राग गाने लगे, तो उसी ने उन्हें ठिकाने लगा दिया। बताया कि तुम से तो कस-बल निकला तानाशाह अच्छा।
वह चाहती तो न थी, कि तानाशाह वापस आए, चाहे उस के कस-बल निकल ही क्यों न गए हों। पर विकल्प कहाँ था? विकल्प आज भी कहाँ है? इधर कुआँ है उधर खाई है। दोनों में से एक को चुनना है। क्या करे? वह स्तंभित खड़ी है, एक ही स्थान पर। जिधर से झोंका आता है, बैलेंस बनाने को उसी ओर हो जाती है। यही एक मार्ग है उस के पास, जब तक कि खाई न पटे, या कुंएँ के पार जाने की कोई जुगत न लग जाए। जिस दिन जुगत लग जाएगी, उस दिन दिखा देगी कि वह क्या है?
सच कहूँ, मेरे लिए, जनता भगवान है, वही दुनिया रचती है, वही ध्वंस भी करती है और फिर रचती है।
कैसे कहूँ वह मूरख है? वह तो ज्ञानी है। उस सा ज्ञानी कोई नहीं।
तो मूरख कौन?
सब तें मूरख उन को जानी। जनता जिन ने मूरख मानी।।
शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008
बीस साल बाद? लौट रहा है उस का प्रेत
बीस साल पहले जिसे दफ़्न कर दिया गया था। नगर के बीच की दीवार गिरा दी गई थी और उस के मलबे के ढेर के नीचे उस की कब्र को दबा दिया गया था। कभी न खुल सके उस की कब्र। कोई भूले से भी उसे याद न करे। वह अच्छे बुरे सपनों में भी न आए। लेकिन अब उसी कब्र में प्रेत अब लौट रहा है। दुनिया के मशहूर खबरची रॉयटर ने यही खबर दी है।
बर्लिन की दीवार के गिरने के बीस साल बाद जर्मनी के पुस्तक विक्रेताओं के लिए 141 वर्ष पुरानी एक किताब बेस्ट सेलर हो गई है। जी, हाँ¡ यह साम्यवाद के संस्थापक पिता कार्ल मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचनात्मक समीक्षा की पुस्तक दास कैपिटल (पूँजी) है। अकादमिक प्रकाशक दीत्ज़ वेर्लाग के लिए यह एक बेस्ट सेलर है। हर प्रकाशक सोचता था कि इस किताब को कभी कोई मांगेगा। लेकिन वे 1990 के मुकाबले दास कैपिटल सौ गुना प्रतियाँ बेच चुके हैं। यहाँ तक कि इन दिनों बैंकर्स और प्रबंधक दास कैपिटल पढ़ रहे हैं।
पूर्वी जर्मनी भारी बेरोजगारी से गुजर रहा है, ऐसे में कार्ल मार्क्स की वापसी को पूँजीवाद को खारिज करने के रूप में देखा जा रहा है। अमरीका में पिछले माह हुई भारी आर्थिक उथल पुथल और सरकारी बेल-आउट की श्रंखला जर्मनी और हर जगह पूँजीवाद विरोधी भावनाओं को पुनर्स्थापित कर रहा है।
एक ताजा सर्वे के अनुसार 52% पूर्वी जर्मनों की राय में स्वतंत्र बाजार की अर्थव्यवस्था उचित नहीं है। 43% की समझ है कि पूँजीवाद के मुकाबले समाजवाद बेहतर है। 46 वर्ष के एक आई टी प्रोफेशनल ने कहा कि हमने स्कूलों में पूँजीवाद की भयावहता के बारे में पढ़ा था, वह सब सही निकला। मेरा जीवन बर्लिन की दीवार गिरने के पहले बेहतर था। धन के बारे में किसी को दुख नहीं है क्यों कि उस का कोई महत्व नहीं है। आप नहीं चाहने पर भी आप के लिए एक नौकरी है, इस साम्यवादी विचार का कोई मुकाबला नहीं है। पूर्वी जर्मनी में बेरोजगारी 14 प्रतिशत है और वेतन कम हैं। जर्मनी के एकीकरण के बाद दसियों लाख नौकरियाँ चली गई हैं। बहुत से कारखाने पश्चिमी प्रतियोगियों ने खरीदे और उन्हें बंद कर के चले गए।
पुराने पूर्वी बर्लिन के एक 76 वर्षीय लुहार ने कहा कि मैं सोचता था कि साम्यवाद बुरा है लेकिन पूँजीवाद उस से भी बुरा है। स्वतंत्र बाजार क्रूर है, पूँजीपति अपने लिए और, और, और मुनाफा चाहते हैं। 46 वर्षीय क्लर्क मोनिका वेबर ने कहा कि मेरी सोच से पूँजीवाद उचित व मानवीय व्यवस्था नहीं है। समृद्धि का वितरण अनुचित है, मेरे जैसे छोटे लोग देख रहे हैं कि लालची बेंकरों के संकट का भुगतान हम कर रहे हैं।
लेकिन सब ऐसा सोचने वाले नहीं है। कुछ यह भी कह रहे हैं कि पूँजीवाद बुरा है लेकिन समाजवाद में भी कुछ तो खामियाँ थीं।
बर्लिन की दीवार के गिरने के बीस साल बाद जर्मनी के पुस्तक विक्रेताओं के लिए 141 वर्ष पुरानी एक किताब बेस्ट सेलर हो गई है। जी, हाँ¡ यह साम्यवाद के संस्थापक पिता कार्ल मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचनात्मक समीक्षा की पुस्तक दास कैपिटल (पूँजी) है। अकादमिक प्रकाशक दीत्ज़ वेर्लाग के लिए यह एक बेस्ट सेलर है। हर प्रकाशक सोचता था कि इस किताब को कभी कोई मांगेगा। लेकिन वे 1990 के मुकाबले दास कैपिटल सौ गुना प्रतियाँ बेच चुके हैं। यहाँ तक कि इन दिनों बैंकर्स और प्रबंधक दास कैपिटल पढ़ रहे हैं।
पूर्वी जर्मनी भारी बेरोजगारी से गुजर रहा है, ऐसे में कार्ल मार्क्स की वापसी को पूँजीवाद को खारिज करने के रूप में देखा जा रहा है। अमरीका में पिछले माह हुई भारी आर्थिक उथल पुथल और सरकारी बेल-आउट की श्रंखला जर्मनी और हर जगह पूँजीवाद विरोधी भावनाओं को पुनर्स्थापित कर रहा है।
एक ताजा सर्वे के अनुसार 52% पूर्वी जर्मनों की राय में स्वतंत्र बाजार की अर्थव्यवस्था उचित नहीं है। 43% की समझ है कि पूँजीवाद के मुकाबले समाजवाद बेहतर है। 46 वर्ष के एक आई टी प्रोफेशनल ने कहा कि हमने स्कूलों में पूँजीवाद की भयावहता के बारे में पढ़ा था, वह सब सही निकला। मेरा जीवन बर्लिन की दीवार गिरने के पहले बेहतर था। धन के बारे में किसी को दुख नहीं है क्यों कि उस का कोई महत्व नहीं है। आप नहीं चाहने पर भी आप के लिए एक नौकरी है, इस साम्यवादी विचार का कोई मुकाबला नहीं है। पूर्वी जर्मनी में बेरोजगारी 14 प्रतिशत है और वेतन कम हैं। जर्मनी के एकीकरण के बाद दसियों लाख नौकरियाँ चली गई हैं। बहुत से कारखाने पश्चिमी प्रतियोगियों ने खरीदे और उन्हें बंद कर के चले गए।
पुराने पूर्वी बर्लिन के एक 76 वर्षीय लुहार ने कहा कि मैं सोचता था कि साम्यवाद बुरा है लेकिन पूँजीवाद उस से भी बुरा है। स्वतंत्र बाजार क्रूर है, पूँजीपति अपने लिए और, और, और मुनाफा चाहते हैं। 46 वर्षीय क्लर्क मोनिका वेबर ने कहा कि मेरी सोच से पूँजीवाद उचित व मानवीय व्यवस्था नहीं है। समृद्धि का वितरण अनुचित है, मेरे जैसे छोटे लोग देख रहे हैं कि लालची बेंकरों के संकट का भुगतान हम कर रहे हैं।
लेकिन सब ऐसा सोचने वाले नहीं है। कुछ यह भी कह रहे हैं कि पूँजीवाद बुरा है लेकिन समाजवाद में भी कुछ तो खामियाँ थीं।
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खुश खबरी, जेट की छंटनी वापस, लोग चटनी न हुए
अभी अभी खबर मिली है कि जेट एयरवेज की छंटनी प्रबंधकों ने वापस ले ली है। मेरे लिए इस से अच्छी खबर कोई नहीं हो सकती। मैं ने कोटा के जे.के. सिन्थेटिक्स लि. में 1983 जनवरी में हुई 2400 स्थाई कर्मचारियों की छंटनी और 5000 अन्य लोगों का बेरोजगार होना देखा है। उस छंटनी का अभिशाप कोटा नगर आज तक झेल रहा है। उस के बाद 1997 में जे. के. सिन्थेटिक्स के कोटा और झालावाड़ के सभी कारखानों का बंद होना और आज तक उन का हिसाब कायदे से नहीं देना भी देखा। उन कर्मचारियों और उन के परिवारों में से डेढ़ सैंकड़ा से अधिक को आत्महत्या करते भी देखा है। आज तक वे परिवार नहीं उठ पाए हैं।
जिस समस्या के हल के लिए छंटनी की जा रही थी। छंटनी उसे और तीव्र करती है। मंदी का मूल कारण था मुनाफे का लगातार पूंजीकरण और आम लोगों तक प्रगति का लाभ नहीं पहुँचना। जब आम लोगों तक धन पहुँचेगी ही नहीं तो बाजार में खरीददार आएगा कहाँ से? छंटनी से तो आप आम लोगों तक धन की पहुँच आप और कम कर रहे हैं। सीधा सीधा अर्थ है कि आप बाजार के संकुचन में वृद्धि कर रहे हैं। आग में घी ड़ाल रहे हैं।
इसी को कहते हैं, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। अपनी कब्र खुद अपने हाथों खोद डालना। पूँजीवाद यही करता है और कर रहा है। सदी पहले मंदी का दौर 15-16 वर्ष में आता था। सदी भर में यह 6-8 वर्ष रह गया। अब हालात है कि विश्व एक मंदी से उबर ही रहा होता है कि अगली मंदी की आगाज हो जाता है। सपने अंत तक देखें जाएँ उस के पहले ही टूट रहे हैं।
हम ने मार्क्सवाद और इतिहास के अंत की घोषणाएँ सुनी और उस पर विश्वास भी किया। समाजवाद को दफ्न कर दिया ताकि मनुष्यों को रौंदता पूँजीवाद अमर हो जाए। पर अमृत की तलाश तो सभी को थी। दास-युग, सामंतवाद को भी। वे अमर नहीं हो सके। कोई अमर नहीं है, सिवाय इस दिशा-काल-पदार्थ-ऊर्जा की इस शाश्वत व्यवस्था के। यह पूँजीवाद भी अमर नहीं। सोचना तो पड़ेगा कि मनुष्य समाज आगे किस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला है?
जिस समस्या के हल के लिए छंटनी की जा रही थी। छंटनी उसे और तीव्र करती है। मंदी का मूल कारण था मुनाफे का लगातार पूंजीकरण और आम लोगों तक प्रगति का लाभ नहीं पहुँचना। जब आम लोगों तक धन पहुँचेगी ही नहीं तो बाजार में खरीददार आएगा कहाँ से? छंटनी से तो आप आम लोगों तक धन की पहुँच आप और कम कर रहे हैं। सीधा सीधा अर्थ है कि आप बाजार के संकुचन में वृद्धि कर रहे हैं। आग में घी ड़ाल रहे हैं।
इसी को कहते हैं, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। अपनी कब्र खुद अपने हाथों खोद डालना। पूँजीवाद यही करता है और कर रहा है। सदी पहले मंदी का दौर 15-16 वर्ष में आता था। सदी भर में यह 6-8 वर्ष रह गया। अब हालात है कि विश्व एक मंदी से उबर ही रहा होता है कि अगली मंदी की आगाज हो जाता है। सपने अंत तक देखें जाएँ उस के पहले ही टूट रहे हैं।
हम ने मार्क्सवाद और इतिहास के अंत की घोषणाएँ सुनी और उस पर विश्वास भी किया। समाजवाद को दफ्न कर दिया ताकि मनुष्यों को रौंदता पूँजीवाद अमर हो जाए। पर अमृत की तलाश तो सभी को थी। दास-युग, सामंतवाद को भी। वे अमर नहीं हो सके। कोई अमर नहीं है, सिवाय इस दिशा-काल-पदार्थ-ऊर्जा की इस शाश्वत व्यवस्था के। यह पूँजीवाद भी अमर नहीं। सोचना तो पड़ेगा कि मनुष्य समाज आगे किस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला है?
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