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गुरुवार, 5 मार्च 2020

मजदूर वर्ग के लिए न्याय की समाप्ति


न्याय की स्थिति बहुत बुरी है। विशेष रुप से मजदूर वर्ग के लिए। आज मेरी कार्यसूची में दो मुकदमे अंतिम बहस के लिए थे। इन दोनों मामलों में प्रार्थी मजदूर हैं, जिनके मुकदमे 2008 से अदालत में लंबित हैं। हालाँकि श्रम न्यायालय में जाने के पहले इन मजदूरों ने श्रम विभाग में अपनी शिकायत पेश की थी। वहाँ कोई समझौता न होने पर राज्य सरकार को रिपोर्ट भेजी गयी थी और तब ये मुकदमे सरकार ने श्रम न्यायालय को निर्णय के लिए भेजे। इस तरह इन्हें मुकदमा लड़ते-लड़ते 14 वर्ष से अधिक हो गए हैं।

इन दोनों मुकदमों में आज केवल इसलिए पेशी दे दी गई क्योंकि अभी भी अदालत में 20 वर्ष से पुराने अर्थात 1999 तक दायर किए गए अनेक मुकदमें लंबित हैं और पहले उनका निपटारा किया जाएगा। मुझे लगता है कि अभी इन दोनों मजदूरों को कम से कम साल 2-3 साल और इंतजार करना पड़ेगा तब जाकर उन्हें श्रम न्यायालय से निर्णय हासिल होगा।

श्रम न्यायालय की स्थापना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। राज्य सरकार के अनुरोध पर इन न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय करता है। कोटा के श्रम न्यायालय में यह स्थिति अनेक वर्ष से बनी हुई है, यही स्थिति राजस्थान के अन्य न्यायालयों में भी कई सालों से बनी हुई है। इस स्थिति का लाभ पूंजीपतियों, सरकार और सार्वजिनिक क्षेत्र के उद्योगों को मिलता है। शीघ्र न्याय के लिए यह आवश्यक है कि यहां एक श्रम न्यायालय और स्थापित किया जाए। शीघ्र न्याय के लिए यह स्वयं सरकार को सोचना चाहिए। लेकिन स्थिति यह है कि इस अदालत में स्टेनो और रीडर दोनों 2 वर्ष पूर्व ही रिटायर हो चुके हैं। लेकिन उनके स्थान पर दूसरे व्यक्ति अभी पद स्थापित नहीं किए गए हैं और सेवानिवृत्त दोनों कर्मचारियों को ही एक्सपेंशन दिया हुआ है। यदि इस वर्ष इन्हें तीसरे वर्ष के लिए एक्सटेंशन नहीं दिया गया तो अदालत की स्थिति और बुरी हो जाएगी सरकार की सोच इस मामले में सिर्फ यह है कि सरकार और खर्च वहन करने में सक्षम नहीं है।

फिलहाल राजस्थान में कांग्रेस सरकार है। लेकिन यह स्थिति पिछले 15 वर्ष से बनी हुई है। इस बीच दो बार भाजपा सरकार और इस बार फिर दूसरी बार राज्य सरकार कांग्रेस की है। लेकिन दोनों को इसकी कभी कोई फ्रिक नहीं रही। दोनों ही पार्टियाँ मूलतः पूंजीपति वर्ग की सेवा में लगी हैं। ऐसी पूंजीपति परस्त सरकारें जो न्याय के लिए पर्याप्त न्यायालय तक भी नहीं दे सकती हैं, क्या उन्हें बने रहने का अधिकार भी रह गया है?

पहले उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय इस सिद्धान्त पर चल रहे थे कि किसी को नौकरी से निकालना गलत पाया जाए तो उसे पिछले पूरे वेतन सहित सेवा में बहाल किया जाए। केवल नियोजक द्वारा यह साबित कर देने पर कि सेवा से हटाए जाने के बाद मजदूर लाभकारी नियोजन में रहा है तो उस के पिछले वेतन के लाभ को उसी अनुपात में कम किया जा सकता है। लेकिन जैसे-जैसे इन बड़े न्यायालयों में उच्च मध्यवर्ग से आए जजों की संख्या बढ़ी है। इस सिद्धान्त को खारिज किए बिना ही नया सिद्धान्त यह स्थापित कर दिया गया है कि मुकदमे की लंबाई अधिक (10-20 वर्ष) हो जाने के कारण सेवा में पुनर्स्थापित किया जाना जरूरी नहीं है और केवल 1 से 2 लाख के बीच धनराशि दे देने से मजदूर को न्याय मिल जाएगा।

इस तरह एक तरह से मजदूर को न्याय देने का जो दिखावटी काम पूंजीवादी लोकतन्त्र करता है उसे भी कायदे से बत्ती लगा दी गयी है और उनके लिए तैयार न्याय व्यवस्था का पुतला धू-धू कर जल रहा है। यह तो मेहनतकश जनता के सोचने का विषय है कि वह ऐसे में क्या करे? इस स्थिति का उपाय यही है कि मजदूर वर्ग संगठित हो कर किसानों, छोटे दुकानदारो, बेरोजगार छात्रों आदि के साथ भाईचारा स्थापित करते हुए पूंजीपति वर्ग की सत्ता को उलट दे और अपने नेतृत्व में मेहनतकश जनता का जनतंत्र स्थापित करे।

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे

कोई भी नयी उन्नत तकनीक समाज को आगे बढ़ने में योगदान करती है। एक भाप के इंजन के आविष्कार ने दुनिया में से सामन्तवाद की समाप्ति का डंका बजा दिया था। इंग्लेण्ड की औद्योगिक क्रान्ति उसी का परिणाम थी। उसी ने सामन्तवाद के गर्भ में पल रहे पूंजीवाद को जन्म देने में दाई की भूमिका अदा की थी। पूंजीवाद उसी से बल पाकर आज दुनिया का सम्राट बन बैठा है। उस के चाकर लगातार यह घोषणा करते हैं कि अब इतिहास का अन्त हो चुका है। पूंजीवाद अब दुनिया की सचाई है जो कभी समाप्त नहीं हो सकती। इस का अर्थ है कि पूंजीवाद ने जो कष्ट मानवता को प्रदान किए हैं वे भी कभी समाप्त नहीं होंगे। कभी गरीबी नहीं मिटेगी, धरती पर से कभी भूख की समाप्ति नहीं होगी। दुनिया से कभी युद्ध समाप्त नहीं होंगे, वे सदा-सदा के लिए शोणित की नदियाँ बहाते रहेंगे। किसान उसी तरह से अपने खेतों में धूप,ताप, शीत, बरखा और ओले सहन करता रहेगा। मजदूर उसी तरह कारखानों में काम करते रहेंगे। इंसान उच्च से उच्च तकनीक के जानकार होते हुए भी पूंजीपतियों की चाकरी करता रहेगा। बुद्धिजीवी उसी की सेवा में लगे रह कर ईनाम पाते और सम्मानित होते रहेंगे। जो ऐसा नहीं करेगा वह न सम्मान का पात्र होगा और न ही जीवन साधनों का। कभी-कभी लगता है कि दमन का यह चक्र ऐसे ही चलता रहेगा। शायद मनुष्य समाज बना ही इसलिए है कि अधिकतर मनुष्य अपने ही जैसे चंद मनुष्यों के लिए दिन रात चक्की पीसते रहें।

ज हम जानते हैं कि इंसान ही खुद ही खुद को बदला है, उस ने दुनिया को बदला है और उसी ने समाज को भी बदला है। यह दुनिया वैसी नहीं है जैसी इंसान के अस्तित्व में आने के पहले थी। वही इकलौता प्राणी इस ग्रह में है जो अपना भोजन वैसा ही नहीं ग्रहण करता जैसा उसे वह प्रकृति में मिलता है। वह प्रकृति में मिलने वाली तमाम वस्तुओं को बदलता है और अपने लिए उपयोगी बनाता है। उस ने सूत और ऊन से कपड़े बुन लिया। उस ने फलों और मांस को पकाना सीखा, उस ने अनाज उगा कर अपने भविष्य के लिए संग्रह करना सीखा। यह उस ने बहुत पहले कर लिया था। आज तो वह पका पकाया भोजन भी शीतकों और बंद डिब्बों में लंबे समय तक रखने लगा है। बस निकाला और पेट भर लिया। इंसान की तरक्की रुकी नहीं है वह बदस्तूर जारी है। 

स ने एक समय पहिए और आग का आविष्कार किया। इन आविष्कारों से उस की दुनिया बदली। लेकिन समाज वैसे का वैसा जंगली ही रहा। लेकिन जिस दिन उस ने पशुओं को साधना सीखा उस दिन उस ने अपने समाज को बदलने की नींव डाल दी। उसे शत्रु कबीले के लोगों को अब मारने की आवश्यकता नहीं थी, वह उन की जान बख्श सकता था। उन्हें गुलाम बना कर अपने उपयोग में ले सकता था। कुछ मनुष्यों को कुछ जीवन और मिला। लेकिन उसी ने मनुष्य समाज में भेदभाव की नींव डाल दी। अब मनुष्य मनुष्य न हो कर मालिक और गुलाम होने लगे। पशुओं के साथ, गुलामों के श्रम और स्त्रियों की सूझबूझ ने खेती को जन्म दिया। गुलाम बंधे रह कर खेती का काम नहीं कर सकते थे। मालिकों को उन के बंधन खोलने पड़े और वे किसान हो गए। दास समाज के गर्भ में पल रहा भविष्य का सामंती समाज अस्तित्व में आया। हम देखते हैं कि मनुष्य ने अपने काम को सहज और सरल बनाने के लिए नए आविष्कार किए, नई तकनीकें ईजाद कीं और समाज आगे बढ़ता रहा खुद को बदलता रहा। ये तकनीकें वही, केवल वही ईजाद कर सकता था जो काम करता था। जो काम नहीं करता था उस के लिए तो सब कुछ पहले ही सहज और सरल था। उसे तो कुछ बदलने की जरूरत ही नहीं थी। बल्कि वह तो चाहता था कि जो कुछ जैसा है वैसा ही चलता रहे। इस लिए जिन्हों ने दास हो कर, किसान हो कर, श्रमिक हो कर काम किया उन्हीं ने तकनीक को ईजाद किया, दुनिया को बदला, इंसान को बदला और इंसानी समाज को बदला। इस दुनिया को बदलने का श्रेय केवल श्रमजीवियों को दिया जा सकता है, उन से अलग एक भी इंसान को नहीं। 

र क्या अब भी कुछ बदल रहा है? क्या तकनीक विकसित हो रही है? जी, दुनिया लगातार बदल रही है। तकनीक लगातार विकसित हो रही है। पूंजीवाद के विकास ने लोगों को इधर-उधर सारी दुनिया में फैला दिया। पहले एक परिवार संयुक्त रूप से साथ रहता था। आज उसी परिवार का एक सदस्य दुनिया के इस कोने में है तो दूसरा उस कोने में। एक सोने जा रहा है तो दूसरा सो कर उठ रहा है। लेकिन दुनिया भर में बिखरे लोगों ने जुड़ने के तकनीकें विकसित कर ली हैं और लगातार करते जा रहे हैं। आज की सूचना प्रोद्योगिकी ने इंसानी समाज को आपस में जो़ड़े रखने की  मुहिम चला रखी है। हों, इस प्रोद्योगिकि के मालिक भले ही पूंजीपति हों, लेकिन कमान तो वही श्रमजीवियों के हाथों में है। वे लगातार तकनीक को उन्नत बनाते जा रहे हैं। नित्य नए औजार सामने ला रहे हैं। हर बार एक नए औजार का आना बहुत सकून देता है। तकनीक का विकसित होना शांति और विश्वास प्रदान करता है। कि इतिहास का चक्का रुका नहीं है। दास युग और सामंती युग विदा ले गए तो यह मनुष्यों के शोणित से अपनी प्यास बुझाने वाला पूंजीवाद भी नहीं रहेगा। हम, और केवल हम लोग जो श्रमजीवी हैं, जो तकनीक को लगातार विकसित कर रहे हैं, एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे। 

रविवार, 27 जून 2010

गाँव की सामान्य अर्थव्यवस्था - -एक ग्राम यात्रा

पिछली पोस्टों घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रादेवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है और घूंघट में दूरबीन और हेण्डपम्प का शीतल जल से आगे ....... 
 कोई दो सौ कदम चलने पर ही पोस्टमेन जी का घर आ गया। एक कमरा पक्का बना हुआ था, शेष वही कवेलूपोश। घर में आंगन था जिस में नीम का पेड़ लगा था। पास ही एक हेण्डपम्प था।  पेड़ के नीचे दो चारपाइयाँ बिछी थीं। एक बुनी हुई और दूसरी निवार से बुनने की प्रक्रिया में थी। हम बुनी हुई चारपाई पर बैठ गए। पोस्टमेन जी चाय बनाने को कहने लगे। मैं ने इनकार किया कि मैं तो बीस बरस से चाय नहीं पीता। उन्हों ने शरबत का आग्रह किया। मैं ने उस के लिए भी मना कर दिया। उन की पोती जल्दी से शीतल जल ले आई। पोस्टमेन जी बताने लगे कि वे रिटायर होने के बाद गाँव ही आ गए। यहाँ कुछ जमीन है उसे देखते हैं, खेती अच्छी हो जाती है। दो लड़कों ने गाँव में ही अपना स्कूल खोल रखा है, जिस में सैकण्डरी तक पढ़ाई होती है। खुद पढ़ाते हैं और गाँव के ही कुछ नौजवानों को जिन्होंने बी.एड. कर रखा है और सरकारी नौकरी नहीं लगी है स्कूल में अध्यापक रख लिया है। स्कूल अच्छा चल रहा है, यही कोई ढाई सौ विद्यार्थी हैं। दो लड़के कोटा में नौकरी करते हैं। वहाँ उन्हों ने नौकरी के दौरान मकान बना लिया था उस में रहते हैं। मुझे पोस्टमेन जी अपने जीवन से संतुष्ट दिखाई दिए। इस से अच्छी कोई बात नहीं हो सकती थी कि उन के चारों पुत्र रोजगार पर हैं, सब के विवाह हो चुके हैं। उन्हें पेंशन मिल रही है और खेती की जमीन पर खेती हो जाती है। 
चौपाल पर गाँव का एक बालक
मैं ने उन से पूछा -खेती में तो खटना पड़ता होगा?
वे बताने लगे -खेती में आजकल कुछ नहीं करना पड़ता। सभी काम मशीनों से हो जाते हैं जो करवा लिये जाते हैं। बस खाद-बीज-कीटनाशक की व्यवस्था करनी पड़ती है। रखवाली और अन्य कामों के लिए एक हाळी (वार्षिक मजदूरी पर खेती के कामों के लिए रखा मजदूर) रख लेते हैं। हंकाई-जुताई-बिजाई ट्रेक्टर वाला किराए पर कर देता है। फसल पकने पर कंबाइन आ जाता है जो काट कर अनाज निकाल कर बोरों में भर देता है। ट्रेक्टर किराए पर ले कर फसल मंडी में बेच आते हैं। निराई आदि के काम बीच में आ जाते हैं तो मजदूर मिल जाते हैं। उन्हों ने बताया कि गाँव में जितने भी लोगों के पास खुद की भूमि है वे सभी इसी तरह काम करते हैं। किसी के पास ट्रेक्टर और दूसरे साधन हैं तो वे  भी उन से काम करने के लिए मजदूर रख लेते हैं।  गाँव में जिन के पास भूमि है उन सब के पास बहुत समय है, वे केवल खेती का प्रबंधन करते हैं या फिर मौज-मस्ती में जीवन गुजारते हैं। 
-इस हिसाब से गाँव संपन्न दिखाई देना चाहिए, लेकिन वैसी संपन्नता दिखाई नहीं देती। अभी भी गांव के 70-80 प्रतिशत घरों पर पक्की छतें नहीं हैं। मैं ने पूछा।
पोस्टमेन जी बताने लगे। लोग खुद तो कुछ करते नहीं सब मजूरों और मशीनों पर कराते हैं। नतीजे में खेती में खर्चा बहुत हो जाता है बस गुजारे लायक ही बचता है। जो लोग खेती के साथ दूसरे व्यवसाय करने लगते हैं या जिन्हें नौकरियाँ मिल जाती हैं वे अवश्य संपन्न हो चले हैं, पर ऐसे लोग कम ही हैं। हाँ, जिन के पास खेती नहीं है और केवल मजदूरी पर निर्वाह कर रहे हैं उन के पास इसी कारण से काम की कमी नहीं रही है। जो अच्छा काम करते हैं उन्हें हमेशा काम मिल जाता है। वैसे साल भर काम नहीं रहता है। लेकिन जब काम नहीं मिलता है तब वे नरेगा आदि में चले जाते हैं। उन में से जिन में कोई ऐब नहीं है वे धन संग्रह भी कर पाए हैं। गाँव में स्थिति यह है कि किसी जमीन वाले को पैसे की जरूरत पड़ जाए तो ये मजदूरी करने वाले लोग तीन रुपया सैंकड़ा मासिक ब्याज पर उधार दे देते हैं। 
मैं ने अपने मोबाइल पर समय देखा पौने चार हो रहे थे। मुझे उसी दिन रातको जोधपुर के लिए निकलना था। यह तभी हो सकता था जब कि मैं कम से कम छह बजे तक कोटा अपने घर पहुँच सकता। मुझे लगा अब यहाँ से चलना चाहिए। मैं ने पोस्टमेन जी से विदा लेनी चाही लेकिन, वे मुझे मेरे मेजबान के घर तक छोड़ने आए।  मेजबान का घर मेहमानों से भरा था। कुछ सुस्ता रहे थे, कुछ बतियाने में लगे थे। लेकिन घर की महिलाओं और लड़कियाँ काम  में लगी थीं। रसोई में चाय बन रही थी। दो महिलाएँ हेण्डपम्प के पास बर्तन साफ करने में लगी थीं। मेहमानों के लिए चाय आई। मैं ने मना किया तो मेरे लिए तुरंत ही नींबू की शिकंजी बन कर आ गई। अब सब लोगों को भोजन कराने की तैयारी थी। जो कहीं और बन रहा था। मैं भोजन करने के लिए रुकता तो फिर जोधपुर न जा सकता था। मैं निकलने के लिए अपनी कार तक आया। उस की धूल झाड़ ही रहा था कि मेजबान का पुत्र वहाँ आ गया। भोजन बिलकुल तैयार है बस आधे घंटे में आप निपट लेंगे, मैं उस के आग्रह को न टाल सका। 
ह मुझे उस स्थान पर ले गया जहाँ भोजन बन रहा था और खिलाया जाना था। वह एक घर था जिस मेंकेवल दो कच्चे कमरेबने थे, शेष भूमि रिक्त थी। जो जानवरों को बांधने आदि के काम आती थी। वहीं भोजन बन रहा था। खाली भूमि को साफ कर दिया गया था जिस से वहाँ बैठा कर भोजन कराया जा सके। हम पाँच-छह लोग जिन्हें जाने की जल्दी थी बिठा दिए गए। भोजन में आलू-टमाटर की स्वादिष्ट सब्जी थी, कच्चे आम की आँच थी जिस में बेसन की नमकीन बूंदी डाली गई थी, इस के अलावा बेसन के चरपरे सेव थे और मीठी बूंदी थी जिसे हम यहाँ नुकती कहते हैं, गरमागरम पूरियाँ परोसी जा रही थीं। हाड़ौती का ठेठ परंपरागत मीनू था, यह। गर्मी के कारण भोजन स्वादिष्ट होने पर भी ठीक से न कर पाए। भोजन के उपरांत हम गाँव से लौट पड़े।

सोमवार, 31 मई 2010

मनुष्य के श्रम से विलगाव के जैविक और सामाजिक परिणाम


ज सुबह अदालत में जब हम चाय के लिए  जा रहे थे तो वरिष्ट वकील महेश गुप्ता जी ने पीछे से आवाज लगाई। मैं मुड़ा तो देखता हूँ कि पंचानन गुरू मौजूद हैं। वे मुझे याद कर रहे थे। वे कोटा की पहली पीढ़ी के वामपंथियों में से एक हैं। अपने जमाने में उन्हों ने इस विचार को पल्लवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका  अदा की। बाद में  अपने गांव के पास के कस्बे अटरू में जा कर वकालत करने लगे, साथ में पुश्तैनी किसानी थी ही। अब जीवन के नवें दशक में हैं। गुरू ने पूछा -कहाँ जा रहे थे? मैं ने कहा चाय पीने।  उन्हो ने पलट कर पूछा-कौन पिला रहा है? मैं ने कहा जो भी सीनियर होगा वही पिलाएगा। उन्हों ने फिर पूछा -हम भी चलते हैं, अब कौन पिलाएगा? उत्तर मैं ने नहीं महेश जी ने दिया - अब तो सब से सीनियर आप ही हैं, लेकिन जब छोटे कमाने लगें तो उन का हक बनता है। तो यूँ मेरा हक है। हम सब केंटीन की ओर चले।
चाय का आदेश देते हुए महेश जी ने कहा एक चाय फीकी आएगी। गुरू बोले -फीकी किस के लिए? मैं तो अब भी घोर मीठी पीता हूँ। महेश जी ने जवाब दिया यह मधुमेह का राजरोग मुझे लगा है। गुरू कहने लगे -मधुमेह तो तो सब रोगों की जननी है। अब कोई रोग आप को छोड़ेगा नहीं। महेश जी ने उत्तर दिया -आप सही कहते हैं। इस का कोई इलाज भी नहीं, एक इलाज है पैदल चलना। मैं ने कहा श्रम ने ही तो मनुष्य को जानवर से मनुष्य बनाया है, वह छूटेगा तो रोग तो पकड़ेगा ही। गुरू जी कहने लगे तुम भी डार्विन में विश्वास करते हो क्या? मैंने कहा करता तो नहीं, पर सबूतों का क्या करें? कमबख्त ने सबूत ही इतने दिए कि मानने के सिवा कोई चारा नहीं है। गुरू जी ने गीता का जिक्र कर दिया। कहने लगे -वहाँ भी कहा तो यही है, कि मनुष्य काजन्म तो 84 लाख योनियों के बाद होता है, सीधा-सीधा विकासवाद की ओर संकेत है। पर उन्हों ने सबूत नहीं दिए सो पंडितों ने अपनी रोटियाँ उस पर सेक लीं।फिर वे किस्सा सुनाने लगे -
Planet of the Apes'मेरे गांव में एक बूढ़ा पटवारी बिस्तर पर था जान नहीं निकलती थी। बेटे कहने लगे बहुत दुख पा रहे हैं जान नहीं निकल रही है। मैं गीता ले कर वहाँ पहुँचा कि तुम्हें गीता सुना दूँ। दो दिन में उसे गीता के दो अध्याय सुनाए। तीसरे दिन तीसरा अध्याय सुनाने गया तो पूछने लगा। गाँव में डिस्टीलरी की बिल्डिंग  का खंडहर खड़ा है, सैंकड़ो एकड़ उस की जमीन है, डिस्टीलरी की इस जमीन का क्या होगा? मैं ने उसे गीता का तीसरा अध्याय नहीं सुनाया। बेटों को कहा कि जब तक डिस्टीलरी की चिंता इन्हें सताती रहेगी ये कष्ट पाते रहेंगे। उस के बाद मैं उसे गीता सुनाने नहीं गया।? 
ब तक चाय समाप्त हो चुकी थी। सब उठ लिए। गुरू जी मेरे लिए काम सौंप गए। जब श्रम ने मनुष्य को जानवर से मनुष्य बनाया तो उस का श्रम से विलगाव क्या असर करेगा? जरा इस पर गौर करना। मैं ने कहा -निश्चित ही वह मनुष्य का विमानवीकरण करता है। यही तो इस युग का सब से बड़ा अंतर्विरोध है। मनुष्य का अंतर्विरोधों का हल करने का लंबा इतिहास है, वह इस अंतर्विरोध को भी अवश्य ही हल कर लेगा। मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'कफन' तो आपने पढ़ी ही होगी। 
स के बाद गुरूजी चल दिए। मैं भी अपने काम में लग गया। मैं घर लौटने के बाद इस प्रश्न  से जूझता रहा कि  क्या मनुष्य इस अंतर्विरोध को हल कर पाएगा? 
प लोग इस बारे में क्या सोचते हैं? आप राय रखेंगे तो इस विषय पर सोच आगे बढ़ेगी। ब्लाग जगत में कुछ साथी गंभीर काम करते हैं, उन से गुजारिश भी है कि उन के ज्ञान में हो तो बताएँ कि, क्या ऐसी कोई शोध भी उपलब्ध हैं,  जो मनुष्य के श्रम से विलगाव के जैविक और सामाजिक परिणामों के बारे में कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं?

बुधवार, 5 मई 2010

मात्रात्मक परिवर्तन हो रहे हैं तो गुणात्मक भी होंगे

बेटी नौकरी करने के साथ अपना सारा काम खुद करती है। आवास की सफाई, खाना बनाना, कपड़े धोना, उन पर इस्त्री करना आदि आदि जो भी घर के काम हैं। उसे सफाई के लिए एक हेंडी वैक्यूम क्लीनर चाहिए था। मुझे पता नहीं था कहाँ मिलेगा। हम दोनों कल शाम बाजार निकले। कुछ जगह पूछताछ की। कार पहली बार उस गली से निकली थी। जिस में म्युजिक कैसेट बेचने वाले सरदार चरण सिंह की दुकान थी। मैं भी बहुत दिनों में उस तरफ आया था। मेरी इच्छा हुई कि मैं चरण सिंह से बात करूँ। वह दु्कान पर ही बैठा था, बिलकुल अकेला। मैं ने कार पार्क की औऱ उस की दुकान की तरफ बढ़ चला। 
कोई अठारह साल पहले मैं अदालत से घऱ लौटते समय अक्सर उस की दुकान पर चला जाया करता था। कुछ देर गप्पें होती थीं। नए कैसेट देखे जाते थे और कुछ खरीद भी लाता था। धीरे धीरे एक दोस्ती जैसा संबंध बन चला था। फिर कुछ ऐसा हुआ कि मैं व्यस्त हो गया। कैसेटों से अलमारी भऱ गई। और सब से बड़ी बात कि कंप्यूटर घऱ में आ गया। संगीत की जरूरत वह पूरी करने लगा। मेरा उस दुकान पर आना जाना कम होते होते बंद हो गया। लेकिन एक दूसरे के बारे में जानने की इच्छा बनी रही। चरण सिंह ने देखते ही पहचान लिया। बोलने लगा बहुत दिनों बाद दिखाई दिए? उस की दुकान बहुत बड़ी थी। उस के खुद के मकान के नीचे बनी हुई। उस ने आधा ग्राउंड फ्लोर घेरा हुआ था। अब दुकान में कैसेट कम और सीडी-डीवीडी अधिक नजर आ रही थीं। वह अब भी शायद शहर का सब से बड़ा म्यूजिक स्टोर है। एक जमाना था जब  पूरा शहर ही नहीं अपितु तीन जिलों के दुकानदार उस से बेचने के लिए माल खरीदने आते थे।  लेकिन कल वह उदास लगा। दिन के जिस वक्त मैं वहाँ पहुँचा था उस समय तो वहाँ बहुत भीड़ होनी चाहिए थी। लेकिन एक भी ग्राहक वहाँ नहीं था। मुझे यह सब बहुत अजीब लगा।
मैं ने चरण सिंह से पूछा -काम-धाम कैसा चल रहा है? कहने लगा -बस चल रहा है। अब कैसेट का बाजार नहीं रहा। सीडी-डीवीडी का प्रचलन भी कम हो चला है। पेन ड्राइव चल रहे हैं। कारों में भी वही लगे हैं। बस घर और धंधे के खर्चे निकाल लेते हैं। वक्त और बदलती तकनीक ने उस के धंधे के प्राण निचोड़ लिए थे। वरना एक जमाना था जब इसी कैसेट के धंधे ने गुलशन कुमार को जूस वाले से करोड़पति बना दिया था। मैं ने उस के बच्चों के बारे में पूछा तो बताया कि एक लड़के ने इस बार आईआईटी के लिए प्रवेश परीक्षा दी है, दूसरा बीकॉम कर रहा है और सीए बनना चाहता है। फिर कहने लगा - वकील साहब अब धंधों में कुछ नहीं रखा। इस से अच्छी तो नौकरी है। कम से कम यह तो निश्चिंतता रहती है कि महिने आखिर में तनख्वाह मिल जाती है। बस जब तक अपन हैं तब तक ये धंधा है। बच्चे ये सब नहीं करने वाले। वैसे भी अब नंबर एक के धंधे में बरकत नहीं रही। करो तो उसी धंधे में नंबर दो वाले उसे पीट देते हैं। हम उन से कंपीटीशन नहीं कर सकते। जो भी धंधा चल रहा है वह बड़ी पूंजी का चल रहा है। आम दुकानदार तो बस अपनी और नौकरों की मजदूरी निकाल रहा है और कुछ नहीं। 
मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ कि एक समय के सफल व्यवसायी की संताने अपने लिए नौकरी करने का मार्ग तलाश रही थी। यह आज आम बात हो गई है। छोटा व्यवसायी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है। वह लगातार उजरती मजदूर में बदलता जा रहा है। उजरती मजदूरों की संख्या बढ़ रही है। श्रम जीवी बढ़ रहे हैं। जो दुकानदार है वह भी यदि टैक्स चुंगी आदि नहीं चुराता तो उतना ही कमा रहा है जितना मजदूरी कर के कमाता। छोटा उद्योगपति नष्ट हो रहा है। लेकिन बड़े उद्योगपति पनप रहे हैं। उन की पूंजी लगातार बढ़ती जा रही है। मैं महसूस करता हूँ कि जिस गति से उजरती मजदूर बढ़ रहा है उसी गति से व्यवस्था अपना ओज खोती जा रही है। 
हुत दिनों के बाद चरण सिंह की दुकान पर गया था। बिना कुछ लिए कैसे निकलता।  दिन में कार के डेशबोर्ड पर एक कैसेट छूट गई थी। दिन में धूप से बंद कार की हवा का ताप इतना बढ़ा कि वह पिघल कर दोहरी हो गई। बेटी ने अपने पसंद की दो कैसेट खरीदी, मेरी कार के लिए। हम वहाँ से चल दिए। दो एक दुकानें देखने पर हेंडी वैक्यूम क्लीनर मिल ही गया। घर आ कर भोजन किया। आधी रात को बेटी की ट्रेन थी। उसे छोड़ कर रेल्वे स्टेशन के बाहर आया तो बूंदाबांदी हो चुकी थी। कुछ देर ठंडक महसूस हुई। फिर ऊमस बढ़ गई। बस एक माह की बात है फिर बरसात के आने की तैयारी शुरू हो जाएगी। मुझे लगा कि देश दुनिया में जो एक मात्रात्मक परिवर्तन हो रहा है वह जल्दी ही व्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन के लक्षण बताने लगेगा।

मंगलवार, 4 मई 2010

मैं वकील, एक आधुनिक उजरती मजदूर, अर्थात सर्वहारा ही हूँ।

पिछले आलेख में मैं ने एक कोशिश की थी कि मैं आम मजदूर और सर्वहारा में जो तात्विक भेद है उसे सब के सामने रख सकूँ। एक बार मैं फिर दोहरा रहा हूँ कि सर्वहारा का तात्पर्य उस 'आधुनिक उजरती मजदूर से है जिस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते और जो जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर है"।
ह परिभाषा अपने आप में बहुत स्पष्ट है। सब से पहले इस में आधुनिक शब्द का प्रयोग हुआ है। मजदूर तो सामंती समाज में भी हुआ करता था। बहुधा वह बंधक होता था। एक बंधुआ मजदूर अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं होता। वह एक ही स्वामी से बंधा होता है। उस का पूरा दिन और रात अपने स्वामी के लिए होती है।  सर्वहारा के लिए जिस मजदूर का उल्लेख हुआ है वह इस मजदूर से भिन्न है। यह मजदूर तो है लेकिन अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र है। दूसरे यह मजदूर आधुनिकतम  तकनीक पर काम करता है उस के निरंतर संपर्क में है। यह उजरती मजदूर है, अर्थात अपनी श्रम शक्ति को बेचता है। वह घंटों, दिनों के हिसाब से, अथवा काम के हिसाब से अपनी श्रम शक्ति को बाजार में बेचता है।  इस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं हैं। जीवन यापन के लिए इस के पास अपनी श्रम शक्ति को बेचने के अलावा और कोई अन्य बेहतर साधन नहीं है।  
मैं स्वयं अपना उदाहरण देना चाहूँगा। मैं एक वकील हूँ और किसी का कर्मचारी नहीं हूँ। अपनी मर्जी का स्वयं मालिक भी हूँ। लेकिन उस के बावजूद मैं एक उजरती मजदूर ही हूँ। रोज अपने दफ्तर में बैठता हूँ और समय से अदालत पहुँच जाता हूँ। ये दोनों स्थान मेरे लिए अपने श्रम को बेचने के बाजार हैं। किसी भी व्यक्ति को जब मेरे श्रम की आवश्यकता होती है तो वह मेरे पास आता है और सब से पहले यह देखता है कि मेरा श्रम उस के लिए उपयोगी हो सकता है अथवा नहीं। जब वह पाता है कि मेरा श्रम उसके उपयोगी हो सकता है तो वह मुझे बताता है कि मुझ से वह क्या काम लेना चाहता है। मैं उस काम का हिसाब और उस में लगने वाले श्रम का मूल्यांकन करता हूँ। वह मुझ से उस काम में लगने वाले श्रम का मूल्य पूछता है। मैं उसे  बताता हूँ तो वह फिर मोल-भाव करता है। यदि मुझे उस समय अपने श्रम को बेचने की अधिक आवश्यकता होती है तो मुझे अपना भाव कम करना होता है यदि परिस्थिति इस के विपरीत हुई, खऱीददार को मेरे श्रम की अधिक आवश्यकता हुई और मुझे अपने श्रम को बेचने की आवश्यकता कम तो मेरे श्रम के मूल्य में वृद्धि हो जाती है। इस तरह कुल मिला कर मैं एक  आधुनिक उजरती मजदूर ही हूँ।  मेरे पास आय का अर्थात जीवन यापन का कोई अन्य साधन नहीं है । इस तरह मैं एक सर्वहारा हूँ। मेरे प्रोफेशन में बहुत लोग ऐसे भी हैं जिन के पास जीवन यापन के अन्य साधन भी हैं। अनेक तो ऐसे भी हैं जिन के जीवन यापन के प्रधान साधन कुछ और हैं, वकालत का प्रोफेशन नहीं। निश्चित रूप से ऐसे लोग सर्वहारा नहीं हैं। लेकिन आज स्थिति यह है कि वकालत के प्रोफेशन में 60-70 प्रतिशत लोग वही हैं जिन के जीवन यापन का एक मात्र जरिया वकालत ही है और निश्चित रूप से वे सर्वहारा हैं। यही स्थिति डाक्टरों की है। इंजिनियरों में तो सर्वहाराओं की संख्या और भी अधिक है। 
स तरह हम पाते हैं कि पूंजीवाद ने चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और इंजिनियरों को भी आधुनिक उजरती मजदूरों में परिवर्तित कर दिया है। यह दूसरी बात है कि इन में बहुत कम, केवल चंद लोग हैं जो अपनी इस स्थिति को स्वीकार करने को तैयार होंगे। लेकिन उस से क्या? जैसे जैसे वर्तमान व्यवस्था का संकट बढ़ता जाता है, उन्हें इस वास्तविकता का बोध होता जाता है, वे स्वीकारने लगते हैं कि वे आधुनिक उजरती मजदूर अर्थात सर्वहारा हैं।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

हो सकता है राजस्थान सरकार को अब शर्म आए

 ज अखबारों में खबर थी .....

कोटा न्यायालय होगा ऑनलाइन

कोटा. राजस्थान के अन्य न्यायालयों के साथ ही अगले वर्ष मार्च तक कोटा न्यायालय भी ऑनलाइन हो जाएगा। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट मुकेश भार्गव ने बताया कि अभी वर्तमान में मुख्य जोधपुर राजस्थान हाईकोर्ट, जोधपुर सेशन न्यायालय एवं जयपुर खंडपीठ हाईकोर्ट ऑनलाइन किया हुआ है।
आगामी मार्च 2011 तक पूरे राजस्थान के न्यायालय के साथ-साथ कोटा जिले की सभी न्यायालयों में कम्प्यूटर लगा दिए जाएंगे। प्रकरणों के फैसले, नकलें, कॉज लिस्ट सहित अन्य न्यायिक कामकाज कम्प्यूटर के जरिए पूरे होंगे।
उन्होंने बताया कि कोटा न्यायालय में बिजली फिटिंग का कार्य तेजी से चल रहा है। प्रत्येक कोर्ट में चार-चार कम्प्यूटर व प्रिंटर लगाए जाएंगे। एक-एक कम्प्यूटर स्टेनो, रीडर एवं क्लर्क को दिए जाएंगे। न्यायिक कर्मचारियों को कम्प्यूटर की ट्रेनिंग भी दी जाएगी।
 अब इस खबर को पढ़ कर मुझे प्रसन्नता होनी चाहिए थी। हुई भी, कि चलो अब कुछ तो काम तेजी से होने लगेगा। अभी तो आलम ये है कि मुकदमे में फैसला हो जाता है, अक्सर दो-तीन दिन  बाद, जब वह टाइप हो जाता है और जज द्वारा उस की एक एक हिज्जे जाँच कर दस्तखत कर दिए जाते हैं तब पढ़ने को मिलता है। अब तुरंत पढ़ने को मिलने लगेगा। किसी मुकदमे की तारीख और नंबर तलाश करने में पसीना आ जाता है। निर्णयों और अन्य दस्तावेजों की नकलें लेने में सप्ताह भर लग जाता है। शायद अब इस समय में कटौती हो जाए और काम तुरंत होने लगे। निश्चित रूप से कंप्यूटर अदालत के कामकाज को बेहतर और तेज करेगा।
कंप्यूटर लगाने के लिए अदालत में और जजों के चैम्बरों में लाइन की फिटिंग हो रही है।  यह सब हो रहा है केंद्र द्वारा कंप्यूटरों की स्थापना के लिए दिए गए अनुदान से। लेकिन तभी मेरा ध्यान यहाँ के श्रम न्यायालय की ओर गया। इस न्यायालय में करीब 4000 हजार मुकदमे में हैं और एक वरिष्ठ उच्च न्यायिक सेवा अधिकारी यहाँ पद स्थापित किया जाता है। लेकिन इस अदालत को इस की स्थापना 1978 के समय दो मैनुअल टाइपराइटर प्रदान किए गए थे, अब तक उन्हीं से काम चलाया जा रहा है। एक टाइपराइटर की उम्र 15 से 20 वर्ष से अधिक की नहीं होती। यदि उस से लगातार काम लिया जाए तो वह इतने वर्ष भी नहीं चल सकता। लेकिन इस अदालत का स्टॉफ उसी से काम चला रहा है। 
दिन में अदालत के निजि सहायक मुझे मिल गए। मैं ने पूछा अपनी अदालत में कंप्यूटर कब आ रहे हैं? तो वे बड़ी मायूसी से कहने लगे कि छह साल हम को कंप्यूटरों के लिए राज्य सरकार को लिखते हो गए हैं। श्रम विभाग वित्तीय स्वीकृति के लिए वित्त विभाग को लिख देता है वहाँ से स्वीकृति नहीं मिलती। मैं ने राज्य की दूसरे श्रम न्यायालयों के लिए पूछा तो वे बता रहे थे कि जयपुर के श्रम न्यायालय के सभी टाइपराइटर टूट गए तो राज्य सरकार ने वहाँ एक कंप्यूटर दिया है। वाकई स्थिति बहुत निराशा जनक है। हो सकता है अब जब सब से निचले न्यायालय में भी चार-चार कंप्यूटर स्थापित हो जाएँ तब शायद राजस्थान सरकार को भी शर्म आने लगे और और वह अपने अधीनस्थ न्यायालयों में भी कंप्यूटर स्थापित करे और इन में भी काम की गति और गुणवत्ता में कुछ सुधार हो सके।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

दिन भर व्यस्त रहा, लगता है कुछ दिन ऐसे ही चलेगा

ज हड़ताल समाप्ति के दूसरे दिन मैं अदालत सही समय पर तो नहीं, लेकिन साढ़े ग्यारह बजे पहुँच गया था। कार को पार्क करने के लिए स्थान भी मिल गया। लेकिन अदालत में निराशा ही हाथ लगी। एक अदालत में एक ही प्रकृति के ग्यारह मुकदमे लंबित थे। अस्थाई निषेधाक्षा के लिए बहस होनी थी। लेकिन अदालत जाने पर पता लगा कि अदालतों में मुकदमों की संख्या का समानीकरण करने के लिए बहुत से स्थानांतरित किए गए हैं उन में वे सभी शामिल हैं। इन ग्यारह मुकदमों में से सात एक अदालत में और चार दूसरी अदालत में स्थानांतरित कर दिए गए हैं। नई अदालत में जा कर उन मुकदमों को संभाला। इस से एक दिक्कत पैदा हो गई कि अब या तो सारे ग्यारह मुकदमों को एक ही अदालत में स्थानांतरित कराने के लिए आवेदन प्रस्तुत करना होगा। जिस में दो-चार माह वैसे ही निकल जाएंगे, या फिर दोनों अदालतों में मुकदमों अलग अलग सुनवाई होगी। इस से मुकदमों में भिन्न भिन्न तरह के निर्णय होने की संभावना हो जाएगी।। कुल मिला कर मुकदमों के निर्णय में देरी होना स्वाभाविक है।
श्रम न्यायालय का वही हाल रहा वहाँ लंबित तीन मुकदमों में तारीखें बदल गईँ। दो मुकदमे 1983 व 1984 से लंबित हैं। उन में तीन व्यक्तियों की सेवा समाप्ति का विवाद है। एक का पहले ही देहांत हो चुका है, शेष दो की सेवा निवृत्ति की तिथियां निकल चुकी हैं। प्रबंधन पक्ष के वकील के उपलब्ध न होने के कारण आज भी उन में बहस नहीं हो सकी। तीसरे मुकदमे में प्रबंधन पक्ष के वकील के पास उस की पत्रावली उपलब्ध नहीं होने से बहस नहीं हो सकी। श्रम न्यायालय ने एक सकारात्मक काम यह किया कि मुझे पिछले दस वर्षों में अदालत में आने वाले और निर्णीत होने वाले मुकदमों की संख्या का विवरण उपलब्ध करवा दिया। इस से सरकार के समक्ष यह मांग रखने में आसानी होगी कि कोटा में एक और अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। कल मिले कुछ ट्रेड यूनियन पदाधिकारी इस मामले को राज्य सरकार के समक्ष उठाने के लिए तैयार हो गए हैं। इस विषय पर आज अभिभाषक परिषद के अध्यक्ष से भी बात की जानी थी। पर वे उन की 103 वर्षीय माताजी का देहांत हो जाने के कारण अदालत नहीं आए थे। अब शायद पूरे बारह दिनों तक वे नहीं आ पाएंगे। कल उन के यहाँ शोक व्यक्त करने जाना होगा। संभव हुआ तो तभी उन से यह बात भी कर ली जाएगी।
अपने दफ्तर में व्यस्त मैं
दालत से घर लौटा तो पाँच बज चुके थे। घर की शाम की कॉफी का आनंद कुछ और ही होता है। उस के साथ अक्सर पत्नी से यह विचार विमर्श होता है कि शाम को भोजन में क्या होगा। हालाँकि हमेशा नतीजा यही होता है कि बनता वही है जो श्रीमती जी चाहती हैं। वे जो चाहती हैं वह सब्जियों की उपलब्धता पर अधिक निर्भर करता है। अक्सर मैं इस विचार-विमर्श से बचना चाहता हूँ। लेकिन बचने का कोई उपाय नहीं है।
शाम सात बजे से दफ्तर शुरू हुआ तो ठीक बारह बजे अपने मुवक्किलों से मुक्ति पाई है। फिर कल की पत्रावलियाँ देखने में एक बज गया। तब यह रोजनामचा लिखने बैठा हूँ। आज ब्लॉग पर कुछ खास नहीं लिख पाया। शाम को मिले समय में मुश्किल से अपने एक साथी का मुस्लिम विवाह पर नजरिया जो उन्होंने लिख भेजा था तीसरा खंबा पर अपलोड कर पाया हूँ। आज बहुत से ब्लाग जो पढ़ने योग्य थे वे भी पढ़ने से छूट गए। चार माह से हड़ताल कर बैठने के बाद अदालतों में काम आरंभ होने का नतीजा है यह। लगता है कुछ दिन और ऐसा ही सिलसिला बना रहेगा।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

ह़ड़ताल समाप्ति के बाद का पहला दिन

रात को सोचा था  'अब हड़ताल खत्म हो गई है, कल बिलकुल समय पर अदालत के लिए निकलना होगा'। पत्नी शोभा ने पूछा था -कल कितने बजे अदालत के लिए निकलना है? तो मैं ने बताया था -यही कोई साढ़े दस बजे। शोभा ने चेताया दस बजे की सोचोगे तब साढ़े दस घर से निकलोगे।
सुबह पाँच बजे नींद खुली। शोभा सो रही थी। मैं लघुशंका से निवृत्त हुआ और पानी पी कर वापस लौटा तो ठंड इतनी थी कि फिर से रजाई पकड़ ली। जल्दी ही निद्रा ने फिर पकड़ लिया। इस बार शोभा ने जगाया -चाय बना ली जाए। मैं  ने रजाई में से ही कहा -हाँ, बिलकुल। कॉफी की प्याली आ जाने पर ही रजाई से निकला पानी पीकर वापस रजाई में, वहीं बैठ बेड-कॉफी पी गई।
शौचादि से निवृत्त हो नैट टटोला तो पता लगा रात को सुबह साढ़े पाँच के लिए शिड्यूल की हुई पोस्ट ड्राफ्ट ब्लागर ने ड्राफ्ट में बदल दी है औऱ प्रकाशित होने से रह गई है। उसे मैनुअली प्रकाशित किया। तभी शोभा ने आ कर पूछा कपड़े धोने हों तो बता दो, कल नहीं धुलेंगे। मैं ने कहा -खुद ही देख लो। मैं जानता था कि कपड़े अधिक से अधिक एक जोड़ा ही बिना धुले होंगे। मैं ने सोचा था कि नौ बजे बाथरूम में घुस लूंगा। तब तक अदालत का बस्ता जाँच लिया जाए कि फाइलें वगैरा सामान पूरा तो है न। यह काम निपटता इतने बिजली चली गई। अंदेशा इस बात का था कि अघोषित बिजली कटौती हो सकती है इस लिए पूछताछ पर टेलीफोन कर पूछा तो जानकारी दी गई कि किसी फॉल्ट को ठीक किया जा रहा है, कुछ देर में आ जाएगी। वाकई दस मिनट में बिजली लौट आई। लेकिन तब तक बाथरूम कब्जाया जा चुका था। मुझे वह साढ़े दस बजे नसीब हुआ। मैं तैयार हो कर निकला तब सुबह के भोजन में कुछ ही देरी थी। मैं ने यह समय कार की धूल झाड़ने और जूते तैयार करने में लगा दिया। मैं अदालत पहुँचा तो बारह बजने में कुछ ही समय शेष था। पार्किंग पूरी भर चुकी थी। आखिर पूरी अदालत का चक्कर लगाने के बाद स्थान दिखाई दिया, वहीं कार टिका कर अपनी बैठक पर पहुँचा।
 मैं वाकई बहुत विलंब से था।


अदालत में लौटती रौनक

ज लगभग सभी वकील मेरे पहले ही आ चुके थे। एक अभियुक्त नहीं आ सकता था उस की हाजरी माफी की दरख्वास्त पर दस्तखत कर एक कनिष्ट को अदालत में भेजा और मैं एक आए हुए मुवक्किल के साथ श्रम न्यायालय चला गया। कुल मिला कर आज के साथ मुकदमों में से छह में एक बजे तक पेशी बदल चुकी थी। एक अदालत के जज ने बहस करने को कहा - मैं तैयार था लेकिन? लेकिन एक दूसरे वकील साहब तैयार न थे, वे पहली बार अदालत में उपस्थति दे रहे थे। आखिर उस में भी पेशी बदल गई। अदालत का काम समाप्त हो चुका था। फिर बैठक पर कुछ वकील इकट्ठे हो गए। कहने लगे काम को रफ्तार पकड़ने में समय तो लगेगा। शायद सोमवार से मुकाम पर आ जाए। ठीक वैसे ही जैसे किसी दुर्घटना के बाद रुकी हुई गाड़ियाँ समय पर चलने में तीन-चार दिन लगा देतीं हैं। मध्यान्ह की चाय हुई, फिर मित्रों के बीच कुछ कानूनी सवालों पर विचार विमर्श चलता रहा। फिर एक मित्र के साथ कॉफी पी गई। तभी मुझे ध्यान आया कि मोबाइल बिल आज जमा न हुआ तो आउटगोइंग बार हो सकती हैं। एक सप्ताह बाहर रहने से वह जमा होने से छूट गया था। मैं तुरंत अदालत से निकल लिया और बिल जमा कराता हुआ घर पहुँचा।
ह बुधवार का दिन था और शोभा के व्रत था। वह आम तौर पर रात आठ बजे व्रत खोलती है। शाम की चाय के बाद कहने लगी -भोजन कितने बजे होगा। मैं ने कहा -जब तैयार हो जाए।  -मुझे भूख लगने लगी है। -तो बना लो। वह रसोई की ओर चल दी। इतने में उस के लिए फोन था। एक मित्र पत्नी का। खड़े गणेश चलने का न्योता था। शोभा रसोई छोड़ तुरंत चलने को तैयार होने लगी। कुछ ही देर में वे लोग आ गए। हम भी उन के साथ खड़े गणेश पहुँच गए।  कार पार्क कर हम मंदिर तक पैदल गए।  मित्र की पत्नी व बेटी  और शोभा  पीछे चल रही थी। पत्नी अपना ज्ञान बांटने में लगी थी -गुरूवार को केला भोग नहीं लगाया जाता।  मैं ने सवाल रखा  -गुरूवार को पूर्णिमा हो और सत्यनारायण का व्रत रखे तो क्या केले का भोग न लगेगा?  प्रत्येक  देसी कर्मकांडी की तरह पत्नी के पास उस का भी जवाब था। कहने लगी -वह तो गुरुवार का व्रत करने वालों और केले के पेड़ की पूजा करने वालों के लिए है, सब के लिए थोड़े ही है। मैं सोच रहा था कि स्त्रियाँ किस तरह समाज के टोटेम युग की स्मृतियों और रिवाजों को अब तक बचाए हुए हैं। वर्ना इतिहासकारों और दार्शिनकों के लिए सबूत ही नहीं बचते। गणेश तो बहुत बाद की पैदाइश हैं। आम तौर पर बुधवार को लंबी कतार होती है वहाँ। दो-दो घंटे लग जाते हैं दर्शन में। पर आज कतार बहुत छोटी थी। मैं कतार में लग गया। हम कोई आध घंटे में वहाँ से निपट कर वापस हो लिए। मैं ने रास्ते में पूछा -तुम्हें तो भूख लगी थी न? कहने लगी - वह तो अब भी लगी है पर यहाँ आने को मना कैसे करती।


खड़े गणेश 

भोजन तैयार होने में घंटा भर लगा होगा। पहले मैं बैठ गया और जब तक वह रसोई से निपट कर लौटती तब तक दफ्तर में लोग आने लगे थे। मुझे भी कुछ आश्चर्य हुआ कि जिस दफ्तर में तीन माह की शाम अक्सर मैं अकेला होता था उस में अदालत खुलते ही रौनक होने लगी। बिलकुल आश्चर्यजनक रूप से मैं दफ्तर से साढ़े ग्यारह पर छूटा हूँ। इस बीच कुछ लोगों से इस बात पर भी चर्चा हुई कि कोटा में पाँच बरस पहले एक अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित हो जाना चाहिए था, जिस के न होने से इस न्यायालय के न्यायार्थियों के लिए न्याय का कोई अर्थ नहीं रह गया है। हर वर्ष जितने मुकदमे निर्णीत हो रहे हैं उस से दुगने आ रहे हैं। इस गति से लंबित मुकदमे तो बीस साल भी नहीं निबट सकते। आखिर कुछ श्रम संगठनों ने इस के लिए सरकार को प्रतिवेदन भेजने का निर्णय किया और न सरकार के न मानने पर आंदोलन आरंभ करने का इरादा भी जाहिर किया। तो यूँ रहा आज का दिन। इतना लिखते लिखते तारीख बदल गई है।

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

शिद्दत से जरूरत है. शुभकामनाओं की ...

दीपावली की शुभकामनाओं से मेल-बॉक्स भरा पड़ा है, मोबाइल में आने वाले संदेशों का  कक्ष कब का भर चुका है, बहुत से संदेश बाहर खड़े प्रतीक्षा कर रहे हैं। कल हर ब्लाग पर दीपावली की शुभकामनाएँ थीं। ब्लाग ही क्यों? शायद कहीं कोई माध्यम ऐसा न था जो इन शुभकामनाओं से भरा न पड़ा हो। दीवाली हो, होली हो, जन्मदिन हो, त्योहार हो या कोई और अवसर शुभकामनाएँ बरसती हैं, और इस कदर बरसती हैं कि शायद लेने वाले में उन्हें झेलने का माद्दा ही न बचा हो।  कभी लगता है हम कितने औपचारिक हो गए हैं? एक शुभकामना संदेश उछाल कर खुश हो लेते हैं और शायद अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं।

हम अगले साल के लिए शुभकामनाएँ दे-ले रहे हैं। हम पिछले सालों को देख चुके हैं। जरा आने वाले साल का अनुमान भी कर लें। यह वर्ष सूखे का वर्ष है। बाजार ने इसे भांप लिया है। आम जरूरत की तमाम चीजें महंगी हैं।  पहले सब्जी वाला आता था और हम बिना भाव तय किए उस से सब्जियाँ तुलवा लेते थे। भाव कभी पूछा नहीं। ली हुई सब्जियों की कीमत अनुमान से अधिक निकलने पर ही सब्जियों का भाव पूछते थे। अब पहले सब्जियों का भाव पूछते हैं। किराने की दुकान पर हर बार भाव पूछ कर सामान तुलवाना पड़ रहा है। कहीं ऐसा न हो सामान की कीमत बजट से बाहर हो जाए। गृहणियों की मुसीबत हो गई है, कैसे रसोई चलाएँ? कहाँ कतरब्योंत करें?

जिन्दगी जीने का खर्च बढ़ गया, दूसरी ओर बहुतों की नौकरियाँ छिन गई हैं। दीवाली के ठीक एक दिन पहले एक दवा कंपनी के एरिया सेल्स मैनेजर मेरे यहाँ आए और उसी दिन मिला सेवा समाप्त होने का आदेश दिखाया। आदेश में कोई कारण नहीं था बल्कि नियुक्ति पत्र की उस शर्त का उल्लेख था जिस में कहा गया था कि एक माह का नोटिस दे कर या एक माह का वेतन दे कर उन्हें सेवा से पृथक किया जा सकता है। उन की सेवाएँ तुरंत समाप्त कर दी गई थीं और एक माह का वेतन भी नहीं दिया गया था। उन की दीवाली?

जो कर रहे थे, उन की नौकरियाँ जा चुकी हैं, जो कर रहे हैं उन पर दबाव है कि वे आठ घंटे की नियत अवधि से कम से कम दो-चार घंटे और काम करें। अनेक कंपनियों ने नौकरी जाने की संभावना के प्रदर्शन तले  अपने कर्मचारियों की पगारें कम कर दी हैं। जो नौजवान नौकरियों की तलाश में हैं वे कहाँ कहाँ नहीं भटक रहे हैं। उन्हें धोखा देने को अनेक प्लेसमेंट ऐजेंसियाँ खरपतवार की तरह उग आई हैं। उद्योगों में लोगों से सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम दर से भी कम पर काम लिए जा रहे हैं।  कामगारों की कोई पहचान नहीं है, उद्योग के किसी रजिस्टर में उन का नाम नहीं है।  उन की हालत पालतू जानवरों से भी बदतर है। पहले बैल हुआ करते थे जो खेती में हल पर और तेली के कोल्हू में जोते जाते थे। उन के चारे-पानी और आराम का ख्याल मालिक किया करता था। आज इन्सानों से काम लेने वाले उन के मालिक उस जिम्मेदारी से भी बरी हैं। कहने को श्रम कानून बनाए गए हैं और श्रम विभाग भी। लेकिन वे किस के लिए काम करते हैं, यह दुनिया जानती है। उन का काम कानूनों को लागू कराना न हो कर केवल अपने आकाओं की जेबें भरना और सरकार में बैठे राजनीतिज्ञों के अगले चुनाव का खर्च निकालना भर रह गया है।  सरकार बदलने के बाद पूरे विभाग के कर्मचारियों के स्थानांतरण हो गए और छह माह बीतते बीतते सब वापस अपने मुकाम पर आ गए। इस बीच किस की जेब में क्या पहुँचा? यह सब जानते हैं।  जितने विधायक और सांसद जनता ने चुन कर भेजे हैं वे सब उन की चाकरी बजा रहे हैं जिन ने उन के लिए चुनाव का खर्च जुटाया था और अगले चुनाव का जुटा रहे हैं। जब चुनाव नजदीक आएंगे तो वे फिर जनता-राग गाने लगेंगे।

सरकार से जनता स्कूल मांगती है तो पैसा नहीं है, अस्पताल मांगती है तो पैसा नहीं है, वह अदालतें मांगती है तो पैसा नहीं है। सुरक्षा के लिए पुलिस-गश्त मांगती है तो पैसा नहीं है।  चलने को सड़क मांगती है तो पैसा नहीं है।  सरकार का पैसा कहाँ गया? और जो सरकारें पुलिस, अदालत और रक्षा जैसे संप्रभु कार्यों के लिए पैसा नहीं जुटा सकती उसे सरकारें बने रहने का अधिकार रह गया है क्या?  मजदूर न्यूनतम वेतन, हाजरी कार्ड और स्वास्थ्य बीमा मांगते हैं तो वे विद्रोही हैं, नक्सल हैं, माओवादी हैं।  यह खेल आज से नहीं बरसों से चल रहा है।  शांति भंग की धाराओं में बंद करने के बाद उस की जमानत लेने से इंन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट जो सरकार की मशीनरी का अभिन्न अंग है जमानती की हैसियत पर उंगली उठा सकता है। उस का प्रमाणपत्र मांगता है जिसे उसी का एक अधीनस्थ अफसर जारी करेगा।  जब तक चाहो इन्हें जेल में रख लो। अब एक बहाना और नक्सलवादियों/माओवादियों ने नौकरशाहों को दे दिया है। किसी भी जनतांत्रिक, कानूनी  और अपने मूल अधिकार के लिए लड़ने वाले को नक्सल और माओवादी बताओ और जब तक चाहो बंद करो।  झंझट खत्म, और साथ में नक्सलवाद/माओवाद पर सफलता के आंकड़े भी तैयार। सत्ता खुद तो इन नक्सल और माओवादियों से नहीं लड़ पाई। अब जिसे अपने अधिकार पाने हों वही इन से भी लड़े।  नक्सलवाद /माओवाद जनविरोधी सरकारों के लिए बचाव और दमन के हथियार हो गए हैं।  विश्वव्यापी आर्थिक मंदी अभी तलवार हाथ में लिए मैदान में नंगा नाच रही है। उस की चपेट में सब से अधिक आया है तो वह आदमी जो मेहनत कर के अपनी रोजी कमा रहा है। चाहे उस ने सफेद कॉलर की कमीज पहनी हो, सूट पहन टाई बांधी हो या केवल एक पंजा लपेटे परिवार के शाम के भोजन के लिए मजदूरी कर रहा हो।

आने वाला साल मेहनत कर रोजी कमाने वालों और उन पर निर्भर प्रोफेशनलों के लिए सब से अधिक गंभीर होगा।  जीवन और जीवन के स्तर को कैसे बचाया जाए? इस के लिए उन्हें निरंतर जद्दोजहद करनी होगी।  न जाने कितने लोग अपने जीवन और जीवन स्तर को खो बैठेंगे? इसी सोच के साथ इस दीवाली पर तीन दिन से घर हूँ, कहीं जाने का मन न हुआ। यहाँ तक कि ब्लागिरी के इस चबूतरे पर भी गिनी चुनी टिप्पणियों के सिवा कुछ भी अंकित नहीं किया। मुझे लगा कि शुभकामनाएँ, जो इतने इफरात से उछाली-लपकी जा रही हैं, उन्हें सहेज कर रखने की जरूरत है।  हिन्दी ब्लागिरी में मौजूद सभी लोगों को इस की जरूरत है।  आनेवाले वक्त  में संबल बनाए रखने के लिए बहुतों को इन शुभकामनाओं की शिद्दत से जरूरत होगी, उन्हें सहेज कर क्यों न  रखा जाए। 

सोमवार, 29 जून 2009

बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम ....... पर "समय" की टिप्पणी

कल के आलेख बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम कौन करेगा?  में मैं ने बताने की कोशिश की थी कि एक ओर लोग सेवाओं के लिए परेशान हैं और दूसरी ओर बेरोजगारों के झुंड हैं तो बच्चे और महिलाएँ भिखारियों में तब्दील हो रहे हैं।  कुल मिला कर बात इतनी थी कि इन सब के बीच की खाई कैसे पूरी होगी? उद्यमी ( ) तो रातों रात कमाने के लालच वाले धंधों की ओर भाग रहे हैं। सरकार की इस ओर नजर है नहीं। होगी भी तो वह पहले आयोग बनाएगी, फिर उस की रिपोर्ट आएगी।  उस के बाद वित्त प्रबंधन और परियोजनाएँ बनेंगी।  फिर अफसर उस में अपने लाभ के छेद तलाशेंगे या बनाएंगे।  गैरसरकारी संस्थाएँ, कल्याणकारी समाज व समाजवाद का निर्माण करने का दंभ भरने वाले राजनैतिक दलों का इस ओर ध्यान नहीं है।

आलेख पर बाल सुब्रह्मण्यम जी ने अपने अनुभव व्यक्त करते हुए एक हल सुझाया - "जब हम दोनों पति-पत्नी नौकरी करते थे, हमें घर का चौका बर्तन करने, खाना पकाने, बच्चों की देखभाल करने आदि के लिए सहायकों की खूब आवश्यकता रहती थी, पर इन सबके लिए कोई स्थायी व्यवस्था हम नहीं करा पाए। सहायक एक दो साल काम करते फिर किसी न किसी कारण से छोड़ देते, या हम ही उन्हें निकाल देते। मेरे अन्य पड़ोसियों और सहकर्मियों की भी यही समस्या थी। बड़े शहरों के लाखों, करोड़ों मध्यम-वर्गीय परिवारों की भी यही समस्या है। यदि कोई उद्यमी घर का काम करनेवाले लोगों की कंपनी बनाए, जैसे विदेशी कंपनियों के काम के लिए यहां कोल सेंटर बने हुए हैं और बीपीओ केंद्र बने हुए हैं, तो लाखों सामान्य शिक्षा प्राप्त भारतीयों को अच्छी नौकरी मिल सकती है, और मध्यम वर्गीय परिवारों को भी राहत मिल सकती है। इतना ही नहीं, घरेलू कामों के लिए गरीब परिवारों के बच्चों का जो शोषण होता है, वह भी रुक जाएगा। घरेलू नौकरों का शोषण भी रुक जाएगा, क्योंकि इनके पीछे एक बड़ी कंपनी होगी।"

लेकिन बड़ी कंपनी क्यों अपनी पूंजी इस छोटे और अधिक जटिल प्रबंधन वाले धन्धे में लगाए?  इतनी पूँजी से वह कोई अधिक मुनाफा कमाने वाला धन्धा क्यों न तलाश करे?  बड़ी कंपनियाँ यही कर रही हैं।  मेरे नगर में ही नहीं सारे बड़े नगरों में सार्वजनिक परिवहन दुर्दशा का शिकार है। वहाँ सार्वजनिक परिवहन में बड़ी कंपनियाँ आ सकती हैं और परिवहन को नियोजित कर प्रदूषण से भी किसी हद तक मुक्ति दिला सकती हैं। लेकिन वे इस क्षेत्र में क्यों अपनी पूँजी लगाएँगी?  इस से भी आगे नगरों व नगरों व नगरों के बीच, नगरों व गाँवों के बीच और राज्यों के बीच परिवहन में बड़ी निजि कंपनियाँ नहीं आ रही हैं। क्यों वे उस में पूँजी लगाएँ? उन्हें चाहिए कम से कम मेनपॉवर नियोजन, न्यूनतम प्रबंधन खर्च और अधिक मुनाफे के धन्धे।

ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने कहा कि एम्पलॉएबिलिटी सब की नहीं है।  एक आईआईटीयन बनाने के लिए सरकार कितना खर्च कर रही है?  क्या उस से कम खर्चों में साधारण श्रमिकों की एम्पलॉएबिलिटी बढ़ाने को कोई परियोजनाएँ नहीं चलाई जा सकती? पर क्यों चलाएँ?  तब तो उन्हें काम देने की भी परियोजना साथ बनानी पड़ेगी।  फिर इस से बड़े उद्योगों को सस्ते श्रमिक कैसे मिलेंगे?  वे तो तभी तक मिल सकते हैं जब बेरोजगारों की फौज नौकरी पाने के लिए आपस में ही मार-काट मचा रही हो।  इस प्रश्न पर कल के आलेख पर बहुत देर से आई समय की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। सच तो यह कि आज का यह आलेख उसी टिप्पणी को शेष पाठकों के सामने रखने के लिए लिखा गया।  समय की टिप्पणी इस तरह है-

"जब तक समाज के सभी अंगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु श्रमशक्ति का समुचित नियोजन समाज का साझा उद्देश्य नहीं बनता तब तक यही नियति है।

अधिकतर श्रमशक्ति यूं ही फुटकर रूप से अपनी उपादेयता ढूंढ़ती रहेगी और बदले में न्यूनतम भी नहीं पाने को अभिशप्त रहेगी।  दूसरी ओर मुनाफ़ों के उत्पादनों में उद्यमी उनकी एम्प्लॉयेबिलिटी को तौलकर बारगेनिंग के तहत विशेष उपयोगी श्रमशक्ति का व्यक्तिगत हितार्थ सदुपयोग करते रहेंगे।

बहुसंख्या के लिए जरूरी उत्पादन, और मूलभूत सेवाक्षेत्र राम-भरोसे और विशिष्टों हेतु विलासिता के उद्यम, मुनाफ़ा हेतु पूर्ण नियोजित।

अधिकतर पूंजी इन्हीं में, फिर बढता उत्पादन, फिर उपभोक्ताओं की दुनिया भर में तलाश, फिर बाज़ार के लिए उपनिवेशीकरण, फिर युद्ध, फिर भी अतिउत्पादन, फिर मंदी, फिर पूंजी और श्रमशक्ति की छीजत, बेकारी...........उफ़ !

और टेलर (दर्जी) बारह घंटे के बाद भी और श्रम करके ही अपनी आवश्यकताएं पूरी कर पाएगा। लाखों सामान्य शिक्षा प्राप्त श्रमशक्ति के नियोजन की, मध्यम-वर्गीय परिवारों के घरेलू कार्यों के लिए कितनी संभावनाएं हैं। सभी नियमित कार्यों के लिए भी अब तो निम्नतम मजदूरी पर दैनिक वेतन भोगी सप्लाई हो ही रही है, जिनमें आई टी आई, डिप्लोमा भी हैं इंजीनियर भी। नौकरी के लिए ज्यादा लोग एम्प्लॉयेबिलिटी रखेंगे, लालायित रहेंगे तभी ना सस्ता मिल पाएंगे। अभी साला विकसित देशों से काफ़ी कम देने के बाबजूद लाखों के पैकेज देने पडते हैं, ढेर लगा दो एम्प्लॉयेबिलिटी का, फिर देखों हजारों के लिए भी कैसे नाक रगडते हैं। ...............उफ़ !

मार्केट चलेगा, लॉटरियां होंगी, एक संयोग में करोडपति बनाने के नुस्खें होंगे। बिना कुछ किए-दिए, सब-कुछ पाने के सपने होंगे। पैसा कमाना मूल ध्येय होगा और इसलिए कि श्रम नहीं करना पडे, आराम से ज़िंदगी निकले योगा करते हुए। उंची शिक्षा का ध्येय ताकि खूब पैसा मिले और शारीरिक श्रम के छोटे कार्यों में नहीं खपना पडे। और दूसरों में हम मेहनत कर पैसा कमाने की प्रवृत्ति ढूंढेंगे, अब बेचारी कहां मिलेगी। .................उफ़ !

उफ़!...उफ़!.....उफ़!
और क्या कहा जा सकता है?




("मैं समय हूँ" समय का अपना ब्लाग है )


शनिवार, 27 जून 2009

बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम कौन करेगा?

पिछले आलेख में मैं ने चार-चार बच्चों वाली औरतों और लाल बत्ती पर कपड़ा मारने का नाटक कर के भीख मांगने वाले बच्चों का उल्लेख किया था।  अनेक बार इन से व्यवहार करने पर लगा कि यदि इन्हें प्रेरित किया जाए और इन्हें अवसर मिले तो ये लोग काम पर लग सकते है। यह भी नहीं है कि समाज में इन के लिए काम उपलब्ध न हो।  लेकिन यह तभी हो सकता है जब कोई इस काम उपलब्ध कराने की परियोजना पर काम करे।

वकालत में आने के पहले जब मुझ पर पत्रकारिता के उच्च स्तर में प्रवेश का भूत सवार हुआ तो मुम्बई जाना हुआ था। वहाँ मैं जिन मित्र के घर रुका वे प्रतिदिन कोई 9 बजे अंधेरी के घर से अपने एयरकंडीशन मार्केट ताड़देव स्थित अपने कार्यालय निकलते थे और कोई दो किलोमीटर की दूरी पर एक पार्किंग स्थान पर रुकते थे। वहाँ एक पान की थड़ी से अपने लिए दिन भर के लिए पान लिया करते थे। जब तक उन का पान बनता तब तक एक लड़का आ कर उन की कार को पहले गीले और फिर सूखे कपड़े से पोंछ देता था। उस के लिए 1978 में एक या दो रुपया प्रतिदिन उस लड़के को मिल जाता था।  इसी तरह अभी फरवरी में जब मुझे फरीदाबाद में पाँच-छह दिन रुकना पड़ा था तो वहाँ सुबह सुबह कोई आता था और घरों के बाहर खड़े वाहनों को इसी तरीके से नित्य साफ कर जाता था।  प्रत्येक वाहन स्वामी से उसे दो सौ रुपये प्राप्त होते थे।  यदि यह व्यक्ति नित्य बीस वाहन भी साफ करता हो तो उसे चार हजार रुपए प्रतिमाह मिल जाते हैं जो राजस्थान में लागू न्यूनतम वेतन से तकरीबन दुगना है।

बाएँ जो चित्र है वह बाबूलाल की पान की दुकान का है जो मेरे अदालत के रास्ते में पड़ती है।  बाबूलाल इसे सुबह पौने नौ बजे आरंभ करते हैं। दिन में एक बजे इसे अपने छोटे भाई को संभला कर चले जाते हैं। शाम को सात बजे आ कर फिर से दुकान संभाल लेते हैं।  दुकान इतनी आमदनी दे देती है कि दो परिवारों का सामान्य खर्च निकाल लेती है। लेकिन बाबूलाल के दो बेटियाँ हैं, जिन की उन्हें शादी करनी है एक बेटा है जो अजमेर में इंजिनियरिंग पढ़ रहा है।  उस ने अपनी सारी बचत इन्हें पढ़ाने में लगा दी है।  नतीजा भी है कि बेटियाँ नौकरी कर रही हैं।  लेकिन शादी बाबूलाल की जिम्मेदारी है और उस के लिए उस के पास धन नहीं है। उसे कर्जा ही लेना पड़ेगा।  मैं ने बाबूलाल से अनेक बार कहा कि उस की दुकान पर कार वाले ग्राहक कम से कम दिन में बीस-तीस तो आते ही होंगे। यदि उन्हें वह अपना वाहन साफ कराने के लिए तैयार कर ले और एक लड़का इस काम के लिए रख ले तो पाँच छह हजार की कमाई हो सकती है।  लड़का आराम से 25-26 सौ रुपए में रखा जा सकता है जो बाबूलाल के उद्यम का छोटा-मोटा काम भी कर सकता है।  लेकिन बाबूलाल को यह काम करने के लिए मैं छह माह में तैयार नहीं कर सका हूँ।


मुझे ज्ञानदत्त जी का उद्यम और श्रम आलेख स्मरण होता है जिस में उन्हों ने कहा था कि उद्यमी की आवश्यकता है।  उन का कथन सही था।  श्रम तो इस देश में बिखरा पड़ा है उसे नियोजित करने की आवश्यकता है।  इस से रोजगार भी बढ़ेगा और मजदूरी मिलने से बाजार का भी विस्तार होगा।  लेकिन इस काम को कौन करे।  जो भी व्यक्ति उद्यम करना चाहता है वह अधिक लाभ उठाना चाहता है और इस तरह के मामूली कामों की ओर उस का ध्यान नहीं है।  सरकारों पर  देश  में रोजगार बढ़ाने का दायित्व है वह पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर है जो कोई भी परियोजना आरंभ होते ही पहले उस में अपने लिए काला धन बनाने की जुगत तलाश करने लगते हैं।  यह काम सामाजिक संस्थाएँ कर सकती हैं।  लेकिन शायद इन कामों से नाम  श्रेय नहीं मिलता। संस्था के पदाधिकारियों को यह और सुनने को मिलता है कि इस धंधे में उस ने अपना कितना रुपया बनाया। इसी कारण वे भी इस ओर प्रेरित नहीं होते।  न जाने क्यों समाजवाद लाने को उद्यत संस्थाएँ और राजनैतिक दल भी इसे नहीं अपनाते।  जब कि इस तरह वे अपनी संस्थाओं और राजनैतिक दलों के लिए अच्छे पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी कर सकते हैं।

बुधवार, 10 जून 2009

उद्यम भी श्रम ही है

उद्यमैनेव सिध्यन्ति कार्याणि, न मनोरथै।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य: प्रविशन्ति मुखे मृगा:॥   

हिन्दी के सक्रियतम ब्लागर (चिट्ठा जगत रेंक) श्री ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने उक्त श्लोक अपनी आज की पोस्ट उद्यम और श्रम में उदृत किया है।  इस श्लोक का अर्थ है कि कार्य  मात्र  मनोरथ से नहीं अपितु उद्यम से सिद्ध होते हैं। सोते हुए सिंह के मुख में मृग प्रवेश नहीं करता।  सिंह को अपने लिए आहार जुटाने के लिए किसी पशु को आखेट का उद्यम करना होता है।  क्षुधा होने पर सिंह का शिकार का मनोरथ बनता है। तत्पश्चात उसे पहले शिकार तलाशना होता है। फिर उचित अवसर  देख उस का शिकार करना पड़ता है। बहुधा उसे शिकार का पीछा कर के उसे दबोचना पड़ता है, मारना पड़ता है और फिर उसे खाना पड़ता है।
सिंह की शारीरिक आवश्यकता से मनोरथ उत्पन्न होता है, लेकिन इस मनोरथ की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के श्रम करने की जो श्रंखला पूरी करनी होती है उसे ही उद्यम कहा गया है।   हम पाते हैं कि श्रम उद्यम का अनिवार्य घटक है।  उस की दो श्रेणियाँ हैं।  पहली शारीरिक और दूसरी मानसिक।  सिंह की शारीरिक अवस्था उस में मनोरथ उत्पन्न करती है, अर्थात शिकार का विचार सिंह की भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न होता है। फिर भौतिक परिस्थितियों में किए गए अनुभव के आधार पर मानसिक श्रम और अपने भौतिक बल के आधार पर शारीरिक श्रम करना पड़ता है।
उक्त उद्धरण संस्कृत भाषा के साहित्य से लिया गया है।  वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी शब्दकोष में उद्यम और श्रम से संबंधित शब्दों के अर्थ निम्न प्रकार बताए गए हैं-
उद्यमः  [उद्+यम्+घञ्] = 1.उठाना, उन्नयन 2. सतत् प्रयत्न, चेष्टा, परिश्रम, धैर्य।
उद्यमिन्  [उद्+यम्+णिनि] = परिश्रमी, सतत प्रयत्नशील।
उद्योगः  [उद्+युज्+घञ्] प्रयत्न, = चेष्टा, काम धंधा।
उद्योगिन् [उद्+युज्+घिणुन्] प्रयत्न, = चुस्त, उद्यमी, उद्योगशील।
श्रम् = 1.चेष्ठा करना, उद्योग करना, मेहनत करना, परिश्रम करना,  2.तपश्चर्या करना। 3. श्रांत होना, थकना, परिश्रान्त होना।
श्रमः [श्रम् + घञ्] 1.मेहनत, परिश्रम, चेष्टा, 2.थकावट, थकान, परिश्रांति 3. कष्ट, दुःख, 4. तपस्या, साधना 5. व्यायाम, विशेषतः सैनिक व्यायाम,  6. घोर अध्ययन। 
उक्त सभी शब्दों के अर्थों के अध्ययन से स्पष्ट है कि श्रम उद्यम का अविभाज्य अंग है। उस की उपेक्षा करने से उद्यम संभव नहीं है। मनोरथ की पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के संयोग को ही उद्यम कहा गया है।
ज्ञान जी ने उक्त आलेख में जिस तरह से श्रम को पूंजी के साथ वर्णित किया है,  उस का प्रभाव यह है कि श्रम तुच्छ है और श्रमिक को अपने हक की मांग नहीं करनी चाहिए, उसे उचित हक दिलाने वाले कानून नहीं होने चाहिए और उसे अपने साथ होने  वाले अन्याय के प्रति संगठित नहीं होना चाहिए। इस  का यह भी प्रभाव है कि आलेख को पढ़ने वाला व्यक्ति श्रम से कतराने लगे।  श्रम को उचित सम्मान नहीं देने और उसे एक निकृष्ठ मूल्य के रूप में स्थापित किए जाने से ही समाज में अकर्मण्यता की उत्पत्ति होती है।   आज यह मूल्य स्थापित हो गया है कि काम को ईमानदारी से करने वाला गधा है, उस पर लादते जाओ और जो काम न करे उस से  बच कर रहो। ज्ञान जी द्वारा प्रस्तुत उदाहरण केवल एक व्यक्ति के श्रम के बारे में है और एक बली और सशक्त पशु से उठाया गया है।  जहाँ केवल प्रकृति जन्य साधनों से जीवन यापन किया जा रहा है।  इस उदाहरण की तुलना में मनु्ष्य समाज अत्यधिक जटिल है।  मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है जो प्रकृति से वस्तुओं को प्राप्त कर उन पर श्रम करते हुए उन का रूप परिवर्तित करता है उस के बाद उन्हें उपभोग में लेता है।
आज कल श्रम को एक श्रेष्ठ मूल्य मानने और उसे स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने के विचार को लगातार निम्न कोटि का प्रदर्शित करने का फैशन चल निकला है जो लगातार श्रमशील  लोगों में हीन भावना उत्पन्न करता है।  का प्रयास  इस में उन लालझंडा धारी लोगों का भी योगदान है जिन्हों ने पथभ्रष्ट हो कर श्रम के मूल्य को समाज में स्थापित करने के नाम पर इस मूल्य के साथ बेईमानी की है।  इसी मूल्य के नाम पर उन्हों ने श्रम जगत के साथ घोर विश्वासघात किया है।  लेकिन इस विश्वासघात से श्रम के एक श्रेष्ट मूल्य होने में कोई बाधा नहीं पड़ती।  किसी के कह देने से हीरा कोयला नहीं हो जाता, आग को शीतल कह देने से उस की जलाने की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता। 
ज्ञान जी ने कोटा और सवाई माधोपुर के जो उदाहरण दिए हैं वे सही नहीं हैं।  संभवतः उन की जानकारी  इस मामले में वही रही जो उन्हें किसी से सुनने को मिली या जो माध्यमों द्वारा प्रचारित की गई।  इन दोनों  मामलों  के बारे में मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं और जो तथ्य हैं वे खुद उन उद्योगों के मालिकों द्वारा अपनी बैलेंसशीटस् से उद्भूत हैं।  इन मामलों के निपटारे में अदालतों में देरी भी प्रबंधकों द्वारा की गई है। जिस से जितना माल खिसकाया जा सके खिसका लिया जाए। फिर कंपनी बंद, श्रमिक किस से अपनी मजदूरी और लाभ प्राप्त करेंगे।  इन मामलों को अपने ब्लाग के माध्यम से उजागर करने की मेरी इच्छा रही है।  लेकिन समय का अभाव इस में बाधक रहा है। बहुत से दस्तावेज अवश्य मेरे कम्प्यूटर के हार्ड ड्राइव में अंकित हैं जिन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है। कभी इस का अवसर हुआ तो अवश्य ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि कभी भी कोई उद्योग किसी यूनियन की हड़ताल के कारण बंद नहीं होता।  लेकिन  उसे प्रत्यक्ष रुप में कारण प्रचारित करने में बहुत धन खर्च किया जाता है। बहुधा वास्तविक कारण कम लाभ के उद्योग से पूंजी निकाल कर अधिक लाभ के उद्योगों में निवेश करना होता है।  सभी उद्योग पुराने होने के कारण जीर्ण हो कर बंद होते हैं, पर अधिकांश पहले कारण से जीर्णावस्था प्राप्त होने के पहले ही उद्योगपतियों द्वारा बंद कर दिए जाते हैं। जब उद्योग को बंद करना होता है तो सब से पहले उद्योगपति विभिन्न  प्रशासनिक खर्चे बता जितनी पूंजी को काला कर अपनी जेब के हवाले कर सकते हैं कर लेते हैं।  जिस से वह उद्योग घाटा दिखाने लगता है।  फिर बैंकों से लिए गए उधार में कटौती चाहते हैं।  पुनर्चालन (रिवाईवल) के नाम पर उधार में छूट प्राप्त कर लेते हैं।  फिर उद्योग को चलाने का नाटक करते हैं।  इस के लिए वे हमेशा किसी ऐसी कंपनी को चुनते हैं जिसे कबाड़ा बेचने का अनुभव हो।  वह धीरे धीरे अपना काम करता है और उद्योग की अधिकांश संपत्ति को ठिकाने लगा देता है।  कंपनी को न चलने योग्य घोषित कर दिया जाता है।  श्रमिकों के बकाया के चुकारे के लिए कुछ शेष छोड़ा ही नहीं जाता।  उद्योगों की भूमि हमेशा उद्योग की कंपनी के पास लीज पर होती है।  सरकार उसे अधिग्रहीत कर लेती है।  उसी समय नेतागण उसे हड़पने के चक्कर में होते हैं।  उद्योग के लिए आरक्षित भूमि सस्ते दामों पर नेता लोग हथिया लेते हैं और उसे बाद में आवासीय और व्यावसायिक भूमि में परिवर्तित कर करोडों का वारा न्यारा कर लेते हैं।  श्रमिकों को कुछ नहीं मिलता।  उन में से अनेक और उन के परिजन आत्महत्या कर लेने को बाध्य होते हैं।  शेष अपनी लड़ाई लड़ने में अक्षम हो कर नए कामों पर चले जाते हैं।  कुल मिला कर काला धन बनाने वाला उद्यमी सरकार, सार्वजनिक बैंकों की पूंजी और श्रमिकों सब को धता बता कर अपनी पूँजी आकार बढा़ता है। यदि यही उद्यम है तो इसे दुनिया से तुरंत मिट जाना चाहिए। 
यह सही है कि हमारा कानून दिखाने का अधिक और प्रायोगिक कम है। इसे वास्तविक परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।  न्याय व्यवस्था को चाक-चौबंद और तीव्र गति से निर्णय करने वाली होना चाहिए।  लेकिन उस के लिए कितने लोग संघर्ष करते दिखाई देते हैं? श्रम कानून संशोधित किए जाने चाहिए और उन की पालना भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।  बीस वर्ष पहले श्रम कानून श्रमिकों के पक्ष में दिखाई देते थे।  उन्हें बदलने के लिए 1987 में एक बिल भी लाया गया था। जिसे स्वयं उद्योगपतियों की पहल पर डिब्बे में बंद कर दिया गया। क्यों कि उस बिल की अपेक्षा श्रम कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी को पक्षाघात की अवस्था में पहुँचाना उन्हें अधिक उचित लगता था।  आज श्रम कानूनों की पालना नहीं हो रही है।  न्यायपालिका की सोच उसी तरह बदल दी गई है।  बिना एक भी कानून के बदले समान परिस्थितियों में जजों के निर्णय  श्रमिकों के पक्ष में होने के स्थान पर मालिकों के पक्ष में होने लगे हैं।  जजों की सोच को कंपनियों ने रिटायरमेंट के बाद काम देने का प्रलोभन दे दे कर बदल दिया है।

यह भी सही है कि उद्यम में पूंजी, श्रम और दिमाग सब लगते हैं।  दिमाग का काम भी श्रम ही है  और पूंजी भी संचित श्रम ही है। यदि उद्यमी को श्रम से प्रथक मानें तो भी प्रत्येक उद्यमी के साथ दसियों/ सैंकड़ों श्रमिक भी चाहिए। 
  आधुनिक श्रमजीवी (एक पूर्णकालिक सोफ्टवेयर इंजिनियर)
आमिर कसाब और अफजल गुरू वाला मामला भी न्याय प्रणाली के पक्षाघात का है।  उसे पक्षाघात से निकाला जाना जरूरी है।  यह तो कैसे हो सकेगा कि आप कुछ मामलों में चुन कर शीघ्र न्याय करें और शेष को  बरसों में निपटने के लिए छोड़ दें।  आमिर कसाब और अफजल गुरू को शीघ्र सजा दे कर भारतीय जनता के घावों को ठंडक अवश्य पहुँचाई जा सकती है,  लेकिन जनता के घावों को तो समूची न्याय प्रणाली को द्रुत और भ्रष्टाचारहीन बना कर ही किया जा सकता है।  जिस के लिए देश में सतत आंदोलन की आवश्यकता है।  अभी आमिर कसाब और अफजल गुरू के मामलों की रोशनी में दृढ़ इच्छा शक्ति के राजनैतिक दल या सामाजिक संस्थाएँ यह आंदोलन खड़ा कर सकती थीं।  लेकिन न्याय होने में किस की रुचि है?