@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: राजस्थान
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शनिवार, 15 नवंबर 2008

शादी के पहले की रात

रोका या टीका, सगाई, लग्न लिखना, भेजना, लग्न झिलाना, विनायक स्थापना, खान से मिट्टी लाना, तेल बिठाना, बासन, मण्डप, निकासी, अगवानी, बरात, द्वाराचार, तोरण, वरमाला, पाणिग्रहण, सप्तपदी, पलकाचार, विदाई, गृह-प्रवेश, मुहँ-दिखाई, जगराता आदि विवाह के मुख्य अंग हैं। इन सभी का अभी तक हाड़ौती में व्यवहार है। इन में बासन के लिए ताऊ रामपुरिया जी और रौशन जी ने सही बताया। वर के यहाँ बारात जाने के और वधू के यहाँ पाणिग्रहण के एक दिन पहले महिलाएं बैण्ड बाजे के साथ सज-धज कर कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के मटका, उस पर एक घड़ा और उस पर ढक्कन सिर पर रख कर लाती हैं। इस तरह के कम से कम पाँच सैट जरूर लाए जाते हैं। जब महिलाएं बासन ले कर घर पहुंचती हैं तो द्वार पर वर या वधू के परिवार के जामाता उन के सिर पर से बासन उतार कर गणपति के कमरे में ला कर रखते हैं और इस के लिए बाकायदे जमाताओं को नेग (कुछ रुपए) दिए जाते हैं।

महिलाएँ बासन लेने चल दीं उस का ज्ञान मुझे सुड़ोकू भरते हुए दूर जाती बैंड की आवाजों से हुई। कोई पौन घंटे बाद वे बासन ले कर लौटी। सुडोकू हल करने में कुछ ही स्थान रिक्त रह गए थे कि साले साहब ने फिर से हाँक लगा दी। हम अखबार वहीं लपेट कर चल दिए। हमें बाकायदा तिलक निकाल कर 101 रुपए और नारियल दिया गया। हम ने अकेले सारे बासन उतारे, और कोई जामाता तब तक विवाह में पहुँचा ही नहीं था। महिलाएँ होटल के अंदर प्रवेश कर गईं थीं, हम बाहर निकल गए। हमें आजादी मिल गई थी। बेतरतीबी से जेब में रखे गए 101 रुपए पर्स के हवाले कर रहे थे कि साले साहब सामने पड़ गए, नोट हाथ में ले कर मजा लिया -मेहन्ताना कम तो नहीं मिला? मैं ने जवाब दिया -वही हिसाब लगा रहा हूँ। छह बासन उतारे हैं एक का बीस रुपया भी नहीं पड़ा कम तो लग रहा है। वे बोले -ये तो एडवांस है। अभी पूरी शादी बाकी है, कसर पूरी कर देंगे। वे हमें पकड़ कर फिर से लंगर में कॉफी पिलाने ले गए।

हम ने अपने एक पुराने क्लर्क को फोन किया था तो कॉफी पीते पीते वह मिलने आ गया। आज कल वह यहीं झालावाड़ में स्वतंत्र रूप से काम कर रहा है। कहने लगा -उस का काम अच्छा चल रहा है। कुछ पैसा बचा लिया है, मकान के लिए प्लाट देख रहा है। मेरे साथ सीखी अनेक तरकीबें खूब काम आती हैं। अनेक लोगों के पारिवारिक विवाद उस ने उन्हीं तरकीबों से सुलझा दिए हैं। तीन-चार जोड़ियों को आपस में मिला चुका है, घर बस गए हैं पति-पत्नी सुख से रह रहे हैं। यहाँ के वकील पूछते हैं, ये तरकीबें कहाँ से सीखीं? तो मेरा नाम बताता है। कहने लगा -भाई साहब, लोगों के घर बस जाते हैं तो बहुत दुआ देते हैं। वह गया तब महिलाएँ प्रथम तल पर ढोल और बैंड के साथ नृत्य कर रही थीं। बासन लाने के बाद महिलाओं का नृत्य करना परंपरा है। हम भी उस का आनंद ले रहे थे। महिलाओं, खास तौर पर लड़कियों और दो चार साल में ब्याही बहुओं ने इस के लिए खास तैयारी की थी। नाच तब तक चलता रहा जब तक नीचे से भोजन का बुलावा नहीं आ गया। तब तक आठ बज चुके थे। सब ने भोजन किया। वापस लौटे तो मैं ने शहर मिलने जाने को कहा तो हमारी बींदणी बोली हम भी चलते हैं। मैं, पत्नी और दोनों सालियाँ एक संबंधी के घर मिलने चले गए। वहाँ पता चला उन की पत्नी को हाथ में फ्रेक्चर है। लड़की पढ़ रही थी। वे चाय-काफी के लिए मनुहार करते रहे। उन की तकलीफ देख कर हम ने मना किया फिर भी कुछ फल खाने पड़े। रात को बारह बजे वहाँ से लौटे तो होटल में सब मेहमान बातों में लगे थे। हमारे कमरे में महिलाओं के सोने के बाद स्थान नहीं बचा था। मैं हॉल में गया तो वहाँ सभी पुरुष सोये हुए थे, फिर भी स्थान रिक्त था। मैं वहीं एक रजाई ले कर सोने की कोशिश करने लगा। स्थान, बिस्तर और रजाई तीनों ही अपरिचित थे, फिर बीच बीच में कोई आ जाता रोशनी करता किसी से बात करता। पर धीरे-धीरे नींद आ गई। जारी

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र, शादी और सुड़ोकू

कोटा से आलनिया तक सड़क अच्छी थी। लेकिन जैसे ही आलनिया से चले सड़क की दुर्दशा देखने को मिली। मरम्मत की हुई थी। लेकिन वह बिलकुल बेतरतीब तरीके से, केवल काम चलाऊ। कार 40-45 कि.मि.प्रति घं. की गति से चली। कोटा जिले का अंतिम गांव पड़ा सुकेत, और उसके बाद आहू नदी का पुल था। नदी में अभी भरपूर पानी था। नदी के उस ओर झालावाड़ जिला शुरू हो गया।  बस यहीं से लगा कि मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में आ गए हैं। सड़क पर गाड़ी दौड़ने लगी, कोई खड़का तक नहीं। पन्द्रह किलोमीटर कैसे निकले? पता ही नहीं चला। सड़क पर सफेदे के मार्क लगे हुए, सड़क के किनारे पेड़ों पर भी लाल-सफेद निशान बनाए हुए लगा जैसे सिविललाइन्स में आ गए। झालावाड़ में घुसते ही बायीं और एक नयी विशाल इमारत बनी थी, बिलकुल आधुनिक बाहर से पूरी की पूरी लाल पत्थरों से जड़ी। यह था "मिनि सचिवालय"। यहाँ से अब झालावाड़ जिले का प्रशासन चलता है। जिला कलेक्टर और उस के अधीन जिला मुख्यालय के सभी कार्यालय इसी मिनि सचिवालय में हैं। अभी अदालतें पुराने गढ़ में चल रही हैं लेकिन जल्दी ही वे भी इसी इमारत के पास बनी अदालतों की नयी इमारत में आने वाली हैं।

वसुंधरा राजे सिंधिया ने एक पिछड़े जिले को अपने चुनाव क्षेत्र के रूप में चुना था। जहाँ राज परिवार के प्रति विशेष श्रद्धा अभी कायम थी। उस का लाभ उन्हें मिला, इस विधानसभा क्षेत्र में उन्हें चुनौती देने का साहस अभी भी किसी को नहीं। झालावाड़ जिस की किसी रूप में कोई अहमियत नहीं थी, सिवा इस के कि जालिम सिंह झाला ने इसे बसाया और यहीं से राज चलाया। पास ही छह-सात किलोमीटर की दूरी पर पुराना एतिहासिक नगर झालरापाटन स्थित है जो चन्द्रभागा नदी के पूर्वाभिमुख बहने से तीर्थ है। वहीं वल्लभ संप्रदाय का प्रसिद्ध मंदिर है। ऐतिहासिक प्राचीन सूर्य मंदिर स्थित है। चन्द्रभागा के किनारे बना शिव मंदिर और उस में स्थित छह फुट ऊँचा शिवलिंग दर्शनीय है। सारा कारोबार भी इसी नगर में है। संस्कृति और धर्म सब कुछ यहीं। नतीजा यह कि झालावाड़ केवल प्रशासनिक नगर बन कर रह गया। कोई रोजगार नहीं तो आबादी भी सीमित ही रही।

वसुंधरा से रिश्ता जुड़ने के बाद यहाँ सब कुछ हुआ। पूरे नगर की गली-गली में लौह-जाल युक्त कंक्रीट की सड़कें बनीं, मिनि सेक्रेट्रियट बना। मेडीकल कॉलेज खुला और पूरा का पूरा अस्पताल नया बना। पुराना अस्पताल अब धऱाशाई कर दिया गया है, उस का भी पुनर्निर्माण चल रहा है। इस तरह एक अच्छा चिकित्सा केन्द्र यहाँ बन गया और लोग चिकित्सा के लिए यहाँ आने लगे। स्नातकोत्तर महाविद्यालय पहले से ही था, उस का भी विकास हुआ।  इंजिनियरिंग, पोलोटेक्नीक और आईटीआई खुले। बीएड कालेज खुले। बीएसटीसी पहले से ही झालरापाटन में था। लॉ-कॉलेज खुला।  विद्यार्थियों की संख्या यहाँ बढ़ गई,  कर्मचारी यहाँ आए और बाजार भी विकसित होने लगा। खेल के लिए क्रिकेट का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम बना, उद्यान आदि बने। कुल मिला कर झालावाड़ तरक्की करने लगा। अब वह पहले की तरह सुस्त नहीं है, वहाँ गति पैदा हो चुकी है और जीवन बोलने लगा है।

हम होटल पहुंचे तो हमारे साले साहब की टीम वहाँ विराजमान थी, उन्हें आए हुए भी कोई एक घंटा ही हुआ था। वे रहने वाले तो मनोहरथाना के थे, लेकिन दूल्हा वाले झालावाड़ के उन्हें बारात ले कर जाने में असुविधा रही होगी। उन्हों ने हमारे साले साहब को यहीं बुलवा लिया था। वे भी मस्त थे, सारा इंतजाम दूल्हे वाले ही कर रहे थे, उन्हें कुछ नहीं करना पड़ रहा था। दुल्हन वाले सिर्फ मेहमान थे, और हम उन के भी मेहमान। होटल तीन मंजिला थी। भूतल रोज के ग्राहकों के लिए था। प्रथम तल शादी के मेहमानों के लिए आरक्षित और द्वितीय तल सारा मेडीकल कॉलेज/अस्पताल ने बुक करवा रखा था। उस में वे कर्मचारी रहते थे जो अकेले थे और जिन के परिवार वहाँ थे जहाँ से वे स्थानान्तरित हो कर आए थे। हमें भी पहले तल पर एक कमरा दे दिया गया, अ़टैच टायलट युक्त। उसी में हमने अपना सामान डाला। वह छह लोगों के लिए पर्याप्त था।

थोडी देर बाद साले साहब आए, हमें देख कर प्रसन्न हो गए। तुरंत चाय कॉफी की व्यवस्था की जिस का लंगर इसी तल्ले पर चल रहा था। तुरंत कॉफी आ गई। मैं ने सोचा आस पास कुछ टहल कर आऊँ,  दो घंटे कार जो चलाई थी। पर साले साहब ने रोक लिया, -कहीं मत जाना। बैंड वाला आ चुका है महिलाएँ बासन लेने जाएँगी। वापस आएँगी तो कौन उतारेगा? मैंने कहा -यार! हम तो अब सब से सीनियर हैं, हम से जूनियर चार-पाँच तो हो ही गए हैं। वे बोले -वे आएँगे तब ना, सब कल ही आएँगे। तब तक तो सब काम आप को ही करने होंगे। हम रुक गए। होटल का ही जायजा लिया। होटल के बाहर अच्छी खासी पार्किंग की जगह थी। एक अच्छा सा लॉन था जिस में दावत का स्थाई इंतजाम लगा था और होटल के पिछवाड़े एक टीन शेड में बड़ा सा रसोईघर था। एक और शेड था, बड़े हॉल जैसा जिस में शादी के दीगर कार्यक्रम हो सकते थे। हमने दरयाफ्त की तो पता लगा शाम का भोजन वहीं बन रहा है और उस हॉल नुमा शेड में ही खिलवाया जाएगा।

हम लौटे तब तक महिलाएँ बासन लेने जाने की तैयारी कर रही थीं। हमें कम से कम एक घंटा तो वहीं रुकना था, जब तक बासन नहीं लाए जाते। तब तक क्या करें? वहीं होटल के रिसेप्शन पर रुक गए, वहाँ अखबार थे जिन्हें सुबह ही पढ़ा जा चुका था। तब याद आया कि हमेशा समय की कमी से सुड़ोकू छूट जाती है। हमने तुरंत अखबार लपका और सुड़ोकू वाला पन्ना ले कर पेन निकाला और लगाने लगे अपनी गणित।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

युद्ध विराम में दाल-मैथी की रेसिपी

मैं ने अपनी थकान का उल्लेख किया था। लेकिन चर्चा हुआ खाने का। खाने के मामले में जीभ और पेट दोनों में तालमेल का होना जरूरी है वर्ना इन दोनों की घरेलू लड़ाई गज़ब ढाती है। इस युद्ध में थकान और अनिद्रा सम्मिलित हो जाए तो फिर मैदान का क्या कहना? उस में राजस्थान की प्रसिद्ध हल्दीघाटी की तस्वीर दिखाई देने लगती है। फिर लड़ाई अंतिम निर्णय तक जारी रहना जरूरी है। या तो ये जीते या वो, राणा जीते या भीलों के साथ जंगल चले जाएँ और गुरिल्ला युद्ध जारी रखें। हमारा हाल कुछ हल्दीघाटी ही हो रहा है। यह गुरू नानक की दुहाई जो एक युद्ध विराम मिल गया है घावों की दुरूस्ती के लिए। देखते हैं कल के इस युद्ध-विराम का कितना लाभ हमारी ये हल्दी-घाटी उठा पाती है।

मैं सोचता था, दाल-मेथी की रसेदार सब्जी जैसी सादा और स्वादिष्ट सब्जी तो सभी को पता होगी। मगर यहाँ तो उस की भी रेसिपी पूछने वालों की कमी नहीं। दीदी लावण्या ( लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्`), रंजना जी [रंजू भाटिया] और pritima vats ने तो अनभिज्ञता प्रकट की और रेसिपी की मांग कर डाली और ताऊ रामपुरियाविष्णु बैरागी जी ने उस की तारीफ की। ज्ञान जी Gyan Dutt Pandey बोले -हम होते तो खिचड़ी खाते! पर ऐसे में मैं इस मौसम की मैथी-दाल ही पसंद करता। खिचड़ी जरा थोड़ी सर्दी कड़क होने पर अच्छी लगती।

अब हमें कोई चारा नहीं सूझ रहा था कि करें तो क्या करें? कि देवर्षि नारद ने मार्ग सुझाया कि मैं हर मामले में नारायण! नारायण! करते भगवान् विष्णु की शरण लेता हूँ,  तुम भी किसी को तलाशो।  सो हम पहुँचे देवी (शोभा) की शरण। उन से अपनी विपत्ति का हल पूछा? वे किसी तरह बताने को तैयार नहीं। आखिर तीन किस्तों में सुबह-दोपहर-शाम में हम ने उन से दाल-मैथी का राज जाना। आप को बताएँ इस शर्त पर कि अगर बनाएँ तो खाएँ और परिवार को खिलाएँ जरूर और फिर बताएँ कि कैसी लगी?

तो बस आप ले लीजिए 150 ग्राम मूंग की छिलके वाली दाल और सब्जी वाले से खरीदिए एक पाव यानी 250 ग्राम जितनी हो सके उतनी ताजा मैथी की हरी पत्तियाँ तथा एक टुकड़ा अदरक। मैथी में यदि डंठल अधिक हों तो कठोर-कठोर डंठल तोड़ कर निकाल दें और मैथी को चलनी में डाल कर नल चला दें पानी से धुल जाएगी। उस में हाथ न चलाएँ नहीं तो उस का स्वाद कम हो सकता है। अब मैथी को चाकू से काट कर बारीक कर लें।  मसालों में नमक, लाल मिर्च, जीरा और हींग आप की रसोई में जरूर होंगे। इन में से कुछ न हो तो पहले से व्यवस्था कर लें।  प्रेशर-कुकर में दाल के साथ स्वाद के अनुरूप नमक डाल कर अपनी रुचि और कुकर की जरूरत के माफिक न्यूनतम पानी डाल कर पकाएँ। एक सीटी आने पर कुकर को उतार लें, भाप निकाल कर उस का ढक्कन खोल दें। उस में मैथी की पत्तियाँ और एक अदरक के टुकड़े का कद्दकस पर कसा हुआ बुरादा डालें और एक बार उबल जाने दें। बस थोड़ी देर में सब्जी तैयार होने वाली है। इस से आगे दो रास्ते हैं।

यदि आप तेल-घी का तड़का पसंद नहीं करते तो आँच पर से उतार कर उस में स्वाद के अनुसार मिर्च डाल दें और एक चने की दाल के टुकड़ा बराबर सबसे अच्छी वाली हींग को एक चाय चम्मच भर पानी में घोल कर सब्जी में डाल कर चम्मच चला दें। बस सब्जी तैयार है। सर्दी में गरम-गरम परोसें और सादा चपाती या पराठों के साथ खाएँ।

दूसरा अगर तड़का लगाना हो तो खाली भगोनी में एक चम्मच देसी-घी डालें और गरम होने पर जरूरत माफिक जीरा डालें उस के सिकने पर पहले से पीस कर चूर्ण की गई एक चने की दाल के टुकड़ा बराबर सबसे अच्छी वाली हींग डाल दें और दो सैंकड में उस भगोनी में कुकर से दाल-मेथी डाल दें। चम्मच से चला कर उतार लें और वैसे ही सर्दी में गरम-गरम परोसें और सादा चपाती या पराठों के साथ खाएँ।

यह तो हुई दाल-मैथी की रेसिपी। है न बहुत सादा। शोभा ने इसे भी तीन किस्तों में बताया तो मुझे भी लगा कि ये भी कोई रेसिपी है। पर स्वादिष्ट इतनी कि बस पेट की खैर नहीं। फिर हमारे बचपन की तरह ऊँची कोर की थाली के एक ओर किसी चीज की ओट लगा कर नीचे रह गए हिस्से की और रसीली दाल-मैथी परोसी जाए और उसी थाली में रोटी या पराठा रख कर खाया जाए तो मजा कुछ और ही है। साथ में एक नए देसी गुड़ का टुकड़ा हो और मिर्च स्वाद में कम रह जाने में ऊपर से सूखी पूरी लाल मिर्च को हाथ से चूरा कर सब्जी में डाल कर खाएँ तो लगे कि वैकुण्ठ की डिश जीम रहे हैं।

और PD को कह रहा हूँ कि यह भी उन्हें यम्मी पोस्ट ही लगेगी। आप को कैसी लगी? जरूर बताएँ। आगे बताएँगे रहा हुआ मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में हुई शादी का हाल।

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

नवरात्र को आत्मानुशासन का पर्व बनाएँ

छह माह पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ नववर्ष का पहला पखवाड़ा नीम की कोंपलों और काली मिर्च के सेवन और एक समय अन्नाहार से प्रारंभ हुआ था। समाप्त हुआ श्राद्ध के सोलह दिनों से जिसमें पूर्वजों की स्मृति के माध्यम से विप्र, परिजनों और मित्रों के साथ खूब गरिष्ठ पकवान्नों का सेवन हुआ। नतीजा कि तुल आएँ तो तीन से चार किलोग्राम वजन अवश्य ही बढ़ गया होगा। यह पतलून के पेट पर कसाव से ही पता लगता है। अवश्य ही कोलेस्ट्रोल भी वृद्धि को ही प्राप्त हुआ होगा। लेकिन वर्ष के उत्तरार्ध ने जैसे ही दस्तक दी नवरात्र के साथ और साथ ही जता दिया कि जितना बढ़ाया है वापस घटाना होगा वरना यह उत्तरार्ध चैन नहीं लेने देगा। एक समय अन्नाहार आज से फिर प्रारंभ हो गया है।

दोनों नवरात्र मौसम परिवर्तन के साथ आते हैं। उधर दिन रात से बड़े होने लगते हैं और इधर रातें दिन से बड़ी। मौसम में तापमान लघु जीवों के लिए इतना पक्षधर होता है कि उन की संख्या बढ़ने लगती है। मनुष्य को यह मौसम कम रास आता है। पेट के रोग, जीवाणुओं और विषाणुओं से उत्पन्न रोगों की बहुतायत हो जाती है। उस का सब से अच्छा बचाव यह है कि आप आहार की नियमितता बना लें।अन्नाहार एक समय के लिए सीमित कर दें और फलाहार करें। शरीर को विटामिनों की मात्रा प्राकृतिक रूप से मिले। आप किसी धार्मिक कर्मकांड को न मानें तो भी स्वाध्याय अवश्य करें। किसी पुस्तक का ही अध्ययन सिलसिलेवार कर डालें। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने पूजा के लंबे समय में पुस्तकों का अध्ययन करते थे। मैं ने इन दिनों धर्म और दर्शन संबन्धी कुछ पुस्तकें हासिल कर ली हैं, अवश्य ही नवरात्र में पढ़ लूंगा। आज के अवकाश में अपनी दुछत्ती की सफाई भी करवा ली है, जहां से बहुत सारी पत्रिकाओं के पुराने अंक बरामद हुए हैं जिन में बहुत सी काम की जानकारी है। मेरा खुद का इतिहास सामने आ गया है।

नवरात्र के पहले दिन ही राजस्थान को एक बहुत बड़े हादसे को झेलना पड़ा है। दो सौ से कुछ कम लोग जोधपुर में चामुंडा मंदिर हादसे में जान गंवा बैठे हैं, इतने ही घायल हैं। यह हादसा किसी आतंकी के कारण नहीं हमारी अपनी अव्यवस्था, अनुशासन हीनता और अंधविश्वास का परिणाम है। भाई ईश्वर है, तो एक ही ना? फिर देवी माँ भी एक ही होंगी। नगर में देवी माँ के अनेक मंदिर होंगे। फिर सब की दौड़ एक ही मंदिर की ओर क्यों? क्यों मन्दिर ही जाया जाए। वहाँ भीड़ लगाई जाए। घर में भी आप घट स्थापना करते ही हैं। हर श्रद्धालु के घर एक चित्र तो कम से कम देवी माँ का अवश्य ही होगा। वहीं उस के दर्शन कर प्रार्थना, अर्चना की जा सकती है। क्यों देवी मंदिर ही देवी माँ और आप के बीच आवश्यक है?  फिर घर में और घर में नहीं तो पड़ौस में कम से कम एक महिला/बालिका तो होगी ही क्यों न उसे ही देवी का रूप मान लेते हैं। उस से भी देवी माँ रुष्ट नहीं होंगी। शायद प्रसन्न ही होंगी। क्यों हम एक मूर्तिकार या चित्रकार की घड़ी मूर्ति या चित्र पर विधाता की घड़ी मूरत से अधिक तरजीह देते हैं?

क्या हमारी यह अनुशासनहीनता, अन्धविश्वास और सामाजिक अव्यवस्था उस आतंकवाद से अधिक खतरनाक नहीं जो अनायास ही सैंकड़ों जानें ले लेते हैं? हम कुछ तो सामाजिक हों। नवरात्र आत्मानुशासन का पर्व है। उसी पर हम उसे खो बैठते हैं। पुलिस और प्रशासन को दोष देने से कुछ नहीं होगा। क्यों नहीं जो नगर 20-25 हजार श्रद्धालु सूर्योदय के पूर्व 400 फुट ऊंचे मंदिर पर चढ़ाई करने को तैयार कर देता है वह 200-250 स्वयंसेवक इस पर्व पर सेवा के लिए तैयार कर पाता है? और भी बहुत से प्रश्न हैं जो कुलबुला रहे हैं। जरूर आप के पास भी होंगे? क्यों न हम किसी सामाजिक संस्था से जुड़ कर उन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करें?

कल ईद की नमाज भी होने वाली है। हजारों हजार लोग देश भर की ईदगाहों पर नमाज अदा करेंगे। वैसे वे सभी रमजान के पूरे महीने एक अनुशासन पर्व से गुजर कर निकलें हैं। इतना तो अनुशासन होगा कि किसी हादसे का समाचार सुनने को न मिले। 


आज के लिए बस इतना ही। सभी पाठकों को नवरात्र के लिए और आने वाली ईद के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

जलझूलनी एकादशी और बाराँ का डोल ग्यारस मेला

मैंने गणेश चौथ से लेकर अनंत चौदस तक के समय को खेती से जुड़े लोक अनुष्ठानों का समय कहा था। जिस में गणपति पूजा, गौरी स्थापना और विसर्जन हो चुका है। कल राजस्थान में वीर तेजाजी और बाबा रामदेव के मेले हुए। आज डोल ग्यारस shreeji1s(जलझूलनी एकादशी) है। आज मेरे जन्म-नगर बाराँ में जो अब राजस्थान के दक्षिणी पश्चिमी क्षेत्र का मध्यप्रदेश से सटा एक सीमावर्ती जिला मुख्यालय है, एक पखवाड़े का मेला शुरु हो चुका है। यूँ तो इस मेले का अनौपचारिक आरंभ एक दिन पहले तेजादशमी पर ही हो जाता है। दिन भर तेजाजी के मन्दिर पर पूजा के बाद मेले में दसियों जगह गांवों से आए लोग रात भर ढोलक और मंजीरों के साथ खुले हुए छाते उचकाते हुए वीर तेजाजी की लोक गाथा गाते रहते हैं। आज की सुबह होती है मेले के शुभारंभ से। 
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मथुरा में जन्मे कृष्ण, उसी दिन नन्द के घर जन्मी कन्या, जिसे कंस ने मार डाला। कन्या के स्थान पर पर कृष्ण पहुँचे तो नन्द के घर आनंद हो dolmela3s गया। अठारह दिन बाद भाद्रपद शुक्ल एकादशी को माँ यशोदा कृष्ण को लिए पालकी में बैठ जलस्रोत पूजने निकली। इसी की स्मृति में इस दिन पूरे देश में समारोह मनाए जाते हैं। राजस्थान में इस दिन विमानों में ईश-प्रतिमाओं को नदी-तालाबों के किनारे ले जाकर जल पूजा की जाती है।
इस दिन बारां के सभी मंदिरों में विमान सजाए जाते हैं और देवमूर्तियों को इन में पधरा कर उन्हें एक जलूस के रूप में नगर के बाहर एक बड़े तालाब के किनारे ले जाया जाता है। सांझ पड़े dolmela11sवहाँ देवमूर्तियोँ की आरती उतारी जाती है और फिर विमान अपने  अपने मंदिरों को लौट जाते हैं। मेरे लिए इस दिन का बड़ा महत्व है। नगर के सब से बड़े एक दूसरे से लगभग सटे हुए दो मंदिरों में से एक भगवान सत्यनारायण के मंदिर में ही मैं ने होश संभाला, और बीस वर्ष की उम्र तक वही मेरे रहने का स्थान रहा। दादा जी इस मंदिर के पुजारी थे, हम उन के एक मात्र पौत्र। अभी दादा जी के छोटे भाई के पुत्र, मेरे चाचा वहाँ पुजारी हैं।
तेजा दशमी के दिन ही काठ का बना छह गुणा छह फुट का विमान बाहर निकाला जाता, उस की सफाई धुलाई होती और उसे सूखने के लिए छोड़ दिया जाता। यह वर्ष में सिर्फ एक दिन dolmela14s ही काम आता था। दूसरे दिन सुबह दस बजे से इसे सजाने का काम शुरू हो जाता। पहले यह काम पिताजी के जिम्मे था। 14-15 वर्ष का हो जाने पर यह मेरे जिम्मे आ गया, हालांकि मदद  सभी करते थे। विमान के नौ दरवाजों के खंबे सफेद पन्नियाँ चिपका कर सजाए जाते। ऊपर नौ छतरियों पर चमकीले कपड़े की खोलियाँ जो गोटे से सजी होतीं चढ़ाई जातीं। हर छतरी पर ताम्बे के कलश जो सुनहरे रोगन से रंगे होते चढ़ाए जाते। विमान के अंदर चांदनी तानी जाती। विमान के पिछले हिस्से में जो थोड़ा ऊंचा था वहाँ एक सिंहासन सजाया जाता जिस पर भगवान की प्रतिमा को dolmela15s पधराना होता। आगे का हिस्सा पुजारियों के बैठने के लिए होता। विमान के सज जाने के बाद नीचे दो लम्बी बल्लियाँ बांधी जातीं जिन के सिरे विमान के दोनों ओर निकले रहते। हर सिरे पर तीन तीन कंधे लगते विमान उठाने को।
दोपहर बात करीब साढ़े तीन बजे भगवान का विग्रह लाकर विमान में पधराया जाता। आगे के भाग में एक और मेरे दादा जी या पिता जी बैठते, दूसरी ओर मैं बैठता। लोग जय बोलते और विमान को कंधों पर उठा लेते। विमान शोभायात्रा में शामिल हो जाता। सब से पीछे रहता  भगवान श्री जी का विमान और उस dolmela13s से ठीक आगे हमारा भगवान सत्यनारायण का। इस शोभा यात्रा में नगर के कोई साठ से अधिक मंदिरों के विमान होते। तीन-चार विमानों के अलावा सब छोटे होते, जिन में पुजारी के बैठने का स्थान न होता। शोभा यात्रा में आगे घुड़सवार होते, उन के पीछे अखाड़े और फिर पीछे विमान। हर विमान के आगे एक बैंड होता, उन के पीछे भजन गाते लोग या विमान के आगे डांडिया करते हुए कीर्तन गाते लोग। सारे रास्ते लोग फल और प्रसाद भेंट करते जिन्हें हम विमान में एकत्र करते। अधिक हो जाने पर उन्हें कपडे की गाँठ बना कर नीचे चल रहे लोगों को थमा देते।
शाम करीब पौने सात बजे विमान तालाब पर पहुंचता। सब विमान तालाब की पाल पर बिठा दिए जाते। लोग फलों पर टूट dolmela9sपड़ते, और लगते उन्हें फेंकने तालाब में जहाँ पहले ही बहुत लोग  केवल निक्करों में मौजूद होते और फलों को लूट लेते। फिर भगवान की आरती होती। जन्माष्टमी के दिन बनी पंजीरी में से एक घड़ा भर पंजीरी बिना भोग के सहेज कर रखी जाती थी। उसी पंजीरी का यहाँ भोग लगा कर प्रसाद वितरित किया जाता।
फिर होती वापसी। विमान पहले आते समय जो रेंगने की गति से चलता, अब तेजी से दौड़ने की गति से वापस मन्दिर लौटता। बीच में dolmela2sअनेक जगह विमान रोक कर लोग आरती करते और प्रसाद का भोग लगा कर लोगों को बांटते। 
मेला पहले की तरह इस बार भी तालाब के किनारे के मैदान में ही लगा है और पूरे पन्द्रह दिन तक चलेगा। अगर मेले के एक दो दिन पहले बारिश हो कर खेतों में पानी भर जाए तो किसान फुरसत पा जाते हैं और मेला किसानों से भर उठता है।

सोमवार, 11 अगस्त 2008

कोटा के निकट गेपरनाथ महादेव झरने की सीढ़ियाँ गिरने से हादसा तीन की मृत्यु

कोटा से 22 किलोमीटर दूर चम्बल नदी की कराई में स्थित गेपरनाथ महादेव झरने की राह में सीढ़ियाँ गिर जाने से एक व्यक्ति की मौके पर ही मत्यु हो गई, एक को बचा लिया गया और दो के अभी मलबे में दबे होने की आशंका है। सीढ़ियाँ वहाँ आने जाने का एक मात्र रास्ता होने से नीचे झरने, कुंड और मन्दिर की ओर फंसे रह गए 135 लोगों में लगभग 35 बच्चे और 30 महिलाएँ शामिल हैं। रात हो जाने के कारण उन्हें नहीं निकाला जा सका है। रात्रि को निकाला जाना संभव नहीं है। सुबह ही उन्हें निकालने का काम हो पाना संभव होगा।
यह एक मनोरम स्थान है। चम्बल के किनारे नदी से कोई आधा से एक किलोमीटर दूर एक सड़क कोटा से रावतभाटा जाती है। रतकाँकरा गांव के पास इसी सड़क से कोई आधाकिलोमीटर चम्बल की ओर चलने पर यकायक गहराई में एक घाटी नजर आती है। जिस में तीन सौ फीट नीचे एक झरना, झरने के गिरने से बना प्राकृतिक कुंड है। वहीं एक प्राचीन शिव मंदिर है। बरसात में यह स्थान मनोरम हो उठता है और हर अवकाश के दिन वहाँ दिन भर कम से कम दो से तीन हजार लोग पिकनिक मनाने पहुँचते हैं। पानी कुंड से निकल कर चम्बल की और बहता है और बीच में तीन-चार झरने और बनाता है मगर वहाँ तक पहुँचना दुर्गम है। दुस्साहस कर के ही वहाँ जाया जा सकता है।
ऊपर भूमि से नीचे कुंड, झरने और मंदिर तक पहुँचने के लिए सीधे उतार पर तंग सीढ़ियाँ हैं। चार-सौ के लगभग इन सीढ़ियों में से करीब सौ फुट के लगभग सीढियाँ कल दोपहर बाद उन के नीचे के भराव के पानी के साथ बह जाने से ढह गईं। ये चार लोग वहाँ सीढ़ियों पर होने से मलबे में दब गए। शेष जो नीचे थे नीचे ही रह गए। हालांकि वहाँ नीचे रात रहने में खास परेशानी नहीं है यदि बरसात न हो वैसे बरसात नहीं के बराबर है। मगर हो गई तो सब को भीगना ही पड़ेगा। मंदिर में स्थान नहीं है। क्यों कि मंदिर पर भी लगातार पानी गिरता रहता है। सब के सब खुली चट्टानों पर हैं। उन का रात वहाँ काटना जीवन की सब से भयानक रात होगी। हालांकि वहाँ पुलिस के लगभग 20 जवान पहुँचे हैं, जो रात उन के साथ काटेंगे उन के साथ एक इंस्पेक्टर भी है। भोजन, दूध और कंबल आदि सामग्री पहुँचा दी गई है। रोशनी का प्रबन्ध हो गया है। लेकिन ऐसे स्थानों पर रात को जो कीट, पतंगे, सांप आदि जीव विचरते हैं उन सभी को आज बहुत से भयभीत मानवों का साथ मिलेगा। मानवों की रात वहाँ गुजारेगी यह तो वापस लौटने पर वे ही बता सकेंगे।
यह समाचार सभी हिन्दी समाचार चैनलों में ब्रेकिंग न्यूज बना हुआ है। अभी तक सबसे तेज चैनल को यह पता नहीं है कि लोग नीचे फंसे हैं या ऊपर। वहाँ दूरभाष साक्षात्कार आ रहे हैं। पूछा जा रहा है कि ऊपर फंसे लोगों को बचाने के लिए क्या व्यवस्था की है। जवाब आ रहा है कि नीचे फंसे लोगों को बचाने की व्यवस्था की जा रही है। एंकर कह रहा है कितनी लापरवाही है ऊपर फंसे लोगों की कोई सुध नहीं ली जा रही है। जब कि ऊपर तो शहर है। सड़क है, बचाने वाले हैं, सहायता सामग्री है। लोग तो नीचे खड्ड में झरने, कुंड और मन्दिर पर फंसे हैं।
हमें कामना करनी चाहिए कि जो बच गए हैं वे सभी सुबह सकुशल लौटेंगे। 
यहाँ दिया गया चित्र झरने का है। झरने के बायें मन्दिर है और उस के साथ ही सीढ़ियाँ बनी हैं जो नीचे झरने की और जाने आने का एक मात्र साधन हैं।

बुधवार, 25 जून 2008

दिखावे की संस्कृति-२.....समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?

विगत आलेख में मृत व्यक्ति के अस्थिचयन की घटना के विवरण पर अनेक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं। उन में विजयशंकर चतुर्वेदी ने एक बघेली लोकोक्ति के दो रूपों का उद्धरण दिया जियत न पूछैं मही, मरे पियावैं दही और जियत न पूछैं मांड़, मरे खबाबैं खांड

दोनों का अर्थ एक ही था जीवित व्यक्ति को छाछ/उबले चावल के पानी की भी न पूछते हैं और मरने पर उस के लिए दही/चीनी अर्पित करने को तैयार रहते हैं।

Shiv Kumar Mishra ने लिखा धरती पर सोये पिता फटा चादरा तान, तेरहवी पर कर रहे बेटा शैय्यादान और अखबार में छपे फोटो से लेकर धुले हुए कुरते तक में, सब जगह दिखावा ही दिखावा हैइन के अलावा दो लोकोक्तियाँ और सामने आईँ एक इटावा (उ.प्र.) के मित्र आर.पी. तिवारी से जियत न दिए कौरा, मरे बंधाए चौरा।। दूसरे कवि महेन्द्र “नेह” से जीवित बाप न पुच्छियाँ, मरे धड़ाधड़ पिट्टियाँ”।

इन का भी वही अर्थ है। जीवित पिता को कौर भी नहीं दिया और अब उस की पगड़ी को सम्मान दिया जा रहा है तथा जीवित पिता को पूछा तक नहीं और मरने पर धड़ाधड़ छाती पीटी जा रही है।

ये सब लोकोक्तियाँ लोक धारणा को प्रकट करती हैं। जिन का यही आशय है कि लोग सब जानते हैं कि मृत्यु के उपरांत अब सब समाज के दिखावे के लिए किया जा रहा है। इस से मरणोपरांत की जाने वाली विधियों का खोखलापन ही प्रकट होता है।

अनेक मित्रों ने परंपराओं की भिन्नता की चर्चा भी की और उन की आवश्यकता की भी। लेकिन विगत आलेख का मेरा आशय कुछ और था, जो परंपराओं को त्यागने के बारे में कदापि नहीं था।

किसी भी परिवार में मृत्यु एक गंभीर हादसा होता है। परिवार और समाज से एक व्यक्ति चला जाता है, और उस का स्थान रिक्त हो जाता है। वह बालक, किशोर, जवान, अधेड़ या वृद्ध; पुरुष या स्त्री कोई भी क्यों न हो उस की अपनी भूमिका होती है, जिस के द्वारा वह परिवार और समाज में मूल्यवान भौतिक और आध्यात्मिक योगदान करता है। समाज मृत व्यक्ति की रिक्तता को शीघ्र ही भर भी लेता है। लेकिन परिवार को उस रिक्तता को दूर करने में बहुत समय लगता है। यह रिक्तता कुछ मामलों में तो रिक्तता ही बनी रह जाती है। अचानक इस रिक्तता से परिवार में आए भूचाल और उस से उत्पन्न मानसिकता से निकलने में अन्तिम संस्कार से लेकर वर्ष भर तक की मृत्यु पश्चात परंपराएँ महति भूमिका अदा करती हैं। इस कारण से उन्हें निभाने में कोई भी व्यक्ति सामान्यतया कोई आपत्ति या बाधा भी उत्पन्न नहीं करता है।

इस आपत्ति के न करने की प्रवृत्ति ने धीरे धीरे हमारी स्वस्थ परंपराओं में अनेक अस्वस्थ कर्मकांडों को विस्तार प्रदान कर दिया है। जिन का न तो कोई सामाजिक महत्व है और न ही कोई भौतिक या आध्यात्मिक महत्व।

अस्थिचयन के उपरांत मृतात्मा को भोग की जो परंपरा है उसे निभाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं, वह किसी एक व्यक्ति द्वारा संपन्न कर दी जाती है जो मृतक का लीनियन एसेंडेंट हो। बाकी तमाम लोगों को वहाँ यह सब करने दिया जाना उस परंपरा का अनुचित विस्तार है। जिस में समय और धन दोनों का अपव्यय भी होता है।

मुझे एक ऐसे ही अवसर पर जोधपुर में जाना हुआ था। वहाँ परिवार का केवल एक व्यक्ति लीनियन एसेंडेंटएक सहायक और पंडित ने यह परंपरा निभा दी थी। मैं और मेरे एक मित्र वहाँ जरूर थे लेकिन केवल अनावश्यक रूप से, और बिलकुल फालतू। वह एक डेढ. घंटा हम ने पास ही पहाड़ी की तलहटी में झील किनारे बने एक शिव मंदिर पर बिताया।

मेरा कहना यही है कि हम इन अनावश्यक परंपराओं से छुटकारा पा सकते हैं। भूतकाल में पाया भी गया है। लेकिन उस के लिए सामाजिक जिम्मेदारी को निभाना होगा और इस के लिए भी तैयार रहना होगा कि लोग आलोचना करेंगे।

समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?

सोमवार, 23 जून 2008

दिखावे की संस्कृति-1 ....एक दुपहर शमशान में

आज मुझे फिर एक अस्थि-चयन में जाना पड़ा। मेरे एक नित्य मित्र के भाई का शुक्रवार को प्रातः एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हो गया। मैं अन्त्येष्टी में नहीं जा सका था। सुबह नौ बजे एक मित्र का फोन मिला, वहाँ चलना है। मेरे पास उस समय कोई वाहन नहीं था, पहले तो फोन पर मना किया, कि शाम को बैठक में ही जाना हो सकेगा। संयोग से कुछ ही समय में वाहन आ गया, और मैं तुरंत ही रवाना हो गया। सुबह 9.50 पर मुक्तिधाम पहुँचा। (मेरे नगर में यहाँ श्मशान को मुक्तिधाम कहने की परंपरा चल निकली है) तब तक चिता को पानी डाल कर शीतल किया जा चुका था। अस्थियाँ धोकर, एक लाल थैली में बंद की गईं। राख को चम्बल में प्रवाहित करने के लिए कुछ लोग जीप से केशवराय पाटन के लिए रवाना हो गए।

कोटा जंक्शन से कोई दस किलोमीटर दूर, चम्बल के दक्षिणी किनारे पर रंगपुर नाम का गाँव है। सामने ही चम्बल के उस पार केशवराय पाटन है। सड़क मार्ग से यही 30 किलोमीटर पड़ता है। चम्बल के पूर्वोन्मुखी बहने से वहाँ तीर्थ है। चम्बल किनारे केशवराय भगवान का विशाल प्राचीन मन्दिर है, उस से भी प्राचीन शिव मंदिर है, प्राचीन जैन तीर्थ भी है। कोटा के अधिकांश लोग इसी तीर्थ में राख प्रवाहित करने के लिए जाते हैं। किसी को यह भान नहीं कि राख से चम्बल मे प्रदूषण होता होगा, राख को भूमि में भी दबाया जा सकता है। खैर!!

दाह-स्थल गोबर से लीपा गया। स्थान की गर्मी से लीपा गया तुरंत ही सूख गया। उस पर गोबर के ही उपले गोलाई में इस तरह जमाए गए कि उन पर मिट्टी का कलश रखा जा सके। फिर उन में आग चेताई गई और एक कलश में चावल पकाने को रख दिए गए। नम हवा और नम उपले। बहुत धुआँ करने के उपरांत ही उपलों ने आग पकड़ी। आधा घंटा चावल पकने में लगे। चावल पकने के बाद उन्हें पत्तल में घी और चीनी के साथ परोसा गया। मृतक को भोग अर्पित करने का प्रक्रम प्रारंभ हुआ। यह एक लगभग पूरी तरह सुलग चुके उपले पर घी छोड़ कर, पानी से आचमन करा कर, पत्तल के दूसरी और मृतक की कल्पना करते हुए, उसे प्रणाम कर के किया जाता है। उठने के बाद व्यक्ति अपने हाथ जरूर धो लेता है। एक व्यक्ति द्वारा इस कर्म कांड को करने में कम से कम दो मिनट तो लगते ही हैं।

पहले पुत्रों ने भोग अर्पण किया, फिर परिवार के दूसरे लोगों ने, फिर रिश्तेदारों ने। उस के बाद बिरादरी के लोगों ने भोग अर्पण किया। एक सुलगता हुआ उपला घी से तर-बतर हो कर बुझ गया। उसे माचिस से फिर सुलगाया गया। आग की लपटें हवन की तरह उठने लगीं। एक घंटे में कुल तीस लोग भोग अर्पण कर चुके थे, और अभी दस के लगभग पास खड़े अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बैठे हुए लोगों में भी कुछ जरुर इस कर्मकाण्ड को करने के इच्छुक जरूर रहे होंगे। नजदीक ही एक गाय ध्यान मग्न पत्तल पर रखे चीनी और घी से सने चावलों को देख रही थी, जिसे वहाँ आस पास खड़े लोग नहीं देख रहे थे।

मैं दूर एक बरामदे में बैठा यह सब देख रहा था, जहाँ अनेक खूबसूरत ग्रेनाइट की बेन्चें अभी कुछ माह पहले विधायक कोष से लगाई गई थीं। उन में से कुछ पर धूल जमा थी, कुछ पर से लोगों ने बैठने से पहले हटा दी थी और कुछ पर से उन के बैठने के कारण स्वतः ही हट गई थी। एक बैंच पर कुछ कचरा सा पड़ा था। देखने पर पता लगा कि वह राल का पाउडर है जो चिता को चेताने के लिए काम आता है। एक बैंच के नीचे एक पांच-छह माह का कुत्ता चुपचाप आकर लेट गया था। उस के दो जुड़वाँ भाई दूसरे बरामदे में सुस्ता रहे थे। तीनों अभी अभी दूसरे मुहल्ले के कुत्तों से भिड़ने के लिए अभ्यास कर रहे थे। मुक्तिधाम के दूर के कोने में पेड़ों के झुरमुट के पीछे छिपे एक चबूतरे के पास दो नौजवान स्मैक या कोई अन्य पदार्थ का सेवन कर निपट चबूतरे पर पड़ी नीम की निमोलियों को साफ कर रहे थे, जिस से वहाँ सो कर दिन गुजारा जा सके।

मुझ से कर्मकाण्ड की लम्बाई बर्दाश्त नहीं हो रही थी। मैं नें पास बैठे लोगों से पूछा, -क्या बीस-तीस साल पहले भी ऐसा ही होता था?

जवाब मिला, -पहले तो परिवार के लोग भी इस कर्मकाण्ड में सम्मिलित नहीं होते थे।

मैं ने बताया, केवल लीनियल एसेन्डेण्टस् ही यह कर्मकाण्ड करते थे। यानी मृतक/मृतका के पुत्र, पौत्र, पौत्री और नाती और उन के पुत्र आदि। वहाँ बैठे लोगों ने इस पर सहमति जताई।

मैं ने पूछा, -तो अब ये क्या हो रहा है?

प्रश्न का उत्तर नहीं था, सो नहीं मिला।

जवाब में मिला प्रश्न – इस में बुराई क्या है?

बुराई यह है कि उम्र में बड़ा तर्पण ले तो सकता है, दे नहीं सकता। दूसरे यह कि यहाँ आए लोगों का समय भी तो कीमती है वह जाया हो रहा है।

हम तो बर्दाश्त कर रहे थे। लेकिन गाय से इतनी देर बरदाश्त नहीं हुई, वह आस पास के लोगों की निगाहें न अपनी ओर देखती न पा कर शीघ्रता से चबूतरे पर चढी और चावलों पर झपटी। वह चावलों को लपकती इस से पहले ही वहाँ खड़े लोगों में से तीन-चार उस पर टूट पड़े। गाय खदेड़ दी गई।

हम में से एक ने कहा, - एक व्यक्ति नहा कर घर जा चुका है ताकि महिलाएँ नहाने जा सकें।

दूसरा बोला, -तो हम भी चल सकते हैं।

हम उठे और शमशान के बाहर आ गए। अपने अपने वाहन पर सवार हो चल दिये अपने घरों की ओर। हमारे बाहर आने तक कतार में छह व्यक्ति थे, और हमारे इर्द-गिर्द बैठे वे लोग जो बाहर नहीं आए थे कतार में सम्मिलित होने चल दिए थे।

सोमवार, 26 मई 2008

जानलेवा और मारक हो चुकी है आरक्षण की औषध ------------ कोई नई औषध खोज लाएँ अनुसंधानकर्ता

गुर्जर आंदोलन पर मुख्यमंत्री वसुन्धरा के रवैये को समझा जा सकता है। वे कहती हैं - सब्र की भी सीमा होती है: वसुंधरा अगर हम आज की राजनीति के चरित्र को ठीक से समझ लें। उसी तरह गुर्जर आंदोलन के नेता बैसला के इस बयान से कि पटरियों पर होगा फैसला: बैसला आंदोलन के चरित्र को भी समझा जा सकता है।

पिछड़ेपन को दूर करने के लिए आरक्षण की जो चिकित्सा संविधान ने तय की थी उसे वोट प्राप्ति के लिए रामबाण समझ लेने और लगातार बढ़ाए जाने से जो स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं, गुर्जर आंन्दोलन उसी का उप-उत्पाद है। एक लम्बे समय तक किसी औषध का प्रयोग होता रहे तो उस के साइड इफेक्टस् भी खतरनाक होने लगते हैं और वह जानलेवा भी साबित होने लगती है। सभ्य समाज ऐसी औषधियों का प्रयोग और उत्पादन प्रतिबंधित कर देती है। ऐसा भी होता है कि अगर आप कब्ज या ऐसे ही किसी मर्ज के रोगी हों, और कब्ज को दूर करने के लिए किसी एक औषध को लगातार लेते रहें तो वह औषध का रूप त्याग कर नित्य भोजन का अत्यावश्यक भाग बन जाती है। धीरे धीरे वह अपना असर भी खोना प्रारंभ कर देती है। फिर औषध की या तो मात्रा बढ़ानी पड़ती है, या फिर औषध ही बदल देनी पड़ती है।
आरक्षण जिसे एक रोग की चिकित्सा मात्र के लिए औषध के रूप में लाया गया था। यहाँ तक कि उस की "एक्सपायरी डेट" तक भी निर्धारित कर दी गई थी। उसे अब औषध की सूची से निकाल कर खाद्य की सूची में शामिल कर लिया गया है। इस लिए नहीं कि वह रोग की चिकित्सा है या रोगी के लिए जीवन रक्षक है। अपितु इसलिए कि कथित चिकित्सक समझ रहे हैं कि अगर यह दवा बन्द कर दी गई तो रोगी उस के कब्जे से भाग लेगा और इस से उस के धन्धे पर असर पड़ेगा। चिकित्सक शोध नहीं करते शोधकर्ता और ही होते हैं। जब कोई औषध बेअसर होने लगती है तो वे नयी औषध के लिए अनुसंधान करते हैं, और नयी औषध लाते हैं। तब जानलेवा औषधियों को प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
इस गुर्जर आंदोलन की आग नहीं बुझेगी। कोई समझौते का मार्ग तलाश भी कर लिया जाए तो वह केवल आग पर राख डालने जैसा होगा। आग अन्दर- अन्दर ही सुलगती रहेगी। ये न समझा जाए कि वह अन्य समाजों में न फैलेगी। कहीं ऐसा न हो कि यह वाकई एक दावानल का रूप ले ले।
ये चिकित्सक (राजनैतिक दल) कभी भी नयी औषध का आविष्कार नहीं करेंगे। क्यों कि ये धन्धा करने आए हैं। चिकित्सा की परंपरा को विकसित करने नहीं। इन के भरोसे समाज, देश और मानव जाति को नहीं छोड़ा जा सकता है। अनुसंधानकर्ता ही कोई नयी औषध ले कर आएंगे तो मानव जाति बचेगी।
मेरा विनम्र आग्रह है उन सामाजिक अनुसंधानकर्ताओं से जो समाज के प्रति अपने दायित्व  को पहचानते हैं, कि वे इस काम मे लगें। कोई नयी औषध तलाश कर लाएँ, जिस से इस मारक, जानलेवा औषध आरक्षण को प्रतिस्थापित किया जा सके। वरना इतिहास न तो इन चिकित्सकों को माफ करेगा और न ही अनुसंधानकर्ताओं को।

रविवार, 25 मई 2008

गुर्जर-2............यह आँदोलन है या दावानल ?

कोटा के आज के अखबारों में गुर्जर आंदोलन छाया हुआ है।

अखबारों ने जो शीर्षक लगाए हैं, उन्हें देखें.....................

सिकन्दरा में कहर - हालात बेकाबू, 23 और मरे, दो दिन में 39 लोग मारे गए, 100 से अधिक घायल - जवानों ने की एसपी व एसडीएम की पिटाई - हिंसक आंदोलन बर्दाश्त नहीं...वसुन्धरा - तीन कलेक्टर दो एसपी बदले - मौत का बयाना - कोटा में आज दूध की सप्लाई बंद, हाइवे पर जाम लगाएँगे - रेल यातायात ठप, बसें भी नहीं चलीं - टिकट विंडो भी रही बन्द - कोटा-दिल्ली-आगरा के बीच रेल सेवाएँ ठप,यात्रियों ने आरक्षण रद्द कराए, परेशानी उठानी पड़ी, रेल प्रशासन को करोड़ों का नुकसान, कई परीक्षाएँ स्थगित - लाखों के टिकट रद्द - श्रद्धांजली देने के खातिर गूजर नहीं बाँटेंगे दूध - ट्रेनें रद्द होने से कई परीक्षाएँ रद्द - एम.एड. परीक्षा टली - प्री बी.एड परीक्षा बाद में होगी - रेलवे ट्रेक की भी क्षति - श्रद्धांजलि देने की खातिर गुर्जर नहीं बाँटेंगे दूध - गुर्जर आंन्दोलन की आँच हाड़ौती में भी फैली - नैनवाँ पुलिस पर हमला - चार पुलिसकर्मी घायल- गर्जरों ने पहाड़ियों पर जमाया मोर्चा - राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर बाणगंगा नदी के पास जाम - कोटा शिवपुरी ग्वालियर सड़क संपर्क दो घंटे बन्द रहा - बून्दी बारां व झालावाड़ में जाम - स्टेट हाईवे 34 पर आवागमन बन्द - रावतभाटा रोड़ पर देर रात जाम - बून्दी जैतपुर में जाम पुलिसकर्मी पिटे - झालावाड़ बसें बन्द - 17 गुर्जर बन्दियों ने दी अनशन की धमकी - सेना सतर्क, बीएसएफ पहुँची, आरफीएसएफ की एक कम्पनी बयाना जाएगी - हर थाने को दो गाड़ियाँ - रात को दबिश - हाड़ौती के कई कस्बों में आज बन्द - राजस्थान विश्व विद्यालय की परीक्षाएं स्थगित - पटरी पर कुछ भी नहीं - ... प्रदेश में अशांति की अंतहीन लपटें - भरतपुर बयाना के हालात=पटरियाँ तोड़ी फिश प्लेटें उखाड़ी - दूसरे दिन बयाना में पहुँची सेना, शव लेकर रेल्वे ट्रेक पर बैठे रहे बैसला - डीजीपी ने हेलीकॉप्टर से लिया जायजा - चिट्ठी आने तक नहीं हटेंगे बैसला- गुर्जर आन्दोलन = गुस्सा+ जोश= पाँच किलोमीटर - यह तो धर्मयुद्ध है - जोर शोर से पहुँची महिलाएँ - चाहे चारों भाई हो जाएँ कुर्बान - मेवाड़ में सड़कों पर उतरे गुर्जर - राजसमन्द में हाईवे जाम - हजारों गुर्जरों का बयाना कूच - छिन गया सुख चैन- ठहरी साँसें - अटकी राहें - सहमी निगाहें - हैलो भाई तुम ठीक तो हो - कई रास्ते बंद जयपुर रोड़ पर खोदी सड़क - 8 कार्यपालक मजिस्ट्रेट नियुक्त - किशनगढ़ भीलवाड़ा बन्द सफल - दो गुर्जर नेता गिरफ्तार - करौली -टोक में सड़कें सुनसान - चित्तौड़गढ़ अजमेर अलवर और करौली आज बन्द - सहमे रहे लोग आशंकाओं में बीता दिन - शकावाटी में भी बिफरे गुर्जर - नीम का थाना में एक बस को आग के हवाले किया - चार बसों में तोड़ फोड़ - बस चालक घायल कई जगह रास्ता जाम- पाटन में सवारियों से भरी बस को आग लगाने का प्रयास - सीकर झुन्झुनु के गुढ़ागौड़ जी व खेतड़ी में गुर्जरों की सभाएँ और सीएम का पुतला फूँका ............

..........................................आपने पढ़े खबरों के हेडिंग ये एक दिन के एक ही अखबार से हैं। दूसरे अखबार से शामिल नहीं किये गए हैं। अब आप अंदाज लगाएँ कि यह आँदोलन है या दावानल ?

इस दावानल का स्रोत कहाँ है? वोटों के लिए और सिर्फ वोटों के लिए की जा रही भारतीय राजनीति में ?  पूरी जाति,  वह भी पशु चराने और उन के दूध से आजीविका चलाने वाली जाति से आप क्या अपेक्षा रख सकते हैं। यह पीछे रह गए हैं तो उस में दोष किस का है? इन के साथ के मीणा अनुसूचित जाति में शामिल हो कर बहुत आगे बढ़ गए हैं। गुर्जरों को यह बर्दाश्त नहीं। उन्हें राजनीतिक हल देना पड़ेगा। पर मीणा वोट अधिक हैं। उन्हें नाराज कैसे करें?

  

पिछड़ेपन को दूर करने की नाकाम दवा आरक्षण के जानलेवा साइड इफेक्टस हैं ये।

ये आग भड़क गई है। नहीं बुझेगी आरक्षण से। पीछे कतार में अनेक जातियाँ खड़ी हैं।

आरक्षण को समाप्ति की ओर ले जाना होगा। पिछड़ेपन को दूर करने और समानता स्थापित करने का नया रास्ता तलाशना पड़ेगा। मगर कौन तलाशे?

गुरुवार, 15 मई 2008

उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है

कल शाम जब से जयपुर बम विस्फोट का समाचार मिला है मन एक अजीब से अवसाद में है। आखिर इस समाज और राज्य को क्या हो गया है? जिस में आतंकवाद की कायराना हरकतों को अंजाम देने वाले लोगों को पनाह मिल जाती है। लोग उन के औजार बनने को तैयार हो जाते हैं। वे अपना काम कर के साफ निकल जाते हैं।

लगता है कि न समाज है और न ही राज्य। ये नाम अपना अर्थ खो चुके हैं। पहले से चेतावनी है, लेकिन उस से बचाव के साधन भोंथरे सिद्ध हो जाते हैं। समाज को कोई चिन्ता नहीं है, उस ने अपने अस्तित्व को कहाँ विलीन कर दिया है? कुछ पता नहीं। जैसे ही घटना की सूचना मिलती है। चैनल उस पर टूट पड़ते हैं जैसे कोई शिकार हाथ लग गया हो और एक प्रतिद्वंदिता उछल कर सामनें आती है। कहीं कोई दूसरा उस से अधिक मांस न नोच ले। चित्र दिखाए जाते हैं, इस चेतावनी के साथ कि ये आप को विचलित कर सकते हैं। लोग इन्हें ब्लॉग तक ले आते हैं। विभत्सता प्रदर्शन, कमाई और नाम पाने का साधन बन जाती है। कुछ चैनल अपने को शरलक होम्स और जेम्स बॉण्ड साबित करने पर उतर आते हैं।

मंत्रियों की बयानबाजी आरम्भ हो जाती है। मुख्यमंत्री को तुरन्त प्रतिक्रिया करने में परेशानी है। जैसे यह देश और प्रान्त में पहली बार हो रहा है। वे पहले जायजा (सोचेंगी और राय करेंगी कि किस में उन का हित है, जनता और देश जाए भाड़ में) लेंगी फिर बोलेंगी। प्रान्त के सब से बड़े अस्पताल का अधीक्षक गर्व से कहता है उन पर सब व्यवस्था है, कितने ही घायल आ जाएं। पर व्यवस्था आधे घंटे में ही नाकाफी हो जाती है। रक्त कम पड़ने लगता है। रक्तदान की अपीलें शुरू हो जाती हैं। अपील सुन कर इतने लोग आते हैं कि रक्त लेने के साधन अत्यल्प पड़ जाते हैं। घायलों को जो पहली अपील के बाद सीधे बड़े अस्पताल पहुँचते हैं उन्हें दूसरे अस्पतालों को भेजा जा रहा है। पहले ही पास के अस्पताल पहुंचने की अपील करने का ख्याल नहीं आया।

मुख्यमंत्री जानती हैं कि उन पर दायित्व आने वाला है। आखिर आंतरिक सुरक्षा राज्यों की जिम्मेदारी है. केन्द्र की नहीं तो वे फिर से पोटा या उस जैसा कानून लागू नहीं करने के लिए केन्द्र को कोसना प्रांऱभ कर देती हैं। यह उन के दल का ऐजेण्डा है और केन्द्रीय नेता उस पर बयान दे चुके हैं।

अगले दिन राज्य भर में राजकीय शोक की घोषणा कर दी जाती है। स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर और अदालतें बन्द रहती हैं। एक दल को बन्द की याद आती है। वह बन्द की घोषणा कर देते हैं। (सब से आसान है, तोड़फोड़ के आतंक से लोग दुकानें, व्यवसाय बन्द करते ही हैं) बस कुछ रंगीन पटके ही तो गले में डाल कर घूमना है। बन्द रामबाण इलाज है हर मर्ज का। बाजार बन्द कर दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। एक आतंक की शिकार जनता के सामने दूसरा आतंक परोस दो। पहले वाले की तीव्रता कुछ तो कम होगी। वकीलों ने शोक सभा करनी है, शोक के राजकीय अवकाश से बन्द अदालतों के कारण संभव नहीं हुआ। अब अगले दिन शोक-सभा होगी, फिर अदालतों का काम बन्द। इस के अलावा कोई चारा भी नहीं, काम के बोझ से कमर तुड़ाती अदालतें दो दिन का काम करेंगी तो पेशियाँ बदलने के सिवा क्या कर सकती हैं? वैसे भी हर रोज 80% काम तो वे ऐसे ही निपटाती हैं।

वे साजिश रचते हैं, कामयाब होते हैं। आप अभी सूत्र तलाश कर रहे होते हैं। तक वे अपनी कामयाबी के मेक की वीडियो चैनलों को मेल कर देते हैं। चैनल चीखने लगते हैं, उन्हीं का स्वर। उन के  हाथ बटेर लग गई है। अखबारों में शोक संदेशों की 'क्यू'लगी है। अमरीका के झाड़ बाबा से ले कर राष्ट्रीय पार्टी के जातीय प्रकोष्ठ की मुहल्ला कमेटी के मंत्री तक के बयान आए जा रहे हैं। संपादक देख रहा है उसे कौन, कैसे नवाजता है? किस से कितना बिजनेस मिलता है और मिल सकता है? किस का शोक छापना है किस का नहीं?

सायकिल और बैग बेचने वाले नहीं जानते उन से माल किस ने खरीदा, या उन्हों ने किस को बेच दिया। उन को केवल सेल्स से मतलब है। वे बता देते हैं उन्हों ने बच्चों और महिलाओं को बेचे हैं। कफन बेचने वाले को पता नहीं कफन किस के लिए खरीदा जा रहा है? जीवित के लिए या मृत के लिए, या कि कल बेचा हुआ कफन कल उसी के लिए तो काम नहीं लिया जाएगा?

अचानक इस्पाती समाज भंगुर दिखाई देने लगता है। न जाने कब इस की भंगुरता टूटेगी? टूटेगी भी या नहीं। या ऐसे ही यह विलुप्त हो जाएगा। एक से एक-एक में, कई एकों में। वह बूढ़ा याद आता है जो मरने के पहले अपने बेटों से अकेली लकड़ियाँ तुड़वा रहा था और गट्ठर किसी से न टूटा अब गट्ठर भी टूट रहा है। बस पहले उसे बाँधने वाली रस्सी की गाँठ खोल लो, फिर एक एक लकड़ी.......

और ......... यह हम भारत के लोगों द्वारा रचा गया गणराज्य? अब गण की उपेक्षा करता हुआ। विदेशी साम्राज्य को विदा कर अस्तित्व में आया और अब कह रहा है हम विश्व अर्थव्यवस्था से अछूते नहीं रह सकते, और विश्व आतंकवाद से भी।

आज आज और रहेगा याद यह आतंकवाद। कल भुलाएंगे और परसों से कोई और ब्रेकिंग न्यूज होगी चैनलों पर। फिर से बयानों की क्यू होगी। बधाई या शोक संदेश? कुछ भी। आज भोंचक्के लोग परसों फिर रोटी की जुगाड़ में होंगे, और चैनल भी, उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है।

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

वसंत ऋतु में प्रिया और प्रियतम का संग मिले तो कोई भी साथ को पल भर के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता है। राजस्थान में वसंत के बीतते ही भयंकर ग्रीष्म का आगमन होने वाला है। आग बरसाता हूआ सूरज, कलेजे को छलनी कर देने और तन का जल सोख लेने वाली तेज लू के तेज थपेड़े बस आने ही वाले हैं।

ऐसे निकट भविष्य के पहले मदमाते वसंत में प्रियतम भी नहीं चाहता कि प्रिया का संग क्षण भर को भी छूटे। लेकिन प्रिया को ऐसे में भी ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना स्मरण है। उस ने कुंवारे पन से ही उन से लगातार प्रार्थना की है कि उस की भी जोड़ वैसी ही बनाए जैसी उन की है। उस में भी उतना ही प्यार हो जैसा उन में है।

प्रियतम प्रिया को छोड़ना नहीं चाहता है। लेकिन प्रिया को ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना है। वह अपने मधुर स्वरों में गाती है-

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

यह उस लोक गीत का मुखड़ा है जो होली के दूसरे दिन से ही राजस्थान में गाया जा रहा था। कल राजस्थान में गणगौर का त्यौहार मनाया गया। इस गीत में पति को भँवर यानी भ्रमर की उपमा प्रदान की गई है। जो वसंत में किसी प्रकार से फूल को नहीं छोड़ना चाहता है।

जब प्रियतम को यह पता लगा कि उसे पाने का आभार करने के लिए प्रिया उससे कुछ समय अलग होना चाहती है तो वह भी उस के उस अनुष्ठान में सहायक बन जाता है। वह उसे सजने का अवसर और साधन प्रदान करता है।

हमारे यहाँ भी गणगौर मनाई गई परम्परागत रूप में। मेरी जीवन संगिनी शोभा ने तीन-चार दिन पहले ही चने और दाल के नमकीन और गेहूँ-गुड़ के मीठे गुणे बनाए। एक दिन पहले रात को मेहंदी लगाई। सुबह-सुबह जल्दी काम निपटा कर तैयार हो गई और पूजा की तैयारी की। गौरी माँ के लिए बेसन की लोई से गहने बनाए गए।

गणगौर की पूजा आम तौर पर घरों पर ही की जाती है। महिलाएं गण-गौर की मिट्टी की प्रतिमा बाजार से लाती हैं और होली के दूसरे दिन से ही उस की पूजा की जाती है। गीत गाए जाते हैं। कुँवारी लड़कियाँ इस पूजा में रुचि लेकर शामिल होती हैं। अनेक मुहल्लों में किसी एक घर में गणगौर ले आई जाती है और उसी घर में मुहल्ले की महिलाएं एकत्र हो कर पूजा करती हैं। मेरी पत्नी दो वर्षों से मुहल्ले के स्थान पर मंदिर में जा कर शिव-पार्वती की पूजा करती है। वहाँ उस दिन दर्शनार्थियों का अभाव होता है। पूजा मजे में आराम से की जा सकती है। वह कहती है कि वह पूजा करनी चाहिए जिस से मन को शांति मिले। सुबह साढ़े दस बजे हम उन्हें ले कर मंदिर गए। वे पूजा करती रहीं। हम वहाँ पुजारी जी से बतियाते रहे।

बेटी मुम्बई में है। वहाँ से खबर है कि उस ने भी उसी तरह से पूजा की जैसे यहाँ उस की माँ ने की। उस ने भी बेसन के गहने बनाए और पास के मंदिर में पार्वती की प्रतिमा को सजा कर पूजा की। दोनों ने ही मंदिरों में पूजा की और दोनों ही मंदिरों में पूजा करने वाली अकेली थीं।

मेरे जन्म स्थान में गणगौर धूमधाम से मनाई जाती थी। गणगौर वहाँ केवल महिलाओं का त्योहार नहीं था। अपितु उसने पूरी तरह से वंसंतोत्सव का रूप लिया हुआ था। उसके बारे में किसी अगली पोस्ट में...........

शनिवार, 22 दिसंबर 2007

राजस्थान - रेल और सड़क मार्ग जल्दी ही जाम होने वाले हैं।

मई-जून में राजस्थान में हुए गुर्जर आन्दोलन को अभी लोग भूले नहीं होंगे। पुलिस की गोलियों से छह आन्दोलनकारियों की मृत्यु के बाद इस आन्दोलन की आग दिल्ली, हरियाणा और यू.पी. तक जा पहुँची थी। आन्दोलन ग्रस्त क्षेत्र में प्रवेश करना या वहाँ से बाहर निकलना असम्भव हो गया था और प्रशासन पूरी तरह से पंगु हो गया था। गुर्जर जाति का यह आन्दोलन उन्हें ओबीसी के स्थान पर जन जाति में सम्मिलित िए जाने की मांग को ले कर था। उन की इस मांग का आधार यह है कि राजस्थान में जनजाति आरक्षण का सर्वाधिक लाभ उठाने वाली मीणा जाति और गुर्जरों कि सामाजिक स्थितियां लगभग एक जैसी हैं। यहाँ तक कि गुर्जर बहुत पिछड़ गए हैं और खुद को ठगा सा महसूस करते हैं।

मुख्यमत्री श्रीमती वसुन्धरा राजे सिन्धिया ने चुनाव के पहले यह वायदा किया था कि उन के मुख्यमंत्री बन जाने पर वे केन्द्र सरकार को सिफारिश करेंगी कि गुर्जर जाति को जन जाति में सम्मिलित किया जाए। वसुन्धरा मुख्यमंत्री बन गयीं और तीन साल गुजर जाने पर भी सिफारिशी चिट्ठी केन्द्र सरकार को नहीं भिजवाने पर गुर्जरों का सब्र का बांध टूट गया। व्यापक आन्दोलन के पहले ही दिन चली पुलिस की गोलियों ने पशुपालक संस्कृति के लोगों को हिंसा और तोड़-फोड़ की ओर ढकेल दिया। चिट्ठी नहीं जाने का मुख्य कारण मीणा जाति का दबाव रहा। उन की जनसंख्या राजस्थान में गुर्जरों से दुगनी है और विधायक मंत्री लगभग चौगुनी। राजस्थान पुलिस और प्रशासन में मीणा अफसरों का बाहुल्य है। जिस से गोलियां चलवाने में उन के योगदान की चर्चाओं के जोर पकड़ने ने आन्दोलन को हिंसात्मक रूप देने में भरपूर योगदान दिया।

राजस्थान सरकार ने आन्दोलन को विराम देने के लिए रिटायर्ड हाईकोर्ट जज जसराज चोपड़ा को नियुक्त कर मामले की जांच के लिए एक सदस्यीय आयोग बना दिया। इ मंगलवार को चोपड़ा रिपोर्ट राज्य सरकार के पास पहुँच चुकी है और जस की तस केन्द्र सरकार को भेजी दी गई है। रिपोर्ट में गुर्जरों को वर्तमान परिभाषा के अनुसार जनजाति घोषित किए जाने योग्य नहीं माना है। लेकिन राज्य सरकार से उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए विशेष प्रयत्न किए जाने की सिफारिश की गयी है। भाजपा सांसद रामदास अग्रवाल ने घोषणा कर दी है कि राज्य सरकार ने वायदा पूरा कर दिया है, सिफारिश का कोई वायदा किया ही नहीं गया था।

गुर्जर नेता रोष में हैं। तरह-तरह के बयान आ रहे हैं, राजस्थान के अखबारों के मुखपृष्ठ का आधे से अधिक इन्हीं समाचारों से लदा रहता है। राजस्थान के निवासियों ने गुर्जरों का आन्दोलन देखा है, उन्हें आना-जाना, दूरस्थ रिश्तेदारों से मिलने-जुलने, शादी-ब्याह आदि-आदि काम महीने-पन्द्रह दिनों में निपटाने लेने चाहिए और अपने मित्रों-रिश्तेदारों को भी इस की खबर कर देनी चाहिए, बाद में पछताना न पड़े। रेल और सड़क मार्ग जल्दी ही जाम होने वाले हैं।