@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: यात्रा
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शनिवार, 17 अप्रैल 2010

और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा



कोटा, 16 अप्रेल 2010

मित्रों!
आज व्यस्तता रही। अदालत से आने के बाद बाहर जाने की तैयारी करनी पड़ी। अब कम से कम दो दिन और अधिक से अधिक चार दिनों तक कोटा से बाहर रहना हो सकता है, वहीं जहाँ के ये दोनों चित्र हैं। चाहें तो आप पहचान सकते हैं. ये दोनों चित्र अनवरत की पिछली पोस्टों पर उपलब्ध हैं।

लगभग ढाई वर्ष से हिन्दी ब्लागीरी में हूँ, और यहाँ नियमित बने रहने का प्रयास रहता है। पर फैज़ सही कह गए हैं -और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा।

तो उन का भी खयाल तो रखना होता है।

यदि समय मिला और आप से जुड़ने का साधन तो इस बीच भी आप से राम-राम अवश्य होगी।


--- दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 20 मार्च 2010

पलाश और सेमल के बीच एक और यात्रा .....

ल सुबह साढ़े चार की बस पकड़नी थी, तो रात साढ़े दस बिस्तर पर चला गया और तुरंत नींद भी आ गई। बीच में आँख खुली तो सिर्फ डेढ़ बजे थे। मैं घड़ी देख फिर सो लिया। तीन बजे अलार्म की मधुर आवाज ने जगाया। अलार्म ने शोभा को भी जगा दिया था। मैं ने इंटरनेट चालू किया मेल देखे। इस बीच कॉफी तैयार थी। मैं निपटने चला गया। ठीक साढ़े चार बजे बस स्टॉप पर था। पौने पाँच बस चली। रास्ते में झालावाड़ से मेरे मुवक्किल माथुर साहब चढ़े। बातें करते-करते हम आगर पहुँचे, तो सवा दस हो चुके थे। तुरंत शाजापुर की बस मिल गई। हम उस में बैठ लिए। कोटा से झालावाड़ के बीच दरा का जंगल पड़ता है। लेकिन  बस वहाँ से निकली तब सुबह हुई ही थी। झालावाड़ निकलने के बीच बीच में वन-क्षेत्र आते रहे। इन दिनों वन में पलाश खूब फूल रहा है। पलाश के तमाम पत्ते सूख कर झड़ चुके हैं और वह फूलों से लदा पूरी तरह केसरिया नजर आ रहा है। सड़क से दूर मैदान के पार आठ-दस पेड़ दिखाई दे जाते हैं, धूप इन दिनों तेज पड़ रही है धरती गर्म हो रही है, धरती को छू कर हवा गर्म होती है और ऊपर को उठती है तो लगता है इन पलाशों आग लगी है और लौ आकाश की और उठ रही है। कहीं कहीं सेमल भी दिखाई दिए, बिना पत्तों के अपने सुर्ख फूलों के साथ जैसे दुलहन विवाह के लिए सजी खड़ी हो। कुछ दिनों में ही ये खूबसूरत फूल अपना काम कर फलों में बदल जाएंगे और फिर उन फलों से बीजों के साथ रेशमी रुई झड़ने लगेगी। मुझे कहीं कहीं अमलतास भी दिखाई दिए, वे बिलकुल हरे थे। कुछ दिनों में उन की भी यही हालत होनी है। पत्ते झड़ते ही अमलतास पूरी तरह पीला हो जाने वाला था।  मैं सोच रहा था प्रकृति किस तरह प्रतिदिन नया श्रंगार करती है।
 
र्मेंन्द्र टूर एण्ड ट्रेवल्स की यह बस छोटी थी, लेकिन बहुत सजी धजी। उस में एक टीवी लगा था जिस पर वीसीडी से फिल्मी गाने दिखाए  जा रहे थे। सब गाने साठ से अस्सी के दशक के थे और वे ही  मालवा के इस ग्रामीण क्षेत्र के पसंदीदा बने हुए थे। एक बार फिर धूपेड़ा में जा कर रुकी। इस बार दोपहर का समय था। परकोटे के अंदर बसा लोहे के कारीगरों का गांव। इस बार मैं ने ग्राम द्वार के चित्र लिए। गांव अब परकोटे के अंदर नहीं रह गया है। बाहर भी बहुत घर बन गए हैं। विशेष रूप से पंचायत घर और लड़कों और लड़कियों के अलग  अलग उच्च माध्यमिक विद्यालय और भी बहुत सी सरकारी इमारतें वहाँ बनी हैं। इस से लगता है कि गांव प्रगति पर है। एक कॉफी वहाँ पी कुछ ही देर में बस फिर चल दी। साढ़े बारह बजे हम शाजापुर की जिला अदालत में थे। जज ने मुकदमे में पिछली पेशी पर राजीनामे का सुझाव दिया था। हमने विपक्षी वकील से बात की थी, लेकिन विपक्षी यह जानते हुए भी कि उस का दावा पूरी तरह फर्जी है। जमीन जो कभी उस की थी ही नहीं उस के दाम बाजार मूल्य से मांग रहा था। माथुर साहब को यह सब स्वीकार नहीं था। आखिर जज साहब को कहा कि समझौता संभव नहीं है। जज साहब ने बहस सुन ली और निर्णय के लिए एक अप्रेल की तारीख दे दी। हम तुरंत ही बस स्टेंड आ गए। 

गर के लिए सीधी बस नहीं थी। हम सारंगपुर गए और वहाँ से आगर पहुंचे तो रात के सवा आठ बज चुके थे। कोटा के लिए बस नौ बजे आनी थी। दिन भर की थकान से भूख जोरों से लग आई थी।  हमारी  आँखें भोजनालय  की तलाश में थी कि माथुर साहब को ठंडाई की दुकान दिख गई। फिर क्या था? विजया मिश्रित ठंडाई पी गई। फिर भोजनालय पर गए। भोजनालय वाले ने बहुत सारी सब्जियों के नाम गिना दिए। मैं ने पूछा -बिना लहसुन मिलेंगी? तो उस का जवाब  था -बिना लहसुन केवल दाल होगी। हमने दाल-रोटी धनिए की चटनी से खाई पेट पर हाथ फेरते हुए वहाँ से निकले। बस की प्रतीक्षा में पान भी खा लिया गया। बस आई तो एक सीट पर हमने बैग रख दिए, वह हमारी हो गई। तभी माथुर साहब उतरे और गायब हो गए। तब तक विजया असर दिखाने लगी थी। मुझे शंका हुई कि कहीं माथुर साहब रास्ता न भूल जाएँ। मैं ने उन्हें तलाशा लेकिन वे नहीं मिले। मैं उन्हें तलाश करते हुए लघुशंका से निवृत्त हो आया।
 वापस लौटा तो माथुर साहब वापस आ चुके थे। मुझे तसल्ली हुई कि वे विजया के असर के बावजूद लौट आए हैं। बस चली तो हमें नींद आ गई। रात साढ़े बारह पर माथुर साहब झालावाड़ में उतर लिए। अब बस में सीटों से चौथाई भी सवारी नहीं रह गई थी। मैं तीन लोगों के बैठने वाली सीट पर लंबा हो गया। मेरी आँख तब खुली  जब बस कोटा नगर में प्रवेश कर चुकी थी। मैं ठीक तीन बजे घऱ था। अब तक विजया का असर खत्म हो चुका था। नींद भी नहीं आ रही थी। हालांकि साढे पाँच सौ किलोमीटर की इस यात्रा ने बुरी तरह थका दिया था। मैं ने फिर मेल चैक की, कुछ आवश्यक जवाब भी दिए। कुछ ब्लाग भी पढ़े। एक ब्लाग पढ़ते हुए कंप्यूटर हैंग हो गया। मैं उसे उसी हालत में पॉवर ऑफ कर के सोने चला गया। और सुबह साढ़े नौ तक सोता रहा। विजया के असर से नींद भरपूर आई थी। सुबह उठा तो कल की थकान का नामो निशान न था। नींद ने सारे शरीर की मरम्मत कर उसे तरोताजा कर दिया था।

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

नहीं सुन पाए राकेश मूथा की कविता

द्यान में मेरे पास ही बैठे संजय व्यास ने मुझे प्रभावित किया। एक दम सौम्य मूर्ति दिखाई पड़ रहे थे वे। वे पूरी बैठक में कम बोले लेकिन जितना बोले बहुत संजीदा। मैं ने उन्हें अब तक बिलकुल नहीं पढ़ा था। इस कारण उन के लिए बहुत असहज भी था। बाद में जब कोटा आ कर उन का ब्लाग 'संजय व्यास' खोल कर पढ़ा तो उन के गद्य से प्रभावित हुए बिना न रहा। उन की शैली अनुपम है और एक बार में ही पाठक को अपना बना लेती है। उन को बिलकुल वैसा ही पाया जैसे वे अपने ब्लाग पर रचनाओं से जाने जाते हैं। ब्लागीरी उन के लिए अभिव्यक्ति का बिलकुल स्वतंत्र माध्यम है जहाँ वे अपना श्रेष्ठतम व्यक्त कर सकते हैं, जो वे करते भी हैं। 
मेरी दूसरी ओर राकेश मूथा थे। वे राह से ही हमारे साथ थे। कुछ बातचीत भी उन से हुई थी। पेशे से इंजिनियर मूथा जी देखने से ही कलाप्रेमी दिखाई देते हैं। वे वर्षों से नाटकों से जुड़े हैं और अभी भी सक्रिय हैं। उन्हों ने अपने ब्लाग सीप का सपना पर अपनी कविताएँ ही प्रस्तुत की हैं। इसी नाम से उन का काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। वे अपनी डायरी साथ ले कर आए थे और कुछ कविताएँ सुनाना चाहते थे। हम भी इस बैठक को कवितामय देखना चाहते थे। उन्हों ने अपनी डायरी पलटना आरंभ किया। उन की इच्छा थी कि वे चुनिंदा रचना सुनाएँ। मैं ने आग्रह किया कि वे कहीं से भी आरंभ कर दें। मुझे अनुमान था कि हरि शर्मा जी के उन की माता जी को अस्पताल ले जाने के लिए समय नजदीक आ रहा था। तभी भाभी का फोन आ गया। हरिशर्मा जी ने उत्तर दिया कि मैं अभी पहुँच ही रहा हूँ। अब रुकना संभव नहीं था। समय को देखते हुए मूथा जी ने अपनी डायरी बंद कर दी। हम उन के रचना पाठ से वंचित हो गए।
ब बाहर आ गए। मूथा जी को हरिशर्मा जी के साथ ही जाना था। हम सब ने उन दोनों को विदा किया। जाते-जाते मूथा जी को मैं ने अवश्य कहा कि मैं उन की रचनाओं से वंचित हो गया हूँ, लेकिन अगली जोधपुर यात्रा में अवश्य ही उन की रचनाएँ सुनूंगा, चाहे इस के लिए उन के घर ही क्यों न जाना पड़े। अब हम चार रह गए थे। मैं ने साथ बैठ कर कॉफी पीने का प्रस्ताव रखा, जो तुरंत ही स्वीकार कर लिया गया। हम चारों पास के ही एक रेस्टोरेंट में जा कर बैठे। कॉफी आती तब तक बतियाते रहे। शोभना का कहना था कि उन के ब्लाग पर टिप्पणियाँ बहुत मिलती हैं। इस तरह की भी कि वे एक लड़की हैं इस कारण से उन्हें अधिक टिप्पणियाँ मिलती हैं। यह बात सच भी है और इसे वे जानती भी हैं। कई बार तो अतिशय प्रशंसा भी मिलती है। जब कि वे जानती हैं कि पोस्ट उस के योग्य नहीं थी। इन्हीं बातों को लेकर उन का ब्लागीरी से मन उखड़ गया था। उन्हों ने उसे अलविदा भी कह दिया। उन्हें पता नहीं था कि इस घटना को हिन्दी ब्लागीरी में टंकी पर चढना कहते हैं। लेकिन अनेक ब्लागीरों ने उन का साहस बढ़ाया और वे टंकी से उतर पाने में सफल हो गई। आते-आते भी वे कह रही थीं - अंकल मैं टंकी से उतर आई हूँ, और अब दुबारा नहीं चढ़ने वाली। 
रेस्टोरेंट की कॉफी आई तो प्याला अच्छा खासा बड़ा था, कॉफी स्वादिष्ट भी और दर भी बिलकुल माकूल थी, सिर्फ दस रुपए। रेस्टोरेंट के बाहर आ कर हमने अपनी अपनी राह पकड़ी, इस आशा के साथ कि फिर दुबारा मिलेंगे और तब जोधपुर के और ब्लागीर भी साथ होंगे। काफिला बढ़ेगा ही घटेगा नहीं। संजय व्यास ने मुझे होटल के नजदीक छोड़ा। मुझे कुछ मित्रों से और मिलना था। उन से मिल कर मैं होटल पहुँचा। थकान जोर मार रही थी। होटल पहुँच कर मोबाइल पर अलार्म लगा कर आराम किया। अलार्म बजा तो उठने की इच्छा न थी, पर वापसी के लिए बस भी पकड़नी थी। शाम का भोजन होटल में ही कर बस पर पहुँचा तो बस के आने में समय था। मैं ने यह समय ब्लागरों से फोन पर बात करने में बिताया। हरिशर्मा जी की माताजी की आँख का ऑपरेशन हो चुका था। वे वापस घर पहुँच गई थीं। शोभना ब्लागर मिलन से अच्छा महसूस कर रही थीं। मूथा जी उलाहना दे रहे थे कि मैं ने होटल में भोजन क्यों किया, उन के घर क्यों नहीं गया? संजय व्यास से बात करता इतने बस लग गई। उन्हें फोन कर ही न सका। कोटा पहुँचने के बाद इतना व्यस्त रहा कि आज तक उन से बात न हो सकी।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

ताज़गी और बदलाव के लिए ब्लागीरी

शोक उद्यान में हरी दूब के मैदान बहुत आकर्षक थे। हमने दूब पर बैठना तय किया। ऐसा स्थान तलाशा गया जहाँ कम से कम एक-दो दिन से पानी न दिया गया हो और दूब के नीचे की मिट्टी सूखी हो। हम बैठे ही थे कि हरि शर्मा जी के मोबाइल की घंटी बज उठी। दूसरी तरफ कुश थे। वे उद्यान तक पहुँच चुके थे और पूछ रहे थे कि हम कहाँ हैं।  सूचना मिलते ही हमारी निगाहें प्रवेश द्वार की ओर उठीं तो कुश दिखाई दे गए। हम लोगों ने हाथ हिलाया तो उन्हों ने भी स्थान देख लिया। कुछ ही क्षणों में वे हमारे पास थे। सभी ने उठ कर उन का स्वागत किया। उम्र भले ही मेरी अधिक रही हो लेकिन कुश ब्लागीरी में मुझ से वरिष्ठ हैं, और उन्हें यह सम्मान मिलना ही चाहिए था। 
ब ने अपना परिचय दिया जो मुझ से ही आरंभ हुआ, और उस के बाद ब्लागीरी की अनौपचारिक बातें चल पड़ी। सब ने अपने अनुभवों को बांटा। कुश और मेरे सिवा जोधपुर के कुल चार ब्लागीर वहाँ थे। सभी ने तकनीकी समस्याओं का उल्लेख किया। यह एक वास्तविकता है कि हिन्दी ब्लागीरी में कदम रखना बहुत आसान है लेकिन जैसे-जैसे ब्लागीरी आगे बढ़ती है तकनीकी समस्याएँ आने लगती हैं। लेकिन यदि ब्लागीर में उन से पार पाने की इच्छा हो तो वह हल भी होती जाती हैं।  हिन्दी ब्लागीरी में इस तरह का माहौल है कि लोग समस्याओं को हल करने के लिए तत्पर रहते हैं। अवश्य ही कुश को ऐसी समस्याओं से कम पाला पड़ा होगा आखिर वे वेब डिजाइनिंग का काम करते हैं। तो पहले से उन की जानकारियाँ बहुत रही होंगी और नहीं भी रही होंगी तो उन पर पार पाने का तो उन का पेशा ही रहा है।
फिटिप्पणियों पर बात होने लगी। सब ने कहा कि वे टिप्पणी करने में बहुत अधिक समय जाया नहीं करते। उस का कारण भी है कि वे सभी अपने जीवन में व्यस्त व्यक्ति हैं। शोभना भौतिकी के किसी विषय पर शोधार्थी हैं और उन के दिन का अधिकांश समय शोध के लिए प्रयोग करने में प्रयोगशाला में व्यतीत होता है। सभी ने उन के शोध के बारे में जानना चाहा। उन्हों ने बताया भी लेकिन हम कुछ समझे, कुछ नहीं समझे। मैं ने कहा कि जिस क्षेत्र में वे शोध कर रही हैं उस के बारे में भी अपने ब्लाग पर लिखा करें, हम समझ तो सकेंगे कि आखिर समाज में किसी ब्लागीर के काम का क्या योगदान है और किस किस तरह के  लोग ब्लागीरी में आ रहे हैं?  मैं ने शोभना से उन की आयु पूछी थी, उन्हों ने 24 वर्ष बताई तो मैं ने कहा -मेरी बेटी उन से दो बरस बड़ी है। मुझे इस का लाभ यह हुआ कि मैं तुरंत अंकल हो गया। हालांकि इस लाभ का मिलना उस वक्त ही आरंभ हो गया था जब खोपड़ी की फसल आधी रह चुकी थी और जो शेष थी वह सफेद हो रही थी। 
शोभना कहने लगीं -अंकल! मैं दिन भर प्रयोगशाला में सर खपा कर घर लौटती हूँ और ताज़गी और बदलाव के लिए ब्लाग जगत में जाती हूँ, अगर मैं वहाँ भी वही लिखने लगी तो मेरी खोपड़ी का क्या होगा। उन की बात बिलकुल सही थी। मैं ने फिर भी कहा-कभी कभी अपने काम के बारे में बात करना अच्छा होता है। कम से कम ब्लाग पाठक जानेंगे तो कि उन का ब्लागीर क्या कर रहा है? और यह भी हो सकता है कि किसी पाठक की टिप्पणी ब्लागीर को उस के काम के लिए प्रेरित और उत्साहित करे। शोभना वास्तव में बहुत प्रतिभावान हैं। इस छोटी उम्र में जो उपलब्धियाँ उन्होंने हासिल की हैं उन के लिए मेरे जैसा पचपन में प्रवेश कर चुका व्यक्ति सिर्फ ईर्ष्या कर सकता है। हाँ साथ ही गर्व भी कि बेटियाँ अब उपलब्धियाँ हासिल कर रही हैं।
स बीच हरिशर्मा जी बताने लगे कि वे दस बरस से इंटरनेट पर चैटिया रहे हैं। यदि वे इस के स्थान पर ब्लाग लिख रहे होते तो उन का योगदान न जाने कितना होता। उन की बात भी सही थी। जब मैं ने चैट करना जाना तो मैं भी उस में फँस गया था। बहुत सा समय उस में जाया होता था। हालांकि मैं आगे से कभी चैटियाना आरंभ नहीं करता था। इस बीच मैं ने बताया कि नारी ब्लाग की मोडरेटर रचना जी दिन में चार-पांच बार चैट पर आ जाती थीं। मैं अपने स्वभाव के अनुसार उन्हें मना नहीं कर सकता था। एक दिन उन्हों ने किसी ब्लाग  पर की गई उन की टिप्पणियों के बारे में मेरी राय मांगी।  मेरे मन में रचना जी का सम्मान इस कारण से बहुत बढ़ गया था कि वे नारी अधिकारों और उन की समाज में बराबरी के लिए लगातार लिखती हैं और अन्य नारियों को लिखने को प्रेरित करती हैं। उन की भूमिका एक तरह से ब्लाग जगत में नारियों के पथप्रदर्शक जैसी थी।   मैं उन के बताए ब्लाग पर गया। उन की टिप्पणियों को पढ़ कर मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ। मैं ने उन को प्रतिक्रिया दी कि वह एक भद्दी बकवास है। बस, वे बहस कर ने लगी कि वह भद्दा कैसे है? और भद्दा का क्या अर्थ होता है। अंततः उन्हों ने कह दिया कि वे आज के बाद मुझ से चैट नहीं करेंगी। मुझे इस में क्या आपत्ति हो सकती थी? मेरी इस बात पर कुश ने कहा कि रचना का स्टेंड बहुत मजबूत और संघर्ष समझौता विहीन होता है। इस से उन का एक विशिष्ठ चरित्र बना है। मैंने कुश की इस बात  पर सहमति  जाहिर की। (जारी) 

विशेष-चैट की चर्चा चलने पर रचना जी के बारे में अनायास हुई इस बात को हरि शर्मा जी ने जोधपुर ब्लागर मिलन की रिपोर्ट में रचना जी के नाम का उपयोग किए बिना लिखा। इस पर स्वयं रचना जी ने इस पर आकर टिप्पणी भी की। लेकिन जब कुछ अनाम टिप्पणियाँ आने लगी तो हरिशर्मा जी ने उन्हें मोडरेट कर दिया। रचना जी ने नारी ब्लाग पर मेरे और उन के बीच हुए चैट के एक भाग को उजागर कर दिया। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं। मैं आज भी रचना जी द्वारा मांगी गई राय पर की गई मेरी प्रतिक्रिया पर स्थिर हूँ। मैं ने जो महसूस किया वह प्रकट किया। उस के लिए मेरे पास अपने कारण हैं। उन्हें किसी और पोस्ट में व्यक्त करूंगा। फिलहाल जोधपुर मिलन की रिपोर्ट जारी रहेगी।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

शर्मा जी के घर रुचिकर स्वादिष्ट भोजन

जोधपुर की यह यात्रा पहली नहीं थी। मेरी बुआ यहाँ रहती थी, फूफाजी विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर थे। उन की बेटियों के ब्याह में कोई पेंतीस बरस पहले यहाँ आना हुआ था। यहाँ पहुँचने के पहले मार्ग में ही एक दुर्घटना में पिताजी को चोट लगी और उनका तत्काल ऑपरेशन हुआ दो सप्ताह बाद पुनः ऑपरेशन हुआ। हमें इतने दिन यहीँ रुकना पड़ा। तब कोई काम नहीं था। गर्मी का मौसम था तो दुपहर बाद सायकिल ले कर निकल पड़ता। इस तरह जोधपुर से पहला परिचय ही गहरा था। फिर कुछ बरस पहले यहाँ वकालत के सिलसिले में आना जाना आरंभ हुआ और अब बार कौंसिल की अनुशासनिक समिति के सदस्य के नाते यहाँ निरंतर आना जाना हो रहा है। ऐसे में यह तो नहीं हो सकता था कि जोधपुर के ब्लागीरों से मिलना न होता। पिछली बार हरि शर्मा जी से भेंट हुई, इस बार उन्होंने एक संक्षिप्त ब्लागीर मिलन की योजना को ही कार्यरूप दे डाला।
मैं ने बार कौंसिल के दफ्तर पहुँचा तो रविवार के अवकाश के कारण वहाँ केवल दो कार्यालय सहायक ही उपस्थित थे। वे भी केवल उस दिन होने वाली सुनवाई के लिए। शिकायत कर्ता अपने साक्षियों के साथ उपस्थित थी। मैं ने कार्यवाही आरंभ होने के पहले ही बता दिया कि हरिशर्मा जी आएँगे। यदि वे कार्यवाही समाप्त होने के पहले आ जाएँ तो उन्हें बैठने को कह दिया जाए। कार्यवाही पूर्ण होने के पहले ही सूचना मिल गई कि वे आ चुके हैं। मैं उस दिन की कार्यवाही पूरी कर उन के पास पहुँचा और हम तुरंत ही उन के घर के लिए चल दिए। ब्लागीर मिलन अशोक उद्यान में रखा गया था। डेढ़ बजे तक वहाँ पहुँचना था। वहाँ सब से पहले शर्मा जी की स्नेहमयी माताजी से भेंट हुई। कुछ माह पहले उन की एक आँख के मोतियाबिंद का ऑपरेशन हो चुका था। और उसी दिन शाम को दूसरी का होने वाला था। जिस के लिए उन्हें चार बजे अस्पताल ले जाया जाना था। यह दायित्व भी हरि शर्मा जी का था। 
में ब्लागीर मिलन में जाने की जल्दी थी। भाभी जी (श्रीमती शर्मा) ने तुरंत भोजन लगा दिया। मैं चकित था। थाली में कम से कम छह कटोरियाँ विराजमान थीं। उन्हें पास में चावल थे। मेरी तो भूख ही देखते ही काफूर हो गई। ऐसा पता होता तो मैं सुबह के पराठे में खर्च किया धन अवश्य बचा लेता। खैर मैं ने तय किया कि चपाती और चावल का न्यूनतम उपयोग कर कटोरियाँ खाली कर दी जाएँ। मैं तेजी से इस काम को करने में सफल रहा। मैं ने बताया कि मैं इस काम में उतना सिद्ध-हस्त नहीं जितना मेरे पिताजी थे। उन के भोजन के बाद थाली और कटोरियाँ ऐसी दिखती थीं कि यदि यह पता न हो कि उन में भोजन किया गया है तो उन्हें धुले हुए बर्तनों के साथ जमा दे। भोजन बहुत रुचिकर, स्वादिष्ट, सादा, राजस्थानी मिजाज का और बिलकुल घरेलू था। ऐसा कि किसी भी जोधपुर यात्रा के समय भाभी जी को अचानक कष्ट देने लायक। हम शीघ्रता से वहाँ से ब्लागर मिलन के लिए निकले। भाभी ने शर्मा जी से कहा कि यदि उन्हें वापस लौटने में देर हो तो वे माताजी को समय पर ले कर निकल लेंगी। लेकिन शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे समय से पहुँच जाएंगे। 
म वहाँ से निकलते इस से पहले ही ब्लागीरों के फोन आने लगे। शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे कुछ ही देर में पहुँच रहे हैं। पहले आने वाले रुके रहें। मार्ग में एक अधेड़ उम्र के संजीदा दिखने वाले सज्जन वाहन में सवार हुए। शर्मा जी ने परिचय दिया कि वे राकेशनाथ जी मूथा हैं, कवि हैं, एक संग्रह प्रकाशित हो चुका है और अपने ब्लाग पर केवल कविताएँ लिखते हैं। कुछ ही देर में हम उद्यान के बाहर थे। बाहर बोर्ड लगा था "सम्राट अशोक उद्यान"। शर्मा जी ने बताया कि पिछली भाजपा सरकार ने यह बोर्ड लगवा दिया। इस लिए कि कहीं यह "अशोक  गहलोत उद्यान "  न हो जाए। हम अंदर पहुचे तो वहाँ संजय व्यास और शोभना चौधरी मौजूद थीं।   

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

कहीं सर्दी कहीं वसंत

निवार को जोधपुर यात्रा के पहले की व्यस्तता का उल्लेख मैं ने पिछली पोस्ट में किया था। वह पोस्ट लिखने के उपरांत भी व्यस्तता जारी रही। यहाँ तक कि सोमवार को वापस कोटा पहुँचने के बाद भी  व्यस्तता के कारण यहाँ कोई पोस्ट नहीं लिख सका।  शनिवार को जोधपुर के लिए निकलने के पहले जल्दी से भोजन निपटाया और कॉफी पी। जल्दी से बस पकड़ने के लिए रिक्षा पकड़ा। बस जाने को तैयार खड़ी थी। अपने स्लीपर में घुस कर बाहर पैर लटका कर बैठा तो तेज शीत के बावजूद पसीना निकल रहा था। यह तीव्र गति से की गई भागदौड़ का नतीजा था। मैं कुछ देर वैसे ही बैठा रहा। पसीना सूखने के बाद जब कुछ ठंडी महसूस होने लगी तो स्लीपर में लेट गया तब तक बस कोटा नगर की सीमा से बाहर आ चुकी थी। बूंदी निकलने के बाद एक जगह बस रुकी। तब तक मुझे नींद नहीं आई थी। मैं ने लघुशंका से निवृत्त होने का अच्छा अवसर जान कर बस से नीचे उतरा। वहाँ बस के लगेज स्पेस में जोधपुर भेजे जाने के लिए ताजी कच्ची हल्दी के बोरे लादे जा रहे थे। लदान में करीब पंद्रह मिनट लगे। लेकिन वहाँ शीत महसूस नहीं हुई। पूरी तरह वासंती मौसम था। बस ने हॉर्न दिया तो फिर से बस में चढ़ कर स्लीपर में घुस लिया। इस बार नींद आ गई।
फिर बस के रुकने और अंदर के यात्रियों की हल चल से नींद खुली। बस किसी हाई-वे रेस्टोरेंट के बाहर खड़ी थी। सवारियाँ नीचे उतरने लगीं। मैं भी उतर लिया। मेरे लिए यह नया स्थान था। पता करने पर जानकारी मिली कि यह स्थान नसीराबाद से कोई बीस किलोमीटर पहले है। बहुत से ट्रक और दो बसें और खड़ी थीं। कुछ लोग चाय पी रहे थे। कुछ चाय बनने के इंतजार में थे। प्लास्टिक के बने कथित डिस्पोजेबल  लेकिन चरित्र में कतई अनडिसपोजेबल  गिलासों में चाय एक काउंटर से टोकन ले कर वितरित की जा रही थी। टोकन एक दुकान से पांच रुपए की एक चाय की दर से दिए जा रहे थे, वहाँ स्नेक्स उपलब्ध थे।  मैं ने कॉफी के टोकन के लिए पचास का नोट दिया तो ने पंद्रह रुपए काट लिए। मुझे यह कीमत बहुत अधिक लगी। मैं ने उस से पूछ लिया -ऐसा क्या है कॉफी में? उस ने कहा शुद्ध दूध में बनाएँगे। मुझे फिर  भी सौदा महंगा लगा। मैं ने टोकन लौटा कर पैसे वापस ले लिए। चाय पीना तो अठारह बरस पहले छोड़ चुका हूँ। फिर यह कॉफी पीने लगा। कुछ महंगी होती है लेकिन कम पीने में आती है। मैं सोचने लगा रात को एक बजे जब वापस बस में जा कर सोना ही है तो कॉफी क्यों पी जाए, वह भी इतनी महंगी। कोटा में हमें उतनी कॉफी के लिए मात्र चार या पांच रुपए  देने होते हैं।  ड्राइवर और बस स्टाफ एक केबिन में बैठे भोजन कर रहे थे। बस करीब तीस-पैंतीस मिनट वहाँ रुकने के बाद फिर चल पड़ी। इस स्थान पर भी शीत महसूस नहीं हुई। 
जोधपुर पहुँचने के पहले बस बिलाड़ा में रुकी। वहाँ भी शीत नहीं थी। जोधपुर में जैसे ही बस से उतरे शीत महसूस हुई। अजीब बात थी। कोटा में सर्दी थी और जोधपुर में भी लेकिन बीच में कहीं सर्दी महसूस नहीं हुई। बस में नींद ठीक से नहीं निकली थी। होटल जा कर कुछ देर आराम किया। फिर कॉफी मंगा कर पी और स्नानादि से निवृत्त हो कर होटल से निकलने को था कि बेयरे ने आकर बताया कि आप नाश्ता ले सकते हैं। मैं ने उसे एक पराठा लाने को कहा। तभी हरि शर्मा जी का फोन आ गया। कहने लगे ब्लागर बैठक अशोक उद्यान में रखी है। अधिक नहीं बस चार पाँच लोग होंगे।  वे बारह के लगभग मुझे लेने बार कौंसिल के ऑफिस पहुँचेंगे। मैं नाश्ता कर मौसम में ठंडक देख शर्ट पर एक जाकिट पहनी और बार कौंसिल के कार्यालय के लिए निकल लिया।

बार कौंसिल कार्यालय जोधपुर

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

यात्रा के पहले काम का एक दिन

सुबह शेव बना कर दफ्तर में आ बैठा था। सुबह से कोहरा और बादल थे तो रोशनी की कमी ने दुपहर चढ़ने का अहसास ही समाप्त कर दिया। काम और आगंतुकों में ऐसा फँसा कि 12 बजे के पहले उठ नहीं सका। आगंतुकों के उठते ही ने उलाहना दिया -आज नहीं नहाना क्या?  मैं तुरंत उठ कर अंदर गया तो देखा भोजन तैयार है। पर स्नान बिना तो भूख दरवाजे के बाहर खड़ी रहती है। शोभा ठहरी शिव-भक्त दो दिन की उपवासी। मैं तुरंत स्नानघर में घुस लिया। बाहर निकला तब तक उपवासी उपवास खोल चुकी थी। 
आज शाम जोधपुर निकलना है। सोमवार की सुबह ही वापस लौटूंगा। उस दिन का अदालत के काम की आज ही तैयारी जरूरी थी, तो भोजन के बाद भी बैठना पड़ा। एक बजे फिर मकान का मौका देखने के लिए एक सेवार्थी का संदेश आया। थका होने से उसे तीन बजे आने को कहा और मैं काम निपटा कर कुछ देर विश्राम के लिए रजाईशरणम् हुआ।
ह साढ़े तीन बजे आया। कोहरा छंट चुका था, धूप निकल आई थी। लेकिन हवा में नमी और ठंडक मौजूद थी। फरवरी के मध्य़ में बरसों बाद ऐसा सुहाना मौसम दीख पड़ा। सेवार्थी का घर नदी पार था। चंबल बैराज पर बांध के सहारे बने पुल पर हो कर गुजरना पडा। बांध के पास बहुत लोग प्रकृति और बांध की विपुल जलराशि का नजारा लेने एकत्र थे और कबूतरों को दाना डाल रहे थे। सैंकड़ों कबूतर दाने चुग रहे थे। सैंकड़ों इंतजार में थे। मौका देख कर वापस लौटा तो फिर से काम निपटाने बैठ गया। प्रिंट निकालते समय लगा कि  इंक-जेट कार्ट्रिज में स्याही रीतने वाली है। तुरंत उसे भरने की व्यवस्था की गई। सूख जाने पर कार्ट्रिज खराब होने का अंदेशा जो रहता है। सिरींज में स्याही जमी थी। शोभा ने प्रस्ताव किया कि सिरींज वह ला देगी। वह चार रुपए की नई कुछ बड़ी सिरिंज तीन मिनट में केमिस्ट से ले आई। हमने स्याही भर कर दुबारा प्रिंट निकाल कर देखा ठीक आ रहा था। काम की जाँच की। अब सोमवार को सुबह कोटा पहुँचने पर अदालती काम ठीक से करने लायक स्थिति है और दफ्तर से उठ रहा हूँ।
ल जोधपुर में काम से निपटते ही हरि शर्मा जी को फोन करना है। उन्हों ने वहाँ एक छोटा ब्लागर मिलन रखा है। तीसरे पहर तक उस से निपट कर कुछ और लोगों से मिलना हो सकेगा। देखते हैं जोधपुर की इस यात्रा में क्या नया मिलता है? कल ब्लागीरी से अवकाश रहेगा।

रविवार, 31 जनवरी 2010

हरि शर्मा जी से एक मुलाकात

क दिन की जोधपुर यात्रा से आज सुबह लौटा हूँ और अब फिर से सामान तैयार हैं शोभा सहित रवाना हो रहा हूँ, फरीदाबाद के लिए। उसे बेटी के पास छोड़ मैं निकल लूंगा दिल्ली। वहाँ राज भाटिया जी से भेंट होना निश्चित है। और किस किस के साथ भेंट हो सकेगी यह तो यह तो वहाँ की परिस्थितियों पर ही निर्भर करेगा।
क दिन की यह जोधपुर यात्रा बार कौंसिल राजस्थान की अनुशासनिक समिति की बैठक के सिलसिले में हुई। इस के अलावा मुझे एक दावत में भी शिरकत करने का अवसर मिला जिस में कानूनी क्षेत्र के बहुत से लोग सम्मिलित थे। लेकिन उस का उल्लेख फिर कभी। 
कोटा से निकलने के पहले जोधपुर के ब्लागर श्री हरि शर्मा का मेल मिला था। मेरे पास समय था। मैं ने काम से निपटते ही उन्हे फोन किया तो पता लगा कि रात को एक दुर्घटना में उन्हें चोट पहुँची है और कार को भी हानि हुई है। उन के सर में एक टांका भी लगा है। पूछने पर पता लगा कि वे अपनी ड्यूटी पर बैंक में उपस्थित हैं। उन का बैंक नजदीक ही था मैं पैदल ही उन से मिलने चल दिया। रास्ते में अटका तो वे खुद लेने आ गए। हरि शर्मा जी के साथ करीब एक घंटा बिताया। वे बात करते हुए भी लगातार अपना बैंक का काम निपटाते रहे। उसी बीच अविनाश वाचस्पति जी से भी बात हुई। हरि शर्मा जी से मिल कर अच्छा लगा।  मैं ने उन्हें बताया कि मुझे तो अब जोधपुर निरंतर आना पड़ेगा। तो कहने लगे कि अब की बार जब भी समय होगा कोई ऐसा कार्यक्रम बना लेंगे जिस से अधिक ब्लागीर एक साथ मिल सकें। हम ब्लागीरों को इस काम में अपना समय लगाने को व्यर्थ समझने वाले लोगों के लिए आभासी संबंधों वाले लोगों को वास्तविकता के धरातल पर एक साथ देखना एक विचित्र अनुभव हो सकता है।

गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

मेट्रो, पराठा-गली, शीशगंज गुरुद्वारा और लाल-किला

      मेट्रो में यात्री पीछे खिड़की में एक 
यात्री, मेरी  और पूर्वा  की प्रतिच्छाया


सीट  पर बैठी  बंगाली युवती की मेरी  तरफ  पीठ थी  लेकिन जो लड़का  उस से बात  करने में मशगूल था  उस का चेहरा  मेरी  तरफ  था। वे दोनों  मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली आदि  नगरों  की बातें  करते हुए कलकत्ता की उन से तुलना  कर रहे थे। मुद्दा  था नगरों  की  सफाई। युवक कुछ ही देर  में  समझ  गया कि मैं उन की बातों में रुचि ले रहा हूँ। यकायक उसे अहसास हुआ  कि उन की उन की भाषाई गोपनीयता  टूट  रही  है। उन की  किसी बात पर मुझे  हँसी आ गई। तभी  युवक ने  मुझ से पूछ ही लिया - आप को बांग्ला आती  है? -नहीं आती। पर ऐसा भी नहीं कि बिलकुल ही नहीं आती, कुछ तो समझ ही सकता हूँ।  धीरे-धीरे वह युवक मुझ से बतियाने  लगा। मैं ने उसे बताया कि कलकत्ता  भले ही आज बंगाली संस्कृति  का केन्द्र बना हो।  पर उसे बसाने वाले  अंग्रेज ही थे। इसी बातचीत में लोकल  नई दिल्ली पहुँच गई। मैं उतरा  और  पूर्वा  और शोभा को देखने  लगा। वह जल्दी  ही दिखाई दे गई।
शीशगंज गुरुद्वारा

म पुल पार  कर स्टेशन से बाहर निकले। सामने ही मेट्रो स्टेशन में उतरने के लिए द्वार था। हम उस में घुस लिए। शोभा पहली बार  दिल्ली आई  थी। हमने  मेट्रो स्टेशन पर  मेट्रो का मानचित्र दिखाने वाले तीन पर्चे  उठाए, एक-एक तीनों  के लिए। गंतव्य तलाश करने लगे। कुछ महिलाएँ  अलग लाइन लगाए हुए थीं। पूर्वा  उधर ही बढ़ी। कुछ ही सैकंड में  वापस आ कर कॉमन लाइन में  लग  गई।  उस ने बताया कि टोकन  के  लिए महिलाओं  की  अलग लाइन नहीं है। मुझे  प्रसन्नता हुई कि  मेट्रो में तो कम  से कम स्त्री -पुरुष भेद समाप्त  हुआ। वह कुछ ही देर  में टोकन लाई और एक-एक हम दोनों  को  दे दिए। अब हमें  सीक्योरिटी  गेट  से अंदर जाना था। मेरा  स्त्री -पुरुष समानता का भ्रम यहाँ टूट  गया। यहाँ फिर स्त्री -पुरुषों के  लिए अलग-अलग गेट  थे। पूर्वा और शोभा जल्दी ही अंदर  पहुँच गईं।  पुरुषों की  पंक्ति स्त्रियों से कम से कम आठ  गुना अधिक थी। मुझे अंदर पहुंचने  में  तीन-चार मिनट  अधिक लगे।
जैन मंदिर चांदनी चौक

मारा  पहला  गंतव्य पहले से तय था। डेढ़  बज  रहे थे और हमें लंच करना था। चांदनी चौक पहुँच कर सीधे पराठे वाली गली जाना  था और पराठे चेपने  थे। एक  ही  स्टेशन बीच  में पड़ता  था। यह  मेट्रो की  ही  मेहरबानी थी कि हम मिनटों में चांदनीचौक में थे। शीशगंज  गुरुद्वारा से आगे ट्रेफिक रोका  हुआ था।  किसी वाहन  को अंदर  नहीं जाने दिया जा रहा  था। सड़क पर  वाहन न होने से वह  बहुत  खुली-खुली लग रही थी। लोग  बेरोक-टोक  सड़क पर चल रहे थे। मुझे लगा कि जब दिल्ली  में स्वचलित  वाहन नहीं रहे होंगे  तब चांदनीचौक  कितना  खूबसूरत होता  होगा। हम  पराठा गली में पहुँचे  तो दुकानों  में  बहुत भीड़  थी। सब  से पुरानी  दुकान  पर जी टीवी वाले किसी कार्यक्रम  की शूटिंग  कर  रहे थे।  मुझे  तुरंत खुशदीप  जी का स्मरण हुआ। हो  सकता है इस कार्यक्रम का निर्माण वही करा रहे हों। खैर, हमें  जल्दी ही  वहाँ जगह  मिल गई। हमने एक-एक परत  पराठा और  एक-एक मैथी का  पराठा खाया और एक लस्सी पी। आठ-दस वर्ष पहले पराठों में  जो  स्वाद  आया था  अब वह नहीं  था।  लगता  था  जैसे अब ये दुकानें केवल  टीवी से मिले प्रचार को भुना  रही हैं। भोजन  के उपरांत वहीं  गली  में एक-पान  खाया और हम गली से बाहर  आए।
लाल किला


ल्लभगढ़  से रवाना  होने  के पहले पूर्वा ने कहा था, हम  गुरुद्वारा  जरूर चलेंगे, वह  मुझे अच्छा लगता  है। वहाँ सब कुछ  बहुत  स्वच्छ  और शांत  होता  है। लेकिन शीशगंज गुरुद्वारा  में अंदर जाने  के लिए लोगों  की  संख्या  को देख उस का इरादा  बदल गया और हम आगे बढ़  गए। मैं ने गुरुद्वारा के  कुछ चित्र अवश्य वहीं सामने के  फुटपाथ पर  खड़े हो  कर लिए।  हमने  नीचे भूतल  पर बनी सुरंग  से सड़क  पार  की और निकले  ठीक लाल किला के सामने। वहाँ द्वार  बंद था। बोर्ड  पर लिखा था। किला सोमवार के अलावा  पूरे  सप्ताह देखा  जा सकता  है। हमारी बदकिस्मती  थी कि हम वहाँ सोमवार  को ही पहुँचे थे।  हम ने बाहर गेट  से ही किले  के चित्र  लिए और वापस मेट्रो  स्टेशन की  ओर चल दिए।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

छुट्टियों का एक दिन ..... दिल्ली की ओर ........

दिसंबर 26, 2009 को इस ब्लाग पर आलेख लिखा था अब हुई छुट्टियाँ शुरू, और दिसंबर 27 को अली भाई की मजेदार टिप्पणी मिली .......

वकालत व्यवसाय है ...लत नहीं...सो छुट्टी मुमकिन है...पर ब्लागिंग लत है...व्यवसाय नहीं...कभी छुट्टी लेकर बताइये !
हाहाहा !




इंडिया  गेट  के सामने  खिले फूल
त ही सही, पड़ गई सो पड़ गई। और  भी कई लतें हैं जो छूटती नहीं। पर  उन का उल्लेख फिर कभी, अभी बात छुट्टियों की। दिसंबर 27 को दी इतवार (दीतवार) था। बेटी पूर्वा का अवकाश। सुबह का स्नान, नाश्ता वगैरह करते-करते इतना समय हो गया कि कहीं बाहर जाना मुमकिन नहीं था।  दिन में कुछ देर आराम किया फिर शाम को  बाजार जाना हुआ। पूर्वा को घर का सामान खरीदना था। जाते समय  तीनों पैदल गए। बाजार में सामान लेने के साथ एक-एक समोसा  खाया गया। वापस आते वक्त सामान होने के कारण दोनों माँ-बेटी को  रिक्शे पर रवाना कर  दिया । मैं पैदल  चला। रास्ते में पान की गुमटी मिली तो पान खाया, लेकिन वह मन के मुताबिक न था। पान वाले से बात भी की। वह कह रहा था। पान का धंधा हम पान वालों ने ही बरबाद कर दिया है। हम ही लोगों ने पहले गुटखे बनाए। लोगों को अच्छे  लगे तो पूंजी  वाले उसे ले  उड़े। उन्हों ने पाउचों में उन्हें भर दिया। खूब विज्ञापन  किया। अब गुटखे के ग्राहक हैं, पान के नहीं, तो पान कैसे मजेदार बने?  बड़े चौराहों पर जहाँ पान के दो-तीन सौ ग्राहक दिन में हैं, वहाँ अब भी पान मिलता है, ढंग  का। खैर उस की तकरीर सुन हम वापस लौट लिए।  शाम फिर बातें करते बीती। भोजन कर फिर एक बार पैदल निकले  पान की तलाश में इस बार भी जो गुमटी मिली वहाँ फिर दिन वाला किस्सा था। सोचता रहा कहीँ ऐसा न हो कि किसी जमाने में पान गायब ही हो ले। पर जब मैं मध्यप्रदेश और राजस्थान के अपने हाड़ौती अंचल के बारे में सोचता हूँ तो लगता है यह सब होने में सदी तो  जरूर ही  लग जाएगी।  हो सकता है तब तक लोगों  की गुटखे  की लत  वापस  पान पर लौट  आए।
स दिन कुछ और न लिखा गया। हाँ, शिवराम जी की एक कविता जरूर आप लोगों तक पहुँचाई। वह भी देर रात को। इच्छा तो यह भी थी कि तीसरा खंबा पर भारत का  विधि इतिहास की अगली  कड़ी लिख कर ही खुद को  रजाई के हवाले किया जाए। पर बत्ती जल रही थी। पूर्वा और उस की प्यारी  माँ  सो  चुकी थीं। मुझे लगा बत्ती उन की नींद में खलल डाल सकती है। देर रात तक जागने का सबब यह भी हो सकता है कि सुबह देर तक नींद न खुले। अगले दिन पूर्वा का अवकाश का  दिन था। हो सकता है वह सुबह सुबह कह दे कि कहीं घूमने चलना है, और मैं देर से नींद खुलने के कारण तैयार ही न हो सकूँ। आखिर मैं ने भी बत्ती बंद कर दी और रजाई की  शरण ली।
सुबह तब हुई, जब शोभा ने कॉफी की प्याली बिस्तर पर ही थमाई। कोटा में यह सौभाग्य शायद ही कभी मिलता हो।  मैं ने भी उसे पूरा सम्मान दिया।  बिना बिस्तर से नीचे उतरे पास रखी  बोतल से दो घूंट पानी गटका और कॉफी पर पिल  पड़ा।  हमेशा कब्ज की आशंका से त्रस्त आदमी के लिए यह खुशखबर थी, जो कॉफी का आधा प्याला अंदर जाने  के बाद पेट के भीतर से आ रही थी। जल्दी से कॉफी पूरी कर भागना पड़ा। पेट एक  ही बार में साफ हो लिया।  नतीजा ये कि स्नानादि से सब से पहले मैं निपटा। फिर शोभा और सब से बाद में पूर्वा। पूर्वा ने स्नानघर से बाहर निकलते ही घोषणा की कि दिल्ली घूमने चलते हैं। हम ने तैयारी आरंभ कर दी। फिर  भी घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए। बल्लभगढ़ से 11.20 की  लोकल पकड़नी थी। टिकटघर पर लंबी लाइनें थीं। ऐसे  में टिकटबाबुओं को  तेजी से काम निपटाना  चाहिए। पर  वे पूरी सुस्ती से अपनी  ड्यूटी कर रहे थे। मुझे पुरा अंदेशा था कि टिकट  मिलने  तक  लोकल निकल  जाने वाली थी। पर पूर्वा किसी तरह टिकट  ले आई। लोकल दस मिनट लेट  थी, हम उस में सवार हो सके।  नई दिल्ली स्टेशन के लिए। 

स्टेशन पर  से बहुत भीड़ चढ़ी। पूर्वा और शोभा चढ़ीं महिला डब्बे में मैं  जनरल  में। बैठने का कोई  स्थान न था। गैलरी में  खड़ा रहा। फरीदाबाद से दो लड़के  चढ़े, बड़े-बड़े बैग लिए। भीड़ के कारण फंस गए थे वे। एक का सामान उठा कर आगे खिसकाया  तो  गैलरी में जगह हुई। दूसरा वहीं खड़ा रहा। उस ने बताया कि वह गाँव जा है,  भागलपुर, बिहार, उस का नाम अविनाश है। यहाँ दिल्ली में बी.ए. पार्ट फर्स्ट में पढ़ता है। मैं समझा वह भागलपुर के नजदीक किसी  गाँव का रहा होगा, पर उस ने बताया कि वह भागलपुर शहर का ही है। तो फिर वह बी.ए. पार्ट फर्स्ट  करने यहाँ दिल्ली क्यों आया? यह तो वह वहाँ रह कर भी कर सकता था ? पर उस ने खुद ही बताया कि वहाँ दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते थे। इसलिए  पिताजी ने उसे यहाँ डिस्पैच कर दिया। यहाँ दो हजार में कमरा लिया है और एक डिपार्टमेंटल स्टोर पर सेल्समैन का  काम करता है। शाम तीन से ड्यूटी आरंभ होती है जो रात ग्यारह बजे तक चलती है। तीन बजे के पहले अपने क़ॉलेज पढ़ने जाते हैं। तब तक  अंदर  डब्बे  में  जगह हो गयी थी। अविनाश  अंदर डब्बे में  खसक  लिया।  उस की जगह दो और लड़के वहाँ आ कर  खड़े हो गए।  उन में से  एक  कोई बात  दूसरे को सुना रहा था।  वह हर वाक्य  आरंभ करने के पहले हर बार भैन्चो जरूर बोलता था। कोई  तीन-चार  मिनट में ही मेरे तो कान पक गए। पर उसे बिलकुल अहसास  नहीं था। वह उस का उच्चारण वैसे ही कर रहा था। हवन करते समय पंडित  हर मंत्र  के पहले ओउम  शब्द का उच्चारण करता है। मैं ने उन की बात से अपना ध्यान हटाने को 180 डिग्री घूम  गया। अब मेरा मुहँ अंदर सीट पर बैठै लोगों की ओर था। वहाँ सीट पर बैठी एक लड़की पास खड़े एक  लड़के के साथ  बातों में मशगूल थी। दोनों बांग्ला बोल रहे थे। मैं  उन  की बांग्ला समझने की कोशिश में लग  गया।
गे का विवरण  कल  पर दिल्ली में लिए कुछ चित्र  जरूर  आप  के लिए ......

शीशगंज गुरुद्वारा

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

रात की बारिश और फरीदाबाद से दिल्ली का सफर


रात सोने के पहले तारीख बदल चुकी थी। सर्दी के लिहाज से हलका कंबल  लिया था, एक चादर भी साथ रख लिया। केवल कंबल में भी गर्मी लगी तो उसे हटा कर चादर से काम चलाना पड़ा। सुबह पाँच के आसपास एक बार नींद खुली, यह लघुशंका के लिए थी।  बाथरूम गया तो  रास्ते में बालकनी गीली दिखाई दी। गौर किया तो पता लगा रात बारिश हुई है। सर्दी कम होने का कारण यही था। अभी रात शेष थी। दुबारा बिस्तर पर लेटा तो नींद फिर लग गई।  इस बार उठा तो आठ बज चुके थे। निपटते-निपटाते साढ़े नौ बज गए। झटपट नाश्ता किया और चल दिया। मैं सोचता था कि डेढ़ नहीं तो दो घंटे में तो निश्चित स्थान पर पहुँच ही लूंगा। गंतव्य के लिए मुझे बदरपुर बॉर्डर से जिस बस को पकड़ना था उस का रूट नंबर मुझे अजय झा बता चुके थे। बॉर्डर तक कैसे पहुँचना है इतना जानना था। इस के लिए मकान मालिक ने मदद की और मैं पहुँचा सेक्टर तीन की पुलिया पर।  दो-तीन मरियल से ठुकपिट कर शक्ल बिगाड़े रिक्शा आए लेकिन बॉर्डर के नाम से ही बिदक गए। फिर एक हरे रंग का नया सा मिला, उसने बिठा लिया और बदरपुर बॉर्डर उतारा। मोबाइल ग्यारह में आठ मिनट कम बता रहा था।
विचित्र नजारा था। मेट्रो के लिए चल रहे काम और शायद निर्माणाधीन फ्लाई ओवर के कारण  बेहद अफरातफरी थी। यहाँ भी स्थाई-अस्थाई बाजार उगे थे। पता ही नहीं लग रहा था कि कहाँ से बस मिलेगी? मुझे कुछ पान की दुकानें दिखीं। पूरा एक दिन हो गया था, पान खाए। पास गया तो उन में गुटखे लटक रहे थे और भी बहुत कुछ था पर पान नहीं था। तलाश करने पर एक जगह पान भी दिखे दुकानदार उस की दीवार घड़ी दुरुस्त करने में जुटा था। मैं ने उसे पान बनाने को कहा तो उस ने बस एक नजर मेरी और देख वापस अपने काम में जुट गया। मैं ने एक मिनट उस का इंतजार किया और खुद को उपेक्षित पा कर वहाँ से चल दिया। रास्ते में कुछ लोग मोजे, रुमाल, बटुए आदि बेच रहे थे। मुझे याद आया मैं रुमाल लेना भूल गया हूँ। मैंने दस रुपए में एक रुमाल खरीदा और उसी से पूछा कि बस कहाँ मिलेगी? उस ने दूर खड़ी बसों की ओर इशारा किया। मैं तकरीबन पौन किलोमीटर चल कर बसों तक पहुँचा तो मेरे रूट की बस बिलकुल खाली थी, ड्राइवर-कंडक्टर  अंदर बैठ कर अपना सुबह का टिफिन निपटा रहे थे। मैंने पूछा तो उन्हों ने आगे जाने का इशारा किया। आधा किलोमीटर और आगे चल कर मैं बस तक पहुँचा। सवारियाँ बैठ रही थीं। मैं चढ़ा और खुद को खुशकिस्मत पाया कि वहाँ एक सीट बैठने के लिए खाली मौजूद थी। कुछ देर बैठे रहने के बाद कंडक्टर को पूछा तो उस ने बताया कि बस 11: 38 पर चलेगी। मैं लेट हो चुका था।
चे समय के इस्तेमाल का मेरे पास कोई जरिया नहीं था, लेकिन लोगों के पास था। एक बच्ची हाथ में कमंडल और उस में बिठाई तस्वीर ले कर मांगने के लिए बस में चढ़ गई। वह कुछ नहीं बोल रही थी। हर सवारी के आगे कुछ देर खड़ी होती, कुछ मिलता तो ठीक नहीं तो आगे बढ़ जाती। ऐसे ही बच्चे, महिलाएँ कोटा अदालत में खूब आते हैं, सब के सब पक्के प्रोफेशनल। मेरे एक साथी उन्हें कई बार नसीहतें दे चुके हैं। उन से काम कराने के बदले मजदूरी देने का प्रस्ताव भी करते हैं। पर कौन स्थाय़ी रोजगार छोड़ अस्थाई की और झाँकता है। बच्ची बस से उतरी तो एक युवक नारियल की फांके लिए बेचने चढ़ा, कुछ लोगों ने उस का स्वागत किया। उस के बाद एक पैंसिल बेचने वाला चढ़ा। मेरे पास की सीट पर बेटी के साथ बैठे सज्जन ने पैंसिलें खरीदीं। तभी बस ने हॉर्न दिया। पैंसिल बेचने वाला उतर गया, बस चल दी।

जिस तरह बस चल रही थी लग रहा था कि कम से कम एक डेढ़ घंटा जरूर लेगी। मैंने कंडक्टर को अपना गंतव्य बताया। उसने मुझे आश्वस्त किया कि वह मुझे सही स्थान पर उतार देगा। एक स्टॉप पहले ही उस ने मुझे आगे के दरवाजे पर बुलाया और मेरे स्टॉप पर उतार दिया। बाद में पता लगा कि उस ने मुझे एक स्टॉप पहले ही उतार दिया था। अपने राम पैदल चल पड़े। मेट्रो स्टेशन के पास पहुँच कर मैं ने मोबाइल से अजय से संपर्क करना चाहा पर वहाँ सिग्नल गायब थे। मैं एक और चल दिया और सिग्नल मिलने तक चलता रहा। अजय से बात हुई तो वे मुझे लेने आ गए। हम मिलन स्थल पहुँच गए। पाबला जी तो वहाँ पहले से ही थे श्रीमती संजू तनेजा, राजीव तनेजा, कार्टूनिस्ट इरफान, और खुशदीप सहगल भी पहुँचे हुए थे। बातों के साथ नाश्ता चल रहा था। सभी बहुत आत्मीयता के साथ मिले। मैं बैठा ही था कि अचानक पीछे रोशनी चमकी। मुड़ कर देखा तो टेबल पर रखा पाबला जी का कैमरा हमें कैद कर रहा था।



गुरुवार, 26 नवंबर 2009

भेंट अरुण जी अरोरा से, और चूहे के बिल

म पूर्वा के आवास पर पहुँचे। पूर्वा डेयरी से दूध ले कर कुछ देर बाद आई। तीसरा पहर अंतिम सांसे गिन रहा था, ढाई बज चुके थे। सफर ने थका दिया था और दोनों सुबह से निराहार थे। मैं तुरंत दीवान पर लेट लिया। पूर्वा ने घऱ से लड़्डू-मठरी संभाले और शोभा ने रसोई। कुछ ही देर में कॉफी-चाय तैयार थी। उस ने बहुत राहत प्रदान की। सुबह जल्दी सोकर उठे थे इस लिए चाय-कॉफी पीने के बावजूद नींद लग गई। शाम को उठते ही दुबारा कॉफी तैयार थी और शाम के भोजन की तैयारी। मैं ने पूर्वा का लेपटॉप संभाला और मेल देख डाली।
शाम के भोजन के बाद मैं और शोभा अरुण अरोरा जी के घर पहुँचे। अरुण जी तब तक अपने काम से वापस नहीं लौटे थे। हम कुछ देर मंजू भाभी से बातें करते रहे। तभी अरुण जी आ गए। उन से बहुत बातें हुईं। पिछले दिनों उन्हों ने अपने उद्योग का काया पलट कर दिया। एक पूरा नया प्लांट जो अधिक क्षमता से काम कर सकता है स्थापित कर लिया। अब नए प्लांट को अधिक काम चाहिए, उसी में लगे हैं। काम के आदेश मिलने लगे हैं और प्राप्त करने के प्रयास हैं। कई नमूने के काम चल रहे हैं, नमूने पसंद आ जाएँ तो ऑर्डर मिलने लगें। किसी भी उद्यमी के जीवन का यह महत्वपूर्ण समय होता है। इसी समय वह पूरी निगेहबानी और मुस्तैदी से काम कर ले तो बाजार में साख बन जाती है और आगे काम मिलना आसान हो जाता है। उन के लिए यह समय वास्तव में महत्वपूर्ण और चुनौती भरा है। मैं ने उन से ब्लागरी में वापसी के लिए कहा तो बोले। एक बार नमस्कार कर दिया तो कर दिया। उन के स्वर में दृढ़ता तो थी, लेकिन उतनी नहीं कि उन की वापसी संभव ही न हो। मुझे पूरा विश्वास है, एक बार वे अपने उद्यम की इस क्रांतिक अवस्था से आगे बढ़ कर उसे गतिशील अवस्था में पाएँगे तो ब्लागरी में अवश्य वापस लौटेंगे और एक नए रूप और आत्मविश्वास के साथ।
मैं ने अरुण जी को बताया कि पाबला जी भी दिल्ली आए हुए हैं और कल कुछ ब्लागर दिल्ली में मिलेंगे।  पाबला जी आप से मिलना भी चाहते हैं। कल रविवार है, दिल्ली चलिए, शाम तक लौट आएंगे, कल रविवार भी है। उन्हें यह सुन कर अच्छा लगा, लेकिन वे रविवार को भी व्यस्त थे कुछ संभावित ग्राहकों के साथ उन की दिन में बैठक थी। उन्हों ने कहा यदि समय हो तो पाबला जी को इधर फरीदाबाद लेते आइए, मुझे बहुत खुशी होगी।  हमने अरुण जी के उद्यम की सफलता के लिए अपनी शुभेच्छाएँ व्यक्त कीं और वापस लौट पड़े। वापसी पर पाबला जी और अजय कुमार झा से फोन पर बात हुई।  उन्हों ने बताया कि सुबह 11 बजे दिल्ली में यथास्थान पहुँचना है। दिन में सो जाने के कारण  आँखों में नींद नहीं थी। मैं देर तक पूर्वा के लैप पर ब्लाग पढता रहा, कुछ टिप्पणियाँ भी कीं। फिर सोने का प्रयास करने लगा आखिर मुझे अगली सुबह जल्दी  दिल्ली के लिए निकलना था।

आज का दिन
ज मुम्बई और देश आतंकी हमले की बरसी को याद कर रहा है, और याद कर रहा है अचानक हुए उस हमले से निपटने में प्रदर्शित जवानों के शौर्य और बलिदान को। शौर्य और बलिदान जवानों का कर्म और धर्म है। जो जन उन से सुरक्षा पाते हैं उन्हें, उन का आभार व्यक्त करना ही चाहिए। लेकिन वह सूराख जिस के कारण वे चूहे हमारे घर में दाखिल हुए, मरते-मरते भी घर को यहाँ-वहाँ कुतर गए, अपने दाँतों के निशान छोड़ गए। देखने की जरूरत है कि क्या वे सूराख अब भी हैं? क्या अब भी चूहे घऱ में कहीं से सूराख कर घुसने की कारगुजारी कर सकते हैं? और यदि वे अब भी घुसपैठ कर सकते हैं तो सब से पहले घर की सुरक्षा जरूरी है। उस के लिए शौर्य और बलिदान की क्षमता ही पर्याप्त नहीं। घर के लोगों की एकता और सजगता ज्यादा जरूरी है।  मैं दोहराना चाहूँगा। पिछले वर्ष लिखी कुछ पंक्तियों में से इन्हें ....

वे जो कोई भी हैं
ये वक्त नहीं
सोचने का उन पर

ये वक्त है
अपनी ओर झाँकने और
युद्धरत होने का

आओ संभालें
अपनी अपनी ढालें
और तलवारें

बुधवार, 25 नवंबर 2009

उमंगों की उम्र में कोई क्यों खुदकुशी कर लेता है?

खिर चौदह नवम्बर का दिन तय हुआ, बल्लभगढ़ पूर्वा के यहाँ जाने के लिए। पत्नी शोभा उत्साहित थी। उस ने बेटी के लिए अपने खुद के ब्रांडेड दळ के लड्डू और मठरी बनाई थीं। पिछली बार बेसन के लड्डू जो वह ले गई थी उस में घी के महक देने की शिकायत आई थी। जिसे डेयरी वाले तक पहुँचाया तो उस ने माफी चाही थी कि दीवाली की मांग पर घी पहले से तैयार कर पीपों में भर दिया  गया था इस कारण से महक गया। इस बार शोभा ने खुद कई दिनों तक दूध की मलाई को निकाल कर दही से जमाया और बिलो कर लूण्या-छाछ किया, फिर लूण्या को गर्म कर घी तैयार किया। मुझे बताया गया तब वह महक रहा था, उसी देसी घी की तरह जो हमने बचपन में अपने घर बिलो कर बनाया जाता था। इस घी से बने लड्डू। यह सब तैयारी 13 को ही हो चुकी थी आखिर 14 को सुबह छह बजे की जनशताब्दी से निकलना था। रात नौ बजे पाबला जी को यह समझ फोन मिलाया कि वे दिल्ली पहुँच चुके होंगे। लेकिन तब वे लेट हो चुकी ट्रेन में ही थे जो उस समय बल्लभगढ़ के आसपास ही चल रही थी।
 सुबह हम जल्दी उठे, पति-पत्नी ने स्नान किया, तैयार हुए और बैग उठा कर पास के ऑटो स्टेंड पहुँचे। सुबह के  पाँच बजे थे। तसल्ली की बात थी कि वहाँ दो ऑटो खड़े मिले। न मिलते तो हमारी तैयारी काफूर हो जाती फिर किसी पड़ौसी को तैयार कर 12 किलोमीटर स्टेशन तक छोड़ने को कहना पड़ता। खैर हम ट्रेन के रवाना होने के  बीस मिनट पहले ट्रेन के डिब्बे में थे। पूरी ट्रेन आरक्षित होने के बावजूद एक चौथाई सवारियाँ हमारे पहले ही वहाँ अपना स्थान घेर चुकी थीं। ट्रेन एक मिनट देरी से चली। अभी चंबल पुल भी पार न किया था कि माल बेचने वाले आरंभ हो गए। चाय, कॉफी, दूध और फ्रूटी पेय के अतिरिक्त कुछ न था जो हमारे लिए उपयुक्त होता। शिवभक्त शोभा शादी के पहले से ही सोमवार और प्रदोष का व्रत रखती हैं। हमने खूब कहा कि अब तो जैसा मिलना था वर मिल चुका, अब तो इन्हें छोड़ दे पर उस ने न छोड़ा। (शायद अगले जन्म में हम से अच्छे की चाहत हो)  हम ने सोचा कोई दूसरा इसी जनम में बुक हो गया तो हम तो इन के साथ से वंचित हो जाएंगे। सो हम भी करने लगे, देखें कैसे दूसरा कोई बुक होता है। उस दिन सोमवार नहीं शनिवार था लेकिन प्रदोष था। इस लिए आधुनिक और देसी खाद्यों का विक्रय करने वाले उन रेलवे के हॉकरों का हम पर कोई असर न हुआ।


ट्रेन तेजी से गंतव्य की ओर चली जा रही थी, आधी दूरी से कुछ अधिक ही दूरी तय भी कर चुकी थी। अचानक  हमारे ही कोच में हमारे सामने वाले दूसरे कोने में हंगामा हो गया और वह दृश्य सामने आ गया जो कभी देखा न था। इमर्जैंसी खिड़की के पास से जंजीर खींची गई, ट्रेन न रुकी तो उस के बाद वाले ने, फिर उस के बाद वाले ने एक साथ पाँच स्थानों से जंजीर खींची गई। फिर वेक्यूम पास होने की जोर की आवाज आई और उसका अनुसरण करती ब्रेक लगने की, ट्रेन बीच में खड़ी हो चुकी थी। इसी लाइन पर कुछ दिन पहले ही एक ट्रेन की जंजीर सिपाहियों ने मुलजिम के अपने कब्जे से भाग निकलने के कारण खींची थी और खड़ी ट्रेन को दूसरी ट्रेन ने टक्कर मार दी थी। गार्ड  और कुछ अन्य सवारियों को मृत्यु अपने साथ ले गई। मेरी कल्पना में वही चित्र उभरने लगा था।



हले पता लगा कोई बच्ची खिड़की से गिर गई है। आखिर खिड़की से कैसे गिर गई? खिड़की में तो जंगला लगा है। बताया गया कि वह इमर्जेंसी खिड़की थी और जंगला खिसका हुआ था। फिर भी इस सर्दी में मैं खुद आस पास के शीशे शीतल हवा के आने के कारण बंद करवा चुका था। एक छोटी बच्ची वाले ने उस खिड़की का शीशा कैसे खुला रखा था? समझ नहीं आ रहा था। मैं उठा और उस ओर गया जहाँ से बच्ची के गिरने की बात कही गई थी। वहाँ जा कर पता लगा गिरने वाली बच्ची कोई 20-22 साल की लड़की थी और मर्जी से खिड़की से कूद गई थी। उस का पिता उस के साथ था जो उस वक्त टॉयलट गया हुआ था। सीट पर लड़की का शॉल पड़ा था जो उस ने कूदने के पहले वहीं छोड़ दिया था। सीट पर एक लड़का बैठा था। उस से पूछा कि उसने नहीं पकड़ा उसे? उस के पीछे वाले यात्री ने बताया कि इसे तो कुछ पता नहीं यह तो सो रहा था। उस लड़के ने कहा कि मैं जाग रहा होता तो किसी हालत में उसे न कूदने देता, पकड़ लेता। लड़की के पिता का कहीं पता न था। ट्रेन पीछे चलने लगी थी।
कोई दो किलो मीटर पीछे चल कर रुकी। आसपास देखा गया। फिर सीटी बजा कर दुबारा पीछे चली एक किलोमीटर चल कर फिर खड़ी हो गई। वहाँ ट्रेक के किनारे मांस के बहुत ही महीन टुकड़े छिटके हुए दिखाई दे रहे थे। लोग ट्रेन से उतर कर देखने लगे किसी ने आ कर बताया कि लड़की नहीं बची। उस के शरीर के कुछ हिस्से पिछले डिब्बे के पहियों से चिपके हैं। गाड़ी फिर पीछे चलने लगी। इस बार रुकी तो कुछ ही देर में लोगों ने आ कर बताया कि लड़की की बॉडी मिल गई है। पिता आया और अपना सामान समेट कर वहीं उतर गया।

मैं अपनी सीट पर आया तो सहयात्री ने बताया कि पहले वह लड़की और उस का पिता इसी सीट पर आ कर बैठा था। लड़की पिता के साथ जाने को तैयार न थी और उतरने को जिद कर रही थी। फिर जब सीट वाले आए तो दोनों उठ कर चले गए। उन्हें फिर वहीं सीट मिली जहाँ इमरजेंसी खिड़की थी। डब्बे में यात्री कयास लगाने लगे कि क्यों लड़की कूदी होगी। एक खूबसूरत लड़की के आत्महत्या करने पर जितने कयास लगाए जा सकते थे लगाए गए। मैं सोच रहा था। समाज आखिर ऐसे कारण क्यों पैदा करता है कि उमंगों भरे दिनों में कोई जवान इस तरह खुदकुशी कर लेता है?
ट्रेन पूरे दो घंटे लेट हो चुकी थी। बल्लभगढ़ पहुँची तो पूर्वा के शनिवार का अर्ध कार्यदिवस समाप्त होने वाला था। उसे फोन किया तो बोली मैं खुद ही आप को स्टेशन के बाहर मुख्य सड़क पर मिलती हूँ। हम ट्रेन से उतर कर अपना सामान लाद सड़क तक पहुँचे तब तक पूर्वा भी आ पहुँची। हम पूर्वा के आवास की और जाने वाले शेयरिंग ऑटो में बैठे। उस ने मुश्किल से आठ मिनट में पूर्वा के आवास के नजदीक उतार दिया। 

सोमवार, 23 नवंबर 2009

यात्रा में भूली, अनवरत की दूसरी वर्षगाँठ


पिछला सप्ताह पूरा यात्रा में गुजरा। यूँ तो कोटा में 29 अगस्त से वकीलों ने न्यायिक कार्य का बहिष्कार किया हुआ है। कहा जा सकता है कि मैं भी पूरी तरह फुरसत में हूँ। लेकिन यह केवल कहे जाने वाली बात है। वास्तविकता कुछ और ही है। जब वकील अदालत से बाहर होते हैं तो उन के किसी मुकदमे में उस मुवक्किल को जिस की वे पैरवी कर रहे हैं किसी तरह का स्थाई नुकसान न उठाना पड़े, इस की जिम्मेदारी वकील पर आ पड़ती है।  इस के लिए वकील का रोज अदालत परिसर तक जाना और मुकदमों को अदालत में न जाकर भी नियंत्रित करना जरूरी हो जाता है। सामान्य परिस्थितियों में मुकदमे की पैरवी की वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है लेकिन ऐसे में अपना मुख्यालय छोड़ पाना दुष्कर हो जाता है। इस कारण से मेराअगस्त के अंत से कोटा में ही रहना हुआ। इस बीच मुंबई में अनिता कुमार-विनोद जी के पुत्र के विवाह में जाने की तैयारी अवश्य थी लेकिन उसी समय बेटे को बाहर जाना था सो मुम्बई का टिकट रद्द करवाना पड़ा।  



विगत फरवरी में बेटी पूर्वा ने बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) में अपने नए काम पर पद  भार संभाला था। उसे वहाँ छोड़ने गए तो उस के लिए आवास की व्यवस्था की जिस में फरीदाबाद के साथी ब्लागर अरुण जी अरोरा और उन की पत्नी मंजू भाभी ने महति भूमिका अदा की थी। हम चार दिन उन्हीं के मेहमान रहे। अरुण जी के सौजन्य से ही ब्लागवाणी के कार्यालय में मैथिली जी, सिरिल, अविनाश वाचस्पति जी,  आलोक पुराणिक जी और ....... से भेंट हुई थी। पखवाड़े भर बाद जब पूर्वा को एक बार देखने वापस फरीदाबाद जाना हुआ तो अरुण  जी के अतिरिक्त किसी से मिलना नहीं हो सका और किसी भी तरह तीसरी बार उधर का रुख भी नहीं हो सका। पूर्वा अवश्य माह डेढ़ माह में कोटा आती रही। बहुत दिन हो जाने के कारण एक बार पूर्वा के पास जाना ही था। पहले 7 नवम्बर जाना तय हुआ, लेकिन जोधपुर के एक मुवक्किल ने दबाव बनाया उन का काम तुरंत जरूरी है और जोधपुर जाना हो सकता है। यह कार्यक्रम निरस्त हुआ। लेकिन जोधपुर यात्रा भी टल गई। फिर 14-15 नवम्बर को फरीदाबाद जाना तय हुआ। तभी खबर मिली कि पाबला जी भी उन्हीं दिनों दिल्ली आ रहे हैं। सुसंयोग देख कर मैं ने पत्नी शोभा के वहाँ तीन रात्रि रुकने का कार्यक्रम तय कर लिया। इस बहाने दो -दिन एक रात दिल्ली रुकना हुआ और वहीं अनेक ब्लागर साथियों से भेंट हुई जिस का विवरण आप को पाबला जी, अजय कुमार झा और खुशदीप सहगल जी से आप को मिल चुका है और मिलता रहेगा।

दिल्ली में ही मुझे पुनः जोधपुर पहुँचने का संदेश मिला तो मैं 17 की शाम कोटा पहुँच कर 18 की रात ही जोधपुर के लिए लद लिया। दो दिनों में जोधपुर का काम निपटा कर वापस कोटा पहुँचा। दोनों ओर की यात्रा बस से हुई उस ने जो कष्ट और आनंद दिया वह निराला था। 21 नवम्बर की सुबह कोटा पहुँचा तो हालत यह थी कि दिन भर सोता रहूँ। लेकिन सप्ताह भर की अनुपस्थिति ने अदालत जाने को विवश किया। शाम हालत यह थी कि न खुद का पता था, न दुनिया का। पर ब्लागरी ऐसी चीज हो गई कि उस दिन भी अनवरत और तीसरा खंबा पर एक एक आलेख पेल ही दिए। आज शामं अचानक ध्यान आया कि अनवरत की वर्षगांठ इन्हीं दिनों होनी चाहिए। देखा तो पता लगा कि अनवरत का जन्मदिन 20 नवम्बर को ही निकल चुका है।
ब देर से ही सही हम अनवरत की दूसरी वर्षगाँठ को स्मरण किए लेते हैं। 20 नवम्बर 2007 को आरंभ हुआ अनवरत दो वर्ष पूरे कर चुका है, .यह आलेख इस का 370वाँ आलेख है और 41000 से अधिक चटके इस पर लोग लगा चुके हैं।

अनवरत का पहला आलेख



आप सब के आशीर्वाद और स्नेह की आकांक्षा के साथ ......

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

छोड़ कर, प्रिय समारोह, बाहर जाना

चाहता तो यह था कि रोज आप को कोटा नगर निगम चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों, प्रत्याशियों और जनता के रंग-रूप का अवलोकन कराता।  मैं 76 दिनों की हड़ताल के दौरान न तो कहीं बाहर गया और न ही कमाई की।  अपने दफ्तर के कामों से होने वाली कमाई से तो आज के जमाने में सब्जी बना लें वही बहुत है। ऐसे में पत्नी श्री शोभा का यह दबाव तो था ही कि कोटा से बहुत जरूरी काम निपटा लिए जाएँ।  लेकिन इतना आसान नहीं होता। एक तो अदालतों में मुकदमों के अंबार के कारण पहले ही वकीलों के लिए एक लंबी मंदी का दौर आरंभ हो चुका है। मंदी के दौर में व्यवसायी की मानसिकता कैसी होती है यह तो मोहन राकेश की कहानी 'मंदी'
ढ़ कर जानी जा सकती है। इन दिनों व्यवसायी अधिक चौकस रहता है। ग्राहक का क्या भरोसा कब आ जाए? वह अपनी ड्यूटी से बिलकुल नहीं हटता। ग्राहक आता है तो लगता है जैसे भगवान आ गए। उन की हर हालत में सेवा करने को तैयार रहता है। क्यों कि जो खर्चे हो रहे हैं उन्हें तो कम किया जाना संभव नहीँ और जो कम किए जा सकते हैं वे पहले ही किए जा चुके हैं।  ऐसे में आप दुकान का शटर डाउन कर बाहर चलें जाएँ तो यह परमवीर चक्र पाने योग्य करतब ही होगा।  पर शोभा का यह कहना कि हम पिछली फरवरी से अपनी बेटी के पास नहीं गए हैं, लोग क्या सोचते होंगे? कैसे माँ-बाप हैं जी, कम से कम एक बार तो संभालते जी, टाले जा सकने योग्य तो कतई नहीं था। हमने इस शनिवार-रविवार का अवकाश बेटी के पास ही गुजारने का मन बनाया। कल सुबह हम चलेंगे और दोपहर तक उस के पास बल्लभगढ़ पहुँच जाएँगे।

धर पता लगा कि इन्हीं दिनों बी.एस. पाबला जी भिलाई वाले दिल्ली पहुँच रहे हैं। इस खबर को सुन कर अजय झा जी बहुत उत्साहित दिखे। उन्हों ने एक ब्लागरों के मिलने का कार्यक्रम ही बना डाला। अब यह तो हो नहीं सकता न कि पाबला जी रविवार को हम से पचास किलोमीटर से भी कम दूरी पर हों और वहाँ बहुत से हिन्दी ब्लागर मिल रहे हों तो हम वहाँ न जाएँ। हमने भी तय कर लिया, कुछ भी हो हम दिल्ली जरूर पहुँचेंगे। इधर पाबला जी का ब्लाग देखा तो गणित की गड़बड़ दिखाई दी। वे हम को पहले ही बल्लभगढ़ पहुँचा चुके हैं। अब तो जाना और भी जरूरी हो गया है। ऐसे में हो सकता है मैं अपने ब्लागों से अगले तीन चार दिन गैर-हाजिर रहूँ। शायद आप को मेरी यह गैर हाजिरी न अखरे लेकिन मुझे तो सब के बीच से गैर हाजिर होना जरूर अखरेगा।

स बीच कोटा में चुनाव अपने पूरे रंग में दिखाई पड़ने लगेगा। आज ही शाम मुहल्ले से नारे लगाते जलूस निकला, किस प्रत्याशी का था यह पता नहीं लगा। हाँ शोर से यह जरूर पता लगा की रंग खिलना आरंभ हो चुका है।  शाम को घर पहुँचते ही निमंत्रण मिला, वह भी ऐसा कि जिस में उपस्थित होना मेरी बहुत बड़ी आकांक्षा थी। मैं उन  से बहुत नाराज था कि वे कोटा के अनेक साहित्यकारों की किताबें प्रकाशित करा चुके हैं, लेकिन अपनी नहीं करा रहे हैं।  उन की किताबें आनी चाहिए। लेकिन किस्मत देखिए कि शिवराम के नाटक का हाड़ौती रूपांतरण तीन माह पहले प्रकाशित हुआ और उस का विमोचन हुआ तो मैं कोटा में नहीं था। फिर उन के नाटकों की दो किताबों का लोकार्पण हुआ तो मैं हाजिर था। जिस की रिपोर्ट आप पढ़ चुके हैं। अब 15 नवम्बर को उन के की कविताओँ की तीन किताबों "माटी मुळकेगी एक दिन", "कुछ तो हाथ गहो" और "खुद साधो पतवार" का एक साथ लोकार्पण है और मैं फिर यहाँ नहीं हूँ।  हालाँ कि लोकार्पण के निमंत्रण में मैं एक स्वागताभिलाषी अवश्य हूँ।  यह समारोह भी शामिल होने लायक अद्वितीय होगा। जो साथी इस में सम्मिलित हो सकते हों वे अवश्य ही इस में सम्मिलित हों।

सभी साथी और पाठक सादर आमंत्रित हैं





वापस लौटने पर इन कविता संग्रहों और समारोह के बारे में जानूंगा और आप के साथ बाँटूंगा।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

आठवें विषय में एम ए

शाम तीन बजे मैं चिन्ता में डूबा अपनी कुर्सी पर बैठा था कि शाम तक कैसे लक्ष्य पूरा कर सकूंगा। मुझे जल्द से जल्द अदालत के काम पूरे कर अपने लक्ष्य के लिए जाना था। तभी कोई बगल में आ खड़े होने का अहसास हुआ। सीने तक लटकी सलेटी दाढ़ी और कंधों तक झूलते सर के बाल कुर्ता पायजामा पहने कोई खड़ा था। देखा तो चौंक गया, वर्मा जी थे। पुराने बुजुर्ग साथी। मैं खड़ा हुआ, दोनों गले मिले तो आस पास के वकील देखने लगे। मैं ने अपने पास उन्हें बिठाया। पूछा -कैसे हैं? स्कूल कैसा चल रहा है? बेटे क्या कर रहे हैं? आदि आदि। अंत में पूछा -कैसे यहाँ आने का कष्ट किया। कहने लगे -मुझे कोई राय करनी थी। क्या विश्वविद्यालय का परीक्षार्थी एक उपभोक्ता है? मैं विचार में पड़ गया। कहा देख कर बताऊंगा।

मैं ने उन से पूछा कि मामला क्या है? परीक्षा में पेपर दिया,  नंबर आने चाहिए थे 45, मगर आए 00 ही। पुनर्परीक्षण कराया तो 04 हो गए। मैं संतुष्ट नहीं हूँ। अदालत में मुकदमा करना चाहता हूँ। मैं ने पूछा -तो अब तक कारस्तानी जारी है? कहने लगे -जब तक दम है, जारी ही रहेगी।

ये विष्णु वर्मा थे। वर्मा सीनियर सैकंडरी स्कूल के संस्थापक। उन्हों ने बाराँ में आ कर स्कूल खोला था। कि एक कविगोष्ठी में हाजिर हुए, वहीं पहचान हुई। मैं बी. एससी. का विद्यार्थी था। लेकिन नगर में साप्ताहिक गोष्ठियों का एक मात्र आयोजक भी। एक गोष्ठी में कहने लगे -मेरे पास ग्यारहवीं के दस बारह विद्यार्थी कोचिंग के लिए आते हैं और जीव-विज्ञान का शिक्षक नहीं मिल रहा है। आप पढ़ा देंगे? मैं ने हामी भर ली। पढ़ाने लगा। धीरे-धीरे अंतरंगता बनी और बढ़ती गई।

एक दिन मुझे कहने लगे -दिनेश जी पहली कक्षा का एक बच्चा बहुत परेशान कर रहा है। चार माह हो गए हैं। वह कुछ लिखता ही नहीं है। उस के हाथ में बत्ती (खड़िया पैंसिल) पकड़ाते हैं हाथ पकड़ कर लिखना सिखाते हैं तो जहाँ तक हाथ पकड़ कर लिखाते हैं लिखता है। जहाँ छोड़ते हैं वहीं बत्ती पकड़े रखे रखता है। उस की गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं रही है। जरा आप देखो।

मैं दूसरे दिन पहली कक्षा में हाजिर। उस बच्चे को देख कर मैं भी दंग रह गया। कोई तरकीब उस पर काम ही नहीं कर रही थी। मैं ने उसे ब्लेक बोर्ड पर बुलाया और बिंदुओं से वर्णमाला का क अक्षर अनेक बार लिखा। उस के सामने पहले अक्षर पर मैं ने चॉक से क बनाया , दूसरे अक्षर पर उस के हाथ में चॉक दे कर उस का हाथ पकड़ कर क बनवाया। तीसरे पर उसे बनाने को कहा। उस का हाथ रुक गया। फिर आधे अक्षर पर उस का हाथ पकड़ कर बनाया और आगे उसे बनाने को कहा तो उस ने पूरा क बना दिया मैं ने ब्लेक बोर्ड पर वर्णमाला के लगभग सभी अक्षर उस दिन बिंदुओं के बना कर उस से उन पर लिखवाया। उस ने बिना किसी सहायता के लिख दिए। फिर उसे बिना बिंदुओं के लिखने को कहा तो वैसे भी उस ने बिना किसी सहायता के लिख दिया। वह वर्णमाला के सभी अक्षर लिखने लगा। मैं उसे वर्मा जी को सौंप कर आ गया। उस के बाद उस बालक को कभी लिखने में समस्या नहीं आई।

वर्मा जी तब किसी एक विषय में एम ए थे, और एलएल बी भी, बी एड भी की हुई थी। फिर जब मैं वकालत में आ गया तो पता लगा कि उन को शौक लगा है, अलग विषय में एम ए करने का। वे फिर पढने लगे। आज पता लगा कि वे सात विषयों में एम. ए. कर चुके हैं। आठवें विषय में कर रहे हैं, तब उन के साथ एक पेपर में 00 अंक आने का हादसा हुआ। हम ने साथ बैठ कर कॉफी पी। उन से पूछा कि -कितने साल के हो गए हैं?  तो बता रहे थे -छिहत्तर में चल रहा हूँ।  यह एम ए कब तक करते रहेंगा? तो बताया -जब तक पढ़ने लिखने की क्षमता रहेगी। जिस साल परीक्षा न दूंगा, तो लगेगा कि कोई काम ही नहीं रह गया है। लगता है प्रोफेशनल विद्यार्थी हो गया हूँ।

चार बजे घड़ी देख कर बोले -अब चलता हूँ ट्रेन का समय हो गया है। तीन-चार दिन में मिलूंगा। मेरा मुकदमा लड़ना है। मैं ने उन्हें ऑटो में बिठाया और अपने काम में जुट गया।

सोमवार, 25 अगस्त 2008

मंजिलों से तो मुलाक़ात अभी बाकी है.... शतकीय नमन ....

अनवरत का यह सौवाँ आलेख है। 20 नवम्बर 2007 को प्रारंभ हुई यह यात्रा सौवेँ पड़ाव तक कैसे पहुँचा? कुछ भी पता न लगा। स्वयँ को अभिव्यक्त करते हुए, दूसरे ब्लागरों को पढ़ते हुए, विचारों को आपस में टकराते हुए, नए मित्रों को अपने जीवन में शामिल करते हुए, कुछ सीखते हुए, कुछ बताते हुए और कुछ बतियाते हुए....

यह यात्रा अनंत है, चलती रहेगी, अक्षुण्ण जीवन की तरह ... अनवरत...
इस आलेख पर कुछ कहने को विशेष नहीं इस के सिवा कि सभी ब्लागर साथियों का खूब सहयोग मिला। उन का भी जिन्हों ने कभी आ कर मुझ से असहमति जाहिर की। सहमति से भले ही उत्साह बढ़ता हो, मगर असहमति उस से अधिक महत्वपूर्ण है, वह विचारों को उद्वेलित कर नया सोचने को बाध्य करती है, विचार प्रवाह को तीव्र करती है।
सहयोगी और मित्र साथियों के नामों का उल्लेख इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि किसी न किसी के छूट जाने का खतरा अवश्यंभावी है। सभी साथियों को शतकीय नमन!

इस अवसर पर कुछ और न कहते हुए पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की ग़जल के माध्यम से अपनी बात रख रहा हूँ.....
मंजिलों से तो मुलाक़ात अभी बाकी है
पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

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सो न जाना कि मेरी बात अभी बाक़ी है
अस्ल बातों की शुरुआत अभी बाक़ी है
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तुम समझते हो इसे दिन ये तुम्हारी मर्ज़ी
होश कहता है मेरा रात अभी बाक़ी है 

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ख़ुश्बू फैली है हवाओं में कहाँ सोंधी-सी
वो जो होने को थी बरसात अभी बाक़ी है 

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घिर के छाई जो घटा शाम का धोका तो हुआ
फिर लगा शाम की सौग़ात अभी बाक़ी है 

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खेलते ख़ूब हो, चालों से तुम्हारी हम ने
धोके खाये हैं मगर मात अभी बाक़ी है 

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जो नुमायाँ है यही उन का तअर्रुफ़ तो नहीं
बूझना उन की सही ज़ात अभी बाक़ी है 

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रुक नहीं जाना 'यकीन' आप की मंजिल ये नहीं
मंजिलों से तो मुलाक़ात
अभी बाकी है
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