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गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

समय-2009, समय-2010

समय-2009, समय-2010
  • दिनेशराय द्विवेदी

जा रहा हूँ,  मैं
कभी न लौटने के लिए 
हमेशा की तरह

तुम विदा  करो मुझे
खुशी-खुशी 
या फिर  नाराजगी  के साथ
या दुखी हो कर
मेरा जाना  तय है
हमेशा की तरह

मैं  नहीं रुकता  कभी 
किसी हालत में
मैं आता हूँ, मैं जाता  हूँ
मैं रहता हूँ तुम्हारे साथ
हर दम,  हमेशा
शायद तुम मुझे नहीं पहचानते
तो पहचानना सीखो
जिस ने पहचाना 
उस ने जिया है जीवन 
नहीं पहचाना जिस ने 
वह रहा असमंजस  में हमेशा
हमेशा की  तरह


नाम  नहीं था कोई मेरा
तुमने ही मुझे नाम दिया
किसी ने दिन कहा
किसी ने बांटा मुझे
प्रहरों, मुहुर्तों, घड़ियों,
पलों, विपलों, निमिषों में
किसी ने इन्हें जोड़ 
सप्ताह,  पखवाड़े, महीने 
मौसम, साल और सदियाँ  बना डालीं
कोई  युग और महायुग भी बना दे 
तो भी मैं रुकूंगा  नहीं
आना  और जाना  
मेरा स्वभाव है
मैं आता रहूंगा
मैं जाता  रहूँगा
तुम हो तब भी
तुम नहीं रहोगे तब भी
हमेशा, हमेशा की तरह

मैं जा रहा हूँ
प्रसन्नता के साथ
विदा  करो मुझे ......


लो  मैं  आ रहा हूँ फिर
मुझे पहचानो
स्वागत करो मेरा
प्रसन्नता के साथ

जिओ जीवन 
मेरे  साथ
हमेशा,  हमेशा की तरह।


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सभी को मुबारक हो आने वाला साल !
सब के लिए लाए खुशियाँ आने वाला साल !  

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 चित्रों पर दोहरा क्लिक कर  पूरे आकार में देखें

मेट्रो, पराठा-गली, शीशगंज गुरुद्वारा और लाल-किला

      मेट्रो में यात्री पीछे खिड़की में एक 
यात्री, मेरी  और पूर्वा  की प्रतिच्छाया


सीट  पर बैठी  बंगाली युवती की मेरी  तरफ  पीठ थी  लेकिन जो लड़का  उस से बात  करने में मशगूल था  उस का चेहरा  मेरी  तरफ  था। वे दोनों  मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली आदि  नगरों  की बातें  करते हुए कलकत्ता की उन से तुलना  कर रहे थे। मुद्दा  था नगरों  की  सफाई। युवक कुछ ही देर  में  समझ  गया कि मैं उन की बातों में रुचि ले रहा हूँ। यकायक उसे अहसास हुआ  कि उन की उन की भाषाई गोपनीयता  टूट  रही  है। उन की  किसी बात पर मुझे  हँसी आ गई। तभी  युवक ने  मुझ से पूछ ही लिया - आप को बांग्ला आती  है? -नहीं आती। पर ऐसा भी नहीं कि बिलकुल ही नहीं आती, कुछ तो समझ ही सकता हूँ।  धीरे-धीरे वह युवक मुझ से बतियाने  लगा। मैं ने उसे बताया कि कलकत्ता  भले ही आज बंगाली संस्कृति  का केन्द्र बना हो।  पर उसे बसाने वाले  अंग्रेज ही थे। इसी बातचीत में लोकल  नई दिल्ली पहुँच गई। मैं उतरा  और  पूर्वा  और शोभा को देखने  लगा। वह जल्दी  ही दिखाई दे गई।
शीशगंज गुरुद्वारा

म पुल पार  कर स्टेशन से बाहर निकले। सामने ही मेट्रो स्टेशन में उतरने के लिए द्वार था। हम उस में घुस लिए। शोभा पहली बार  दिल्ली आई  थी। हमने  मेट्रो स्टेशन पर  मेट्रो का मानचित्र दिखाने वाले तीन पर्चे  उठाए, एक-एक तीनों  के लिए। गंतव्य तलाश करने लगे। कुछ महिलाएँ  अलग लाइन लगाए हुए थीं। पूर्वा  उधर ही बढ़ी। कुछ ही सैकंड में  वापस आ कर कॉमन लाइन में  लग  गई।  उस ने बताया कि टोकन  के  लिए महिलाओं  की  अलग लाइन नहीं है। मुझे  प्रसन्नता हुई कि  मेट्रो में तो कम  से कम स्त्री -पुरुष भेद समाप्त  हुआ। वह कुछ ही देर  में टोकन लाई और एक-एक हम दोनों  को  दे दिए। अब हमें  सीक्योरिटी  गेट  से अंदर जाना था। मेरा  स्त्री -पुरुष समानता का भ्रम यहाँ टूट  गया। यहाँ फिर स्त्री -पुरुषों के  लिए अलग-अलग गेट  थे। पूर्वा और शोभा जल्दी ही अंदर  पहुँच गईं।  पुरुषों की  पंक्ति स्त्रियों से कम से कम आठ  गुना अधिक थी। मुझे अंदर पहुंचने  में  तीन-चार मिनट  अधिक लगे।
जैन मंदिर चांदनी चौक

मारा  पहला  गंतव्य पहले से तय था। डेढ़  बज  रहे थे और हमें लंच करना था। चांदनी चौक पहुँच कर सीधे पराठे वाली गली जाना  था और पराठे चेपने  थे। एक  ही  स्टेशन बीच  में पड़ता  था। यह  मेट्रो की  ही  मेहरबानी थी कि हम मिनटों में चांदनीचौक में थे। शीशगंज  गुरुद्वारा से आगे ट्रेफिक रोका  हुआ था।  किसी वाहन  को अंदर  नहीं जाने दिया जा रहा  था। सड़क पर  वाहन न होने से वह  बहुत  खुली-खुली लग रही थी। लोग  बेरोक-टोक  सड़क पर चल रहे थे। मुझे लगा कि जब दिल्ली  में स्वचलित  वाहन नहीं रहे होंगे  तब चांदनीचौक  कितना  खूबसूरत होता  होगा। हम  पराठा गली में पहुँचे  तो दुकानों  में  बहुत भीड़  थी। सब  से पुरानी  दुकान  पर जी टीवी वाले किसी कार्यक्रम  की शूटिंग  कर  रहे थे।  मुझे  तुरंत खुशदीप  जी का स्मरण हुआ। हो  सकता है इस कार्यक्रम का निर्माण वही करा रहे हों। खैर, हमें  जल्दी ही  वहाँ जगह  मिल गई। हमने एक-एक परत  पराठा और  एक-एक मैथी का  पराठा खाया और एक लस्सी पी। आठ-दस वर्ष पहले पराठों में  जो  स्वाद  आया था  अब वह नहीं  था।  लगता  था  जैसे अब ये दुकानें केवल  टीवी से मिले प्रचार को भुना  रही हैं। भोजन  के उपरांत वहीं  गली  में एक-पान  खाया और हम गली से बाहर  आए।
लाल किला


ल्लभगढ़  से रवाना  होने  के पहले पूर्वा ने कहा था, हम  गुरुद्वारा  जरूर चलेंगे, वह  मुझे अच्छा लगता  है। वहाँ सब कुछ  बहुत  स्वच्छ  और शांत  होता  है। लेकिन शीशगंज गुरुद्वारा  में अंदर जाने  के लिए लोगों  की  संख्या  को देख उस का इरादा  बदल गया और हम आगे बढ़  गए। मैं ने गुरुद्वारा के  कुछ चित्र अवश्य वहीं सामने के  फुटपाथ पर  खड़े हो  कर लिए।  हमने  नीचे भूतल  पर बनी सुरंग  से सड़क  पार  की और निकले  ठीक लाल किला के सामने। वहाँ द्वार  बंद था। बोर्ड  पर लिखा था। किला सोमवार के अलावा  पूरे  सप्ताह देखा  जा सकता  है। हमारी बदकिस्मती  थी कि हम वहाँ सोमवार  को ही पहुँचे थे।  हम ने बाहर गेट  से ही किले  के चित्र  लिए और वापस मेट्रो  स्टेशन की  ओर चल दिए।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

छुट्टियों का एक दिन ..... दिल्ली की ओर ........

दिसंबर 26, 2009 को इस ब्लाग पर आलेख लिखा था अब हुई छुट्टियाँ शुरू, और दिसंबर 27 को अली भाई की मजेदार टिप्पणी मिली .......

वकालत व्यवसाय है ...लत नहीं...सो छुट्टी मुमकिन है...पर ब्लागिंग लत है...व्यवसाय नहीं...कभी छुट्टी लेकर बताइये !
हाहाहा !




इंडिया  गेट  के सामने  खिले फूल
त ही सही, पड़ गई सो पड़ गई। और  भी कई लतें हैं जो छूटती नहीं। पर  उन का उल्लेख फिर कभी, अभी बात छुट्टियों की। दिसंबर 27 को दी इतवार (दीतवार) था। बेटी पूर्वा का अवकाश। सुबह का स्नान, नाश्ता वगैरह करते-करते इतना समय हो गया कि कहीं बाहर जाना मुमकिन नहीं था।  दिन में कुछ देर आराम किया फिर शाम को  बाजार जाना हुआ। पूर्वा को घर का सामान खरीदना था। जाते समय  तीनों पैदल गए। बाजार में सामान लेने के साथ एक-एक समोसा  खाया गया। वापस आते वक्त सामान होने के कारण दोनों माँ-बेटी को  रिक्शे पर रवाना कर  दिया । मैं पैदल  चला। रास्ते में पान की गुमटी मिली तो पान खाया, लेकिन वह मन के मुताबिक न था। पान वाले से बात भी की। वह कह रहा था। पान का धंधा हम पान वालों ने ही बरबाद कर दिया है। हम ही लोगों ने पहले गुटखे बनाए। लोगों को अच्छे  लगे तो पूंजी  वाले उसे ले  उड़े। उन्हों ने पाउचों में उन्हें भर दिया। खूब विज्ञापन  किया। अब गुटखे के ग्राहक हैं, पान के नहीं, तो पान कैसे मजेदार बने?  बड़े चौराहों पर जहाँ पान के दो-तीन सौ ग्राहक दिन में हैं, वहाँ अब भी पान मिलता है, ढंग  का। खैर उस की तकरीर सुन हम वापस लौट लिए।  शाम फिर बातें करते बीती। भोजन कर फिर एक बार पैदल निकले  पान की तलाश में इस बार भी जो गुमटी मिली वहाँ फिर दिन वाला किस्सा था। सोचता रहा कहीँ ऐसा न हो कि किसी जमाने में पान गायब ही हो ले। पर जब मैं मध्यप्रदेश और राजस्थान के अपने हाड़ौती अंचल के बारे में सोचता हूँ तो लगता है यह सब होने में सदी तो  जरूर ही  लग जाएगी।  हो सकता है तब तक लोगों  की गुटखे  की लत  वापस  पान पर लौट  आए।
स दिन कुछ और न लिखा गया। हाँ, शिवराम जी की एक कविता जरूर आप लोगों तक पहुँचाई। वह भी देर रात को। इच्छा तो यह भी थी कि तीसरा खंबा पर भारत का  विधि इतिहास की अगली  कड़ी लिख कर ही खुद को  रजाई के हवाले किया जाए। पर बत्ती जल रही थी। पूर्वा और उस की प्यारी  माँ  सो  चुकी थीं। मुझे लगा बत्ती उन की नींद में खलल डाल सकती है। देर रात तक जागने का सबब यह भी हो सकता है कि सुबह देर तक नींद न खुले। अगले दिन पूर्वा का अवकाश का  दिन था। हो सकता है वह सुबह सुबह कह दे कि कहीं घूमने चलना है, और मैं देर से नींद खुलने के कारण तैयार ही न हो सकूँ। आखिर मैं ने भी बत्ती बंद कर दी और रजाई की  शरण ली।
सुबह तब हुई, जब शोभा ने कॉफी की प्याली बिस्तर पर ही थमाई। कोटा में यह सौभाग्य शायद ही कभी मिलता हो।  मैं ने भी उसे पूरा सम्मान दिया।  बिना बिस्तर से नीचे उतरे पास रखी  बोतल से दो घूंट पानी गटका और कॉफी पर पिल  पड़ा।  हमेशा कब्ज की आशंका से त्रस्त आदमी के लिए यह खुशखबर थी, जो कॉफी का आधा प्याला अंदर जाने  के बाद पेट के भीतर से आ रही थी। जल्दी से कॉफी पूरी कर भागना पड़ा। पेट एक  ही बार में साफ हो लिया।  नतीजा ये कि स्नानादि से सब से पहले मैं निपटा। फिर शोभा और सब से बाद में पूर्वा। पूर्वा ने स्नानघर से बाहर निकलते ही घोषणा की कि दिल्ली घूमने चलते हैं। हम ने तैयारी आरंभ कर दी। फिर  भी घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए। बल्लभगढ़ से 11.20 की  लोकल पकड़नी थी। टिकटघर पर लंबी लाइनें थीं। ऐसे  में टिकटबाबुओं को  तेजी से काम निपटाना  चाहिए। पर  वे पूरी सुस्ती से अपनी  ड्यूटी कर रहे थे। मुझे पुरा अंदेशा था कि टिकट  मिलने  तक  लोकल निकल  जाने वाली थी। पर पूर्वा किसी तरह टिकट  ले आई। लोकल दस मिनट लेट  थी, हम उस में सवार हो सके।  नई दिल्ली स्टेशन के लिए। 

स्टेशन पर  से बहुत भीड़ चढ़ी। पूर्वा और शोभा चढ़ीं महिला डब्बे में मैं  जनरल  में। बैठने का कोई  स्थान न था। गैलरी में  खड़ा रहा। फरीदाबाद से दो लड़के  चढ़े, बड़े-बड़े बैग लिए। भीड़ के कारण फंस गए थे वे। एक का सामान उठा कर आगे खिसकाया  तो  गैलरी में जगह हुई। दूसरा वहीं खड़ा रहा। उस ने बताया कि वह गाँव जा है,  भागलपुर, बिहार, उस का नाम अविनाश है। यहाँ दिल्ली में बी.ए. पार्ट फर्स्ट में पढ़ता है। मैं समझा वह भागलपुर के नजदीक किसी  गाँव का रहा होगा, पर उस ने बताया कि वह भागलपुर शहर का ही है। तो फिर वह बी.ए. पार्ट फर्स्ट  करने यहाँ दिल्ली क्यों आया? यह तो वह वहाँ रह कर भी कर सकता था ? पर उस ने खुद ही बताया कि वहाँ दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते थे। इसलिए  पिताजी ने उसे यहाँ डिस्पैच कर दिया। यहाँ दो हजार में कमरा लिया है और एक डिपार्टमेंटल स्टोर पर सेल्समैन का  काम करता है। शाम तीन से ड्यूटी आरंभ होती है जो रात ग्यारह बजे तक चलती है। तीन बजे के पहले अपने क़ॉलेज पढ़ने जाते हैं। तब तक  अंदर  डब्बे  में  जगह हो गयी थी। अविनाश  अंदर डब्बे में  खसक  लिया।  उस की जगह दो और लड़के वहाँ आ कर  खड़े हो गए।  उन में से  एक  कोई बात  दूसरे को सुना रहा था।  वह हर वाक्य  आरंभ करने के पहले हर बार भैन्चो जरूर बोलता था। कोई  तीन-चार  मिनट में ही मेरे तो कान पक गए। पर उसे बिलकुल अहसास  नहीं था। वह उस का उच्चारण वैसे ही कर रहा था। हवन करते समय पंडित  हर मंत्र  के पहले ओउम  शब्द का उच्चारण करता है। मैं ने उन की बात से अपना ध्यान हटाने को 180 डिग्री घूम  गया। अब मेरा मुहँ अंदर सीट पर बैठै लोगों की ओर था। वहाँ सीट पर बैठी एक लड़की पास खड़े एक  लड़के के साथ  बातों में मशगूल थी। दोनों बांग्ला बोल रहे थे। मैं  उन  की बांग्ला समझने की कोशिश में लग  गया।
गे का विवरण  कल  पर दिल्ली में लिए कुछ चित्र  जरूर  आप  के लिए ......

शीशगंज गुरुद्वारा

रविवार, 27 दिसंबर 2009

मैं ने चाहा तो बस इतना

ल बल्लभगढ़ पहुँचा  था। ट्रेन में राही मासूम रज़ा का उपन्यास 'कटरा बी आर्ज़ू' को दूसरी बार पढ़ता हुआ। किताब  पढ़ना बहुत अच्छा लगा। चौंतीस-पैंतीस वर्षों  पहले की यादें ताजा हो गईं। अभी पूरा नहीं पढ़ पाया  हूँ,  पूरी  होगी तो अपनी प्रतिक्रिया भी लिखूंगा। जैसा  कि मशहूर है रज़ा साहब जहाँ पात्र की  जरूरत  होती थी यौनिक  गालियों का उपयोग करने से नहीं चूकते थे। इस उपन्यास में भी  उनका उपयोग  किया गया है, जो कतई बुरा  नहीं लगता।  कोशिश करूंगा का  एक-आध वाक़या  आप के सामने भी रखूँ। आज  दिन भर पूरी तरह आराम  किया। धूप में नींद  निकाली। शाम बाजार तक घूम कर आया। अभी लोटपोट  पर  ब्लागिंग  की दुनिया पर  नजर डाली है।  एक दो टिप्पणियाँ भी की  हैं। अधिक इसलिए नहीं कर  पाया कि यहां पालथी  पर बैठ  कर टिपियाना पड़ रहा है,जिस की आदत नहीं है। पर ऐसा ही  चलता रहा तो दो -चार दिनों में यह भी आम हो जाएगा। शिवराम जी का कविता संग्रह "माटी मुळकेगी एक  दिन" साथ है, उसी से एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ.....

मैं ने चाहा तो बस इतना
  • शिवराम
मैं  ने  चाहा तो  बस इतना 
कि बिछ सकूँ तो बिछ  जाउँ
सड़क की तरह 
दो बस्तियों के बीच


दुर्गम पर्वतों  के आर-पार
बन जाऊँ  कोई सुरंग


फैल जाऊँ
किसी पुल की तरह
नदियों-समंदरों की छाती  पर


मैं ने  चाहा 
बन जाऊँ पगडंडी
भयानक जंगलों  के  बीच


एक प्याऊ 
उस रास्ते पर
जिस से लौटते हैं
थके हारे कामगार


बहूँ पुरवैया  की तरह
जहाँ सुस्ता रहे हों
पसीने से तर -बतर किसान


सितारा  आसमान का 
चाँद या सूरज
कब बनना  चाहा  मैं ने
 
मैं ने चाहा बस इतना 
कि, एक जुगनू
एक चकमक
एक मशाल
एक लाठी बन जाऊँ मैं
बेसहारों का सहारा।
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शनिवार, 26 दिसंबर 2009

अब हुई छुट्टियाँ शुरू


ज कल तो खूब मजे हैं, छुट्टियाँ चल रही हैं। यह वाक्य पिछले चार माह में अनेक बार सुनने को मिला। मैं  हर बार कहता  हूँ -कैसी  छुट्टियाँ? तो लोग तुरंत वकीलों की हड़ताल की ओर इशारा कर देते  हैं।  
ड़ताल का अर्थ कम  से कम वकीलों के लिए छुट्टियाँ नहीं हो सकता।  हड़ताल  में हम भले  ही अदालतों  में नहीं जा रहे हों लेकिन अपने मुवक्किलों का इतना  तो  ध्यान रखना  ही होता  है कि  उन  के किसी  मुकदमे में  उन  के किसी  हित की हानि न हो।  रोज अदालत जाना  जरूरी है। रोज के मुकदमों  में  अदालत ने क्या कार्यवाही  की  है , या केवल तारीख बदल दी है इस का पता  लगाना  जरूरी  है।  वही  सुबह समय  से अदालत तक जाना और  वही शाम पाँच बजे वापस लौटने  का क्रम  जारी है। शाम को दफ्तर में वही  समय से बैठना  फाइलों को तारीखें  बदल कर उन की सही जगह रखना। वही  मुवक्किलों  का आना,  उन  की समस्याएँ सुलझाना आदि  सब कुछ जारी  है। इस बीच  किसी को तत्काल किसी उपाय की जरूरत हुई तो उसे उस की व्यवस्था भी कर के  दी  और  उस के हितों की सुरक्षा भी की। जब हम पूर्णकालिक रूप से इस प्रोफेशन में व्यस्त  हों तो यह कैसे कहा जा  सकता था कि हम छुट्टियों  पर  हैं।  
वास्तव  में वकीलों  की  हड़ताल को हड़ताल की संज्ञा देना ही गलत है। इसे  अधिक  से अधिक  अदालतों का  बहिष्कार कहा जा सकता है। बस फर्क  पड़ा  है  तो  यह कि वकीलों की  कमाई  इस बीच लगभग शून्य या उस से कम ही रही है। वकील अपने वकालत के खर्च  भी पूरी  तरह नहीं निकल पा रहे हैं। वकीलों का मानना है  कि वे प्रोफेशन के हिसाब से कम से कम साल भर  पिछड़ गए  हैं। ऐसे में  उन से कोई  कहे कि वे छुट्टियाँ मना रहे हैं, तो उन पर क्या गुजरती होगी ये तो वही बता  सकता  है जिेसे यह सब सुनता पड़ा हो। हो सकता  है कुछ  गुस्सा भी  आता  हो। लेकिन यह  प्रोफेशन ही ऐसा है, उसे भी वकील मुस्कुराकर  या  उसे विनोद में बदल कर विषय  को ही गुम कर  देता  है । अब  आंदोलन अंतिम  दौर  में  है। सरकार से बात जारी है। हो सकता है नए साल के पहले सप्ताह में कोई  हल  निकल आए। 
 ड़ताल में ही सही अब वाकई ऑफिशियल छुट्टियाँ आरंभ हो गई  हैं। अब अदालतें  दो जनवरी  को ही खुलेंगी। हर अवकाश में बच्चे  घर आते  थे तो हमें घर ही रहना होता था। इन छुट्टियों में यह संभव नहीं हुआ। बेटा  बंगलुरू  में  है, उस  का आना  संभव नहीं था।  बेटी पूर्वा  भी इन दिनों अपने काम  में  व्यस्त है उस का आना भी संभव नहीं  था। अब हमारा छुट्टियों में घर रहना बहुत बोरिंग  होता, तो हम ने पूर्वा के पास  जाने का प्रोग्राम बना  लिया। तो हम आज बल्लभगढ़ आ गए। अब पूरी तरह अवकाश  पर हैं। अदालत और घर से पूरी तरह मुक्त। लोटपोट साथ लाए हैं, नैट कनेक्शन बेटी के पास है, तो गाहे-बगाहे हिन्दी ब्लाग  महफिल में हाजरी बजाते रहेंगे। 

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

वैलकम मिलेनियम!

दस वर्ष पहले हमने नई सहस्त्राब्दी का स्वागत किया। कवि-नाटककार शिवराम ने भी हमारे साथ उस का स्वागत किया। पढ़िए मिलेनियम के स्वागत में उन की कविता जो उन के संग्रह "माटी मुळकेगी एक दिन" से ली गई है।


वैलकम मिलेनियम!

  • शिवराम
जिनके बंद हो गए कारखाने 
छिन गया रोजगार
जो फिरते हैं मारे मारे
आओ! उन से कहें-
चीयर्स! वैलकम मिलेनियम! हैप्पी न्यू ईयर!


जिन की उजड़ गई फसलें
नीलाम हो गए कर्ज के ट्रेक्टर
बिक गई जमीन
जो विवश हुए आत्महत्याओं के लिए
उन के वंशजों से कहें-
चीयर्स! वैलकम मिलेनियम! हैप्पी न्यू ईयर!


उन बच्चों से जिन के छूट गए स्कूल
उन लड़कियों से 
जो आजन्म कुआँरी रहने को हो गई हैं अभिशप्त
उन लड़कों से 
जिन की एडियाँ घिस गई हैं
काम की तलाश में


उन से कहें 
चीयर्स! वैलकम मिलेनियम! हैप्पी न्यू ईयर!


गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

शाजापुर टू आगर वाया 'धूपाड़ा' सिटी

स के नजदीक पहुँचते ही दरवाजे के नीचे खड़े कंडक्टर ने पूछा कहाँ जाना है? आगर', मैं ने बताया और पूछा  -'जगह मिलेगी, हम तीन सवारी हैं।
-क्यों नहीं मिलेगी। उस ने तुरंत ही कहा और ले जा कर हमें बस में आगे ड्राइवर के केबिन में जमा दिया। मुझे लगा, अब केबिन में कोई नहीं आएगा। लेकिन उस के बाद भी कंडक्टर तीन-चार लोगों को वहाँ जमा गया। वह एक छोटी बस थी। कुल तीस सवारी बैठ सकतीं थीं, लेकिन साठ से ऊपर तो वह बस के अंदर जरूर ही जमा चुका था। बस चल दी। कंडक्टर टिकट बनाने आया। तीन सवारी के 105 रुपए हुए। मैं ने कहा -भैया तीन में पांच का कंसेशन नहीं करोगे? उस ने कहा -पाँच रुपया कौन बड़ी बात है? आप सौ ही दे दीजिए। उस ने सौ में तीन टिकट बना दिए। ड्राइवर केबिन के पास तीन-चार लड़के खड़े थे, दो बोनट पर बैठे थे। वे आपस में चुहलबाजी कर रहे थे। ड्राइवर भी उन्हीं की मंडली का दिखाई पड़ा। वह भी चुहल में शामिल हो गया। वे कर्णप्रिय मालवी बोल रहे थे, जो शायद अब गांवों या छोटे कस्बों में ही सुन पाना संभव है। मैं मालवी का आनंद लेने लगा। इस उम्र के लड़कों की बातचीत में अक्सर  कुछ गालियों का समावेश रहता है और सामान्य यौनिक गालियों का वे तकिया कलाम की तरह अवश्य प्रयोग करते हैं। करीब आधे घंटे से ऊपर चली चुहल में एक बार भी किसी यौनिक तो क्या, साधारण गाली या अपशब्द का भी उन्हों ने प्रयोग नहीं किया था। यह मेरे लिये सुखद अनुभव था। हम गाली-विहीन बोलचाल की भाषा की तलाश सभ्य कहलाए जाने वाले नगरीय मध्यवर्ग में तलाश कर रहे हैं और भविष्य में उस की संभावनाएँ तलाश कर रहे हैं।  लेकिन वह यहाँ बिना किसी श्रम के इन ग्रामीण नौजवानों में सहज उपलब्ध थी। हो सकता है वे कुछ विशिष्ठ परिस्थितियों में उन का प्रयोग करते हों लेकिन इस सार्वजनिक बस में अनायास बातचीत के मध्य उन्हों ने पूर्ण शालीन भाषा का प्रयोग किया था। बस सारे रास्ते चालीस या उस से कम की गति से ही चल रही थी और मार्ग के 55 किलोमीटर उसने दो घंटे में पूरे करने थे। सड़क एक बस की चौड़ाई जितनी थी। सामने से कोई वाहन आने पर दोनों में से किसी एक को या दोनों को सड़क के नीचे उतरना पड़ता था।
 मैं ने उन में अपनापा महसूस किया तो मैं भी उन की चुहल में शामिल हो गया। मैं किसी मुकदमे की बहस के सिलसिले में शाजापुर (म.प्र) गया था। बहस संतोष जनक हो गय़ी थी और हम वापस लौट रहे थे। शाजापुर से आगर तक यह बस थी। आगर से हमें कोटा की बस पकड़नी थी। मेरे मुवक्किल हरस्वरूप माथुर और उन के भतीजे प्रदीप मेरे साथ थे। बस एक स्थान पर रुकी वहाँ एक मार्ग अलग जा रहा था। बस उसी मार्ग पर मुड़ी। मैं ने उत्सुकता से एक नौजवान से पूछा -बस इधर जाएगी?
उत्तर मिला -बस एक किलोमीटर 'धूपाड़ा' तक जाएगी। फिर वापस लौट कर यहीं आएगी।
एक किलोमीटर गाँव तक बस का सवारियों को उतारने चढ़ाने के लिए जाना कुछ अजीब सा लगा। मैं ने पूछा -  'धूपाड़ा' बड़ा गाँव है?
-बड़ा गाँव ? सिटी है साहब, सिटी।
बताने वाला संभवतः विनोद कर रहा था। मैं ने भी  विनोद में सम्मिलित होते हुए पूछा -तो वहाँ नगर पालिका जरूर होगी?
-पंद्रह हजार की जनसंख्या है। लेकिन नगर पालिका हम बनने नहीं देते। हाउस टैक्स और न जाने क्या क्या टैक्स लग जाएंगे, इस लिए। और ये जो आप ने मोड़ पर घर देखे थे ये 'धूपाड़ा' की कॉलोनी है। अब वह नौजवान वाकई विनोद ही कर रहा था।
मैं ने भी उस विनोद का आनंद लेने के लिए उस से पूछा -तो भाई! इस सिटी की खासियत क्या है?
-यहाँ लोहे और इस्पात के औजार बनते हैं। गैंती, फावड़ा, कैंची, संडासी आदि। उस ने  और भी अनेक औजारों के नाम बताए।
-तब तो यहाँ सरौतियाँ भी बनती होंगी?  मैं ने पूछा।
-हाँ, बनती हैं और बहुत अच्छी बनती हैं। छोटी-बड़ी सब तरह की। आप को लेनी हो तो दरवाजे के अंदर चले जाइए, अंदर दाएं हाथ पर दुकान में मिलेगी, तीस रुपए की एक। 

ब तक बस रुक चुकी थी। पास ही एक सुंदर मुगल कालीन और उसी शैली का विशाल दरवाजा था। दरवाजे की ठीक से मरम्मत की हुई थी और उसे सुंदर रंगों से रंगा हुआ भी था। पूरा गाँव एक फोर्ट वाल के अंदर था। फोर्टवाला के बाहर खाई थी। शाम पूरी तरह घिर आयी थी। मेरे ससुराल में सरौतियाँ दस से बीस रुपए में मिल जाती हैं। मैं ने सरौती लेने का विचार त्याग दिया। लेकिन तब तक माथुर साहब कहने लगे -ले आते हैं, वकील साहब। यहाँ की निशानी रहेगी। मैं ने कहा -बस इतने थोड़े ही रुकेगी? तो ड्राइवर ने कहा -आप ले आओ हम तब तक चाय पिएंगे। माथुर साहब का आग्रह देख मैं नीचे उतरा। पास ही एक मूत्रालय बना देखा जिस में पुरुषों और स्त्रियों के लिए सुविधा थी। हम ने उस का इस्तेमाल किया, फिर चले 'धूपाड़ा' सिटी में।

अंदर पुराने नगर के चिन्ह स्पष्ट थे रास्ते के दोनों और दुकानें बनी थीं। दरवाजे से  पहली और दूसरी दुकानें लुहारों की थी। दुकानें क्या? उन की कार्यशाला भी वही थी। लोहा गरम करने के लिए धौंकनियाँ बनी थीं और कूटने के लिए स्थान बने थे।  इन के आगे चौराहा था जहाँ से दाएँ बाएँ फिर बाजार निकल रहे थे। हमने पहली ही दुकान पर सरौतियाँ देखीं। विभिन्न आकार और बनावट की थीं। सुंदर कारीगरी भी की हुई थी। हमने सब से छोटी और कम कीमत की साधारण सरौती पसंद की। उस से सुपारी काट कर देखी। सख्त सुपारी भी ऐसे कट रही थी जैसे आलू काट रहे हों। मैं जितनी सरौतियाँ अब तक इस्तेमाल कर चुका था  उन में वह सब से तेज थी। हम ने उन्हीं में से दो खरीदीं। एक मेरे लिए और एक माथुर साहब के लिए। हमारे पूछने पर दुकानदार ने बताया कि ये स्टील की बनी हैं, और बेकार हुई कमानी के लोहे की नहीं, बल्कि नए इस्पात की हैं। वे टाटा का इस्पात प्रयोग करते हैं। गाँव कब का बसा है? पूछने पर बताया की कम से कम तीन-चार सौ साल पहले का है और संभवतः पाटीदारों का बसाया हुआ है। उत्तर कितना सही था यह तो रेकॉर्ड से ही पता लग सकता है। बताया कि यहाँ के औजार प्रसिद्ध हैं और आस पास के कस्बों में ही खप जाते हैं। इतने  में बस के हॉर्न की आवाज सुनाई दी। हम समझ गए कि हमें वापस पुलाया जा रहा है। हम तेजी से वापस लौटे। बस चलने को स्टार्ड खड़ी थी। हम ने अपनी सीट संभाली और बैठ गए।

अकाल ...... शिवराम की कविता

शिवराम जी की कुछ कविताएँ आप ने पढ़ीं। उन के काव्य संग्रह "माटी मुळकेगी एक दिन" से एक और कविता पढ़िए....

अकाल
  • शिवराम
कभी-कभी नहीं
अक्सर  ही होता है यहाँ ऐसा
कि अकाल मंडराने लगता है
बस्ती दर बस्ती
गाँव दर गाँव


रूठ जाते हैं बादल
सूख जाती हैं नदियाँ
सूख जाते हैं पोखर-तालाब
कुएँ-बावड़ी सब
सूख जाती है पृथ्वी
बहुत-बहुत भीतर तक 

सूख जाती है हवा
आँखों की नमी सूख जाती है


हरे भरे वृक्ष
हो जाते हैं ठूँठ
डालियों से
सूखे पत्तों की तरह
झरने लगते हैं परिंदे
कातर दृष्टि से देखती हैं
यहाँ-वहाँ लुढ़की
पशुओं की लाशें


उतर आते हैं गिद्ध
जाने किस-किस आसमान से
होता है महाभोज
होते हैं प्रसन्न चील कौए-श्रगाल आदि


आदमी हो जाता है
अचानक बेहद सस्ता
सस्ते मजदूर, सस्ती स्त्रियाँ
बाजार पट जाते हैं, दूर-दूर तक
मजबूर मजदूरों
और नौसिखिया वेश्याओं से


भिक्षावृत्ति के
नए-नए ढंग होते हैं ईजाद
गाँव के गाँव
हाथ फैलाए खड़े हो जाते हैं 
शहरों के सामने


रहमदिल सरकार
खोलती है राहत कार्य
होशियार और ताकतवर लोग
उठाते हैं अवसर का लाभ
भोले और कमजोर लोग
भरते हैं समय का खामियाजा


होते हैं यज्ञ और हवन
किसान, आदिवासी और गरीब लोग
बनते हैं हवि
ताकते रहते हैं आसमान
फटी फटी आँखों से


कभी-कभी ही नहीं
अक्सर ही होता है यहाँ ऐसा। 

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

क्या ब्लागवाणी पर ट्रॉजन वायरस का हमला हुआ है और वह इसकी वाहक बन रही है?


कोटा से यात्रा पर रवाना होने के पहले ब्लागवाणी देखी तो एंटीवायरस ने चेतावनी दी कि वायरस आ रहे हैं। देखा तो स्रोत ब्लागवाणी है। तो क्या ब्लागवाणी पर ट्रॉजन वायरस का हमला हुआ है। यदि ऐसा है तो यह हिन्दी ब्लागरों के लिए चिंता की बात है। कृपया ब्लागवाणी के प्रबंधक इस को जाँचें और इसे वायरस हीन करने का प्रयत्न करें। वरना बहुत लोगों के कंप्यूटर वायरस ग्रस्त हो सकते हैं।

यौनिक गाली का अदालती मामला


विगत आलेख में मैं ने लिखा था कि "यौनिक गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।"
स आलेख पर पंद्रह टिप्पणियाँ अभी तक आई हैं। संतोष की बात तो यह कि उस पर अग्रज डॉ. अमर कुमार जी ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी की, जिन से आज कल दुआ-सलाम भी बहुत कठिनाई से होती है। वे न जाने क्यों ब्लाग जगत से नाराज हैं? इन टिप्पणियों से प्रतीत हुआ कि जो कुछ मैं ने कहा था वह इतनी साधारण बात नहीं कि उसे हलके-फुलके तौर पर निपटा दिया जाए। इस चर्चा को वास्तव में गंभीरता की आवश्यकता है। पिछले लगभग चार माह से कोटा के वकील हड़ताल पर हैं। मैं भी उन में से एक हूँ। रोज अदालत जाना आवश्यकता थी, जिस से अदालतों में लंबित मुकदमों की रक्षा की जा सके। अदालत के बाद के समय को मैं ने ब्लागरी की बदौलत पढ़ने और लिखने में बिताया। उस का नतीजा भी सामने है कि मैं "भारत में विधि के इतिहास" श्रंखला को आरंभ कर पाया। 24 दिसंबर से अवकाश आरंभ हो रहे हैं जो 2 जनवरी तक रहेंगे। इस बीच कोटा के बाहर भी जाना होगा। लेकिन यह पता न था कि मैं अचानक व्यस्त हो जाउंगा। 21 जनवरी कुछ घरेलू व्यस्तताओं में बीत गई और 22 को मुझे दो दिनों की यात्रा पर निकलना है फिर लौटते ही वापस बेटी के यहाँ जाना है। इस तरह कुछ दिन ब्लागरी से दूर रह सकता हूँ और कोई गंभीर काम कर पाना कठिन होगा।

मैं इस व्यस्तता के मध्य भी एक घटना बयान करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ जो यौनिक गालियों से संबद्ध है और समाज में इन के आदतन प्रचलन को प्रदर्शित करती है .....
टना यूँ है कि एक व्यक्ति को जो भरतपुर के एक कारखाने में काम करता था अपने अफसर को 'भैंचो' कहने के आरोप से आरोपित किया गया और घरेलू जाँच के उपरांत नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। मुकदमा चला और श्रम न्यायालय ने उस की बर्खास्तगी को सही माना कि उस ने अपने अफसर के साथ अभद्र बर्ताव किया था। मामला उच्चन्यायालय पहुँचा। संयोग से सुनवाई करने वाले जज स्वयं भी भरतपुर क्षेत्र के थे। बर्खास्त किए गए व्यक्ति की पैरवी करने वाले एक श्रंमिक नेता थे जिन की कानूनी योग्यता और श्रमिकों के क्षेत्र में उन के अनथक कार्य के कारण हाईकोर्ट ने अपने निर्णयों में 'श्रम विधि के ज्ञाता' कहा था और  जज उलझे श्रम मामलों में उन से राय करना उचित समझते थे। जब उस व्यक्ति के मामले की सुनवाई होने लगी तो श्रमिक नेता ने उन्हें कहा कि मैं इस मामले पर चैंबर में बहस करना चाहता हूँ। अदालत ने उन्हें इस की अनुमति दे दी। दोनों पक्ष जज साहब के समक्ष चैंबर में उपस्थित हुए। श्रमिक नेता ने कहा कि इस मामले में यह साबित है कि इस ने 'भैंचो' शब्द कहा है। स्वयं आरोपी भी इसे स्वीकार करता है। लेकिन वह भरतपुर का निवासी है और निम्नवर्गीय मजदूर है। भरतपुर क्षेत्र के वासियों के लिए इस शब्द का उच्चारण कर देना बहुत सहज बात है और सहबन इस शब्द का उच्चारण कर देना अभद्र नहीं माना जा सकता। इस व्यक्ति की बर्खास्तगी को रद्द कर देना चाहिए। हाँ यदि अदालत चाहे तो कोई मामूली दंड इस के लिए तजवीज कर दे।
ज साहब स्वयं भी अपने चैम्बर में होने के कारण अदालत की मर्यादा से बाहर थे। उन के मुख से अचानक निकला "भैंचो, भरतपुर में बोलते तो ऐसे ही हैं।"
इस के बाद श्रमिक नेता ने कहा कि मुझे अब कोई बहस नहीं करनी आप जो चाहे निर्णय सुना दें। आरोपी की बर्खास्तगी को रद्द कर के उसे पिछले आधे वेतन से वंचित करते हुए नौकरी पर बहाल कर दिया गया।

स घटना के उल्लेख के उपरांत मुझे भी आज आगे कुछ नहीं कहना है। कुछ दिन ब्लागीरी के मंच से अनुपस्थित रहूँगा। वापस लौटूंगा तो शायद कुछ नया ले कर। नमस्कार!

रविवार, 20 दिसंबर 2009

एक गाली चर्चा : अपनी ही टिप्पणियों के बहाने

पिछले साल के दिसम्बर में भी गालियों पर बहुत कुछ कहा गया था। मैं ने नारी ब्लाग पर एक टिप्पणी छोड़ी थी ......
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
किसी भी मुद्दे पर बात उठाने का सब से फूहड़ तरीका यह है कि बात उठाने का विषय आप चुनें और लोगों को अपना विषय पेलने का अवसर मिल जाए। गाली चर्चा का भी यही हुआ। बात गाली पर से शुरू हुई और गुम भी हो गई। शेष रहा स्त्री-पुरुष असामनता का विषय।

वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
 इस टिप्पणी पर एक प्रतिटिप्पणी सुजाता जी की आई .......
सुजाता said...
वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
----
दिनेश जी जब आप मान ही रहे हैं कि स्त्री पुरुष असमानता और गाली चर्चा में प्रमुख सम्बन्ध है फिर आपको यह बात उठाने का फूहड़ तरीका कैसे लग सकता है।
अथवा आप कहना चाहते हैं कि क्योंकि मैने मुद्दे को सही तरीके से उठाया इसलिए कोई cmpershad सरे आम गाली दे जाना जायज़ साबित हो जाता है।
माने आपको मेरी बात पसन्द नहीं आएगी तो क्योंकि आप पुरुष हैं तो आप भी ऐसी ही कोई भद्दी बात कहने के हकदार हो जाएंगे।
मैं नारी ब्लाग की उस पोस्ट पर दुबारा नहीं जा पाया इस कारण से मुझे साल भर तक यह भी पता नहीं लगा कि सुजाता जी ने कोई प्रति टिप्पणी की थी और उस में ऐसा कुछ कहा था। साल भर बाद भी शायद मुझे इस का पता नहीं लगता। लेकिन आज सुबह नारी ब्लाग की पोस्ट "पी.सी. गोदियाल जी अफ़सोस हुआ आप कि ये पोस्ट पढ़ कर ये नहीं कहूँगी क्युकी इस से भी ज्यादा अफ़सोस जनक पहले पढ़ा है।"  पर फिर से कुछ ऐसा ही मामला देखने को मिला। वहाँ छोड़ी गई लिंक से पीछे जाने पर चिट्ठा चर्चा की पोस्ट पर मुझे अपनी ही यह टिप्पणी मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said:  
देर से आने का लाभ,
चिट्ठों पर चर्चा के साथ
चर्चा पर टिप्पणी और,
उस पर चर्चा
वर्षांत में दो दो उपहार।
वहाँ से सिद्धार्थ जी के ब्लाग पर पहुँचा और पोस्ट गाली-गलौज के बहाने दोगलापन पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ने को मिली ...
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोग गालियाँ क्यों देते हैं ? और पुरुष अधिक क्यों? यह बहुत गंभीर और विस्तृत विषय है। सदियों से समाज में चली आ रही गालियों के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। समाज में भिन्न भिन्न सामाजिक स्तर हैं। मुझे लगता है कि बात गंभीरता से शुरू ही नहीं हुई। हलके तौर पर शुरू हुई है। लेकिन उसे गंभीरता की ओर जाना चाहिए।
यहाँ से पहुँचा मैं लूज शंटिंग 
पर दीप्ति की लिखी पोस्ट पर वहाँ भी मुझे अपनी यह टिप्पणी देखने को मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोगों को पता ही नहीं होता वे क्या बोल रहे हैं। शायद कभी कोई भाषा क्रांति ही इस से छुटकारा दिला पाए।
फिर दीप्ती की पोस्ट पर लिखी गई चोखेरबाली की  पोस्ट पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ी।
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
बस अब यही शेष रह गया है कि यौनिक गालियाँ मजा लेने की चीज बन जाएं। जो चीज आप को मजा दे रही है वही कहीं किसी दूसरे को चोट तो नहीं पहुँचा रही है।
न सब आलेखों पर जाने से पता लगा कि यौनिक गालियों के बहाने से बहुत सारी बहस इन आलेखों में हुई। मैं सब से पहले आना चाहता हूँ सुजाता जी की प्रति टिप्पणी पर। शायद सुजाता जी ने उस समय मेरी बात को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया। मेरी टिप्पणी का आशय बहुत स्पष्ट था कि किसी भी मुद्दे को इस तरीके से उठाना उचित नहीं कि उठाया गया विषय गौण हो जाए और कोई दूसरा ही विषय वहाँ प्रधान हो जाए। यदि हो भी रहा हो तो पोस्ट लिखने वाले को यह ध्यान दिलाना चाहिए कि आप विषय से भटक रहे हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि विषय को भटकाने वालों को सही जवाब दिया जा कर विषय पर आने को कहना चाहिए और यह संभव न हो तो विषय से इतर भटकाने वाली टिप्पणियों को मोडरेट करना चाहिए। सुजाता जी ने अपनी बात कही, मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन वे समझती हैं कि मेरी टिप्पणी इस लिए थी कि मैं पुरुष हूँ, तो यह बात गलत है, वह टिप्पणी पुरुष की नहीं एक ब्लागर की ही थी।

खैर, इस बात को जाने दीजिए। मेरी आपत्ति तो इस बात पर है कि पिछले साल गालियों पर हुई चर्चा का समापन अभी तक नहीं हो सका है। वह बहस नारी की आज की पोस्ट पर फिर जीवित नजर आई। हो सकता है यह बहस लम्बे समय तक रह रह कर होती रहे। लेकिन यह एक ठोस सत्य है कि समाज में यौनिक गालियाँ मौजूद हैं और उन का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है। इस सत्य को हम झुठला नहीं सकते। यह भी सही है कि सभ्यता और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों से  इन से बचे रहने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि स्त्रियाँ इस से अछूती रही हों। मुझे 1980 में किराये का घर इसीलिए बदलना पड़ा था कि जिधर मेरे बेडरूम की खिड़की खुलती थी उधर एक चौक था। उस चौक में जितने घरों के दरवाजे खुलते थे उन की स्त्रियाँ धड़ल्ले से यौनिक गालियों का प्रयोग करती थीं, पुरुषों की तो बात ही क्या उन्हें तो यह पुश्तैनी अधिकार लगता था।
मेरे पिता जी को कभी यौनिक तो क्या कोई दूसरी गाली भी देते नहीं देखा। मेरी खुद की यह आदत नहीं रही कि ऐसी गालियों को बर्दाश्त कर सकूँ। ऐसी ही माँ से सम्बंधित गाली देने पर एक सहपाठी को मैं ने पीट दिया था और मुझे उसी स्कूल में नियुक्त अपने पिता से पिटना पड़ा था। 
म बहुत बहस करते हैं। लेकिन  ये गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

अंधों का गीत ..... शिवराम


पिछली पोस्ट चार कदम सूरज की ओर
पर शिवराम जी की इसी शीर्षक की कविता पर विष्णु बैरागी जी ने टिप्पणी की थी कि इस कविता का नुक्कड़ नाटकों के रूप में उपयोग किया जा सकता है। शिवराम हिन्दी के शीर्षस्थ नुक्कड़ नाटककार हैं। 'जनता पागल हो गई है' तो उन का सार्वकालिक बहुचर्चित नाटक है। जिसे नाटक की किसी भी फॉर्म में खेला जा सकता है और खेला गया है। मुझे गर्व है कि इस नाटक की अनेक प्रस्तुतियाँ मैं ने देखी हैं और कुछ प्रस्तुतियों में मुझे अभिनय का अवसर भी प्राप्त हुआ। उन के नाटकों में लोक भाषा और मुहावरों का प्रयोग तो आम बात है, लोकरंजन के तत्व भी बहुत हैं। लेकिन वे उन में गीतों का समावेश भी खूब करते हैं और इस तरह कि वे मर्म पर जा कर चोट करते हैं। 
ऐसा ही एक गीत है "अंधों का गीत" जो सीधे जनता पर चोट करता है। आज प्रस्तुत है यही गीत आप के लिए। तो पढ़िए .......

अंधों का गीत
  • शिवराम
अंधों के इस भव्य देश में
सब का स्वागत भाई!

दिन में भी रात यहाँ पर
बात-बात में घात यहाँ पर
लूटो-मारो, छीनो-झपटो
राह न कोई राही
अंधा राजा, अंधी पिरजा
अंधी नौकरशाही।।


एक के दो कर, दो के सौ कर
या कोई भी घोटाला कर
तिकड़म, धोखा, हेराफेरी 
खुली छूट है भाई
अंध बाजार, अंध भोक्ता
अंधी पूँजीशाही।।


अंधों के इस भव्य देश में
सब का स्वागत है भाई।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

वडनेरकर जी की टाइम मशीन ने कराई भूतकाल की सैर - लगाई गांठें और बनाए गैजेट्स

अजित वडनेरकर जी के शब्दों के सफर पर प्रकाशित आलेख ने एक टाइम मशीन की तरह काम करते हुए मुझे अपनी किशोरावस्था में पहुँचा दिया। शायद इसे ही कहते हैं भूतकाल की सैर करना। तो इस टाइम मशीन ने मुझे स्काउटिंग के कैंप में पहुँचाया। जहाँ मैं ने देखा कि मैं गाँठें सीख रहा हूँ। मैं ने बहुत सारी गांठें सीख ली हैं, जिन का उपयोग मैं अनेक कामों में कर सकता हूँ। जैसे रीफ नॉट है जिस का उपयोग किसी घाव पर पट्टी को अंतिम रूप देने के लिए किया जाता है, जिस से गांठ तो लगे लेकिन वह घाव में न चुभे। किसी स्तंभ से किसी पशु को बांधना हो तो खूंटा फाँस का उपयोग किया जा सकता है इसे अंग्रेजी में क्लोव हिच कहते हैं। लेकिन किसी पशु के गले में इसे न लगा देना, अन्य़था यह उस के लिए फाँसी का फंदा बन सकती है। वहाँ हमें लूप नॉट का प्रयोग करना होगा।



सी ही बहुत सी गांठे मैं ने सीखीं। फिर बहुत से स्काउटिंग के कैंपों में होता हुआ मैं एक कैंप में पहुँचा। यह भी एक प्रशिक्षण शिविर था जो माउंट आबू में लगाया गया था। इस में सब स्काउट प्रथम श्रेणी स्काउट का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे। मैं अकेला था जो यह प्रशिक्षण पहले ही प्राप्त कर प्रमाण पत्र ले चुका था, मुझे राष्ट्रपति स्काउट का प्रशिक्षण लेना पड़ा। यहाँ रस्सियों, लट्ठों, बाँसों, केम्प क्षेत्र के वृक्षों आदि की सहायता से गाँठें लगा लगा कर मैं ने अनेक गैजेट्स बनाए। एक पेड़ से दूसरे पेड़ के बीच एक पुल बनाया। दोनों और पुल तक पहुँचने के लिए रस्सियों की सीढ़ियाँ लगाई गईं। केम्प में उपस्थित प्रत्येक स्काउट और स्काउट मास्टर सीढ़ी पर हो कर पुल पर जाता है और पुल पार करता है फिर दूसरी ओर की सीढ़ी से उतरता है।




सा ही एक और शिविर है चम्बल के किनारे,  जहाँ प्रतियोगिता है। मैं एक गैजेट नाव बनाता हूँ जिस में एक बाईसिकल चढ़ाई जाती है। यह क्या? बाईसिकल पर बैठ कर  पैड़ल चलाते हुए नदी पार की जा सकती है। यानी अब बाईसिकल अब नदी में भी चल रही है।
मैं वापस वर्तमान में लौट आता हूँ। वडनेरकर जी के शब्दों के सफर  पर एक टिप्पणी करता हूँ। फिर एक वेबसाइट तलाशता हूँ। बहुत शानदार है यह वेबसाइट यहाँ गाँठें हैं और उन्हें सिखाने का पूरा प्रबंध है। आप इन्हें सीखना चाहते हैं तो नीचे के चित्र पर  या यहाँ क्लिक कीजिए, जो वेब-पृष्ठ खुले उस पर मौजूद किसी गाँठ पर क्लिक कीजिए। अरे वाह! यहाँ तो ऐनीमेशन पूरी गाँठ लगाना सिखा रहा है।




देखते हैं आप कितनी गाँठें कितने दिन, मिनटों या सैकंडों में सीखते हैं।

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

चार कदम सूरज की ओर

आज कल व्यस्तता के कारण स्वयं कुछ लिख पाने में असमर्थ रहा हूँ। लेकिन इस असमर्थता का लाभ यह हुआ है कि  मैं शिवराम जी की कविताएँ आप के सामने प्रस्तुत कर पा रहा हूँ। उन के सद्य प्रकाशित तीन काव्य संग्रहों में से एक कुछ तो हाथ गहों से एक गीत आप के पठन के लिए बिना किसी भूमिका के प्रस्तुत है .....

चार कदम सूरज की ओर
  • शिवराम
चोरी लूट ठगी अपराध
आपाधापी भीतरघात
भ्रष्टाचार और बेकारी
चारों ओर है मारामारी

महंगाई का ओर न छोर
चार कदम सूरज की ओर

ऐसे उदार रघुराई
कुतिया चौके में घुस आई
इतने खोले चौपट द्वार
हुए पराए निज घर-बार

बर्बादी में उन्नति शोर 
चार कदम सूरज की ओर

कर्ज के पैसे जेब में चार 
कैसे इतराते सरकार
उछले जाति धर्म के नारे
नेता बन गए गुण्डे सारे

धुआँ धुआँ सांझ और भोर
चार कदम सूरज की ओर

भावी पीढ़ी को उपहार
सेक्स, नशा और व्यभिचार
आजादी को रख कर गिरवी
भाषण देते तन कर प्रभुजी

जैसे चोर मचाए शोर
चार कदम सूरज की ओर।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

समूह का जिम्मेदार हिस्सा

खिर आज बार  (अभिभाषक परिषद) के चुनाव संपन्न हो गए। मेरा वकालत में इकत्तीसवाँ वर्ष भी इसी माह पूरा हुआ है। दिसंबर 1978 में मुझे बार कौंसिल ने पंजीकरण की सूचना दे दी थी। हालांकि मैं ने इस के भी करीब छह माह पहले से ही अदालत जाना आरंभ कर दिया था। मैं कभी भी अभिभाषक परिषद की गतिविधियों के केंद्र से अधिक दूर नहीं रहा। कुछ कारणों से पिछले पाँच वर्षों से स्वयं को दूर रखना पड़ा।  लेकिन तीसरा खंबा आरंभ करने के बाद इस सब से दूर रहना संभव नहीं था। यदि वकीलों तक अपनी बात को सही ढंग से पहुँचाना है तो वही एक मात्र मंच ऐसा है जिस से यह काम किया जा सकता है। इस बार अपने एक कनिष्ठ अभिभाषक  रमेशचंद्र नायक को कार्यकारिणी की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ाया। सामान्य रूप से वह एक बहुत अच्छा उम्मीदवार था। लेकिन चुनाव में जिस तरह की प्रतियोगिता थी उस से मुझे भी उस में व्यस्त होना पड़ा। पिछले चार पांच दिन तो इसी में निकल गए। उस श्रम का ही नतीजा रहा कि नायक चुनाव में सफलता हासिल कर  नए वर्ष में  अभिभाषक परिषद कोटा का काम संभालने वाली नई कार्यकारिणी की सदस्यता हासिल कर सका। रमेशचंद्र नायक का यह पहला अवसर है जब उस ने वकीलों के समूह की जिम्मेदारी को हाथ में लिया है। वह इसे मन से पूरी करेगा और साल के अंत में उस से बड़ी जिम्मेदारी को उठाने के लिए सक्षम होगा और तन-मन से तैयार भी।

 रमेशचंद्र नायक
र समूह के लोगों की अपनी समस्याएँ होती हैं, चाहे वह समूह घर पर परिवार के रूप में हो, नजदीकी रिश्तेदारों का समूह हो, मोहल्ले की सोसायटी का समूह हो या साथ काम करने वाले लोगों का समूह हो। हर जगह यह समूह किसी न किसी तरह की समस्याओं का सामना कर रहा होता है। हम सभी स्थानों पर वैयक्तिक समस्याओं के हल के लिए जूझते हैं लेकिन समूह की समस्याओं से कतरा जाते हैं। नतीजा यह होता है कि सामुहिक समस्याएँ बढ़ती रहती हैं और हम वैयक्तिक मार्ग तलाशते रहते हैं और आगे बढ़ते रहते हैं। इन वैयक्तिक मार्गों पर वही व्यक्ति सर्वाधिक सफल रहता है जो सब से चालाक होता है, सब से सीधे व्यक्ति का मार्ग सब से पहले बंद होता है और उसे एक बंद सुरंग में छोड़ देता है।

प इस वैयक्तिक मार्ग पर चल कर किसी सुरंग में अकेले फँसे रह जाएँ, उस से अच्छा है कि आप सामुहिक समस्याओं के हल के लिए आगे आएँ। इस के लिए कहीं न कहीं समूह की कोई न कोई सामुहिक जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। जब आप समूह में रहेंगे तो हमेशा किसी अंधेरी सुरंग से दूर रहेंगे और किसी सुरंग में फँस भी गए तो अकेले नहीं होंगे। रमेशचंद्र नायक की इस सफलता के साथ-साथ हमारे वकालत के दफ्तर के सभी  साथी महसूस कर रहे हैं कि वे अब समूह का अधिक जिम्मेदार हिस्सा हैं।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

रात इतनी भी नहीं है सियाह

"माटी मुळकेगी एक दिन" से शिवराम की एक और कविता ...

 'कविता'
रात इतनी भी नहीं है सियाह 
                                     शिवराम




चंद्रमा की अनुपस्थिति के बावजूद
और बावजूद आसमान साफ नहीं होने के
रात इतनी भी नहीं है सियाह
कि राह ही नहीं सूझे

यहाँ-वहाँ आकाश में अभी भी
टिमटिमाते हैं तारे
और ध्रुव कभी डूबता नहीं है
पुकार-पुकार कर कहता है 
बार बार
उत्तर इधर है, राहगीर! 
उत्तर इधर है


न राह मंजिल है
न पड़ाव ठिकाने

जब सुबह हो
और सूरज प्रविष्ठ हो 
हमारे गोलार्ध में
हमारे हाथों में हों 
लहराती मशालें


हमारे कदम हों 
मंजिलों को नापते हुए

हमारे तेजोदीप्त चेहरे करें
सूर्य का अभिनन्दन।

 

 

रविवार, 13 दिसंबर 2009

और क्या कर रहे हो आजकल/कविता के अलावा

"माटी मुळकेगी एक दिन" से शिवराम की एक और कविता

कविता के अलावा
  • शिवराम
जब जल रहा था रोम
नीरो बजा रहा था बंशी
जब जल रही है पृथ्वी
हम लिख रहे हैं कविता

नीरो को संगीत पर कितना भरोसा था
क्या पता
हमें जरूर यकीन है 
हमारी कविता पी जाएगी
सारा ताप
बचा लेगी
आदमी और आदमियत को
स्त्रियों और बच्चों को
फूलों और तितलियों को 
नदी और झरनों को


बचा लेगी प्रेम
सभ्यता और संस्कृति
पर्यावरण और अंतःकरण


पृथ्वी को बचा लेगी 
हमारी कविता


इसी उम्मीद में
हम प्रक्षेपास्त्र की तरह 
दाग रहे हैं कविता
अंधेरे में अंधेरे के विरुद्ध
क्या हमारे तमाम कर्तव्यों का 
विकल्प है कविता
हमारे समस्त दायित्वों की 
इति श्री 


नहीं, बताओ
और क्या कर रहे हो आजकल
कविता के अलावा ।

एक पूरा छुट्टी का दिन : बहुत दिनों के बाद


ड़ताल 105 दिन पूरे कर चुकी है। इधर अभिभाषक परिषद के चुनाव जोरों पर है। उम्मीदवार सभी मतदाताओं से मिलने के प्रयत्न कर रहे हैं। अध्यक्ष और सचिव पद के उम्मीदवारों का घर-घर जाना पुरानी परंपरा बन चुका है। इस बार उपाध्यक्ष, पुस्तकालय सचिव और कार्यकारिणी सदस्य के उम्मीदवार भी घरों पर आए। अब पंद्रह दिसंबर तक, जब तक मतदान होगा, हड़ताल को शायद ही कोई स्मरण करे। हाँ, उस का इतना उल्लेख जरूर होगा कि कम से कम आने वाली कार्यकारिणी ऐसी अवश्य आए जो हड़ताल से जुड़े हाईकोर्ट की बैंच कोटा में खोले जाने के मामले को इस तरह से आगे बढ़ाए कि जल्द से जल्द हड़ताल से छुटकारा मिल सके। सब के अवचेतन में यह बात कहीं न कहीं अवश्य है और मतदान का बिंदु भी यही होगा। परिणाम बताएँगे कि लोग किसे योग्य पाते हैं। इस बार कोई भी, और बात चुनाव को प्रभावित नहीं कर सकेगी। न ग्रुप, न राजनैतिक संबद्धता, न रिश्तेदारी और न गुरूचेले का संबंध। यही होता है, जब पूरी बिरादरी एक संक्रमण में हो तो फैसले गुणावगुण पर होने लगते हैं।
ह अंदेशा तो है ही कि अब हड़ताल का अंत कुछ ही दिनों में होगा। हमें नए सिरे से अदालतों में काम के लिए तैयार होना  होगा, उस के लिए आवश्यक है कि हमारे दफ्तर तैयार रहें। उन में जो काम पिछड़ गया है वह लाइन पर ले आया जाए। सब पत्रावलियाँ यथास्थान हों। डायरी पूरी तरह से तैयार हो, उस में जो भी कमियाँ हैं पूरी कर ली जाएँ। जिन पत्रावलियों में मुतफर्रिक काम करने हैं, उन्हें कर लिया जाए। कल रात को जब तीसरा खंबा की पोस्ट शिड्यूल कर के उठा तो निश्चय यही था कि  ये सब काम  शनिवार को निपटा लिए जाएँ, जिस से रविवार पूरी तरह से आजाद रहे। लेकिन शुक्रवार का सोचा सब गड़बड़ हो जाता है, यदि उस के बाद  का दिन महीने का दूसरा शनिवार हो। सुबह की चाय पीते-पीते हुए अखबार देखने और उस के बाद नैट पर ब्लाग पढ़ने,कुछ टिप्पणियाँ करने में घड़ी ने नौ बजा दिए। स्नानादि से निपटा तब तक साढ़े दस बज रहे थे। दफ्तर में आ कर डायरी को कुछ ठीक किया ही था कि भोजन तैयार होने की आवाज आ गई। इस आवाज के बाद कुछ भी बर्दाश्त के बाहर होता है।
बैंगन के भर्ते और बथुई की कढ़ी के साथ गरम गरम चपातियाँ थीं। बस गुड़ की डली की कसर शेष थी। पता लगा वह रात ही समाप्त हुआ है। हमने चैन की सांस ली। पिछली बार जो गुड़ लाए थे। वह देसी तो था, पर दाने में कस र थी। वो मजा नहीं आ रहा था। उस से पीछा छूटा। सोचा चाहे दस दुकानें क्यों न छाननी पड़ें। आज दानेदार देसी गुड़ ढूंढ कर लाया ही जाएगा। भोजन कर के फिर से दफ्तर में आ कर बैठा तो पेट ने बदन के सारे लहू को भोजन पचाने में लगा दिया था। दिमाग को लहू की सप्लाई कम मिली तो वह ऊंधने लगा। आज धूप कुनकनी थी और हवा में ठंडक। चटाई-तकिया,अखबार और किताब ले कर छत पर गया। धूप में लेटे-लेटे सुडोकू हल करने लगा। आज की पहेली बहुत खूबसूरत थी। उसने अन्तिम दो अंकों तक छकाया। उसे पूरी करते-करते कुछ भी पढ़ने की हालत नहीं रही। आँखे बंद कीं तो नीन्द ने आ दबोचा। बीच में आ कर शोभा छत पर सुखाई गई मंगोड़ी संभाल गई। बदन गर्म होते ही धूप चुभने लगी। मैं ने डोर पर सूख रहा चादर अपने ऊपर डाल लिया। धूप की चुभन से बचाव हो गया। लेकिन कुछ ही देर में चादर के अंदर की हवा गरम हो गई। इस बार नींद टूटी तो बदन से भरपूर पसीना निकल रहा था। मैं ने चटाई समेटी और नीचे कमरे में आ लेटा। फिर नींद लग गई। आखिर दो बजे मोबाइल की घंटी ने उठाया।
प्रेमकुमार सिंह का फोन था। वे अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे हैं। जब भी कभी मुझे किसी फौजदारी मुकदमे में जरूरत होती है तो वे मेरे वकील होते हैं। सुलझे हुए व्यक्ति हैं। उन से तय था कि मेरे मुहल्ले के वकीलों से वे मेरे साथ मिलेंगे। तीन बजे का समय तय हुआ। मैं ने शोभा को बताया कि तीन बजे वे आ रहे हैं, कॉफी  उन के सात पियूँगा। उस ने तुरंत ही बना दी, क्या पता चुनावी जल्दी में हों और मुझे भी न पीने दें। खैर हुआ भी यही। उन के आते ही हम चल दिए। इलाके के कोई पच्चीस-तीस वकीलों के यहाँ घूम-मिल वापस अपने घर पहुँचते पहुँचते  साढ़े पाँच हो गए। उसी समय मेरी साली की बेटी श्रद्धा रविवार का अवकाश हमारे साथ बिताने आ गई। वह यहीं आईआईटी की कोचिंग कर रही है। उस का आना अच्छा लगा। मैं ने दीवान पर अधलेटे हो कर टीवी खोला, तो ट्वंटी-ट्वंटी आरंभ हो चुका था। मैं और श्रद्धा मैच देखने लगे। शोभा ने आ कर पूछा -खाने में क्या बनेगा? इस प्रश्न का उत्तर हमेशा प्रश्न होता है। ..... तुम्हारे पास क्या है? .... जवाब आया -मैथी।. ... तो पराठे बना लो, श्रद्धा ने भी मेरे मत का समर्थन किया। मैच के इंटरवल में अमिताभ कमेंट्री करने आते तब तक पराठे तैयार हो कर टेबल पर हाजिर थे।
राठों से निपटने के बाद मैच पूरा देखा। आखिर भारत ने मैच जीत  लिया। कंमेंटेटर बल्लेबाजों  की तारीफों के पुल बांधने लगे। हार जाता तो उन का पुलंदा बांधते। तभी कुछ और उम्मीदवार मिलने आए। इस बीच बेटे वैभव और बेटी पूर्वा से फोन पर बात हुई।  इस के बाद मैं दफ्तर में नहीं बैठ सका। फिर से जा कर सारेगामा का 1000वीं प्रस्तुति देखी।  अभी उठ कर वापस आया तो सोचा आज मैं ने क्या किया? जो कल सोचा था वह  काम तो आज बिलकुल नहीं कर पाया। बहुत दिनों बात एक पूरा दिन छुट्टी मनाई।  अब सोच रहा हूँ। शनिवार का काम कल जरूर निपटा दूंगा। शनिवार का सोचा रविवार को तो करना ही पड़ता है, वरना उस के पीछे एक नया सोमवार खड़ा होता है।


तेरी  मुक्ति   के  लिए,   कर  तू  ही   संघर्ष
ना सहाय कोई देवता, न कोई ईश विमर्श
  • शिवराम

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

व्यथा की थाह

शिवराम के तीन काव्य संग्रहों में एक है 'माटी मुळकेगी एक दिन'। बकौल 'शैलेन्द्र चौहान' इस संग्रह की कविताएँ प्रेरक और जन कविताएँ हैं। अनवरत पर इन कविताओं को यदा कदा प्रस्तुत करने का विचार है। प्रस्तुत है एक कविता......


व्यथा की थाह
  • शिवराम

किसी तरह 
अवसर तलाशो
उस की आँखों में झाँको


चुपचाप


गहरे और गहरे


वहाँ शायद 
थाह मिले कुछ


उस की व्यथा का 
पूछने से 
कुछ पता नहीं चलेगा।