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शनिवार, 1 अगस्त 2020

रजनी पाम दत्त और फासीवाद

_______________ Jagadishwar Chaturvedi


रजनी पाम दत्त 

रजनी पाम दत्त का विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में महत्वपूर्ण स्थान है।उन्होंने लंबे समय तक स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में भी अग्रणी नेता के रूप में भूमिका अदा की।वे कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रमुख सिद्धांतकार हैं।

भारत इन दिनों नरेन्द्र मोदी और आरएसएस की राजनीति के मोह में जिस तरह बंधा है उससे मुक्त होने के लिए जरूरी है कि हम रजनी पाम दत्त के फासीवाद विरोधी नजरिए की प्रमुख धारणाओं को जानें। भारत में जिसे अधिनायकवाद,तानाशाही या साम्प्रदायिकता कहते हैं ये सब फासीवाद के ही रूप है।देशज परिस्थितियों के कारण उनके लक्षणों में कुछ भिन्नता जरूर नजर आती है,लेकिन उसकी बुनियादी प्रवृत्तियां फासीवाद से मिलती-जुलती हैं।

रजनी पाम दत्त के अनुसार ´फासीवाद खास परिस्थितियों में आधुनिक पूंजीवादी नीतियों और प्रवृत्तियों में पतन की पराकाष्ठा आने से पैदा होने वाली चीज है और यह उसी पतन की संपूर्ण और सतत अभिव्यक्ति करता है।

आमतौर पर यह धारणा रही है कि फासीवाद में तमाम किस्म की स्वतंत्रताएं स्थगित कर दी जाती हैं, संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार, मौलिक अधिकार आदि को स्थगित कर दिया जाता है, भारत में हम सबने यह आपातकाल में महसूस किया है।लेकिन यह भी संभव है कि संवैधानिक संस्थाओं, मूल्यों और मान्यताओं को लोकतंत्र के रहते निष्क्रिय बना दिया जाए,जैसा कि इन दिनों भारत में हो रहा है। रजनी पाम दत्त ने फासीवादी संगठनों की भूमिका पर रोशनी डालते हुए लिखा कि अनेक देशों में फासीवाद का जन्म जनता के बीच आंदोलन खड़ा करके और जनता के वोट से सत्ता हासिल करके हुआ है। फासीवादी आंदोलनकारी आम जनता में आतंक पैदा करके ,कानून की परवाह न करने वाली गिरोहबंदियों को बनाकर, संसदीय परंपराओं की अनदेखी करके, राष्ट्रीय और सामाजिक तौर पर भड़काऊ भाषणबाजी करके,विरोधी दलों और मजदूरों के संगठनों का हिंसात्मक दमन और आतंक के राज की स्थापना करके एकाधिकारी राज्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है ´खुद फासीवादियों की नजर में फासीवाद एक आध्यात्मिक वास्तविकता है।ये इसे एक विचारधारा और दर्शन के रूप में परिभाषित करते हैं।वे इसे ´कर्तव्य´,´आदेश´,´सत्ता´,´राज्य´,´राष्ट्र´,´इतिहास´ आदि का सिद्धांत बताते हैं।´ रजनी पाम दत्त के अनुसार ´प्रत्येक देश में फासीवाद के सभी खुले और बड़े समर्थक बुर्जुआ वर्ग के ही हैं।´यही हाल भारत का है।दत्त ने लिखा ´फासीवाद अपने शुरूआती दौर में भले ही आम लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए पूंजीवाद विरोधी प्रचार और भाषणबाजी करे लेकिन शुरू से ही इसे जीवित रखने ,बढ़ाने और पालने-पोसने का काम बड़े बुर्जुआ तथा बड़े धनपति,सामंत और उद्योगपति ही करते हैं।

´इतना ही नहीं फासीवाद को बढ़ाने और मजदूर वर्ग के आंदोलन से बचाने में भी बुर्जुआ तानाशाही की स्पष्ट भूमिका रही है।फासीवाद सरकारी बलों, सेना के उच्चाधिकारियों,पुलिस के अफसरों,अदालतों और जजों से मदद पाता रहा है क्योंकि वे सभी मजदूर वर्ग के विरोध को कुचलना चाहते हैं जबकि फासीवादी गैरकानूनीपन को मदद करते रहते हैं।

सन् 1928 के कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के कार्यक्रम में फासीवाद की वैज्ञानिक व्याख्या अभिव्यक्त हुई है, लिखा है,´कुछ विशिष्ट ऐतिहासिक स्थितियों में बुर्जुआ,साम्राज्यवादी, प्रतिक्रियावादी आक्रामकता की प्रगति फासीवाद का रूप ले लेती है।ये स्थितियां हैः पूंजीवादी संबंधों में अस्थिरता;काफी बड़ी संख्या में वर्गच्युत सामाजिक तत्वों की मौजूदगी; शहरी पेटीबुर्जुआ समूह और बौद्धिक वर्ग का दरिद्रीकरण; ग्रामीण पेटीबुर्जुआ वर्ग में असंतोष; और सर्वहारा वर्ग द्वारा क्रांति कर देने का दवाब या डर।अपने शासन को जारी रखने और स्थिर करने के लिए बुर्जुआ वर्ग संसदीय प्रणाली को छोड़कर फासीवादी व्यवस्था की तरफ बढ़ते जाने को मजबूर होता है,जो पार्टियों वाली व्यवस्था और जोड़-तोड़ से मुक्त होती है।

फासीवादी शासन प्रत्यक्ष तानाशाही की व्यवस्था है,जिसपर ´राष्ट्रवादी´होने का मुखौटा चढ़ा होता है और खुद को ´पेशेवर´(जो शासक जमात के ही विभिन्न समूह होते हैं)वर्ग का प्रतिनिधि कहता है।पेटीबुर्जुआ वर्ग,बौद्धिकों और समाज के अन्य वर्गों की नाराजगी का लाभ उठाने के लिए यह आडंबर और विद्वेषपूर्ण भाषणबाजी (कभी जाति और नस्ल को निशाना बनाना तो कभी संसद और बड़े उद्योगपतियों की तरफ निशाना साधना)करता है तथा एक ठोस और खाती-पीती सोपानात्मक फासीवादी शासन इकाई, नौकरशाही और पार्टी इकाई के जरिए भ्रष्टाचार करता है।इसके साथ ही फासीवाद मजदूर वर्ग के सबसे पिछड़े हिस्से को तोड़कर ,उनकी नाराजगी को भुनाता है तथा सामाजिक लोकतंत्रवादियों की निष्क्रियता का लाभ भी लेता है।

फासीवाद का मुख्य उद्देश्य मजदूरवर्ग के क्रांतिकारी हरावल दस्ते,अर्थात कम्युनिस्ट हिस्सों और सर्वहारा वर्ग की अगुआ इकाईयों को नष्ट करना है।सामाजिक रूप से भड़काऊ नारों को उछालना,भ्रष्टाचार तथा दमनकारी शासन के साथ ही विदेशी राजनीति में अति-साम्राज्यवादी आक्रमण फासीवाद के खास चरित्र हैं।बुर्जुआ वर्ग के लिए खास संकट के दौरों में फासीवाद पूंजीवाद विरोधी शब्दावली का प्रयोग शुरू करता है।लेकिन जब वह शासन में जम जाता है तो उन सारी बातों को आसानी से भुला देता है और बड़ी पूंजी की आतंकवादी तानाशाही के रूप में सामने आता है।

भारत में फासीवाद पर बातें करते समय अधिकांश समय समान विचारों के लोगों में अनेकबार विचलन भी नजर आता है,वे फासीवादी संगठनों की इस या उस चीज की प्रशंसा करने लगते हैं। फासीवादी संगठन को हमेशा समग्रता में उनकी राजनीति के आईने में देखना चाहिए।इनके पीछे बड़े कारपोरेट घरानों की सक्रियता,समर्थन और आर्थिक मदद की कभी अवहेलना नहीं करनी चाहिए।मसलन् आरएसएसके पीछे सक्रिय कारपोरेट घरानों की भूमिका की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।कारपोरेट घराने ही हैं जो साम्प्रदायिक संगठनों के गुण्डों,अपराधियों, शैतानों और स्वेच्छाचारियों का सारा खर्चा उठाते हैं। ये वे लोग हैं जो बहुत ही शांत भाव,साफ सोच और बुद्धिमानी से इस फौज का संचालन का काम कर रहे हैं।हमें इनके ऊपरी शोर-शराबे पर नहीं उनकी वास्तविक कार्यप्रणाली पर ध्यान देना चाहिए।फासीवादी राजनीति ऊपरी शोर-शराबे से समझ में नहीं आएगी।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है ´फासीवाद वित्तीय पूंजीवाद का ही एक कार्यनीतिक जरिया है।

रविवार, 19 जुलाई 2020

कोराना वायरस: अर्थव्यवस्था और प्रतिरोधक क्षमता

डर और अपराधबोध के उपकरणों के माध्यम से जनता के साथ खेल खेलना शासकों और धर्माचार्यों का पुराना आजमाया तरीक़ा रहा है। जब यह चरम सीमा तक पहुंच जाता है तो जनता पर सबसे ज्यादा चोट की जाती है। यहां तक कि कम्युनिस्ट और खुद को शातिर समझने वाले लोग भी इस खेल में शामिल हो कर इसे अंजाम देने लगते हैं।
कोवाड गांधी
हिंदी अनुवाद : असीम सत्यदेव


इस तकनीकी विकास के युग में व्यापक जनसमुदाय के अंदर सामूहिक डर (मास हिस्टीरिया) जंगल की आग की तरह फैल जाता है, खास तौर से जब शासकों और, या धर्म के जरिए उसे प्रोत्साहित किया जाता है। गणेश दूध पीना इसका एक उदाहरण था। एक और उदाहरण स्काई लैब गिरने की ख़बर थी। 2000ई. (y2k) संकट जैसे भयग्रस्तता के कई और उदाहरण हैं। झारखंड जेल में एक आदिवासी ने मुझे बताया था कि उनके सुदूर गांव में लोगों ने 31 दिसम्बर, 2000 तक दुनिया ख़त्म हो जाने की बात पर विश्वास कर अपनी बकरियों को रोज काटना शुरू कर दिया था।
डर और अपराधबोध के उपकरणों के माध्यम से जनता के साथ खेल खेलना शासकों और धर्माचार्यों का पुराना आजमाया तरीक़ा रहा है। जब यह चरम सीमा तक पहुंच जाता है तो जनता पर सबसे ज्यादा चोट की जाती है। यहां तक कि कम्युनिस्ट और खुद को शातिर समझने वाले लोग भी इस खेल में शामिल हो कर इसे अंजाम देने लगते हैं। हम आपस में भावनात्मक तरीके से एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं और हमारे अपराधबोध की भावना और डर से लाभ उठाया जाता है।

जब हम अपने तरह- तरह के डर पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि बहुत सारे डर हमें घेरे रहते हैं-- अस्वीकार किए जाने, असफल होने, बीमारी इत्यादि का डर और सबसे ज्यादा मौत का डर जो मौजूदा कोराना बीमारी के कारण हमारे अंदर समा गया है। यह सच है कि यह वायरस उच्च स्तर का संक्रामक है जो किसी वस्तु पर और मानव शरीर से बाहर 3-4 घंटे तक जीवित रहने की क्षमता रखता है। इसलिए यह जंगल की आग की तरह फैल सकता है। किन्तु इसकी मृत्यु दर सामान्य इनफ्लुएंजा से ज्यादा की नहीं है। इसके ज्यादातर शिकार वृद्ध और पहले से बीमार लोग हो रहे हैं। मृत्युदर अनुमानतः 3% से 0.5% तक है। लेकिन सरकारी प्रचार तंत्र और मीडिया ने इसे भयानक जानलेवा वायरस घोषित कर दिया है। इसलिए चारों तरफ भय व्याप्त हो गया है। मौत का डर, अपनों के खोने का डर, अनजाना डर।।। और इस भय ने रोजगार का खात्मा, कारोबार की हानि, बचत का नुक़सान और असुविधाओं को पैदा किया है। जिसने आने वाले दिनों में भुखमरी से मौत की आशंका को बढ़ाया और हमारी जीने की क्षमता को घटाया है।

दरअसल समूची विश्व अर्थवयवस्था पहले से ही गम्भीर संकट में चल रही है। जैसा कि हाल ही में मानस चक्रवर्ती ने कहा है कि - पिछले हफ़्ते इक्विटी ही नहीं बल्कि बॉन्ड व माल, यहां तक की सोने के भाव में भारी गिरावट आ गई है। यह गिरावट इतनी ज्यादा थी कि सिर्फ नकदी ही सुरक्षित है। वह भी सिर्फ अमरीकी डालर ही मुख्य रूप से सुरक्षित स्वर्ग हो गया है। जिसकी मांग बढ़ती गई है। अमरीका, यूरोप और अन्य विकसित अर्थवयवस्थाओं में ब्याजदर जीरो की तरफ लुढ़कता जा रहा। इस स्थिति में खरीददार के लिए सुरक्षित आखिरी रास्ता सिर्फ खरीदना ही होता है। सरकारों ने कारोबार उपभोक्ताओं को इस बढ़ते संकट से उबारने लिए दसियों खरब डॉलर खर्च करना मंजूर कर लिया है। (भारत में अभी ऐसी स्थिति नहीं आयी है।) 

लेकिन यहां वायरस के फैलाव को रोकने के एक मात्र उपाय के रूप में सामाजिक मेल-मिलाप को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था को ठप कर दिया गया है। स्पेन, इटली और फिर दुनिया कि पांचवीं बड़ी अर्थवयवस्था कैल्फोर्निया को ठप्प कर दिया गया है। इससे विश्व अर्थव्यवस्था को बड़ा धक्का लगना ही है।

फार्चून के अनुसार दूसरी तिमाही में ज्यादातर देशों की जीडीपी दर भयानक रूप से (-8%) से (-15%) तक गिर गई है। गोल्डमेन सैच ने इसे और कम होने की बात (पानी सर से ऊपर जाने) कही है।

बैंक ने आज शोध नोट जारी किया है। जिसके अनुसार "अमरीकी अर्थव्यवस्था के अचानक ठप्प" हो जाने के कारण 2020 की दूसरी चौथाई में जीडीपी में 24% गिरावट की आशंका है।

पूरी दुनिया की सरकारों द्वारा जिस पैमाने पर लाकडाउन किया गया है, उससे अर्थवयवस्थाओं में सुधार की कोई उम्मीद नहीं बची है। पिछले छह महीने से चले आ रहे आर्थिक संकट के लिए, जिसका कोराना से कुछ लेना देना नहीं है, यह एक बहाना हो गया है। 1929 की महामंदी के लिए पूंजीवादी व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया गया था। परंतु मौजूदा संकट के लिए जिम्मेदारी को बकायदा व्यवस्थागत समस्या को वायरस समस्या की ओर इसे मोड़ दिया गया है। 

बहरहाल विश्व आज दो मुख्य समस्याओं का सामना कर रहा है। कोई नहीं कह सकता कि इनमें कौन ज्यादा जानलेवा है। पहली समस्या कोराना वायरस की है और दूसरी समस्या अर्थव्यवस्था की है। पहली समस्या दुनिया भर में फैल कर मौत का तांडव मचा सकती है। तो दूसरी से पूरी दुनिया को भुखमरी और बीमारी कि सबसे बुरी हालत में ला सकती है। पहली से हम अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा कर लड़ने की सोच सकतें हैं। लेकिन दूसरी पर हमारा नियंत्रण नहीं है।

प्रतिरोधक क्षमता का मनोविज्ञान

विज्ञान ने प्रतिरोधक क्षमता पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव (प्लसबो थ्योरी) को मान लिया है। इसके अनुसार मानव के दिमाग मे वह क्षमता होती है कि वह अपने शरीर को बीमारी से उबार ले। यदि उसे किसी दवा या उपचार पर भरोसा हो जाए, भले ही उसमे औषधीय गुण नहीं हो और वह चीनी की गोली मात्र हो। मेडिकल के विद्यार्थी अध्ययन में यह पाते हैं कि बहुत सी बीमारियों में से एक तिहाई का उपचार मनोवैज्ञानिक असर के चमत्कार से हो जाता है। बीमारियों के इलाज में मनोवैज्ञानिक प्रभाव अब सर्वमान्य हो चुका है। कोराना वायरस जैसी बीमारी जिसकी कोई दवा नहीं है से लड़ने में हमारी मजबूत प्रतिरोधक क्षमता केंद्रीय भूमिका निभा सकती है।

विज्ञान का नया क्षेत्र न्यूरोइम्युनोलॉजी है। जिसे आम भाषा में ऐसे कह सकतें हैं कि मस्तिष्क द्वारा स्नायु तंत्र पर नियंत्रण के जरिए प्रतिरोधक क्षमता मजबूत की का सकती है। यह सुस्वीकृत तथ्य है कि तनाव बढ़ाने वाला हार्मोन (कोर्टिसोल) हमारी प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देता है। इससे हम वायरस या बैक्टीरिया से लड़ाई में कमजोर पड़ जाते हैं। दूसरी तरफ़ सकारात्मक नजरिया और प्रसन्नता वाले हार्मोन(एंडोर्फिन, डोपामाइन, सेरोटोनिन) हमारी प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करते हैं। अतः वायरस का डर और भयानक वातावरण का फैलना उससे लड़ने में हमारी प्रतिरोधक शक्ति को कमजोर कर सकता है।

अब यह भलीभांति मान लिया गया है कि आत्मविश्वास के बजाय डर के माहौल में गम्भीर बीमारी से लड़ने की क्षमता घट जाती है। कोराना जैसी बीमारी की कोई दवा नहीं है। प्रतिरोधक क्षमता मजबूत करके ही इसका सामना किया जा सकता है। इसलिए प्रतिरोधक क्षमता की कमजोरी को रोकने की प्राथमिकता महत्वपूर्ण है। जो भी पद्धति अपनायी जाय वह तार्किक व प्रभावी होनी चाहिए। और हर तरीके से बीमारी का तार्किक मूल्यांकन कर डर व भयग्रस्तता के प्रचार का प्रभावी तरके से काट करनी चाहिए। भारतवासियों की गरीबी के कारण पहले से कमजोर प्रतिरोधक क्षमता को उनके आत्मविश्वास को बढ़ाकर मजबूत करने की जरूरत है। कम से कम भय का आतंक फैलाना बन्द करके उनमें वायरस के संक्रमण को मजबूत होने से बचाएं।

लगभग 70 वर्षीय कोबाड गांधी, सीपीआई माओवादी के पोलित ब्यूरो सदस्य रहे हैं। कुछ ही समय पहले वे 8 साल जेल में रहने के बाद जमानत पर बाहर आए हैं।इस समय वे कैंसर समेत कई रोगों से लड़ रहे हैं। उपरोक्त लेख उन्होंने मूलतः अंग्रेज़ी में लिखा है। ब्लॉग ‘दस्तक नए समय की’ से साभार

बुधवार, 3 जून 2020

बाबूजी की साइकिल

बाबूजी पंचायत समिति में स्कूल इंस्पेक्टर हुए तो उन्हें गाँवों के स्कूलों का निरीक्षण करने जाना पड़ता था। वहाँ जाने के लिए साइकिल, मोटर साइकिल और जीप ही साधन थे। सरकार ने तो कुछ उपलब्ध नहीं करा रखा था। बस भत्ता दे दिया करती थी। बाबूजी ने तब तक खुद कभी साइकिल तक नहीं चलाई थी। पैदल चलने के अभ्यासी थे। साइकिल उन्हें लक्जरी नजर आती थी। पच्चीस-तीस किलोमीटर जा कर काम कर के लौट आना उन के लिए साधारण बात थी। कई अध्यापक अपने गाँवों से दूर 10 से 30 किलोमीटर तक के स्कूलों में रोज आते जाते थे और उन्हों ने साइकिलें ले रखी थीं। ऐसे में इन्स्पेक्टर निरीक्षण करने पैदल पहुँचता तो कई संकट खड़े हो जाते। एक तो निकलते ही अध्यापकों को खबर हो जाती कि आज इंस्पेक्टर साहब किधर निरीक्षण करने वाले हैं और पहले ही सतर्क हो जातेनिरीक्षण का मतलब ही न रह जाता। रास्ते में हर कोई उन्हें अपनी साइकिल के कैरियर पर बिठा कर ले जाने की पेशकश करता। फिर लोग भी मजाक करते कि कैसे इंस्पेक्टर हैं साइकिल तक नहीं रखते, कम से कम मोटर साइकिल तो होनी चाहिए। पंचायत समिति के स्टाफ ने कम से कम साइकिल जरूर खरीद लेने की सलाह दी। उन्हें चलाना नहीं आता था। किसी सहकर्मी ने उन्हें चलाना सिखा दिया। नहीं सिखा पाया तो पैडल मार कर खुद से साइकिल पर चढ़ना नहीं सिखा पाया। वे खुद भी आजीवन यह तकनीक नहीं सीख पाए। उन्हों ने जब तक साइकिल चलाई तब तक किसी ऊँची जगह पर से साइकिल की सीट पर चढ़ कर साइकिल चलाते रहे। जब तक साइकिल पर चढ़ने लायक ऊँचा पत्थर आदि नहीं मिलता वे उसे साथ ले कर पैदल चलते रहते।

जब ये वाली साइकिल घर में आयी तब मैं नवीं कक्षा में पढ़ रहा था, उम्र बारह की हो चुकी थी। दूसरे साथी किराए की साइकिल ला कर चलाना सीख चुके थे। वे किराए पर घण्टे दो घण्टे के लिए साइकिल लाते और कैंची चलाते रहते। हम बड़ी हसरत से उन्हें देखते रहते। बाबूजी से तो कभी कहने की हिम्मत भी न पड़ती कि उन से किराए पर साइकिल लाने को पूछ लें। दाज्जी का मैं बहुत लाड़ का था। उन्हें डर लगता कि कहीं गिर गया या किसी और ने गिरा दिया या किसी बड़े वाहन ने टक्कर मार दी तो मुझे चोट लग जाएगी। उन्हों ने भी कभी अनुमति नहीं दी। उन दोनों की अथॉरिटी के बिना अम्माँ तो कभी इजाजत देने से रही। तो इस तरह साइकिल चलाने की विद्या के मामले में मैं भी कोरा था। बस एक ही हसरत थी कि कभी तो घर में साइकिल आएगी, तभी सीखेंगे और चलाएंगे। किराए की साइकिल ले कर सीखना और चलाना भी कोई चलाना है।

अब साइकिल घर में आ ही गयी थी तो मैं उसकी सेवा में लग गया। बाबूजी को ले जाने के लिए रोज उसे झाड़ पोंछ कर टनाटन रखता। घर हमारा सड़क से ऊंचा था। सीढ़ियों से आना जाना पड़ता था। रोज सुबह साइकिल को घर से उठा कर सड़क तक रखने और शाम हो जाने पर सड़क से उठा कर वापस घर में रखने का काम भी मैं ही करता। कभी उसे चलाने की हिम्मत भी नहीं होती। अब समस्या यह थी कि किसी तरह बाबूजी को यह विश्वास हो जाए कि मैं ने साइकिल चलाना सीख लिया है, तो साइकिल चलाने को मिले। मैं जुगाड़ में था कि यह कैसे हो।

मेरे एक फूफाजी थे, वे भी अध्यापक थे। कई साल तक वे नगर के स्कूल में ही थे। फिर उन की पदोन्नति हुई तो पदस्थापन 12 किलोमीटर दूर हुआ। उन्हों ने साइकिल खरीदी, सीखी और उसी से नौकरी जाने लगे। मेरी उन से खूब पटती थी। इतवार को उनकी छुट्टी रहती। आखिर एक इतवार उन के घर गया और साइकिल सिखाने की फरमाइश की। वे तुरन्त तैयार हो गए। साइकिल निकाली उस की सीट पर मुझे बैठाया। बोले पैडल और हेण्डल को नहीं देखना। बस सामने सड़क पर देखना। मैं पीछे कैरियर से पकड़ता हूँ गिरने नहीं दूँगा। तुम पैडल मारो और चलाओ। सीखना तो था ही। गिरने विरने और थोड़ा बहुत छिल जाने का डर पहले ही घर रख कर आया था। गिर भी गया तो फूफाजी साथ थे, फर्स्ट एड उन्हों ने ही कर देनी थी।

मैं ने पैडल मारा, साइकिल चली और चलती गयी। गति बढ़ती गयी। कोई चालीस पचास गज चल चुकी तब ध्यान आया कि फूफाजी पीछे से पकड़े भी हैं कि नहीं। मैं ने ब्रेक लगाया और साइकिल टेड़ी कर के बायाँ पैर जमीन पर जमा दिया। साइकिल रुक गयी। हम दोनों गिरने से बच गए। मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो फूफाजी दस गज पीछे मुस्कुराते हुए चले आ रहे थे। बोले साइकिल चलाना तो तुम्हें आता है, बस अभ्यास करना शेष है। मुझे भी थोड़ा कोन्फिडेंस आ गया। फिर उन्हों ने मुझे साइकिल पर पैडल से चढ़ना और उतरना सिखाया आधे घण्टे बाद जब मैं इन दोनों करतबों में कामयाब हो गया तो उन्हों ने मुझे चलाने को साइकिल दे दी। मैं ने उस पहले दिन ही करीब एक घण्टे साइकिल चलाई। चौड़ी सड़क पर, फिर गली में। आखिरी बार फूफाजी उन के घर के सामने सड़क पर खड़े थे और मैं सामने की ढाई फुट की संकरी गली में से निकल कर उन तक पहुँचा तो कहने लगे। तुम आज से अपनी साइकिल बेधड़क चला सकते हो। जिस गली से साइकिल चलाते हुए निकल कर आए हो उस से तुम्हारा इम्तिहान हो चुका है और तुम पास हो गए हो। मैं ने उन्हें कहा, “जब तक आप खुद बाबूजी को इस इम्तिहान का रिजल्ट नहीं बता देंगे, मुझे साइकिल नहीं मिलेगी।“

अगले इतवार फूफाजी हमारे घर आए। बाबूजी को पूरा किस्सा सुनाया कि मैं ने कैसे साइकिल चलाना सीखा है, और अब अच्छी तरह साइकिल चला सकता हूँ। उन्हें किस्सा सुनाते देख मैं वहाँ से खिसक कर दूसरे कमरे में चला गया और वहाँ से छिप कर उन की बातें सुनता रहा। फूफाजी ने उन्हें खास तौर पर यह बताया कि मैं पैडल से चढ़ना उतरना भी सीख चुका हूँ। बाबूजी मेरी इस कामयाबी पर बहुत खुश थे।

कुछ दिन बाद बाबूजी को किसी काम से छुट्टी लेनी पड़ी। उन्हें साइकिल की जरूरत नहीं थी। मैं ने अवसर देख कर पूछा, “मैं साइकिल स्कूल ले जाऊँ?”

उन्हों ने मेरी ओर देखा। मैं बहुत सहमा हुआ खड़ा था। मुझे देख कर वे मुस्कुराने लगे।

“ले जाओ, पर गिरना गिराना मत।“ मैं फौरन वहाँ से खिसक लिया। कहीं बाबूजी का इरादा बदल न जाए। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था।

उस के बाद दो साल और बाबूजी इंसपेक्टर रहे। फिर उन का स्थानान्तरण विषय अध्यापक के पद पर दूर के कस्बे में हो गया। वे वहीं जा कर रहने लगे। हम दादाजी के साथ अपने शहर में ही रहते रहे। तब यह साइकिल स्थायी रूप से मेरी हो गयी।



शनिवार, 23 मई 2020

इन्सान के पैर


जिन सड़कों पर हम चले
जिन पर चलते हुए
कुचले गए भारी वाहनों से
उन सड़कों से पहले
कुछ और था वहाँ

गाड़ियों के चलने से बनी गडार
उस से भी पहले
वहाँ थी पगडण्डियाँ
जिन्हें बनाया था
इन्सान के पैरों की छाप ने

तो सड़कें आयीं
बहुत बाद में
वे इन्सान के चलने से
धरती पर पड़े निशानों की
तीसरी पीढ़ी हैं।





बुधवार, 20 मई 2020

फेक न्यूज : हमें खुद को परिष्कृत करना होगा।

एनडीटीवी इंडिया के डिजिटल एडिटर विवेक रस्तोगी का एक साक्षात्कार समाचार मीडिया डॉट कॉम ने प्रकाशित किया हैइस में उन्होंने फेक न्यूज' के बारे में पूछे गए प्रश्न कि, "फेक न्यूज का मुद्दा इन दिनों काफी गरमा रहा है। खासकर विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फेक न्यूज की ज्यादा आशंका रहती है। आपकी नजर में फेक न्यूज को किस प्रकार फैलने से रोका जा सकता है? का उत्तर देते हुए कहा है .... 

Vivek Rastogi
"फेक न्यूज का मुद्दा कतई नया नहीं है और इस पर चर्चा लम्बे अरसे से चली आ रही है। संकट काल में इसके फैलाव की आशंका बढ़ जाती है, क्योंकि हमारे समाज का एक काफी बड़ा हिस्सा शोध और सत्यापन की स्थिति में नहीं होता, और न ही उन्हें इसकी आदत रही है। मीडिया संस्थानों की विश्वसनीयता उनके अपने हाथ में होती है। अगर सभी संस्थान एनडीटीवी की भाँति कोई भी समाचार 'सबसे पहले' देने के स्थान पर 'सही समाचार' देने का लक्ष्य बना लें, तो इस समस्या से कुछ हद तक छुटकारा पाया जा सकता है। रही बात सोशल मीडिया की, तो हमारे-आपके बीच ही, यानी हमारे समाज में ही कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्हें किसी सत्यापन की जरूरत महसूस नहीं होती, जिसके चलते फेक न्यूज़ ज़ोर पकड़ती है। वैसे, फेक न्यूज़ फैलाने के पीछे लोगों के निहित स्वार्थ भी होते हैं और अज्ञान भी। इसलिए, इसके लिए सभी को मिलजुलकर प्रयास करने होंगे। सोशल मीडिया पर समाचार पढ़ने वालों को जागरूक करना होगा कि वे हर किसी ख़बर पर सत्यापन के बिना भरोसा न करें।"

मेरा भी सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों से यह अनुरोध है कि वे विवेक रस्तोगी की इस बात को गाँठ बांध लेना चाहिए कि, हम किसी भी समाचार जो हमें किसी भी स्रोत से मिला हो उसे आगे सम्प्रेषित करने के पूर्व जाँच लेना चाहिए कि कहीं वह फेक तो नहीं हैं। यहाँ सोशल मीडिया पर सभी विचारधारा और विचारों वाले लोग हैं, अक्सर लोग अपनी विचारधारा या स्वयं को अच्छे लगने वाले समाचारों, सूचनाओँ आदि को सही मान कर जल्दी में सम्प्रेषित कर देते हैं, यहीं हम से चूक होती है। हम मिथ्या और गलत चीजों को आगे बढ़ने का अवसर दे देते हैं। 

यदि हम चाहते हैं कि भविष्य की दुनिया अच्छी सच्ची और इन्सानों के रहने लायक हो तो हमें झूठ को इस दुनिया से अलग करना होगा, और इसका आरम्भ हम स्वयं से कर सकते हैं। हम खुद तक पहुँचने वाली सूचनाओं को ठीक से जाँचें और उन्हें आगे काम में लें। यही चीज हमारे लिए आगे बहुत काम देगी। इसी से हमारी विश्वसनीयता भी बनी रहेगी। वर्ना फैंकुओँ की दुनिया में कोई कमी नहीं है। खास तौर पर उस समय में जब उन में से अनेक आज राष्ट्र प्रमुखों के स्थान पर बैठे हैं।

मुझे लगता है हमें आज और इसी पल इस काम को आरंभ कर देना चाहिए, इसे अपनी आदत बना लेनी चाहिए। एक तरह से यह स्वयम् को  परिष्कृत (Refine) करना होगा।


शनिवार, 16 मई 2020

निक नेम


मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“


कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

निक नेम

मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“

कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

शुक्रवार, 15 मई 2020

गौरैया


पता नहीं दोनों क्या कर रहे थे। लेकिन पर फड़फड़ाने की आवाजें बहुत जोर की थीं। फिर एक-एक कर तिनके गिरना शुरु हुए। मैं वहाँ से चला आया। कुछ देर बाद शोभा ने आ कर बताया कि उन्हों ने अपना घर गिरा कर नष्ट कर दिया है। मैं ने जा कर देखा तो सारी बालकनी में कबूतर का घोंसला गिरा पड़ा था, एक अंडा टूटा हुआ पड़ा था, उसकी जर्दी फ्लोर पर बिखरी थी। इसका मतलब था कि उनका अंडा कच्चा ही था। मैं तो यह समझे बैठा था कि अंडों से बच्चे निकल आए हैं, और उड़ने की कोशिश में घोंसले के तिनके नीचे गिरा रहे हैं। अब शाम पड़े ये बालकनी का कूड़ा साफ कर के धोने का काम और सिर पर आ गया था।

संतान की चाह रखने वालों का अंडा टूट कर गिर जाने से अच्छा नहीं लग रहा था। मन उदास हो गया था। सोच रहा था कि एक छोटी सी दुर्घटना कैसे जीवन को अंडे से खोल के बाहर निकलने के पहले ही समाप्त कर देती है। मुझे कबूतर जोड़े पर गुस्सा भी बहुत आया। आखिर वे वहाँ इस तरह क्यों फड़फड़ा रहे थे? मैं ने कबूतरों को इस तरह फड़फड़ाते हुए तब देखा था जब ऐसे ही अंडा फूटा था। तब भी उनका घौंसला इसी ए.सी. के ऊपर रखे गत्ते पर था। जोड़े की ऐसी ही हरकतों से गत्ता सरक कर लटक गया था और नीचे गिरने को था। मैं एक डंडे से उसे वापस ए.सी. पर सरकाना चाह रहा था कि कबूतर ने हरकत की और घोंसला अंडों समेत नीचे गिर गया। उस वक्त मुझे कुछ अपराध बोध था कि मेरी डंडे से गत्ता सरकाने की कोशिश उस दुर्घटना का पूरा नहीं तो आंशिक कारक जरूर था।

तभी एसी के ऊपर से चीं..चीं की आवाजें आईं। यह बड़े अचरज की बात थी। मैंने ऊपर देखा और आवाज पर गौर किया तो समझ गया कि वे गोरैया के बच्चों की आवाजें हैं। असल में एसी के ऊपर एक थर्माकोल चिपका हुआ गत्ता रखा था, जिससे पक्षी ए.सी. में तिनके न गिराएं। उस थर्माकोल में कुछ जगह थी। उसे अपनी चोंचों से खोद खोद कर गोरैया के जोड़े ने अपने घोंसले के लायक चौड़ा कर लिया था। वहाँ उसने अंडे दिए हुए थे। शायद उन से बच्चे निकल आए थे।

चीं चीं चीं ... गोरैया के बच्चे फिर गीत गा रहे थे। मेरी उदासी कुछ कम हो गयी।