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गुरुवार, 5 मार्च 2020

मजदूर वर्ग के लिए न्याय की समाप्ति


न्याय की स्थिति बहुत बुरी है। विशेष रुप से मजदूर वर्ग के लिए। आज मेरी कार्यसूची में दो मुकदमे अंतिम बहस के लिए थे। इन दोनों मामलों में प्रार्थी मजदूर हैं, जिनके मुकदमे 2008 से अदालत में लंबित हैं। हालाँकि श्रम न्यायालय में जाने के पहले इन मजदूरों ने श्रम विभाग में अपनी शिकायत पेश की थी। वहाँ कोई समझौता न होने पर राज्य सरकार को रिपोर्ट भेजी गयी थी और तब ये मुकदमे सरकार ने श्रम न्यायालय को निर्णय के लिए भेजे। इस तरह इन्हें मुकदमा लड़ते-लड़ते 14 वर्ष से अधिक हो गए हैं।

इन दोनों मुकदमों में आज केवल इसलिए पेशी दे दी गई क्योंकि अभी भी अदालत में 20 वर्ष से पुराने अर्थात 1999 तक दायर किए गए अनेक मुकदमें लंबित हैं और पहले उनका निपटारा किया जाएगा। मुझे लगता है कि अभी इन दोनों मजदूरों को कम से कम साल 2-3 साल और इंतजार करना पड़ेगा तब जाकर उन्हें श्रम न्यायालय से निर्णय हासिल होगा।

श्रम न्यायालय की स्थापना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। राज्य सरकार के अनुरोध पर इन न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय करता है। कोटा के श्रम न्यायालय में यह स्थिति अनेक वर्ष से बनी हुई है, यही स्थिति राजस्थान के अन्य न्यायालयों में भी कई सालों से बनी हुई है। इस स्थिति का लाभ पूंजीपतियों, सरकार और सार्वजिनिक क्षेत्र के उद्योगों को मिलता है। शीघ्र न्याय के लिए यह आवश्यक है कि यहां एक श्रम न्यायालय और स्थापित किया जाए। शीघ्र न्याय के लिए यह स्वयं सरकार को सोचना चाहिए। लेकिन स्थिति यह है कि इस अदालत में स्टेनो और रीडर दोनों 2 वर्ष पूर्व ही रिटायर हो चुके हैं। लेकिन उनके स्थान पर दूसरे व्यक्ति अभी पद स्थापित नहीं किए गए हैं और सेवानिवृत्त दोनों कर्मचारियों को ही एक्सपेंशन दिया हुआ है। यदि इस वर्ष इन्हें तीसरे वर्ष के लिए एक्सटेंशन नहीं दिया गया तो अदालत की स्थिति और बुरी हो जाएगी सरकार की सोच इस मामले में सिर्फ यह है कि सरकार और खर्च वहन करने में सक्षम नहीं है।

फिलहाल राजस्थान में कांग्रेस सरकार है। लेकिन यह स्थिति पिछले 15 वर्ष से बनी हुई है। इस बीच दो बार भाजपा सरकार और इस बार फिर दूसरी बार राज्य सरकार कांग्रेस की है। लेकिन दोनों को इसकी कभी कोई फ्रिक नहीं रही। दोनों ही पार्टियाँ मूलतः पूंजीपति वर्ग की सेवा में लगी हैं। ऐसी पूंजीपति परस्त सरकारें जो न्याय के लिए पर्याप्त न्यायालय तक भी नहीं दे सकती हैं, क्या उन्हें बने रहने का अधिकार भी रह गया है?

पहले उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय इस सिद्धान्त पर चल रहे थे कि किसी को नौकरी से निकालना गलत पाया जाए तो उसे पिछले पूरे वेतन सहित सेवा में बहाल किया जाए। केवल नियोजक द्वारा यह साबित कर देने पर कि सेवा से हटाए जाने के बाद मजदूर लाभकारी नियोजन में रहा है तो उस के पिछले वेतन के लाभ को उसी अनुपात में कम किया जा सकता है। लेकिन जैसे-जैसे इन बड़े न्यायालयों में उच्च मध्यवर्ग से आए जजों की संख्या बढ़ी है। इस सिद्धान्त को खारिज किए बिना ही नया सिद्धान्त यह स्थापित कर दिया गया है कि मुकदमे की लंबाई अधिक (10-20 वर्ष) हो जाने के कारण सेवा में पुनर्स्थापित किया जाना जरूरी नहीं है और केवल 1 से 2 लाख के बीच धनराशि दे देने से मजदूर को न्याय मिल जाएगा।

इस तरह एक तरह से मजदूर को न्याय देने का जो दिखावटी काम पूंजीवादी लोकतन्त्र करता है उसे भी कायदे से बत्ती लगा दी गयी है और उनके लिए तैयार न्याय व्यवस्था का पुतला धू-धू कर जल रहा है। यह तो मेहनतकश जनता के सोचने का विषय है कि वह ऐसे में क्या करे? इस स्थिति का उपाय यही है कि मजदूर वर्ग संगठित हो कर किसानों, छोटे दुकानदारो, बेरोजगार छात्रों आदि के साथ भाईचारा स्थापित करते हुए पूंजीपति वर्ग की सत्ता को उलट दे और अपने नेतृत्व में मेहनतकश जनता का जनतंत्र स्थापित करे।

रविवार, 23 फ़रवरी 2020

लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे?

अमूल्या लियोना गुनहगार है या नहीं, इसे अदालत तय करेगी। अदालत कहे कि वह गुनहगार नहीं तो उसे गुनहगार बताने वाले बड़ी अदालत जाएंगे। वहाँ भी वह गुनहगार न ठहरे तो उससे बड़ी अदालत जाएंगे। वहाँ भी नहीं तो सबसे बड़ी अदालत जाएंगे।

पर अदालत का इंतजार क्यों करें? वे तो तुरन्त उसके घर जाएंगे, पथराव करेंगे। उसके परिवार को आतंकित करेंगे। पिता से कहलवाएंगे की बेटी की सोच से उनका कोई लेना देना नहीं है और वह नक्सलियों के संपर्क में रह चुकी है।

अमूल्या गुनहगार क्यों है? क्या इसलिए कि वह सोचती है कि उसे या उसके देश को जिन्दाबाद कहने के लिए किसी को मुर्दाबाद कहने की जरूरत नहीं। कोई भी देश क्यों मुर्दाबाद कहा जाए? हम अपनी रोटी खाएँ लेकिन दूसरे की छीन कर क्यों खाएँ? शायद वह कहना चाहती हो कि तमाम असफल व्यक्ति अपनी और से ध्यान हटाने को काल्पनिक शत्रु (भूत, प्रेत, आत्माओँ वगैरा) की कल्पना करते हैं और सारा दोष उन पर मँढ कर खुद के बचाव का रास्ता तलाश करते हैं। शायद वह कहना चाहती थी कि तुम्हारा नेता जो अभी सब-कुछ बना बैठा है, वह असफल हो चुका है। उसके पास सारा दोष दूसरों पर मँड़ने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। तो उससे धोखा मत खाओ। खैर!

किसी को पड़ौसी देश के नाम से जिन्दाबाद का नारा लगाने पर भड़क उठना तमाम सरकारी गैर सरकारी मशीनरी की ताकत उसे या उन जैसों को सबक सिखाने में झोंक देना। यही राष्ट्रवाद है। असल में राष्ट्रवाद काली चादर है जिस में गुनहगार खुद के शरीर पर पड़े धब्बों को छुपाते हैं। ये बात भागवत भी समझता है कि अब राष्ट्रवाद के पीछे धब्बे छुपाने की पोल खुल चुकी है। इसलिए कहता है कि उसका मतलब गलत है। राष्ट्रवाद शब्द का इस्तेमाल मत करो। कोई दूसरा शब्द खोजो।

पर नाम बदलने से फितरत नहीं बदलती, इलाहाबाद का नाम प्रयागराज कर देने से इलाहाबाद में कुछ नहीं बदलता। वह शहर वैसा ही रहता है जैसा पहले था। नाम बदलने से चरित्र नहीं बदलता। देखते रहिए, कि अब राष्ट्रवाद की जगह कौनसा शब्द आता है दाग छुपाने के लिए।

राष्ट्र और राजद्रोह

राष्ट्र कभी वास्तविक नहीं होता। वह एक काल्पनिक अवधारणा है।

यही कारण है कि किसी कानून में और कानून की किताबों में राष्ट्रद्रोह नाम का कोई अपराध वर्णित नहीं है।

कानून में राजद्रोह नाम का अपराध मिलता है। जिस का उपयोग सिर्फ सबसे खराब राजा विरोध के स्वरों को दबाने के लिए करता है। क्योंकि वह जानता है कि अधिकांश जनता उसके विरुद्ध है और राजदंड से ही उसे दबाया जा सकता है।


भारतीय दंड संहिता की धारा 124 में Sedition नाम के जिस अपराध का उल्लेख है वह "राजद्रोह" है। आप खुद देख लीजिए भारतीय दंड संहिता की धारा 124 में क्या है।

"124क. राजद्रोह--जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घॄणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का, प्रयत्न करेगा या अप्रीति प्रदीप्त करेगा, या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा।
 स्पष्टीकरण 1--“अप्रीति” पद के अंतर्गत अनिष्ठा और शत्रुता की समस्त भावनाएं आती हैं ।
 स्पष्टीकरण 2--घॄणा, अवमान या अप्रीति को प्रदीप्त किए बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना, सरकार के कामों के प्रति विधिपूर्ण साधनों द्वारा उनको परिवर्तित कराने की दृष्टि से अननुमोदन प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियां इस धारा के अधीन अपराध नहीं हैं।
स्पष्टीकरण 3--घॄणा, अवमान या अप्रीति को प्रदीप्त किए बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना, सरकार की प्रशासनिक या अन्य कार्रवाई के प्रति अनुमोदन प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियां इस धारा के अधीन अपराध गठित नहीं करती। "

जब राजद्रोह के अपराध का उपयोग विरोध के स्वरों को दबाने के लिए खुल कर होने लगे तो समझिए कि जनतंत्र विदा हो चुका है। जनतंत्र की पुनर्स्थापना की लड़ाई जरूरी हो गई है।

बुधवार, 22 जनवरी 2020

समानता के लिए जनता का संघर्ष फीनिक्स ही है।

आक्सफेम की ताजा रपट कतई आश्चर्यजनक नहीं है। इस ने आंकड़ों के माध्यम से बताया है कि भारत के एक प्रतिशत अमीरों के पास देश के 70 प्रतिशत लोगों से चार गुना अधिक धन-संपदा है। सारी दुनिया की स्थिति इस से बेहतर नहीं है। दुनिया के 1 प्रतिशत लोगों के पास दुनिया के 92 प्रतिशत की संपत्ति से दो गुनी धन संपदा है। भारत सरकार अपने ही बनाए हुए कमाल के आंकड़े लोगों के बीच प्रचारित करती रहती है। वह बताती है कि इतनी जीडीपी बढ़ गयी है। यह कभी नहीं बताती कि देश की कमाई का अधिकांश अमीरों की जेब में जा रहा है। वे विकास के आँकड़े उछालते रहते हैं। पिछले छह साल से चल रही मोदी जी सरकार विकास के नाम पर अपनी पीठ खुद ही ठोकती रही। 

लेकिन जब हम जनता के बीच जा कर देखते हैं तो विशालकाय गरीबी के हमें दर्शन होते हैं। गरीब जनता किस हाल में जी रही है यह बहुत कम अखबारों और मीडिया की खबरों और रिपोर्टों का विषय बनती हैं। 

भारत की 130 करोड़ की आबादी में से 75 प्रतिशत से अधिक लोगों तक भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत चीजे भी उपयुक्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। जबकि सचाई यह है कि जितनी भी संपदा का निर्माण प्रतिवर्ष हो रहा है वह सब इस 75 प्रतिशत जनता की खून पसीने की मेहनत की उपज होती है। 

जनता से जो टैक्स वसूला जा रहा है उस से जनता को राहत प्रदान की जाती है। प्रकृति की मार से हमेशा जूझने वाले किसानों के कर्जे माफ करने पर हमारे सत्ताधारी दल कहते हैं टैक्स पेयर्स का पैसा ऐसे व्यर्थ खर्च नहीं किया जा सकता है। लेकिन जब उन्हें अरबों रुपए के कारपोरेट्स के कर्जे माफ करने होते हैं तब उन्हें टैक्स पेयर्स याद नहीं आते हैं। ताजा आँकड़े बताते हैं कि पिछले पाँच सालों में सरकार ने जितने ऋण माफ़ किए हैं उसका केवल 7.16 प्रतिशत किसानों के हिस्से आया है और 65.15 प्रतिशत कारपोरेट्स के। 27.69 प्रतिशत व्यापारियों और सेवाएँ प्रदान करने वालों के हिस्से आया है। 

इससे साफ है कि ये सरकार केवल और केवल कारपोरेटस् के हितों का ध्यान रखती है। यदि उसे वोट प्राप्त नहीं करने हों तो वह किसानों और मध्यम लोगों को ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दे। यही कारण है कि आज चुनावों में कारपोरेट्स का धन कमाल दिखाता है और हर बार पूंजीपतियों के चहेते ही संसद पर कब्जा कर लेते हैं। देश की सारी प्रगति कारपोरेट्स के पेट में समा जाती है। ऐसी प्रगति के लिए हमारी मेहनतकश जनता क्यों खून पसीना बहाए। यह सोच मेहनतकश जनता पर बार बार प्रहार करती है जो उसे धीरे-धीरे काम और मेहनत से दूर ले जाती है। 

हम समझ सकते हैं कि आज की यह आर्थिक प्रगति देश की बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के किसी काम की नहीं है यदि आर्थिक विषमता की खाई लगातार बढ़ती जाए। इस आर्थिक समानता की व्यवस्था को कारपोरेट्स हमेशा गर्भ में मार डालने के प्रयत्न में रहते हं। वे ये करते रहे हैं और करते रहेंगे। लेकिन आर्थिक समानता के लिए जनता का संघर्ष कभी खत्म नहीं होता। वह लगातार जारी है और आगे भी बढ़ रहा है। इसी आगे बढ़ते हुए संघर्ष का गला घोंटने के लिए सरकारों को सीएए, एनआरसी और एनपीआर जैसी जनता को बाँटने, उनमें आपसी घृणा का विस्तार करने के प्रयास करने पड़ते हैं। इस वक्त भारत सरकार को इस काम के लिए कार्पोरेट्स दुनिया के सब से बड़े अलंकरण से नवाज सकते हैं। 

लेकिन जनता का समानता के लिए संघर्ष भी फीनिक्स है, मर मर कर राख से फिर जी उठता है। उस ने भूतकाल में अनेक विजयें हासिल की हैं। वह हमेशा ऐसे ही जी उठता रहेगा जब तक कि उस की अंतिम रूप से विजय नहीं हो जाती है।

रविवार, 8 सितंबर 2019

जज

सबसे बुरा तब लगता है जब जज की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने इजलास में किसी मजदूर से कहता है कि "फैक्ट्रियाँ तुम जैसे मजदूरों के कारण बन्द हुई हैं या हो रही हैं"।

40 साल से अधिक की वकालत में अनगिन मौके आए जब यह बात जज की कुर्सी से मेरे कान में पड़ी। हर बार मेरे कानों से गुजर कर मस्तिष्क तक पहुँचे ये शब्द अंदर एक विस्फोट कर डालते हैं। यह सोच भी तभी तुरन्त प्रतिक्रिया स्वरूप आती है कि इस विस्फोट की गर्मी को शान्त करो, तुम किसी जनतांत्रिक अदालत में नहीं बल्कि पूंजीपतियों, जमींदारों के पोषक राज्य की अदालत में खड़े हो। यह अदालत प्रतिवाद का उत्तर कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट के आरोप, सुनवाई और सजा से दे सकती है। गुस्सा कभी अदालत पर नहीं आता। आता है उस व्यक्ति पर जो सिर से ऊंची पीठ वाली कुर्सी पर बैठता है। जिस ने भले ही प्रेमचंद की "पंच परमेश्वर" कहानी पढ़ी हो, पर उस पंच जैसा बनने की खुद की कोशिश को जरा देर में नाकामयाब बना देता है। 

मैं यहाँ उन व्यक्तियों की बात नहीां करता जो उस उँची कुर्सी पर बैठ कर न्याय का सौदा करते हैं, कैश में या काइंड में। लेकिन उन की बात कर रहा हूँ जो पूरी ईमानदारी से, पूरी शुचिता के साथ उस ऊँची कुर्सी पर बैठ कर न्याय करना चाहते हैं। लेकिन वे अपनी वर्गीय स्थिति का क्या करें? वे ज्यादातर उच्च और उच्च मध्यवर्ग से आते हैं, कुछ निम्नमध्यवर्ग से भी। इन तमाम वर्गों के लोगों की सामान्य कोशिश यही रहती है कि किसी तरह मेहनत कर के, किसी तिकड़म से, और यहाँ तक कि परिवार की जमा पूंजी को बत्ती लगा कर, ऊपर से कर्जा लेकर भी अपने वर्ग से ऊपर के वर्ग में स्थान बना लें। बमुश्किल उन में से कुछ लोगों को कामयाबी मिलती है। वे डाक्टर, इंजीनयर, सरकारी अफसर, जज वगैरा बन पाते हैं। इस कोशिश में ज्यादातर पराजित हो कर निचले वर्ग में पहुँच जाते हैं। बहुत लोग मजदूर भी हो जाते हैं लेकिन वहाँ भी उन की मानसिकता उन्हीं टटपूंजिया वर्गों की जैसी बनी रहती है, जिन से वे आए हैं। हमारे पूंजीवादी सामंती समाज का सुपरस्ट्रक्चर उन्हें अपने पानी से भरे पूल में सतह से ऊपर सिर निकाल कर साँस लेने का अवसर ही नहीं देता। 

इस तरह के वाक्य जब ऊंची कुर्सी से कान में पड़ते हैं तो मैं तुरन्त जवाब देने से बचने की कोशिश करता हूँ। बाद में किसी मौके पर उसका प्रतिवाद भी करता हूँ। पर जब उस कुर्सी पर ईमानदारी से काम करते हुए व्यक्ति से ऐसा वाक्य सुनने को मिलता है, जिन से थोड़ी बहुत आशा मैं और मजदूर करने लगते हैं, तो चुप नहीं रहा जाता, भिड़न्त हो ही जाती है। कुछ दिन पहले फिर एक भिड़न्त हो गयी। मैंने कहा- आप ने तो वर्डिक्ट ही सुना दिया। पूरे वर्ग को दोषी ठहरा दिया। कोई गवाह नहीं, सबूत नहीं, बस हवा की सूली पर टांक दिया। अब जब तक वह मरेगा नहीें तब तक सोचता रहेगा कि यह केवल और केवल मजदूर वर्ग में पैदा होने का अभिशाप / कलंक है जो इस राज्य में कभी नहीां धुल सकता। आप किसी भी मुकदमे में इस बात को कभी साबित नहीं कर सकते कि किसी एक या अधिक मजदूरों के कारण कोई कारखाना बंद हुआ है। कारखाना पूंजीपति और उनकी सरकारों की इच्छा से खुलते हैं और उन्हीं की मर्जी से बन्द होते हैं। वे बस प्रोपेगण्डा करते हैं कि मजदूरों की वजह से कारखाने बंद होते हैं। खैर, भिड़न्त हो गयी। फिर कुर्सी ने उस विवाद से पल्ला झाड़ लिया। 

यह पूंजीवादी सामंती राज्य किसी हालत में मजदूरों, किसानों और मजलूमों के साथ कभी न्याय नहीं कर सकता। उस की कोई अदालत उन के साथ इंसाफ नहीं कर सकती। वे बनी ही इसलिए हैं कि वे इन वर्गों के असंतोष को किसी तरह दबाए रखें, उलझाए रखें। उस की आँच उस के मालिकों तक पहुँचे ही नहीं। इस राज्य में मजदूरोे किसानों का न्याय प्राप्ति की आशा करना ही व्यर्थ है। इस व्यवस्था के जज अखबारों को "मजदूर को न्याय मिला" जैसी खबरों से भरने के लिए मसाला जरूर पैदा करते हैं। लेकिन वे मजदूरों किसानों के साथ न्याय कर के वे वर्ग स्वामियों को नुकसान कैसे पहुँचा सकते हैं? वे तो उनके सब से बहुमूल्य सेवक हैं। वे इस व्यवस्था की "शॉक एब्जोर्बर" मात्र हैं।
- दिनेशराय द्विवेदी

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

वैज्ञानिक भौतिकवाद -1 प्राक्कथन -राहुल सांकृत्यायन


"वैज्ञानिक भौतिकवाद" राहुल सांकृत्यायन की महत्वपूर्ण पुस्तक है, उस में भौतिकवाद को समझाते हुए राहुल जी ने भाववादी दर्शनों की जो आलोचना की है वह पढ़ने योग्य है, इस में ज्ञान के साथ साथ हमें भाषा के सौंदर्य का भी आनन्द प्राप्त होता है और व्यंग्य की धार भी। यहाँ इस पुस्तक का प्राक्कथन प्रस्तुत है। कोशिश रहेगी कि यहाँ एक एक अध्याय प्रस्तुत करते हुए पूरी पुस्तक ही प्रस्तुत की जाए। -दिनेशराय द्विवेदी

प्राक्कथन

आज हम साइंस के युग में हैं, किन्तु तब भी शिक्षित लोगों में भी बहुत से साइंस-युग के पहिले के मृत विचार ही चल रहे हैं। इसमें एक कारण यह भी है, कि जिज्ञासुओं के पास उसके जानने के लिये हिन्दी में पुस्तकें मौजूद नहीं हैं।  इस कमी को पूरा करने का इरादा, दो वर्ष पहिले जब मैं हजारीबाग जेल में नजरबंद होकर आया, तभी हुआ; और काम भी शुरू कर दिया। सामग्री जमा करते वक्त पता लगा. कि ऐसी पुस्तक लिखना हिन्दी में बेकार है, जब तक कि साइंस, समाजशास्त्र और दर्शन की सामग्री भी पाठकोंके लिये जुटा न दी जाय। जब मैंने हजारीबाग में लिखे सौ पृष्ठों को बेकार समझ देवली (21.07.1941) में वैज्ञानिक भौतिकवाद पर साइंस से लिखाई शुरू की, उस समय तक यही ख्याल था, कि एक ही पुस्तक में सब चीजें आ जायेंगी; किन्तु पता लगा, कि अलग-अलग विषयों पर डेढ़-पौने दो हजार पृष्ठ का एक पोथा लिखनेकी जगह सबको अलग-अलग पुस्तक मान लेना ही अच्छा है। इस प्रकार एक पुस्तक की जगह चार पुस्तकें लिखनी पड़ी
(१) विश्वकी रूपरेखा (साइंस)
(२) मानव-समाज (समाज-शास्त्र)
(३) दर्शन-दिग्दर्शन (दर्शन)
(४) वैज्ञानिक-भौतिकवाद
इसमें वैज्ञानिक-भौतिकवाद सबसे छोटी पुस्तक है, जिसका कारण एक यह भी है, कि इसमें आनेवाले कितने ही विषय दूसरे ग्रंथों में
आ चुके हैं। वस्तुतः बाकी तीनों "वैज्ञानिक-भौतिकवाद" के ही परिवार ग्रंथ है। .
पुस्तक के गहन विषय को सरल और स्पष्ट करनेकी मैंने भरसक कोशिश की है, किन्तु उसमें कितनी सफलता हुई है, इसके प्रमाण पाठक ही हो सकते हैं।
अपने विषय के प्रतिपादन में मुझे दूसरे विरोधी मतों की आलोचना करनी पड़ी है, जिसके लिये मैं मजबूर था; सम्भव है किसी को इससे दुःख हो, जिसके लिये मुझे खेद होगा; मैंने तोवादे-वादे जायते तत्त्वबोधः' की उक्ति को सामने रखकर वैसा किया है।
जिन ग्रंथोसे मैंने सहायता ली, उनकी सूची में अलग दे रहा हूँ; लेकिन इतना ही कर देने से मैं अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं समझता। मैं समझता हूँ, इस पुस्तक के लिखने का सारा श्रेय इन्हीं ग्रंथकारों को मिलना चाहिये, मैंने तो मधुमक्खी की भाँति मधु-संग्रह मात्र किया है, असली धन तो उन्हीं का है।
मुझे एक बार विश्वास होने लगा था, कि तीसरा ग्रंथ (दर्शनदिग्दर्शन) ही यदि समाप्त हो जाय तो गनीमत समझना चाहिये; किन्तु उसके समाप्त करते ही (11.03.1942) मैंने तै कर लिया, कि वर्तमान ग्रंथको लिखना शुरू कर देना होगा, और अपने को "गृहीत इब केशेषु मृत्युना" समझते इसे आज समाप्त कर सका हूँ।

सेंट्रल जेल, हजारीबाग ।
राहुल सांकृत्यायन 24.03.1942

दूसरा संस्करण
इस संस्करणमें मैंने सिर्फ पहिले अध्याय को अन्त में डाल दिया है, इतना समय नहीं निकाल सका कि कठिन अध्याय को और सरल कर सकता। और सरल करने की अवश्यकता है। 

प्रयाग
राहुल सांकृत्यायन 10.12.1943

बुधवार, 28 अगस्त 2019

राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता


प्रेमचन्द

राष्ट्रीयता

इसमें तो कोई सदेह नहीं कि अन्तर्राष्ट्रीयता मानव संस्कृति और जीवन का बहुत ऊँचा आदर्श है, और आदि काल से संसार के विचारकों ने इसी आदर्श का प्रतिपादन किया है. 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इसी आदर्श का परिचायक है. वेदान्त ने एकात्मवाद का प्रचार ही तो किया. आज भी राष्ट्रीयता का रोग उन्हीं को लगा हुआ है, जो शिक्षित हैं, इतिहास के जानकार हैं. वे संसार को राष्ट्रों ही के रूप में देख सकते हैं. संसार के संगठन की दूसरी कल्पना उनके मन में आ ही नहीं सकती. जैसे शिक्षा से और कितनी ही अस्वाभाविकताएँ हमने अपने अन्दर भर ली हैं, उसी तरह से इस रोग को भी पाल लिया है. लेकिन प्रश्न यह है कि उससे मुक्ति कैसे हो? कुछ लोगों का ख्याल है कि राष्ट्रीयता ही अन्तर्राष्ट्रीयता की सीढ़ी है. इसी के सहारे हम उस पद तक पहुंच सकते हैं, लेकिन जैसा कृष्णमूर्ति ने काशी में अपने एक भाषण में कहा है, यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई कहे कि आरोग्यता प्राप्त करने के लिए बीमार होना आवश्यक है. 

तो फिर यह प्रश्न रह जाता है कि हमारी अन्तर्राष्ट्रीय भावना कैसे जागे? समाज का संगठन आदि काल से आर्थिक भित्ति पर होता आ रहा है. जब मनुष्य गुफाओं में रहता था, उस समय भी उसे जीविका के लिए छोटी-छोटी टुकड़ियाँ बनानी पड़ती थीं. उनमें आपस में लड़ाइयाँ भी होती रहती थीं. तब से आज तक आर्थिक नीति ही संसार का संचालन करती चली आ रही है, और इस प्रश्न की ओर से आंखे बन्द करके समाज का कोई दूसरा संगठन नहीं हो सकता. यह जो प्राणी-प्राणी में भेद है, फूट है, वैमनस्य है, यह जो राष्ट्रों में परस्पर तनातनी हो रही है, इसका कारण अर्थ के सिवा और क्या है? अर्थ के प्रश्न को हल कर देना ही राष्ट्रीयता के किले को ध्वंस कर सकता है.

वेदान्त ने एकात्मवाद का प्रचार करके एक दूसरे ही मार्ग से इस लक्ष्य पर पहुंचने की चेष्टा की. उसने समझा, समाज के मनोभाव को बदल देने से ही यह प्रश्न आप ही आप हल हो जायेगा लेकिन उसे सफलता नहीं मिली. उसने कारण का निश्चय किये बिना ही कार्य का निर्णय कर लिया, जिसका परिणाम असफलता के सिवा और क्या हो सकता था? हजरत ईसा, महात्मा बुद्ध आदि सभी धर्म प्रवर्तकों ने मानसिक और आध्यात्मिक संस्कार से समाज का संगठन बदलना चाहा. हम यह नहीं कहते किउनका रास्ता गलत था. न ही; वही रास्ता ठीक था, लेकिन उसकी असफलता का मुख्य कारण यही था कि उसने अर्थ को नगण्य समझा. अन्तर्राष्ट्रीयता, या एकात्मवाद या समता तीनों मूलतः एक ही हैं. उनकी प्राप्ति के दो मार्ग हैं, एक आध्यात्मिक, दूसरा भौतिक. आध्यात्मिक मार्ग की परीक्षा हमने खूब कर ली है. कई हजार बरसों में हम यही परीक्षा करते चले आ रहे हैं, वह श्रेष्ठतम मार्ग था. उसने समाज के लिए ऊँचे से ऊँचे आदर्श की कल्पना की और उसे प्राप्त करने के लिए ऊँचे से ऊँचे सिद्धांत की सृष्टि की थी. उसने मनुष्य की स्वेच्छा पर विश्वास किया, लेकिन फल इसके सिवा और कुछ न हुआ कि धर्मोपजीवियों की एक बहुत बड़ी संख्य पृथ्वी का भार हो गयी. समाज जहां था वहीं खड़ा रह गया, नहीं और पीछे हट गया. संसार में अनेक मतों और धर्मों और करोड़ों धर्मोपदेशकों के रहते हुए भी जितना वैमनस्य और हिंसा-भाव है, उतना शायद पहले कभी न था. आज दो भाई एक साथ नहीं रह सकते. यहां तक कि स्त्री-पुरुष में संग्राम चल रहा है. पुराने ज्ञानियों ने सारे झगड़ों की जिम्मेदारी जर, जमीन, जन' रखी थी. आज उसके लिए केवल एक ही शब्द काफी है – संपत्ति.

जब तक सम्पत्ति मानव-समाज के संगठन का आधार है, संसार में अन्तर्राष्ट्रीयता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता. राष्ट्रों, राष्ट्रों की, भाई-भाई की, स्त्री-पुरुष की लड़ाई का कारण यही सम्पत्ति है. संसार में जितना अन्याय और अनाचार है, जितना द्वेष और मालिन्य है, जितनी मूर्खता और अज्ञानता है, उसका मूल रहस्य यही विष की गांठ है. जब तक सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा, तब तक मानव समाज का उद्धार नहीं हो सकता. मजदूरों के काम का समय घटाइये, बेकारों को गुजारा दीजिये, जमींदारों और पूंजीपतियों के अधिकारों को घटाइये, मजदूरों और किसानों के स्वत्वों को बढ़ाइये, सिक्के का मूल्य घटाइये - इस तरह के चाहे जितने सुधार आप करें, लेकिन यह जीर्ण दीवार इस टीप-टाप से ही नहीं रह सकती. इसे गिराकर नये सिरे से  उठाना होगा.

संसार आदि काल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है. जिस पर वह प्रसन्न हो जाय, उसके भाग्य खुल जाते हैं, उसकी सारी बुराइयां माफ कर दी जाती हैं, लेकिन संसार का जितना नुकसान लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने नहीं किया. यह देवी नहीं, डायन है.

सम्पत्ति ने मनुष्य को अपना क्रीतदास बना लिया है. उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक बात केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है. मरते दम भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय इस संपत्ति का क्या होगा. हम सम्पत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं, सम्पत्ति के लिए गेरुए वस्त्र धारण करते हैं, सम्पत्ति के लिए घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भांति-भांति के वैज्ञानिक हिंसा-यन्त्र क्यों बनाते हैं? वेश्याए क्यों बनती हैं, और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है. जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन न होगा, जब तक संपत्ति व्यक्तिवाद का अन्त न होगा, संसार को शान्ति न मिलेगी.

कुछ लोग समाज के इस आदर्श को वर्गवाद, या 'क्लास वार' कह कर उसका अपने मन में भीषण रूप खड़ा कर लिया करते हैं. जिनके पास धन है, जो लक्ष्मी पुत्र हैं, जो बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मालिक हैं, वे इसे हौआ समझकर, आँखे बन्द करके, गला फाड़कर चिल्ला पड़ते हैं. लेकिन शांत मन से देखा जाय, तो असंपत्तिवाद की शरण में आकर उन्हें भी वह शांति और विश्राम प्राप्त होगा, जिसके लिए वे सन्तों और संन्यासियों की सेवा किया करते हैं, और फिर भी वह उनके हाथ नहीं आती. अगर वे अपने पिछले कारनामों को याद करें तो उन्हें मालूम हो कि सम्पत्ति जमा करने के लिए उन्होंने अपनी आत्मा का, अपने सम्मान का, अपने सिद्धान्त का खून किया. बेशक उनके पास करोड़ों की विभूति है, पर क्या उन्हें शान्ति मिल रही है? क्या वे अपने ही भाइयों से, अपनी ही स्त्री से सशंक नहीं रहते? क्या वे अपनी छाया से चौंक नहीं पड़ते, यह करोड़ों का ढेर उनके किस काम आता है? वे कुम्भकर्ण का पेट लेकर भी उसे अन्दर नहीं भर सकते. ऐन्द्रिक भोग की भी सीमा है. इसके सिवा उनके अहंकार को यह संतोष हो कि उनके पास एक करोड़ जमा है, और तो उन्हें कोई सुख नहीं है. क्या ऐसे समाज में रहना उनके लिए असह्य होगा, जहां उनका कोई शत्रु न होगा, जहाँ उन्हें किसी के सामने नाक रगड़ने की जरूरत न होगी. जहाँ छल-कपट के व्यवहार से मुक्ति होगी, जहां उनके कुटुम्ब वाले उनके मरने की राह न देखते होंगे, जहां वे विष के भय के बगैर भोजन कर सकेंगे? क्या यह अवस्था उनके लिए असह्य होगी? क्या वे उस विश्वास, प्रेम और सहयोग के संसार से इतना घबराते हैं, जहाँ वे निर्द्वन्द्व और निश्चित समष्टि में मिलकर जीवन व्यतीत करेंगे ? बेशक उनके पास बड़े-बड़े महल और नौकर-चाकर और हाथी-घोड़े न होंगे, लेकिन यह चिन्ता, संदेह और संघर्ष भी तो न होगा.

कुछ लोगों को संदेह होता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ के बिना मनुष्य में प्रेरक शक्ति कहां से आयेगी. फिर विद्या, कला और विज्ञान की उन्नति कैसे होगी? क्या गोसाई तुलसीदास ने रामायण इसलिए लिखा था कि उस पर उन्हें रायल्टी मिलेगी? आज भी हम हजारों आदमियों को देखते हैं जो की उपदेशक हैं, कवि हैं, शिक्षक हैं, केवल इसलिए कि इससे उन्हें मानसिक संतोष मिलताहै. अभी हम व्यक्ति की परिस्थिति से अपने को अलग नहीं कर सकते, इसीलिए ऐसी शकाएं हमारे मन में उठती हैं, समष्टि कल्पना के उदय होते ही यह स्वार्थ चेतना स्वयं नष्ट हो जायेगी.

कुछ लोगों को भय होता है कि तब तक बहुत परिश्रम करना पड़ेगा. हम कहते हैं कि आज ऐसा कौन-सा राजा-धनी है जो आधी रात तक बैठा सिर नहीं खपाता. यहां उन विलासियों की बात नहीं है, जो बाप-दादों की कमाई उड़ा रहे हैं. वे तो पतन की ओर जा रहे हैं. जो आदमी सफल होना चाहता है, चाहे वह किसी काम में हो, उसे परिश्रम करना पड़ेगा. अभी वह अपने और अपने कुटुम्ब के लिए परिश्रम करता है, क्या तब उसे समष्टि के लिए परिश्रम करने में कष्ट होगा?

(२७ नवम्बर १९३३)