@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 20 जुलाई 2019

हस्तलिपि

वकालत में 40 साल से ऊपर हो गए हैं। कॉलेज छोड़े भी लगभग इतना ही अरसा हो गया। वकालत के शुरू में हाथ से बहुत लिखा। उस वक्त तो दरख्वास्तें और दावे भी हाथ से लिखे जा रहे थे। टाइप की मशीनें आ चुकी थीं। फिर भी हाथ से लिखने का काम बहुत होता था। मैं टाइप कराने के पहले दावे हाथ से लिखता था। कई बार लिखते लिखते बीच में एक पैरा भी गलत हो जाता तो मैं सारे कागज फाड़ कर उसे शुरू से दोबारा लिखने बैठता। कई बार एक ही दावे को इसी तरह तीन-तीन बार शुरू से वापस लिखा। साल 2007 में कंप्यूटर मेरे पल्ले पड़ा। 2008 के आखिर में यह स्थिति हो गई के मैं दावे और अपनी वकालत का लगभग सारा काम अपने कंप्यूटर पर करने लगा। इस तरह लिखना कम हो गया। इसका सीधा असर मेरी हस्तलिपि पर पड़ा। हालांकि अब भी मैं अक्सर अदालत में तुरंत कोई दरख्वास्त देने की जरूरत होती है तो सीधे लेजर पेपर पर हाथ से लिखता हूं और प्रतिलिपियों के लिए उनकी फोटो प्रति करवा लेता हूं। जिस से अभी तक मेरी हस्तलिपि ठीक-ठाक बनी हुई है। हस्तलिपि पर एक बुरा असर बॉल पॉइंट पेन ने भी डाला है। जब तक होल्डर या निब वाले फाउंटेन पेन थे, तब तक हाथ से लिखने का आनंद कुछ और ही था।

उस साल मैंने कॉलेज में दाखिला लिया ही था। कॉलेज उसी इमारत की दूसरी मंजिल पर चलता था जिसके भूतल पर हमारा उच्च माध्यमिक विद्यालय था। स्कूल से पूरी तरह नाता टूट चुका था। बस 15 या 20 ₹ कॉशन मनी के जमा थे। एक दिन कॉलेज में दो पीरियड एकदम खाली थे। उस खाली समय में मैं क्या करूं, यह समझ नहीं आ रहा था। स्कूल में मेरे फूफाजी क्राफ्ट के अध्यापक थे और उन्हें प्रयोगशाला के लिए एक बड़ा सा हॉल और एक कमरा मिला हुआ था। मैं समय गुजारने उनके पास उसी प्रयोगशाला में पहुंच गया। अचानक मुझे याद आया कि मेरी कॉशन मनी अभी तक मैंने स्कूल से वापस नहीं ली है। तो सोचा, एक दरख्वास्त लिखकर दे दूं तो इतना समय है कि कॉशन मनी आज ही वापस मिल जाएगी।

Image result for विद्यार्थी और प्रधानाध्यापकप्रयोगशाला में रखी हुई छात्रों की पुरानी कॉपियों से एक कागज निकाला। कागज सामान्य साइज से बहुत बड़ा था, जैसा प्रैक्टिकल वाली कापियों का होता है। मुझे उसमें मुश्किल से 4 पंक्तियों की दरख्वास्त लिखनी थी। उस हिसाब से कागज बहुत बड़ा था। मैंने ऊपर, दाएं, बाएं ठीक-ठाक हाशिया छोड़ा। जिस से दरख्वास्त ठीक बीच में लिखी जाए और दरख्वास्त लिखना शुरू किया। हस्तलिपि ठीक-ठाक थी और भाषा भी अच्छी। मैं दरख्वास्त लिख कर सीधे स्कूल प्रिंसिपल के पास पहुंचा। वे अपने दफ्तर में अकेले थे। उन्होंने दरखास्त देखी, पूरी पढ़ी और आंखों से चश्मा हटा कर सीधे मेरी आँखों में देखते हुए पूछा - यह दरख्वास्त तुमने लिखी है? 

मैंने कहा- बिल्कुल मैंने ही लिखी है। 
उन्होंने दोबारा पूछा और उन्हेंं मुझ से फिर वही जवाब मिला।


तब तक पीरियड खत्म होने की घंटी बज गई और अध्यापक खत्म हुए पीरियड की कक्षा के उपस्थिति रजिस्टर रखने और अगली कक्षा के लेने के लिए प्रिंसिपल के कार्यालय में आने लगे। प्रिंसिपल ने एक वरिष्ठ अध्यापक से मेरी दरखास्त दिखाकर कहा- देखिए दास साहब! यह दरख्वास्त इस बच्चे ने लिखी है। 

दास साहब ने दरख्वास्त देखकर कहा -मैं इसे जानता हूं। पिछले साल मैं ही इसका कक्षा अध्यापक था। यह इसी ने लिखी है। 

उसके बाद प्रिंसिपल साहब ने मेरी दरख्वास्त उनके कार्यालय में आने वाले हर अध्यापक को दिखाई और फिर कहा कि मैं आप लोगों को यह दरख्वास्त इसलिए दिखा रहा हूं कि यह इस बच्चे ने लिखी है। जबकि हमारे स्टाफ में से किसी की भी लिखी हुई इतनी खूबसूरत दरख्वास्त मैंने आज तक नहीं देखी। खैर।


स्टाफ के चले जाने के बाद प्रिंसिपल साहब मुझे लेकर खुद केशियर के पास गए और उसे कहा कि वह तुरंत मेरी कॉशन मनी वापस लौटा दे। इसके बाद वे स्कूल के राउंड पर चले गए। केशियर कोई जरूरी काम कर रहा था। उसने मुझे पूछा- भैया मैं हाथ का काम निपटा कर तुम्हारी कॉशन मनी दे दूंगा, तुम्हें जल्दी तो नहीं है‌? मैंने उन्हें कहा- मुझे कोई जल्दी नहीं है? आप आराम से दीजिए। कैशियर को अपना काम निपटाने में 15-20 मिनट लग गए। तब तक प्रिंसिपल साहब स्कूल का राउंड लगा कर वापस आ गए। उन्होंने केशियर को लगभग डांटते हुए पूछा, तुमने अभी तक इसकी कॉशन मनी वापस नहीं लौटाई?

वे जवाब देते उसके पहले ही मैंने उन्हें बताया कि मैंने ही इन्हें हाथ का काम निपटा कर देने के लिए कहा था, इसलिए देर हो गई। प्रिंसिपल साहब ने मेरी ओर देखा फिर केशियर को कहा, ठीक है तुम अपना काम कर लो। लेकिन इस बच्चे को ज्यादा देर मत बिठाओ। आगे इसे कॉलेज की क्लास भी अटेंड करनी है। कैशियर ने मुझे अपना काम छोड़ उसी समय प्रिंसिपल साहब के सामने ही कॉशन मनी की राशि मुझे दे दी।

मुझे यह घटना अभी तक भी इसलिए याद है कि अच्छी हस्तलिपि से सुंदर तरीके से लिखे जाने का इससे अच्छा सम्मान मैंने अपने जीवन में फिर कभी नहीं देखा।

शनिवार, 22 जून 2019

प्रधानाध्यापक की गवाही

पोक्सो की विशेष अदालत में (Protection of Children from Sexual Offences Act – POCSO) बच्चों का यौन अपराधों से बचाव अधिनियम में म.प्र. के झाबुआ जिले के एक आदिवासी भील नौजवान के विरुद्ध मुकदमा चल रहा है। उस पर आरोप है कि वह एक आदिवासी भील नाबालिग लड़की को भगा ले गया और उस के साथ यौन संबंध स्थापित किए। चूंकि मुकदमे में लड़की को नाबालिग बताया गया है इस कारण से यह यौन संबंध बलात्कार की श्रेणी में भी आता है। इस बलात्कार को साबित करने के लिए यह भी जरूरी है कि पीड़ित लड़की को नाबालिग साबित किया जाए। इस के लिए पुलिस अन्वेषक ने लड़की का पहली बार स्कूल में भर्ती होते समय भरा गया प्रवेश आवेदन पत्र तथा स्कॉलर रजिस्टर, अगले स्कूल की टी.सी. को भी सबूत के रूप में पेश किया था। इन दस्तावेजों को साबित करने के लिए जरूरी था कि मूल असली रिकार्ड न्यायालय के समक्ष लाया जाए जिसे स्कूल का वर्तमान प्रभारी इन दस्तावेजों को अपने बयान से प्रमाणित करे। 

उस प्राथमिक शाला का प्रधानाध्यापक गवाही देने आया। हालांकि स्कॉलर रजिस्टर की प्रतिलिपि अदालत में पुलिस द्वारा पेश की गयी थी। लेकिन वह असल रिकार्ड ले कर नहीं आया था। वैसी स्थिति में उस के बयान लेने का कोई अर्थ नहीं था। उसे हिदायत दी गयी कि वह अगली पेशी पर स्कॉलर रजिस्टर तथा प्रवेश पत्र साथ लेकर आए। 

अगली पेशी पर प्रधानाध्यापक असल स्कॉलर रजिस्टर साथ ले कर आया। साथ में प्रवेश आवेदन पत्र भी था। लेकिन मुझे प्रवेश आवेदन पत्र नकली और ताजा बनाया हुआ लगा। 2007 में जब प्रवेश आवेदन पत्र भरा गया था तब आधारकार्ड वजूद में नहीं थे। जब कि लाए गए प्रवेश आवेदन पत्र पर आधार कार्ड का विवरण दाखिल करने का कालम छफा हुआ मौजूद था। जो हर हाल में 2009 या उस के बाद का था। इस के अलावा उस का कागज बिलकुल अछूता लगता था, किसी फाइल में नत्थी करने के छेद उस में नहीं बने थे। मैं ने अदालत का ध्यान बंटाया कि यह प्रवेश आवेदन पत्र फर्जी लगता है और ताजा बनाया गया है। अदालत ने मेरी आपत्ति को तब दरकिनार किया और कहा कि एक बार यह दस्तावेज रिकार्ड पर तो आए। फिर देखेंगे। आखिर हेडमास्टर की गवाही शुरू हुई। मैं ने जिरह की। गवाही के अन्त में मैं ने गवाह से प्रवेश आवेदन पत्र के बारे में पूछना आरंभ किया। 

- क्या यह प्रवेश आवेदन पत्र पीड़ित लड़की का ही है? 

– हाँ। 

- इसे आप कहाँ से लाए? 

- स्कूल रिकार्ड से लाया हूँ। 

- पर यह तो ताजा बना हुआ प्रतीत होता है, पुराना नहीं लगता। इस पर किसी फाइल में नत्थी करने के निशान तक नहीं हैं। यह कब बनाया गया? 

- अभी चार-पाँच रोज पहले बनाया है। 

- क्या आप पीड़िता के पिता को जानते हैं? 

- नहीं जानता। 

- तो इस आवेदन पत्र पर जो पीड़िता के पिता की अंगूठा छाप है, वह कब लगवाई गई? कैसै लगवाई गयी? 

- वहीँ गाँव में किसी से लगवा ली थी। 

- मतलब यह प्रवेश आवेदन पत्र अभी चार-पाँच दिन पहले तुमने ही बनाया है? 

- हाँ, मैंने ही बनाया है। 

- तो हेडमास्टर साहब, आपने ये फर्जी क्यों बनाया? 

- पिछली पेशी से जाने के बाद मैं ने स्कूल में जा कर सारा रिकार्ड खंगाला। मुझे पीड़िता का प्रवेश आवेदन पत्र नहीं मिला। जब कि रिकार्ड में होना चाहिए था। अदालत ने इस पेशी पर इसे हर हाल में लाने के लिए कहा था, इस कारण मुझे बनाना पड़ा। अदालत के आदेश की पालने कैसे करता? 

- तुम्हें पता भी है, तुमने एक दस्तावेज को नकली बनाया और फिर उसे पेश कर न्याय को प्रभावित करने का प्रयत्न किया है? यदि अदालत चाहे तो इसी वक्त तुम्हें हिरासत में ले सकती है और जेल भेज सकती है। 

- सर¡ मुझे नहीं पता। मैं तो एक गाँव के प्राइमरी स्कूल का प्रधानाध्यापक हूँ। पढ़ाई पर ध्यान देता हूँ। स्कूल में कोई बच्चा फेल नहीं होता। कभी शहर में नहीं रहा। अब कागजों दस्तावेजों का मामला है तो सब ऐसे ही बना लेते हैं, किसी को कुछ होते न देखा। मुझे लोगों ने सलाह दी कि बना लो। किसी को पता थोड़े ही लगेगा। नहीं ले जाओगे और अदालत ने विभाग को कुछ लिख दिया तो नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। इस लिए बना लिया। 

-और अभी तुरन्त जेल जाना पड़ा और इस फर्जी दस्तावेज के कारण नौकरी चली गयी तो क्या करोगे? अभी जमानत का इंतजाम भी तुम परदेस में नहीं कर पाओगे। और तुम्हारे बीवी-बच्चों का क्या होगा? 

प्रधानाध्यापक मेरे सवालों को सुन कर हक्का-बक्का खड़ा था। उस की समझ में कुछ नहीं आया था। आखिर उस ने ऐसा कौन सा गलत काम या अपराध कर दिया था जिस के कारण उसे जेल जाना पड़ सकता है और उस की नौकरी जा सकती है? वह अपना बयान शुरु होते समय बहुत खुश था, अब रुआँसा हो चला था। अदालत के जज साहब भी हक्के-बक्के थे। वे मुझे कहने लगे क्या करें, इस का? इस प्रवेश आवेदन पत्र से संबंधित बयान को गवाही में शामिल किया तो इसे तो जेल भेजना पड़ेगा। 

मुझे भी लगा कि प्रधानाध्यापक ने जो किया था वह उसकी समझ से गलत या अपराध नहीं था, बल्कि उस ने आदिवासी जीवन की सरलता में, नागरिक जीवन के सवालों को धता बताने के लिए एक होशियारी जरूर कर ली थी। उसे उसका परिणाम भी पता नहीं था। 

मैंने जज साहब से कहा कि इस आदमी का आशय न्याय को धोखा देना कतई नहीं था। अब ये जेल चला जाएगा और इसकी नौकरी जाएगी और यही नहीं परिवार भी बरबाद हो जाएगा। बेहतर है कि इस के प्रवेश आवेदन पत्र वाले बयान को इस की गवाही से निकाल दिया जाए। जज ने सरकारी वकील की ओर देखा तो उस की भी इस में सहमति नजर आई। आखिर फर्जी प्रवेश आवेदन पत्र अदालत में ही नष्ट कर दिया गया। प्रधानाध्यापक के उस के बारे में दे गए बयान को उस की गवाही से निकाल दिया गया। उसे डाँट लगाई गयी। आइंदा के लिए उसे कड़ी हिदायत दी गयी कि ऐसा करेगा तो जेल जाएगा। अब तक प्रधानाध्यापक समझ गया था कि उस ने कोई भारी अपराध कर दिया था। मैं इजलास से बाहर निकला तो प्रधानाध्यापक मेरे पीछे आया और मेरा अहसान जताने लगा। मैं ने भी उसे कहा कि वह जो कुछ भी करे बहुत सोच समझ कर किया करे। हमेशा ऐसे लोग नहीं मिलेंगे जो तुम्हारे अपराध को इस तरह अनदेखा कर दें। आखिर वह चला गया। मैं भी खुश था कि लड़की को नाबालिग साबित करने में अभियोजन पक्ष असफल रहा था।

-दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 25 मई 2019

गांधीजी का छल

21 अक्टूबर, 1928 को ‘नवजीवन’ में गांधीजी ने लिखा - ‘बोल्शेविज्म को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं समझ सका हूं वह यही कि निजी मिल्कियत किसी के पास नहीं हो— प्राचीन भाषा में कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो। यह बात यदि सभी लोग अपनी इच्छा से कर लें, तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता। परंतु बोल्शेविज्म में जबरदस्ती से काम लिया जाता है। ...मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्ती से साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता। ...फिर भी बोल्शेविज्म की साधना में असंख्य मनुष्यों ने आत्मबलिदान किया है। लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी।’ 


गांधीजी ने उक्त कथन में बोल्शेविज्म शब्द का प्रयोग किया है। बोल्शेविज्म शब्द से आज कुछ भी पता नहीं लगता है कि यह क्या है। क्या यह कम्युनिज्म है, या फिर वैज्ञानिक समाजवाद है या कुछ और। हम यदि रुसी बोल्शेविक क्रांति के बाद के दिनों में जाएँ तो उन दिनों क्रान्ति के बाद लेनिन के नेतृत्व में बनी राज्य-व्यवस्था को बोल्शेविज्म के रूप में जाना जाता था। हमें कुछ शब्दकोशो में भी उस का यही अर्थ मिलता है। हम जानते हैं कि लेनिन वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना करना चाहते थे उस के बिना एक कम्युनिस्ट व्यवस्था में संक्रमण संभव नहीं है। उन्हों ने जो सरकार स्थापित की थी वह सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद था। 

लेकिन गांधीजी पहले कहते हैं – “बोल्शेविज्म को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं समझ सका हूं वह यही कि निजी मिल्कियत किसी के पास नहीं हो— प्राचीन भाषा में कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो.” इस तरह वे यहाँ सीधे सीधे कम्युनिज्म की बात करते हैं। 

वे इस अवस्था को सही मानते हुए कहते हैं कि “यह बात यदि सभी लोग अपनी इच्छा से कर लें, तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता.” लेकिन फिर आगे कहते हैं “परंतु बोल्शेविज्म में जबरदस्ती से काम लिया जाता है. ...मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्ती से साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता। ...फिर भी बोल्शेविज्म की साधना में असंख्य मनुष्यों ने आत्मबलिदान किया है। लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी।” 

उन का मतभेद यहाँ उस अवस्था अर्थात कम्युनिज्म तक पहुँचने में नहीं है। लेकिन उस तक पहुँचने के लिए जो सर्वहारा के अधिनायकवाद या “वैज्ञानिक समाजवाद” की स्थापना लेनिन करते हैं उस की आलोचना वे करते हैं क्यों कि वे कहते हैं कि “इस में जबर्दस्ती से काम लिया जाता है”। इस के समानान्तर वे “ट्रस्टीशिप” का सिद्धान्त ईजाद कर लेते हैं। 

इस तरह गांधीजी वस्तुतः “वैज्ञानिक समाजावाद”, सर्वहारा अधिनायकवाद” और साम्यवाद की अवधारणा को ठीक से समझ ही नहीं सके थे। उन्हों ने उसे समझने की चेष्टा भी नहीं की थी। अन्यथा वे देख पाते कि पूंजीवाद में जनता का जितना दमन पूंजीवादी सरकारें करती हैं, उतना सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद में नहीं होता। समाजवाद में सिर्फ पूंजीपतियों के हाथों से उत्पादन के साधन छिन जाते हैं। लेकिन शेष जनता को जो नए अधिकार मिलते हैं उस का दुनिया में इस से पहले कोई सानी नहीं था। “सर्वहारा के अधिनायकवाद”, “वैज्ञानिक समाजवाद” और “साम्यवाद” के सिद्धान्त गांधीजी के बहुत पहले अस्तित्व में आ चुके थे। यदि “समाजवाद” के समानान्तर उन्हें “ट्रस्टीशिप की व्यवस्था” की बात करने के पहले उनके लिए आवश्यक था कि वे पहले मार्क्सवाद के “सर्वहारा के अधिनायकवाद”, “वैज्ञानिक समाजवाद” और “साम्यवाद” की अवधारणाओं को ठीक से समझकर खंडन करते और फिर “ट्रस्टीशिप” के सिद्धान्त को तार्किक तरीके से स्थापित करने की कोशिश करते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। 

सही बात तो यह है कि गांधीजी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत की आजादी के लड़ रहे थे और उनकी इस लड़ाई में देश के अनेक सामंत और पूंजीपति भी उन के साथ थे। इस तरह वे जिस पूंजीवादी व्यवस्था की उच्चतर अवस्था साम्राज्यवाद से लड़ रहे थे, उस लड़ाई में वे पूंजीपतियों को भी साथ लिए थे। जिस से पूंजीवाद की आलोचना उन के लिए संभव नहीं थी। साम्यवादी व्यवस्था की आलोचना संभव नहीं थी। उसकी आलोचना से उन के साथ जमीनी लड़ाई लड़ रहे करोडों किसान, मजदूर और मेहनतकश जनता उन के आंदोलन से दूर हो जाती। इस कारण उन्हों ने साम्यवाद तक पहुँचने के लिए एक पूरी तरह अव्यवहारिक “ट्रस्टीशिप” सिद्धान्त खड़ा कर दिया। यह सीधे-सीधे भारत के करोडों किसानों, मजदूरों और मेहनतकश जनता के साथ गांधीजी का छल था।

शनिवार, 18 मई 2019

सल्फास एक्सपोजर

रसों 16 मई को दोपहर कोर्ट से वापस आने के बाद लंच लिया। मेरा सहायक शिवप्रताप कार्यालय का काम निपटा रहा था। मुझे याद आया कि साल भर के लिए गेहूँ के बैग खरीदे सप्ताह भर हो गया है, उन्हें अभी तक खोल कर स्टोरेज में नहीं डाला है। शिव के निपटते ही मैं ने उसे कहा- तुम मदद कर दो। मैं ने उस की सहायता से गेहूँ को स्टोरेज में डाला। शिव के जाने के बाद मुझे ऊँघ सी आने लगी तो मैं शयनकक्ष में जा कर लेट गया। बावजूद इसके कि एसी चल रहा था। मुझे नीन्द नहीं आई, कुछ बैचेनी से महसूस हुई। जैसे श्वासनली या भोजन नली में कुछ अटका सा है। मैं उठ कर शयनकक्ष से बाहर आया और अपनी टेबल पर बैठ कर अगले दिन का और लंबित काम देखने लगा। बैचेनी का जो अहसास हो रहा था वह काम करते हुए बिलकुल महसूस नहीं हुआ। 

शाम चार बजे करीब शोभा ने आ कर पूछा चाय बना लें। तो मैं ने हाँ कर दी। कुछ देर में उस ने मुझे कॉफी बना कर दे दी। मैं काम से निपटा तो मुझे लगा बाईं तरफ छाती में कुछ दर्द सा है फिर कुछ देर बाद दोनों कंधों और बाजुओं में भी दर्द का अहसास होने लगा। जो बैचेनी मुझे दोपहर के भोजन के बाद हुई थी वह फिर महसूस होने लगी, जो धीरे धीरे बढ़ रही थी। मैं ने तुरन्त तय किया कि मुझे डाक्टर के पास जाना चाहिए। डाक्टर गुप्ता शाम 5 बजे से बैठते हैं, मैं करीब साढ़े पाँच बजे उन के क्लिनिक के बाहर पहुँच गया। सामने ही मित्र दिनेश का डायग्नोस्टिक सेन्टर है। मैं जब कार पार्क कर रहा था तो वह दिखाई दे गया। मैं ने उसे इशारे से बुलाया। वह तुरन्त आ गया। मैं ने कहा मुझे सीने में दर्द और बैचेनी हो रही है, डाक्टर को दिखाने आया हूँ। मुझे अकेला देख वह भी मेरे साथ हो लिया। डाक्टर ने मेरी जाँच की। बीपी और पल्स बिलकुल नॉर्मल थे। डाक्टर ने मुझे तुरन्त ईसीजी कराने को कहा और दिनेश को हिदायत दी कि वह आ कर दिखाए। 

हम दिनेश के डायग्नोस्टिक सेंटर पर आ गए। बिजली गयी हुई थी। करीब आधा घंटा बाद आई। दिनेश ने सब से पहले मेरा ईसीजी किया और तुरन्त दिखाने के लिए डाक्टर के क्लिनिक पर दौड़ गया। दस मिनट बाद आ कर उस ने बताया कि ईसीजी नॉर्मल है बस एक स्थान पर मामूली वेरिएशन है इस कारण कल सुबह 2डी-इको कराने को कहा है, यह भी कहा है कि कोटा हार्ट अस्पताल में कराएँ तो बेहतर है। दो गोलियाँ लिख दी थीं। 

मैं घर आ गया। डाक्टर को दिखाने से मुझे और शोभा को संतुष्टि हो गयी थी। मैं ने अपने पड़ौसी केमिस्ट राज को डाक्टर का प्रेस्क्रिप्शन व्हाट्स एप्प पर भेजा और फोन किया। उसने तुरन्त मुझे गोलियाँ भिजवा दीं। इन में एक गोली एसिडिटी से बचाने को थी तो दूसरी खून का तनुकरण करने वाली। मैं ने डाक्टर की हिदायत के अनुसार तुरन्त ले ली। कुछ देर बाद मुझे अचानक याद आया कि दोपहर बाद जब हम गेहूँ को स्टोरेज में डाल रहे थे तो हरेक डिब्बे में एक-एक 10 ग्राम वाला सेल्फोस का पाउच डाला था। एक डिब्बे में गेहूँ का दूसरा कट्टा ठीक से खाली होने में समय लगा था। उस समय करीब आधा-पौन मिनट तक सल्फास की गंध नाक में चली गयी थी। यह बात मुझे तब तक याद ही नहीं आई थी। मैं डाक्टर को नहीं बता सका था। मैं ने गूगल किया तो पता लगा कि सल्फास से एक्सपोजर हो जाने पर मायोकार्डाइटिस (हृदय की पेशियों की सूजन) हो सकता है। मुझे एक्सपोजर अधिक नहीं हुआ था, लेकिन कुछ तो हुआ ही था,. मामूली असर तो हुआ ही होगा। 

रात को हलका भोजन, खिचड़ी खाई। दस बजे सोने गया तो फिर से बैचेनी महसूस हुई। छाती में रह रह कर हलका दर्द होने लगता था। कंधे और बाजू भी हलके दर्द कर रहे थे।, ऐसा लगता था जैसे उन की शक्ति का ह्रास हो गया हो। मैं निर्णय नहीं कर पा रहा था कि मुझे अस्पताल जाना चाहिए या रात घर पर ही निकाल देनी चाहिए। आखिर रात ग्यारह बजे बाद मैं ने केमिस्ट राज को फोन किया तो वह तुरन्त मेरे पास आया। मैं ने उसे बताया कि सल्फास एक्सपोजर हुआ था। उस के चेहरे पर मुस्कुराहट आई और कहा कि ऐसी कोई परेशानी वाली बात नहीं है। यदि दर्द बढ़े तो तुरन्त फोन करना मैं आ जाउंगा और किसी भी वक्त अस्पताल चल चलेंगे। 

मैं ने एक दर्द निवारक गोली और खाई और सो गया। रात दो बजे नीन्द खुली तो हालत वैसी ही थी। मैं पानी पी कर फिर सो गया। चार बजे फिर नीन्द खुल गयी और फिर दोबारा नहीं आयी। पाँच बजे मेरा वैसे ही उठने का समय होता है। मैं शयनकक्ष से हाल में आ गया और अपना कम्प्यूटर चालू कर अपना काम करने लगा। जिस से मेरा ध्यान मेरी बेचैनी से हट जाए। पाँच बजे शोभा भी उठ गयी। उसने मुझे कॉफी बना कर दी और उस के पहले खाली पेट खाने वाली गोली खाने को कहा। मैं ने शोभा के निर्देशों का अक्षरश अनुसरण किया। स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होते ही शोभा ने उपमा बना दिया। मैं ने कुछ खाया। फिर कुछ आलस आने लगे तो मैं जा कर लेट गया। मुझे झपकी लग गयी। कोई बीस मिनट बाद उठा तो लगा कि अब बैचेनी नहीं है, किसी तरह का कोई दर्द नहीं है। कंधों और बाजुओँ में फिर से जान आ गयी है। मुझे लगा क सल्फास का असर जा चुका है। 

हम कोटा हार्ट अस्पताल साढ़े आठ बजे पहुँच गये। पता लगा कि हम बहुत जल्दी आ गये हैं। इको करना तो दस बजे आरंभ होगा। हम वापस घर आ सकते थे पर हमने वहीं रुकना ठीक समझा। फीस जमा की, नम्बर लगाया और वेटिंग लाउंज में आ बैठे। ओपीडी मे सफाई की जा रही थी। हमारा नंबर सवा दस बजे आया। दो मिनट में इको कर लिया। टेक्नीशियन ने बताया कि सब कुछ नोर्मल है। बीस मिनट में उस ने रिपोर्ट भी पकड़ा दी। हम घर लौट आए। सब कुछ ठीक था पर रात नीन्द न निकली थी। इसलिए दोपहर का भोजन कर के मैं सोया। खूब अच्छी नीन्द आई। शाम की चाय के बाद डाक्टर को दिखा कर आया। उसे बताया कि क्या हुआ था। वह सुन कर मुस्कुराया फिर उस ने सल्फास खाने से मर गए एक मरीज का किस्सा सुनाया। मैं वापसी में दिनेश के सेंटर हो कर आया। उस ने रिपोर्ट पढ़ कर कहा आप की हार्ट हेल्थ बहुत अच्छी है, आप दो-चार साल हार्ट की तरफ से निश्चिंत रह सकते हैं। 

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

बच्चा-ईश्वर का मनोरंजक खिलौना


बचपन में परिवार और समाज का वातावरण पूरी तरह भाववादी था। उस वातावरण में एक ईश्वर था जिस ने इस सारे जगत का निर्माण किया था। जैसे यह जगत जगत नहीं था बल्कि कोई खिलौना था जो किसी बच्चे ने अपने मनोरंजन के लिए बनाया हो। वह अपनी इच्छा से उसे तोड़ता-मरोड़ता, बनाता-बिगाड़ता रहता दुरुस्त करता रहता था। कभी जब उसे लगता कि अब यह खिलौना उस का मनोरंजन कतई नहीं कर सकेगा तो वह उसे पूरी तरह नष्ट कर देता था। उस खिलौने और उस के अवयवों की तो पूरी तरह प्रलय हो जाती थी। वह बच्चा (ईश्वर) फिर से एक नया खिलौना बनाता था जो नई सृष्टि होती थी। 

यह पूरा रूपक मेरे बाल मन को बिलकुल रुचिकर नहीं लगता था। मैं एक बच्चा उस स्वयंभू बच्चे के किसी एक खिलौना का बहुत ही उपेक्षित अवयव, एक स्क्रू, एक कील या सजावट का कोई सामान वगैरा में से कुछ होता था। मेरा बालमन कभी यह स्वीकार कर ही नहीं पाता था कि मैं उस खिलौने का अवयव हूँ। मेरा मन करता था कि इस खिलौने को मैं ही तोड़ फैंकूँ। पर कैसे? यह समझना चाहता था। 

बहुत जल्दी पढ़ने लगा था। घर में किताबें थीं, ज्यादातर धार्मिक। जब बच्चा जल्दी पढ़ना सीख लेता है तो वह दुनिया की हर वह इबारत बाँच लेना चाहता है जो वह बाँच सकता है। मेरा भी वैसा ही हाल हुआ। जेब खर्च की इकन्नी के दो पैसों के कड़के सेव और दो पैसों का कलाकंद लेता जिसे कन्दोई अखबार के टुकड़ों पर रख कर देता। उस जमाने का यह सब से अच्छा नाश्ता करते हुए मैं अखबार के उन टुकड़ों को बांचना कभी नहीं भूलता। वह आदत अभी तक भी है। जब कभी अखबार के टुकड़ों पर कैन्टीन वाला कोई चीज देता है तो अखबार का वह टुकड़ा पढ़े बिना अभी भी नहीं रहा जाता। 

जल्दी ही पहुँच धार्मिक पुस्तकों तक हुई। रामचरित मानस, भागवत, अठारह पुराण, दुर्गा शप्तशती बांच ली गयी। मनोरंजन के लिए बनाए गए खिलौने की थ्योरी सब जगह भरी पड़ी थी। पर कहीं से भी तार्किक नहीं थी और गले नहीं उतर रही थी, न उतरी। इस बीच बाइबिल का न्यू-टेस्टामेंट हत्थे चढ़ गया। वह उस से भी गया बीता निकला, जो पुराणों और उन दो महाकाव्यों में था। 

इन किताबों के अलावा जिस चीज ने सब से अधिक आकर्षित किया वह विज्ञान की पुस्तकें थीं। उन में सब कुछ तार्किक था। उन्हें समझने के लिए सीधे-सादे प्रयोग थे जो कबाड़ का उपयोग कर किए जा सकते थे। मंदिर में रहता था जिस में बहुत सारा पुराना कबाड़ था। बचपन से प्रयोग कर विज्ञान को परखने लगा। हर बार नया सीखता और उस में मजा भी बहुत आने लगा। उन प्रयोगों के बीच बहुत कुछ ऐसा भी था जिस से लोग अनभिज्ञ थे। हम सिद्धान्तों से अनजान लोगों को उन के बहाने बेवकूफ बना कर खुद को जादूगर और चमत्कारी सिद्ध कर सकते थे। पर अंदर की ईमानदारी वह नहीं करने देती थी। 

विज्ञान ने एक दिन मुझे डार्विन पढवाया, आनुवंशिकी बँचवाई। कोशिका विज्ञान पढ़वाया। तब यह सिद्ध हो गया कि यह दुनिया किसी बच्चानुमा ईश्वर का मनोरंजन के लिए बनाया खिलौना नहीं है। बल्कि एक बहुत बड़ा सिस्टम है जो अपने नियमों से चल रहा है। मैं फिर भी संशयवादी बना रहा। जितना बाँचता गया, जितना जानता गया। नए नए सवाल सामने आते गए। उन्हें तलाशता तो और नए सवाल आ खड़े होते। ऐसे सवाल जो उन लोगों के लिए बहुत अनजान थे, उन की समझ से बिलकुल परे जो लोग अभी तक उस बच्चा ईश्वर के मनोरंजक खिलौने में उलझे पड़े थे। उन की दुनिया के सारे झंझट, सारे संशय वहीं खत्म हो चुके थे, जहाँ उन्हों ने खुद को उस खिलौने का एक अवयव, एक स्क्रू, एक कील या सजावट का कोई सामान समझ लिया था। 

- दिनेशराय द्विवेदी

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

मुलाकात गोर्की के आधुनिक पात्र से ...


दिसंबर के आखिरी सप्ताह अवकाश का होता है, मन यह रहता है कि इस सप्ताह कम से कम पाँच दिन बाहर अपनी उत्तमार्ध शोभा के साथ यात्रा पर रहा जाए। इस बार भी ऐसा ही सोचा हुआ था। लेकिन संभव नहीं हुआ। केवल एक दिन के लिए अपने शहर से महज 100 किलोमीटर दूर रामगढ़ क्रेटर की यात्रा हुई। यात्रा के मुख्य आकर्षण रामगढ़ क्रेटर के बारे में बाद में फुरसत में बताता हूँ। फिलहाल यात्रा के अंत में हुई एक विचित्र व्यक्ति से मुलाकात के बारे में बताता हूँ। 

रामगढ़ पहुंचते पर जैसे हम कार से उतरे उस का एक टायर पंक्चर दिखा। वैसे इस की हवा कोई आधा किलोमीटर पहले ही निकली होगी। हमारे पास स्टेपनी थी इस कारण हम कार को वैसे ही खड़ा कर क्रेटर की सब से ऊँची पहाड़ी पर चढ़ने को चल दिए। वापसी में टायर बदला और चल दिए। घूमते हुए जब रात होने के आसार नजर आने लगे तो हम वापस रवाना हो गए। रात एक मित्र के फार्म हाउस पर गुजारी। सुबह वहाँ से रवाना हुए तो सोचा जहाँ भी साधन सब से पहले मिलेगा वहीं हम रुक कर टायर पंक्चर बनवा लेंगे। आखिर एक चौराहे पर हमें टायर पंक्चर का साधन मिल गया। 

हमने पंक्चर बनाने वाले से बात की तो उस ने स्टेपनी निकाल कर पंक्चर सुधारने का काम शुरू कर दिया। चौराहे पर लोगों का मजमा लगा था। लोग स्वागत द्वार बनाने में लगे थे। पता लगा प्रदेश में नयी सरकार में मंत्री बने स्थानीय विधायक मंत्री पद की शपथ लेने के बाद पहली बार आ रहे हैं। उसी मजमें में एक व्यक्ति साफा बांधे नए कपड़े जूतियाँ धारण किए सड़क पर चहल कदमी कर रहा था। किसी को भी कुछ कह कर लोगों को आकर्षित कर रहा था। उस ने हाथ में एक मूली व गाजर जो पत्तों सहित थीं पकड़ी हुई थीं। किसी ने उस से पूछा कि मिनिस्टर साहब कितने बजे तक आएंगे? उस ने कहा शाम तक तो आ ही जाएंगे। फिर तुरंत ही दाहिने हाथ में पकड़ी मूली और गाजर को अपने कान के इस तरह लगाया जैसे वह मोबाइल फोन हो, बात करने लगा। 

कान के लगाने के बाद, कुछ देर बाद बोला अच्छा मिनिस्टर साहब के पीए बोल रहे हो। उन से बोल देना मैं फँला बोल रहा हूँ। ये बताओ मिनिस्टर साहब कहाँ तक पहुँचे? और फलाँ चौराहे पर कितने बजे तक पहुँच जाएंगे? उस ने थोड़ी देर और फोन पर बात करने की एक्टिंग की और बताने लगा कि अभी तो वे कोटा तक ही नहीं पहुंचे हैं, यहाँ तक पहुँचने में उन्हें दो-तीन बज जाएंगे। 

कुछ देर बाद वह मेरे पास आ गया। कहने लगा बाबू साहेब कहाँ से आ रहे हो? गाड़ी पंक्चर हो गयी दिखती है। बच्चा अच्छा पंक्चर बनाएगा कई दिन तक हवा भी नहीं निकलेगी टायर की। इस के बाद वह एक बैंच पर बैठ गया। 

तब तक मेरे टायर का पंक्चर लगभग बन गया था। मैं पंक्चर बनाने वाले के पास गया। वह ट्यूब को टायर में डाल रहा था। मैं ने उससे गाजर मूली के टेलीफोन वाले बंदे के बारे में पूछा तो उस ने बताया कि यह आदमी पास के गाँव में कुछ महीनों से आकर रहने लगा है। वहाँ के किसी किसान का रिश्तेदार है। इस का बाप अपने गाँव में काफी बड़ी जमीन छोड़ गया है। लेकिन भाइयों ने सारी जमीन पर कब्जा कर के इसे घर से निकाल दिया है। अब इसी तरह अर्ध पागल की तरह अजीब अजीब सी हरकतें करते हुए घूमता रहता है। इस चुनाव में मिनिस्टर बने नेताजी का अपने पागलपन से ही खूब प्रचार करता रहा और मिनिस्टर साहब से खूब अच्छी जानपहचान बढ़ा ली है। वे भी मजा लेने के लिए इस से खूब मजाक करते रहते हैं। 

पंक्चर सुधारने वाले ने स्टेपनी तैयार कर के कार में रख दी थी। मैं उसे मजदूरी देकर वहाँ से रवाना हुआ। लेकिन सारे रास्ते उस गाजर-मूसी के मोबाइल फोन वाले के बारे में सोचता रहा। मुझे गोर्की के उन विक्षिप्त पात्रों की याद आई, जो अच्छी खासी धन दौलत और संपत्ति के स्वामी होते हुए भी इस कारण जानबूझ कर विक्षिप्त बने घूमते थे जिस से अपनी संपत्ति को बचा सकें या वापस प्राप्त कर सकें।

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

समाजवाद और धर्म - व्लादिमीर इल्चीच लेनिन

व्लादिमीर इल्यीच लेनिन ने 2005 में कम्युनिस्ट पार्टी और धर्म के बारे में एक छोटा आलेख लिखा था जो नोवाया झिज्न के अंक 28 में 3 दिसंबर, 1905 को प्रकाशित हुआ था। यह धर्म के बारे में कम्युनिस्ट पार्टी की नीति क्या होनी चाहिए इसे स्पष्ट करता है और एक महत्वपूर्ण आलेख है। 

र्तमान समाज पूर्ण रूप से जनसंख्या की एक अत्यंत नगण्य अल्पसंख्यक द्वारा, भूस्वामियों और पूँजीपतियों द्वारा, मज़दूर वर्ग के व्यापक अवाम के शोषण पर आधारित है। यह एक ग़ुलाम समाज है, क्योंकि "स्वतंत्र" मज़दूर जो जीवन भर पूँजीपजियों के लिए काम करते हैं, जीवन-यापन के केवल ऐसे साधनों के "अधिकारी" हैं जो मुनाफ़ा पैदा करने वाले ग़ुलामों को जीवित रखने के लिए, पूँजीवादी ग़ुलामी को सुरक्षित और क़ायम रखने के लिए बहुत ज़रूरी हैं।

मज़दूरों का आर्थिक उत्पीड़न अनिवार्यतः हर प्रकार के राजनीतिक उत्पीड़न और सामाजिक अपमान को जन्म देता है तथा आम जनता के आत्मिक और नैतिक जीवन को निम्न श्रेणी का और अन्धकारपूर्ण बनाना आवश्यक बना देता है। मज़दूर अपनी आर्थिक मुक्ति के संघर्ष के लिए न्यूनाधिक राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन जब तक पूँजी की सत्ता का उन्मूलन नहीं कर दिया जाता तब तक स्वतंत्रता की कोई भी मात्रा उन्हें दैन्य, बेकारी और उत्पीड़न से मुक्त नहीं कर सकती। धर्म बौद्धिक शोषण का एक रूप है जो हर जगह अवाम पर, जो दूसरों के लिए निरन्तर काम करने, अभाव और एकांतिकता से पहले से ही संत्रस्त रहते हैं, और भी बड़ा बोझ डाल देता है। शोषकों के विरुद्ध संघर्ष में शोषित वर्गों की निष्क्रियता मृत्यु के बाद अधिक सुखद जीवन में उनके विश्वास को अनिवार्य रूप से उसी प्रकार बल पहुँचाती है जिस प्रकार प्रकृति से संघर्ष में असभ्य जातियों की लाचारी देव, दानव, चमत्कार और ऐसी ही अन्य चीजों में विश्वास को जन्म देती है। जो लोग जीवन भर मशक्कत करते और अभावों में जीवन व्यतीत करते हैं, उन्हें धर्म इहलौकिक जीवन में विनम्र होने और धैर्य रखने की तथा परलोक सुख की आशा से सान्त्चना प्राप्त करने की शिक्षा देता है। लेकिन जो लोग दूसरों के श्रम पर जीवित रहते हैं उन्हें धर्म इहजीवन में दयालुता का व्यवहार करने की शिक्षा देता है, इस प्रकार उन्हें शोषक के रूप में अपने संपूर्ण अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने का एक सस्ता नुस्ख़ा बता देता है और स्वर्ग में सुख का टिकट सस्ते दामों दे देता है। धर्म जनता के लिए अफीम है। धर्म एक प्रकार की आत्मिक शराब है जिसमें पूँजी के ग़ुलाम अपनी मानव प्रतिमा को, अपने थोड़े बहुत मानवोचित जीवन की माँग को, डुबा देते हैं।

लेकिन वह ग़ुलाम जो अपनी ग़ुलामी के प्रति सचेत हो चुका है और अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष में उठ खड़ा हुआ है, उसकी ग़ुलामी आधी उसी समय समाप्त हो चुकी होती है। आधुनिक वर्ग चेतन मजदूर, जो बड़े पैमाने के कारखाना-उद्योग द्वारा शिक्षित और शहरी जीवन के द्वारा प्रबुद्ध हो जाता है, नफरत के साथ धार्मिक पूर्वाग्रहों को त्याग देता है और स्वर्ग की चिन्ता पादरियों और पूँजीवादी धर्मांधों के लिए छोड़ कर अपने लिए इस धरती पर ही एक बेहतर जीवन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। आज का सर्वहारा समाजवाद का पक्ष ग्रहण करता है जो धर्म के कोहरे के ख़िलाफ संघर्ष में विज्ञान का सहारा लेता है और मज़दूरों को इसी धरती पर बेहतर जीवन के लिए वर्तमान में संघर्ष के लिए एकजुट कर उन्हें मृत्यु के बाद के जीवन के विश्वास से मुक्ति दिलाता है।

धर्म को एक व्यक्तिगत मामला घोषित कर दिया जाना चाहिए। समाजवादी अक्सर धर्म के प्रति अपने दृष्टिकोण को इन्हीं शब्दों में व्यक्त करते हैं। लेकिन किसी भी प्रकार की ग़लतफहमी न हो, इसलिए इन शब्दों के अर्थ की बिल्कुल ठीक व्याख्या होनी चाहिए। हम माँग करते हैं कि जहाँ तक राज्य का सम्बन्ध है, धर्म को व्यक्तिगत मामला मानना चाहिए। लेकिन जहाँ तक हमारी पार्टी का सवाल है, हम किसी भी प्रकार धर्म को व्यक्तिगत मामला नहीं मानते। धर्म से राज्य का कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए और धार्मिक सोसायटियों का सरकार की सत्ता से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को यह पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वह जिसे चाहे उस धर्म को माने, या चाहे तो कोई भी धर्म न माने, अर्थात नास्तिक हो, जो नियमतः हर समाजवादी समाज होता है। नागरिकों में धार्मिक विश्वास के आधार पर भेदभाव करना पूर्णतः असहनीय है। आधिकारिक काग़ज़ात में किसी नागरिक के धर्म का उल्लेख भी, निस्सन्देह, समाप्त कर दिया जाना चाहिए। स्थापित चर्च को न तो कोई सहायता मिलनी चाहिए और न पादरियों को अथवा धार्मिक सोसायटियों को राज्य की ओर से किसी प्रकार की रियायत देनी चाहिए। इन्हें सम-विचार वाले नागरिकों की पूर्ण स्वतन्त्र संस्थाएँ बन जाना चाहिए, ऐसी संस्थाएँ जो राज्य से पूरी तरह स्वतंत्र हों। इन माँगों को पूरा किये जाने से वह शर्मनाक और अभिशप्त अतीत समाप्त हो सकता है जब चर्च राज्य की सामन्ती निर्भरता पर, और रूसी नागरिक स्थापित चर्च की सामन्ती निर्भरता पर जीवित था, जब मध्यकालीन, धर्म-न्यायालयीय क़ानून (जो आज तक हमारी दंडविधि संहिताओं और क़ानूनी किताबों में बने हुए हैं) अस्तित्व में थे और लागू किये जाते थे, जो आस्था अथवा अनास्था के आधार पर मनुष्यों को दण्डित करते, मनुष्य की अन्तरात्मा का हनन किया करते थे, और आरामदेह सरकारी नौकरियों तथा सरकार द्वारा प्राप्त आमदनियों को स्थापित चर्च के इस या उस धर्म विधान से सम्बद्ध किया करते थे। समाजवादी सर्वहारा आधुनिक राज्य और आधुनिक चर्च से जिस चीज़ की माँग करता है, वह है-राज्य से चर्च का पूर्ण पृथक्करण।

रूसी क्रांति को यह माँग राजनीतिक स्वतन्त्रता के एक आवश्यक घटक के रूप में पूरी करनी चाहिए। इस मामले में रूसी क्रान्ति के समक्ष एक विशेष रूप से अनुकूल स्थिति है, क्योंकि पुलिस-शासित सामन्ती एकतन्त्र की घृणित नौकरशाही से पादरियों में भी असन्तोष, अशान्ति और घृणा उत्पन्न हो गयी है। रूसी ऑर्थोडाक्स चर्च के पादरी कितने भी अधम और अज्ञानी क्यों न हों, रूस में पुरानी, मध्यकालीन व्यवस्था के पतन के वज्रपात से वे भी जागृत हो गये हैं, वे भी स्वतन्त्रता की माँग में शामिल हो रहे हैं। नौकरशाही व्यवहार और अफ़सरवाद के, पुलिस के लिए जासूसी करने के ख़िलाफ़- जो "प्रभु के सेवकों" पर लाद दी गयी है - विरोध प्रकट कर रहे हैं। हम समाजवादियों को चाहिए कि इस आन्दोलन को अपना समर्थन दें। हमें पुरोहित वर्ग के ईमानदार सदस्यों की माँगों को उनकी परिपूर्णता तक पहुँचाना चाहिए और स्वतन्त्रता के बारे में उनकी प्रतिज्ञाओं के प्रति उन्हें दृढ़ निश्चयी बनाते हुए यह माँग करनी चाहिए कि वे धर्म और पुलिस के बीच विद्यमान सारे सम्बन्धों को दृढ़तापूर्वक समाप्त कर दें। या तो तुम सच्चे हो, और इस हालत में तुम्हें चर्च और राज्य तथा स्कूल और चर्च के पूर्ण पृथक्करण का, धर्म के पूर्ण रूप से और सर्वथा व्यक्तिगत मामला घोषित किये जाने का पक्ष ग्रहण करना चाहिए। या फिर तुम स्वतन्त्रता के लिए इन सुसंगत माँगों को स्वीकार नहीं करते, और इस हालत में तुम स्पष्टतः अभी तक आरामदेह सरकारी नौकरियों और सरकार से प्राप्त आमदनियों से चिपके हुए हो। इस हालत में तुम स्पष्टतः अपने शस्त्रों की आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास नहीं करते, और राज्य की घूस प्राप्त करते रहना चाहते हो। ऐसी हालत में समस्त रूस के वर्ग चेतन मज़दूर तुम्हारे ख़िलाफ़ निर्मम युद्ध की घोषणा करते हैं।

जहाँ तक समाजवादी सर्वहारा की पार्टी का प्रश्न है, धर्म एक व्यक्तिगत मामला नहीं है। हमारी पार्टी मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले अग्रणी योद्धाओं की संस्था है। ऐसी संस्था धार्मिक विश्वासों के रूप में वर्ग चेतना के अभाव, अज्ञान अथवा रूढ़िवाद के प्रति न तो तटस्थ रह सकती है, न उसे रहना चाहिए। हम चर्च के पूर्ण विघटन की मांग करते हैं ताकि धार्मिक कोहरे के ख़िलाफ़ हम शुद्ध सैद्धान्तिक और वैचारिक अस्त्रों से, अपने समाचारपत्रों और भाषणों के साधनों से संघर्ष कर सकें। लेकिन हमने अपनी संस्था, रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी की स्थापना ठीक ऐसे ही संघर्ष के लिए, मज़दूरों के हर प्रकार के धार्मिक शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए की है। और हमारे लिए वैचारिक संघर्ष केवल एक व्यक्तिगत मामला नहीं है, सारी पार्टी का, समस्त सर्वहारा का, मामला है। यदि बात ऐसी ही है, तो हम अपने कार्यक्रम में यह घोषणा क्यों नहीं करते कि हम अनीश्वरवादी हैं? हम अपनी पार्टी में ईसाइयों अथवा ईश्वर में आस्था रखने वाले अन्य धर्मावलम्बियों के शामिल होने पर क्यों नहीं रोक लगा देते?

इस प्रश्न का उत्तर ही उन अति महत्वपूर्ण अन्तरों को स्पष्ट करेगा जो बुर्जुआ डेमोक्रेटों और सोशल डेमोक्रेटों द्वारा धर्म का प्रश्न उठाने के तरीक़ों में विद्यमान हैं।

हमारा कार्यक्रम पूर्णतः वैज्ञानिक, और इसके अतिरिक्त भौतिकवादी विश्व दृष्टिकोण पर आधारित है। इसलिए हमारे कार्यक्रम की व्याख्या में धार्मिक कुहासे के सच्चे ऐतिहासिक और आर्थिक स्रोतों की व्याख्या भी आवश्यक रूप से शामिल है। हमारे प्रचार कार्य में आवश्यक रूप से अनीश्वरवाद का प्रचार भी शामिल होना चाहिए; उपयुक्त वैज्ञानिक साहित्य का प्रकाशन भी, जिस पर एकतन्त्रीय सामन्ती शासन ने अब तक कठोर प्रतिबन्ध लगा रखा था और जिसे प्रकाशित करने पर दण्ड दिया जाता था, अब हमारी पार्टी के कार्य का एक क्षेत्र बन जाना चाहिए। अब हमें सम्भवतः एंगेल्स की उस सलाह का अनुसरण करना होगा जो उन्होंने एक बार जर्मन समाजवादियों को दी थी-अर्थात हमें फ़्रांस के अठारहवीं शताब्दी के प्रबोधकों और अनीश्वरवादियों के साहित्य का अनुवाद करना और उसका व्यापक प्रचार करना चाहिए।

लेकिन हमें किसी भी हालत में धार्मिक प्रश्न को अरूप, आदर्शवादी ढंग से, वर्ग संघर्ष से असम्बद्ध एक "बौद्धिक" प्रश्न के रूप में उठाने की ग़लती का शिकार नहीं बनना चाहिए, जैसा कि बुर्जुआ वर्ग के बीच उग्रवादी जनवादी कभी-कभी किया करते हैं। यह सोचना मूर्खता होगी कि मज़दूर अवाम के सीमाहीन शोषण और संस्कारहीनता पर आधारित समाज में धार्मिक पूर्वाग्रहों को केवल प्रचारात्मक साधनों से ही समाप्त किया जा सकता है। इस बात को भुला देना कि मानव जाति पर लदा धर्म का जुवा समाज के अन्तर्गत आर्थिक जुवे का ही प्रतिबिम्ब और परिणाम है, बुर्जुआ संकीर्णता ही होगी। सर्वहारा यदि पूँजीवाद की काली शक्तियों के विरुद्ध स्वयं अपने संघर्ष से प्रबुद्ध नहीं होगा तो पुस्तिकाओं और शिक्षाओं की कोई भी मात्रा उन्हें प्रबुद्ध नहीं बना सकती। हमारी दृष्टि में, धरती पर स्वर्ग बनाने के लिए उत्पीड़ित वर्ग के इस वास्तविक क्रान्तिकारी संघर्ष में एकता परलोक के स्वर्ग के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण की एकता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

यही कारण है कि हम अपने कार्यक्रम में अपनी नास्तिकता को न तो शामिल करते हैं और न हमें करना चाहिए। और यही कारण है कि हम ऐसे सर्वहाराओं को, जिनमें अभी तक पुराने पूर्वाग्रहों के अवशेष विद्यमान हैं, अपनी पार्टी में शामिल होने पर न तो रोक लगाते हैं, न हमें इस पर रोक लगानी चाहिए। हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा सदा देंगे और हमारे लिए विभिन्न "ईसाइयों" की विसंगतियों से संघर्ष चलाना भी जरूरी है। लेकिन इसका जरा भी यह अर्थ नहीं है कि धार्मिक प्रश्न को प्रथम वरीयता दे देनी चाहिये। न ही इसका यह अर्थ है कि हमें उन घटिया मत-मतान्तरों और निरर्थक विचारों के कारण, जो तेजी से महत्वहीन होते जा रहे हैं और स्वयं आर्थिक विकास की धारा में तेजी से कूड़े के ढेर की तरह किनारे लगते जा रहे हैं, वास्तविक क्रान्तिकारी आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष की शक्तियों को बँट जाने देना चाहिए।

प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ वर्ग ने अपने आप को हर जगह धार्मिक झगड़ों को उभाड़ने के दुष्कृत्यों में संलग्न किया है, और वह रूस में भी ऐसा करने जा रहा है-इसमें उसका उद्देश्य आम जनता का ध्यान वास्तविक महत्व की और बुनियादी आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से हटाना है जिन्हें अब समस्त रूस का सर्वहारा वर्ग क्रांतिकारी संघर्ष में एकजुट हो कर व्यावहारिक रूप से हल कर रहा है। सर्वहारा की शक्तियों को बाँटने की यह प्रतिक्रियावादी नीति, जो आज ब्लैक हंड्रेड (राजतंत्र समर्थक गिरोहों) द्वारा किये हत्याकाण्डों में मुख्य रूप से प्रकट हुई है, भविष्य में और परिष्कृत रूप ग्रहण कर सकती हैं। हम इसका विरोध हर हालत में शान्तिपूर्वक, अडिगता और धैर्य के साथ सर्वहारा एकजुटता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा द्वारा करेंगे - एक ऐसी शिक्षा द्वारा करेंगे जिसमें किसी भी प्रकार के महत्वहीन मतभेदों के लिए कोई स्थान नहीं है। क्रान्तिकारी सर्वहारा, जहाँ तक राज्य का संबंध है, धर्म को वास्तव में एक व्यक्तिगत मामला बनाने में सफल होगा। और इस राजनीतिक प्रणाली में, जिसमें मध्यकालीन सड़न साफ़ हो चुकी होगी, सर्वहारा आर्थिक ग़ुलामी के, जो कि मानव जाति के धार्मिक शोषण का वास्तविक स्रोत है, उन्मूलन के लिए सर्वहारा वर्ग व्यापक और खुला संघर्ष चलायेगा।


-नोवाया झिज्न, अंक 28, 3 दिसंबर, 1905

https://www.marxists.org/ से साभार