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गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

नाम बदलने की गधा-पचीसी


गरों और स्थानों के बदलने की जो गधा-पचीसी चल रही है, उस की रौ में सब बहे चले जा रहे हैं। वे यह भी नहीं सोच रहे हैं कि वे क्या बदल रहे हैं, और क्यों बदल रहे हैं। बस एक भेड़ चाल है जो ऊपर से नीचे तक चली आई है। प्रधानजी सब से आगे वाली भेड़ हैं, उन के पीछे मुखियाजी चल रहे हैं। फिर पीछे जो रेवड़ है उस में एक एक भेड़ आप खुद पहचान सकते हैं। सब के सब आप को नजर आ जाएंगे।


क्सर सभी नगरों का नाम उन्हें बसाने वाले विजेताओं के नाम पर रखा जाता है। पर मेरे शहर का नाम विजेता राजा ने पराजित भील राजा के नाम पर रखा था। इस तरह मेरे शहर के नाम में खोट है। मुझे तो अभी तक आश्चर्य होता है कि हमारे शहर की किसी भेड़ को अब तक यह क्यों नहीं सूझा कि इस खोटे नाम को बदल दिया जाए। पर ऐसा भी नहीं है कि मेरे शहर की भेडो़ं को नाम बदलने की हूक न जगी हो। कभी तो लगता है कि नाम बदलना भी एनीमिया जैसी बीमारी है, जो खून में लोहे जैसे किसी तत्व के कारण होती है। (इस पर शोध होना चाहिए) वे भी जब कुछ नहीं कर पाते तो उन के शरीर में भी नाम बदलने की हूक जगती रहती है।  पिछली बार जब रेवड़ शहर में पड़ा तो वे दशहरा मैदान को प्रगति मैदान में बदलने चल पड़े।  पूरे पाँच साल हो गए पर यह काम पूरा न हुआ। बल्कि मैदान को छोटा कर दिया है। इस से शहर की एक प्रमुख भेड़ के बंगले के सामने बहुत जगह निकल आई है जिस का वह अपने निजी और राजनैतिक इस्तेमाल में उपयोग कर सकती है। यहाँ तक कि वहाँ छोटा मोटा भेड़ सम्मेलन भी आयोजित किया जा सकता है।


कुछ दिनों से सोचा जा रहा था कि जब दशहरा मैदान को प्रगति मैदान नहीं कर सके तो कुछ और किया जाए। उन की निगाह इसी मैदान के पास के चौराहे पर गयी।  जिसे लोग उसी चौराहे पर बनी पहली पहली  बिल्डिंग के नाम से बोलाते हैं। अब यह तो ठीक नहीं किसी बिल्डिंग के नाम पर किसी चौराहे का नाम हो। उन्होंने तय किया कि चौराहे का नाम किसी भेड़ के नाम पर होना चाहिए। चौराहे के ही एक कोने में एक पुराने एम्पी जी की मूर्ति लगी है। मौजूदा भेड़ संप्रदाय को उसे देखने के बाद कोई और नाम तलाशने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। एम्पी जी उन के पूर्वज थे। नाम बदल कर उन के नाम पर एम्पीजी चौराहा रख दियास गया।

सुबह खबर अखबार में बिल्डिंग चौराहे का नाम बदल कर एम्पीजी चौराहा कर देने की खबर पढ़ी तो मेरी खोपड़ी ठनक गयी। वह बोल रही थी कि इस चौराहे का नाम तो कोई पच्चीस बरस पहले वाला रेवड़ भी बदल चुका था। पर जब वह बदला गया था तब एम्पीजी की मूरत चौराहे के कोने में नहीं लगी थी, बल्कि खुद एम्पीजी नाम बदलने की उस पुरानी कवायद में शामिल खास भेड़ों में से एक थे। मैं बिल्डिंग चौराहे का नाम बदले जाने का पुराना सबूत तलाशने लगा। मुझे याद आया कि पास की ही इमारत में बैंक की शाखा है जिस में मेरा खाता है। मैंने बैंक की पासबुक निकाली और देखी तो वहाँ उस चौराहे का नाम "तुलसीदास सर्किल" लिखा था। वही तुलसीदास जिन्हों ने रामचरित मानस लिखी थी। अब भेड़ों को तुलसीदास और रामजी से क्या लेना देना? वे कोई भेड़ थोड़े ही थे। वैसे भेड़ों के नाम बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब बीस पच्चीस बरस पहले इस चौराहे का नाम बदला गया था तब भी लोग इसे बिल्डिंग चौराहा ही कहते थे और आगे भी बिल्डिंग चौराहा ही कहते रहेंगे। लोगों ने जो दिया था वही परमानेंट नाम है। भेड़ों के दिए नाम तो टेम्परेरी होते हैं।


सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

सपने का आधार कार्ड

शायद कोई प्रोफाइल बनानी थी, वह भी अंग्रेजी में। अब अंग्रेजी में अपनी टांग जरा टेड़ी पड़ती है, चलते हुए सदा लगता है कि अब गिरे कि अब गिरे। मैंने सोचा कुछ तरीके से लिखना चाहिए। लिखना था कुछ और, मैं लिखने लगा कुछ और-

– इन इंडियन सिस्टम द लूनर मंथस् स्टार्ट फ्रॉम न्यू-मून-डे, व्हिच इज दी डे आफ्टर नो-मून-डे। 

यह लेख"जनसंदेश टाइम्स"में
 13 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित हो चुका है।
नो-मून लिख तो दिया पर यह याद नहीं आ रहा था कि वास्तव में अमावस को नो-मून-डे लिखना ठीक भी है कि नहीं। तब तक ये याद आया कि पगले जब तुझे यहाँ प्रोफाइल ही बनानी है तो ये न्यू-मून, नो-मून और फुल-मून क्या कर रहा है। तेरा जनम तो पूनम से अगले दिन होता है। तब ये भी याद आया कि उत्तर भारत में तो चांद्र मास पूनम के बाद अगले दिन यानी पड़वा यानी प्रतिपदा से शुरू होता है। 

अब मैं भर रहा था –बट नॉर्थ इंडियन पीपल स्टार्टस् देयर लूनर मंथ फ्रॉम द डे आफ्टर फुल-मून-डे। लिखने पर फिर याद आया कि फुल मून डे तो पागलों का दिन भी होता है। उस दिन ज्वार भाटा होता है। बरसात हो तो मुम्बई जैसे शहर में ये फूल-मून-डे कहर बरपा जाता है। उत्तर भारत तो नहीं पर उत्तर प्रदेश में जब से संतजी सरकार के मुख्य मंत्री बन गए हैं तब से यू.पी. पुलिस हर रात को फुल-मून-नाइट मना रही है। गोली चलाने वाले हथियार उन के पास हैं ही, बस धाँय से चला देते हैं। किसी को लग गयी तो वह अपराधी। साला भाग रहा था। टांग पर चलाई थी, भागते हुए सिर नीचा कर रहा था, सिर में लग गई। हो गया एन्काउंटर। ईनाम वाला काम किया है, कुछ तो नकदी पुरुस्कार मिलेगा ही, हो सकता है परमोशन भी हो ही जाए। 

इस बार गोली किन्ही दुबे, तिब्बे जी को लग गयी। एक तो साला गूगल-फूगल में अफसर निकला ऊपर से बिरहमन भी था। प्रदेश में ही नहीं देस भर में बवाल मच गया। न जाने क्यों नीचे से ऊपर तक खबर बिजली की तरह फैल गयी। जिस कार में बैठा था उस में विण्ड स्क्रीन पर गोली ठीक उस जगह से घुसी जिस से उस की खोपड़ी कैसे भी न बच सके। बीच में विण्ड स्क्रीन भी रुकावट बनी थी, फिर भी निशाना एक दम सटीक था। गोली मारने वाले की साथिन चिल्लाई तब तक पूनम की रात का पागलपन पूरी तरह उतर चुका था। अब कानिस्टेबल जी का कान ही नहीं दिमाग तक स्टेबल होने की कोशिश कर रहा था। पर गोली तो चल चुकी थी, विण्ड स्क्रीन तोड़ कर खोपड़ी में घुस चुकी थी। दो जगह के छेद ठीक होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। एन्काउंटर को किसी हादसे में बदलने की गुंजाइश भी खत्म हो चुकी थी। पर दूसरा कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। खैर, यह बताना ही दुरुस्त समझा कि कार को रोका था, रोकी नहीं, अपराधी की तरह भागने लगे तो मोटर साइकिल से पीछा किए, और जब आगे निकल कर रोका तो एक्सीडेंट कर दिया। अपराधी भाग रहा था, गोली मार दी, मर गया। कसूरवार साबित होने से बचने का कोई और रास्ता नहीं था। इस में बस कमी इत्ती थी कि विंड स्क्रीन पर जिस जगह छेद हुआ था उस जगह मरने वाले की टांग कैसे हो सकती थी? ये ही सोचना बाकी था। तभी उतरते नशे ने झटका दिया –अब सारा तू ही सोच लेगा क्या? कुछ तेरे अफसर और वकीलों के सोचने के लिए भी छोड़ दे। 

मैं बात तो मेरी प्रोफाइल की कर रहा था, न जाने कहाँ से ये यूपी, संतजी और एन्काउंटर आ घुसे दिमाग में। तो नॉर्थ इंडियन पीपल का चांद के महीने का पहला दिन पूनम की रात के अगले दिन की पड़वा को पड़ता है। बस उसी दिन मैं पैदा हुआ था। उस के पहले वाली पूनम के दिन राखी का त्यौहार था। तमाम घर वाले खानदानी हुनर होते हुए भी सारी ज्योतिष भूल गए। याद रहा कि ये बंदा राखी के दूसरे दिन पैदा हुआ था। न पूनम रही, न महीने का पहला दिन रहा। बस राखी के दूसरे दिन जन्मदिन मनाने लगे। हर साल उसी दिन शंकरजी सुबह सुबह अभिषेक कराने को और दादाजी के कर्मकांडी मित्र करने को तैयार रहने लगे। स्कूल में भर्ती की नौबत आई तो किसी को तारीख याद नहीं रही। बस भादवे के महीने का पहला दिन याद आया। याददाश्त पर ज्यादा जोर दिया तो पता लगा उस साल तो दो भादवे थे। तारीख पता करना और मुश्किल हो गया। स्कूल में कोई पंचांग तो था नहीं। होता भी तो पाँच साल पुराना भर्ती रजिस्टर ढूंढ निकालना जिस स्कूल में गंजे के सिर पर बाल तलाशने जैसा काम हो, वहाँ पंचांग का मिलना तो कतई नामुमकिन था। खैर, अंदाज से सितंबर के महीने की एक तारीख लिखा दी गयी। इस में कम से कम महिने के पहले दिन वाला साम्य तो आ ही गया था। सब को तसल्ली हो गयी। 

मैं अपनी प्रोफाइल बना ही रहा था कि नीन्द खुल गयी। शायद मोबाइल ने टूँ...टूँ की थी। खिड़की की तरफ देखा तो शीशे से सड़क वाली एलईडी की नहीं, बल्कि सुबह की रोशनी छन कर आ रही थी। धत्तेरे की, अभी से सुबह हो गयी। अब उठना पड़ेगा। दुबारा नीन्द लगना मुश्किल है। बस अफसोस तो इस बात का था कि उस नयी वेबसाइट पर अपनी प्रोफाइल बनते बनते रह गयी। अब मैं सोच रहा था कि मेरा जन्मदिन तो चार तारीख को पड़ता है फिर ये जन्मदिन के नाम पर पहली तारीख का अनुसंधान क्यों हो रहा था? सपने ऊलजलूल बहुत होते हों पर हर अच्छे या बुरे सपने का कोई न कोई ठोस आधार जरूर होता है। न होता तो भारत में ये आधार कार्ड न आए होते। न राशन की दुकान से अस्पताल होते हुए सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ कर जाने के बजाए सीधे सुप्रीम कोर्ट न पहुँच गये होते। अब आज कल ये भी मुसीबत हो गयी है, हर मसला सीढ़ी चढ़ने के बजाये उड़ कर सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुँच जाता है और वहाँ भी जज सीधे सुनने को बैठ जाते हैं। वो तो कभी कभी वे भी पुलिस को राहत दे देते हैं। कह देते हैं कि जाँच वाँच में अभियुक्त और उस के चाहने वालों का कोई दखल नहीं होगा। जब वाकई पकड़ लें तो नीचे की अदालत सुनेगी। इस तरह पुलिस को सोचने का वक्त भी मिल जाता है कि विण्ड स्क्रीन में गोली से हुए छेद के पीछे मरने वाले की टांग कैसे पहुँच सकती थी। जजों को भी फुरसत मिल जाती है कि तब तक कोई बीच का रस्ता निकल लेगा। हर बार टेबल पर हथौड़ा कूट कर ऑर्डर ऑर्डर करना भी ठीक नहीं है। 

अब ये बीच में आधार कार्ड, सुप्रीम कोर्ट और अभियुक्त के आ जाने से जो टैम मिला उस में याद आया कि जनमदिन के लिए अंग्रेजी महीने की पहली तारीख अनुसंधान के नतीजे के बतौर तब हासिल हुई थी जब दसवीं के इम्तहान के लिए बोर्ड का फार्म भरने का वक्त आया। पता लगा कि इस साल परीक्षा नहीं दे पाएंगे। इम्तहान के साल की पहली अकटूबर को पूरे पन्द्रह साल होने में कोई सत्ताईस दिन कम पड़ रहे हैं। हम क्लास के ब्रिलियँट स्टूडेंट माने जाते थे, स्कूल का गौरव जैसी चीज हो सकते थे, तो मामला उड़ कर हेड मास्टर जी के पास पहुँचा। आखिर स्कूल गौरव से वंचित कैसे हो सकता था। वहाँ मामले की सुनवाई में फैसला निकला कि जन्म तारीख एक साल घटा कर एक अक्टूबर कर दी जाए और फार्म भर कर बोर्ड भेज दिया जाए। स्कूल का रिकार्ड बाद में दुरुस्त कर लिया जाएगा। 

अब मैं तीसरी बार पैदा हुआ था। बोर्ड का एक्जाम भी हो गया। रिजल्ट भी आ गया। फर्स्ट डिविजन में पास भी हो गया। स्कूल को एक गौरव प्राप्त हुआ। विद्यार्थी परिषद वालों ने अपना बनाने को सम्मान भी कर डाला और विवेकानन्द की एक किताब भेंट कर दी। बस यहीं वे गलती कर गए। पढ़ने लिखने वाले को कभी किताब भेंट नहीं करनी चाहिए। किताबें भेंट करना उन्हें ठीक होता है जो उन्हें पूजा-घर में रख कर पूजा करते हैं और फिर हनुमान जी या रामदरबार की तस्वीर सामने रख, अगरबत्ती वगैरा लगा कर ब्राह्म मुहूर्त में श्रद्धा पूर्वक उस का सस्वर पाठ करते हैं, जिस से पड़ौसी जागते रहें और मोहल्ले में चोरी चकारी न हो। मेरे जैसे पढ़ने लिखने वाले को किताब देने का नुकसान ये हुआ कि उस ने पढ़ डाली, कुछ वेदान्त पल्ले पड़ा, कुछ विवेकानन्द जी का ईश्वर पल्ले पड़ा, जिस के लिए वो कहते थे कि मैंने तो जब से आँख खोली तब से उस के सिवा कुछ देखा ही नहीं, और साथ ही ये पल्ले पड़ा कि बिरहमन, क्षत्रिय और बनिए ये सब राज कर चुके हैं, अब तो शूद्र कहे जाने वाले इंसानों का ही राज आना है। उन को कायस्थ कुल में जन्मे होने के कारण बिरहमनों ने शूद्र जो कह दिया था। खैर, मैं पढ़ने लिखने में हवाई जहाज नहीं बन सका। सीढ़ी दर सीढ़ी पढ़ता रहा और बीएससी पास करते करते गोर्की की माँ और मार्क्स-एंगेल्स के कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो तक पहुँच गया। विद्यार्थी परिषद वाले टापते रह गए। भारतीय जनसंघ के लोकल एमएलए ने पिताजी के पास घणे चक्कर काटे कि लड़के को उन के साथ रहने को कहें, उस में नेता बनने के सभी गुण हैं। पिताजी ने कभी मुझे नहीं बताया, सोचा होगा लड़का पढ़ता लिखता है तो खुद ही समझदार होगा कि किस के नजदीक रहना है किस से दूर।

खैर, अब ये भी याद आ गया है कि एक अकटूबर के पहले वाली रात को प्रोफाइल बनाते वक्त जन्मदिन के लिए महीने का पहला दिन इसीलिए याद आ रहा था कि रिकार्ड में जन्मदिन एक अक्टूबर है। ये तीसरा जन्मदिन है। पहला राखी के अगले दिन हुआ, फिर सितंबर की चार तारीख को असली वाला। कुछ भी हो सपना कभी निराधार नहीं होता। वह आता ही तब है जब उस का आधार कार्ड बन जाता है। बस उसे पढ़ना आना चाहिए, फिर भौतिक जगत से उस का नाता पता लगने में देर नहीं लगती।

- यह लेख दैनिक समाचार पत्र "जनसंदेश टाइम्स" में 13 अक्टूबर 2018 को सभी संस्करणों में प्रकाशित हो चुका है।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

तुम्हारी जलन मरणांतक है।


तुम्हारा जवाब नहीं। अब अपनी रक्षा में मासूम बच्चों को औजार बना कर उतार रहे हो। बच्चों की मासूमियत भरी बोली के सहारे सहानुभूति प्राप्त करना चाहते हो। एक वीडियो देखा है, अभी-अभी। एक मासूम सी बच्ची महंगाई का अर्थशास्त्र समझा रही है। बता रही है कि पेट्रोल, डीजल और दूसरे जीवन के लिए जरूरी माल महंगे इसलिए हैं कि हमें सस्ता, चावल, मिट्टी का तेल और मुफ्त शिक्षा देनी पड़ती है। यह झूठ तुम देश को नहीं समझा पा रहे हो। पर एक बच्ची को तुमने रटा दिया है। तुम्हें चिन्ता सताती है कि इस देश के लोगों ने प्यार से नेताओं को बापू, चाचा, बहन, दीदी, बेटी, बहू जैसे संबोधन दिये हैं लेकिन तुम्हारे हिस्से में ऐसा कोई संबोधन नहीं आया। सच में तुम्हें बहुत जलन हो रही है। इस जलन को तुम छुपाना चाहते हो, लेकिन वह तुम्हारे इस प्रचार अभियान में रिस रिस कर बाहर आ रही है। 

यह जलन तो तुम्हें होगी और होती रहेगी। तुम्हें यह जलन किसी और ने नहीं दी है। जलन पैदा करने वाली यह आग तो तुमने खुद लगाई है। यह आग तुम्हारे भीतर लगातार जल रही है। यह आग मरणांतक है, और तुम्हारी यह जलन भी मरणांतक है। तुम्हारी राजनीति घृणा से पैदा हुई है, प्रेम से नहीं। घृणा केवल जलन ही दे सकती है। जीवन भर इस आग में तुम जलते रहोगे, किसी उधार की ठंडक से तुम्हें आराम नहीं पड़ेगा। जो फसल तुमने बोयी है वही तो काटोगे। तुमने घृणा बोयी है, लगातार बो रहे हो, उसी की फसलें भी काट रहे हो। 

किसी देश की जनता ने घृणा को पसंद नहीं किया। कभी कभी वह तुम्हारे जैसे पग पग पर घृणा फैलाने वाले लोगों के मकड़ जाल में फँसी तो है, लेकिन उसने वह जाल भी तोड़े भी हैं और तब तुम्हारे जैसे लोगों को जो हाल हुआ है, तुम उस से भी अनभिज्ञ नहीं हो। कभी कभी मन में आता भी होगा कि इस जाल से निकलो और जलन से मुक्ति पा जाओ। पर तुम्हारे शरीर के तो कण-कण में घृणा का जहर भरा है। वह तुमको पूरा जला कर ही छोड़ेगा। तुम्हारी कोई जीवित मुक्ति नहीं है। तुम्हारी मृत्यु ही उस का इलाज है। मृत्यु के बाद कैसी मुक्ति? जलते रहो¡ अपनी ही लगाई आग में। तुम्हारे भीतर सुलगती हुई घृणा की यह आग तुम्हारी नियती बन गयी है। कोई प्यार कभी तुम्हारे पास नहीं फटकेगा, फटके भी कैसे? प्यार को तो तुम्हारी घृणा पास आने के पहले जला देती है।

रविवार, 26 अगस्त 2018

कम्युनिस्ट पार्टियों में टूटन और एकीकरण

म्युनिस्ट पार्टियों में अन्दरूनी विवाद होना और फिर पार्टी से किसी गुट का अलग हो जाना अब कोई असामान्य घटना नहीं रह गयी है। हम इस पर विचार करें कि ऐसा क्यों होता है? उस से पहले इस आलेख में मैं कुछ ताजा घटनाओं का जिक्र करना चाहता हूँ। यहाँ कोटा में भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के राजस्थान के प्रान्तीय सम्मेलन के नाम से 18-19 अगस्त 2018 को एक दो दिन का आयोजन होने का समाचार कोटा के कुछ स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ है। उस के साथ ही पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य और प्रान्तीय कमेटी के कार्यवाहक सचिव महेन्द्र नेह की ओर से बयान आया है कि जो लोग सम्मेलन कर रहे हैं वे पार्टी के संविधान के अनुसार अनुशासनिक कार्यवाही की जनतांत्रिक प्रक्रिया अपनाए जाने के बाद पार्टी के पदों से हटाए गए लोग हैं। सम्मेलन के समाचार से पता लगता है कि इस के मुख्य अतिथि कुलदीप सिंह थे, जिन्हें एमसीपीआई (यू) का महामंत्री बताया गया है। 


सीपीआईएम के संस्थापक सदस्यों में से एक कामरेड जगजीत सिंह लायलपुरी ने पार्टी के कांग्रेस पार्टी के साथ सम्बधों के विवाद पर 1992 में अपने कुछ साथियों के साथ सीपीआईएम छोड़ दी थी। तब वे अपने साथियों के साथ भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (एमसीपीआई) में शामिल हो गए। एमसीपीआई 1986 में सीपीआईएम से समय समय पर अलग हुए अनेक समूहों की दमदम में हुई एक कांग्रेस से अस्तित्व में आई थी। का. लायलपुरी के एमसीपीआई में शामिल होने के बाद कुछ और कम्युनिस्ट समूह पार्टी में शामिल हुए। 2006 में हुई एमसीपीआई की पार्टी कांग्रेस में पार्टी के नाम में परिवर्तन किया जाकर उसे एमसीपीआई (यू) कर दिया गया तथा जगजीत सिंह लायलपुरी इस के महासचिव चुने गए। वे अपने जीवनकाल में 27 मई 2013 तक एमसीपीआई (यू) के महासचिव बने रहे। 

कामरेड लायलपुरी की मृत्यु के उपरान्त तुरन्त किसी को पार्टी का महासचिव चुना जाना था, तब पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की बैठक में कुलदीप सिंह ने किसी पत्र का हवाला देते हुए बताया कि का. लायलपुरी जी चाहते थे कि उन्हें महासचिव चुना जाए। इस पर केंद्रीय कमेंटी ने विचार करते हुए कुलदीप सिंह को पार्टी का कार्यकारी महासचिव चुन लिया। इस के बाद एमसीपीआई (यू) की अगली पार्टी कांग्रेस मार्च 2015 में हैदराबाद में हुई। इस पार्टी कांग्रेस में कुलदीप सिंह व राजस्थान के कुछ लोगों ने इतना विवाद खड़ा किया कि नई केंद्रीय कमेटी और महासचिव का चुनाव नहीं हो सका और पार्टी कांग्रेस ने निर्णय किया कि इन दोनों कामों को आगे प्लेनम में किया जाएगा। 2016 में विजयवाड़ा में पार्टी का प्लेनम हुआ और उस में नयी केन्द्रीय कमेटी के चुनाव के साथ एक नौजवान साथी का. मोहम्मद घौस को सर्वसस्मति से पार्टी का महासचिव चुन लिया गया, इस प्लेनम में वे सभी लोग उपस्थित थे जो इस से पहले पार्टी कांग्रेस में भी मौजूद थे। का. मोहम्मत घौस के पार्टी का महासचिव चुने जाने के साथ ही उन्हों ने पार्टी को जनता की जनवादी क्रान्ति के कार्यक्रम के आधार पर एक क्रान्तिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने के काम को गति प्रदान की। पार्टी का दिल्ली में कोई कार्यालय नहीं था। दिल्ली में पार्टी का केन्द्रीय कार्यालय स्थापित किया गया। 

पार्टी के पंजाब, राजस्थान और केरल के कुछ अतिमहत्वाकांक्षी नेताओं को जो सामंती तरीके से पार्टी पर काबिज होना चाहते थे, का. मोहम्मद घौस के नेतृत्व में पार्टी का एक क्रान्तिकारी पार्टी में बदले जाने के प्रयत्नों से बड़ा धक्का लगा। वे सभी एक वर्गसहयोगवादी गुट के रूप में काम करने लगे, पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की बैठकों में आना बन्द कर दिया और पार्टी के नेतृत्व को नकारना आरंभ कर दिया। जिस से पार्टी में अनुशासन बनाए रखने के लिए उन के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करना जरूरी हो गया। दिल्ली में 5-6 मार्च 2018 को हुई पार्टी के पोलित ब्यूरो की बैठक में केन्द्रीय कमेटी द्वारा प्रदत्त अधिकार से पंजाब के कुलदीप सिंह व प्रेमसिंह भंगू, आंध्रप्रदेश के एम.जी. रेड्डी तथा राजस्थान के गोपीकिशन, ब्रजकिशोर और रामपाल सैनी को उन के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करते हुए पार्टी की केन्द्रीय कमेटी से पार्टी के संविधान के अंतर्गत अनुशासनिक कार्यवाही करते हुए निष्कासित कर दिया गया। इन की पार्टी सदस्यता के बारे में अंतिम निर्णय एमसीपीआई (यू) की केन्द्रीय कमेटी की आगामी बैठक में लिया जाना शेष है। 

इस के उपरान्त 13 मई 2018 को का. मोहम्मद घौस ने जयपुर में मजदूर-किसान सम्मेलन के अवसर पर पार्टी की राजस्थान प्रान्तीय कमेटी की बैठक बुलाई। लेकिन उस में केन्द्रीय कमेटी से निष्कासित सदस्य और उन के कुछ समर्थक बैठक में नहीं आए। इस पर अगले मजदूर-किसान सम्मेलन के अवसर पर 8 व 9 जून 2018 को कोटा में राजस्थान की प्रान्तीय कमेटी की बैठक और पार्टी सदस्यों की प्रान्तीय जनरल बाडी की बैठकें बुलाई गयी। प्रान्तीय कमेटी की बैठक में गोपीकिशन गुट के लोग उपस्थित नहीं हुए न ही उन्हों ने अपने विरुद्ध अनुशासनहीनता के आरोपो का उत्तर दिया। ऐसे में अगले दिन पार्टी के महासचिव का. मोहम्मद घौस की उपस्थिति में आयोजित राजस्थान के पार्टी सदस्यों की जनरल बॉडी मीटिंग में राजस्थान की प्रान्तीय कमेटी को भंग कर दिया गया और दिसंबर 2018 में उदयपुर में होने वाले पार्टी के प्रान्तीय सम्मेलन तक कार्यकारी प्रान्तीय कमेटी का गठन कर पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य महेन्द्र नेह को उस का कार्यकारी सचिव बनाया गया। 

सब से हास्यास्पद बात यह हुई है कि कुलदीप सिंह जिन्हें कोटा में 18-19 अगस्त 2018 को आयोजित कथित प्रान्तीय सम्मेलन में पार्टी का महासचिव बताया गया उन्हें पंजाब में एमसीपीआई (यू) के सचिव पार्टी सदस्य बताते हैं। इसी कथित सम्मेलन में गोपीकिशन को प्रान्तीय सचिव चुन लिया गया है। अब यह साफ है कि इन वर्ग-सहयोगवादी नेताओं ने खुल कर एक अलग गुट के रूप में काम करना आरंभ कर दिया है, लेकिन उन्हें अपने पार्टी से अलग किए जाने या होने का कारण बताने में इतनी लज्जा आती है कि वे अभी भी एमसीपीआई (यू) के नाम का ही उपयोग कर रहे हैं। 

उधर का. मोहम्मद घौस के नेतृत्व में एमसीपीआई (यू) ने मजदूर वर्ग की पार्टियों की एकता की ओर एक और कदम आगे बढ़ाया है। 18 अगस्त को नई दिल्ली में हुई पार्टी के पोलित ब्यूरो की रीवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (आरएमपीआई) के नेतृत्व के साथ हुई बैठक में दोनों पार्टियों की समामेलन प्रक्रिया पर विचार हुआ और दोनों पार्टियों की एक दस सदस्यीय संयुक्त कमेटी बनाई गयी है। यह कमेटी दोनों पार्टियों के समामेलन तथा संयुक्त जन संघर्षों के लिए काम करेगी जिस की बैठक अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में हैदराबाद में होने जा रही है। इस संयुक्त कमेटी में एमसीपीआई (यू) से कामरेड मोहम्मद घौस, अशोक औंकार, किरनजीत सिंह सैंखों, अनुभवदास शास्त्री व महेन्द्र नेह तथा आरएमपीआई से का. के. गंगाधरन, मंगतराम पासला, राजेन्द्र परांजपे, के.एस. हरिहरन तथा हरकँवल सिंह सम्मिलित हैं कामरेड मो. घौस तथा कामरेड मंगतराम पासला संयुक्त रूप से इस कमेटी के संयोजक का काम कर रहे हैं। 

किसी भी देश में एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण में वर्गसहयोगवादी तत्वों को पार्टी से बाहर करना और समान विचारधारा वाले मजदूरवर्गीय राजनैतिक समूहों का एकीकरण एक सतत प्रक्रिया है जो तब तक चलती रहेगी जब तक उस देश में सत्ता मजदूरवर्ग और सहयोगी वर्गों के हाथ में नहीं आ जाती है। कामरेड लेनिन ने “जर्मन कम्युनिस्टों की फूट” पर लिखी अपनी एक टिप्पणी में लिखा था- 

“ऐसे कारण मौजूद हैं, जिनसे भय लगता है कि जैसे “मध्यमार्गियों के साथ (या काउत्स्कीवादियों, लॉन्गेपंथियों, “स्वतंत्रों'', आदि के साथ) होनेवाली फूट अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने की घटना बन गयी है, वैसे ही वामपंथियों'' अथवा संसदीय पद्धति के विरोधियों के साथ (जो आंशिक रूप में राजनीति के, राजनैतिक पार्टी बनाने के और ट्रेड-यूनियनों में काम करने के भी विरोधी हैं) होने वाली यह फूट भी एक अन्तर्राष्ट्रीय घटना बन जायेगी। यही होना है, तो हो। हर हालत में फूट उस उलझाव से बेहतर होती है, जो पार्टी के सैद्धांतिक, वैचारिक एवं क्रान्तिकारी विकास को रोक देता है, पार्टी को परिपक्व नहीं होने देता और उसे वह वैसा सुसंगत, सच्चे मानी में संगठित, अमली काम करने से रोकता है, जो सही मानी में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के लिए रास्ता तैयार करता है।”

शनिवार, 9 जून 2018

बिकाऊ-कमाऊ की जगह कैसे हो सब के लिए मुफ्त शिक्षा?



यूँ तो हर कोई सोचता है कि एक अखबार खबरों का वाहक होता है। लेकिन जब मैं आज सुबह का अखबार पढ़ कर निपटा तो लगा कि आज का अखबार खबरों के वाहक से अधिक खुद खबर बन चुका है। अखबार के पहले तीन पृष्ठ पूरी तरह विज्ञापन थे। इन में जो विज्ञापन थे वे सभी कोचिंग कालेज, निजी शिक्षण संस्थानों और निजी विश्वविद्यालयों के थे। ये सभी विज्ञापन ऐसे नहीं थे जैसे अक्सर विद्यार्थियों की भर्ती की सूचना के लिए निकलते हैं। ये विज्ञापन रंगे –चुंगे थे, बिलकुल वसन्त में पौधों और वृक्षों पर खिले उन फूलों की तरह जो तरह तरह के कीटों को इसलिए आकर्षित करते हैं कि कीट आएँ और उन में परागण की प्रक्रिया को पूरा कर जाएँ, वे पौधे और वृक्ष जल्दी ही फलों से लद कर अमीर हो जाएँ। 

आज के अखबार ने खुद अपनी हालत से यह खबर दी है कि, खबरों से बढ़ कर व्यवसाय है, किसी भी वस्तु की गुणवत्ता से अधिक मूल्य उस की बिकने की क्षमता में है। कोई भी व्यवसायी बड़ा व्यवसायी तब है जब वह बेहतरीन मालों के मुकाबले अपना सड़ा हुआ माल लोगों को सफलता से बेच लेता है। गुणवत्ता वाला माल तो कोई भी बेच सकता है उस में कोई कला नहीं। असली कला तो इस बात में है कि बिना गुणवत्ता वाला बेचा जा सके। जीवन के लिए बेहद जरूरी सामान बेच डालने में कोई कला नहीं है, कला इस बात में है कि कतई गैर जरूरी सामान बेजा जाए और खरीददार उसे जरूरी चीजों पर तरजीह दे कर खरीद ले। यही वे सर्वोपरि मूल्य है जो पूंजीवाद ने विगत पचास सालों में स्थापित किए हैं।

आज से साठ बरस पहले, जब वाकई नेहरू का जमाना था। तब एक बच्चा बिना स्कूल में दाखिला लिए रोज बस्ता ले कर स्कूल जाता था, इस लिए कि वह अभी पूरे चार बरस का भी नहीं था और स्कूल में दाखिला केवल पाँच बरस का पूरा होने पर ही हो सकता था। वह पूरे बरस स्कूल जाता रहा। एक अध्यापक ने उसे टोका कि उस का नाम रजिस्टर में नहीं है तो वह क्लास में कैसे बैठा है। बच्चा रुआँसा सा कक्षा के बाहर आ कर खड़ा हुआ तो हेड मास्टर ने राउंड पर देख लिया और सारी बात पता लगने पर उस अध्यापक को डाँट खानी पड़ी कि स्कूल अध्ययन के लिए है यदि कोई बिना दाखिला लिए भी क्लास में पढ़ने के लिए बैठता है तो उसे वहाँ से हटाने का कोई अधिकार नहीं है। आज का जमाना दूसरा है, यदि फीस नियत दिन तक जमा नहीं की जाए तो विद्यार्थी को अगले दिन से क्लास में बैठने की इजाजात नहीं होती। 

उच्च शिक्षा की स्थिति और खतरनाक है। हमारे जमाने में एक ठेला चलाने या मंडी में माल ढोने वाला मजदूर यह सपना देख सकता था कि वह उस के बेटे बेटी को डाक्टर या इंजिनियर बना सकता है। उस का बच्चा किसी सरकारी स्कूल में पढ़ कर भी किसी मेडीकल या इंजिनियरिंग कालेज में दाखिला पा सकता था, पाता था और पढ़ कर डाक्टर इंजिनियर भी बनता था। आज स्थिति बिलकुल विपरीत है। तीन साल पहले मेरे परिवार के एक बच्चे ने मेडीकल एंट्रेंस के लिए तैयारी करना शुरू किया था तब हम भी सोचते थे कि वह एडमीशन पा लेगा। लेकिन प्रवेश परीक्षा पास कर लेने पर और कालेजों में कुल खाली सीटों की संख्या के बराबर वाली पात्रता सूची में आधे से ऊपर नाम होने पर भी स्थिति यह रही कि कालेज की फीस भर पाना मुमकिन नहीं था। मित्रों ने कहा कि उसे एक साल और तैयारी करनी चाहिए जिस से वह मेरिट में ऊपर चढ़े और किसी कम फीस वाले कालेज में दाखिला ले सके। लेकिन उस ने मना कर दिया और अपने ही शहर के पीजी कालेज में बीएससी में दाखिला ले लिया। मेरे पूछने पर उस ने बताया कि सरकारी कालेज की फीस इतनी है कि उसे चुकाने में परिवार की कुल आमदनी भी पर्याप्त नहीं है। फिर बाकी घर कैसे चलेगा। 

अब हालात ये हैं कि डाक्टर और इंजिनियर बनने के लिए पहले एक बच्चा साल दो साल कोचिंग करे। उस में दो-चार लाख खर्च करे। फिर एडमीशन के लिए भटकता फिरे कि उस की हैसियत का कोई कालेज है कि नहीं। एक मध्यम वर्गीय परिवार की पहुँच से शिक्षा केवल इसलिए हाथ से निकल जाए कि वह फीस अदा नहीं कर सकता तो समझिए कि शिक्षा सब से अधिक बिकाऊ और कमाऊ कमोडिटी बन गयी है। हर साल महंगी से और महंगी होती जा रही है। वह अब केवल उच्च और उच्च मध्यम वर्ग मात्र के लिए रह गयी है। 

आजाद भारत के आरंभिक सालों में एक सपना देखा गया था कि जल्दी ही हम शिक्षा और स्वास्थ्य को पूरी तरह निशुःल्क कर पाएंगे। लेकिन वह सपना आजादी के पहले तीस सालों में ही भारतीय आँखों से विदा हो गया। यह नेहरू के बाद की राजनीति की देन है। पिछले पाँच सालों की राजनीति ने उसे पूरी तरह कमाऊ-बिकाऊ कमोडिटी बना डाला है। आज जो राजनीति चल रही है वह इस पर कतई नहीं सोचती। शिक्षा राजनैतिक विमर्श से दूर चली गयी है। माध्यमिक शिक्षा पर कुछ काम दिल्ली में दिल्ली की राज्य आप पार्टी की सरकार ने पिछले दिनों जरूर किया है उस ने अपने अधिकतम संसाधनों का उपयोग किया। उस की उपलब्धियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वे भी ऊँट के मुहँ में जीरा मात्र है। इस से देश का काम नहीं चल पाएगा। 

आज जरूरत इस बात की है कि राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण सवालों में शिक्षा का सवाल शामिल हो और लक्ष्य यह स्थापित किया जाए कि अगले दस सालों में हम देश के नागरिकों को संपूर्ण मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करा सकें। यह साल कुछ महत्वपूर्ण प्रान्तों की विधानसभाओँ और लोकसभा चुनने का साल है। इस साल में राजनीति रोहिणी के सूरज की तपन की तरह अपने उच्च स्तर पर होगी। देखते हैं राजनीति की इस गर्मी में सब के लिए सारी शिक्षा मुफ्त का नारा कहीं स्थान पाता है या नही? या फिर वह ताल, तलैयाओँ, झीलों और नदियों की तरह सूख जाने वाला है?

शनिवार, 14 अप्रैल 2018

मेष संक्रान्ति, बैसाखी, बोहाग बिहु, पुथण्डु, विशु और बगाली नववर्ष पोइला बैशाख

ज 14 अप्रैल 2018 को बैसाखी (वैशाखी) है। हालांकि अधिकांश वर्षों में यह दिन 13 अप्रेल को होता है, क्योंकि यह सूर्य की मेष संक्रांति के दिन होता है। आज हम जानते हैं कि हमारी पृथ्वी निरन्तर एक अंडाकार कक्षा में निरन्तर सूर्य की परिक्रमा करती रहती है। इस से होता यह है कि आकाशीय गोल (खगोल) के दूरस्थ तारों व नीहारिकाओं द्वारा निर्मित लगभग अपरिवर्तनीय पृष्ठ भूमि में सूर्य चलते हुए दिखाई देता है। हर गोल नाप में 360 अंश (डिग्री) का होता है। हमने अपने खगोल के 360 अंशों को हमने अपनी सुविधा के लिए 30-30 अंशों के 12 बराबर के हिस्सों में बाँट रखा है। हर हिस्से को हमने एक नाम दिया हुआ है यही 12 हिस्से मेषादि राशियाँ कहलाती हैं। हमें सूर्य और अन्य सभी ग्रह और चंद्रमा इन्हीं 12 राशियों में चलते हुए दिखाई देते हैं। सूर्य की एक परिक्रमा को ही हम वर्ष के रूप में पहचानते हैं। हर वर्ष पहली जनवरी को, मकर संक्रांति के दिन और बैसाखी के दिन सूर्य खगोल के इस राशि चक्र में उसी स्थान पर होता है जहाँ पिछले वर्ष था। इस राशि चक्र में हम मेष राशि को सब से पहले और मीन राशि को सब से बाद में रखते हैं। इस तरह सूर्य हमें मेश राशि के प्रारंभ से गति करता हुआ अंत में मीन राशि से होता हुआ उसी प्रारंभिक बिन्दु पर पहुंच जाता है जहाँ से वह चला था। यह चक्र मेष राशि के आरंभिक बिन्दु से चला था वहीं आ कर समाप्त हो जाता है, अपने खगोल के इस स्थान को हम मीन राशि का समापन बिन्दु भी कह सकते हैं। जिस दिन सूर्य इस बिन्दु को पार करता है उसे हम ज्योतिष की भाषा में मेष की संक्रांति कहते हैं। भारतीय संदर्भ में हम मेष की संक्रांति के दिन से सर्वग्राही वर्ष का आरंभ मान सकते हैं। यदि हम भारतीय वैज्ञानिक रूप से अपना वर्षारंभ चुनना चाहें तो यही दिन सर्वाधिक रूप से उपयुक्त है। इस तरह यह दिन संपूर्ण भारत और भारतवासियों के लिए नववर्ष का दिन हो सकता है। 


यह एक संयोग ही है कि इस दिन हमारा पंजाब प्रान्त और संपूर्ण सिख समुदाय बैसाखी के रूप में मनाता है। यह सौर चैत्र मास का अन्तिम दिन तो होता ही है, यह सौर बैसाख मास का पहला दिन भी है। लेकिन संक्रान्ति का समय तो लगभग दो मिनट का होता है क्यों कि सूर्य के अयन को किसी भी खगोलीय बिन्दु को पार करने में लगभग इतना ही समय लगता है। पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में 365.25 दिन के लगभग का समय लगता है। इसी कारण हम ग्रीगेरियन कैलेंडर में चौथे वर्ष एक दिन 29 फरवरी को रूप में बढ़ा देते हैं। इस कारण संक्रांति की घटना 24 घंटों के दिन में कभी भी घटित हो सकती है। कभी वह अर्धरात्रि के पूर्व या पश्चात हो सकती है तो कभी वह सूर्योदय या सूर्यास्त के ठीक पहले या ठीक बाद हो सकती है। भारत में दिन के आरंभ की अवधारणा सूर्योदय से होती है जब कि संपूर्ण विश्व अब दिन का आरंभ मध्यरात्रि से मानने लगा है। 



यदि हम किसी सूर्य संक्रान्ति के दिन को वर्षारंभ के रूप में मानें तो जिस दिन संक्रांति की यह घटना होती है उस दिन संक्रान्ति के पूर्व पिछला वर्ष होगा और संक्रान्ति के पश्चात नव वर्ष। इस तरह यह दिन पुराने वर्ष का अंतिम और नए वर्ष का पहला दिन होता है। यदि हम यह चाहें कि हमारे वर्ष का पहला दिन पूरी तरह नए वर्ष का होना चाहिए तो हमारा नव-वर्ष वर्षान्त और वर्षारम्भ के अगले दिन होगा। भारतीय जब नव संवत्सर को नव वर्ष के रूप में मनाते हैं तो वह वास्तव में नव वर्ष आरंभ होने का अगला दिन होता है। क्यों कि यह प्रतिपदा को मनाया जाता है। भारतीय पद्धति में कोई भी तिथि पूरे दिन उस दिन मानी जाती है जिसमें सूर्य उदय होता है। यदि इसी मान्यता के आधार पर हम सौर नववर्ष मानें तो यह मेष की संक्रांति के अगले दिन होगा, अर्थात बैसाखी के दिन के बाद का दिन हमारा नव वर्ष होगा। यह संयोग नहीं है कि हमारे बंगाली भाई बैसाखी के बाद वाले दिन को अपने नववर्ष के रूप में मनाते हैं। इसे वे अपना नववर्ष अथवा पोइला बैशाख कहते हैं। 


मेष की संक्रान्ति से जुड़े त्यौहार संपूर्ण भारत में किसी न किसी रूप में मनाए जाते हैं। इस वर्ष 14 अप्रेल के इस दिन को जहाँ पंजाब और सिख समुदाय बैसाखी के रूप में मना रहा है वहीं तमिलनाडु इसे पुथण्डु के रूप में, केरल विशु के रूप में, आसाम इसे बोहाग बिहु के रूप में मना रहा है। तमाम हिन्दू इसे मेष संक्रान्ति के रूप में तो मनाते ही हैं। 


आजादी के उपरान्त भारत ने अपना नववर्ष वर्नल इक्विनोक्स वासंतिक विषुव के दिन 22/23 मार्च को वर्ष का पहला दिन मानते हुए एक सौर कलेंडर बनाया जिसे भारतीय राष्ट्रीय पंचांग कहा गया। यह राष्ट्रीय पंचांग सरकारी कैलेंडर के अतिरिक्त कहीं भी स्थान नहीं बना सका। क्यों कि यह किसी व्यापक रूप से मनाए जाने वाले भारतीय त्यौहार से संबंधित नहीं था। यदि बैसाखी के दिन या बैसाखी के दिन के बाद के दिन से हम राष्ट्रीय सौर कैलेंडर को चुनते तो इसे सब को जानने में बहुत आसानी होती और यह संपूर्ण भारत में आसानी से प्रचलन में आ सकता था। यदि हमारी संसद चाहे तो इस काम को अब भी कर सकती है।किसी भी त्रुटि को दूर करना हमेशा बुद्धिमानीपूर्ण कदम होता है जो चिरस्थायी हो जाता है। हम चाहें तो इस काम को अब भी कर सकते हैं। 


फिलहाल सभी मित्रों को बैसाखी, बोहाग बिहु, पोइला बैशाख, पुथण्डु और विशु के साथ साथ मेष संक्रान्ति की शुभकामानाएँ और बंगाली मानुषों को नववर्ष की शुभकामनाएँ जिसे वे कल मनाएंगे।

मंगलवार, 13 मार्च 2018

वे सब जल्दी ही साथ साथ लड़ेंगे

ह दिनों चलते रहने से पैरों में पड़े छाले लिए जब हजारों हजार किसान मुम्बई शहर पहुँचे तो वहाँ की जनता ने उन का स्वागत किया। किसी ने फूल बरसाए, किसी ने उन्हें पीने का पानी पहुँचाया, किसी ने खाना खिला कर इन किसानों से अपना रिश्ता बनाना चाहा।

आखिर क्या था उन किसानों के पास? वे तो अपने फटे पुराने वस्त्रों के साथ चल पड़े थे।कईयों के जूते चप्पलों ने भी रास्ते में साथ छोड़ दिया था। किसी ने उन्हें पहनाया तो उन्हों ने उसे पहन लिया, कोई उन्हें दवा पट्टी करने लगा। किसानों ने भी इस स्वागत का आल्हाद के साथ उत्तर दिया।

शहर के मेहनतकश गरीब जब गाँवों से आते किसानों में अपने रिश्ते तलाश रहे थे, नए रिश्ते बना रहे थे तब उन के जेहन में कहीं न कहीं वह गाँव भी था जहाँ उन के पूर्वज बरसों रहे। उन में से कई अब भी गाँव में हैं। वे एक दूसरे को पहचान रहे थे, जैसे ही आँखों में पहचान नजर आती वे गले मिलते थे।

ये पहचान वर्गों की पहचान थी। वे पहचान रहे थे कि शहर में आ जाने से खून पूरी तरह से शहरी नहीं हो जाता है उन में बहुत सा गाँव वाला खून भी बचा रहता है। गाँव वाले भी देख रहे थे कि इन शहरियों में तो अब भी आधे से कहीं ज्यादा खून गाँव का है। भले ही शहरों में आ कर वे नौकरी करने लगे हों लेकिन उन का मूल तो वही गाँव है। शहर वाले तो ग्रामीणों को बिलकुल अपने बच्चों जैसे लगे।

इन दृश्यों को देख कर जनता के खेतों में अपनी राजनीति की फसल उगाने में लगे लोग भी, तिरंगे, भगवे, पीले, नीले निशान लिए किसानों का स्वागत करने महानगर के प्रवेश द्वार से भी आगे तक आ गए थे। सब ने किसानों को कहा कि वे सरकार से लड़ाई में उन के साथ हैं। इतना देखने पर सरकार को भी शर्म आई। उसने अपना एक दूत भेजा और कहा कि वे किसानों की मांगों पर गंभीर हैं और उन से बात करेंगे।
बच्चों की पढ़ाई और आराम में खलल न हो, नगर का यातायात न रुके इस के लिए किसान बिना रुके चलते ही रहे और रात को ही मुम्बई पहुंँच गए। अगले दिन सरकार ने बातचीत की, किसानों की अधिकांश मांगें मानने की घोषणा कर दी गयी। यहाँ तक कि सरकार ने किसानों को घरों तक वापस पहुँचाने के लिए दो स्पेशल ट्रेन भी लगा दी। किसानों का महानगर में बने रहने को सरकार ने बड़े खतरे के रूप में देखा।

किसान सरकार की बात मान गए, पर न जाने क्यों फिर भी उन्हें विश्नास है कि सरकार अपनी बातों से मुकर जाएगी और कोई न कोई खेल दिखा देगी। वे बस सरकार की हरकत देखेंगे। खुद को और मजबूत बनाएंगे, अपने मित्र बढ़ाएंगे। वे जानते हैं कि उन्हें शहर में उन के खोए हुए बच्चे मिल गए हैं। वे भी शहर में रहने वाली इस सरकार पर निगाह रखेंगे। जैसे ही कुछ गड़बड़ दीखेगी उन्हें बताएंगे। ये शहरी बच्चे भी सोच रहे हैं कि वे भी अब किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाएंगे, वे भी एका बना कर मजबूत बनेंगे। वे सब जल्दी ही साथ साथ लड़ेगे।