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रविवार, 27 सितंबर 2015

भगतसिंह आज भी भारत की जनता के मार्गदर्शक हैं - शैलेन्द्र चौहान

“सोये हुए शेरों उठो, और बगावत खड़ी कर दो” 

गत सिंह को भारत के सभी विचारों वाले लोग बहुत श्रद्धा और सम्मान से याद करते हैं। वे उन्हें देश पर कुर्बान होने वाले एक जज़बाती हीरो और उनके बलिदान को याद करके उनके आगे विनत होते हैं। वे उन्हें देवत्व प्रदान कर तुष्ट हो जाते हैं और अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। असल में भगत सिंह क्या थे, क्या चाहते थे, उनका आज़ादी का सपना कैसा था, उनका विज़न क्या था और सर्वोपरि वे आम आदमी को कहां प्रतिष्ठित करना चाहते थे यह जानना आवश्यक नहीं समझते। क्या हम इस दृष्टि से भी भगत सिंह को देख सकते हैं?
भगत सिंह ने कहा था- ‘वे (अंग्रेज) सोचते हैं कि मेरे शरीर को नष्ट कर, इस देश में सुरक्षित रह जायेंगे। यह उनकी गलतफहमी है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं। वे मेरे शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं, लेकिन वे मेरी आंकाक्षाओं को दबा नहीं सकते।’ सचमुच बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक हमारे देश में न अंग्रेज सुरक्षित रह सके और न ही भगत सिंह के विचारों व आकांक्षाओं को दबाया जा सका। इतिहास साक्षी है कि ‘मृत भगत सिंह जीवित भगत सिंह से ज्यादा खतरनाक’ साबित हुए और उनके क्रान्तिकारी विचारों से तत्कालीन नौजवान पीढ़ी ‘मदहोश’ और ‘आजादी एवं क्रान्ति के लिए पागल’ होती रही। वह लाठियां-गोलियां खाती रही और शहीदों की कतारें सजाती रही। 

 
लेकिन 1947 के बाद के भारत की तस्वीर नितांत अलग दिखने लगी। और आज सब कुछ न केवल पूंजीवाद की भेंट चढ़ चुका है बल्कि भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का भारत के भविष्य का असल सपना भी धूमिल हो गया है। 1947 के सत्ता हस्तान्तरण के बाद जनता के व्यापक हिस्से को लगा था कि देश व उनके जीवन की बदहाली रूकेगी और समृद्धि व खुशियाली का एक नया दौर शुरू होगा। लेकिन मात्र कुछ सालों में ही यह अहसास हो गया कि जो दिल्ली की गद्दी पर बैठे हैं वे उनके प्रतिनिधि नहीं हैं। उन्होंने देश व जनता के विकास की जो आर्थिक नीतियां अपनाईं और उनका जो नतीजा सामने आया, उससे साफ पता चल गया कि वे बड़े जमीन्दारों व बड़े पूंजीपतियों के साथ-साथ साम्राज्यवाद के भी हितैषी हैं। उनका मुख्य उद्देश्य मिहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई को लूटना है और शोषक-शासक वर्गों की तिजोरियां भरना है।

भगत सिंह देश के विकास की इस प्रक्रिया को अच्छी तरह समझते थे। तभी तो उन्होंने कहा था कि ‘कांग्रेस जिस तरह आन्दोलन चला रही है उस तरह से उसका अन्त अनिवार्यतः किसी न किसी समझौते से ही होगा।’ उन्होंने यह भी कहा था कि ‘यदि लॉर्ड रीडिंग की जगह पुरूषोत्तम दास’ और ‘लार्ड इरविन की जगह तेज बहादुर सप्रू’ आ जायें तो इससे जनता को कोई फर्क नहीं पड़ेगा और उनका शोषण-दमन जारी रहेगा। उन्होंने भारत की जनता को आगाह किया था कि हमारे देश के नेता, जो शासन पर बैठेंगे, वे ‘विदेशी पूंजी को अधिकाधिक प्रवेश’ देंगे और ‘पूंजीपतियों व निम्न-पूंजीपतियों को अपनी तरफ’ मिलायेंगे। ‘उन्होंने यह भी कहा कि ’निकट भविष्य में बहुत शीघ्र हम उस वर्ग और उसके नेताओं को विदेशी शासकों के साथ जाते देखेंगे, तब उनमें शेर और लोमड़ी का रिश्ता नहीं रह जायेगा।’

सचमुच ‘आजाद भारत’ के विकास की गति इसी प्रकार रही है। 1947 में 248 विदेशी कम्पनियां हमारे देश में कार्यरत थीं, जिनकी संख्या आज बढ़कर करीब 15 हजार हो गई है। आज विदेशी पूंजी एवं भारतीय दलाल पूंजी का गठजोड़ अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ रहा है। खासकर, 1991 के बाद उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया चली उससे हमारे देश के शासक वर्गों का असली साम्राज्यवाद परस्त चेहरा पूरी तरह बेनकाब हो गया। आज औद्योगिक क्षेत्र के साथ-साथ कृषि व सेवा क्षेत्रों में भी विदेशी पूंजी का ‘अधिकाधिक प्रवेश’ हो रहा है। करोड़ों रू. का लाभ अर्जित करने वाली ‘नवरत्नों’ समेत दर्जनों सार्वजनिक कम्पनियों का विनिवेशीकरण किया जा रहा है और उनके शेयरों को मिट्टी के मोल बड़े-बड़े पूंजीपतियों को बेचा जा रहा है। स्वास्थ्य, शिक्षा, ऊर्जा, सिंचाई, व्यापार, सड़क, रेल, हवाई व जहाजरानी परिवहन, बैंकिंग, बीमा व दूरसंचार आदि सेवाओं का धड़ल्ले से निजीकरण किया जा रहा है और इनमें से अधिकांश क्षेत्रों में 74 से 100 प्रतिशत तक विदेशी पूंजी लगाने की छूट दे दी गई है। कृषि, जो आज भी देश की कुल आबादी के कम से कम 65 प्रतिशत लोगों की जीविका का मुख्य साधन बना हुआ है, को मोन्सेन्टो व कारगिल जैसी विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का चारागाह बना दिया गया है।

‘निगमीकृत खेती’, बड़ी-बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं एवं ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रों’ के नाम पर बड़े पैमाने पर किसानों व आदिवासियों की जमीन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सुपूर्द की जा रही है। पहले ये कम्पनियां खेती में खाद, बीज, कीटनाशक दवाओं व अन्य कृषि उपकरणों की आपूर्ति करती थीं, अब कृषि उत्पादों के खरीद व व्यापार में भी वे अहम् भूमिका निभा रही हैं। आज कृषि समेत हमारी पूरी अर्थव्यवस्था विश्व बैंक, आई.एम.एफ. व विश्व व्यापार संगठन जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं के चंगुल में बुरी तरह फंस गई है। नतीजतन, लाखों कल-करखाने बंद हो रहे हैं, दसियों लाख मजदूरों-कर्मचारियों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है और विगत 20 सालों में करीब 5 लाख किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा है। और जब किसान-मजदूर व जनता के अन्य तबके अपने हक-अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष छेड़ते हैं, तो उन पर लाठियां व गोलियां बरसाई जाती हैं और उनकी एकता को खंडित करने के लिए धार्मिक उन्माद, जातिवाद व क्षेत्रवाद को भड़काया जाता है।

जाहिर है कि साम्राज्यवादी वैश्वीकरण व लूट-खसोट के इस भयानक दौर में भगत सिंह के विचार काफी प्रासंगिक हो गये हैं। खासकर, साम्राज्यवाद, धार्मिक-अंधविश्वास व साम्प्रदायिकता, जातीय उत्पीड़न, आतंकवाद, भारतीय शासक वर्गों के चरित्र, जनता की मुक्ति के लिए एक क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण व क्रान्ति की जरूरत, क्रान्तिकारी संघर्ष के तौर-तरीके और क्रान्तिकारी वर्गों की भूमिका के बारे में उनके विचारों को जानना और उन्हें आत्मसात करना आज क्रान्तिकारी समूहों का फौरी दायित्व हो गया है।

अपने बयानों और लेखों में भगत सिंह ने क्रान्ति की अवधारणा एवं क्रान्तिकारी संग्राम में विभिन्न वर्गों व समूहों की भूमिका के बारे में काफी विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने कहा कि अगर कोई सरकार जनता को मूलभूत अधिकारों से वंचित रखती है तो जनता का आवश्यक दायित्व बन जाता है कि वह न केवल ऐसी सरकार को समाप्त कर दे, बल्कि वर्तमान ढांचे के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने हेतु उठ खड़ी हो। उन्होंने क्रान्ति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा- ‘क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था, जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए।… क्रान्ति से हमारा अभिप्राय अन्ततः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो, तथा एक विश्व संघ मानव जाति को पूंजीवाद के बंधन से और साम्राज्यवादी युद्धों में उत्पन्न होने वाली बरबादी और मुसीबतों से बचा सके।’ यह बयान उन्होंने सेशन अदालत में तब दिया था जब जज ने उनसे क्रान्ति का मतलब पूछा था। इस बयान से स्पष्ट होता था कि क्रान्ति के बारे में उनका दृष्टिकोण कितना व्यापक था।

क्रान्ति में जनता के विभिन्न वर्गों व समूहों की भूमिका के बारे में भी उनका दृष्टिकोण काफी साफ था। वे ऐसी क्रान्ति करना चाहते थे ‘जो जनता के लिए हो और जिसे जनता ही पूरी करे’, और जिसका मतलब ‘जनता के लिए, जनता के द्वारा राजनीतिक सत्ता पर कब्जा’ करना हो। इस तरह भगत सिंह का यह दृष्टिकोण माओ की इस उक्ति से मेल खाती है कि जनता और केवल जनता ही क्रान्ति की प्रेरक शक्ति होती है। भगत सिंह क्रान्ति में किसानों-मजदूरों की महत्वपूर्ण भूमिका को बखूबी समझते थे। वे कहते थे कि ‘गांवों के किसान और कारखानों के मजदूर ही असली क्रान्तिकारी सैनिक हैं।‘ खासतौर पर वे श्रमिकों की भूमिका पर जोर देते थे। उन्होंने कहा कि ‘साम्राज्यवादियों को गद्दी से उतारने का भारत के पास एकमात्र हथियार श्रमिक क्रान्ति है।’ इसी सन्दर्भ में वे क्रान्ति के बाद ‘सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता’ की स्थापना करना चाहते थे।

वे नौजवानों को भूमिका को भी अच्छी तरह समझते थे। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन के घोषणापत्र में यह कहा गया कि ‘देश का भविष्य नौजवानों के सहारे है। वही धरती के बेटे हैं। उनकी दुःख सहने की तत्परता, उनकी वेखौफ बहादुरी और लहराती कुर्बानी दर्शाती है कि भारत का भविष्य उनके हाथ सुरक्षित है।’ इन वर्गों व समूहों के अलावा भगत सिंह ने ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसौदा’ शीर्षक लेख में बुद्धिजीवियों, दस्तकारों व महिलाओं को भी संगठित करने पर जोर दिया। साथ ही, उन्होंने ‘कांग्रेस के मंच का लाभ उठाने’, ‘ट्रेड यूनियनों में काम करने एवं उन पर कब्जा जमाने’ और सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों (यहां तक कि सहकारिता समितियों) में गुप्त रूप से काम करने का दिशा-निर्देश दिया। भगत सिंह ने अपने अनेक लेखों व वक्तव्यों में साम्राज्यवाद व खासकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दमनकारी चरित्र के बारे में चर्चा की है, लेकिन लाहौर षड़यन्त्र केस से सम्बन्धित विशेष ट्रिब्यूनल के समक्ष 5 मई, 1930 को दिये गए बयान में उन्होंने साम्राज्यवाद की एक सुस्पष्ट व्याख्या की है। इस बयान में कहा गया- ‘साम्राज्यवाद एक बड़ी डाकेजनी की साजिश के अलावा कुछ नहीं है। साम्राज्यवाद मनुष्य के हाथों मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम है। साम्राज्यवादी अपने हितों और लूटने की योजनाओं को पूरा करने के लिए न सिर्फ न्यायालयों एवं कानूनों को कत्ल करते हैं, बल्कि भयंकर हत्याकांड भी आयोजित करते हैं। अपने शोषण को पूरा करने के लिए जंग जैसे खौफनाक अपराध भी करते हैं।… शान्ति व्यवस्था की आड़ में वे शान्ति व्यवस्था भंग करते हैं।’ खासतौर पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर टिप्पणी करते हुए कहा गया कि ‘ब्रिटिश सरकार, जो असहाय और असहमत भारतीय राष्ट्र पर थोपी गई है, गुण्डों, डाकुओं का गिरोह और लुटेरों की टोली है, जिसने कत्लेआम करने और लोगों को विस्थापित करने के लिए सब प्रकार की शक्तियां जुटाई हुई हैं। शांति-व्यवस्था के नाम पर यह अपने विरोधियों या रहस्य खोलने वालों को कुचल देती है।’

इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि भगत सिंह साम्राज्यवाद को मनुष्य व राष्ट्र के शोषण की चरम अवस्था एवं लूट-खसोट, अशान्ति व युद्ध का स्रोत मानते थे। उनकी यह व्यख्या साम्राज्यवाद की वैज्ञानिक व्याख्या के काफी करीब है। क्रान्तिकारी खेमों के बीच भारत के पूंजीपतियों के चरित्र को लेकर काफी विवाद है। कुछ संगठन व दल इसे ‘स्वतंत्र पूंजीपति वर्ग’ की संज्ञा से विभूषित करते हैं, तो कुछ इसे ‘दलाल’ व ‘राष्ट्रीय पूंजीपतियों’ के वर्ग में विभाजित करते हैं। इसी तरह कुछ इसे ‘साम्राज्यवाद के सहयोगी’ एवं ‘आश्रित वर्ग’ के रूप में भी चिह्नित करते हैं। लेकिन भगत सिंह व उनके साथियों ने इसके समझौता परस्त व घुटना टेकू चरित्र को काफी पहले पहचान लिया था। ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के घोषणा-पत्र (जिसे मुख्यतः भगवतीचरण बोहरा ने लिखा था) में साफ शब्दों में कहा गया- ‘भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गंभीर है। उसके सामने दोहरा खतरा है-एक तरफ से विदेशी पूंजीवाद का और दूसरी तरफ से भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का। भारतीय पूंजीवाद विदेशी पूंजी के साथ हर रोज बहुत से गठजोड़ कर रहा है। कुछ राजनैतिक नेताओं का ‘डोमिनियन’ स्वरूप को स्वीकार करना भी हवा के इसी रूख को स्पष्ट करता है।

धार्मिक अंधविश्वास व कट्टरपंथ ने राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में एक बड़े बाधक की भूमिका अदा की है। अंग्रेजों ने धार्मिक उन्माद फैलाकर साम्प्रदायिक दंगे करवाये और जनता की एकता को खंडित किया। 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का व्यापक प्रचार शुरू किया। खासकर, 1924 में कोहट में भीषण व अमानवीय हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए तो सभी प्रगतिशील व क्रान्तिकारी ताकतों को इस विषय पर सोचने को मजबूर होना पड़ा। भगत सिंह ने मई, 1928 में ‘धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम’ शीर्षक एक लेख लिखा जो ‘किरती’ में छपा। इसके बाद उन्होंने जून, 1928 में ‘साम्प्रदायिक दंगे और उसका इलाज’ शीर्षक लेख लिखा। अन्त में गदर पार्टी के भाई रणधीर सिंह (जो भगत सिंह के साथ लाहौर जेल में सजा काट रहे थे) के सवालों के जबाब में भगत सिंह ने 5-6 अक्तूबर, 1930 को ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ शीर्षक काफी महत्वपूर्ण लेख लिखा।

इन लेखों में उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न किया। उन्होंने कहा कि ‘ईश्वर पर विश्वास रहस्यवाद का परिणाम है और रहस्यवाद मानसिक अवसाद की स्वाभाविक उपज है।’ उन्होंने धार्मिक गुरूओं से प्रश्न किया कि ‘सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, शोषण, असमानता, दासता, महामारी, हिंसा और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता?’ उन्होंने माक्र्स की विख्यात उक्ति को कई बार दुहराया – ‘धर्म जनता के लिए एक अफीम है।’ उन्होंने धार्मिक गुरूओं व राजनीतिज्ञों पर आरोप लगाया कि वे अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिक दंगे करवाते हैं। उन्होंने अखबारों पर भी आरोप लगाया कि वे ‘उत्तेजनापूर्ण लेख’ छापकर साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं। उन्होंने इसके इलाज के बतौर ‘धर्म को राजनीति से अलग रखने’ पर जोर दिया और कहा कि ‘यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं, धर्मों में हम चाहें अलग-अलग ही रहें।’ उनका दृढ मत था कि ‘धर्म जब राजनीति के साथ घुल-मिल जाता है, तो वह एक घातक विष बन जाता है जो राष्ट्र के जीवित अंगों को धीरे-धीरे नष्ट करता रहता है, भाई को भाई से लड़ता है, जनता के हौसले पस्त करता है, उसकी दृष्टि को धुंधला बनाता है, असली दुश्मन की पहचान कर पाना मुश्किल कर देता है, जनता की जुझारू मनःस्थिति को कमजोर करता है और इस तरह राष्ट्र को साम्राज्यवादी साजिशों की आक्रमणकारी यातनाओं का लाचार शिकार बना देता है।’

आज जब हमारे देश में राजसत्ता की देख-रेख में बाबरी मस्जिद ढाही जाती है और गुजरात जैसे वीभत्स जनसंहार रचाये जाते हैं, तब भगत सिंह की इस उक्ति की प्रासंगिकता सुस्पष्ट हो जाती है। जातीय उत्पीड़न के सम्बन्ध में भगत सिंह ने अपना विचार मुख्य तौर पर ‘अछूत-समस्या’ शीर्षक अपने लेख में व्यक्त किया है। यह लेख जून, 1928 में ‘किरती’’ में प्रकाशित हुआ था। उस वक्त अनुसूचित जातियों को ‘अछूत’ कहा जाता था और उन्हें कुओं से पानी नहीं निकालने दिया जाता था। मन्दिरों में भी उनका प्रवेश वर्जित था और उनके साथ छुआछूत का व्यवहार किया जाता था। उच्च जातियों, खासकर सनातनी पंडितों द्वारा किए गए इस प्रकार के अमानवीय व विभेदी व्यवहार का उन्होंने कड़ा विरोध किया। उन्होंने बम्बई काॅन्सिल के एक सदस्य नूर मुहम्मद के एक वक्तव्य का हवाला देते हुए प्रश्न किया- ‘जब तुम एक इन्सान को पीने के लिए पानी देने से भी इन्कार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते-तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकार की मांग करो।’

छुआछूत के व्यवहार पर भी आपत्ति जाहिर करते हुए कहा- ‘कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है, हमारी रसोई में निःसंग फिरता है। लेकिन एक इन्सान का हमसे स्पर्श हो जाये तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है।’ जब हिन्दू व मुस्लिम राजनेता अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूत्र्ति के लिए ‘अछूतों’ को धर्म के आधार पर बांटने लगे, और फिर उन्हें मुस्लिम या ईसाई बनाकर अपना धार्मिक आधार बढ़ाने लगे, तो उन्हें काफी नाराजगी हुई। उन्होंने अछूत समुदाय के लोगों का सीधा आह्वान किया- ‘संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो। तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक मत बनो, दूसरे के मुंह की ओर मत ताको।’ लेकिन साथ ही साथ, उन्होंने नौकरशाही से सावधान करते हुए कहा- ‘नौकरशाही के झांसे में मत पड़ना। यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चहती है। यही पूंजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और गरीबी का असली कारण है।’ इसी सिलसिले में उन्होंने उनकी अपनी ताकत का भी अहसास दिलाया। उन्होंने कहा- ‘तुम असली सर्वहारा हो। तुम ही देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोये हुए शेरों उठो, और बगावत खड़ी कर दो।’ भगत सिंह का यह आह्वान काफी मूल्यवान है-खासकर ऐसे समय में, जब आज भी क्रान्तिकारी ताकतें दलितों पर होने वाले जातीय व व्यवस्था जनित उत्पीड़न के खिलाफ कोई कारगर हस्तक्षेप नहीं कर पा रही हैं। भगत सिंह आज भी भारतीय जनता के मार्गदर्शक हैं।

शनिवार, 5 सितंबर 2015

डरे न कोई जमना तट पर

सहसमुखी विषधर जब कोई
जमना जल पर काबिज हो ले
उधर पड़े ना पाँव किसी का
जमना तट वीराना हो ले

बच्चे खेलें जा कर तट पर
भय न उन को कोई सताए
खेल खेल में उछले गेंद
सीधी जमना जल में जाए

तब बालक कोई जा कूदे
जमना में हलचल मच जाए
लगे झपटने विषधर उस पर
नटखट बालक हाथ न आए

गाँव गाँव के सब नर नारी
डरें सभी अरु काँपें थर थर
भाग भाग कर होएँ इकट्ठा
पड़े साँप भारी बालक पर

बालक चपल साँप से ज्यादा
चढ़ बैठे विषधर के फण पर
नाच नाच कुचले फण सारे
लगे उसे बस एक घड़ी भर

विवश विषधर सरपट भागे
पीछा छोड़े जमना जल का
हो जाएँ निर्भय तटवासी
जल निर्मल हो फिर जमना का

जब भी अहम् कुण्डली मारे
फुफकारे जब कोई विषधर
डरे न कोई जमना तट पर
चपल हैं बालक इस धरा पर
  •  दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 29 अगस्त 2015

राखी - "हम सब साथ साथ हैं"

राखी स्नेहपूर्ण मृदुल त्यौहार है। एक युग था जब इसे रक्षा के त्यौहार के रूप में मनाया जाता था। लेकिन उस रूप में उस का महत्व तभी तक रह सकता है जब कि समाज में रक्षक और अरक्षित दोनों हों और रक्षा का दायित्व निभाने को तैयार हों। राखी को भाई-बहन के मधुर सम्बन्धों से भी जोड़ कर देखा जाता है। लेकिन उन का संबंध तो सहोदरता का है जो ऐसा स्थाई संबंध है कि तोड़े भी नहीं टूट सकता है। फिर एक धागे में ऐसा क्या है जो उन्हें अपने दायित्वों कर्तव्यों का बोध करा दे?

जब हम बहन द्वारा भाई को राखी बांधे जाने की बात करते हैं तो सहज ही उस मूल्य का शिकार हो जाते हैं जो यौनिकता के आधार पर मनुष्य मनुष्य में भेद करता है। यौनिकता के आधार पर स्त्री रक्षिता हो जाती है और पुरुष रक्षक। यौनिकता के आधार पर किया जाने वाला यह भेद समाज से मिटना चाहिए। यौनिकता अपने स्थान पर है लेकिन उस के आधार पर सामाजिक भेद की समाप्ति जरूरी है।

बहनें राखी बांधती हैं और भाई बंधवाते हैं और बहिन को अच्छी से अच्छी भेंट देना चाहते हैं, लेकिन वही दे पाते हैं जिस से उन का अपनी अपनी पत्नियों से जो खुद भी किसी न किसी की बहिन हैं बिगाड़ न हो जाए। पर तमाम भाई लोग यह सारी इस कारण निभा रहे हैं कि कहीं बहिन माता पिता की संपत्ति में हिस्सा न मांग ले। अदालतों में खूब मुकदमे चल रहे हैं जो बहनों ने अपने माता पिता की संपत्ति में हिस्सा लेने के लिए किए हैं। वहाँ न बहिन भाई को राखी बांधती है और न भाई बंधवाने को तैयार है। भाई कहता है काहे की राखी, कैसी राखी? बाप की जमीन में हिस्सा तो मांग लिया।

इस राखी पर भाई ये प्रण करें कि माता पिता की संपत्ति में जो भी हिस्सा बहिन कानून के अनुसार है उसे स्वयं अपनी बहन को दे देंगे तो फिर देखिए भाई बहनों के बीच स्नेह की कैसी संसृष्टि होती है? पर यह मक्खन किसे चाहिए?

मेंरे दादा जी ज्योतिषी और पुरोहित थे। राखी पर उन के यजमानों के काम करने के उपकरणों को राखी बांधने जाते थे। यह उन की ओर से एक प्रकार की शुभकामना होती थी। उन के और यजमानों के बीच कभी फीस (दक्षिणा) नहीं रही। वे अपने यजमानों का काम बिना किसी अपेक्षा के दायित्व-बोध से करते थे। यही दायित्व-बोध उन के यजमानों में भी था। उन का कभी कोई काम न रुका। अपने यजमानों पर इतना अधिकार भी रखते थे कि उन्हें हमें धमकी देनी होती तो कहते -गाँव चला जाउंगा, मांग कर खा लूंगा। अपने जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए यजमानों से मांगना उन का अधिकार था। लेकिन आज यह पारिवारिक-सामाजिक दायित्व-बोध का भाव इस भाववादी दुनिया से कहीं गायब हो चुका है।


यह दायित्व-बोध राखी बांधने से उत्पन्न नहीं होता। यह भावनाओं से भी उत्पन्न नहीं होता। यह समानता के साथ से पैदा होता है। हम परिवार और समाज में सब को समान समझें। केवल समझें ही नहीं, यह हमारे भौतिक व्यवहार में आए और सब की आदत बन जाए। वैसे ही जैसे किसी एक रास्ते पर रोज जाने की आदत बनती है। आप वाहन की ड्राइविंग सीट पर बैठे होते हैं आप के हाथ स्टीयरिंग को रोज चलने वाले रास्ते पर जाने के लिए नियंत्रित करते रहते हैं, उस के लिए मस्तिष्क को इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ती।

इस का एक ही उपाय है, हम भाववाद (आदर्शवाद, दिखावा) का त्याग करें। यथार्थ की जमीन पर आएँ। हम में बोध हो कि परिवार में सब समान हैं भाई-बहिन भी और स्त्री-पुरुष भी। परिवार में भी और समाज में भी सभी एक दूसरे के लिए हैं, सब मिल कर किसी एक की आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं।  यह हमारी आदत बने, व्यवहार में दिखाई दे, तब किसी को किसी भी चीज का अभाव नहीं खल सकता, न भौतिक वस्तुओं का न ही प्यार और स्नेह का।

राखी के इस त्यौहार का उद्घोष "हम सब साथ साथ हैं" होना चाहिए।

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

भण्डारा

'लघुकथा'


भिखारियों को भोजन के लिए बाजार वालों ने भण्डारा किया। बाजार को कनातें लगा कर बन्द कर दिया गया था। सड़क को नगर निगम से टैंकर मंगवा कर धुलवाया गया। जब वह सूख ली तो उस पर टाट पट्टियाँ बिछाई गयीं। भोजन के लिए आए भिखारी यह सब कार्रवाई बाजार के कोने में भीड़ लगाए टुकुर टुकुर देखते रहे। जब हलवाई ने बताया कि इतना भोजन तैयार है कि भिखारियों को भोजन के लिए बिठाया जा सकता है। भिखारी आए और टाटपट्टियों पर बैठ गए। उन में से एक-दो ही थे जिन्हों ने पालथी मारी हो। अधिकांश उकड़ूँ बैठे थे। उन्हें देख कर एक हाथियाए व्यापारी ने कहा, 'बेकार ही टाट पट्टियाँ मंगाईं, ये तो सब उकड़ूँ बैठगए'।

मोटे पेट वाले एक व्यापारी ने उन्हें पत्तलें परोसीं, दूसरे पूरी, सब्जी, नुक्ती और सेव परसने लगे। ये वही थे जो और दिनों भिखारियों के कुछ मांगने पर एक सैंकड़ा गाली देकर भगा दिया करते थे। कभी कभी किसी जिद्दी भिखारी के सामने तो डंडे का उपयोग भी कर लेते थे। भिखारीगण भोजन करने लगे। एक पंगत उठती तो दूसरी बैठ जाती। भिखारी आते जा रहे थे उन का कोई वारापार न था।

दोपहर बाद एक अच्छे कपडे पहने नौजवान आया और भिखारियों की पंक्ति में बैठ गया। परोसने वाले चौंके ये भिखारियों के बीच कौन आ गया। व्यापारियों में खुसुर फुसुर होने लगी। तभी एक नौजवान व्यापारी ने उसे पहचान लिया। वह तो नगर के सब से ज्यादा चलने वाले महंगे ग़ज़ब रेस्टोरेंट के मालिक का बेटा था। व्यापारियों ने कुछ तय किया और तीन चार उस के नजदीक गए। बोले -तुम तो ग़ज़ब के मालिक के बेटे हो न? तुम्हें यहाँ भिखारियों के साथ खाने को बैठने की क्या जरूरत?


मुझे बाप के रेस्टोरेंट का खाना पसंद नहीं। रेस्टोरेंट का धन्धा भी कोई धन्धा है। बहुत परेशानियाँ हैं। मैने बाप से कहा तो उस ने घर से निकाल दिया। अब भिखारी जैसा ही हूँ, इस लिए भंडारे के भोजन का अधिकारी भी।

व्यापारियों ने विचार किया कि बाप ने नाराज हो कर घर से निकाला है हम ने भंडारे में खाने दिया तो इस का बाप नाराज हो जाएगा, दूसरे भिखारियों को भी ये पसन्द न आएगा। उन्हों ने उसे उठा दिया।

उसे गुस्सा आ गया। गुस्से में भर कर उस ने मुट्ठियाँ तानीं और भाषण देने लगा -तुम ने मेरा अपमान किया है। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे यहाँ से उठाने की। मेरे दोस्तों और फॉलोवरों की कमी नहीं है।अभी सब को साथ ले कर आता हूँ। देखता हूँ कैसे करते हो भंडारा। यह कहते हुए वह वहाँ से चला गया। व्यापारी भंडारा करते रहे।

आधे घंटे बाद हाथों मेे हॉकियाँ और बेसबॉल के डंडे लिए बाइकों पर 20-30 नौजवान आए। भंडारे की भट्टियाँ बुझा दीं। तेल के कड़ाह और भोजन भरे बरतन उलट दिए। जिस ने रोका उस का सिर फोड़ दिया। कुल तीन मिनट लगे। वे सब कुछ तहस नहस कर के दफा हो गए। पूरे बाजार में हाहाकार मच गया।

यह पिछले साल की बात थी। इस साल फिर भंडारे का दिन नजदीक आ रहा है। व्यापारी सोच रहे हैं कि भंडारा करें कि नहीं?

सोमवार, 10 अगस्त 2015

इंसाफ माँगा था, इस्लाम मिला ! ... - भंवर मेघवंशी



भगाना जिला हिसार हरियाणा के दलितों ने अत्याचारों के विरोध में हिन्दू धर्म त्याग कर सार्वजनिक रूप से जन्तर मन्तर पर इस्लाम को अपना लिया।  लेकिन यह उन की पीड़ाओं की चिकित्सा नहीं है। उन की पीड़ाओं का अन्त सिर्फ और सिर्फ सारे धर्मों को नकारने से ही हो सकता है। सारी कहानी कह रहे हैं, राजस्थान में मानव अधिकार के मुद्दों पर कार्यरत स्वतंत्र पत्रकार श्री भँवर मेघवंशी ...


गभग 4 माह तक उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया, आर्थिक नाकेबंदी हुयी, तरह तरह की मानसिक प्रताड़नाएँ दी गयी। गाँव में सार्वजनिक नल से पानी भरना मना था, शौच के लिए शामलात जमीन का उपयोग नहीं किया जा सकता था, एक मात्र गैर दलित डॉक्टर ने उनका इलाज करना बंद कर दिया, जानवरों का गोबर डालना अथवा मरे जानवरों को दफ़नाने के लिए गाँव की भूमि का उपयोग तक वे नहीं कर सकते थे। उनका दूल्हा या दुल्हन घोड़े पर बैठ जाये, यह तो संभव ही नहीं था। जब साँस लेना भी दूभर होने लगा तो अंततः भगाना गाँव के 70 दलित परिवारों ने 21 मई 2012 को अपने जानवरों समेत गाँव छोड़ देना ही उचित समझा। वे न्याय की प्रत्याशा में जिला मुख्यालय हिसार स्थित मिनी सचिवालय के पास आ जमें, जहाँ पर उन्होंने विरोध स्वरुप धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया। भगाना के दलितों ने ग्राम पंचायत के सरपंच से लेकर देश के महामहिम राष्ट्रपति महोदय तक हर जगह न्याय की गुहार लगायी, वे तहसीलदार के पास गए, उपखंड अधिकारी को अपनी पीड़ा से अवगत कराया, जिले के पुलिस अधीक्षक तथा जिला कलेक्टर को अर्जियां दी। तत्कालीन और वर्तमान मुख्यमंत्री से कई कई बार मिले। विभिन्न आयोगों, संस्थाओं एवं संगठनों के दरवाजों को खटखटाते रहे, दिल्ली में हर पार्टी के अलाकमानों के दरवाजों पर दस्तक दी मगर कहीं से इंसाफ की कोई उम्मीद नहीं जगी। उन्होंने अपने संघर्ष को व्यापक बनाने के लिए हिसार से उठकर दिल्ली जंतर मंतर पर अपना डेरा जमाया तथा 16 अप्रैल 2014 से अब तक दिल्ली में बैठ कर पुरे देश को अपनी व्यथा कथा कहते रहे, मगर समाज और राज के इस नक्कारखाने में भगाना के इन दलितों की आवाज़ को कभी नहीं सुना गया। हर स्तर पर, हर दिन वे लड़ते रहे, पहले उन्होंने घर छोड़ा, फिर गाँव छोड़ा, जिला और प्रदेश छोड़ा और अंततः थक हार कर धर्म को भी छोड़ गए, तब कहीं जाकर थोड़ी बहुत हलचल हुयी है लेकिन अब भी उनकी समस्या के समाधान की बात नहीं हो रही है। अब विमर्श के विषय बदल रहे है, कोई यह नहीं जानना चाहता है कि आखिर भगाना के दलितों को इतना बड़ा कदम उठाने के लिए किन परिस्थितियों ने मजबूर किया ?

गाना हरियाणा के हिसार जिला मुख्यालय से मात्र 17 किमी दूर का एक पारम्परिक गाँव है। जिसमे 59 % जाट, 8 % सामान्य सवर्ण {ब्राह्मण, बनिया, पंजाबी } 9 % अन्य पिछड़ी जातियां { चिम्बी, तेली, कुम्हार, लौहार व गोस्वामी }तथा 24 % दलित { चमार, खटिक, डोमा, वाल्मीकि एवं बैगा } निवास करते है। वर्ष 2000 में यहाँ पर अम्बेडकर वेलफेयर समिति बनी, दलित संगठित होने लगे। उन्हें गाँव में अपने साथ होने वाले अन्याय साफ नज़र आने लगे, वे अपने नागरिक अधिकारों को प्राप्त करने के प्रयास में एकजुट होने लगे, जिससे यथास्थितिवादी ताकतें असहज होने लगी। दलितों ने अपने लिए आवासीय भूमि के पट्टे मांगे तथा गाँव की शामलाती जमीन पर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की मांग उठाई। संघर्ष की वास्तविक शुरुआत वर्ष 2012 में तब हुयी जबकि दलितों ने गाँव में स्थित चमार चौक का नाम अम्बेडकर चौक करने तथा वहां पर अम्बेडकर की प्रतिमा लगाने की मांग शुरू की। दरअसल यह चौक दलित परिवारों की आबादी के पास स्थित है, जहाँ पर कई दलितों के घरों के दरवाजे खुलते है, मगर गाँव के दबंगों को यह गवारा ना था कि इस चौक पर दलितों का कब्ज़ा हो। इतना ही नहीं बल्कि गाँव में दलितों को आवासीय भूखंड देने के लिए बनायीं गयी महात्मा गाँधी बस्ती विकास योजना के तहत प्लॉट्स का पंजीकरण और आवंटन भी उन्हें स्वीकार नहीं था। गाँव की शामलाती जमीन पर दलितों की आवाजाही भी उन्हें बर्दाश्त नहीं थी.कुल मिलाकर भगाना स्वाभिमानी दलितों के लिए नरक बन चुका था, ऐसे में दलितों के लिए गाँव छोड़कर चले जाने तथा इंसाफ के लिए आवाज़ उठाने के अलावा कोई चारा ही नहीं था। इस तरह यह लडाई चलती रही। विगत तीन वर्षों से यह जंग बहुत सघन और मज़बूत हो गयी, पहले हिसार के मिनी सचिवालय के बाहर और अंततः जंतर मंतर पर यह संघर्ष जारी रहा।

2014 से जंतर मंतर को ठिकाना बना कर लड़ रहे इन दलितों को कोई न्याय नहीं मिल पाया, ऊपर से चार दलित नाबालिग लड़कियों का भगाना गाँव में अपहरण और सामूहिक दुष्कर्म का मामला और हो गया, जिसमे भी पुलिस की भूमिका संतोषजनक नहीं रह पाई, इससे भी आक्रोश बढ़ता गया। हरियाणा की पिछली सरकार ने संघर्षरत दलितों से न्याय के कई वादे किये मगर वे सत्ता से बाहर हो गए, भाजपा की सरकार के मुख्यमंत्री खट्टर से भी भगाना के पीड़ित चार बार मिलकर आये, मगर कोई कार्यवाही नहीं हुयी, लम्बे संघर्ष के कारण दलित संगठनों के रहनुमाओं ने भी कन्नी काट ली, जब कोई भी साथी नहीं रहा, तब भगाना के दलितों को कोई ना कोई तो कदम उठाना ही था, इसलिए उन्होंने संसद के सत्र के दौरान एक रैली का आह्वान करता हुआ पर्चा सबको भेजा, यह रैली 8 अगस्त 2015 को आयोजित की गयी थी, इसी दौरान करीब 100 परिवारों ने जंतर मंतर पर ही कलमा और नमाज पढ़कर इस्लाम कुबूल करने का ऐलान कर दिया, जिससे देश भर में हडकंप मचा हुआ है। भगाना में इसकी प्रतिक्रिया में गाँव में सर्वजाति महापंचायत हुयी है जिसमे हिन्दू महासभा, विश्व हिन्दू परिषद् तथा बजरंग दल के नेता भी शामिल हुए, उन्होंने खुलेआम यह फैसला किया है कि –“ धर्म परिवर्तन करने वाले लोग फिर से हिन्दू बनकर आयें, वरना उन्हें गाँव में नहीं घुसने देंगे। “विहिप के अन्तर्राष्ट्रीय महामंत्री डॉ सुरेन्द्र जैन का कहना है कि – “यह धर्मांतरण पूरी तरह से ब्लेकमेलिंग है, इसे किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। “हिन्दू महासभा के धर्मपाल सिवाच का संकल्प है कि –“ भगाना के दलितों की हर हाल में हिन्दू धर्म में वापसी कराएँगे।” जो दलित मजहब बदल कर गाँव लौटे है उन्हें हिंदूवादी नेताओं ने समझाने के नाम पर धमकाने की कोशिश भी की है वहीँ दूसरी और देश और प्रदेश की हिंदूवादी सरकारों ने सत्ता का कहर भी ढाना प्रारम्भ कर दिया है। धर्मांतरण के तुरंत बाद ही शुक्रवार की रात को हिसार के मिनी सचिवालय के बाहर विगत तीन वर्षों से धरना दे रहे दलितों को हरियाणा पुलिस ने जबरन हटा दिया और टेंट फाड़ दिए है। दिल्ली जंतर मंतर पर भी 10 अगस्त की रात को पुलिस ने धरनार्थियों पर धावा बोल दिया, विरोध करने पर लाठी चार्ज किया गया, जिससे 11 लोग घायल हो गए है.यहाँ से भी इन लोगों को खदेड़ने का पूरा प्रयास किया गया है। अब स्थिति यह है इस्लाम अपना चुके लोगों का गाँव में बहिष्कार किया जा चुका है,हालाँकि यह भी सच है कि इनका पहले से ही ग्रामीणों ने सामाजिक बहिष्कार किया हुआ था। हिसार से उन्हें भगाया जा चुका है और जंतर मंतर से भी वो खदेड़े गए है, ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि भगाना के इतने लम्बे आन्दोलन का आखिर भविष्य क्या होगा? क्या यह आगे भी चल पायेगा या यही ख़त्म हो जायेगा? यह सवाल मैंने आन्दोलन से बहुत नज़दीक से जुड़े हुए तथा धर्मान्तरण कार्यक्रम के मुख्य योजनाकार अब्दुल रज्जाक अम्बेडकर से पूंछा, उनका कहना है कि – “जालिमों के खिलाफ यह लड़ाई जारी रहेगी। जंतर मंतर पर धरना जारी है और आईंदा भी जारी रहेगा, जहाँ तक गाँव की सर्वखाप पंचायत के फैसले की तो हम उससे नहीं डरते, हम लोग जल्दी ही भगाना जायेंगे, यह हमारा लोकतान्त्रिक अधिकार है” । रज्जाक अम्बेडकर का कहना है कि –‘ हमें मालूम था कि इस धर्मांतरण के बाद हमारी मुश्किलात बढ़ेगी, क्योंकि साम्प्रदायिक संगठन इसे हिन्दू मुस्लिम का मुद्दा बना रहे है, पर जिन दलितों ने इस्लाम कुबूल कर लिया है, वो इस्लाम में रह कर ही इंसाफ की लडाई लड़ेंगे। 9 अगस्त की रात में हुए हमले में पुलिस के निर्दयी लाठीवार में रज्जाक को भी गंभीर चौटें पंहुची है, मगर उनका हौंसला बरक़रार है, वे बताते है कि –‘धर्मान्तरित दलित जानते है कि अब उनका अनुसूचित जाति का स्टेट्स नहीं बचेगा, मगर उन्हें यह भी उम्मीद है मुस्लिम बिरादरी उनके सहयोग में आगे आएगी।’

जिन दलितों ने धर्म बदला है, उनका मनोबल चारों तरफ से हो रहे प्रहारों के बावजूद भी कमजोर नहीं लगता है। नव धर्मान्तरित सतीश काजला जो कि अब अब्दुल कलाम अम्बेडकर है, कहते है कि-‘ हम हर हाल में अब मुसलमान ही रहेंगे, जो कदम हमने उठाया, वह अगर हमारे पूर्वज उठा लेते तो आज ये दिन हमको नहीं देखने पड़ते।’ इसी तरह पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले भगाना निवासी धर्मान्तरित वीरेन्द्र सिंह बागोरिया का कहना है कि –‘हम पूरी तरह से इस्लाम अपना चुके है और अब किसी भी भय, दबाव या प्रलोभन में वापस हिन्दू नहीं बनेंगे।’ अन्य दलित व अति पिछड़े जिन्होंने इस्लाम कबूला है, वो भी अपने फैसले पर फ़िलहाल तो मजबूती से टिके हुए है। भाजपा, संघ, विहिप, बजरंग दल तथा हिन्दू महासभा अपना पूरा जोर लगा रही है कि धर्मान्तरित लोग अपने मूल धर्म में लौट आये, मगर भगाना के पीड़ित दलितों ने अपना सन्देश स्पष्ट कर दिया है कि अगर हिन्दुओं को दलितों की परवाह नहीं है तो दलितों को भी हिन्दुओं की रत्ती भर भी परवाह नहीं है। एक ऐसे वक़्त में जबकि एक दक्षिणपंथी हिन्दू शासक दिल्ली की सल्लतनत पर काबिज़ है, ऐसे में उसकी नाक के नीचे खुलेआम, चेतावनी देकर, पर्चे बाँट कर, ऐलानिया तौर पर पीड़ित दलित इस्लाम कुबूल कर रहे है तो यह वर्ष 2020 में बनने वाले कथित हिन्दू राष्ट्र के मार्ग में गति अवरोधक बन सकता है। भगाना के दलितों ने लम्बे समय तक सोच कर यह निर्णय लिया है, एक माह पहले जब मैं उनके धरने में गया तब मुझे इसका अहसास होने लगा था कि उनका रुख मजहब बदलने की तरफ है और वे शायद इस्लाम का दामन थामेंगे। 

क लोकतान्त्रिक देश में कोई भी नागरिक किसी भी धर्म को स्वीकारे या अस्वीकार करे, यह उनकी व्यक्तिगत इच्छा है और कानूनन इसमें कुछ भी गलत नहीं है, इसलिए भगाना के दलितों द्वारा किये गए इस्लाम को कुबूलने के निर्णय से मुझे कोई आपति नहीं है, मैं उनके निर्णय का आदर करता हूँ, हालाँकि मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह है कि धर्मान्तरण किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता है क्योंकि यह खुद ही एक समस्या है। संगठित धर्म के आडम्बर और पाखंड तथा उसकी घटिया राजनीती सदैव ही धर्म का सक्षम तबका तय करता है, भारत के जितने भी धर्म है, उन सबमें जातियां पाई जाती है तथा कम ज्यादा जातिगत भेदभाव भी मौजूद रहता है, इस्लाम भी इससे अछुता नहीं है.जैसा कि दलित चिन्तक एस आर दारापुरी का कहना है कि-“धर्मपरिवर्तन दलित उत्पीडन का हल नहीं है, दलितों को संघर्ष का रास्ता अपनाना चाहिए, हाँ अगर धर्म बदलना ही है तो बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए जिसके सिद्धांत और व्यव्हार में अंतर नहीं है जबकि भारतीय इस्लाम, इसाई और सिख धर्म में यह अंतर पाया जाता है।” वाकई यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या हिन्दू धर्म का त्याग करके किसी और धर्म को अपना लेने मात्र से कोई व्यक्ति जातिगत घृणा से मुक्त हो जाता है या धार्मिक नफरत का भी शिकार होने लगता है। जैसा कि भगाना के धर्मान्तरित दलितों के साथ होने लगा है कि धर्म बदलते ही उनके प्रति राज्य और समुदाय दोनों का व्यवहार अत्यंत क्रूर हो गया है। फिर यह भी देखना होगा कि क्या आज मुसलमान खुद भी स्वयं को सुरक्षित महसूस करते है, जिस तरीके से बहुसंख्यक भीड़ के हमले उन पर बढ़ रहे है, गुजरात, मुज्जफरनगर, अटाली जैसे हमले इसके उदहारण है, ऐसे में भले ही दलित उनका दामन थाम रहे है, मगर उनका दमन थमेगा, इसकी सम्भावना बहुत क्षीण नजर आती है।

अंतिम बात यह है कि अब भगाना के दलितों की आस्था बाबा साहेब के संविधान के प्रति उतनी प्रगाढ़ रह पायेगी या वो अपनी समस्याओं के हल कुरान और शरिया तथा अपने बिरदाराने मुसलमान में ढूंढेगे? क्या लडाई के मुद्दे और तरीके बदल जायेंगे, क्या अब भी भगाना के दलित मुस्लिम अपने गाँव के चमार चौक पर अम्बेडकर की प्रतिमा लगाने हेतु संघर्ष करेंगे या यह उनके लिए बुतपरस्ती की बात हो जाएगी, सवाल यह भी है कि क्या भारतीय मुसलमान भगाना के नव मुस्लिमों को अपने मज़हब में बराबरी का दर्जा देंगे या उनको वहां भी पसमांदा के साथ बैठ कर मसावात की जंग को जारी रखना होगा? अगर ऐसा हुआ तो फिर यह खाई से निकलकर कुएं में गिरने वाली बात ही होगी। भगाना के दलितों को इंसाफ मिले यह मेरी भी सदैव चाहत रही है, मगर उन्हें इंसाफ के बजाय इस्लाम मिला है, जो कि उनका अपना चुनाव है, हम उनके धर्म बदलने के संवैधानिक अधिकार के पक्ष में खड़े है, कोई भी ताकत उनके साथ जोर जबरदस्ती नहीं कर पायें और जो भी उनका चयन है, वे अपनी चयनित आस्था का अनुपालन करे,यह सुनिश्चित करना अब भारतीय राष्ट्र राज्य की जिम्मेदारी है, मगर अब भी मुझे दलित समस्याओं का हल धर्म बदलने में नहीं दिखाई पड़ता है। आज दलितों को एक धर्म छोड़कर दुसरे धर्म में जाने की जरुरत नहीं है, उन्हें किसी भी धर्म को स्वीकारने के बजाय सारे धर्मों को नकारना होगा, तभी मुक्ति संभव है, संभवतः सब धर्मों को दलितों की जरुरत है, मगर मेरा मानना है कि दलितों को किसी भी धर्म की जरुरत नहीं है .धर्म रहित एक लोकतंत्र जरुर चाहिए, जहाँ पर समता, स्वतंत्रता और भाईचारा से परिपूर्ण जीवन जीने का हक सुनिश्चित हो।

शनिवार, 11 जुलाई 2015

'घड़ीसाज'



'लघुकथा'

'घड़ीसाज'

- दिनेशराय द्विवेदी


- कुछ सुना तुमने?
- क्या?
- अरे! तुमने रेडियो नहीं सुना? टीवी नहीं देखा?
- देखा है, सब देखा है। उस में तो न जने क्या क्या होता है। मुझे कैसे पता कि तुम किस के लिए बोल रहे हो?
- मैं वो बड़े साहब की बात कर रहा था।
- कौन बड़े साहब?
- अरे? वही शेरखान साहब!
- अच्छा, अच्छा!
- अच्छा अच्छा क्या? वही अपने सरकस के नए मनीजर साहब!
- हाँ हाँ वही न? जो बात बात में जो बात बात में राष्ट्र बनाने की बात करते हैं?
- हाँ, वही। अब समझे तुम! उन ने बोला है कि राष्ट्र बनाना है।
- क्या मतलब? क्या राष्ट्र अभी तक बना हुआ नहीं था?
- नहीं नहीं, उन का ये मतलब नहीं था। राष्ट्र तो बना हुआ है। पर जरा बिगड़ा हुआ है न! उसे फिर से बनाना है। जैसे घड़ी चलते चलते आगे या पीछे चलने लगती है तो उसे घड़ीसाज के पास ले जाना पड़ता है, वह बना देता है।
- अच्छा तो बड़े साहब घड़ीसाज भी हैं?
- तुम्हें कितना ही समझाओ। तुम रहोगे चुगद के चुगद ही। राष्ट्र कोई घड़ी थोड़े ही है जिसे बनाने के लिए घड़ीसाज की जरूरत होगी।
- हाँ, वो भी सही है। आज कल घड़ी कौन बनवाता है। थोड़ी भी इधर उधऱ होने लगी कि फेंक दी और नयी ले आए। वैसे भी यूज एण्ड थ्रो का जमाना है। यार! तुम्हारे साहब इस खराब राष्ट्र को फेंक क्यों नहीं देते। नया खरीद लें। बिलकुल कंपनी की गारण्टी वारण्टी वाला। सारा खेल खतम।
- तुम नहीं सुधरोगे! समझना ही नहीं चाहते तो वैसे कह दो।
- नहीं नहीं? ऐसी कोई बात नहीं। मैं समझना चाहता हूँ। पर उदाहरण से समझें तो अच्छा समझ आता है।
- ठीक है, ठीक है। उदाहरण ही सही। पर उदाहरण तो सही दिया करो। अब ये घड़ी और घड़ीसाज का उदाहरण सही नहीं है। कोई और अच्छा सा होना चाहिए था। चल! छोड़। हम भी कहाँ उलझ गए। ..... तो मैं बता रहा था कि साहब ने सब को संदेश दिया है।
- क्या?
- कि गैस सब्सिडी छोड़ दो, राष्ट्र बनाना है।
- गैस सब्सिडी?
- वही पैसा न जो सिलेंडर का पैसा देने के बाद अब खाते में आ जाता है, उस के लिए लिख दो कि वो हमें नहीं चाहिए।
- ओह! तो साहब को पैसा चाहिए?
- क्यों नहीं चाहेगा पैसा? साहब राष्ट्र जो बनाएंगे।
- तब तो मेरा उदाहरण बिलकुल सही था। घड़ीसाज भी तो घड़ी बनाने का पैसा लेता है।

शुक्रवार, 19 जून 2015

न्याय और कार्यपालिका के बीच शीत गृह-युद्ध

देश में शीत गृहयुद्ध जारी है। हमारी न्याय व्यवस्था जर्जर होने की सीमा तक पहुँच गयी है। कहीं कहीं फटी हुई भी है। फटने से हुए छिद्रों को छुपाने के लिए लगाए गए पैबंद खूब दिखाई देने लगे हैं। जहाँ सौ जोड़ा कपड़ों की हर साल जरूरत है, वहाँ दस जोड़ा कपड़े दिए जाते हैं। जंजीरों में बंधे गुलामों के वो चित्र याद आते हैं जिन में गुलामों से जब तक वे बहोश न खो दें काम कराया जाता था और खाने को इतना ही दिया जाता था कि वे मर न जाएँ। वैसी ही हालत हमारी न्याय पालिका की है। न्याय पालिका हमारे संघ राज्य का महत्वपूर्ण अंग है। लेकिन वह कभी कभी जनपक्षीय हो जाता है। यही कारण है कि उसे विधायिका और कार्यपालिका कभी मजबूत नहीं होने देती। यह डर हमेशा सताता रहता है कि कहीं वह पूंजीवादी निजाम को पलटने का एक साधन न बन जाए।

यही है हमारी स्वतंत्र न्याय पालिका। हर साल उच्चतम न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के जजों के साथ प्रधानमंत्री एक समारोह करते हैं। पिछले 15 वर्षों के इन समारोहों की रपटें उठा ली जाएँ तो पता लगेगा कि हर बार मुख्य न्यायाधीश अदालतों की अतिशय कमी की ओर ध्यान दिलाते हैं। पर इन अदालतों की स्थापना तो सरकार से मिलने वाले वित्त पोषण पर निर्भर करती है। हर साल प्रधानमंत्री आश्वासन देते हैं। लेकिन सरकारें अण्डज हैं, साल भर बाद नतीजे के नाम पर अण्डा निकलता है।

उधर विधायिकाओं और सरकारों के पास देश की हर समस्या का एक इलाज है, कानून बना दो। वे कानून बनाते हैं। हर कानून अदालतों में मुकदमों का इजाफा करता है। हर कानून के साथ न्याय पालिका में अदालतें भी बढ़ाने का इंतजाम होना चाहिए। लेकिन उस से सरकार को क्या? यदि मुकदमे देर तक चलेंगे तो सरकार की बदनामी थोड़े ही होगी, बदनाम तो न्याय पालिका होगी। यही तो सरकारें चाहती हैं। तभी तो सरकार के लिए न्यायपालिका में हस्तक्षेप के अवसर पैदा होंगे। आप देख ही रहे हैं कि सरकार ने कॉलेजियम की पद्धति को बदल कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बना दिया है। अब नए जजों को पुराने जज नहीं बल्कि ये आयोग चुनेगा। इस आयोग के गठन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी है। न्याय पालिका इस परिवर्तन के विरुद्ध लड़ रही है। लेकिन उस के पास फौज और पुलिस जैसे हथियार तो हैं नहीं। उस के पास जो साधारण औजार हैं और वह उन्हीं से लड़ रही है।

कई बरस पहले देशी-विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव पर परक्राम्य विलेख अधिनियम में चैक बाउंस को अपराध बनाए जाने का कानून बनाया गया। कानून बनते ही चैक का इस्तेमाल आम हो गया। अब चैक सब से बड़ी गारंटी होने लगा। कंपनियों से ले कर गली के बनियों ने उधार माल बेचने और बहुराष्ट्रीय वित्तीय उपक्रमों से ले कर टटपूंजिए साहूकारों तक ने चैक का खूब इस्तेमाल किया। पहले तो उधार वसूलने के लिए गुंडों और लठैतों की जरूरत होती थी। अब अदालतें यह काम करने लगीं। बड़ी कंपनियों ने चैक ले कर थोक में अपने उत्पाद बेचे और जब वे चैक अनादरित होने लगे तो सब के खिलाफ मुकदमे होने लगे। एक कंपनी ने तो दक्षिण भारत की एक अदालत में एक ही दिन में 70000 से अधिक मुकदमे पेश किए। अगले दिन खबर मुख्य न्यायाधीश को मिली और तीसरे दिन एक समारोह में उन्होने बयान दिया कि वे इस कानून को रुपया वसूली का औजार न बनने देंगे। एक समय में 500 मुकदमों की सुनवाई करने की क्षमता वाली अदालत पर 70000 हजार मुकदमे आ जाएँ तो शायद उन्हें रजिस्टर में दर्ज करने में ही दो-तीन साल तो लग ही जाएंगे।

लेकिन मुख्य न्यायाधीश के कहने से क्या होता है? मुकदमे आते रहे और अदालतें बोझिल होती रहीं। कोई प्राथमिक अपराधिक अदालत ऐसी न बची जहाँ इस तरह के मुकदमे हजार पाँच सौ की संख्या में लंबित न हों। हाल वैसा हो गया जैसे सारे वाहन यकायक एक साथ सड़क पर निकल आने पर होता है। अदालतों मे ट्रेफिक जाम होने लगा। ट्रेफिक जाम में नियम कानून और नैतिकता सब दाँव पर होते हैं। कैसे भी सवार बाहर निकलने की कोशिश करता है और ट्रेफिक के सिपाही डंड़ा फटकार कर जाम को हटाने की कोशिश करते हैं।

यही हुआ भी। 1 अगस्त 2014 को उच्चतम न्यायालय के तीन जजों की बैंच ने दशरथ रूपसिंह राठौड़ के मुकदमे में यह फैसला दिया कि चैक बाउंस का मुकदमा सुनने का अधिकार केवल उस अदालत को है जिस के क्षेत्र में चैक जारीकर्ता की बैंक की शाखा स्थित है। अब तक लगभग सारे मुकदमे वहाँ दाखिल किए गए थे जहाँ चैक डिसऑनर हुआ था। पुराने मुकदमों को वापस ले कर इस निर्णय के अनुसार क्षेत्राधिकार वाली अदालत में प्रस्तुत करने के लिए 30 दिन की अवधि निर्धारित की गयी। हजारों मुकदमे वापस दिए गए जिन में से कुछ मुकदमे जो साधारण न्यायार्थियों के थे, वापस पेश ही नहीं हुए जब कि बहुत सारी कंपनियों और न्यायार्थियों ने अपने मुकदमे दूसरे राज्यों की अदालतों में पेश किए ।

इस से सब से बड़ी परेशानी बड़ी कंपनियों को हुई। चैक अब अच्छी गारंटी नहीं रहा। कंपनियों को माल बेचने में परेशानी आने लगी। उन्हों ने फिर सरकारा पर दबाव बनाया और कानून में बदलाव की हवा बनने लगी। कानून बनने में तो देर लगती है। संसद में पारित कराना होता है, फिर राष्ट्रपति का अनुमोदन चाहिए तब कानून लागू होता है। इस से बचाने का एक रास्ता अध्यादेश लागू करना है। सो केन्द्र सरकार ने इतनी तत्परता दिखाई कि 15 जून को परक्राम्य विलेख अधिनियम में संशोधन अध्यादेश लागू कर दिया।

दशरथ रूप सिंह राठौर के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने खास तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि किस तरह इन मुकदमों ने मजिस्ट्रेट न्यायालयों में एक एविलांस (ऊँचे पहाड़ों में हिम स्खलन से उत्पन्न बर्फीला तूफान) उत्पन्न कर दिया है –

“we need to remind ...... “हमें खुद को याद दिलाने की जरूरत है कि इस देश की मजिस्ट्रेसी पर चैक अनादरण के मुकदमों का हिमस्खलन आया हुआ है। विधि आयोग की 213वीं रिपोर्ट के अनुमान के अनुसार अक्टूबर 2008 में इस तरह के मुकदमों की संख्या 38 लाख से अधिक थी। नतीजे के तौर पर चैक अनादरण के मुकदमों से देश के हर मुख्य शहर की मजिस्ट्रेट स्तर की अपराधिक न्याय व्यवस्था का दम घुट रहा था। चार महानगरों और अन्य व्यावसायिक महत्व के केन्द्रों की अदालतें इस तरह के मुकदमों के कारण भारी बोझ से दब गईं। अकेले दिल्ली की अदालतों में 1 जून 2008 को इस तरह के पाँच लाख से अधिक मुकदमे लंबित थे। दूसरे अनेक शहरों की हालत भी इस से अच्छी नहीं है, केवल इसलिए नहीं कि वहाँ बड़ी संख्या में धारा 138 के मामले घटे हैं बल्कि इस लिए कि बहुराष्ट्रीय व दूसरी कंपनियों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों व अभिक्रमों ने इन शहरों को शिकायत दर्ज कराने के लिए उचित समझा जिस का इस से अच्छा कारण कोई नहीं है कि अनादरित चैक की राशि को लौटाने के लिए नोटिस जारी किए गए थे और चैक उन शहरों की शाखाओं में समाशोधन के लिए जमा किए गये थे”। ... banks in those cities.”

इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो गया था कि उच्चतम न्यायालय किस तरह परेशान है और उस से निपटने के लिए क्षेत्राधिकार के आधार पर वह कुछ मुकदमे कम होते देखना चाहता है। कम से कम कार्यपालिका को एक चेतावनी देना चाहता है। लेकिन उच्चतम न्यायालय का यह मंसूबा सरकार कैसे पूरा होने देती। उस ने इस मामले को संसद तक ले जाने और कानून में संशोधन करने तक की राह नहीं देखी। तब तक वे कंपनियाँ कैसे इन्तजार करतीं जिन्हों ने करोड़ों रुपए इस सरकार को बनाने में दाँव पर लगाए थे। अपने आका को इतने दिन परेशान होते देखना किस जिन्न को बर्दाश्त होता है? वे अध्यादेश लाए और एक दम आका की परेशानी का हल पेश कर दिया।

यह सरकार और न्यायपालिका के बीच का शीत गृह-युद्ध है। जहाँ न्याय पालिका के पास निर्णय पारित करने का औजार है वहीं सरकार के पास निर्णयों को कानून और अध्यादेशों के जरिए पलट डालने का शस्त्र मौजूद है। अब साल में दो चार बार इस युद्ध का नजारा देखने को मिलता ही रहेगा। जब तक कि न्यायपालिका को देश की जरूरतों के मुताबिक अदालतें नहीं मिल जातीं। आप जानते हैं, देश की जरूरत क्या है? नहीं जानते हों तो मैं ही बता देता हूँ। देश को मौजूदा अदालतों की संख्या से चार गुनी और अदालतें चाहिए।