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शनिवार, 13 जून 2015

फर्जी डिग्री

'लघुकथा'
रामदास सरकारी टीचर हो गया। वह स्कूल में मुझ से चार साल पीछे था। एक साधारण विद्यार्थी जो हमेशा पास होने के लिए जूझता रहता था।  मैं स्कूल से कालेज में चला गया। फिर पता लगा कि वह दसवीं क्लास में दो बार फेल हो जाने पर पढ़ने मध्यप्रदेश चला गया। कुछ साल बाद जानकारी मिली कि उस ने वहाँ से न केवल हायर सैकण्डरी बल्कि बीए भी कर लिया और बीएड भी। कुछ दिन उस ने निजी स्कूलों में भी पढाया।

सरकारी नौकरी मिलने पर उस की पहली पोस्टिंग किसी गाँव के स्कूल में हुई थी। वह एक जीप से रोज शहर से गाँव जाता। इसी जीप से बहुत टीचर और टीचरनियाँ रोज शहर से गाँवों के स्कूल जाया करते थे। एक टीचरनी से उस की दोस्ती हो गयी। दोस्ती भी ऐसी कि धीरे धीरे प्यार में बदल गयी। दोनों ने शादी कर ली। 

शादी हो जाने के बाद दोनों ने कोशिश कर के अपनी पोस्टिंग जिला मुख्यालय पर करवा ली। दोनों कमाते और बचाते। फिर जिला मुख्यालय के शहर की ही एक बस्ती में प्लाट ले लिया। धीरे धीरे उस पर दो मंजिला मकान बना लिया। उन्हीं दिनों पडौस में कोचिंग इंस्टीट्यूट खुले तो पढ़ने वाले बच्चे कमरे ढूंढने लगे। रामदास ने बैंक से लोन ले कर दो मंजिलें और बना लीं और कमरे कोचिंग स्टूडेण्ट्स को किराए पर चढ़ा दिए। 

फिर एक दिन पता लगा कि रामदास की हायर सैकण्डरी का प्रमाण पत्र फर्जी निकला। उसे आरोप पत्र मिला और आखिर उसे नौोकरी से निकाल दिया गया। पर इस से रामदास के जीवन पर कोई बड़ा असर नहीं हुआ। रामदास की पत्नी अब भी सरकारी टीचर है। वह नौकरी पर जाती है। घर का सारा काम रामदास देख लेता है। खाना भी अक्सर दोनों वक्त का खुद ही बनाता है और बच्चों को भी संभाल लेता है। आमदनी की कोई कमी नहीं। जितना वेतन टीचर की नौकरी से मिलता था उस से दुगना तो वह मकान के किराए से कमा लेता है। रामदास सुखी है, उस की पत्नी अब भी खुश है। बेटा इंजिनियर हो गया है, बंगलौर में नौकरी कर रहा है। रामदास के पास बेटे के लिए खूब रिश्ते आ रहे हैं अच्छे खासे दहेज के प्रस्ताव के साथ।

रविवार, 7 जून 2015

भूत-कथा

भूत-कथा 

  • दिनेशराय द्विवेदी



रात बाथरूम में चप्पल के नीचे दब कर एक कसारी (झिंगूर) का अंत हो गया। चप्पल तो नहाने के क्रम में धुल गयी। लेकिन कसारी के अवशेष पदार्थ बाथरूम के फर्श पर चिपके रह गए।

अगली सुबह जब मैं बाथरूम गया तो देखा कसारी के अवशेष लगभग गायब थे। केवल अखाद्य टेंटेकल्स वहाँ कल रात की दुर्घटना का पता दे रहे थे। बचे हुए भोजन कणों का सफाया करने में कुछ चींटियाँ अब तक जुटी थीं।

अगली बार जब मेैं बाथरूम गया तो वह पूरी तरह साफ था। वहाँ न चींटियाँ थीं और न ही कसारी का कोई अवशेष। किसी ने स्नान के पहले उस के फर्श को जरूर धोया होगा।

कसारी एक जीवित पदार्थ थी, एक दुर्घटना ने उस के जीवन तंत्र को विघटित कर दिया, वह मृत पदार्थ रह गयी। चींटियों ने उसे अपना भोजन बनाया। मृत पदार्थ अनेक जीवनों को धारण करने का आधार बना। बाथरूम धुलने के समय कुछ चींटियाँ वहाँ रही होंगी तो पानी में बह गयी होंगी। जाने वे जीवित होंगी या फिर उन में से कुछ मृत पदार्थ में परिवर्तित हो कर और किसी जीवन का आधार बनी होंगी।

इस बीच काल्पनिक आत्मा और परमात्मा कहीं नहीं थे, अब इस कथा को पढ़ कर वे किसी के चित्त में मूर्त हो भी जाएँ तो उन सब का आधार यह भूत-कथा ही होगी।

शनिवार, 6 जून 2015

गऊ माँ!

 गऊ माँ


बहुत आसान है
गाय को माँ कहना
अगर आप गाय पालते नहीं हैं


आप गाय पालें
उस का दूध न निकालें
सारा का सारा उस के बछड़ों के लिए छोड़ दें


बछड़ों को बधिया न करें
न उन के कांधे पर हल लादें,न तेली की घाणी,
न रहँट, ना गन्ने का कोल्हू और न बैलगाड़ी खिंचवाएँ 


बछडों और बछिया को भाई बहन कहें
सांडों को बाप, दादा और चाचा, ताऊ मानें
पूरे परिवार को पालें और गाय को माता कहें


इस गौ परिवार में हो जाए कभी गमी
तो खूब स्यापा करें, ले जाएँ कांधों पर उठा कर श्मशान
वैदिक मंत्रों के साथ संस्कार करें


तीया करें, अस्थियों को ले जाएँ हरिद्वार
पंडित से करवाएँ पिण्डदान और फिर
लौट कर तेरहीं करें, ब्राह्मण भोज के साथ 


कौन है फिर
जो आप पर उंगली उठाए
आपत्ति करे कि गाय जानवर है, माँ नहीं

  • दिनेशराय द्विवेदी

रविवार, 31 मई 2015

‘कहानी’ माप -सृंजय

‘कहानी’

माप

-सृंजय

"अरे...हां, हमारे गाउन का क्या हुआ?''

साहब ने अपने पी.ए. से पूछा. ,

" 'सर, तब से में दो-तीन दफा तकाज़ा कर चुका हूँ"

"अभी तक सिला या नहीं?’ साहब उत्सुक होकर बोले.

"दर्जी कह रहा था कि एक बार हाकिम से कहते कि वो इधर तशरीफ़ लाते”. पी.ए.- ने लगभग अनुरोध-सा करते हुए कहा. .

तुम तो कहते थे कि वह सिर्फ हुलिया के आधार पर कपड़े सिल देता है !”

"यह तो एकदम आमजमाई हुई बात है, सर!'' पी. ए. ने गहरे आत्मविश्वास के साथ कहा, "अपने दामाद वाली घटना शायद आपको बताईं थी न¡ वह तो अब भी उसी दर्जी से मिलने की इच्छा रखता है.”

"आपका दामाद मिलना चाहता है...

शायद वह दर्जियों के पचड़े में कभी पड़ा नहीं है.. इसलिए” इस बार साहब का ड्राइवर धूपन राम बोल पडा, "जबकि मेरी जानकारी में एक ऐसी घटना है हुजूर !...कि एक दर्जी ने दामाद से जिंदगी भर के लिए ससुराल ही छुड़वा दी थी. कहा गया है न. . तीन जने अलगरजी - नाई, धोबी, दर्जी.”

' 'काम करें मनमर्जी." साहब ने भी अपनी तरफ से तुक जोड़ते हुए कहा.

"जिंदगी भर के लिए ससुराल छुडवा दी थी…वह भी एक अदने से दर्जी ने?” पी. ए. पहले तो विस्मित हुए फिर उत्सुक होकर उछल-सा पड़े. "वह कैसे धूपन?…तुमने आज तक इस बारे में मुझे कभी कुछ नहीं बताया”

“ अभी दर्जी की बात चली तो वह घटना याद आ गई." धूपन राम बोला, "वह घटना कोई गीता-रामायण थोड़े है कि हरदम चर्चा चलती रहे उसकी."

"धूपन ¡ गीता-रामायण की घटनाओं से अब हमें उतनी मदद नहीं" मिलेगी, जितनी अपनी जिन्दगी के छोटे-छोटे खटराग प्रसंगों को सुनने से." पी. ए.तनिक बेचैन होकर बोल पड़े. .

दरअसल पी. ए. के चार बेटियाँ और दो तो बेटे थे. चारों बेटियों और एक बेटे की शादियाँ करवा" चुके थे. बेचारे बेटी-दामाद से बड़े परेशान रहते थे. कभी यह बेटी तो कभी वह दामाद, कभी यह नतिनी तो कभी वह नाती . . आए दिन कोई-न-कोई आया ही रहता या. अपना और बेटे का परिवार ही कोई कम न था. बेटियों का भी भरा... पूरा कुनबा था. आने का कोई बहाना भर चाहिए. कोई दवा-बीरो करवाने के नाम पर आ गया तो कोई यूं ही भेंट करने के नाम पर. . .और नहीं तो अटेस्टेड करवाने के नाम पर ही आ धमके. . .चलो नाना के साहब से अटेस्टेड करवा लेंगे...

अपने यहाँ के अफसर बड़े मिजाज दिखाते हैं ... खूब जी हुजूरी की तो राजी हुए, लेकिन एक बार तीन से देशी अटेस्टेड भी नहीं करेंगे. अरे भई!  यह काम तो तुम लोग अपने यहाँ भी करवा सकते थे,' पी.ए. दबी जुबान में कहते भी, लेकिन कोई सुनता नहीं. एक बेटी का परिवार खिसकता, तब तक दूसरी का आ धमकता. जो कोई आता बिना कुछ लिए-दिए हटने का नाम ही नहीं लेता. पी. ए. बेचारे नाते-रिशतेदारी निभाते-निभाते ही हलकान-परेशान रहा करते थे. ऐसे में दामाद से ससुराल छुड़वा देने की धूपन की बात उनके मर्म को छू गई. बोले, "धूपन¡ जरा तफसील से बताओ न."

"बहुत लंबा किस्सा है." कहकर धूपन ड्राइवर ने साहब की ओर उनका रुख भांपने की गरज से देखा.

"लंबा है तो क्या हुआ¡ ऐसे प्रसंगों में ही जीवन के गहरे राज़ छुपे होते हैं, जिन्हें सबको सुनना ही चाहिए." पी.ए. से रहा नहीं जा रहा था, "सुनाओ न, साहब भी सुन लेंगे."

"अब सुना भी डालो.” साहब भी मंद-मंद मुस्कुराते हुए इशारा करने लगे. धूपन चालू हो गया--

"...यह सरकारी नौकरी पाने के पहले मैं प्राइवेट गाड़ी चलाया करता था. एक प्रोफेसर कुमार थे, उनकी गाड़ी. उन्होंने ही बताया था कि उनके गांव तेघरा के चौधरी का दामाद पहली बार ससुराल आया"- रिवाज है कि शादी के बाद दामाद जब पहली बार ससुराल जाए तो उसे कम-से-कम नौ दिन रहना पड़ता है. दूसरे ही दिन चौधराइन बोलीं कि मेहमान पहली बार आए हैं, इन्हें कपडा-लत्ता देना होगा न! 'क्या क्या देना होता है? चौधरी ने पूछा. 'अरे दिया तो पाँचों पोशाक जाता है' चौधराइन बोलीं, "धोती, कुरता, जांघिया, गंजी और गमछा." "वाह रे तुम्हारा दिमाग!' चौधरी बोले, "हमारा दामाद पुलिस अफसर बनने के लिए कंपटीशन की तैयारी कर रहा है और तुम उसे धोती-गमछा दोगी? अरे मैं तो अपने दामाद को पतलून दूंगा.. बल्कि सिलवाकर दूंगा, ताकि यहीं पहन सके चौधरी खाते-पीते घर से थे. खेती-किसानी तो करवाते ही थे, उनके अलावा जीरो माइल' चौराहे पर हाइवे से लगा प्लाट खरीदकर दर्जन भर दुकाने बनवाकर किराए पर उठा रखी थीं. उन्हीं में से एक दुकान मनसुख लाल बजाज की थी और एक हलीम दर्जी की थी. वहीं से अपने तई सबसे महंगा कपड़ा खरीदकर हलीम दर्जी को कुरता-पतलून सिलने के लिए दे दिया गया. हलीम दर्जी अपने आपको इलाके भर का वाहिद मास्टर मानता था...किसी भी तरह की पोशाक सिलने को कहो, ना नहीं कहता था. खातिरदारी में हलीम चौधरी के घर खुद जाकर दामाद की माप भी ले आया. अगले दिन कपडा सिल भी गया. खुशी-खुशी कपड़े चौधराइन के हाथ में देते हुए चौधरी बोले, "मेहमान से कहो कि आज़ यहीं पहनकर वह हवाखोरी के लिए निकले.' शाम को जब दामाद ने कपड़े पहने तो अजीब तमाशा हो गया...पतलून का एक पांयंचा चौवा भर ऊपर तो दूसरा चौवा भर नीचे. पल-भर में ही दामाद ने खीजकर पतलून खोला और आलने पर फेंक दिया. ' चौधरी गुस्से में हलीम के सामने पतलून पटकते हुए बोले, "यह कैसा जोकरों जैसा पतलून सिलकर दे दिया?’,

‘क्यों क्या हुआ मालिक? हलीम ने कुछ न समझते हुए पूछा.

'देखो तो...एक पांयंचा चौवा भर ऊपर तो दूसरा चौवा भर नीचे,' चौधरी

नाराजगी में बोले, "ऐसा भी कहीं पतलून सिला जाता है."

हलीम ने पतलून को मेज पर फैलाया, दोनों मोहरी मिलाई, मियानी बीच में की, कमर टानटून कर सीधी की, कई कोनों से फीते से नापा, "मालिक देखिए तो...कमर से मोहरी तक दोनों पांव एकदम बराबर हैं कि नहीं?...न हो तो आप एक बार खुद नापकर देख ले. 

चौधरी से कुछ बोलते न बना, क्योंकि माप तो सचमुच सही निकल रही थी. उन्हें सकपकाया देखकर दर्जी बोला, "मालिक पहनते वक्त किसी वजह से जर्ब पड़ गया होगा" जाइए, फिर से पहनाकर देखिए-बिल्कुल सही निकलेगा."

चौधरी लौट आए दामाद को फिर से पतलून पहनाया गया. हाय रे किस्मत अब भी वही नजारा...एक पांयंचा ऊपर तो दूसरा नीचे. दामाद बेचारा "मेनिक्विन' (कपड़े की दूकान में लगाया जाने वाला सजावटी पुतला) की तरह बिना हिले-डुले खड़ा का खड़ा रह गया. नीचे झुककर पतलून को एक तरफ से चौधरी टान रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ से चौधिराइन ... लेकिन पतलून का अब भी वहीं हाल! आखिरकार खीजकर चौधरी बोले, "रहने दीजिए, मेहमान जी ! ... खोल दीजिए. ..मैं फिर जाता हूँ शैतान के बच्चे उस हलीम के पास. 'वह दुलकी चाल से हलीम के पास आए. जितना हो सकता था, ख़री खोटी सुनाई. हलीम ने चुपचाप सिर झुकाकर पतलून खोला, मेज पर फैलाया और उसे हर तरफ से मापने लगा.

'नाप तो एकदम सहीं है, मालिक! पता नहीं, कैसे, पहनते वक़्त बड़ा-छोटा हो जा रहा है! आप एक काम करेंगे?... मेहमान जी को एक बार यहीं ले आएंगे?'

यह भी हुआ. मेहमान जी दर्जी की दूकान तक पहुंचे. उन्हें फिर से पतलून पहनाया गया…पांयंचों की छोटाई-बड़ाई में कोई फर्क न आया...आता भी कैसे? हलीम ने वहुत टानटून किया. दामाद के दोनों पैर तो कम-से-कम दर्जनों बार मापे होंगे. परेशान होकर बोला, खोल दीजिए ... देखता हूँ क्या किया जा सकता है.' उसने दामाद से चले जाने को कहा. चौधरी को वहीं रोक लिया.

चौधरी को लेकिन कल नहीं पड़ रहा था, "लगता है तुमने ढंग से नाप नहीं ली है. अंदाज से सिल दिया है.'

नहीं, मलिक¡ यूं न बोलिए...नाप एकदम सही ली है. वैसे हमारा अंदाज भी कमजोर नहीं होता. वैसे भी बदन के हर हिस्से की माप लेना मुमकिन भी नहीं होता ... सिलाई में कई बार अंदाज़ से भी काम चलाना पड़ता है. अब कुरती के महरम (स्त्रियों की कुरती या अंगिया आदि का वह कटोरीनुमा अंश जिसमें स्तन रहते हैं) की माप हम लोग थोड़े लेते हैं. एक बार आंख उठाकर देख भर लेते हैँ...वह भी तिरछी नजर से ... लेकिन सिलाई एकदम फिट बैठती है।

'इस पकी दाढी में भी मेहंदी लगाते हो न¡’ चौधरी ने हलीम की ललछोंही दाढी की ओर इशारा करते हुए कहा, 'जो मरहम की माप लेने लगे तो इस दढ़िया में एको बाल न बचेगा. ..सब चोथा जाएगा' इस परेशानी में भी चौधरी के होंठ अंदरूनी हंसी के चलते तिकोने हो गए.

"वह तो बात-बात में कहा मैंने,' हलीम भी मुस्कुरा पडा, "वऱना महरम की माप लेकर कौन अपना बाल नुचवाये.'

जब दामाद कछ दूर चले गए और उनको ले जाने वाले की मोटरसाइकिल की फटफ़टाहट आनी बन्द हो गई तो हलीम ने चौधरी से फुसफुसाकर कहा, "मालिक¡ एक बात कहू? किसी से कहिएगा तो नहीं?

"भला, मैं क्यों किसी से कुछ कहने जाऊं? चौधरी एकाएक शांत होकर बोले.

"मालिक¡ पतलून की सिलाई में कोई खोट नहीं "मेहमान जी के पैर ही छोटे-बड़े हैं तो मैं क्या करूं? आपने गौर किया होगा ... तसल्ली के लिए उनके दोनों पैरों को मैंने कई बार मापा था. खैर, घबराइए नहीं...मैं कमर की पट्टी खोलकर छोटे पांव ठीक कर दूंगा.’

चौधरी को काटो तो खून नहीं ... दामाद के पैर छोटे…बड़े कैसे हो गए? चलते समय तो बिल्कुल पता नहीं चलता. उन्होंने सिर पकड़ लिया.

"क्या कीजिएगा, मालिक.' हलीम दिलासा देते हुए कहने लगा, "ऊपर वाला अगर आदमी को सींग दे दे तो कोई सिर थोड़े कटा लेगा...उसी तरह जीना पड़ेगा...सींग के साथ ही जीना पडेगा... बहुत लाज लगी तो लंबी पगड़ी में छुपाकर जीना पड़ेगा.'

चौधरी एकदम निराश होकर घर लौटे. किसी से कुछ बोले-चाले नहीं. जब सहा नहीं गया तो चौधराइन को एकांत में बुलाकर कहने लगे, ."हमारे करम ही छोटे हैं, ज्ञानती की माँ?

'क्यों, क्या हुआ जी? चौधराइन घबरा गई. 'मेहमान जी अब पुलिस अफसर नहीं बन पाएंगे.' 'कैसे नहीं बन पाएँगे? रात-दिन तो मोटी…मोटी किताब बांचते रहते हैं.’ वह रुआंसी होकर चौधरी को ताकने लगीं.

'उनके पैर ही छोटे-बड़े हैँ...पतलून में कोई खराबी नहीं है. यहाँ आंगन टेढा नहीं है, नाचने वाली के पाँव ही टेढे हैं? चौधरी जितना संभव था फुसफुसाकर बोल रहे थे, 'कंपटीशन निकाल भी ले गए तो मेडिकल में छँट जाएंगे'.’

'डॉक्टर को कुछ खिला-पिला कर काम नहीं निकल पाएगा?

'मैं पहले ही बहुत कुछ दे चुका हूँ, अब क्या सारी संपत्ति इसी दामाद पर लुटा दूँ?

चौधराइन को तो मानो साँप. सूंघ गया, 'जा रे कपार¡ इसी आशा पर, हैसियत से भी ऊपर जाकर, दान-दहेज देकर, फूल जैसी ज्ञानती का इनसे ब्याह करवाया गया कि पुलिस अफसर बन जाएंगे तो बेटी राज करेगी, अपना भी गांव-जवार में मान बढेगा, वर्दी के रुतबे और रूल से लोग हौँस खाएंगे... लेकिन अब तो सिपाही बनने पर भी आफत है.’

सिपाही, अब तो होम गार्ड भी न बन पाएंगे.’ चौधरी ने हताशा में होंठ काट लिए. चौधराइन रोने के लिए राग काढ़ने ही वाली थी कि चौधरी ने डपट दिया, ‘अब रो-धो कर तमाशा मत बनाओ ... जो बात सिर्फ हमें और हलीम को मालूम है उसे तुम्हारे चलते पूरा गांव जान लेगा ... अब चुप रहने में ही भलाई है.‘

चौधराइन चीखी-चिल्लाई नहीं, लेकिन चुप भी नहीं बैठी. कांटे खोंट-खींटकर उस अगुआ को गलियाने लगी जिसने यह विवाह करवाया था. मन भर अगुआ को सरापने के बाद शाम ढलते भी बेटी को समझाने लगी, 'हलीम दर्जी कह रहा था कि पाहुन जी के गोड़ छोटे-बड़े हैं, इसीलिए पतलून उपर-नीचे हो जा रहा है. तू आज की रात जरा दोनों गोड़ नापना तो...हां, ध्यान रखना, जब निर्भेंद सो जाएं, तब नापना...‘

"लेकिन नापूंगी कैसे? . ज्ञानती भी सकते में आकर बोली, "कहीँ फीता देख लेंगे तो?

'दुत्त पगली! बित्ते से नाप लेना ... हाँ, उनको पता नहीं चलना चाहिए'

दो-तीन रोज बाद चौधराइन ने पूछा, क्या री, कुछ पता चला?

"खाक पता चलेगा ज्ञानती ज़रा ऊबकर तनिक गुस्से में बोती, 'सोते भी हैं तो अजीब ढंग से...बाई करवट ही सोते हैं लेकिन बायाँ गोड़ घुटने से मोड़कर और दायां उसके ऊपर चढाकर, सीधा करके. सीधा पैर तो नाप लेती हूँ, लेकिन मुड़े पैर पर जैसे ही जांघ के ऊपर मेरा बित्ता सरकता है कि चिहुँककर जाग जाते हैं और मेरा कंधा पकड़कर मुझे पटक देते हैं. इसी फेरे में तीन रात से भर नींद सो भी नहीं पाई हूँ. भगवान जाने कौन सी नींद सोते हैं ... कोए की नींद कि कुकुर की नींद !'

आखिर जिसका डर था, वही हुआ. . न जाने कैसे पूरे तेघरा गांव में, जीरो माइल चौराहे तक यह बात फैल गई कि चौधरी का दामाद 'ड़ेढ़ गोड़ा है.

दामाद को भी पता चला तो चीख-चीखकर इंकार करने लगा, 'यह कैसी बकवास फैला रखी है आप लोगों ने? मेरे दोनों पैर ठीक हैं, न चलने में दिक्कत है, न दौड़ने में. कहिए तो में ताड़ के पेड़ पर चढ़कर दिखा दूं अगर मैं डेढ़गोड़ा होता तो मेरे अन्य पतलून भी ऊपर-नीचे होते. यह हलीम ही एकदम फालतू दर्जी है. फतुही-लंगोट सिलने वाला यह देहाती दर्जी पतलून सिलना क्या जाने ? मैं अभी जाकर उसका कल्ला तोड़े दे रहा हूँ.'

किसी अच्छे से डॉक्टर से चेक करवा लेने में क्या हर्ज है? चौधरी हाथ जोड़कर निहोरा करने लगे, "हलीम का कल्ता तोड़ने से तो बात पर और पक्की मुहर लग जाएगी ... तब किस-किसका कल्ला तोड़ेगें?

सास भी समझाने लगी, ज्ञानती भी समझाने लगी. जब सब कहने लगे तो दामाद बेचारे को भी यकीन-सा हो गया कि सचमुच कहीं पैर में ही खराबी तो नहीं है. अब कौन नौ दिन ठहरता है. अगले दिन ही उसने ससुराल छोड़ दी. अपने घर गया और वहाँ से सीधा शहर भागा. महीने भर लॉज में रहा, कई तरह से जांच करवाई, मगर 'कोई नुक्स पकड़ में नहीं आया. हो तब तो पकड़ में आए. खामखाह बेचारे के पंद्रह-बीस हजार रुपये गल गए, शहर के डॉक्टरों ने झिड़की दी सो अलग. बेचारे ने जिंदगी में अब कभी भी ससुराल न जाने की कसम खा ली. तो इस तरह हलीम दर्जी ने दामाद से ससुराल छुडवा दी." कहकर धूपन ड्राइवर चुप हुआ.

अपने रुतबे की संजीदगी भूलकर साहब तो यह किस्सा सुनकर हँसते हुए लोट-पोट हो गए. जब हँसी का दौर थमा तो उन्होंने यूं ही पूछ लिया, "वह लड़का पुलिस अफ़सर बना कि नहीं?"

"यह कोई मायने नहीं रखता." पी.ए. फट से बोल पड़े, "क्यों कि अफसर बनने के लिए तेज दिमाग के साथ-साथ यह पसमंजर भी मायने रखता है कि कौन किसका बेटा है या कौन किसका दामाद या कौन कैसे खानदान से है! यहाँ काबिले तारीफ बात यह है कि हलीम दर्जी ने चौधरी को बचा लिया, वरना जिंदगी भर उनकी वह पेराई होती कि खल्ली भी नहीं बचती, कहा गया है न...वेश्या रूसी तो अच्छा हुआ. धन-धरम दोनों बचा." पी. ए. हलीम दर्जी से काफी प्रभावित नजर आ रहे थे, "काश उस जैसा दर्जी अपने यहाँ भी होता!"

"कहीँ आपका यह दर्जी भी उसी हलीम की तरह तो नहीं है?" साहब ने पूछ ही लिया

"बिल्कुल नहीं साहब¡ कहां राजा भोज, कहाँ भोजुवा तेली." पी.ए. ने तपाक-से प्रतिवाद किया, "बाकर अली और हलीम में ज़मीन-आसमान का अंतर है."

"तो फिर मेरा गाउन सिलने में वह इतनी देरी क्यों कर रहा है?.”

"यही तो मैं भी नहीं समझ पा रहा हूँ-" पी.ए. भी असमंजस में दिखे, "दर्जी पूछ रहा था कि यह बताओ कि ये हाकिम नए…नए अफसर बने हैं, यानी सीधी भर्ती से आए हैं या तरक्की करते-करते इस ओहदे तक पहुंचे हैं या बहुत पुराने हाकिम हैं?

`क्यों, इससे गाउन का क्या ताल्लुक?" '

'मैं कुछ समझ नहीं पा रहा, सर¡" पी. ए. का असमंजस बरकरार था, "न हो तो आज शाम चल कर हुजूर पूछ ही लें कि वह गाउन सिल पाएगा भी या नहीं?"

वे नए-नए हाकिम (अफसर) बने थे. पहली तैनाती ही एक देहाती जिले में हुई. जिले का फैलाव काफी दूर-दराज तक था. विकास का काम बहुत कम हुआ था. जिले में गांवों और ढाणियों की संख्या अधिक थी. एकमात्र शहर जिला मुख्यालय ही था. यह भी नाम का ही शहर था, प्रशासनिक केंद्र होने के नाते, वरना अपने मिजाज में, चाल-ढाल में वह एक बड़ा गाँव ही था. राजधानी से काफी दूर होने की वजह से उस जिले पर ध्यान कम ही दिया जाता था. यहीं के सीधे-सादे अनपढ़ लोग, जिन्हें नए जमाने की हवा की छुअन तक न लगी थी, अपने ढंग से जीवन जी रहे थे. जिले का एक बड़ा हिस्सा जंगलों से ढंका था. लोग कुदरत की रहमत पर ही जिंदा रहते थे. काफी बड़ा जिला होने के चलते साहब को लंबे-लंबे दौरे करने पड़ते थे. जिस इलाके में जाते, कई-कई दिन रुक जाना पड़ता. वे दिन-भर तो तहसील और महकमे की जांच में ही व्यस्त रहते, लेकिन सुबह-शाम डाक बंगले में मुलाकातियों का आना-जाना लग जाता. इलाके के मोतबर लोगों से अंतरंग मुलाकात शाम ढले ही होती. साहब दिन-भर तो 'चुस्त-दुरुस्त चाक-चौबंद पोशाक पहने रहते, लेकिन सुबह-शाम कुछ ढीला-ढाला पहनने का जी करता. हालांकि उस वक्त वे कुरते-पायजामे में भी रह सकते थे, लेकिन कुरते-पायजामे में वह रोब नमूदार न हो पाता था, जिसकी उम्मीद एक ऊंचे अफसर से की जाती है. मानना पड़ेगा विलायती हाकिमों को भी. ऐसे ही मौके पर वे गाउन का इस्तेमाल करते थे. बाज हाकिम तो दफ्तर या कचहरी में भी गाउन पहने रहते थे. एकदम ढीला-ढाला आरामदायक चोगा (गाउन), लेकिन रोब ऐसा कि एक…एक धागे से टपके..

कुछ यही सोचकर साहब ने भी अपने लिए गाउन सिलवाने की सोची. अपनी ख्वाहिश उन्होंने अपने पी. ए. के सामने जाहिर की, "यहाँ, गाउन कहाँ मिलेगा?

"गाउन¡" पी.ए. की पेशानी पर बल पड़ गए, "गाउन का चलन तो आजकल रहा नहीं, सर!...इसलिए सिला-सिलाया गाउन मिलना तनिक नामुमकिन लगता है."

"कोई दर्जी है ऐसा...जो गाउन सिल सके?"

"हाँ, है न, हुजूर!" पी.ए. को अचानक याद आया, "अपना बाकर अली...वह नई-पुरानी सब काट की पोशाक सी देता है"

"तो आज शाम चलते हैं, उस के पास...माप दे जाएंगे" साहब खुश होकर बोले थे.

"उसकी जरूरत न पडेगी, हुजूर!” मैं ही चला जाऊंगा. वह ऐसा अकेला हुनरमंद है कि उसके सामने फकत हुलिया बयान कर दीजिए किसी ... आदमी का...अंदाज से ही वह ऐसी पोशाक सिल देता है कि फिटिंग में सूत बराबर भी झोल न आए." साहब, के खुश होते ही पी. ए. और खुश होकर बोले थे, "मेरी चौथी बेटी का ब्याह लगा था, सर! दामाद ने हठात् सूट की फरमाइश कर दी...वह भी ब्याह से केवल चार दिन पहले प्राइवेट कंपनी में नौकरी की वज़ह से न दामाद को यहीं जाकर माप दे जाने की छुट्टी थी, न मुझे फुर्सत कि जाकर माप ले आऊं. बाकर अली के सामने मैंने दामाद का सिर्फ हुलिया भर बयान कर दिया था. सुथरे ने सलेटी रंग का ऐसा सूट सिलकर दिया है कि मेरा दामाद हर खास मौके पर वही सूट पहनकर निकलता है...कहता है कि मेरी शख्सियत इसी सूट में खिल-खिल उठती है. कई बार उसने कहा भी कि एक बार दर्जी बाकर अली से मुझे मिलवा दें..." पी..ए. जरा धीरे बोले थे, "लेकिन सर! उसकी इस ख्वाहिश पर मैं ज्यादा तवज्जो नहीं देता...कि कहीं दुबारा कुछ फरमाइश न कर दे ... दामाद से ना कहते भी ना बनेगा."

साहब भी मुस्कुरा दिए थे, "ठीक कहते हो आप! अपने ससुर से नजदीकी और दामाद से दूरी बनाकर चलने में ही अक्लमंदी है."

दर्जी बाकर अली की दूकान में पहुँचते ही साहब ने कड़कदार आवाज़ में कहा, "क्यों जी! हमारे पी. ए. तो आपकी बड़ी तारीफ कर रहे थे कि आदमी को बिना देखे, फकत हुलिया के आधार पर आप कपड़े सिल देते हैं.”

"हुजूरे आला! वे कपड़े आम आदमी के होते हैं" बाकर अली मन-ही-मन गदूगद होते हुए दस्तबस्ता होकर बोला, "आम आदमी के चेहरे और लिबास में बहुत फर्क नहीं होता. अलबत्ता हाकिमों के लिबास अलहदा किस्म के होते हैं. वे उन के ओहदे और उस ओहदे पर उन के बिताए गए वक्त के हिसाब से तय होते हैं.” सीधेपन से कहकर दर्जी ने इधर उधर देखा. वहाँ कायदे की कोई कुर्सी न थी. कारीगरों के बैठने के लिए दो-चार तिपाइयां बेतरतीब पडी हुई थीं. उन्हीं में से एक तिपाई को फूँक मारकर साफ करते हुए उसने एक बिना कटे कपड़े को उस पर बिछा दिया और बोला, "तशरीफ़ रखें, हुजूर ¡ आपका गाउन तो कब का सिल चुका होता!"

साहब लेकिन तिपाई पर बैठे नहीं. शायद ऐसा शान के खिलाफ होता. उन्होंने खड़े-खड़े ही पूछा, '"...तो अब तक सिला क्यों नहीँ? गाउन का क्या! वह तो बिना माप का भी सिल सकता है...वह तो फ्री साइज होता है.'

“यही तो राज की बात है, हुजूर ! जो कपडा एक बार कैंची से कट गया, सुई से बिंध गया, धागे से नथ गया...वह कभी फ्री साइज नहीं हो सकता...उसे तो किसी-न-किसी साइज में जाना ही है. फ्री साइज़ कपडा तो बिना कटे…सिले पहना जाता है, जिसे मोटे-पतले, लंबे-ठिगने, जवान-बूढे हर किस्म के लोग पहन सकें.”

"भला ऐसा कौन सा कपडा है, जिसे बिना सिले पहना जा सके?" साहब को हँसी आ गई. उन्होंने तनिक तंज करते हुए कहा, "कहीं थान भी पहना जाता है, क्या?'

दर्जी के चेहरे पर नामालूम दर्द की एक लहर-सी उभरी, मानो सिलाई करते वक्त बेखयाली में अचानक सूई चुभ गई हो, "हुजूर । अब तो चंद पहरावे ही अपने मुल्क में ऐसे बचे हैं, जिन्हें वाकई फ्री साइज कहा जा सके!" दर्जी बाकर अली ने गहरे अफसोस से कहा, '"...मसलन साडी, धोती, कुंठा वगैरह...ऐसा कि सास की साड़ी बहू पहन ले या बाप की धोती बेटा पहन ले, उसके इंतकाल करते ही अपने तमाम विरसे और जिम्मेदारियों के साथ बाप का कुंठा बेटे के सिर पर बंध जाए...अपने यहाँ बिना सिला हुआ पहरावा ही उम्दा और पाक माना जाता है...पूजा-पाठ में ऐसा ही पहनावा मुबारक और मुकद्दस माना जाता है. शायद हुजूर को इल्म हो कि देवी माँ को जो चुनरी और गंगा मैया को जो पियरी चढ़ती है वह भी बिना सिली होती है. हज को जाने वाले हुज्जाज अपने साथ जो एहराम (हाजियों का वस्त्र, वे दो बिन सिली हुई चादरें जिनमें एक बांधी और एक ओढ़ी जाती है) ले जाते हैं वह भी बिन सिला ही होता है. यह उसकी अलामत है कि इंसान अपनी जिंदगी में चाहे जितना और जैसा पहनावा ओढ़ ले, लेकिन कफ़न ही होगा आखिरी पैरहन अपना…कफ़न ही एक ऐसा पहरावा है, जिसके आड़े किसी भी मुल्क और मजहब की दीवारें नहीं जाती" इस शदीद अफसोस से निजात पाने के लिए दर्जी ने जरा-सा दम लिया, फिर बोला, आपके मामले में देर इसलिए हुई कि पहले मैं यह जानकर तसल्ली कर लेना चाहता था कि आप किस तरह के हाकिम हैं... और कितने दिनों से हाकिम हैं?"

कहाँ तो जाए थे गाउन सिलवाने और यहाँ अजीब फैलसूफ़ से पाला पड़ गया. साहब ने तो कभी कपडों के मामले में इस तरह सोचा भी न था, जबकि रोज़ देखते थे रैयतों को धोती-साडी पहनते हुए-बिना सिले कपड़े का इतना इस्तेमाल¡ साहब बुरी तरह चकरा गए, "किस तरह के हाकिम?...और कितने दिनों से हाकिम?"

"जी हां! जाप अभी-जभी हाकिम बने हैं या बहुत पुराने हाकिम हैं या तरक्की करते-करते हाकिम के इस ओहदे तक पहुंचे हैं?"

साहब की त्यौरी चढ़ गईं. ये बौड़म-सी बातें उनकी समझ में न आ रही थीं. उन्होंने हैरानी से पूछा, 'एक अदद नए गाउन की सिलाई से इन सब बकवासों का क्या लेना-देना?"

'बस, इसी बात पर तो गाउन की माप और काट तय होती है, हुजूर!' दर्जी ने निहायत मासूमियत से कहा.

साहब ने आंखें तरेरते हुए कहा, "वह कैसे?"

दर्जी ने ज़वाब दिया, "अगर आप नए-नए हाकिम बने हैं तो दफ्तर में सारे काम बड़ी तेजी से निपटाने पड़ते हैं. अपने यहाँ रिवाज है की तमाम पेचीदा और बहुत दिनों से लटके काम अपने मातहत पर डाल दो. चूंकि नए अफसर को अभी खुद को काम का साबित करने का वक्त होता है और इसी पर उसकी अगली तरक्की मबनी होती है, सो एक तरह से कहें तो उसे खड़े-खड़े सारे काम निपटाने होते हैं. इस हालत में उसके गाउन के आगे की लंबाई ज्यादा और पीछे से कम " होनी चाहिए...क्योंकि नए अफसर के बदन की लंबाई भी सामने से ज्यादा और पीछे से कम होती है. चूंकि नए अफसर को कुर्सी पर बैठते ही लगता है कि दोनों जहान उसकी मुट्ठी में आ गए हैं, सो उसकी रीढ़ की हड्डी यूं तन जाती है मानो फौलाद हो, सो नए हाकिम कुछ ज्यादा ही घमंडी और अक्खड़ हो जाते हैं, वे हर वक्त अपना सिर ऊंचा उठाए रहते हैं, नाक चढाए और छाती फुलाए रहते हैं, सो शरीर के पिछले हिस्से पर मार ज्यादा पड़ने से वह तनिक छोटा पड़ जाता है."

साहब तो काठ की मूरत की तरह दर्जी को देखते रह गए.

वह अपनी रौ में कहता गया, "जो तरक्की करते-करते यानी प्रोमोशन पाकर अफसर बनते हैं, वे हर घाट का पानी पिये होते हैं, हर फटे में उनके पांव कभी न कभी दब चुके होते हैं. अपने से नीचे वालों पर वे जितनी हेकड़ी दिखाते हुए उतान होते हैं, अपने से ऊपर वालों की घुड़की के आगे वे बेचारे उतने ही निहुर भी जाते हैं. ऐसी हालत में उनके गाउन के सामने और पीछे की लंबाई एक बराबर रहनी चाहिए."

अफसरी के बारे में दर्जी के इस अकथ ज्ञान के आगे साहब तो फक पड़ गए थे. चुपचाप उसका चेहरा निहारे जा रहे थे. अब उनसे ख़ड़ा न रहा गया. धम से तिपाई पर बैठ गए.

लेकिन दर्जी अपनी ही धुन में कहता गया, "रही बात पुराने हाकिमों की...तो उनका गाउन एकदम अलग किस्म का होता है. उनको इतनी बार अपने से उँचे और आला अफसरों की डाँट खानी पड़ती है कि वे उनके सामने बराबर झुके रहते हैँ...वह रीढ़ जो कभी फौलादी हुआ करती थी अब टेबिल लैंप के स्टैंड की तरह लचकदार और हर तरफ से मुड़ जाने वाली हो जाती है. चूंकि पुराने हाकिमों के कंधे झुके रहते हैं, गर्दन सामने की ओर लटकी रहती है, ऐसी हालत में उनके गाउन के सामने की लंबाई कम और पीछे की लंबाई बेशी होती है."

दर्जी ने कैची से एक उभरा धागा काटते हुए कहा, "रही बात किसी महकमे के सबसे ऊंचे अफ़सर की...तो उनका साबका अपने मंत्री से पड़ता है. उन्हें मंत्रीजी के अगल-बगल रहना पड़ता है, क्योंकि सिर्फ आलाकमान को छोड़कर मंत्रीं अपने सामने किसी को जगह देते नहीं, उनके पीछे चापलूसों की जमात होती है, सो ऊँचे अफसर को जगह मंत्रियों के अगल-बगल ही मिल पाती है. अब मंत्रियों की सनक और जहल तो बेलगाम होती है, वे कब किसी अफसर को दाएँ झुकने को कह दें और कब किसी को बाएँ, इसका पता उन्हें खुद नहीं रहता. अब मंत्रियों के दबाव और भार को झेल पाना सबके बूते की बात नहीं...यह हाथी को नाव पर चढाकर दरिया पार कराने जैसा मुश्किल होता है. हुजूर! हाथी की रुजूआत (प्रवृत्ति, झुकाव) भी अजीब होती है, जब वह इत्मीनान में होता है तो फकत तीन टांगों पर खडा हो जाता है, इस तरह से वह बारी-बारी से अपनी एक-एक टांग को आराम देता जाता है....अब वह कौन सी टांग कब उठा ले और नाव को किस तरफ झुका दे, कहा नहीं जा सकता...ऐसे में महावत और मल्लाह दोनों की साँसें टंगी रहती हैं ...नाव के तवाजुन के लिए उन्हें भी बार-बार दाएं-बाएं झुकना पड़ता है ... और अपने यहाँ के मंत्री¡ वल्लाह…सरापा सफेद हाथी होते हैं! ऐसी हालत में आला अफ़सर के गाउन में आगे-पीछे की लंबाई पर उतना खयाल नहीं किया जाता. उनके गाउन में घेर बडा रखना होता है, क्योंकि उम्र के उस मुकाम पर पेट भी कुछ आगे निकल आया रहता है, सो आला अफसर के गाउन में दोनों बगल देर सारी चुन्नटें डालनी पड़ती हैं. चुन्नटों से गाउन – तो शानदार बनता है, लेकिन जरा भारी भी हो जाता है. खैर, हाकिमे आला का गाउन ! वह तो बदन की निसबत में भारी होगा ही.' इतना कहकर दर्जी साहब की चौंधिया-सी गई आँखों में झांकते हुए बोला, "अब बताएं, हुजूर ! कि आप इनमें से कौन-सा हाकिम हैं, ताकि मैं उसी के मुताबिक मनमाफिक गाउन सिल सकूँ?"

साहब तो जैसे मंत्रबिद्ध होकर तिपाई से उठे और दर्जी बाकर अली के पहलू में खड़े हो गए. पहले तो कुछ बोला नहीं गया, फिर जरा साहस संजोकर उसके कान में कुछ कहा. शायद अपनी अफसरी की बाबत कुछ बताया.

बाकर अली की आंखें सीप के बटन की तरह चमक उठी, "समझ गया, हुजूर ! अब आपको यहाँ आने की जरूरत नहीं! परसों शाम को ..इसी वक्त पी. ए. साहब को भेज दीजिएगा-आपका गाउन मिल जाएगा-''

शनिवार, 23 मई 2015

राजस्थान की पिछड़ी दबंग जातियोंं का दलितों पर जुल्म

पिछड़े काफी अगड़े है दलित अत्याचार में!

 -भंवर मेघवंशी

लित पिछड़े वर्ग की एकता का राजनीतिक नारा अब भौंथरा पड़ चुका है, क्योंकि विगत एक दशक के दलित उत्पीडन के आंकड़ों पर नज़र डालें तो यह सामने आता है कि दलितों पर सर्वाधिक शारीरिक हिंसा पिछड़े वर्ग की उन दबंग जातियों द्वारा हो रही है, जिन्होंने मंडल कमीशन के लागू होने के बाद राजनतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्रों में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाई है. कालांतर में ये सभी शूद्र पिछड़ी जातियां स्वयं भी सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था में शोषण का शिकार थी तथा देश की आज़ादी से पहले सामंतवाद से बुरी तरह से पीड़ित थी. इनकी स्थिति भी दलितों जैसी ही थी, लेकिन यह जातियां अछूत और भूमिहीन नहीं थी, इसलिए जैसे ही इन्हें मौका मिला, तेजी से आगे बढ़ी और कुछ ही दशकों में इनका खुद का चरित्र सामंती हो गया.

वक्त बदला. हिन्दू धर्म की सामान्य कही जाने वाली जातियों का अत्याचार दलितों पर कम होता गया और उसके स्थान पर कथित पिछड़ों ने अन्याय, अत्याचार और उत्पीडन करने का काम अपने हाथ में ले लिया. राजस्थान के अधिकांश दलित भूमिहीन रहे है, वे अपने परम्परागत कामों से अपनी रोजी रोटी कमाते रहे हैं। जब 1955 में राजस्थान काश्तकारी कानून लागू किया गया, तब दलितों को पहली बार जमीन पर खातेदारी का अधिकार मिला, मगर कानून बनाने वालों को इस बात का डर था कि दलितों को जमीन पर ज्यादा दिनों तक सवर्ण काबिज़ नहीं रहने देंगे, या तो वे उनकी जमीन गिरवी रख लेंगे, या बहुत कम दामों पर उसे खरीद लेंगे अथवा मारपीट कर या डरा धमका कर दलितों की जमीन पर दबंग लोग कब्ज़ा कर लेंगे, इसलिये कमजोर वर्ग की भूमि कोसुरक्षित करने के लिए राजस्थान काश्तकारी अधिनियम की धारा 42 (बी) में यह प्रावधान किया गया कि –“ कोई भी गैर दलित किसी भी दलित की जमीन ना तो गिरवी रख सकता है और ना ही खरीद सकता है” इस सबके बावजूद भी राजस्थान में दलितों की लाखों एकड़ जमीन रिकॉर्ड में दलितों के नाम पर दर्ज है और उस पर काबिज़ सवर्ण हिन्दू है, अगर दलित भूमियों का एक निष्पक्ष सामाजिक अंकेक्षण एवं भौतिक सत्यापन कराया जाये तो पता चलेगा कि दलितों को वास्तविक भूमि अधिकार राजस्थान में आज तक भी नहीं मिल पाया है. एक मोटे अंदाज के अनुसार पूरे राज्य की विभिन्न राजस्व अदालतों में दलितों की जमीन पर गैर दलितों के नाजायज़ कब्ज़े सम्बन्धी तकरीबन 70 हज़ार प्रकरण लंबित है. कई मामलों में फैसले दलितों के पक्ष में आ चुके है, फिर भी प्रशासन की मदद नहीं मिल पाने के कारण दलितों को उनके भू अधिकार नहीं मिल पाए हैं.


राजस्थान के नागोर जिले की मेड़ता तहसील के डांगावास गाँव (जहाँ हाल ही में जमीन को लेकर दलितों का नरसंहार हुआ है ) में भी कई दलितों की जमीन दबंग लोगों ने दबा रखी है. डांगावास में रतना राम मेघवाल की 23 बीघा 5 बिस्वा जमीन भी है, जिस पर गाँव के दबंग जाट परिवार के लोगों की नज़र थी, वे इस जमीन को हडपना चाहते है, उन्होंने दलितों को बताया कि यह जमीन 1964 में ही दलितों से जाटों ने 1500 रुपए में गिरवी रख ली थी, इसलिए इस जमीन के मालिक जाट है. दलितों ने इस बात को मानने से इंकार करते हुए मेड़ता कोर्ट में अपनी जमीन पर जाटों द्वारा नाजायज़ कब्ज़ा करने की कोशिश का केस दर्ज करवा दिया, जो कि विगत 18 वर्षो से लंबित है. वर्ष 2006 मेंउक्त जमीन का विरासत से नामान्तरण रतना राम मेघवाल के नाम पर खुल गया.

इसके बाद से जमीन को लेकर जंग और तेज़ हो गयी. दबंग और बहुसंख्यक जाट, दलितों को सबक सिखाने की फ़िराक में रहने लगे, मामला इस साल तब और पेचीदा हो गया, जब दलितों ने अपनी जमीन पर घर बना कर रहना शुरू कर दिया. जाट समुदाय के लोगों द्वारा दलितों को निरंतर धमकियाँ भी मिल रही थी, इस सम्बन्ध में दलित पक्ष की ओर से मेड़ता थाने में शिकायत भी की गयी, मगर शासन और प्रशासन तथा पुलिस महकमे में सब तरफ जाट समुदाय के ही लोगों का बोलबाला होने के चलते दलितों की सुनवाई ही नहीं की गयी.

अंततः 14 मई2015 का वह मनहूस दिन आ गया, जब जाट जाति की उग्र भीड़ ने तीन दलितों को ट्रेक्टर से कुचल कर मार डाला तथा 14 अन्य लोगों के हाथ पांव तोड़ दिये, महिलाओं के साथ यौन हिंसा की गयी, ज्यादती के बाद उनके गुप्तांगों में लकड़ियाँ घुसेड़ दी गयी, मारे गए लोगों में पोकर राम नामक मजदूर नेता भी था, जो गुजरात में मजदूर हकों के लिए लड़ने में सदैव अग्रणी रहा तथा उसने वहां असंगठित श्रमिकों की यूनियन बनाई. रतना राम, पोकर राम तथा पांचाराम की हत्या बहुत ही निर्मम तरीके से की गयी, पहले उन्हें ट्रेक्टरों से कुचला गया और बाद में उनके आँखों में जलती हुयी लकड़ियाँ डाल कर उनकी ऑंखें फोड़ी गयी, पांव चीर दिये गए और लिंग खींच लिए गए. अमानवीयता की हद कर दी गयी. एक पूर्वनियोजित साजिश के तहत सुबह डांगावास गाँव में गैरकानूनी तरीके से पंचायत बुलाई गयी और बाद में भीड़ ट्रेक्टरों एवं मोटर साईकलों पर सवार हो कर दलितों द्वारा खेत पर बनाये गए मकान पर पंहुची तथा वहाँ पर इस नरसंहार को अंजाम दिया. अब तक की मीडिया रिपोर्ट्स तथा पुलिस तथा प्रशासन से मिली सूचनाओं के मुताबिक यह जमीन के लिए दो जातियों के मध्य हुयी ख़ूनी जंग थी, जिस में दूसरे पक्ष का भी एक व्यक्ति दलितों द्वारा शुरूआती तौर पर की गयी फायरिंग में मारा गया.

प्रचलित कहानी के मुताबिक रामपाल गोस्वामी नामक शख्स की गोली लगने से हुयी मौत के बाद भीड़ बेकाबू हो गयी तथा उन्होंने दलितों को कुचल कुचल कर मार डाला. लेकिन दलित समुदाय के घायल पीड़ित, जो कि जवाहर लाल नेहरु हॉस्पिटल अजमेर में उपचाररत है, उनका कहना है कि –‘दलितों के पास बन्दूक होना तो दूर की बात है, अगर हमारे पास लाठियां भी होती तो हम आत्मरक्षा का प्रयास कर सकते थे, मगर हमें सपने में भी आभास नहीं था कि गाँव के जाट इस तरह एकजुट हो कर हम पर हमला कर देंगे, हम कुछ समझ पाते तब तक तो सब कुछ ख़त्म हो गया था ´. मारे गए रतना राम मेघवाल के तीस वर्षीय पुत्र मुन्ना राम मेघवाल का कहना है कि –“ जाटों की उग्र भीड़ ने मुझ पर गोली चलायी थी, लेकिन उसी समय मेरे सिर पर किसी ने लोहे के सरिये से वार कर दिया. इस प्रहार से मैं नीचे गिर पड़ा और गोली भीड़ में शामिल रामपाल गोस्वामी को लगी जिसने वहीँ पर दम तोड़ दिया.” इसका मतलब तो यह हुआ कि दलितों की ओर से गोली बारी हुयी ही नहीं, फिर ऐसी कहानी क्यों प्रचारित की गयी और क्यों 19 दलितों पर रामपाल गोस्वामी की हत्या की झूठी एफ आई आर दर्ज करवाई गयी? क्या यह इस निर्मम नरसंहार के प्रभाव को कम करने की जवाबी कार्यवाही है? या कुछ और?


विगत दो दशक से दलित अत्याचारों के मामलों को करीब से देखने से हुए अनुभवों से मैंने जाना कि अभी भी राजस्थान का दलित इतना सक्षम और दबंग नहीं हो पाया है कि वह गाँव की बहुसंख्यक दबंग कौम पर गोली चलाने की पहल कर सके. मेरी तो स्पष्ट मान्यता रही है कि जब दलित पलट कर वार करना या हथियार उठाना सीख जायेगा तो फिर शायद ही कोई दबंग जाति उस पर जुल्म करेगी. मगर सच्चाई यह है कि डांगावास के दलितों के पास हथियार ही नहीं थे फिर वो चलाते कैसे? अगर दलितों ने गोली चलायी थी तो अब तक उस बन्दूक या रिवाल्वर को पुलिस ने बरामद क्यों नहीं किया? मगर यह एक निर्मम नरसंहार को जायज़ ठहराने के लिए डांगावास के जाटों और वहां के थानाधिकारी नगाराम चोधरी और पुलिस उपाधीक्षक पूना राम डूडी मिलीभगत कर बुनी गयी एक ऐसी कहानी है, जिस पर हर कोई विश्वास करने के लिए बाध्य है. ज्यादातर दलित एवं मानव अधिकार संगठनों का मानना है कि अगर इस झूठी कहानी तथा दलित नरसंहार की पूरी साजिश को उजागर करना है तो पूरा मामला सीबीआई के सुपुर्द किया जाना चाहिए. जिला प्रशासन और पुलिस अधीक्षक द्वारा इसे भुमि विवाद बता कर महज़ जातीय हिंसा कहना भी गलत है. दरअसल यह एक नए प्रकार का सामाजिक आतंकवाद है जिसकी परिणिति जातीय नरसंहार के रूप में सामने आती है, यह बिल्कुल पूर्वनियोजित था तथा इसमें दलितों की ओर से प्रतिरोध स्वरुप कुछ भी नहीं किया गया, सिर्फ मार खाने या मर जाने के अलावा, इसलिए हम देख सकते है कि हमलावर जाट समुदाय के एक भी आदमी को कोई चोट नहीं पंहुची. क्या ऐसा होसकता है कि खूनी जंग में सिर्फ एक ही तरफ के लोग मारे जाये तथा घायल होऔर दूसरा पक्ष पूरी तरह से सुरक्षित बच जाये?

इस भयंकर नरसंहार को अंजाम देने के बाद सोशल मीडिया पर जाट समुदाय के लोगों ने बहुत ही गर्व भरी शर्मनाक टिप्पणियाँ की है, एक छात्र नेता रामरतन अकोदिया, जो स्वयं को समाजसेवक बताता है, उसने इस हत्याकांड के लिए वीर तेजापुत्र जाटों को बधाई देते हुए लिखा कि - उन्होंने सिर पर चढ़े हुए ढेढ़ों (दलितों को अपमानित करने के लिए राजस्थान में इसे एक गाली के रूप में प्रयुक्त किया जाता है ) को सबक सिखाने का बहादुरी भरा काम किया है, ये लोग (दलित ) आरक्षण और एस सी एक्ट की वजह से भारी पड़ रहे थे, इनको ट्रेक्टरों से कुचला गया, इनकी ओरतों को रगड़ रगड़ (बलात्कार कर) कर मारा गया और मर चुके ढेढ़ों की आँखों में जलती हुयी लकड़ियाँ डाली गयी. एक अन्य शीश राम ओला ने फेसबुक पर लिखा कि –‘ढेढ़ों को अपनी औकात में रहना चाहिए, वे जिनकी दया पर जिंदा है, उन्हीं को काटने लग गए है.’

हालाँकि इन दोनों के खिलाफ मेड़ता थाने में मेघवाल समाज के अध्यक्ष जस्सा राम मेघवाल की शिकायत पर मुकदमा दर्ज कर लिया गया है, मगर इस तरह की सैंकड़ों टिप्पणियाँ व्हाटसएप्प, फेसबुक, ट्विट्टर आदि पर की जा रही है, जिसमे जाट समुदाय के लोगों द्वारा किये गए इस जातीय नरसंहार को जायज़ ठहराते हुए उन्हें बधाई दी गयी है. यह सबसे भयानक बात है और चिंताजनक भी, क्योंकि एक सभ्य नागरिक समाज में हत्यारों को नायक बनाए जाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण समय के आगमन की ओर संकेत करता है. “ दूजी मीरा “ कथा संग्रह के लेखक राजस्थान के बहुचर्चित युवा कथाकार संदीप मील, जो कि स्वयं भी जाट परिवार में जन्में है, वे अपनी एक कहानी “एक प्रजाति हुआ करती थी जाट“ में लिखते है कि इस समुदाय को प्यार, लोकतंत्र, विचार और शब्द जैसी चीजों से नफरत है. वे इन सबका गला घोंट देना चाहते है, यहाँ तक कि संदीप मील को भी मार देना चाहते है क्योंकि वह सोचता है. डांगावास की घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए मील कहते है कि आप इस अपराध में शामिल रहे पशुओं को इन्सान समझने की भूल कर रहे हैं, उनमे दया, करुणा नाम की कोई चीज़ बची ही नहीं है. एक संभावनाओं से भरे चर्चित कथाकार का अपने ही समुदाय का यह आकलन चौंकता है.

जाट समुदाय के समझदार, बुद्धिजीवी और न्याय और दया जैसे मानवीय गुणों में यकीन करने वाले लोगों को अपने समुदाय में फैल रही इस मानसिक बीमारी और पशु प्रवृति के बारे में अवश्य चिंतन करना होगा, क्या कारण है कि कालांतर में सामंतवाद के खिलाफ लड़ने वाला कृषक समाज जाट आज ऐसी क्रूरता को या तो चुपचाप देख रहा है या उसकी निर्लज्ज प्रशंसा कर रहा है. यह उस सामंतवाद से भी बुरा है, जिससे उनकी लड़ाई रही है. स्वामी दयानंद सरस्वती के आर्य समाज के साथ जुड़ कर सबसे पहले छुआछूत मिटाने के प्रयास करने तथा सामाजिक सुधारों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला जाट समाज आज अगर मुज्ज्फ्फरपुर दंगों से लेकर डांगावास तक दलितों एवं अल्पसंख्यकों के खून से खेल रहा है और जातिवादी और साम्प्रदायिक गतिविधियों में आगेवान बना डहुआ है, तो इस बारे में चिंता करने का काम जाट नेतृत्वकर्ताओं का ही है. हमारी चिंता का विषय तो यह है कि इस प्रकार की जातीय हिंसा सामुदायिक सौहार्द्र को पलीता लगा सकती है, डांगावास ही नहीं बल्कि कुम्हेर (भरतपुर) में सन 1992 में 36 दलितों को जिंदा जला देने जैसे कृत्यों में भी उग्र जाट समुदाय की भीड़ की ही प्रमुख भूमिका रही है, दक्षिण राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में भी पिछले एक दशक से यही रुझान देखने को मिल रहा है यहाँ के एक दलित कार्यकर्ता गणपत बारेठ ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत भीलवाड़ा के सभी 23 थानों में वर्ष 2003, 04, 05 तथा 2006 में अजा जजा अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज मामलों की सूचनाएं प्राप्त की, जिनका अध्ययन एवं विश्लेषण रिसर्च फॉर पीपुल के शोधकर्ता सौम्या शिवकुमार तथा एरिक केरबार्ट ने किया. “ डीसमल पिक्चर ऑफ़ वाइडस्प्रेड अट्रोसिटिज अगेंस्ट शेडूलड कास्ट एंड ट्राइब्स इन भीलवाड़ा डिस्ट्रिक्स, राजस्थान “ नामक यह रिपोर्ट बताती है –वर्ष 2003 से 2006 तक के चार वर्षों में भीलवाड़ा जिले में 611 कुल दलित अत्याचार प्रकरण दर्ज हुए, जिनका अध्ययन करने से पता चला कि दलित आदिवासियों पर 90 % जुल्म हिन्दू ही करते है, उनमे भी 12 % मामले अकेले जाट समुदाय की ओर से होते है. वर्ष 2003 में यह आंकड़ा 16 % था, इसके बाद के बर्षों में दलितों पर जाटों द्वारा अत्याचार के मामलों में निरंतर वृद्धि ही दर्ज की गयी है, जो कि अत्यंत चिंतनीय सवाल है.

यह देखा गया है कि भीलवाड़ा जिले में दलितों पर जाटों के अत्याचार के 80 % मामले जमीन से जुड़े कारणों से होते है, वहीँ 20 % मामले भेदभाव तथा छुआछूत से सम्बन्धित होते है. जिला मुख्यालय के निकटवर्ती गांवों में
स्थितियां और भी गंभीर पाई गयी है. इन जाट बाहुल्य गांवों में मंदिर प्रवेश, हेंडपंप से पानी लेने, अपने ही घर के बाहर चबूतरे या खाट पर बैठने और दलित दुल्हों के घोड़ी पर सवार हो कर बिंदौली निकालने को लेकर अक्सर हिंसात्मक वारदातें होती है. हाल ही में भीलवाड़ा के नज़दीक ही स्थित देवली नामक गाँव के राजू बलाई नामक दलित युवा को सिर्फ इस बात के लिए बहुत ही बेरहमी से मारा गया, क्योंकि वह ‘ केप्री ‘ पहन कर गाँव में घूम रहा था. इसी तरह मांडल तहसील के दांता धुंवाला गाँव के दलित युवाओं द्वारा अलग से क्रिकेट मैदान बनाये जाने से नाराज जाटों ने ना केवल जेसीबी मशीन लगा कर पूरा मैदान खोद दिया गया बल्कि दलित क्रिकेटरों के साथ भी मारपीट भी की तथा जातिगत गाली गलौज कर इन दलित युवाओं को अपमानित भी किया गया, दोनों ही मामलों की एफ आई आर दर्ज हुयी है, मगर कार्यवाही के नाम पर ढ़ाक के तीन पात वाली स्थिति बनी हुयी है. दलित युवाओं में भारी आक्रोश व्याप्त है, जो कभी भी विस्फोटक रूप ले सकता है. मगर सरकार हर घटना को सामान्य मानकर उस पर लीपापोती करने में लगी हुयी है.

भीलवाड़ा ही नहीं पूरे राज्य में दलितों पर अत्याचार करने में पिछड़े काफी अगड़े साबित हो रहे है. नागोर जिला जिसे अब जाटलेंड भी कहा रहा है, इस जाटलेंड में दलितों पर जाटों की ज्यादती के मामले दिन प्रतिदिन भयावह रूप लेते जा रहे है, हाल ही में इसी जिले के बसवानी गाँव में एक दलित परिवार की झौपड़ी में आग लगा दी गयी, जिसमे एक दलित महिला जिंदा जल कर मौके पर ही मर गयी तथा दो अन्य लोग 80 % जली हुयी अवस्था में जोधपुर हॉस्पिटल में उपचाररत है. नागोर के ही मुन्डासर में एक अन्य दलित महिला को घसीट कर सायलेंसर से दागा गया, लंगोंड गाँव में एक दलित को जिंदा दफ़नाने की घटना हुयी, हिरडोदा में दलित दुल्हे को घोड़ी से उतार कर जान से मारने की कोशिस की गयी. ये तो वो मामले है जो पुलिस तक पंहुचे है और दर्ज हुए है. दर्जनों मामले तो थानों तक आते भी नहीं है, गांवों में आपसी समझाईश अथवा डरा धमका कर वहीँ रफा दफा कर दिये जाते है. डांगावास के डरे सहमे दलितों का कहना है कि –“हमारे गाँव में यह पहला नहीं बल्कि चौथा कांड है. यहाँ जो भी दलित बोलेगा, उसकी मौत निश्चित है, हम सदियों से अन्याय सह रहे है और आगे भी सदियों तक अन्याय सहने के लिए अभिशप्त है. हमारी कोई नहीं सुनता है. सब जगह उन्हीं के लोग है. हक मांगने वाले तो मारे ही जायेंगे, इनके विरुद्ध बोलने वाले भी कोई बच नहीं पाएंगे, हम जानते है कि हमारे लोगों को बहुत बुरी मौत मारा गया है, हमारी बहु बेटियों के साथ भी बहुत बुरा सलूक हुआ है, मगर हम बोल नहीं सकते है, हमें इसी गाँव में रहना है.”

डॉ अम्बेडकर ने कहा था कि भारतीय गाँव अन्याय और उत्पीडन के बुचडखाने है. बाबा साहब आप एकदम सही थे वाकई राजस्थान के हर गाँव से आज जातिगतजुल्म, अन्याय, और उत्पीडन की सड़ांध उठ रही है, इस बदबूदार समाज व्यवस्था में कैसे जिए और इसको बदलने के लिए क्या करें, खास तौर पर तब, जबकि आततायी समुदाय बदलने को तैयार ही ना हो.

(लेखक दलित आदिवासी एवं घुमन्तु समुदायों के प्रश्नों पर राजस्थान में कार्यरत हैं)

शनिवार, 9 मई 2015

क़ायदा-ए-ज़मानत ज़ारी रहे

लमान खान को ताजीराते हिन्द की दफा 304 पार्ट 2 में पाँच साल की सजा हुई। सजा देने वाली अदालत को इस सजा को अपील करने के कानूनी वक्त के दौरान सस्पैंड करने का अधिकार नहीं था। लेकिन सलमान की घुड़साल के घोड़े पहले से दौड़ने को तैयार खड़े थे। वे दौड़े और ऐसा दौड़े कि हाईकोर्ट तक को उसी दिन अन्तरिम जमानत का आर्डर देना पड़ा। अगले दिन अपील पेश हो गयी और उस से अगले दिन अपील के पैसले तक की जमानत का आर्डर भी हो गया। जब हाईकोर्ट जमानत का आर्डर दे तो सेशन कोर्ट की क्या औकात है कि वह टाइम से उठ जाए। उस ने घोड़ों की इज्जत रखी और टाइम के बाद भी रुक कर अन्तरिम जमानत को तस्दीक किया। ऐसा लगा जैसे सलमान की नहीं पूरे देश की अटकी हुई साँसे चलने लगी है, वर्ना न जाने क्या से क्या हो जाता। 
बहुत लोग सोचते होंगे कि ये जमानत क्या चीज है जिस के लिए इत्त्ती जद्दोजहद होती है कि वकील तो वकील पूरे देश का मीडिया लाइव खड़े रहने के लिए अपनी छतरियाँ लगी गाड़ियाँ सलमान के घर से ले कर फिल्म इंडस्ट्री, सेशन कोर्ट, हाईकोर्ट और जेल तक इधर से उधर दौड़ाता रहता है? 
तो सुन लीजिए,  एक जमाना था जब न्याय जमींदार कर दिया करते थे। फिर राज्य थोड़े मजबूत हुए तो जमींदारों की शिकायतें राजा तक जाने लगीं और राजा उन की सुनवाई करने लगा। तब तक जमानत का कोई कायदा नहीं था। जब तक मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता था मुलजिम को जेल में ही रहना पड़ता था। फिर जब मुकदमे बहुत बढ़़ गए और न्याय अकेले राजा के बस का न रहा तो फौजदारी अदालतें कायम हुई। 
दुनिया में अंग्रेजों का सितारा बुलन्द था इस लिए आधुनिक न्याय व्यवस्था का जन्म भी वहीं होना था, सो हुआ। सेशन अदालतें खोली गयीं और उन में न्याय होने लगा। अदालतें मुकदमे की सुनवाई रोज करती थी जब तक कि सारे सबूत सामने न आ जाएँ और मुकदमे का फैसला न हो जाए। इस काम में महिना पन्द्रह दिन लगते थे। जब न्याय होने लगा तो गाँव गुआड़ी के लोग भी अपराधों की शिकायत करने लगे। इस से दूर दराज के इलाकों में न्याय करने की जरूरत पड़ने लगी। पर वहाँ मुकदमे इतने नहीं थे कि सेशन अदालतें खोली जाएँ। 
तरकीब निकाली गयी कि कुछ सेशन अदालतें ऐसी खोली जाएँ जो गाँवों-तहसीलों में जा कर मुकदमों की सुनवााई करें और फैसले करें। जब मुकदमा निपट जाए तो दूसरे गाँव-तहसील जाएँ और मुकदमों की सुनवाई करें। इन्हें सर्किट अदालतें कहा गया। लेकिन सर्किट अदालत तो गाँव-तहसील जब जाती तब जाती थीं, जब उसे फुरसत होती। अब अपराध करने वाला कभी यह नहीं सोचता कि वह पकड़ा जाएगा। इसलिए यह भी नहीं सोचता कि सर्किट अदालत आने के दिनों में ही अपराध किया जाए बाकी समय खाली बैठा जाए। अपराध तो कभी भी हो जाते थे। पुलिस मुलजिम को पकड़ भी लेती थी। लेकिन उन को फैसले तक बन्दी बना कर रखना पड़ता था। यह राज्य के लिए एक नई मुसीबत थी।
पराधी को बन्दी बना कर रखो तो उस के रहने खाने का इन्तजाम राज्य को करना पड़ता। राज्य के कोष में कमी आती। इस का यह रास्ता निकाला गया कि जहाँ अपराध हो वहाँ का शेरिफ यदि यह समझे कि मुलजिम भागेगा नहीं और सर्किट अदालत के आने पर अदालत के सामने हाजिर हो जाएगा तो वह उसे अपनी रिस्क पर छोड़ देता था। शेरिफ का दबदबा इतना था कि मुलजिम इधर से उधर नहीं हो सकता था और हो गया तो शेरिफ को ही यह कवायद करनी पड़ती थी कि उसे कैसे भी अदालत के सामने हाजिर करे। अब शेरिफ ये रिस्क क्यों ले? शेरिफ लोग इस तरह मुलजिमों को आजाद करने से हिचकिचाने लगे। जेलें फिर भरी रहने लगी, राज्य के खजाने को फिर बत्ती लगने लगी। 
फिर नया रास्ता खोजा गया। मुलजिम को आजाद होना हो तो वह इतनी नकदी जमा करा दे जिस से उसे वापस आना ही पड़े। अब मुलजिम नकद जमा कर के आजाद होने लगे। पर मुलजिमों को भी रास्ता मिल गया कि वे नकद राशि जमा कर के किसी दूसरे राज्य में भाग जाएँ तो सजा से हमेशा के लिए छुट्टी मिली। तो वे ऐसा भी करने लगे। मुलजिमों को धन के माध्यम से सजा से मुक्ति मिलने लगी। धन तो आया पर मुलजिमों के भागने से राजा की बदनामी होने लगी।
मुसीबत फिर भी बनी रही। तब यह कायदा बना कि नकदी के बजाए हैसियत वाले लोगों की जमानत क्यों न ली जाए। इस से यह होगा कि किसी को नकदी न जमा करनी पड़ेगी बस एक कांट्रेक्ट होगा और मुलजिम जमानत पर आजाद। यदि वह अदालत में सुनवाई पर हाजिर न हुआ तो जमानतियों को बुला कर उन से जमानत की रकम वसूस कर ली जाएगी। अब जमानती ने अपराध तो किया नहीं जो वह अपनी रकम जब्त कराए। वह जरूर मुलजिम को ढूंढ कर लाएगा। तो इस तरह मौैजूदा जमानत और मुचलके का कायदा चल पड़ा और दुनिया भर में ऐसे फैला जैसे बोद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म भी न फैले।
तो जनाब! ये जमानत का कायदा पैदा ही इस लिए हुआ कि राज्य फौरन न्याय नहीं कर सकता था, ऐसा करना उसे महंगा पड़ता था। मुलजिमों को ज्यादा दिन बंदी नहीें रखा जा सकता था क्यों कि इस पर भी राज्य का खर्चा बढ़ता था। 
धर भारत का हाल ये है कि जितनी अदालतों की जरूरत है उस की बीस फीसदी अदालतें भी वह खोल नहीं पा रहा है। अब सुनवाई में देरी भी होगी और नम्बर भी देर से आएगा। उधर वकीलों का धन्धा इस बात पर निर्भर करने लगा कि जितनी देरी होगी मुलजिम को बरी कराने में उतना ही सुभीता रहेगा। तो उन्हों ने तरह तरह की दर्ख्वास्तों की ईजाद कर डाली और रोज करते हैं जिस से मुकदमे देरी से निपटें।  सुनवाई और फैसलों में देरी होने लगी और जमानत का कानून पक्का ही नहीं हो गया। सुनवाई में देरी के कारण वह मुलजिमों का हक बन गया। 
जमानत के कायदे का फायदा मुजरिम उठाने लगे। अब तो अदालत पर भी उंगलियाँ उठती हैं। ऐसा ही हाल रहा तो कही हाथ भी न उठने लगें। इस का तो एक ही इलाज है वो ये कि इधर मुलजिम गिरफ्तार हो और उधर दस-पन्द्रह दिन में सुनवाई शुरू हो कर दस पन्द्रह दिन में समाप्त हो जाए। जमानत के कायदे की जरूरत ही नहीं पड़े। पर ये कैसे हो? नयी अदालतें खोलने में भी तो नियमित पैसा खर्च होता है। इत्ता पैसा राज्य कहाँ से लाए। फिर मुलजिम लोगों की लॉबी कोई कमजोर थोडे़े ही है, वह इत्ती अदालतें राज को खोलने दे तब ना। आखिर राज पे कब्जा भी तो उन का ही है। तो सुन लो मितरों! ये जमानत का कायदा जारी रहेगा। मुलजिम लोग मजा लेते रहेंगे। टीवी वालों की छतरियाँ सलामत रहेंगी और जनता का मनोरंजन सलामत रहेगा। सोच लो तुम्हें क्या करना है।

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

‘कायर बुद्धिजीवियों’ का देश बन जाने का ख़तरा

हम अन्याय को संस्थाबद्ध करते जा रहे हैं -अरुंधति रॉय



लीजिए, हिंदी में पढ़िये पंकज श्रीवास्तव से  अरुंधति रॉय की ताजा बातचीत। 

 

गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल के दौरान 23 मार्च को मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय से हुई मेरी बातचीत अंग्रेज़ी पाक्षिक “गवर्नेंस नाऊ” में छपी है। लेकिन जब लोग यह जान गये हैं कि यह साक्षात्कार हिंदी में लिया गया था तो सभी मूल ही सुनना-पढ़ना चाहते हैं। इससे साबित होता है कि अपनी भाषा के परिसर में अगर ज्ञान-विज्ञान और विचारों की बगिया लहलहाती हो तो कोई अंग्रेज़ी का मुँह नहीं जोहेगा। इस इंटर्व्यू की करीब 40 मिनट की रिकॉर्डिंग मोबाइल फोन पर है, जिसे फ़ेसबुक पर पोस्ट करना मुश्किल हो रहा है। फ़िलहाल पढ़कर ही काम चलाइये ... पंकज श्रीवास्तव


सवाल----गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में आप दूसरी बार आई हैं। जो शहर गीताप्रेस और गोरखनाथ मंदिर और उसके महंतों की राजनीतिक पकड़ की वजह से जाना जाता है, वहां ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ दस साल का सफ़र पूरा कर रहा है। इसे कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय---दूसरी नहीं, तीसरी बार। एक बार आज़मगढ़ फ़ेस्टिवल में भी जा चुकी हूं। दरअसल, ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो सिर्फ गोरखुपर के लिए अहमियत नहीं रखता। यह वाकई प्रतिरोध है जो सिर्फ जनसहयोग से चल रहा है, वरना प्रतिरोध को भी ‘ब्रैंड’ बना दिया गया है। अमेरिका से लेकर भारत तक, जहाँ भी देखो प्रतिरोध को व्यवस्था में समाहित कर के एक ‘ब्रैंड’ बनाने की कोशिश होती है। जब मैंने ‘एंड आफ इमेजिनेशन’ लिखा था, तो पहला रियेक्शन यह हुआ कि बहुत सारे ब्रैंड्स, जिसमें कुछ जीन्स के भी थे, ने विज्ञापन करने के लिए मुझसे संपर्क किया। यह एक पुराना खेल है। अमेरिका में नागरिकों की जासूसी का खुलासा करने वाले एडवर्ड स्नोडेन के बारे में फ़िल्म बनी है जिसके लिए फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन ने पैसा दिया। ‘फ़्रीडम आफ प्रेस फ़ाउंडेशन’ में भी फ़ोर्ड का पैसा लगा है। ये लोग ‘प्रतिरोध’ की धार पर रेगमाल घिसकर उसे कुंद कर देते हैं। भारत में देखिये, जंतर-मंतर पर जुटने वाली भीड़ का चरित्र बदल गया है। तमाम एनजीओ, फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन जैसी संस्थाओं से पैसा लेकर प्रतिरोध को प्रायोजित करते हैं। ऐसे में गोरखपुर जैसे दक्षिणपंथी प्रभाव वाले शहर में प्रतिरोध के सिनेमा का उत्सव मनाना ख़ासा अहमियत रखता है। मैं सोच रही थी कि आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थायें अक्सर मेरा विरोध करती हैं, प्रदर्शन करती हैं, लेकिन गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल को लेकर ऐसा नहीं हुआ। इसका दो मतलब है। या तो उन्हें इसकी परवाह नहीं। या फिर उन्हें पता है कि इस आयोजन ने गोरखपुर के लोगों के दिल मे जगह बना ली है। मेरे पास इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं है। लेकिन इस शहर में ऐसा आयोजन होना बड़ी बात है। कोई कह रहा था कि इस फ़ेस्टिवल से क्या फ़र्क़ पड़ा। मैं सोच रही थी कि अगर यह नहीं होता तो माहौल और कितना ख़राब होता।

सवाल---आपकी नज़र में आज का भारत कैसा है? मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य क्या बता रहा है ?
अरुंधति रॉय---जब मई 2014 में मोदी की सरकार बनी तो बहुत लोगों को, जिनमें मैं भी थी, यकीन नहीं हुआ कि यह हमारे देश में हुआ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक नजरिये से देखें तो यह होना ही था। 1925 से जब आरएसएस बना, या उससे पहले से ही भारतीय समाज में फ़ासीवादी प्रवृत्तियाँ नज़र आने लगी थीं। ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रम उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में हो रहे थे। यानी इस दौर से गुज़रना ही था। देखना है कि यह सब कितने समय तक जारी रहेगा क्योंकि आजकल बदलाव बहुत तेज़ी से होते हैं। मोदी ने अपने नाम का सूट पहन लिया और अपने आप को एक्सोपज़ कर लिया। अच्छा ही है कि कोई गंभीर विपक्ष नहीं है। ये अपने आपको एक्सपोज़ करके खुद को तोड़ लेंगे। आखिर मूर्खता को कितने दिनों तक बरदाश्त किया जा सकता है। लोगों को शर्म आती है जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी। गणेश के धड़ पर हाथी का सिर ऐसे ही जोड़ा गया था। फ़ासीवाद के साथ लोग ऐसी मूर्खताएं कब तक सहेंगे।
मैं पहले से कहती रही हूं कि जब राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर का ताला खुलवाया तो साथ में ‘बाज़ार’ का ताला भी खोला गया। इसी के साथ दो क़िस्म के कट्टरपंथ को खड़ा किया गया। एक इस्लामी आतंकवाद और दूसरा माओवाद। इनसे लड़ने के नाम पर ‘राज्य’ ने अपना सैन्यीकरण किया। कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ने इस रास्ते को अपनाया क्योंकि नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ, बिना सैन्यीकरण के लागू नहीं हो सकतीं। इसीलिए जम्मू-कश्मीर में पुलिस, सेना की तरह काम करती है और छत्तीसगढ़ में सेना, पुलिस की भूमिका में है। यह जो ख़ुफिया निगरानी, यूआईडी, आधार-कार्ड वगैरह की बातें हैं, यह सब उसी का हिस्सा हैं। अदृश्य जनसंख्या को नज़र में लाना है। यानी एक-एक आदमी की सारी जानकारी रखनी है। जंगल के आदिवासियों से पूछा जाएगा कि उनकी ज़मीन का रिकार्ड कहां है। नहीं है, तो कहा जाएगा कि ज़मीन तुम्हारी नहीं है। डिजिटलीकरण का मकसद “अदृश्य” को “दृश्य” बनाना है। इस प्रक्रिया में बहुत लोग गायब हो जाएंगे। इसमें आईएमएफ़, वर्ल्ड बैंक से लेकर फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन तक, सब मिले हैं। वे क़ानून के राज पर खूब ज़ोर देते हैं और क़ानून बनाने का हक़ अपने पास रखना चाहते हैं। ये संस्थायें सबसे ज़्यादा ग़ैरपारदर्शी ढंग से काम करती हैं, लेकिन इन्हें अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए आंकड़ों की पारदर्शी व्यवस्था चाहिए। इसीलिए वे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की मदद करते हैं। फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन एक नया पाठ्यक्र गढ़ने में जुटा है। वह चाहता है कि पूरी दुनिया एक ही तरह की भाषा बोले। वह हर तरह के क्रांतिकारी विचारों, वाम विचारों को खत्म करने, नौजवानों की कल्पनाओं को सीमित करने में जुटा है। फिल्मों, साहित्यिक उत्सवों और अकादमिक क्षेत्र में कब्ज़ा करके शोषण मुक्त दुनिया और उसके लिए संघर्ष के विचार को पाठ्यक्रमों से बाहर किया जा रहा है।


सवाल--- आपको हालात को बदलने की कोई मज़बूत जद्दोजहद नज़र आती है क्या.. भविष्य कैसा लग रहा है?
अरुंधति रॉय--- प्रतिरोध आंदोलन या क्रांति, जो भी शब्द इस्तेमाल कीजिये, उसे पिछले कुछ वर्षों में काफी धक्का लगा है। 1968-70 में जब नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ, या तमाम सीमाओं के बावजूद जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के दौर की माँगों पर जरा ग़ौर कीजिये। तब माँग थी- “न्याय”। जैसे ज़मीन जोतने वाली की हो या संपत्ति का समान वितरण हो। लेकिन आज जो माओवादी सबसे “रेडिकल” कहलाते हैं, वे बस यही तो कह रहे हैं कि जो ज़मीन आदिवासियों के पास है, उसे छीना ना जाये। ‘नर्मदा आंदोलन’ की माँग है कि विस्थापन न हो। यानी जिसके पास जो है, उससे वह छीना न जाये। लेकिन जिनके पास कुछ नहीं है, जैसे दलितों के पास ज़मीन नहीं है, उनके लिए ज़मीन तो कोई नहीं मांग रहा है। यानी ‘न्याय’ का विचार को दरकिनार कर मानवाधिकार के विचार को अहम बना दिया गया है। यह बड़ा बदलाव है। आप मानवाधिकार के नाम पर माओवादियों से लेकर सरकार तक को, एक स्वर में कोस सकते हैं। कह सकते हैं कि दोनों ही मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। जबकि ‘अन्याय’ पर बात होगी तो इसके पीछे की राजनीति पर भी बात करनी पड़ेगी।
कुल मिलाकर यह इमेजनिशन (कल्पना) पर हमला है। सिखाया जा रहा है कि ‘क्रांति’ यूटोपियन विचार है, मूर्खता है। छोटे सवाल बड़े बन रहे हैं जबकि बड़ा सवाल गायब है। जो सिस्टम के बाहर हैं, उनकी कोई राजनीति नहीं है। तमाम ख़्वाब टूटे पड़े हैं। राज्य, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हाथ का उपकरण बना हुआ है। दुनिया की अर्थव्यवस्था एक अंतरराष्ट्रीय पाइपलाइन की तरह है जिसके लिए सरहदें बेमानी हो गयी हैं।


सवाल---- तो क्या प्रतिरोध की ताकतों ने समर्पण कर दिया है, ‘इमेजनिशेन’ की इस लड़ाई में?
अरुंधति रॉय---मेरे ख़्याल में, वे बहुत कमज़ोर स्थिति में हैं। जो सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं, वे सोच ही नहीं पा रहे हैं। ‘राज्य’ लड़ाई को इतना थकाऊ बना देता है कि अवधारणा के स्तर पर सोचना मुश्किल हो जाता है। यहाँ तक कि अदालतें भी थका देती हैं। हर तरह से कोशिश करके लोग हार जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर देश में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो मानती हो कि उसका काम लोगों की मदद करना है। उन्हें लगता है कि उनका काम “नियंत्रण” करना है। न्याय कल्पना से बाहर की चीज होती जा रही है। 28 साल बाद हाशिमपुरा हत्याकांड का फैसला आया। सारे मुल्ज़िम छोड़ दिये गये। वैसे इतने दिन बाद किसी को सजा होती भी तो अन्याय ही कहलाता।


सवाल------ आपने गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए गाँधी जी को पहला “कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ” करार दिया है। इस पर ख़ूब हंगामा भी हुआ। आपकी बात का आधार क्या है?
अरुंधति रॉय---आजादी के इतने सालों बाद हममे इतना साहस होना चाहिए कि तथ्यों के आधार पर राय बना सकें। मैंने गांधी को पहला कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ कहा है तो उसके प्रमाण हैं। उन्हें शुरू से ही पूँजीपतियों ने कैसे मदद की, यह सब इतिहास का हिस्सा है। उन्होंने गाँधी की ख़ास मसीहाई छवि गढ़ने में ताकत लगाई। लेकिन खुद गाँधी का लेखन पढ़ने से सबकुछ साफ हो जाता है। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी के कामकाज के बारे में हमें बहुत गलत पढ़ाया जाता है। हमें बताया गया कि वे ट्रेन के डिब्बे से बाहर निकाले गये जिसके ख़िलाफ उन्होंने संघर्ष शुरू किया। यह ग़लत है। गाँधी ने वहाँ कभी बराबरी के विचार का समर्थन नहीं किया। बल्कि भारतीयों को अफ्रीकी काले लोगों से श्रेष्ठ बताते हुए विशिष्ट अधिकारों की मांग की। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी का पहला संघर्ष डरबन डाकखाने में भारतीयों के प्रवेश के लिए अलग दरवाज़ा खोलने के लिए था। उन्होंने कहा कि अफ्रीकी काले लोग और भारतीय एक ही दरवाजे से कैसे जा सकते हैं। भारतीय उनसे श्रेष्ठ हैं। उन्होंने बोअर युद्ध में अंग्रेजों का खुलकर साथ दिया और इसे भारतीयों का कर्तव्य बताया। यह सब खुद गाँधी ने लिखा है। दक्षिण अफ्रीका में उनकी ‘सेवाओं’ से ख़ुश होकर ही अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें क़ैसर-ए-हिंद के ख़िताब से नवाज़ा था। 

सवाल---- आप आजकल गाँधी और अंबेडकर की बहस को नये सिरे से उठा रही हैं। आपके निबंध ‘डॉक्टर एंड द सेंट’ पर भी काफी विवाद हुआ था।
अरुंधति रॉय---यह जटिल विषय है। मैंने इस पर बहुत विस्तार से लिखा है और चाहती हूँ कि लोग पढ़कर समझें। इसकी बुनियाद डॉ.अंबेडकर और गाँधी की वैचारिक टकराहट है। अंबेडकर शुरू से सवाल उठा रहे थे कि हम कैसी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन गाँधी जाति व्यवस्था की कभी आलोचना नहीं करते, जो गैरबराबरी वाले समाज का इंजन है। वे सिर्फ यह कहकर रुक जाते हैं कि सबके साथ अच्छा व्यवहार होना चाहिए। उन्होंने जाति व्यवस्था को हिंदू समाज का महानतम उपहार बताया। यह सब उन्होंने ख़ुद लिखा है। मैं कोई अपनी व्याख्या नहीं कर रही हूँ। जबकि अंबेडकर लगातार जाति उत्पीड़न और संभावित आज़ादी के स्वरूप का सवाल उठा रहे थे। पूना पैक्ट से पहले गाँधी ने जो भूख हड़ताल की, उसका नतीजा आज भी देश को प्रभावित करता है। हम यह सवाल क्यों नहीं उठा सकते कि क्या सही है और क्या गलत। भारत सरकार की सहायता से रिचर्ड एटनबरो न जो ‘गाँधी’ फ़िल्म बनाई उसमें अंबेडकर का छोटा सा रोल भी नहीं है, जो उनके सबसे प्रभावी आलोचक हैं। अगर हम इतने साल बाद भी बौद्धिक जांच-परख से कतराते हैं तो फिर हम बौने लोग ही हैं। अंबेडकर और गाँधी की बहस बेहद गंभीर विषय है।
वारण्ट अधिकारी एम के गांधी

सवाल--- भगत सिंह और उनके साथियों के भी गाँधी से तमाम मतभेद थे, लेकिन उन्होंने भी कहा था कि भाग्यवाद जैसी तमाम चीज़ों के समर्थन के बावजूद गांधी ने जिस तरह देश को जगाया है, उसका श्रेय उन्हें न देना कृतघ्नता होगी।
अरुंधति रॉय---अब बात शुक्रगुज़ार होने या ना होने से बहुत आगे बढ़ गयी। यह ठीक है कि गाँधी ने आधुनिक औद्योगिक समाज में अंतर्निहित नाश के बीजों की पहचान कर ली थी जो शायद अंबेडकर नहीं कर पाये थे। गाँधी की आलोचना का यह अर्थ भी नहीं है कि गाँधीवादियों से कोई विरोध है। या उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में कुछ नहीं किया। नर्मदा आंदोलन का तर्क बहुत गंभीर और प्रभावी रहा है, लेकिन सोचना होगा कि वह सफल क्यों नहीं हुआ। आंदोलनों के हिंसक और अहिंसक स्वरूप की बात भी बेमानी है। यह सिर्फ़ पत्रकारों और अकादमिक क्षेत्र की बहस का मसला है। जहां हज़ारों सुरक्षाकर्मियों के साये में बलात्कार होते हों, वहां हिंसा और अहिंसा कोई मायने नहीं रखती। वैसे, अहिंसा के “पोलिटकल थियेटर” के लिए दर्शकवर्ग बहुत ज़रूरी होता है। लेकिन जहां कैमरे नहीं पहुंच सकते, जैसे छत्तीसगढ़, वहां इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
हमें अंबेडकर या गाँधी को भगवान नहीं इंसान मानकर ठंडे दिमाग से समय और संदर्भ को समझते हुए उनके विचारों को कसौटी पर कसना होगा। लेकिन हमारे देश में यह हाल हो गया कि आप कुछ बोल ही नहीं सकते। न इसके बारे में न उसके बारे में। सेंसर बोर्ड सरकार में नहीं सड़क पर है। नारीवादियों को भी समस्या है है, दलित समूहों को भी है। लेफ्ट को भी है और दक्षिणपंथियों को भी। खतरा है कि हम कहीं “बौद्धिक कायरों” का देश ना बन जायें।


सवाल--- आपने पूँजीवाद और जातिप्रथा से एक साथ लड़ने की बात कही है, लेकिन इधर दलित बुद्धिजीवी अपने समाज में पूँजीपति पैदा करने की बात कर रहे हैं। साथ ही, जाति को खत्म न करके अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश पर भी ज़ोर है। जाति को ‘वोट की ताकत’ में बदला जा रहा है। अंबेडकरवादियों के इस रुख को कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय----यह स्वाभाविक है। जब हर तरफ ऐसा ही माहौल है तो इन्हें कैसे रोक सकते हैं। जैसे कुछ बुद्धजीवी लोग कश्मीर में जाकर कहते हैं कि राष्ट्रवाद बड़ी खराब चीज़ है। भाई, पहले अपने घर में तो समझाओ। दलित मौजूदा व्यवस्था में अपने लिए थोड़ी सी जगह खोज रहे हैं। सिस्टम भी उनका इस्तेमाल कर रहा है। मैंने पहले भी कहा है ‘दलित स्टडीज’ हो रही है। अध्ययन किया जा रहा है कि म्युनिस्पलटी में कितने बाल्मीकि हैं, लेकिन ऊपर कोई नहीं देखता । कोई इस बात का अध्ययन क्यों नहीं करता कि कारपोरेट कंपनियों पर बनियों और मारवाड़ियों का किस कदर कब्ज़ा है। जातिवाद के मिश्रण नें पूँजीवाद के स्वरूप को और जहरीला कर दिया है।

सवाल-- कहीं कोई उम्मीद नज़र आती है आपको?
अरुंधति रॉय----मुझे लगता है कि अभी दुनिया की जो स्थिति है, वह किसी एक व्यक्ति के फैसले का नतीजा नहीं हैं। हजारों फैसलों की शृंखला है। फैसले कुछ और भी हो सकते थे। इसलिए तमाम छोटी-छोटी लड़ाइयों का महत्व है। छत्तीसगढ़, झारखंड और बस्तर मे जो लड़ाइयाँ चल रही हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। बड़े बाँधों के खिलाफ लड़ाई ज़रूरी है। साथ ही जीत भी ज़रूरी है ताकि ‘इमेजिनेशन’ को बदला जा सके। अभी भी एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसके ख़्वाब ख़्त्म नहीं हुए हैं। वह अभी भी परिवर्तन की कल्पना पर यकीन करती है।

चलते-चलते
सवाल- दिल्ली के निर्भया कांड पर बनी बीबीसी की डाक्यूमेंट्री ‘इंडियाज डॉटर’ पर प्रतिबंध लगा। आपकी राय?
अरुंधति रॉय--
जितनी भी खराब फिल्म हो, चाहे घृणा फैलाती हो, मैं बैन के पक्ष में नहीं हूं। बैन की मांग करना सरकार के हाथ में हथियार थमाना है। इसका इस्तेमाल आम लोगों की अभिव्यक्ति के खिलाफ ही होगा।


सवाल---मोदी सरकार ने अच्छे दिनों का नारा दिया था। क्या कहेंगी?

अरुंधति रॉय---अमीरों के अच्छे दिन आये हैं। छीनने वालों के अच्छे दिन आये हैं। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश सबूत है।


सवाल----आपके आलोचक कहते हैं कि गांधी अब तक आरएसएस के निशाने पर थे। अब आप भी उसी सुर में बोल रही हैं।
पंकज श्रीवास्तव
अरुंधति रॉय--आरएसएस गांधी की आलोचना सांप्रदायिक नज़रिये से करता है। आरएसएस स्वघोषित फ़ासीवादी संगठन है जो हिटलर और मुसोलिनी का समर्थन करता है। मेरी आलोचना का आधार गाँधी के ऐसे विचार हैं जिनसे दलितों और मजदूर वर्ग को नुकसान हुआ।

सवाल----दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार के बारे में क्या राय है?
अरुंधति रॉय---जब दिल्ली विधानसभा चुनाव का नतीजा आया तो मैं भी खुश हुई कि मोदी के फ़ासीवादी अभियान की हवा निकल गयी। लेकिन सरकार के काम पर कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। सिर्फ भ्रष्टाचार की बात नहीं है। देखना है कि दूसरे तमाम ज़रूरी मुद्दों पर पार्टी क्या स्टैंड लेती है।

सवाल---आजकल क्या लिख रही हैं..?
अरुंधति रॉय--एक उपन्यास पर काम कर रही हूँ। ज़ाहिर है यह दूसरा ‘गॉड आफ स्माल थिंग्स’ नहीं होगा। लिख रही हूँ, कुछ अलग।