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शनिवार, 23 मई 2015

राजस्थान की पिछड़ी दबंग जातियोंं का दलितों पर जुल्म

पिछड़े काफी अगड़े है दलित अत्याचार में!

 -भंवर मेघवंशी

लित पिछड़े वर्ग की एकता का राजनीतिक नारा अब भौंथरा पड़ चुका है, क्योंकि विगत एक दशक के दलित उत्पीडन के आंकड़ों पर नज़र डालें तो यह सामने आता है कि दलितों पर सर्वाधिक शारीरिक हिंसा पिछड़े वर्ग की उन दबंग जातियों द्वारा हो रही है, जिन्होंने मंडल कमीशन के लागू होने के बाद राजनतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्रों में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाई है. कालांतर में ये सभी शूद्र पिछड़ी जातियां स्वयं भी सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था में शोषण का शिकार थी तथा देश की आज़ादी से पहले सामंतवाद से बुरी तरह से पीड़ित थी. इनकी स्थिति भी दलितों जैसी ही थी, लेकिन यह जातियां अछूत और भूमिहीन नहीं थी, इसलिए जैसे ही इन्हें मौका मिला, तेजी से आगे बढ़ी और कुछ ही दशकों में इनका खुद का चरित्र सामंती हो गया.

वक्त बदला. हिन्दू धर्म की सामान्य कही जाने वाली जातियों का अत्याचार दलितों पर कम होता गया और उसके स्थान पर कथित पिछड़ों ने अन्याय, अत्याचार और उत्पीडन करने का काम अपने हाथ में ले लिया. राजस्थान के अधिकांश दलित भूमिहीन रहे है, वे अपने परम्परागत कामों से अपनी रोजी रोटी कमाते रहे हैं। जब 1955 में राजस्थान काश्तकारी कानून लागू किया गया, तब दलितों को पहली बार जमीन पर खातेदारी का अधिकार मिला, मगर कानून बनाने वालों को इस बात का डर था कि दलितों को जमीन पर ज्यादा दिनों तक सवर्ण काबिज़ नहीं रहने देंगे, या तो वे उनकी जमीन गिरवी रख लेंगे, या बहुत कम दामों पर उसे खरीद लेंगे अथवा मारपीट कर या डरा धमका कर दलितों की जमीन पर दबंग लोग कब्ज़ा कर लेंगे, इसलिये कमजोर वर्ग की भूमि कोसुरक्षित करने के लिए राजस्थान काश्तकारी अधिनियम की धारा 42 (बी) में यह प्रावधान किया गया कि –“ कोई भी गैर दलित किसी भी दलित की जमीन ना तो गिरवी रख सकता है और ना ही खरीद सकता है” इस सबके बावजूद भी राजस्थान में दलितों की लाखों एकड़ जमीन रिकॉर्ड में दलितों के नाम पर दर्ज है और उस पर काबिज़ सवर्ण हिन्दू है, अगर दलित भूमियों का एक निष्पक्ष सामाजिक अंकेक्षण एवं भौतिक सत्यापन कराया जाये तो पता चलेगा कि दलितों को वास्तविक भूमि अधिकार राजस्थान में आज तक भी नहीं मिल पाया है. एक मोटे अंदाज के अनुसार पूरे राज्य की विभिन्न राजस्व अदालतों में दलितों की जमीन पर गैर दलितों के नाजायज़ कब्ज़े सम्बन्धी तकरीबन 70 हज़ार प्रकरण लंबित है. कई मामलों में फैसले दलितों के पक्ष में आ चुके है, फिर भी प्रशासन की मदद नहीं मिल पाने के कारण दलितों को उनके भू अधिकार नहीं मिल पाए हैं.


राजस्थान के नागोर जिले की मेड़ता तहसील के डांगावास गाँव (जहाँ हाल ही में जमीन को लेकर दलितों का नरसंहार हुआ है ) में भी कई दलितों की जमीन दबंग लोगों ने दबा रखी है. डांगावास में रतना राम मेघवाल की 23 बीघा 5 बिस्वा जमीन भी है, जिस पर गाँव के दबंग जाट परिवार के लोगों की नज़र थी, वे इस जमीन को हडपना चाहते है, उन्होंने दलितों को बताया कि यह जमीन 1964 में ही दलितों से जाटों ने 1500 रुपए में गिरवी रख ली थी, इसलिए इस जमीन के मालिक जाट है. दलितों ने इस बात को मानने से इंकार करते हुए मेड़ता कोर्ट में अपनी जमीन पर जाटों द्वारा नाजायज़ कब्ज़ा करने की कोशिश का केस दर्ज करवा दिया, जो कि विगत 18 वर्षो से लंबित है. वर्ष 2006 मेंउक्त जमीन का विरासत से नामान्तरण रतना राम मेघवाल के नाम पर खुल गया.

इसके बाद से जमीन को लेकर जंग और तेज़ हो गयी. दबंग और बहुसंख्यक जाट, दलितों को सबक सिखाने की फ़िराक में रहने लगे, मामला इस साल तब और पेचीदा हो गया, जब दलितों ने अपनी जमीन पर घर बना कर रहना शुरू कर दिया. जाट समुदाय के लोगों द्वारा दलितों को निरंतर धमकियाँ भी मिल रही थी, इस सम्बन्ध में दलित पक्ष की ओर से मेड़ता थाने में शिकायत भी की गयी, मगर शासन और प्रशासन तथा पुलिस महकमे में सब तरफ जाट समुदाय के ही लोगों का बोलबाला होने के चलते दलितों की सुनवाई ही नहीं की गयी.

अंततः 14 मई2015 का वह मनहूस दिन आ गया, जब जाट जाति की उग्र भीड़ ने तीन दलितों को ट्रेक्टर से कुचल कर मार डाला तथा 14 अन्य लोगों के हाथ पांव तोड़ दिये, महिलाओं के साथ यौन हिंसा की गयी, ज्यादती के बाद उनके गुप्तांगों में लकड़ियाँ घुसेड़ दी गयी, मारे गए लोगों में पोकर राम नामक मजदूर नेता भी था, जो गुजरात में मजदूर हकों के लिए लड़ने में सदैव अग्रणी रहा तथा उसने वहां असंगठित श्रमिकों की यूनियन बनाई. रतना राम, पोकर राम तथा पांचाराम की हत्या बहुत ही निर्मम तरीके से की गयी, पहले उन्हें ट्रेक्टरों से कुचला गया और बाद में उनके आँखों में जलती हुयी लकड़ियाँ डाल कर उनकी ऑंखें फोड़ी गयी, पांव चीर दिये गए और लिंग खींच लिए गए. अमानवीयता की हद कर दी गयी. एक पूर्वनियोजित साजिश के तहत सुबह डांगावास गाँव में गैरकानूनी तरीके से पंचायत बुलाई गयी और बाद में भीड़ ट्रेक्टरों एवं मोटर साईकलों पर सवार हो कर दलितों द्वारा खेत पर बनाये गए मकान पर पंहुची तथा वहाँ पर इस नरसंहार को अंजाम दिया. अब तक की मीडिया रिपोर्ट्स तथा पुलिस तथा प्रशासन से मिली सूचनाओं के मुताबिक यह जमीन के लिए दो जातियों के मध्य हुयी ख़ूनी जंग थी, जिस में दूसरे पक्ष का भी एक व्यक्ति दलितों द्वारा शुरूआती तौर पर की गयी फायरिंग में मारा गया.

प्रचलित कहानी के मुताबिक रामपाल गोस्वामी नामक शख्स की गोली लगने से हुयी मौत के बाद भीड़ बेकाबू हो गयी तथा उन्होंने दलितों को कुचल कुचल कर मार डाला. लेकिन दलित समुदाय के घायल पीड़ित, जो कि जवाहर लाल नेहरु हॉस्पिटल अजमेर में उपचाररत है, उनका कहना है कि –‘दलितों के पास बन्दूक होना तो दूर की बात है, अगर हमारे पास लाठियां भी होती तो हम आत्मरक्षा का प्रयास कर सकते थे, मगर हमें सपने में भी आभास नहीं था कि गाँव के जाट इस तरह एकजुट हो कर हम पर हमला कर देंगे, हम कुछ समझ पाते तब तक तो सब कुछ ख़त्म हो गया था ´. मारे गए रतना राम मेघवाल के तीस वर्षीय पुत्र मुन्ना राम मेघवाल का कहना है कि –“ जाटों की उग्र भीड़ ने मुझ पर गोली चलायी थी, लेकिन उसी समय मेरे सिर पर किसी ने लोहे के सरिये से वार कर दिया. इस प्रहार से मैं नीचे गिर पड़ा और गोली भीड़ में शामिल रामपाल गोस्वामी को लगी जिसने वहीँ पर दम तोड़ दिया.” इसका मतलब तो यह हुआ कि दलितों की ओर से गोली बारी हुयी ही नहीं, फिर ऐसी कहानी क्यों प्रचारित की गयी और क्यों 19 दलितों पर रामपाल गोस्वामी की हत्या की झूठी एफ आई आर दर्ज करवाई गयी? क्या यह इस निर्मम नरसंहार के प्रभाव को कम करने की जवाबी कार्यवाही है? या कुछ और?


विगत दो दशक से दलित अत्याचारों के मामलों को करीब से देखने से हुए अनुभवों से मैंने जाना कि अभी भी राजस्थान का दलित इतना सक्षम और दबंग नहीं हो पाया है कि वह गाँव की बहुसंख्यक दबंग कौम पर गोली चलाने की पहल कर सके. मेरी तो स्पष्ट मान्यता रही है कि जब दलित पलट कर वार करना या हथियार उठाना सीख जायेगा तो फिर शायद ही कोई दबंग जाति उस पर जुल्म करेगी. मगर सच्चाई यह है कि डांगावास के दलितों के पास हथियार ही नहीं थे फिर वो चलाते कैसे? अगर दलितों ने गोली चलायी थी तो अब तक उस बन्दूक या रिवाल्वर को पुलिस ने बरामद क्यों नहीं किया? मगर यह एक निर्मम नरसंहार को जायज़ ठहराने के लिए डांगावास के जाटों और वहां के थानाधिकारी नगाराम चोधरी और पुलिस उपाधीक्षक पूना राम डूडी मिलीभगत कर बुनी गयी एक ऐसी कहानी है, जिस पर हर कोई विश्वास करने के लिए बाध्य है. ज्यादातर दलित एवं मानव अधिकार संगठनों का मानना है कि अगर इस झूठी कहानी तथा दलित नरसंहार की पूरी साजिश को उजागर करना है तो पूरा मामला सीबीआई के सुपुर्द किया जाना चाहिए. जिला प्रशासन और पुलिस अधीक्षक द्वारा इसे भुमि विवाद बता कर महज़ जातीय हिंसा कहना भी गलत है. दरअसल यह एक नए प्रकार का सामाजिक आतंकवाद है जिसकी परिणिति जातीय नरसंहार के रूप में सामने आती है, यह बिल्कुल पूर्वनियोजित था तथा इसमें दलितों की ओर से प्रतिरोध स्वरुप कुछ भी नहीं किया गया, सिर्फ मार खाने या मर जाने के अलावा, इसलिए हम देख सकते है कि हमलावर जाट समुदाय के एक भी आदमी को कोई चोट नहीं पंहुची. क्या ऐसा होसकता है कि खूनी जंग में सिर्फ एक ही तरफ के लोग मारे जाये तथा घायल होऔर दूसरा पक्ष पूरी तरह से सुरक्षित बच जाये?

इस भयंकर नरसंहार को अंजाम देने के बाद सोशल मीडिया पर जाट समुदाय के लोगों ने बहुत ही गर्व भरी शर्मनाक टिप्पणियाँ की है, एक छात्र नेता रामरतन अकोदिया, जो स्वयं को समाजसेवक बताता है, उसने इस हत्याकांड के लिए वीर तेजापुत्र जाटों को बधाई देते हुए लिखा कि - उन्होंने सिर पर चढ़े हुए ढेढ़ों (दलितों को अपमानित करने के लिए राजस्थान में इसे एक गाली के रूप में प्रयुक्त किया जाता है ) को सबक सिखाने का बहादुरी भरा काम किया है, ये लोग (दलित ) आरक्षण और एस सी एक्ट की वजह से भारी पड़ रहे थे, इनको ट्रेक्टरों से कुचला गया, इनकी ओरतों को रगड़ रगड़ (बलात्कार कर) कर मारा गया और मर चुके ढेढ़ों की आँखों में जलती हुयी लकड़ियाँ डाली गयी. एक अन्य शीश राम ओला ने फेसबुक पर लिखा कि –‘ढेढ़ों को अपनी औकात में रहना चाहिए, वे जिनकी दया पर जिंदा है, उन्हीं को काटने लग गए है.’

हालाँकि इन दोनों के खिलाफ मेड़ता थाने में मेघवाल समाज के अध्यक्ष जस्सा राम मेघवाल की शिकायत पर मुकदमा दर्ज कर लिया गया है, मगर इस तरह की सैंकड़ों टिप्पणियाँ व्हाटसएप्प, फेसबुक, ट्विट्टर आदि पर की जा रही है, जिसमे जाट समुदाय के लोगों द्वारा किये गए इस जातीय नरसंहार को जायज़ ठहराते हुए उन्हें बधाई दी गयी है. यह सबसे भयानक बात है और चिंताजनक भी, क्योंकि एक सभ्य नागरिक समाज में हत्यारों को नायक बनाए जाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण समय के आगमन की ओर संकेत करता है. “ दूजी मीरा “ कथा संग्रह के लेखक राजस्थान के बहुचर्चित युवा कथाकार संदीप मील, जो कि स्वयं भी जाट परिवार में जन्में है, वे अपनी एक कहानी “एक प्रजाति हुआ करती थी जाट“ में लिखते है कि इस समुदाय को प्यार, लोकतंत्र, विचार और शब्द जैसी चीजों से नफरत है. वे इन सबका गला घोंट देना चाहते है, यहाँ तक कि संदीप मील को भी मार देना चाहते है क्योंकि वह सोचता है. डांगावास की घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए मील कहते है कि आप इस अपराध में शामिल रहे पशुओं को इन्सान समझने की भूल कर रहे हैं, उनमे दया, करुणा नाम की कोई चीज़ बची ही नहीं है. एक संभावनाओं से भरे चर्चित कथाकार का अपने ही समुदाय का यह आकलन चौंकता है.

जाट समुदाय के समझदार, बुद्धिजीवी और न्याय और दया जैसे मानवीय गुणों में यकीन करने वाले लोगों को अपने समुदाय में फैल रही इस मानसिक बीमारी और पशु प्रवृति के बारे में अवश्य चिंतन करना होगा, क्या कारण है कि कालांतर में सामंतवाद के खिलाफ लड़ने वाला कृषक समाज जाट आज ऐसी क्रूरता को या तो चुपचाप देख रहा है या उसकी निर्लज्ज प्रशंसा कर रहा है. यह उस सामंतवाद से भी बुरा है, जिससे उनकी लड़ाई रही है. स्वामी दयानंद सरस्वती के आर्य समाज के साथ जुड़ कर सबसे पहले छुआछूत मिटाने के प्रयास करने तथा सामाजिक सुधारों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला जाट समाज आज अगर मुज्ज्फ्फरपुर दंगों से लेकर डांगावास तक दलितों एवं अल्पसंख्यकों के खून से खेल रहा है और जातिवादी और साम्प्रदायिक गतिविधियों में आगेवान बना डहुआ है, तो इस बारे में चिंता करने का काम जाट नेतृत्वकर्ताओं का ही है. हमारी चिंता का विषय तो यह है कि इस प्रकार की जातीय हिंसा सामुदायिक सौहार्द्र को पलीता लगा सकती है, डांगावास ही नहीं बल्कि कुम्हेर (भरतपुर) में सन 1992 में 36 दलितों को जिंदा जला देने जैसे कृत्यों में भी उग्र जाट समुदाय की भीड़ की ही प्रमुख भूमिका रही है, दक्षिण राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में भी पिछले एक दशक से यही रुझान देखने को मिल रहा है यहाँ के एक दलित कार्यकर्ता गणपत बारेठ ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत भीलवाड़ा के सभी 23 थानों में वर्ष 2003, 04, 05 तथा 2006 में अजा जजा अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज मामलों की सूचनाएं प्राप्त की, जिनका अध्ययन एवं विश्लेषण रिसर्च फॉर पीपुल के शोधकर्ता सौम्या शिवकुमार तथा एरिक केरबार्ट ने किया. “ डीसमल पिक्चर ऑफ़ वाइडस्प्रेड अट्रोसिटिज अगेंस्ट शेडूलड कास्ट एंड ट्राइब्स इन भीलवाड़ा डिस्ट्रिक्स, राजस्थान “ नामक यह रिपोर्ट बताती है –वर्ष 2003 से 2006 तक के चार वर्षों में भीलवाड़ा जिले में 611 कुल दलित अत्याचार प्रकरण दर्ज हुए, जिनका अध्ययन करने से पता चला कि दलित आदिवासियों पर 90 % जुल्म हिन्दू ही करते है, उनमे भी 12 % मामले अकेले जाट समुदाय की ओर से होते है. वर्ष 2003 में यह आंकड़ा 16 % था, इसके बाद के बर्षों में दलितों पर जाटों द्वारा अत्याचार के मामलों में निरंतर वृद्धि ही दर्ज की गयी है, जो कि अत्यंत चिंतनीय सवाल है.

यह देखा गया है कि भीलवाड़ा जिले में दलितों पर जाटों के अत्याचार के 80 % मामले जमीन से जुड़े कारणों से होते है, वहीँ 20 % मामले भेदभाव तथा छुआछूत से सम्बन्धित होते है. जिला मुख्यालय के निकटवर्ती गांवों में
स्थितियां और भी गंभीर पाई गयी है. इन जाट बाहुल्य गांवों में मंदिर प्रवेश, हेंडपंप से पानी लेने, अपने ही घर के बाहर चबूतरे या खाट पर बैठने और दलित दुल्हों के घोड़ी पर सवार हो कर बिंदौली निकालने को लेकर अक्सर हिंसात्मक वारदातें होती है. हाल ही में भीलवाड़ा के नज़दीक ही स्थित देवली नामक गाँव के राजू बलाई नामक दलित युवा को सिर्फ इस बात के लिए बहुत ही बेरहमी से मारा गया, क्योंकि वह ‘ केप्री ‘ पहन कर गाँव में घूम रहा था. इसी तरह मांडल तहसील के दांता धुंवाला गाँव के दलित युवाओं द्वारा अलग से क्रिकेट मैदान बनाये जाने से नाराज जाटों ने ना केवल जेसीबी मशीन लगा कर पूरा मैदान खोद दिया गया बल्कि दलित क्रिकेटरों के साथ भी मारपीट भी की तथा जातिगत गाली गलौज कर इन दलित युवाओं को अपमानित भी किया गया, दोनों ही मामलों की एफ आई आर दर्ज हुयी है, मगर कार्यवाही के नाम पर ढ़ाक के तीन पात वाली स्थिति बनी हुयी है. दलित युवाओं में भारी आक्रोश व्याप्त है, जो कभी भी विस्फोटक रूप ले सकता है. मगर सरकार हर घटना को सामान्य मानकर उस पर लीपापोती करने में लगी हुयी है.

भीलवाड़ा ही नहीं पूरे राज्य में दलितों पर अत्याचार करने में पिछड़े काफी अगड़े साबित हो रहे है. नागोर जिला जिसे अब जाटलेंड भी कहा रहा है, इस जाटलेंड में दलितों पर जाटों की ज्यादती के मामले दिन प्रतिदिन भयावह रूप लेते जा रहे है, हाल ही में इसी जिले के बसवानी गाँव में एक दलित परिवार की झौपड़ी में आग लगा दी गयी, जिसमे एक दलित महिला जिंदा जल कर मौके पर ही मर गयी तथा दो अन्य लोग 80 % जली हुयी अवस्था में जोधपुर हॉस्पिटल में उपचाररत है. नागोर के ही मुन्डासर में एक अन्य दलित महिला को घसीट कर सायलेंसर से दागा गया, लंगोंड गाँव में एक दलित को जिंदा दफ़नाने की घटना हुयी, हिरडोदा में दलित दुल्हे को घोड़ी से उतार कर जान से मारने की कोशिस की गयी. ये तो वो मामले है जो पुलिस तक पंहुचे है और दर्ज हुए है. दर्जनों मामले तो थानों तक आते भी नहीं है, गांवों में आपसी समझाईश अथवा डरा धमका कर वहीँ रफा दफा कर दिये जाते है. डांगावास के डरे सहमे दलितों का कहना है कि –“हमारे गाँव में यह पहला नहीं बल्कि चौथा कांड है. यहाँ जो भी दलित बोलेगा, उसकी मौत निश्चित है, हम सदियों से अन्याय सह रहे है और आगे भी सदियों तक अन्याय सहने के लिए अभिशप्त है. हमारी कोई नहीं सुनता है. सब जगह उन्हीं के लोग है. हक मांगने वाले तो मारे ही जायेंगे, इनके विरुद्ध बोलने वाले भी कोई बच नहीं पाएंगे, हम जानते है कि हमारे लोगों को बहुत बुरी मौत मारा गया है, हमारी बहु बेटियों के साथ भी बहुत बुरा सलूक हुआ है, मगर हम बोल नहीं सकते है, हमें इसी गाँव में रहना है.”

डॉ अम्बेडकर ने कहा था कि भारतीय गाँव अन्याय और उत्पीडन के बुचडखाने है. बाबा साहब आप एकदम सही थे वाकई राजस्थान के हर गाँव से आज जातिगतजुल्म, अन्याय, और उत्पीडन की सड़ांध उठ रही है, इस बदबूदार समाज व्यवस्था में कैसे जिए और इसको बदलने के लिए क्या करें, खास तौर पर तब, जबकि आततायी समुदाय बदलने को तैयार ही ना हो.

(लेखक दलित आदिवासी एवं घुमन्तु समुदायों के प्रश्नों पर राजस्थान में कार्यरत हैं)

शनिवार, 9 मई 2015

क़ायदा-ए-ज़मानत ज़ारी रहे

लमान खान को ताजीराते हिन्द की दफा 304 पार्ट 2 में पाँच साल की सजा हुई। सजा देने वाली अदालत को इस सजा को अपील करने के कानूनी वक्त के दौरान सस्पैंड करने का अधिकार नहीं था। लेकिन सलमान की घुड़साल के घोड़े पहले से दौड़ने को तैयार खड़े थे। वे दौड़े और ऐसा दौड़े कि हाईकोर्ट तक को उसी दिन अन्तरिम जमानत का आर्डर देना पड़ा। अगले दिन अपील पेश हो गयी और उस से अगले दिन अपील के पैसले तक की जमानत का आर्डर भी हो गया। जब हाईकोर्ट जमानत का आर्डर दे तो सेशन कोर्ट की क्या औकात है कि वह टाइम से उठ जाए। उस ने घोड़ों की इज्जत रखी और टाइम के बाद भी रुक कर अन्तरिम जमानत को तस्दीक किया। ऐसा लगा जैसे सलमान की नहीं पूरे देश की अटकी हुई साँसे चलने लगी है, वर्ना न जाने क्या से क्या हो जाता। 
बहुत लोग सोचते होंगे कि ये जमानत क्या चीज है जिस के लिए इत्त्ती जद्दोजहद होती है कि वकील तो वकील पूरे देश का मीडिया लाइव खड़े रहने के लिए अपनी छतरियाँ लगी गाड़ियाँ सलमान के घर से ले कर फिल्म इंडस्ट्री, सेशन कोर्ट, हाईकोर्ट और जेल तक इधर से उधर दौड़ाता रहता है? 
तो सुन लीजिए,  एक जमाना था जब न्याय जमींदार कर दिया करते थे। फिर राज्य थोड़े मजबूत हुए तो जमींदारों की शिकायतें राजा तक जाने लगीं और राजा उन की सुनवाई करने लगा। तब तक जमानत का कोई कायदा नहीं था। जब तक मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता था मुलजिम को जेल में ही रहना पड़ता था। फिर जब मुकदमे बहुत बढ़़ गए और न्याय अकेले राजा के बस का न रहा तो फौजदारी अदालतें कायम हुई। 
दुनिया में अंग्रेजों का सितारा बुलन्द था इस लिए आधुनिक न्याय व्यवस्था का जन्म भी वहीं होना था, सो हुआ। सेशन अदालतें खोली गयीं और उन में न्याय होने लगा। अदालतें मुकदमे की सुनवाई रोज करती थी जब तक कि सारे सबूत सामने न आ जाएँ और मुकदमे का फैसला न हो जाए। इस काम में महिना पन्द्रह दिन लगते थे। जब न्याय होने लगा तो गाँव गुआड़ी के लोग भी अपराधों की शिकायत करने लगे। इस से दूर दराज के इलाकों में न्याय करने की जरूरत पड़ने लगी। पर वहाँ मुकदमे इतने नहीं थे कि सेशन अदालतें खोली जाएँ। 
तरकीब निकाली गयी कि कुछ सेशन अदालतें ऐसी खोली जाएँ जो गाँवों-तहसीलों में जा कर मुकदमों की सुनवााई करें और फैसले करें। जब मुकदमा निपट जाए तो दूसरे गाँव-तहसील जाएँ और मुकदमों की सुनवाई करें। इन्हें सर्किट अदालतें कहा गया। लेकिन सर्किट अदालत तो गाँव-तहसील जब जाती तब जाती थीं, जब उसे फुरसत होती। अब अपराध करने वाला कभी यह नहीं सोचता कि वह पकड़ा जाएगा। इसलिए यह भी नहीं सोचता कि सर्किट अदालत आने के दिनों में ही अपराध किया जाए बाकी समय खाली बैठा जाए। अपराध तो कभी भी हो जाते थे। पुलिस मुलजिम को पकड़ भी लेती थी। लेकिन उन को फैसले तक बन्दी बना कर रखना पड़ता था। यह राज्य के लिए एक नई मुसीबत थी।
पराधी को बन्दी बना कर रखो तो उस के रहने खाने का इन्तजाम राज्य को करना पड़ता। राज्य के कोष में कमी आती। इस का यह रास्ता निकाला गया कि जहाँ अपराध हो वहाँ का शेरिफ यदि यह समझे कि मुलजिम भागेगा नहीं और सर्किट अदालत के आने पर अदालत के सामने हाजिर हो जाएगा तो वह उसे अपनी रिस्क पर छोड़ देता था। शेरिफ का दबदबा इतना था कि मुलजिम इधर से उधर नहीं हो सकता था और हो गया तो शेरिफ को ही यह कवायद करनी पड़ती थी कि उसे कैसे भी अदालत के सामने हाजिर करे। अब शेरिफ ये रिस्क क्यों ले? शेरिफ लोग इस तरह मुलजिमों को आजाद करने से हिचकिचाने लगे। जेलें फिर भरी रहने लगी, राज्य के खजाने को फिर बत्ती लगने लगी। 
फिर नया रास्ता खोजा गया। मुलजिम को आजाद होना हो तो वह इतनी नकदी जमा करा दे जिस से उसे वापस आना ही पड़े। अब मुलजिम नकद जमा कर के आजाद होने लगे। पर मुलजिमों को भी रास्ता मिल गया कि वे नकद राशि जमा कर के किसी दूसरे राज्य में भाग जाएँ तो सजा से हमेशा के लिए छुट्टी मिली। तो वे ऐसा भी करने लगे। मुलजिमों को धन के माध्यम से सजा से मुक्ति मिलने लगी। धन तो आया पर मुलजिमों के भागने से राजा की बदनामी होने लगी।
मुसीबत फिर भी बनी रही। तब यह कायदा बना कि नकदी के बजाए हैसियत वाले लोगों की जमानत क्यों न ली जाए। इस से यह होगा कि किसी को नकदी न जमा करनी पड़ेगी बस एक कांट्रेक्ट होगा और मुलजिम जमानत पर आजाद। यदि वह अदालत में सुनवाई पर हाजिर न हुआ तो जमानतियों को बुला कर उन से जमानत की रकम वसूस कर ली जाएगी। अब जमानती ने अपराध तो किया नहीं जो वह अपनी रकम जब्त कराए। वह जरूर मुलजिम को ढूंढ कर लाएगा। तो इस तरह मौैजूदा जमानत और मुचलके का कायदा चल पड़ा और दुनिया भर में ऐसे फैला जैसे बोद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म भी न फैले।
तो जनाब! ये जमानत का कायदा पैदा ही इस लिए हुआ कि राज्य फौरन न्याय नहीं कर सकता था, ऐसा करना उसे महंगा पड़ता था। मुलजिमों को ज्यादा दिन बंदी नहीें रखा जा सकता था क्यों कि इस पर भी राज्य का खर्चा बढ़ता था। 
धर भारत का हाल ये है कि जितनी अदालतों की जरूरत है उस की बीस फीसदी अदालतें भी वह खोल नहीं पा रहा है। अब सुनवाई में देरी भी होगी और नम्बर भी देर से आएगा। उधर वकीलों का धन्धा इस बात पर निर्भर करने लगा कि जितनी देरी होगी मुलजिम को बरी कराने में उतना ही सुभीता रहेगा। तो उन्हों ने तरह तरह की दर्ख्वास्तों की ईजाद कर डाली और रोज करते हैं जिस से मुकदमे देरी से निपटें।  सुनवाई और फैसलों में देरी होने लगी और जमानत का कानून पक्का ही नहीं हो गया। सुनवाई में देरी के कारण वह मुलजिमों का हक बन गया। 
जमानत के कायदे का फायदा मुजरिम उठाने लगे। अब तो अदालत पर भी उंगलियाँ उठती हैं। ऐसा ही हाल रहा तो कही हाथ भी न उठने लगें। इस का तो एक ही इलाज है वो ये कि इधर मुलजिम गिरफ्तार हो और उधर दस-पन्द्रह दिन में सुनवाई शुरू हो कर दस पन्द्रह दिन में समाप्त हो जाए। जमानत के कायदे की जरूरत ही नहीं पड़े। पर ये कैसे हो? नयी अदालतें खोलने में भी तो नियमित पैसा खर्च होता है। इत्ता पैसा राज्य कहाँ से लाए। फिर मुलजिम लोगों की लॉबी कोई कमजोर थोडे़े ही है, वह इत्ती अदालतें राज को खोलने दे तब ना। आखिर राज पे कब्जा भी तो उन का ही है। तो सुन लो मितरों! ये जमानत का कायदा जारी रहेगा। मुलजिम लोग मजा लेते रहेंगे। टीवी वालों की छतरियाँ सलामत रहेंगी और जनता का मनोरंजन सलामत रहेगा। सोच लो तुम्हें क्या करना है।

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

‘कायर बुद्धिजीवियों’ का देश बन जाने का ख़तरा

हम अन्याय को संस्थाबद्ध करते जा रहे हैं -अरुंधति रॉय



लीजिए, हिंदी में पढ़िये पंकज श्रीवास्तव से  अरुंधति रॉय की ताजा बातचीत। 

 

गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल के दौरान 23 मार्च को मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय से हुई मेरी बातचीत अंग्रेज़ी पाक्षिक “गवर्नेंस नाऊ” में छपी है। लेकिन जब लोग यह जान गये हैं कि यह साक्षात्कार हिंदी में लिया गया था तो सभी मूल ही सुनना-पढ़ना चाहते हैं। इससे साबित होता है कि अपनी भाषा के परिसर में अगर ज्ञान-विज्ञान और विचारों की बगिया लहलहाती हो तो कोई अंग्रेज़ी का मुँह नहीं जोहेगा। इस इंटर्व्यू की करीब 40 मिनट की रिकॉर्डिंग मोबाइल फोन पर है, जिसे फ़ेसबुक पर पोस्ट करना मुश्किल हो रहा है। फ़िलहाल पढ़कर ही काम चलाइये ... पंकज श्रीवास्तव


सवाल----गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में आप दूसरी बार आई हैं। जो शहर गीताप्रेस और गोरखनाथ मंदिर और उसके महंतों की राजनीतिक पकड़ की वजह से जाना जाता है, वहां ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ दस साल का सफ़र पूरा कर रहा है। इसे कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय---दूसरी नहीं, तीसरी बार। एक बार आज़मगढ़ फ़ेस्टिवल में भी जा चुकी हूं। दरअसल, ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो सिर्फ गोरखुपर के लिए अहमियत नहीं रखता। यह वाकई प्रतिरोध है जो सिर्फ जनसहयोग से चल रहा है, वरना प्रतिरोध को भी ‘ब्रैंड’ बना दिया गया है। अमेरिका से लेकर भारत तक, जहाँ भी देखो प्रतिरोध को व्यवस्था में समाहित कर के एक ‘ब्रैंड’ बनाने की कोशिश होती है। जब मैंने ‘एंड आफ इमेजिनेशन’ लिखा था, तो पहला रियेक्शन यह हुआ कि बहुत सारे ब्रैंड्स, जिसमें कुछ जीन्स के भी थे, ने विज्ञापन करने के लिए मुझसे संपर्क किया। यह एक पुराना खेल है। अमेरिका में नागरिकों की जासूसी का खुलासा करने वाले एडवर्ड स्नोडेन के बारे में फ़िल्म बनी है जिसके लिए फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन ने पैसा दिया। ‘फ़्रीडम आफ प्रेस फ़ाउंडेशन’ में भी फ़ोर्ड का पैसा लगा है। ये लोग ‘प्रतिरोध’ की धार पर रेगमाल घिसकर उसे कुंद कर देते हैं। भारत में देखिये, जंतर-मंतर पर जुटने वाली भीड़ का चरित्र बदल गया है। तमाम एनजीओ, फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन जैसी संस्थाओं से पैसा लेकर प्रतिरोध को प्रायोजित करते हैं। ऐसे में गोरखपुर जैसे दक्षिणपंथी प्रभाव वाले शहर में प्रतिरोध के सिनेमा का उत्सव मनाना ख़ासा अहमियत रखता है। मैं सोच रही थी कि आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थायें अक्सर मेरा विरोध करती हैं, प्रदर्शन करती हैं, लेकिन गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल को लेकर ऐसा नहीं हुआ। इसका दो मतलब है। या तो उन्हें इसकी परवाह नहीं। या फिर उन्हें पता है कि इस आयोजन ने गोरखपुर के लोगों के दिल मे जगह बना ली है। मेरे पास इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं है। लेकिन इस शहर में ऐसा आयोजन होना बड़ी बात है। कोई कह रहा था कि इस फ़ेस्टिवल से क्या फ़र्क़ पड़ा। मैं सोच रही थी कि अगर यह नहीं होता तो माहौल और कितना ख़राब होता।

सवाल---आपकी नज़र में आज का भारत कैसा है? मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य क्या बता रहा है ?
अरुंधति रॉय---जब मई 2014 में मोदी की सरकार बनी तो बहुत लोगों को, जिनमें मैं भी थी, यकीन नहीं हुआ कि यह हमारे देश में हुआ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक नजरिये से देखें तो यह होना ही था। 1925 से जब आरएसएस बना, या उससे पहले से ही भारतीय समाज में फ़ासीवादी प्रवृत्तियाँ नज़र आने लगी थीं। ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रम उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में हो रहे थे। यानी इस दौर से गुज़रना ही था। देखना है कि यह सब कितने समय तक जारी रहेगा क्योंकि आजकल बदलाव बहुत तेज़ी से होते हैं। मोदी ने अपने नाम का सूट पहन लिया और अपने आप को एक्सोपज़ कर लिया। अच्छा ही है कि कोई गंभीर विपक्ष नहीं है। ये अपने आपको एक्सपोज़ करके खुद को तोड़ लेंगे। आखिर मूर्खता को कितने दिनों तक बरदाश्त किया जा सकता है। लोगों को शर्म आती है जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी। गणेश के धड़ पर हाथी का सिर ऐसे ही जोड़ा गया था। फ़ासीवाद के साथ लोग ऐसी मूर्खताएं कब तक सहेंगे।
मैं पहले से कहती रही हूं कि जब राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर का ताला खुलवाया तो साथ में ‘बाज़ार’ का ताला भी खोला गया। इसी के साथ दो क़िस्म के कट्टरपंथ को खड़ा किया गया। एक इस्लामी आतंकवाद और दूसरा माओवाद। इनसे लड़ने के नाम पर ‘राज्य’ ने अपना सैन्यीकरण किया। कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ने इस रास्ते को अपनाया क्योंकि नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ, बिना सैन्यीकरण के लागू नहीं हो सकतीं। इसीलिए जम्मू-कश्मीर में पुलिस, सेना की तरह काम करती है और छत्तीसगढ़ में सेना, पुलिस की भूमिका में है। यह जो ख़ुफिया निगरानी, यूआईडी, आधार-कार्ड वगैरह की बातें हैं, यह सब उसी का हिस्सा हैं। अदृश्य जनसंख्या को नज़र में लाना है। यानी एक-एक आदमी की सारी जानकारी रखनी है। जंगल के आदिवासियों से पूछा जाएगा कि उनकी ज़मीन का रिकार्ड कहां है। नहीं है, तो कहा जाएगा कि ज़मीन तुम्हारी नहीं है। डिजिटलीकरण का मकसद “अदृश्य” को “दृश्य” बनाना है। इस प्रक्रिया में बहुत लोग गायब हो जाएंगे। इसमें आईएमएफ़, वर्ल्ड बैंक से लेकर फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन तक, सब मिले हैं। वे क़ानून के राज पर खूब ज़ोर देते हैं और क़ानून बनाने का हक़ अपने पास रखना चाहते हैं। ये संस्थायें सबसे ज़्यादा ग़ैरपारदर्शी ढंग से काम करती हैं, लेकिन इन्हें अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए आंकड़ों की पारदर्शी व्यवस्था चाहिए। इसीलिए वे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की मदद करते हैं। फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन एक नया पाठ्यक्र गढ़ने में जुटा है। वह चाहता है कि पूरी दुनिया एक ही तरह की भाषा बोले। वह हर तरह के क्रांतिकारी विचारों, वाम विचारों को खत्म करने, नौजवानों की कल्पनाओं को सीमित करने में जुटा है। फिल्मों, साहित्यिक उत्सवों और अकादमिक क्षेत्र में कब्ज़ा करके शोषण मुक्त दुनिया और उसके लिए संघर्ष के विचार को पाठ्यक्रमों से बाहर किया जा रहा है।


सवाल--- आपको हालात को बदलने की कोई मज़बूत जद्दोजहद नज़र आती है क्या.. भविष्य कैसा लग रहा है?
अरुंधति रॉय--- प्रतिरोध आंदोलन या क्रांति, जो भी शब्द इस्तेमाल कीजिये, उसे पिछले कुछ वर्षों में काफी धक्का लगा है। 1968-70 में जब नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ, या तमाम सीमाओं के बावजूद जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के दौर की माँगों पर जरा ग़ौर कीजिये। तब माँग थी- “न्याय”। जैसे ज़मीन जोतने वाली की हो या संपत्ति का समान वितरण हो। लेकिन आज जो माओवादी सबसे “रेडिकल” कहलाते हैं, वे बस यही तो कह रहे हैं कि जो ज़मीन आदिवासियों के पास है, उसे छीना ना जाये। ‘नर्मदा आंदोलन’ की माँग है कि विस्थापन न हो। यानी जिसके पास जो है, उससे वह छीना न जाये। लेकिन जिनके पास कुछ नहीं है, जैसे दलितों के पास ज़मीन नहीं है, उनके लिए ज़मीन तो कोई नहीं मांग रहा है। यानी ‘न्याय’ का विचार को दरकिनार कर मानवाधिकार के विचार को अहम बना दिया गया है। यह बड़ा बदलाव है। आप मानवाधिकार के नाम पर माओवादियों से लेकर सरकार तक को, एक स्वर में कोस सकते हैं। कह सकते हैं कि दोनों ही मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। जबकि ‘अन्याय’ पर बात होगी तो इसके पीछे की राजनीति पर भी बात करनी पड़ेगी।
कुल मिलाकर यह इमेजनिशन (कल्पना) पर हमला है। सिखाया जा रहा है कि ‘क्रांति’ यूटोपियन विचार है, मूर्खता है। छोटे सवाल बड़े बन रहे हैं जबकि बड़ा सवाल गायब है। जो सिस्टम के बाहर हैं, उनकी कोई राजनीति नहीं है। तमाम ख़्वाब टूटे पड़े हैं। राज्य, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हाथ का उपकरण बना हुआ है। दुनिया की अर्थव्यवस्था एक अंतरराष्ट्रीय पाइपलाइन की तरह है जिसके लिए सरहदें बेमानी हो गयी हैं।


सवाल---- तो क्या प्रतिरोध की ताकतों ने समर्पण कर दिया है, ‘इमेजनिशेन’ की इस लड़ाई में?
अरुंधति रॉय---मेरे ख़्याल में, वे बहुत कमज़ोर स्थिति में हैं। जो सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं, वे सोच ही नहीं पा रहे हैं। ‘राज्य’ लड़ाई को इतना थकाऊ बना देता है कि अवधारणा के स्तर पर सोचना मुश्किल हो जाता है। यहाँ तक कि अदालतें भी थका देती हैं। हर तरह से कोशिश करके लोग हार जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर देश में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो मानती हो कि उसका काम लोगों की मदद करना है। उन्हें लगता है कि उनका काम “नियंत्रण” करना है। न्याय कल्पना से बाहर की चीज होती जा रही है। 28 साल बाद हाशिमपुरा हत्याकांड का फैसला आया। सारे मुल्ज़िम छोड़ दिये गये। वैसे इतने दिन बाद किसी को सजा होती भी तो अन्याय ही कहलाता।


सवाल------ आपने गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए गाँधी जी को पहला “कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ” करार दिया है। इस पर ख़ूब हंगामा भी हुआ। आपकी बात का आधार क्या है?
अरुंधति रॉय---आजादी के इतने सालों बाद हममे इतना साहस होना चाहिए कि तथ्यों के आधार पर राय बना सकें। मैंने गांधी को पहला कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ कहा है तो उसके प्रमाण हैं। उन्हें शुरू से ही पूँजीपतियों ने कैसे मदद की, यह सब इतिहास का हिस्सा है। उन्होंने गाँधी की ख़ास मसीहाई छवि गढ़ने में ताकत लगाई। लेकिन खुद गाँधी का लेखन पढ़ने से सबकुछ साफ हो जाता है। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी के कामकाज के बारे में हमें बहुत गलत पढ़ाया जाता है। हमें बताया गया कि वे ट्रेन के डिब्बे से बाहर निकाले गये जिसके ख़िलाफ उन्होंने संघर्ष शुरू किया। यह ग़लत है। गाँधी ने वहाँ कभी बराबरी के विचार का समर्थन नहीं किया। बल्कि भारतीयों को अफ्रीकी काले लोगों से श्रेष्ठ बताते हुए विशिष्ट अधिकारों की मांग की। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी का पहला संघर्ष डरबन डाकखाने में भारतीयों के प्रवेश के लिए अलग दरवाज़ा खोलने के लिए था। उन्होंने कहा कि अफ्रीकी काले लोग और भारतीय एक ही दरवाजे से कैसे जा सकते हैं। भारतीय उनसे श्रेष्ठ हैं। उन्होंने बोअर युद्ध में अंग्रेजों का खुलकर साथ दिया और इसे भारतीयों का कर्तव्य बताया। यह सब खुद गाँधी ने लिखा है। दक्षिण अफ्रीका में उनकी ‘सेवाओं’ से ख़ुश होकर ही अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें क़ैसर-ए-हिंद के ख़िताब से नवाज़ा था। 

सवाल---- आप आजकल गाँधी और अंबेडकर की बहस को नये सिरे से उठा रही हैं। आपके निबंध ‘डॉक्टर एंड द सेंट’ पर भी काफी विवाद हुआ था।
अरुंधति रॉय---यह जटिल विषय है। मैंने इस पर बहुत विस्तार से लिखा है और चाहती हूँ कि लोग पढ़कर समझें। इसकी बुनियाद डॉ.अंबेडकर और गाँधी की वैचारिक टकराहट है। अंबेडकर शुरू से सवाल उठा रहे थे कि हम कैसी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन गाँधी जाति व्यवस्था की कभी आलोचना नहीं करते, जो गैरबराबरी वाले समाज का इंजन है। वे सिर्फ यह कहकर रुक जाते हैं कि सबके साथ अच्छा व्यवहार होना चाहिए। उन्होंने जाति व्यवस्था को हिंदू समाज का महानतम उपहार बताया। यह सब उन्होंने ख़ुद लिखा है। मैं कोई अपनी व्याख्या नहीं कर रही हूँ। जबकि अंबेडकर लगातार जाति उत्पीड़न और संभावित आज़ादी के स्वरूप का सवाल उठा रहे थे। पूना पैक्ट से पहले गाँधी ने जो भूख हड़ताल की, उसका नतीजा आज भी देश को प्रभावित करता है। हम यह सवाल क्यों नहीं उठा सकते कि क्या सही है और क्या गलत। भारत सरकार की सहायता से रिचर्ड एटनबरो न जो ‘गाँधी’ फ़िल्म बनाई उसमें अंबेडकर का छोटा सा रोल भी नहीं है, जो उनके सबसे प्रभावी आलोचक हैं। अगर हम इतने साल बाद भी बौद्धिक जांच-परख से कतराते हैं तो फिर हम बौने लोग ही हैं। अंबेडकर और गाँधी की बहस बेहद गंभीर विषय है।
वारण्ट अधिकारी एम के गांधी

सवाल--- भगत सिंह और उनके साथियों के भी गाँधी से तमाम मतभेद थे, लेकिन उन्होंने भी कहा था कि भाग्यवाद जैसी तमाम चीज़ों के समर्थन के बावजूद गांधी ने जिस तरह देश को जगाया है, उसका श्रेय उन्हें न देना कृतघ्नता होगी।
अरुंधति रॉय---अब बात शुक्रगुज़ार होने या ना होने से बहुत आगे बढ़ गयी। यह ठीक है कि गाँधी ने आधुनिक औद्योगिक समाज में अंतर्निहित नाश के बीजों की पहचान कर ली थी जो शायद अंबेडकर नहीं कर पाये थे। गाँधी की आलोचना का यह अर्थ भी नहीं है कि गाँधीवादियों से कोई विरोध है। या उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में कुछ नहीं किया। नर्मदा आंदोलन का तर्क बहुत गंभीर और प्रभावी रहा है, लेकिन सोचना होगा कि वह सफल क्यों नहीं हुआ। आंदोलनों के हिंसक और अहिंसक स्वरूप की बात भी बेमानी है। यह सिर्फ़ पत्रकारों और अकादमिक क्षेत्र की बहस का मसला है। जहां हज़ारों सुरक्षाकर्मियों के साये में बलात्कार होते हों, वहां हिंसा और अहिंसा कोई मायने नहीं रखती। वैसे, अहिंसा के “पोलिटकल थियेटर” के लिए दर्शकवर्ग बहुत ज़रूरी होता है। लेकिन जहां कैमरे नहीं पहुंच सकते, जैसे छत्तीसगढ़, वहां इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
हमें अंबेडकर या गाँधी को भगवान नहीं इंसान मानकर ठंडे दिमाग से समय और संदर्भ को समझते हुए उनके विचारों को कसौटी पर कसना होगा। लेकिन हमारे देश में यह हाल हो गया कि आप कुछ बोल ही नहीं सकते। न इसके बारे में न उसके बारे में। सेंसर बोर्ड सरकार में नहीं सड़क पर है। नारीवादियों को भी समस्या है है, दलित समूहों को भी है। लेफ्ट को भी है और दक्षिणपंथियों को भी। खतरा है कि हम कहीं “बौद्धिक कायरों” का देश ना बन जायें।


सवाल--- आपने पूँजीवाद और जातिप्रथा से एक साथ लड़ने की बात कही है, लेकिन इधर दलित बुद्धिजीवी अपने समाज में पूँजीपति पैदा करने की बात कर रहे हैं। साथ ही, जाति को खत्म न करके अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश पर भी ज़ोर है। जाति को ‘वोट की ताकत’ में बदला जा रहा है। अंबेडकरवादियों के इस रुख को कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय----यह स्वाभाविक है। जब हर तरफ ऐसा ही माहौल है तो इन्हें कैसे रोक सकते हैं। जैसे कुछ बुद्धजीवी लोग कश्मीर में जाकर कहते हैं कि राष्ट्रवाद बड़ी खराब चीज़ है। भाई, पहले अपने घर में तो समझाओ। दलित मौजूदा व्यवस्था में अपने लिए थोड़ी सी जगह खोज रहे हैं। सिस्टम भी उनका इस्तेमाल कर रहा है। मैंने पहले भी कहा है ‘दलित स्टडीज’ हो रही है। अध्ययन किया जा रहा है कि म्युनिस्पलटी में कितने बाल्मीकि हैं, लेकिन ऊपर कोई नहीं देखता । कोई इस बात का अध्ययन क्यों नहीं करता कि कारपोरेट कंपनियों पर बनियों और मारवाड़ियों का किस कदर कब्ज़ा है। जातिवाद के मिश्रण नें पूँजीवाद के स्वरूप को और जहरीला कर दिया है।

सवाल-- कहीं कोई उम्मीद नज़र आती है आपको?
अरुंधति रॉय----मुझे लगता है कि अभी दुनिया की जो स्थिति है, वह किसी एक व्यक्ति के फैसले का नतीजा नहीं हैं। हजारों फैसलों की शृंखला है। फैसले कुछ और भी हो सकते थे। इसलिए तमाम छोटी-छोटी लड़ाइयों का महत्व है। छत्तीसगढ़, झारखंड और बस्तर मे जो लड़ाइयाँ चल रही हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। बड़े बाँधों के खिलाफ लड़ाई ज़रूरी है। साथ ही जीत भी ज़रूरी है ताकि ‘इमेजिनेशन’ को बदला जा सके। अभी भी एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसके ख़्वाब ख़्त्म नहीं हुए हैं। वह अभी भी परिवर्तन की कल्पना पर यकीन करती है।

चलते-चलते
सवाल- दिल्ली के निर्भया कांड पर बनी बीबीसी की डाक्यूमेंट्री ‘इंडियाज डॉटर’ पर प्रतिबंध लगा। आपकी राय?
अरुंधति रॉय--
जितनी भी खराब फिल्म हो, चाहे घृणा फैलाती हो, मैं बैन के पक्ष में नहीं हूं। बैन की मांग करना सरकार के हाथ में हथियार थमाना है। इसका इस्तेमाल आम लोगों की अभिव्यक्ति के खिलाफ ही होगा।


सवाल---मोदी सरकार ने अच्छे दिनों का नारा दिया था। क्या कहेंगी?

अरुंधति रॉय---अमीरों के अच्छे दिन आये हैं। छीनने वालों के अच्छे दिन आये हैं। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश सबूत है।


सवाल----आपके आलोचक कहते हैं कि गांधी अब तक आरएसएस के निशाने पर थे। अब आप भी उसी सुर में बोल रही हैं।
पंकज श्रीवास्तव
अरुंधति रॉय--आरएसएस गांधी की आलोचना सांप्रदायिक नज़रिये से करता है। आरएसएस स्वघोषित फ़ासीवादी संगठन है जो हिटलर और मुसोलिनी का समर्थन करता है। मेरी आलोचना का आधार गाँधी के ऐसे विचार हैं जिनसे दलितों और मजदूर वर्ग को नुकसान हुआ।

सवाल----दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार के बारे में क्या राय है?
अरुंधति रॉय---जब दिल्ली विधानसभा चुनाव का नतीजा आया तो मैं भी खुश हुई कि मोदी के फ़ासीवादी अभियान की हवा निकल गयी। लेकिन सरकार के काम पर कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। सिर्फ भ्रष्टाचार की बात नहीं है। देखना है कि दूसरे तमाम ज़रूरी मुद्दों पर पार्टी क्या स्टैंड लेती है।

सवाल---आजकल क्या लिख रही हैं..?
अरुंधति रॉय--एक उपन्यास पर काम कर रही हूँ। ज़ाहिर है यह दूसरा ‘गॉड आफ स्माल थिंग्स’ नहीं होगा। लिख रही हूँ, कुछ अलग।

शनिवार, 28 मार्च 2015

कुशनाभ की सौ पुत्रियाँ

रामायण में एक कथा है ...

राम और लक्ष्मण की सहायता से विश्वामित्र का यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हुआ। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को साथ ले जनक के यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए मिथिला की और चले और शोणभद्र नदी के किनारे रात्रि विश्राम के लिए रुके। राम ने पूछा- महात्मन् यह सुन्दर समृद्ध वन से सुशोभित देश कौन सा है इस के बारे में जानना चाहता हूँ। 
विश्वामित्र ने देश के बारे में बताना आरंभ किया। महातपस्वी राजा कुश साक्षात् ब्रह्मा के पुत्र थे। विदर्भ की राजकुमारी उन की पत्नी थी जिस से उन्हें चार पुत्र हुए। उन में एक पुत्र कुशनाभ था जिस ने महोदय नामक नगर बसाया। महाराजा कुशनाभ ने घ्रताची अप्सरा के गर्भ से सौ पुत्रियों को जन्म दिया जो सब की सब रूप-लावण्य से सुशोभित थीं। जैसे जैसे वे युवा होती गई उन का सौन्दर्य बढता गया। एक दिन वे सभी श्रंगारों से युक्त हो कर उद्यन में आमोद प्रमोद में मग्न थीं। 

इन सुन्दर युवतियों को देख कर वायु देवता उन पर मुग्ध हो गए और उन से निवेदन किया कि मैं तुम सब को अपनी प्रेयसी के रूप में पाना चाहता हूँ।  तुम सब मेरी भार्याएँ हो जाओ और मनुष्य भाव त्याग कर देवांगनाओं की तरह दीर्घ आयु प्राप्त करो और अमर हो जाओ। 

इस पर वे सभी कन्याएँ हँस पड़ीं और बोलीं- आप तो वायु रूप में सब के मन में विचरते हैं इस कारण आप को तो पता होगा कि हमारे मन में आप के प्रति कोई आकर्षण नहीं है। फिर भी आप हमारा यह अपमान किस लिए कर रहे हैं। हम सभी कुशनाभ की पुत्रियाँ हैं देवता होने पर भी आप को शाप दे सकती हैं। किन्तु ऐसा नहीं करना चाहतीं क्यों कि और अपने तप को सुरक्षित रखना चाहती हैं। (इस शाप से हमें भी बदनामी झेलनी होगी और जो मान सम्मान हम ने अपने व्यवहार से कमाया है वह नष्ट हो जाएगा) दुर्मते! ऐसा समय कभी नहीं आएगा जब हम अपने पिता की अवहेलना कर के कामवश या अधर्मपूर्वक अपना वर स्वयं ही तलाश करने लगें। (युवतियों को जैसी शिक्षा और वातावरण मिला था उस में वे जानती थीं कि स्त्री का कोई अधिकार नहीं होता। वे पिता की संपत्ति हैं और वही उस की इच्छा के अनुसार उन का दान कर सकता है) हम पर हमारे पिता का प्रभुत्व है वे हमारे लिए सर्व श्रेष्ठ देवता हैं, वे हमें जिस के हाथ में दे देंगे वही हमारा पति होगा।

युवतियों की ऐसे वचन सुन कर वायुदेवता क्रोधित हो गए। जैसे आज कल के नौजवान ऐसी बात सुन कर युवतियों पर तेजाब डाल कर उन्हें बदसूरत बनाते हैं वैसे वायु देवता को इस के लिए तेजाब की व्यवस्था करने की जरूरत भी नहीं थी। वे उन सौ युवतियों के शरीर में घुस सकते थे। वे उन के शरीरों में घुस गए और उन के सारे अंगों को विकृत कर दिया जिस से वे कुरूप हो गयीं। 

युवतियों ने जब यह घटना पिता को सुनाई तो उन्हों ने पुत्रियों को कहा कि तुमने शाप न देकर ठीक ही किया क्यों कि क्षमा करना बहुत बड़ी बात है और देवताओं के लिए भी दुष्कर है। 

तब कुशनाभ ने गंधर्वकुमारी और ब्रह्मर्षि चूली के पुत्र ब्रह्मदत्त से अपनी सौ कन्याओं का विवाह कर दिया।  

पुत्रियों का विवाह होने के उपरान्त ब्रह्मदत्त युवतियों का पति हो गया तो वायु देवता ने युवतियों का शरीर त्याग दिया और वे पूर्व की तरह सुन्दर हो गयीं। कुशनाभ के गाधि नामक पुत्र जन्मा, यही गाधि मेरे पिता थे। कुश के कुल में जन्म होने के कारण ही मुझे कौशिक भी कहते हैं। इस कारण यह मेरे पूर्वजों का ही देश है। 

उपकथन-

विश्वामित्र को अपने देश का परिचय देने के लिए इन सौ कन्याओं की कहानी कहना बिलकुल अप्रासंगिक था। लेकिन फिर भी रामायण के लेखक ने इस कथा को यहाँ जोड़ा। इसका कारण केवल यही समझ में आता है कि उनका उद्देश्य था कि स्त्रियों को सिखाया जाए कि उन का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। वे पहले पिता की संपत्ति होती हैं और विवाह के बाद में वे पति की संपत्ति हो जाती हैं। 

महान रामायण यही सिखाती है।  

रविवार, 22 मार्च 2015

वृत्त की परिधि का आरंभिक बिन्दु

वृत्त गोल होता है। इस से संबंधित बहुत से सवालों के उत्तर भी गोल होते हैं। मसलन किसी वृत्त की परिधि का कोई आरंभिक बिन्दु कहाँ होता है? इस सवाल का उत्तर वास्तव में गोल है। वृत्त की परिधि का कोई आरंभ बिन्दु नहीं होता। वह कहीं से आरंभ नहीं होता न कहीं उस का अंत होता है। कहते हैं सब से छोटा बिन्दु स्वयं एक वृत्त होता है और एक वृत्त वास्तव में बिन्दु का ही विस्तार होता है। अब बिन्दु का कोई आरंभिक बिन्दु कैसे हो सकता है? 

लेकिन लोग हैं कि जो चीज नहीं होती है उस का कल्पना में निर्माण कर लेते हैं। वे वृत्त की परिधि पर किसी स्थल पर अपनी पेंसिल की नोक धर देते हैं और कहते हैं यही है आरंभिक बिन्दु। इसी कल्पना को वे सत्य मान लेते हैं। अब जब दूसरा कोई व्यक्ति उसी वृत्त की परिधि के किसी दूसरे स्थल पर अपनी पेंसिल की नोक धर देता है तो उसी को वृत्त की परिधि का आरंभिक बिन्दु मान बैठता है। दोनों के पास अपने अपने तर्क हैं दोनों अपने अपने निश्चय पर अटल हैं। दोनों झगड़ा करते हैं ऐसा झगड़ा जिस का कोई अंत नहीं है, जैसे वृत्त की परिधि का कोई अंत नहीं होता। वृत्त की परिधि के सोचे गए अंतिम बिन्दु के बाद भी अनेक बिन्दु हैं और कल्पित आरंभिक बिन्दु के पहले भी अनेक बिन्दु होते हैं। फिर वह अंतिम और आरंभिक बिन्दु कैसे हो सकते हैं?

मारे साथ एक गड़बड़ है कि हमें हर चीज का आरंभ और अंत मानने की आदत पड़ गई है। हम मानना ही नहीं चाहते कि दुनिया में कुछ चीजें हैं जिन का न तो कोई आरंभ होता है और न अंत। हम गाहे बगाए खुद से पूछते रहते हैं कि मुर्गी पहले हुई या अण्डा? और सोचते रह जाते हैं कि अण्डे के बिना मुर्गी कहाँ से आई? और अण्डा पहले आाय़ा तो वह किस मुर्गी ने दिया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई और पक्षी अण्डा दे गया हो और उस में से मुर्गी निकल आई हो। हम अण्डे में से मुर्गी निकलने के बीच मुर्गे के योगदान को बिलकुल विस्मृत कर देते हैं।  

भी एक जनवरी को हमें बहुतों ने नव वर्ष की बधाइयाँ दी थीं। साल पूरा भी न निकला था कि फिर से नए वर्ष की बधाइयाँ मिलने लगीं। वह कोई और नव वर्ष था, यह भारतीय नव वर्ष था। एक भारतीय नव वर्ष उस के पहले दीवाली पर निकल गया। अब चार दिन बाद वित्तीय संस्थानों का नव वर्ष टपकने वाला है। उस के बाद तेरह अप्रेल को बैसाखी पर्व पर जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करेगा तो फिर नव वर्ष हो जाएगा। जैसे साल न हुआ वृत्त की परिधि हो गई, जिस पर किसी ने कहीं भी पैंसिल की नोंक रख दी और नव वर्ष हो गया।

ज्योतिर्विज्ञानी कहते हैं कि धरती सूरज के चक्कर लगाती है, जब एक चक्कर लगा चुकी होती है तो एक वर्ष पूर्ण हो जाता है। अब यह तो धरती ही बता सकती है कि उस ने कब और कहाँ से सूरज के चक्कर लगाना आरंभ किया था। धरती से किसी ने पूछा तो कहने लगी कि जहाँ से आरंभ किया था वहाँ कोई ऐसी चीज तो थी नहीं जिस पर मार्कर से निशान डाल देती। अब चक्कर लगाते लगाते इतना समय हो गया है कि मुझे ही नहीं पता कि अब तक कितने चक्कर लगा लिए हैं और कितने और लगाने हैं?  कहाँ से आरंभ किया था और अंत कहाँ है? वह रुकी और बोली कि मुझे लगता है कि मैं सदा सर्वदा से चक्कर लगा रही हूँ और सदा सर्वदा तक लगाती रहूंगी। आप मान क्यों नहीं लेते कि इन चक्करों का कोई आरंभ बिन्दु नहीं है और न ही कोई इति। 

ब इस का मतलब तो ये हुआ कि किसी भी दिन को आरंभ बिन्दु मान लिया जा सकता है और नववर्ष की बधाई दी जा सकती है। ऐसा क्यूँ न करें कि आज के दिन को ही आरंभ बिन्दु मान लें और फिर से बधाइयों का आदान प्रदान कर लें? तो सब से पहली बधाई मैं ही दिए देता हूँ।  आप सब को यह नव वर्ष मंगलकारी हो!!!

रविवार, 28 दिसंबर 2014

'श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी' .... सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

भारत में धर्म और संस्कृति का ऐसा घालमेल हुआ है कि साम्प्रदायिक लोग तमाम सांस्कृतिक मूल्यों को धार्मिक मूल्य प्रदर्शित करते हुए वैसे ही साम्प्रदायिकता का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं जैसे साम्प्रदायिक लोग विवेकानन्द की छाप का झंडा उठा कर साम्प्रदायिकता उत्थान में जुट जाते हैं।

इन्हीं दिनों मुझे निराला जी की जनवरी 1938 में माधुरी मासिक में छपी कहानी 'श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी' पढ़ने को मिली। कहानी का आरंभिक अंश तमाम धर्मों के बारे में उन की समझ को अभिव्यक्त करता है। देखिए और निराला के व्यंग्य का आनन्द भी लीजिए ...

“श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी श्रीमान पं. गजानन्द शास्त्री की धर्मपत्नी हैं। श्रीमान शास्त्रीजी ने आपके साथ यह चौथी शादी की है -धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रिणी जी के पिता को षोडशी कन्या के लिए पैंतालीस साल का वर बुरा नहीं लगा -धर्म की रक्षा के लिए। वैद्य का पेशा अख्तियार किए शास्त्रीजी ने युवती पत्नी के आने साथ 'शास्त्रिणी' का साइन-बोर्ड टाँगा-धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रीणीजी उतनी ही उम्र में गहन पातिव्रत्य पर अविराम लेखनी चालना कर चलीं-धर्म की रक्षा के लिए। मुझे यह कहानी लिखनी पड़ रही है-धर्म की रक्षा के लिए।

इस से सिद्ध है, धर्म बहुत ही व्यापक है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने वालों का कहना है कि नश्वर संसार का कोई काम धर्म के दायरे से बाहर नहीं। सन्तान पैदा होने के पहले से मृत्यु के बाद-पिण्डदान तक जीवन के समस्त भविष्य, वर्तमान और भूत को व्याप्त कर धर्म-ही-धर्म है।

जितने देवता हैं, चूँकि देवता हैं, इसलिए धर्मात्मा हैं। मदन को भी देवता कहा है। यह जवानी के देवता हैं। जवानी जीवन भर का शुभमुहूर्त है, सबसे पुष्ट कर्मठ और तेजस्वी देवता मदन, जो भस्म हो कर नहीं मरे, लिहाजा काल और काल के देवता, सब से ज्यादा सम्मान्य, फलतः क्रियाएँ भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण, धार्मिकता को लिए हुए। मदन को कोई देवता न माने तो न माने, पर यह निश्चय है कि आज तक कोई देवता इन पर प्रभाव नहीं डाल सका। किसी धर्म शास्त्र या अनुशासन को यह मान कर नहीं चले, बल्कि धर्म, शास्त्र और अनुशासन के मानने वालों ने ही इन की अनुवर्तितता की है। यौवन को भी कोई कितना निन्द्य कहे, चाहते सभी हैं, वृद्ध सर्वस्व भी स्वाहा कर। चिन्ह तक लोगों को प्रिय हैं - खिजाब की कितनी खपत है? धातु पुष्ट करने की दवा सब से ज्यादा बिकती है। साबुन, सेण्ट, पाउडर, क्रीम, हेजलीन, वेसलीन, तेल-फुलेल, के लाखों कारखाने हैं इस दरिद्र देश में। जब न थे रामजी और सीताजी उबटन लगाते थे। नाम और प्रसिद्धि कितनी है- संसार की सिनेमा स्टारों देख जाइए। किसी शहर में गिनिए-कितने सिनेमा हाउस हैं। भीड भी कितनी- आवारागर्द मवेशी काइन्ज हाउस में इतने न मिलेंगे। देखिए-हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध, क्रिस्तान-सभी; साफा, टोपी, पगड़ी, कैप, हैट और पाग से लेकर नंगा सिर-घुटन्ना तक; अद्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी, द्वैतवादी, द्वैताद्वैतवादी, शुद्धाद्वैतवादी, साम्राज्यवादी, आतंकवादी, समाजवादी, काजी, सूफी से लेकर छायावादी तक, खड़े-बेड़े, सीधे-टेड़े,-सब तरह के तिलक-त्रिपुण्ड; बुरकेवाली, घूंघटवाली, पूरे और आधे और चौथाई बालवाली, खुली और मुंदी चश्मेवाली आँखें तक देख रही हैं; अर्थात् संसार के जितने धर्मात्मा हैं, सभी यौवन से प्यार करते हैं। इसलिए उन के कार्य को भी धर्म कहना पड़ता है। किसी के कहने-न मानने से वह अधर्म नहीं होता।...”

बुधवार, 19 नवंबर 2014

परम्परा की कँटीली पगडंडी


स बार अकलेरा प्रवास मेरे लिए अत्यन्त विकट रहा। ससुर जी के देहान्त के बाद पाँच मिनट में ही मुझे सूचना मिल गयी थी और घंटे भर बाद मैं अपनी कार से निकल पड़ा। यह एक घंटा भी मेरे साढ़ू भाई की प्रतीक्षा में लगा। उस ने फोन कर दिया था कि वह भी पहुँच ही रहा है। यूँ तो हम सुबह जल्दी निकलते तो भी संस्कार से पर्याप्त समय पहले पहुँच जाते। पर पिता के निधन का समाचार मिलने के बाद शोभा को रात भर अपनी माँ और बहनों से दूर रख पाना मेरे लिए असंभव था। हम रात साढ़े नौ पर अकलेरा पहुँचे। 140 किलोमीटर के रास्ते में वहाँ से पाँच छह बार फोन आ गया कि हम कहाँ तक पहुँचे हैं। हो सकता है वहाँ पहले से मौजूद शोभा के भाई-बहनों को चिन्ता लगी हो कि जीजाजी तुरन्त निकले हैं, रात के समय ठीक से गाड़ी चला भी पा रहे हैं या नहीं। हमारे पहुँचने पर उन्हों ने राहत की साँस ली। लेकिन शोभा को देखते ही घर में रोना पीटना मच गया। हमारे पहुँचने के बाद भी हर आधे घंटे बाद कोई न कोई आता रहा। जब भी उन में कोई स्त्री होती वह दरवाजे के निकट आते ही जोर से रोने लगती और उस का स्वर सुनते ही घर के अन्दर से भी स्त्रियों के रोने की आवाजें शुरू हो जाती। कुछ देर बाद यह बन्द हो जाता, औरतें बातें करने लगतीं। यह सिलसिला आधी रात तक चलता रहा। फिर सुबह जल्दी छह बजे से ही लोग आने लगे, उसी के साथ रोने का सिलसिला तेज हो गया। 

काकाजी और ब्रिजेश पिछली बार जब कोटा आए थे

मैं रात को पहुँचा तब तक काकाजी (मेरे श्वसुर डॉ. हीरालाल त्रिवेदी को अकलेरा का बच्चा, जवान और बूढ़ा इसी नाम से संबोधित करता था) की क्लिनिक का फर्नीचर हटा, गद्दे-चादर बिछा कर उसे पुरुषों की बैठक बना दिया गया था। कुछ पुरुष वहाँ बैठे बतिया रहे थे। मैं उन के बीच जा बैठा। आरंभिक औपचारिक बातें जल्दी ही चुक गईं। तब छोटे साले ब्रिजेश के दोस्तों ने मुझ से पूछा अस्थिचयन कब करेंगे? मैं ने उन से स्थानीय परंपरा के बारे में पूछा तो उन का कहना था कि यहाँ तो अन्तिम संस्कार के तीसरे दिन करते हैं। संस्कार मृत्यु के अगले दिन हो तो कोई-कोई संस्कार के अगले दिन भी कर लेते हैं। वे यह सब इस कारण पूछ रहे थे कि अखबार में छपने के लिए जाने वाली सूचना में अस्थिचयन, शुद्ध स्नान और द्वादशा की तिथियाँ भी लिखनी थीं। मैं ने उन्हें कहा- कुछ और लोगों को आने दो तब तय करेंगे। इस तरह अब संस्कार के बाकी के दिनों की तिथियाँ अन्तिम रूप से तय करने की ड्यूटी स्वतः ही मुझे मिल गई थी। जो भी आता मैं उस की राय जानने की कोशिश करता। उस की राय जानने के बाद मैं उस के सामने विपरीत राय प्रकट करता और उस के पक्ष में कुछ तर्क देता तो वह विपरीत राय पर भी सहमत हो जाता। कुल मिला कर स्थिति यह थी कि कुछ भी तय किया जा सकता था, दोनों तरह की परंपराएँ थीं।

अगले दिन सुबह भी मैं लोगों से राय करता रहा। किसी का कहना था कि रविवार और बुधवार के दिनों को देहान्त और अस्थिचयन के बीच नहीं लेते। कोई कहता रविवार बुधवार को अस्थिचयन नहीं होना चाहिए। मैं उस का कारण पूछता तो लोग कहते हम यह तो नहीं बता सकते पर हमारे यहाँ ऐसी परंपरा है इसलिए कहते हैं। एक सज्जन ग्रहों आदि का अच्छा ज्ञान रखते थे, वे बताने लगे कि रविवार और बुधवार को क्यों ऐसा नहीं करते। इस बहाने लोगों को पता लग गया कि वहाँ उपस्थित सब लोगों में उन का ज्योतिष ज्ञान सब से बेहतर है।

मैं ने परिस्थितियों पर विचार किया तो पाया कि आज बहुत लोग आ चुके हैं। उन में से अस्थिचयन में बहुत नहीं आएंगे। जो सूचना न मिलने, देरी से मिलने या किसी कारणवश संस्कार में आज शामिल नहीं हो सके हैं वे जरूर आएंगे, लेकिन जो निकट के संबंधी संस्कार में शामिल हो गए हैं वे जरूर अस्थिचयन में उपस्थित रहना चाहेंगे। उन्हें या तो एक दिन अधिक रुकना पड़ेगा, या जा कर फिर से आना पड़ेगा। जब तक अस्थिचयन न हो जाए तब तक किसी न किसी का आना-जाना जारी रहेगा। पहले ही एक रात घर की महिलाएँ परंपरा कँटीली पगडंडी का कष्ट उठा चुकी थीं। संस्कार के तीसरे दिन अस्थिचयन होने पर उन्हें दो रातें और उसी कँटीली पगडण्डी पर गुजारनी होती। बेहतर यही था कि अस्थिचयन अगले दिन हो जाए जिस से उन का कष्ट कुछ तो कम किया जा सकता था। मैं ने संस्कार में आए लोगों में से चुन चुन कर लोगों की राय जानने की कोशिश की तो अधिकांश लोगों की राय मेरे पक्ष में थी।

आखिर में मैं ने अपने बड़े साले से राय की तो उस ने निर्णय का भार पंडितजी पर छोड़ दिया। पंडित जी वही पुरोहित थे जिन्हों ने मेरे और शोभा के विवाह समेत काकाजी की सभी लड़कियों के ब्याह कराए थे। मुझे पता था कि वे अपने किसी नियम पर दृढ़ नहीं रहते। अपितु यजमान की इच्छा भाँप कर अपना फैसला देते हैं, आखिर दक्षिणा तो यजमान से ही मिलती है। मैं ने उन से तब बात की जब कोई नजदीक न था। उन्हों ने परम्परा की बात करते हुए संस्कार से तीसरे दिन की बात की तो मैं ने उन के सामने रवि-बुध का पेंच पेश कर दिया। आगे शुद्ध स्नान और द्वादशा की तिथियों की जटिलता भी बताई। उन्होंने गेंद को मेरे बड़े साले के पाले में फेंकना चाहा। तब मैं ने जब उन्हें बताया कि उस ने तो सब कुछ आप पर छोड़ दिया है, तो वे असमंजस में पड़ गए। मैं ने उन्हें कहा कि जो लोग आज आए हैं और अस्थिचयन के लिए रुकना चाहते हैं उन्हें दो दिन रुकना पड़ेगा या जा कर वापस आना पड़ेगा। इस परिस्थिति में यदि खुद काकाजी होते तो क्या कहते, और आप क्या करते?

इस पर पंडित जी ने कहा कि ऐसी परिस्थिति में काकाजी तो कल ही रखते और मुझ से भी कहलवा लेते। मैं ने उन्हें उन का यही निर्णय सब को बताने को कहा और वे मान गए। पंचलकड़ी देने के उपरान्त कोई और बोले उस के पहले ही मैं ने अगले दिन अस्थिचयन की सूचना सब को दे दी। एक-दो ने मंद स्वर में कहा भी कि, परसों नहीं? मैं ने जोर से कहा नहीं, कल ही। इस तरह अस्थिचयन की तिथि तय हो गई। (क्रमशः)