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शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

ओलम्पिक हॉकी में अब तक सर्वाधिक गोल किस खिलाड़ी ने किए हैं?


ओलिंपिक हॉकी में अब तक सर्वाधिक गोल किस खिलाड़ी ने किए हैं?






यदि आप का उत्तर ध्यानचंद है, 
तो आप बिलकुल सही हैं।


  • भारत नें सर्वाधिक 114 मैच खेले, सर्वाधिक 75 मैच जीते, सर्वाधिक 415 गोल किए हैं।
  • 91 भारतीयों ने 410 गोल बनाए हैं। 
  • आज तक कुल 217 भारतीय खिलाडी 18 ओलंपिक खेलों में हॉकी खेलकर ओलिंपियन बने हैँ।
  • जापान के विरूद्ध 5 गोल जूरी द्वारा 1968 के भारत - जापान मैच में जापान के वॉक आउट करने पर अवार्ड किए गये थे।
  • धनराज पिल्लै ने 4 ओलिंपिक खेल कर सर्वाधिक 27 मैच खेले हैं। 
  • महान ध्यानचंद ने सर्वकालिक सर्वाधिक 39 गोल मारे हैं। 
 



 दहाई के अंक में गोल करने वाले भारतीय खिलाड़ियों की सूची

क्रम
खिलाडी
पोजिशन
ओलंपिक खेले
मैच खेले
गोल मारे
1
ध्यानचंद
सेन्टर फारवर्ड
1928,1932,1936
12
39
2
बलबीर सीनियर
सेन्टर फारवर्ड
1948,1952,1956
8
22
3
पृथीपाल सिंह
राइट/लेफ्ट फुल बेक
1960,1964,1968
24
22
4
रूप सिंह
लेफ्ट इन
1932, 1936
7
22
5
उधम सिंह
लेफ्ट इन
1952,1956,1960, 1964
13
16
6
सुरिन्दर सोढी
सेन्टर फारवर्ड
1980
5
15
7
मर्विन फर्नांडीज
राइट इन
1980,1984,1988
20
11
8
हरबिन्दर सिंह
सेन्टर फारवर्ड
1964,1968,1972
26
10



 



 सांख्यिकी - श्री बीजी जोशी के सौजन्य से




बुधवार, 25 जुलाई 2012

चांदनी की अभिलाषा भारतीय हॉकी से - बीजी जोशी


लंदन ओलिंपिक आरंभ होना ही चाहता है।  बरसों तक भारतीय जिस एक स्वर्ण से आश्वस्त रहे वह हॉकी से आता था।  आज भी हर भारतीय के मन में एक हूक उठती है कि चाहे कुछ भी हो एक पदक तो हॉकी से आना ही चाहिए।  हॉकी और भारत दोनों एक दूसरे के पर्याय हो चुके थे।  लेकिन इसी पदक ने भारत को अनेक मुकाबलों में तरसाया है।  इस बार हॉकी का कोई पदक भारत ला पाता है या नहीं यह भविष्य के गर्भ में है।  लेकिन लंदन ओलिंपिक के दौरान हाँकी के खेल पर अनवरत की तीखी नजर रहेगी।  बीजी जोशी जो दुनिया भर में एक मात्र ऐसे हॉकी स्क्राइब हैं जिन से हॉकी के इतिहास से संबंधित कोई भी प्रश्न पूछा जा सकता है, उत्तर आप को तुरंत हाजिर मिलेगा।  जिस किसी अंतर्राष्ट्रीय हॉकी मुकाबले के दौरान वे उपस्थित रहते हैं, हॉकी के जानकारों से ले कर खिलाडी तक मनचाहा रिकार्ड उन से पूछ लेना चाहते हैं।  अनवरत के लिए बीजी जोशी लंदन ओलिंपिक की हॉकी पर निगाह रख रहे हैं।   इस क्रम ओलिंपिक हॉकी में भाग ले रही सभी टीमों के संदर्भ में भारतीय टीम का एक पूर्व मूल्यांकन प्रस्तुत करता यह आलेख आप पसंद करेंगे।   लंदन में जब तक हॉकी के मुकाबले आरम्भ हों हम बीजी जोशी के सौजन्य से कुछ न कुछ आँकड़े आप के सामने प्रस्तुत करते रहेंगे।

लंपिक हॉकी में सर्वकालिक 8 स्वर्ण पदक के गौरव- वैभव से हम भारतीयों के लिये ओलिंपिक स्वप्निल-स्वर्णिम सपनों का स्त्रोत बना है। वर्षो की साधना, अभ्यास, मेहनत और तपस्या से विजयी मंच पर सोने के तमगे से सुशोभित गले को देखने का सुकून स्वर्ग से भी सुखद लगता है। प्रतिदिन प्रार्थना, आराधना, अरदास और दुआ करने वाले हिन्दुस्तानी अधिवर्ष में अंजुलि पसार खिलाडियों के लिए अमृत मांगते हैं। ताकि सुधा पान कर एथलीट कौशल की खूबियों में हिमालयी ऊचांईयां छू कर जीत की आभा से विरोधियों को धराशयी कर सकें।


कौशल के नियाग्रा में विपक्षियों को ठग कर मिली अद्भुत विस्मयकारी अचरज भरी जीत पर गर्व से ऊँचा सिर अपने जीवन को धन्य मानता है। हॉकी कभी भारत-पाकिस्तान की बपौती रही है। एमस्टरडम (1928) से म्यूनिख (1972) तक लगातार 44 साल उपमहाद्वीपीय माटी की सौगंध ही ओलंपिक प्रागंण में महकी। मांट्रियल (1976) में एस्ट्रोटर्फ का आगमन, 1998 से नो ऑफ साइड रूल, 2002 से हॉकी ब्लेड (अर्धचंद्राकार) की दोनो सतह प्लेइंग सरफेस मानने तथा 2003 से पेनल्टी कार्नर पर गेंद को डेडस्टॉप नहीं करने (आक्रामक को अतिरिक्त क्षण मिल गए) के परिवर्तित नियमों से कलाईयों की कलाबाजी ज्यादा सार्थक नहीं रही है। अब डिफेंस पर अधिक भार पडा है। कमजोर रक्षक वाली टीम का टेनिस स्कोर (6 गोल ) से हारना अजूबा नहीं रहा है। हर ओलंपिक में नया मेजबान शहर नई तरह की सतह हॉकी खेल के लिए बिछाता है। लदंन में नीली टर्फ पर पीली गेंद से हॉकी खेली जाएगी। दृश्यता बढाने हेतु टर्फ की बाउंड्री गुलाबी रंग की है। नवीन सतह पर गेंद उछलती है। शौर्य व धैर्य से गेंद पर बाज समान पैनी निगाहें रख सही टेकल कर ही मंडराते खतरे से पार पाना होता है। डिफेडंर संदीप सिंह व रघुनाथ की उक्त विधा में कमियां अक्सर आक्रमक टीम को गोल का प्रसाद भेंट कर ही देती है।

भा
रतीय टीम के आस्ट्रेलियाई कोच माइकल नोब्स नें हमेशा गुणवान खिलाडियों को प्राथमिकता दी है। कमजोर रक्षण से वाक़िफ नाब्स ने होनहार इग्नैश टिर्की को रक्षा का आधार स्तंभ बनाया है। योरपीय टीमों की तरह इग्नैश स्वीपर बेक पोजिशन पर खेलेंगे। कुआलालंपुर एशिया कप ( अक्टूबर 2003) में इग्नैश ने बिरजू महाराज की नाचरंग स्थिति के अनुरूप लयताल से विजयी डग भरते हुए विरोधियों को छकाकर पौरुष भरे खेल में, खुली आंखे रख, इन्द्रधनुषी चाप से पाकिस्तान पर विजयी गोल मार कर तब पहली बार एशिया कप जितवाकर दीवाली मनवाई थी। अब इग्नैश को रक्षण में भी जिब्राल्टर की चट्टान बनना होगा ।

भारतीय हॉकी टीम

तीसवें ओलिंपिक में भारतीयों को कठिन पूल मिला है। ‘‘ब‘‘ ग्रुप में भारत को ओलिंपिक चैंपियन जर्मनी, योरपीय दिग्गज हॉलैंड, बेल्जियम, एशियाई महारथी कोरिया व डाउनअंडर की उभरती टीम न्यूजीलैंड से जूझना है। पड़ौसी पाकिस्तान पूल ‘‘अ‘‘ में विश्व कप चैंपियन आस्ट्रेलिया, मेजबान ब्रिटेन, स्पेन, अर्जेन्टीना, दक्षिण अफ्रीका से भिडेगा ।

दुर्भाग्य से जर्मनी और हॉलेंड के विरूद्ध भारतीय प्रदर्शन निराशाजनक है। हॉलैंड के खिलाफ 93 में से 30 तथा जर्मनी के विरूद्ध 85 में 17 मैचों में ही भारतीय टीम फतह हासिल कर पायी है। हॉलैंड के विरूद्ध पिछले 10 मुकाबलो में भारत जीता ही नहीं है। 16 वर्ष पूर्व अजलानशाह कप में प्रयोगात्मक डच टीम को ही भारतीय हरा पाए थे। पेनल्टीकार्नर विशेषज्ञ राबर्ट हॉर्स्ट तथा दुनिया में सर्वाधिक 450 अंतरराष्ट्रीय मैचों के अनुभवी टयून डिनायर की टीम को हराना किसी भी टीम के लिए दिवास्वप्न है। खेल की गति को कम कर गेंद नियंत्रण अपने ही पास रखकर मिले हुए मौकों का सौ फीसदी उपयोग ही भारतीय जीत का अस्त्र बनेगा। चुस्त-दुरूस्त लंबे कद के जर्मन खिलाडियों के सामने भारतीय पिद्दी से लगते हैं। पर खेल में कद-काठी नहीं सूझ-बूझ कौशल जीत दिलाता है। बर्लिन ओलिपिक (1936) हॉकी फाइनल में 15 अगस्त के दिन भारतीयों ने जर्मनी को 8-1 से रौंदा था। जर्मन अखबारों ने भारतीय जीत पर लिखा था ‘वे दिव्य नीले कुरते पहने खिलाडी छुई-मुई से दिखाई पडते हैं, पर उनका खेल फौलादी है। उनकी आज्ञाओ को शिरोधार्य कर जहां वे चाहते है, गेंद वहां इठलाती हुई पहॅुचती है। गति के नियम तथा ज्यामितीय सिद्धांतों से परे गेंद भारतीय इशारों पर नाचती रही और जर्मन चूर चूर हो गए। ‘पर ध्यानचंद के वंशजो में अब वह प्रतिभा नहीं रही। ग्वालियर के शिवेन्द्र सिंह (164 मैंच,72 गोल), झाँसी के तुषार खंडकर (225 मैच, 65 गोल) व सुनील (100 मैंच, 30 गोल) ने गोल भेदने में अर्जुन समान लक्ष्य बनाए रखा तो बर्लिन दीवार को फांदना मुश्किल नहीं होगा। हालाँकि जर्मनी टर्फ हॉकी की सबसे सफलतम टीम है।

पने पूर्वज माओरी आदिवासियों के नृत्य (हाँका डांस) कर मैदान में उतर कर उर्जा पाने वाली न्यूजीलैंड टीम उन्नति पर है। गोली क्यले पॉटिफिक्स समकालीन हॉकी में श्रेष्ठतम हैं। सोल (1988) में ब्रिटेन को स्वर्ण पदक जितवाने वाले गोली इयान टेलर कहते है कि सर्वश्रेष्ठ गोली 1-4 से हारने वाला मैच 1-0 से जीता देता है। कुछ ऐसा ही आलम पांटिफिक्स का रहा तो किवी टीम 36 वर्षो बाद ओलिंपिक सेमीफाइनल में दहाडेगी। अजलानशाह कप-2012 जीत कर उन्होंने अपने इरादे बता दिए हैं। 2002 में विश्व कप फुटबाल की मेजबानी कर कोरिया-जापान ने किशोरों का ध्यान हॉकी से हटा कर फुटबॅाल पर ला दिया है। नई प्रतिभाएँ कोरियाई हॉकी में नहीं आने से कोरिया टॉप फोर में नहीं है। हालाँकि उनका विध्वसंक शैली भरा खेल किसी भी टीम को झकझोरता रहा है। 1956-76 तक बेल्जियम का ग्राफ हॉकी में विश्वस्तरीय था। तब पाँच खिलाडियों ने 4-4 मर्तबा ओलंपिक खेल कर रिकार्ड रचा है। लंदन में उनके लिए बीजिंग (2008) समान 9वीं पोजिशन भी सार्थक होगी।

पूल ‘‘अ‘‘ में पाकिस्तान के लिए पदक की मंजिल कोसों दूर है। स्पेन, अर्जेन्टीना, ब्रिटेन तथा आस्ट्रेलिया में से कोई दो टीमें सेमीफाइनल में खेलेगी। अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ व्दारा निंबस स्पोटर्स द्वारा प्रायोजित वर्ल्ड सीरीज हॉकी को अनाधिकृत घोषित करने से टीम की तैयारियों को झटका लगा है। पाकिस्तान के लिए विश्व कप (2012) व अजलानशाह कप (2012) की तरह वुडन स्पून (अंतिम पायदान) से बचना टेड़ी खीर होगा । लंदन टेस्ट इवेंट (मई 2012) की विजेता जर्मनी को पाकिस्तान ने हाल ही में टेस्ट मैच में 4-3 से हराया था। दुनिया में सर्वाधिक गोल मारने वाले सोहेल अब्बास ने चारों पेनल्टीकार्नर गोल में बदल कर यह करिश्मा रचा था। सोहेल के ऐसे ही कारनामे पाकिस्तानी टीम को सुकून बक्ख्शेंगे।

बीजी जोशी
भारतीय कोच ने टॉप सिक्स में आने का लक्ष्य रखा है। गोल में दार्जिलिंग के भरत क्षैत्री व केरल के श्रीजैश की कुशल नटबाजी, डिफेंस में इग्नैश तथा वीरेन्द्र लाकडा की दृढ़ता, मिडफील्ड में मनप्रीत, सरदारा सिंह व गुरबाज की रचनात्मकता, फारवर्डस् में सुनील, शिवेन्द्र, तुषार तथा उथप्पा की उत्पादकता तथा पेनल्टीकार्नर में संदीप, रघुनाथ की गोल रूपी संजीवनी भारतीयों को पदक दिला सकती है। अजलानशाह कप में पाकिस्तान, कोरिया, ब्रिटेन के विरूद्ध जुगनु सी चमक ने ही भारतीयों को कांस्य पदक जितवाया। कुछ कर गुजरने की तमन्ना से अथाह खेल कौशल में डूब कर भारतीयों ने चांदनी बिखेरी तो ओलिंपिक विजय मंच पर तिरंगा फहराना दुर्लभ नहीं है।

सोमवार, 23 जुलाई 2012

श्रमजीवी राज्य के नागरिक भी नहीं?

मारुति सुजुकी इंडिया के डीजल कार बनाने वाले मानेसर कारखाने में पिछले दिनों हुई घटनाओं से सभी अवाक् हैं।   ऐसे समय में जब कि दुनिया भर की बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ मंदी से जूझ रही है, भारतीय अर्थव्यवस्था विदेशी निवेश को ताक रही है, कोई सोच भी नहीं सकता था कि इस बड़े और कमाऊ उद्योग में ऐसी घटना भी हो सकती है जिस में बड़ी मात्रा में आगजनी हो, अधिकारी और मजदूर घायल हों किसी की जान चली जाए। कारखाने के अधिकारियों, कर्मचारियों और मजदूरों पर अचानक आतंक का साया छा जाए।  मजदूर पलायन कर जाएँ और कारखाने में अस्थाई रूप से ही सही, उत्पादन बंद हो जाए।
 
मारुति उद्योग में प्रबंधन और मजदूरों के बीच विवाद नया नहीं है।  मार्च 2011 में यह खुल कर आ गया जब ठेकेदार मजदूर अपनी यूनियन को मान्यता देने की मांग को लेकर टूल डाउन हड़ताल पर चले गए।   प्रबंधन ठेकेदार मजदूरों को अपना ही नहीं मानता तो वह इस यूनियन को मान्यता कैसे दे सकता था?  इसी मांग और अन्य विवादों के चलते सितंबर 2011 तक तीन बार कारखाने में हड़ताल हुई। सितंबर की हड़ताल में तो मारूति के सभी मजदूरों और अन्य उद्योगों के मजदूरों ने भी उन का साथ दिया।   कुछ अन्य मामलों पर बातचीत और समझौता भी हुआ, लेकिन यूनियन की मान्यता का विवाद बना रहा।  जिस से मजदूरों में बैचेनी और प्रबंधन के विरुद्ध आक्रोश बढ़ता रहा।  मजदूरों का मानना पूरी तरह न्यायोचित है कि संगठन बनाना और सामुहिक सौदेबाजी उन का कानूनी अधिकार है।   लेकिन इस अधिकार को स्वीकार करने के स्थान पर प्रबंधन ने यूनियन के नेता को तोड़ने की घृणित हरकत की।  आग अंदर-अंदर सुलगती रही और एक हिंसक रूप ले कर सामने आई।  अब एक तरफ इस घटना को ले कर प्रबंधन और सरकार की ओर से यह प्रचार किया जा रहा है कि मजदूर हिंसक और हत्यारे हैं, तो दूसरी ओर मजदूरों के पक्ष पर कोई बात नहीं की आ रही है।  एक वातावरण बनाया जा रहा है कि मजदूरों का वर्गीय चरित्र ही हिंसक और हत्यारा है।  उद्योगों के प्रबंधन और राज्य द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली हिंसा को जायज ठहराया जा रहा है।  इस मामले में हुई एक प्रबंधक की मृत्यु को हत्या कहा जा रहा है।

कारखाने में बलवा हुआ, आगजनी हुई और एक व्यक्ति जो आगजनी से बच नहीं सका उस की मृत्यु हो गई। वह प्रबंधन का हिस्सा था, वह कोई मजदूर भी हो सकता था।   इस तथ्य पर जो तमाम सेसरशिप के बाद भी सामने आ गया है किसी का ध्यान नहीं है कि मजदूर को पहले एक सुपरवाइजर ने जातिसूचक गालियाँ दीं, प्रतिक्रिया में मजदूर ने उसे एक थप्पड़ रसीद कर दिया।  इन दो अपराधों में से जातिसूचक गाली देना कानून की नजर में भी अधिक गंभीर अपराध है, लेकिन इस अपराध के अभियुक्त को बचाया गया और थप्पड़ मारने वाले को निलंबित कर दिया गया।  उस के बाद मजदूरों ने सवाल उठाया कि बड़ा अपराध करने वाले को बचाया जा रहा है तो छोटे अपराध के लिए मजदूर को निलंबत क्यों किया जा रहा है?  उन्हों ने उसे बहाल करने की मांग की जिस से उत्पन्न तनाव बाद में बलवे में बदल गया।

क्या प्रबंधन के 500 व्यक्ति कारखाने के अंदर संरक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति हैं?  वे शेष 1500 स्थाई और 2500 ठेकेदार मजदूरों के प्रति कोई भी अपराध करें, सब मुआफ हैं, एक मजदूर किसी तरह की शिकायत नहीं कर सकता।  करे तो उस पर न तो प्रबंधन कोई कार्यवाही करे और न ही पुलिस प्रशासन।  मजदूर किसी राजनैतिक उद्देश्य के लिए सचेत लोग नहीं, जो इरादतन काम करते हों।  लगातार दमन किसी न किसी दिन ऐसा क्रोध उत्पन्न कर ही देता है जो भविष्य के प्रति सोच को नेपथ्य में पहुँचा दे।  ऐसा क्रोध जब एक पूरे समूह में फूट पड़े तब इस तरह की घटना अस्वाभाविक नहीं, अपितु राज्य प्रबंधन की असफलता है।  मजदूर मनुष्य हैं, कोई काल्पनिक देवता नहीं, इस तरह निर्मित की गई परिस्थितियों में उन का गुस्सा फूट पड़ा तो इस की जिम्मेदारी मजदूरों पर कदापि नहीं थोपी जा सकती।  इस के लिए सदैव ही प्रबंधन जिम्मेदार होता है, जो ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है।   क्यों किसी इलाके में दंगा हो जाने पर उस इलाके के जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान को अपना कर्तव्य नहीं निभाने का दोषी माना जाता है?

स हादसे में जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस की एकल जिम्मेदारी से कारखाने का प्रबंधन और सरकार नहीं बच सकती।  लेकिन बचाव का उद्देश्य मीडिया के माध्यम से प्रचार कर के घटना की जिम्मेदारी मजदूरों पर मत्थे मढ़ कर पूरा किया जा रहा है।  कारखाने के ठेकदार मजदूरों की यूनियन दो वर्ष से मान्यता के लिए लड़ रही है, लेकिन उस से कहा जा रहा है कि उन का प्रतिनिधित्व गुड़गाँव के दूसरे कारखाने की यूनियन ही करेगी।  कारखाने में स्टाफ और मजदूरों की दो अलग अलग यूनियनें हो सकती हैं, तो ठेकेदार मजदूरों की यूनियन स्थाई मजदूरों की यूनियन से अलग क्यों नहीं हो सकती?   लेकिन कारखाना प्रबंधन तो ठेकेदार मजदूरों को उद्योग का कर्मचारी ही नहीं मानता।  लगातार कामगारों के जनतांत्रिक अधिकारों की अवहेलना का परिणाम किसी दिन तो सामने आना था।  इन परिणामों को अस्वाभाविक और अपराधिक नहीं कहा जा सकता।   एक जनतांत्रिक राज्य केवल धन संपत्ति की सुरक्षा करने के लिए नहीं हो सकता।  उस का सब से महत्वपूर्ण  कर्तव्य नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करना भी है।  यदि राज्य अपने इस कर्तव्य को नहीं निभाए तो  श्रमजीवियों का यह मानना गलत नहीं कि राज्य उन्हें अपना नागरिक ही नहीं मानता।   इस मामले में राज्य अपना जनतांत्रिक कर्तव्य निभाने में पूरी तरह से असफल रहा है।  मानेसर दुर्घटना पूरी तरह से उसी का नतीजा है।

हा जा रहा है कि इस घटना के पीछे किसी तरह का षड़यंत्र नहीं है।  यदि ऐसा है तो फिर इस तथ्य को सामने आना ही चाहिए कि मजदूर समुदाय में इतना क्रोध कहाँ से पैदा हुआ था?  उस का कारण क्या था?  यदि मजदूर वर्ग को हत्‍यारा समुदाय करार दिया जाता है तो उस का केवल एक अर्थ लिया जा सकता है कि जाँच व न्याय तंत्र निर्णय पहले ही ले चुका है और अब केवल निर्णय के पक्ष में सबूत जुटाए जा रहे हैं।   इस घटना में किसी षड़यंत्र के देखे जाने पर षड़यंत्र का एक मात्र उद्देश्य यही हो सकता है कि कारखाने को हरियाणा से गुजरात स्थानान्तरित करने का बहाना तैयार किया जा रहा है।  ऐसा होने पर तो उद्योग का प्रबंधन और गुजरात सरकार ही षड़यंत्रकारी सिद्ध होंगे।  फिर यह नतीजा भी निकाला जा सकता है कि षड़यंत्र के आरोप से बचने के लिए प्रबंधन बार बार घोषणा कर रहा है कि उस का इरादा कारखाने को बंद करने या उसे गुजरात स्थानान्तरित करने का नहीं है।  किन्तु जब उद्योग की एक इकाई गुजरात में स्थापित करने का निर्णय उद्योग के प्रबंधक कर चुके हैं तो इस संभावना से इन्कार भी नहीं किया जा सकता कि निकट भविष्य में गुजरात में इकाई स्थापित होने और उस से बाजार की मांग पूरा करना संभव हो जाए तो हिंसा और श्रमिक असंतोष का बहाना बना कर हरियाणा की इकाइयों को एक-एक कर बंद कर दिया जाए। 

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

उन्हें सिर्फ सत्ता चाहिए

शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जिस दिन देश के समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में किसी न किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार का समाचार प्रकाशित न होता हो। घरों, कार्यस्थलों, विद्यालयों, रेलों, बसों, मनोरंजन स्थलों और मार्गों पर कोई स्थान ऐसा नहीं जहाँ वे लिंगभेद के कारण उत्पीड़न का शिकार न होती हों। स्त्रियाँ आम तौर पर इस उत्पीड़न को सहती हैं और अक्सर दरकिनार करती हैं। लोग कह सकते हैं कि वे उस का प्रतिकार क्यों नहीं करतीं? लेकिन कब तक वे प्रतिकार करें? कोई दिन तो ऐसा नहीं जब उन्हें यह सब न सहना पड़ता हो। वे बाजार के लिए निकलती हैं, दफ्तरों, स्कूलों आदि को आती-जाती हैं तो उन्हें मार्ग में नाना प्रकार की फब्तियों, छेड़खानी का सामना करना पड़ता है। अक्सर ये लोग समूह में तेजी से आते हैं और निकल जाते हैं। फिर पुरुषों की भीड़ से भरे स्थानों पर वे स्वयं को अकेली और असहाय महसूस करती हैं। उन्हें इन मार्गों पर यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और वे सहती चली जाती हैं। जब वे शिकायत करती हैं तो सब से पहली मुसीबत उन्हीं पर टूट पड़ती है। उन का पुरुष प्रधान परिवार उन के घर से बाहर निकलने को प्रतिबंधित करने को उतारू हो जाता है। जिस से समाज में वे जो अपना स्थान बनाना चाहती हैं उस में बाधा उत्पन्न होती है। उन की पढ़ाई छुड़ा दी जा सकती है, उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ सकती है। यदि वे मौके पर उत्पीड़न का प्रतिकार करें तो उन्हें उस से अधिक का सामना करना पड़ सकता है जैसा कि अभी हाल में गौहाटी में हुआ।

नीमत है कि गौहाटी की घटना की वीडियो बन गई और बज़रीए यू-ट्यूब राष्ट्रीय न्यूज चैनलों तक पहुँच गई। उन्हों ने आसमान सिर पर उठा लिया जिस से देश भर में इस उत्पीड़न के विरुद्ध एक लहर, चाहे वह अस्थाई ही क्यों न हो, पैदा हुई। यदि यह नहीं होता तो असम पुलिस तो उस शिकायत को दाखिल दफ्तर कर चुकी थी। जिस भयानक हादसे से लड़की को स्वयं पुलिस ने बचाया हो उस की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करना पुलिस की बदनीयती को स्पष्ट प्रदर्शित करता है। इस तरह का कोई भी मामला देख लें पुलिस कभी भी तब तक रिपोर्ट दर्ज नहीं करती जब तक कि उस पर किसी तरह का दबाव नहीं आता। पुलिस का चरित्र भी तो पुरुष प्रधान ही है, वह समाज से भिन्न हो भी कैसे सकता है?

भारत में किसी भी राजनैतिक दल का वैध अस्तित्व तभी बना रह सकता है जब कि वह संविधान के प्रति निष्ठा रखता हो। हमारा संविधान स्त्रियों को समानता का अधिकार प्रदान करता है। मंत्री, सांसद और विधायक सभी को पद ग्रहण करने के पूर्व संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी होती है। लेकिन उन का सामाजिक व्यवहार क्या है? गौहाटी की घटना जहाँ हुई है वह हमारे प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है, एक सांसद के रूप में क्या वहाँ घटी घटना के प्रति उन का कोई दायित्व नहीं? लेकिन घटना के दिन से ले कर आज तक प्रधानमंत्री के श्रीमुख से उक्त घटना के संबंध में एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला है। जब कि उस क्षेत्र का सासंद और एक इंसान के रूप में उन्हें अंदर तक हिल जाना चाहिए था। देश के सब से बड़े राजनैतिक दल की नैत्री सोनिया स्वयं एक स्त्री हैं, क्या उन्हें इस घटना के बाद तुरंन्त सक्रिय नहीं होना चाहिए था? एक सामाजिक बदलाव के लिए काम करने की प्रेरणा उन्हें इस घटना से क्यों नहीं मिलती और वे सक्रिय होती क्यों नहीं दिखाई देतीं? उन के राजकुमार सुपुत्र क्यों ऐसे में किसी नांद में आराम फरमा रहे हैं? क्यों नहीं सब से बड़े विपक्षी दल भाजपा का कोई भी नेता इस पहल को लेने के लिए तैयार होता नजर नहीं आया? जिन राजनैतिक दलों की सरकारें राज्यों में हैं, वे क्यों सोए पड़े हैं? वे क्यों नहीं इस सामाजिक बदलाव के लिए कमर कसते दिखाई नहीं पड़ते। यहाँ तक कि सभी प्रकार की समानता के लिए संघर्ष करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ और दूसरे वामपंथी दल स्त्री-पुरुष समानता के इस सामाजिक आंदोलन से दूर रहना चाहते हैं?

त्तर स्पष्ट है। सभी दलों को केवल सत्ता चाहिए। उन्हें समाज से कोई लेना-देना नहीं। वे केवल उन कामों में हाथ डालते हैं जिन से उन्हें कुछ वोटों का जुगाड़ होता हो। वोट उन्हें उसी समाज से लेने हैं जो पुरुष प्रधान है। वे क्यों समाज की पुरुष प्रधानता को चुनौती दे कर अपने अपने वोट बैंक खराब करें?

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

संपत्ति या स्वतंत्र मनुष्य?

गुआहाटी में लड़कों के समूह द्वारा लड़की के साथ छेड़छाड़ करने और उस के कपड़े फाड़ देने का प्रयास करने की घटना, फौजियों द्वारा जंगल में एक लड़की के साथ छेड़खानी का प्रयत्न, लखनऊ में पुलिस दरोगा द्वारा मुकदमे में फँसाने का भय दिखा कर महिला के साथ संबंध बनाने की कोशिश, बेगूँसराय में मंदिर में दलित महिला के साथ सार्वजनिक मारपीट यही नहीं इस के अलावा घरों में खुद परिजनों द्वारा महिलाओं और बच्चियों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार और अपराधों की अनेक घटनाएँ लगातार मीडिया में आती रही हैं। मीडिया में आने वाली इन घटनाओं की संख्या हमारे समाज में स्त्रियों की स्थिति का नमूना भर हैं। इस तरह की सभी घटनाएँ रिपोर्ट होने लगें तो पुलिस थानों के पास इन से निपटने का काम ही इतना हो जाए कि वे अन्य कोई काम ही न कर सकें। स्थिति वास्तव में भयावह है।

ड़बड़ी हमारे समाज में है, हमारी व्यवस्था और राजनीति में है। अधिकांश लोग परम्परा और रिवाजों के बहाने स्त्रियों को समानता का अधिकार देने के हिमायती नहीं हैं। वे स्त्रियों को मनुष्य नहीं अपनी संपत्ति समझते हैं। बेटी उन के लिए पराया धन है जिस से वे जल्दी से जल्दी निजात पाना चाहते हैं, तो बहू परिवार की बिना वेतन की मजदूर और बेटे के लिए उपभोग की वस्तु है। दीगर महिलाएँ उन के लिए ऐसी संपत्ति हैं जिन्हें अरक्षित अवस्था में देख कर इस्तेमाल किया जा सकता है वहीं अपने घर की महिलाओं के प्रति उन में जबर्दस्त असुरक्षा का भाव है जो उन्हें बंद दीवारों के पीछे रखने को बाध्य करता है। लेकिन आजादी के बाद जिस संविधान को हम ने अपनाया और जो देश का सर्वोपरि कानून है वह स्त्रियों को समानता प्रदत्त करता है। समाज की वास्तविक स्थितियों और कानून के बीच भारी अंतर है। समाज का एक हिस्सा आज भी स्त्रियों को संपत्ति बनाए रखना चाहता है तो एक हिस्सा ऐसा भी है जो उन की समानता का पक्षधर ही नहीं है अपितु व्यवहार में समानता प्रदान भी करता है।

कानून और समाज के बीच भेद को समाप्त करने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो यह कि संविधान और कानून को समाज के उस हिस्से के अनुरूप बना दिया जाए जो महिलाओं को मनुष्य नहीं संपत्ति मान कर चलता है। दूसरा यह कि समाज को संविधान की भावना के अनुसार ऐसी स्थिति में लाया जाए जहाँ स्त्रियों और पुरुषों के समान अधिकार हों दोनों एक स्वतंत्र मनुष्य की तरह जीवन व्यतीत कर सकें। बीच का कोई उपाय नहीं है। पहला उपाय असंभव है। स्वतंत्र मनुष्य की तरह जी रही स्त्रियों को फिर से संपत्ति में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। हमें समाज को ही उस स्थिति तक विकसित करना होगा जिस में स्त्रियाँ स्वतंत्र मनुष्य की भाँति जी सकें। इस बड़े परिवर्तन के लिए समाज को एक बड़ी क्रांति से गुजरना होगा। लेकिन यह कैसे हो सकेगा? उस परिवर्तन के लिए वर्तमान में कौन सी शक्तियाँ काम कर रही हैं? कौन सी शक्तियाँ इस परिवर्तन के विरुद्ध काम कर रही हैं। हमारी राज्य व्यवस्था और राजनीति की उस में क्या भूमिका है? और क्या होनी चाहिए? इसे जाँचना होगा और भविष्य के लिए मार्ग तय करना होगा।

रविवार, 15 जुलाई 2012

विवशता को कब तक जिएंगे श्रमजीवी?

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का कहना है कि सभी देशों में भविष्य निधि के लिए कानून होना चाहिए जिस से औद्योगिक कर्मचारियों के भविष्य के लिए कुछ निधि जमा हो जो उन की अच्छी बुरी स्थिति में काम आए। सेवानिवृत्ति की आयु के उपरान्त उन्हें पेंशन मिलती रहे। भारत में इस के लिए कर्मचारी भविष्य निधि योजना कानून और भविष्य निधि तथा पेंशन योजना लागू है। कानून में प्रावधान है कि यह योजना किन किन नियोजनों में लागू होगी। इस योजना के अंतर्गत वेतन की 12 प्रतिशत राशि कर्मचारी के वेतन से प्रतिमाह नियोजक द्वारा काटी जाती है और काटी गई राशि के बराबर राशि नियोजक को उस में मिला कर योजना में जमा करानी पड़ती है। औद्योगिक कर्मचारियों के लिए भविष्य निधि और योजना से मिलने वाली पेंशन बहुत बड़ा संबल है।


मारे नियोजक इसे कभी ईमानदारी से लागू नहीं करते। उन्हें लगता है कि उन पर कर्मचारियों के वेतन की 12 प्रतिशत राशि का बोझ और डाल दिया गया है। लेकिन यह तो सभी उद्योगपतियों को उन का उद्योग आरंभ होने के पूर्व ही जानकारी होती है और होनी चाहिए कि उन्हें कर्मचारी को वेतन के अतिरिक्त क्या क्या देना होगा। फिर भी नियोजकों की सदैव यह मंशा होती है कि वे कर्मचारियों को देय वेतन और अन्य सुविधाओं में जितनी कटौती कर सकते हैं कर लें। आखिर कर्मचारियों के श्रम से ही तो कच्चे माल का मूल्य बढ़ता है और उस बढ़े हुए मूल्य में से जितना नियोजक बचा लेता है वही तो उस का मुनाफा है। इस फेर में अनेक उद्योग तो ऐसे हो गए हैं जिन में कभी न्यूनतम वेतन तक कर्मचारियों को नहीं दिया जाता। यहाँ तक कि कर्मचारियों से साधारण मजदूरी की दर से ओवरटाइम कार्य कराया जाता है।

 
वे लोग जो संसद और विधानसभाओं में बैठ कर कानून बनाते हैं वास्तव में उन पर यह जिम्मेदारी भी होनी चाहिए कि वे उन कानूनों की पालना भी करवाएँ। लेकिन यह तो बहुत दूर की बात है। वे स्वयं उन कानूनों की पालना नहीं करना चाहते। कल मेरे नगर में एक गैस ऐजेंसी की संपत्ति इसीलिये कुर्क कर ली गई कि उस ने अपने संस्थान में भविष्य निधि योजना को लागू नहीं किया। भविष्य निधि योजना द्वारा उन्हें योजना के लागू होने की सूचना देने के बाद भी उन्होंने कर्मचारियों का भविष्य निधि अंशदान योजना में जमा नहीं कराया। उसे वसूल करने के लिए योजना को ऐजेंसी की संपत्ति कुर्क करनी पड़ी। इस ऐजेंसी पर भविष्यनिधि योजना 2007 में ही लागू हो चुकी थी। लेकिन ऐजेंसी घरों पर सिलेंडर जा कर लगाने वाले कर्मचारियों को अपना मान ही नहीं रही थी और इसी आधार पर विरोध कर रही थी। ऐजेंसी मालिकों ने इस के लिए अधिकारियों पर राजनैतिक दबाव भी डाला। पूर्व अधिकारी डर कर कार्यवाही रोकते भी रहे। लेकिन नए नौजवान भविष्य निधि आयुक्त ने आखिर कुर्की कर ली। कुर्की के बाद ऐजेंसी ने कुछ लाख रुपए नकद जमा कराए तथा शेष का चैक दिया। तब जा कर कुर्की को समाप्त किया गया। यदि यह किसी सामान्य नियोजक के साथ होता तो एक सामान्य बात होती। पर यह उस ऐजेंसी के साथ हुआ जिस के स्वामी भाजपा के एक पूर्व सांसद और मंत्री के परिवार के सदस्य हैं और यह ऐजेंसी उन्हें अपने पालक के सांसद और मंत्री होने के कारण ही मिली थी। जिस देश के कानून बनाने वाले ही उस का पालन न करें। वहाँ कानून को विवश श्रमजीवी जनता के सिवा कौन मानेगा? और वह भी कब तक इस विवशता को जिएगी?

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

श्रमिक कर्मचारी आखिर कब तक चुप रह सकेंगे?


किसी भी अर्थ व्यवस्था में पुराने उद्योगों का बन्द होना और नए उद्योगों की स्थापना एक सतत प्रक्रिया है।  कोई भी उद्योग ऐसा नहीं जो हमेशा चलता रह सके।  समय के साथ साथ हर उद्योग की प्रोद्योगिकी पुरानी होती जाती है।  उस से प्रतियोगिता करने वाली नयी प्रोद्योगिकी आती रहती है।  पुराने उद्योग नए उद्योगों से प्रतियागिता नहीं कर पाते।  समय समय पर पुराने उद्योगों में नई प्रोद्योगिकी का प्रयोग कर उनकी उम्र बढ़ाई जा सकती है।  लेकिन एक समय ऐसा भी आता है जब उद्योग में नयी प्रोद्योगिकी का प्रयोग संभव नहीं रह जाता है।  तब उसे बन्द करना पड़ता है।  समय के साथ कुछ उत्पादनों का सामाजिक उपयोग लगभग समाप्त प्रायः हो जाता है।  एक समय था जब देश के पिक्चर ट्यूब उद्योग श्वेत-श्याम पिक्चर ट्यूबें बनाया करते थे।  लेकिन धीरे धीरे इन का उपयोग लगभग समाप्त हो गया।  उन का स्थान रंगीन पिक्चर ट्यूबों ने ले लिया।  श्वेत श्याम पिक्चर ट्यूबें बनाने के कारखानों ने अपनी प्रोद्योगिकी में परिवर्तन किया और रंगीन पिक्चर ट्यूबें बनाना आरंभ कर दिया।  लेकिन प्रोद्योगिकी लगातार विकसित होती है।  पिक्चर ट्यूब का स्थान एलसीडी, एलईडी, और अब प्लाज्मा डिस्प्ले ले रहे हैं।  जल्दी ही वह समय आएगा जब भारी भरकम पिक्चर ट्यूबें इतिहास का हिस्सा हो कर संग्रहालयों मे सिमट जाएंगी।  इस तरह पिक्चर ट्यूबें बनाने वाले वर्तमान उद्योग भी गायब हो लेंगे।


श्वेत-श्याम से रंगीन पिक्चर ट्यूब, फिर एलसीडी, एलईडी और अब प्लाज्मा डिस्प्ले सभी को अच्छा लगता है।  हर कोई चाहता है कि वह नई से नई तकनीक का उपयोग करे।  लेकिन जब पुरानी प्रोद्योगिकी वाले कारखाने बंद होते हैं तो वे समाज में बड़ी हलचल उत्पन्न करते हैं।  इन कारखानों में काम करने वाले कर्मचारियों की नौकरियाँ चली जाती हैं।  उन्हें नये नियोजन तलाशने पड़ते हैं।  इन में से अनेक लोग ऐसे होते हैं जो 45-50 की उम्र में पहुँच चुके होते हैं और उन के लिए नया नियोजन तलाश करना दुष्कर और अक्सर असंभव काम होता है।  जीवन के मध्यकाल में जब लोगों को अपने जीवन के सब से महत्वपूर्ण दायित्व पूरे करने होते हैं तभी यह उद्योग बंदी उन्हें जबरन सेवानिवृत्त लोगों की श्रेणी में खड़ा कर देती है।   बच्चों का अध्ययन चल रहा होता है,  संतानें विवाह योग्य हो चुकी होती हैं, वृद्ध माता-पिता का दायित्व उन पर होता है।  हर कोई समझ सकता है कि इस आयु में नौकरी जाने का अर्थ क्या होता है?  परिवार के एक व्यक्ति की नौकरी जाती है लेकिन पूरा परिवार असहाय हो कर खड़ा हो जाता है।


ब कारखाने बंद होते हैं तो इन कर्मचारियों की छँटनी की जाती है।  छँटनी के लिए कानून बना है कि किस तरह छँटनी की जाएगी।  कर्मचारियों को छँटनी किए जाने के साथ ही उन्हें नोटिस या नोटिस वेतन दिया जाएगा, उन्हें उद्योग में उन के सेवाकाल के आधार पर छँटनी का मुआवजा और पाँच वर्ष का सेवा काल पूर्ण कर लेने वाले कर्मचारियों को ग्रेच्यूटी दी जाएगी।  लेकिन अक्सर ऐसे समय में अधिकांश उद्योग छँटनी होने वाले कर्मचारियों को यह नाम मात्र की सहायता राशि देने से भी इन्कार कर देते हैं।  वे किसी न किसी प्रकार कर्मचारियों को इन कानूनी अधिकारों से वंचित कर अपनी पूँजी बचाने के फेर में रहते हैं।   सभी कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी सरकार की है।  जब भी छँटनी के समय कर्मचारियों और उद्योग के बीच विवाद उत्पन्न होता है तो श्रमिक श्रम विभाग की शरण प्राप्त करते हैं।  हमारे श्रम विभाग इतने कमजोर हैं कि वे कर्मचारियों को छँटनी के समय उन के कानूनी अधिकार दिलाने में अक्षम साबित होते हैं।  


कुछ वर्ष पूर्व जब देश में आर्थिक सुधार लागू किए गए थे तब यह समस्या भी सामने आई थी कि पुराने उद्योगों के नवीनीकरण और उन का बंदीकरण करने में उद्योगपतियों को श्रमिक प्रतिरोध की  समस्या का सामना करना पड़ता है और उस के लिए कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिस से यह समस्या उत्पन्न न हो।  इस के लिए सरकार का यह प्रस्ताव सामने आया था कि छँटनी के समय सेवाकाल के प्रत्येक वर्ष के लिए 15 दिन के वेतन के बराबर मिलने वाली मुआवजे की राशि को बढ़ा कर  45 दिन कर दिया जाए।  इस से कर्मचारियों के बीच छँटनी की स्वीकार्यता बढ़ जाएगी।  किन्तु सरकार का यह प्रस्ताव उद्योगपतियों को स्वीकार्य न हुआ और ठंडे बस्ते में चला गया।


पिछले दिनों एक मामला सामने आया जिस में उद्योग के प्रबंधन ने श्रमिकों के सामने यह प्रस्ताव रखा कि या तो वे स्थानान्तरित हो कर नोएडा चले जाएँ या फिर वे छँटनी को स्वीकार करें।  कर्मचारी अल्पवेतनभोगी थे और उद्योग एक छोटे नगर में स्थापित था जहाँ आवास और अन्य जीवनोपयोगी सुविधाएँ सस्ती हैं।  राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्थित नोएडा में उन्हीं सुविधाओं के लिए उन्हें दुगनी कीमत अदा करनी होती।  श्रमिकों ने प्रबंधन को प्रस्ताव दिया कि उन का वेतन उसी अनुपात में बढ़ा दिया जाए तो वे स्थानान्तरण स्वीकार कर लेंगे।  लेकिन प्रबंधन एक रुपया भी वेतन बढ़ाने को तैयार न था।  एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में स्थानान्तरण बिना श्रमिकों की अनुमति के किया नहीं जा सकता था।  प्रबंधन ने श्रमिकों को छँटनी का नोटिस दे दिया।  प्रबंधन श्रमिकों को नोटिस वेतन और ग्रेच्यूटी तो देने को तो तैयार था लेकिन मुआवजा देने से उसने हाथ खड़े कर दिए।  मामला श्रम विभाग के पास पहुँचा।  श्रम विभाग ने नियोजक को समझाया कि कानून के मुताबिक उसे श्रमिकों को मुआवजा और ग्रेच्यूटी दोनों ही देने पड़ेंगे।  प्रबंधन  किसी तरह तैयार न हुआ।  


श्रमिकों ने श्रम विभाग को यह भी प्रस्ताव दिया कि उन्हें नोटिस वेतन और मुआवजा दिला दिया जाए, वे ग्रेच्यूटी के लिए न्यायालय चले जाएंगे।  लेकिन इस के लिए नियोजक तैयार न था। वह चाहता था कि श्रमिक छँटनी के मुआवजे का अधिकार छोड़ दें तभी उन्हें अन्य लाभ भी दिए जाएँ अन्यथा वे सारे लाभों केलिए लड़ें।  तब श्रम विभाग श्रमिकों को ही समझाने लगा कि उन्हें नोटिस वेतन और ग्रेच्यूटी ले लेनी चाहिए।  वर्ना  उद्योगपति तो राज्य ही छोड़ कर चला जाएगा तो उन्हें इस से भी हाथ धोना पड़ेगा।  श्रम विभाग मामले को श्रम न्यायालय को प्रेषित करने की सिफारिश राज्य सरकार से करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकता और यह तो सर्वविदित ही है कि श्रम विभाग में बीस वर्ष पुराने मुकदमे अभी भी लंबित चल रहे हैं।  श्रमिक इस के लिए तैयार न हुए।  छँटनी का यह मामला न्यायालय को संप्रेषित करने के लिए श्रम विभाग द्वारा राज्य सरकार को संप्रेषित कर दिया गया।  अब श्रमिकों को एक रुपया भी मिल सकेगा या नहीं यह कोई नहीं जानता।


स तरह के मामलों में राज्य सरकार चाहे तो त्वरित कार्यवाही कर के श्रमिकों को उन के कानूनी अधिकार दिला सकती है।  वह पर्याप्त संख्या में श्रम न्यायालयों की स्थापना कर के ऐसे विवादों का निपटारा छह माह से एक वर्ष की अवधि में होना सुनिश्चित कर सकती है।  तब तक वह नियोजक की संपत्ति को कुर्क रख सकती है जिस से श्रमिकों को उन का धन मिलना सुनिश्चित हो सके।  लेकिन राज्य और केन्द्र सरकारें इस मामले में असहाय श्रमिकों के स्थान पर कानून की पालना न करने की इच्छा रखने वाले नियोजकों के साथ ही खड़ी नजर आती हैं।  निश्चित रूप से इस का मुख्य कारण है कि 1980 के बाद से देश में श्रमिक आंदोलन और श्रम संगठन कमजोर होते गए हैं।  लेकिन समाज में मेहनत करने वालों की इस तरह की लगातार उपेक्षा श्रमिक आंदोलन और श्रमसंगठनों को एक बार फिर से उठ खड़े होने के लिए वातावरण प्रदान कर रही है।  आखिर कब तक वे चुप रह सकेंगे?