@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

लोगों को पूरे वर्ष की जरूरत का अनाज फसल पर खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाए

ज हमारे देश के महान कृषि मंत्री जनाब-ए-आला शरद पंवार साहब ने कह ही दिया कि गरीबों को अनाज मुफ्त में दिया जाना संभव नहीं है, और कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश नहीं दिया था अपितु सुझाव दिया था। आप की इस बात का क्या अर्थ निकाला जाए? यही न कि हम अनाज सड़ा सकते हैं लेकिन बाँट नहीं सकते। सड़ाने में हमारा कुछ खर्च नहीं होता (सिवाय मलबे को साफ करने के) (और अनाज के सड़ने से फैलने वाली बीमारियों से निपटने के, लेकिन उस से क्या? वह तो स्वास्थ्य और चिकित्सा विभाग का काम है, उस से उन्हें क्या लेना देना) 
लिए हम मान लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव ही दिया था कोई निर्देश नहीं। लेकिन उस सुझाव में भी बात तो यही छिपी हुई थी ना कि जो अनाज आप ने जनता के पैसे से खरीदा है वह काम आए और सड़े नहीं। लेकिन लगता है कि शरद पंवार को बात आसानी से समझ नहीं आती। आए भी कैसे अभी जनता ने उन्हें शानदार सबक जो नहीं सिखाया। कोई बात नहीं, जनता किसी को भूलती नहीं और अवसर आने पर प्रसाद अवश्य ही बाँटती है। जल्द ही इस का सबूत भी देखने को मिल जाएगा। इस परिस्थिति में हमें इस पर अवश्य विचार करना चाहिए कि अनाज क्यों सड़ रहा है? निश्चित रूप से अनाज की फसल इतनी तो नहीं ही हुई है कि वह सड़ने लगे। फिर हुआ क्या है? देश की आबादी बढ़ी है और गोदाम भी बढ़े हैं फिर अनाज के भंडारण के लिए गोदाम कम क्यों पड रहे हैं? 
नाज गोदामों में ही नहीं भरा जाता। हर घर में इतनी जगह तो होती ही है कि परिवार के वर्ष भर का अनाज वहाँ सुरक्षित रखा जा सके। पहले यही होता था कि अधिकांश लोग चाहे उन की आर्थिक हैसियत कैसी भी क्यों न रही हो वे अपनी जरूरत के वर्ष, डेढ़ वर्ष का अनाज अपने घरों पर सुरक्षित कर के रखते थे। जिस के कारण बहुत सा अनाज लोगों के घरों में जा कर जमा हो जाता था। उन के भंडारण के लिए बड़े गोदामों की आवश्यकता नहीं होती थी। लेकिन वर्ष भर का अनाज घर में एक साथ खरीद कर रख लेने की आदत लोगों में कम हुई है। अधिकांश लोग या तो बाजार से सीधे आटा खरीद रहे हैं या फिर पचास किलो का बैग खरीद कर लाते हैं और उस के समाप्त होने पर फिर से बाजार पहुँच जाते हैं। 
कुछ वर्ष पहले तक सभी सरकारी विभागों में अनाज की फसल आने पर अनाज अग्रिम कर्मचारियों को मिल जाता था। यहाँ तक कि इसी तर्ज पर अनेक उद्योगों में भी मजदूर यूनियनों ने यह मांग उठाई और मजदूरों को अनाज अग्रिम मिलने लगा था। लेकिन कुछ वर्षों से अनाज अग्रिम मिलने की बात सुनाई नहीं दे रही है। यह अनाज अग्रिम मिलने से कर्मचारी वर्ष भर का अनाज एक साथ खरीद लेते थे। इस तरह से वर्ष भर का अनाज लोगों के घरों में पहुँच जाता था और अनाज के भंडारण की समस्या ही नहीं होती थी।  
पिछले कुछ वर्षों से अनेक कारणों से लोगों के घरों में वर्ष भर का अनाज खरीदने की प्रवृत्ति समाप्त हुई है और अनाज के भंडारण के लिए गोदामों की समस्या खड़ी हुई है। इस समस्या से निपटने के लिए अब देश भर में नए गोदाम बनाए जाएंगे। उस के लिए पूंजी खर्च की जाएगी। उस के लिए खेती करने वाली जमीनों को अधिग्रहीत किया जाएगा। गोदामों के निर्माण कार्यों में मंत्रियों से ले कर अफसरों और ठेकेदारों के वारे-न्यारे होंगे। राजनैतिक दलों के लिए चंदा इकट्ठा करने का एक और जरिया बनेगा। गोदामों की  इस समस्या को हल करने का मुझे तो अब भी सब से बड़ा समाधान यही लगता है कि लोगों को साल भर का अनाज अपने घरों में खरीद कर रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सरकारी कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दिया जाए और उन्हें वर्ष भर का अनाज खरीदने का सबूत पेश करने को कहा जाए। निजि क्षेत्र के नियोजकों को भी कानून बना कर इस के लिए बाध्य किया जा सकता है कि वे अपने कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दें। अनाज अग्रिम के लिए दिया गया धन कर्मचारियों के वेतन से प्रतिमाह कटौती के जरिए  वापस नियोजकों को मिल जाएगा।

बुधवार, 18 अगस्त 2010

वे संघर्षो से हथियार बंद बलों के माध्यम से निपटने के आदी हो चुके हैं

ल मैं ने नगरों के विकास में पूंजी के अनियोजित निवेश से अवरुद्ध विकास की बात की थी। आज इसी विकास का एक और पक्ष जिस की आग में उत्तर प्रदेश जल रहा है। इस से पहले सिंगूर, नंदीग्राम औऱ दादरी में इस आग के दर्शन हम कर चुके हैं। वहीं लाल पट्टी जहाँ नक्सली-माओवादी सक्रिय हैं में भी यही विषय प्रमुख बना हुआ है। औद्योगिक और नगरीय विकास के लिए खेती की जमीनों का अधिग्रहण और जंगलों की वानस्पतिक और खनिज उपज को उद्योगपतियों के हवाले कर देना इस आग का मूल कारण है। 
म सभी जानते हैं कि औद्योगिकीकरण और नगरीयकरण विकास के लिए आवश्यक हैं। दुनिया की आबादी को इस विकास के बिना जीवित भी नहीं रखा जा सकता। भारत में आज भी औद्योगिकी करण बहुत पिछड़ा हुआ है और आधी से अधिक आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। भारत जैसे देश को यदि विकास की दौड़ में बनाए रखना है तो उस का औद्योगिकीकरण आवश्यक है। औद्योगिकीकरण के बिना देश की आबादी को जरूरत की चीजें मुहैया करा पाना संभव भी नहीं है। यही तर्क आज सरकारों और शासक वर्गों की ओर से दिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि किसान और माओवादियों के साथ खड़े आदिवासी इन जरूरतों और तर्कों को नहीं समझते हों। वे जानते हैं कि ये जरूरी है लेकिन फिर भी उस के लिए वे लड़ते हैं और सशस्त्र संघर्ष में उतर आते हैं। 
स लड़ाई की मूल वजह फिर वही है,  अनियंत्रित और अनियोजित विकास। विकास का अर्थ यह तो नहीं कि खेती पर निर्भर किसानों और जंगलों को अपना जीवन मानने वाले आदिवासियों की कीमत पर यह सब किया जाए। यह पहले से निश्चित है कि ओद्योगिक और नगरीय विकास तथा जांगल उपजों पर उद्योगों के अधिकार के साथ किसान और आदिवासी विस्थापित होंगे और बरबाद होंगे। कुछ रुपयों के पीछे उन्हें लगातार रोजगार देने वाली भूमि सदा के लिए नष्ट हो जाएगी। जंगल अब आदिवासियों के लिए पराया हो जाएगा। उद्योगों के उत्पादों के विपणन में जब खुला बाजार पद्धति को लागू कर दिया गया है उद्योगपति जब अपने माल को मनचाही कीमत पर बेच सकता है और उस के लिए मोल-भाव कर सकता है तो किसान अपनी जमीन के लिए क्यों नहीं कर सकता। उसे अपनी जमीन मनचाही कीमत पर बेचने का अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता? 
किसान की जमीन  की कीमत बढ़ा कर जमीन  के मालिकों के लिए तो हल निकल आएगा। लेकिन सिंगूर, नंदीग्राम, दादरी में और अब उत्तरप्रदेश में जो आंदोलन हुए हैं उन की ताकत यह जमीनों का मालिक किसान नहीं है। उस के पीछे की असली ताकत वे लोग हैं जो इन खेती की जमीनों पर काम करते हैं। भूमिधर किसानों को तो उन की जमीन की कीमत मिल जाएगी। लेकिन उन्हें क्या मिलेगा जो उन जमीनों पर अपना पसीना बहाते हैं। उन का रोजगार तो नष्ट हो रहा है। उन्हें तो उसी भीड़ में आ कर खड़ा होना पड़ेगा जो नगरों के चौराहों पर रोज सुबह काम की तलाश में खड़ी दिखाई पड़ती है और जिस में से बहुतों को दिन भर बिना काम के ही गुजारा चलाना पड़ता है। निश्चित रूप से विकास गति को बनाए रखने वाली सरकारों को सोचना होगा कि खेती की जमीनों और जंगलों से बेकार हो रहे इन मनुष्यों के लिए क्या किया जाए। जमीनों के अधिग्रहण और जंगलों की उपज पर अधिकार जमाने के पहले इनम मनुष्यों के लिए व्यवस्था बनाई जाये तो ये आंदोलन, खून खऱाबा और सशस्त्र संघर्ष दिखाई ही नहीं पड़ेंगे। पर मौजूदा आर्थिक व्यवस्था को जनता की जरूरतों से अधिक मतलब पूंजीपतियों के मुनाफों की होती है। वे संघर्षो से हथियार बंद बलों के माध्यम से निपटने के आदी हो चुके हैं। विकास होना चाहिए पूंजी दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़नी चाहिए। इंसान मरे तो मरे उस की उन्हें क्यों फिक्र होने लगी?

पूंजी का अनियोजित निवेश विकास को अवरुद्ध करता है

गर तेजी से विस्तार पा रहे हैं। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों के नगरीय विकास विभाग इस विस्तार से आँख मूंदे बैठे हैं। लोग नगरों में शरण पाते हैं तो उन्हें रहने को छप्पर तो चाहिए ही। रोजगार मिलने के बाद सब से पहले आदमी यही सोचता है कि उसे एक छत मिल जाए। वह उस की तलाश में लग जाता है। वह किराए का घर लेता है। जो हमेशा उस की जरूरत से बहुत छोटा होता है। जैसे तैसे कुछ बचाता है और एक अपना घर बनाने की जुगाड़ में लग जाता है। नगरों में जमीनें कीमती हैं और उस के बस की नहीं। लेकिन अपने घर की चाह बनी रहती है
सी चाह का लाभ उठाते हैं वे लोग जिन के पास लाठी है, जिनकी लाठी की राजनीतिज्ञों को जरूरत होती है और जिन के पास कुछ पैसा भी है। वे जमीनों पर कब्जा करते हैं, झुग्गियाँ डालते हैं और उन्हें किराए पर उठाते हैं, बेच भी देते हैं। सस्ती झुग्गी खरीद कर आदमी उसे पक्की करने में जुट जाता है। यह झुग्गी हमेशा अवैध होती है जब तक कि पूरी बस्ती के वोटों का दबाव सरकार पर नहीं बन जाता है। हमारे नगरीय विकास विभाग इन झुग्गियों के न बसने का और लोगों को आवास मुहैया कराने का कोई माकूल इलाज आज तक नहीं निकाल पाए। 
धर अनेक स्तरों वाला मध्यवर्ग भी बहुत बड़ा है, उसे झुग्गियाँ पसंद नहीं वह सस्ती जमीन चाहता है। नगरों के आसपास की खेती की जमीनें किसान बेच रहे हैं। उन्हें ऐसे ग्राहक मिल जाते हैं जो उन्हें इतना पैसा देने को तैयार हैं जिस से बेचना फायदे का सौदा हो जाए। खरीदने वाले लोग जमीन पर भूखंड बनाते हैं और फिर बेच देते हैं। वे अपना पैसा जल्दी निकालना चाहते हैं। सभी भूखंड जल्दी ही बिक जाते हैं। जब पहली बार ये भूखंड बिकते हैं तो बस्ती नहीं होती है। इन भूखंडों को वे ही लोग खरीदते हैं जिन के पास पैसा है और उन्हें खरीद कर छोड़ देते हैं, तब तक के लिए जब तक कि उन का अच्छा पैसा न मिलने लगे। फिर कोई जरूरतमंद आ कर उन पर मकान बनाता है। उसे देख कर कुछ लोग और आते हैं और मकान बनने लगते हैं। जमीन की कीमत बढ़ने लगती है। जब कुछ मकान बन जाते हैं तो लोग उसे बसती हुई बस्ती मान कर वहाँ अपने लिए कोई भूखंड खरीदने जाने लगते हैं। भूखंडों का बाजार बनने लगता है। लेकिन उन्हें उस कीमत में भूखंड नहीं मिलता जिस पर वे लेना चाहते हैं, जितनी उन की हैसियत है। उन की हैसियत के मुताबिक कीमत पर भूखंड मिलता है तो वहाँ जहाँ अभी बस्ती बसने नहीं लगी है। नगरों के आस पास मीलों तक के खेत बिक चुके हैं। उन पर भूखंड बना दिए गए हैं, बेच दिए गए हैं। लेकिन बस्तियाँ नहीं बस रही हैं। लोग बसना चाहते हैं। लेकिन वाजिब कीमत पर जमीन नहीं है। 
ध्य और उच्च मध्यवर्गीय लोगों की इन भूखंडों में करोड़ों-अरबों की पूंजी लगी है। इस पूंजी ने जो आवासीय योजनाएँ खड़ी की हैं। उन में न बाजार हैं और न ही अन्य सुविधाएँ। इन्हें लोग अपनी मरजी और जरूरत के अनुसार बना ही लेंगे। लेकिन पार्क और खेलने के स्थान? वे इन में कभी नहीं होंगे। भूखंडों को उन के मालिक  तब बेचेंगे जब उन की मर्जी के मुताबिक भाव मिलेगा। पूंजी के इस अनियोजित निवेश ने नगरों की बस्तियों के विकास को अवरुद्ध और बेतरतीब कर दिया है। सरकारों को इस से क्या? भारत तो इसी तरह निर्मित होगा, अनियोजित और अव्यवस्थित।

रविवार, 15 अगस्त 2010

चिंदी-चिंदी बीनती, फिर भी नहीं हताश

तिरेसठ बरस पहले बर्तानियाई संसद का एक कानून इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट, 1947 लागू हुआ, और हम आजाद हो गए। हमारे देश पर अब बर्तानिया का नियंत्रण नहीं रह गया था। लेकिन हम दो देश बन गए थे। एक इंडिया और दूसरा पाकिस्तान। केवल एक गवर्नर जनरल छूट गया था। तकरीबन ढाई बरस में हमने अपना संविधान बना कर लागू किया और उसे भी अलविदा कह दिया। हम अब पूरी तरह आजाद थे। पूरी तरह खुदमुख्तार। हमने देश बनाना शुरू किया और आज तक बना ही रहे हैं। हमने जो कुछ बनाया है हमारे सामने है। महेन्द्र 'नेह' ने इन बारह दोहों में अपने बनाए देश की पड़ताल की है।
प भी गुनगुनाइये ये दोहे .......

महेन्द्र 'नेह' के बारह 'दोहे'
 तू बामन का पूत है, मेरी जात चमार
तेरे मेरे बीच में, जाति बनी दीवार।।
वो ही झाड़ू हाथ में, वही तगारी माथ।
युग बदले छूटा नहीं, इन दोनों का साथ।।


हरिजन केवल नाम है, वो ही छूत अछूत।
गांधी चरखे का तेरे, उलझ गया है सूत।।

अब मजहब की देह से, रिसने लगा मवाद।
इन्सानों के कत्ल का, नाम हुआ जेहाद।।


फिर मांदो में भेड़िये, फिर से बिल में साँप।
लोक-तंत्र में जुड़ रही, फिर पंचायत खाँप।।

घोड़े जैसा दौड़ता, सुबह शाम इंसान।
नहीं चैन की रोटियाँ, नहीं कहीं सम्मान।।

फुटपाथों पर चीखता, सिर धुनता है न्याय।
न्यायालय में देवता, बन बैठा अन्याय।।

सत्ता पक्ष-विपक्ष हैं, स्विस-खातों में दोय।
काले-धन की वापसी, आखिर कैसे होय।।

जिसने छीनी रोटियाँ, जिसने छीने खेत। 
वोट उसी को दे रहे, कृषक मजूर अचेत।।

कहने को जनतंत्र है, सच में है धन-तंत्र।
आजादी बस नाम की, जन-गण है पर-तंत्र।।
चिंदी-चिंदी बीनती, फिर भी नहीं हताश।
वह कूड़े के ढेर में, जीवन रही तलाश।।

चलो चलें फिर से करें, नव-युग का आगाज।
लहू-पसीने से रचें,  शोषण-हीन समाज।।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

दर्पण झूठ बोलता है

श्री रघुराज सिंह हाड़ा हाड़ौती के शीर्षस्थ गीतकारों में से एक हैं। वर्तमान में वरिष्ठतम भी। उन्हों ने हाड़ौती के साथ साथ ही हिन्दी में भी सुंदर गीतों की रचना की है। उन के गीत जीवन से निकलते हैं और जीवन की सचाइयों को उद्घाटित करते हैं। आज प्रस्तुत है उन का एक हिन्दी गीत..........'दर्पण झूठ बोलता है'
 







 दर्पण झूठ बोलता है
  • रघुराज सिंह हाड़ा
किस से बात करें दर्पण झूठ बोलता है
मन का भेद छुपा केवल प्रतिबिंब खोलता है।
................................. दर्पण झूठ बोलता है।।

लगता है हर दर्पण धुंध लपेटे होता है
चेतन को चुप कर केवल आकृतियाँ ढोता है
दिखने-होने का अन्तर तो मन टटोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

बातों के बोपारी बोलें तो जादू जागे
भीड़ चले पीछे वो माला पहन चलें आगे
सच-सवाल कर लो तो उन का खून खौलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

ऐसा शहर बसा देखा जो दिखता सुंदर था
ऊपर आकर्षक था भीतर पूरा बंजर था
विज्ञापन का बाट मगर सच कहाँ तौलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

कई बार कुछ लोग सचाई से डर जाते हैं
(पर) मनगढ़ सपने दिखा उन्हें दर्पण बहलाते हैं
पर आत्म प्रवंचन तो जीवन में जहर घोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

कई कई समझौते मन समझाने आते हैं
सहमति को सुविधाओं का सुख सार बताते हैं
पर कबीर ओढ़े उसूल का कफन डोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।। 
  • मोटर गैराज, झालावाड़, (राजस्थान)

बुधवार, 11 अगस्त 2010

बेटे-बेटी के घर आने का उत्सव

म्प्यूटर अनुप्रयोग में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर लेने के बाद बेटे वैभव ने कुछ सप्ताह घर पर बिताए। आरंभ से ही शिक्षा में उत्तम प्रथम श्रेणी प्राप्त करते रहने से उस की इच्छा थी कि काम भी उस के अनुरूप ही मिले। इस कारण से वह सूचना तकनीकीशियनों के लिए भारत में सब से बड़े और उत्तम बाजार बंगलुरू के लिए रवाना हो गया। वह दीपावली के ठीक बाद गया था और फिर ठीक होली के दिन ही वहाँ से लौटा। कुल चार माह का उस का अनुभव बहुत विचित्र था। उस ने इस बीच बहुत परीक्षाएँ और साक्षात्कार दिए। लेकिन पढ़ाई और ज्ञान एक चीज है और परीक्षाएँ पास करना और साक्षात्कार में सफल होना दूसरी बात। वह एक दो सीढ़ी तो पार कर लेता लेकिन उस से आगे असफल हो जाता। यह करते करते ही उस ने इस काम में भी अपने कौशल को विकसित करना आरंभ कर दिया। 
स से पहले कैंपस सैलेक्शन का उस का अनुभव बहुत बुरा रहा था। जब जब भी कैंपस में चुनाव के लिए कोई कंपनी आती उसे अपनी ट्रेनिंग छोड़ भिलाई से इंदौर की यात्रा करनी पड़ती। कैंपस सेलेक्शन में भी बहुत जुगाड़ थे पहले तो अपने ही कॉलेज के टीपीओ को पटा के रखो, फिर किसी माध्यम से आने वाली कंपनी के मानव संसाधन प्रबंधक को पटाओ। न पटे तो किसी स्थानीय ऐजेंसी से कुछ जुगाड़ बिठाओ। वह यह सब नहीं करना चाहता था। चाहता था कि अपनी योग्यता से उसे कुछ मिले। आखिर एक कंपनी ने उसका चुनाव कर लिया उसे सेवा के लिए प्रस्ताव मिल गया। लेकिन जब जोइनिंग का समय आया तो पता लगा कि कॉलेज में कैंपस चुनाव के लिए जितनी कंपनियाँ आई थीं सब की सब जाली थीं। जैसे-जैसे नौकरी में चढ़ने का वक्त आता जा रहा था उन कंपनियों के जाल-स्थल गायब हो चुके थे। उन में दिए गए पतों पर कुछ और ही था। आखिर उसने बंगलुरू की राह पकड़ी।  
होली के बाद जब वह बंगलुरू पहुँचा तो अब तक के अनुभव से उस ने चयन की तमाम सीढ़ियाँ पार करना सीख लिया था और मानव संसाधन साक्षात्कार के स्तर तक पहुँचने लगा। बस यहीं से सारी गड़बड़ आरंभ हो गई। वहाँ उसे पता लगता कि वे कंप्यूटर अनुप्रयोग के स्नातकोत्तरों को नहीं लेते, या ये पता लगता कि उन्हें केवल एक को ही लेना है या फिर ये कि उन के पास अभी डॉटनेट को परखने वाला कोई नहीं है। जैसे ही उपलब्ध होगा वे उसे फिर से बुलाएँगे। वह हर सप्ताह एक-दो साक्षात्कार देता रहा। इसी तरह चार माह और निकल गए। आखिर उसे भारत की एक बड़े सूचना तकनीक उद्योग ने नोएडा में साक्षात्कार के लिए बुलाया। वह ढाई दिन की रेल यात्रा के बाद दिल्ली पहुँचा। लिखित परीक्षा हो गई, ठीक उस के बाद मानव संसाधन प्रबंधक का संदेश मिला कि उन्हें भेंट के रूप में आधी पेटी से अधिक राशि देनी होगी, तभी साक्षात्कार आगे होंगे और गारंटी के साथ नौकरी दे दी जाएगी। बेटे ने गारंटी का प्रकार पूछा तो पता लगा वह सिर्फ मौखिक है। उस ने बोरिया-बिस्तर समेटे और जिस भी पहली ट्रेन में स्थान मिला कोटा के लिए रवाना हो गया। 
ल शाम वैभव कोटा पहुँचा तो हमारे लिए उत्सव जैसा था। आखिर बेटा चार माह बाद घर आया था। उस के मनपसंद आलू के पराठे बनाए गए। उस के बहाने से हमें भी मिले तो एक अधिक ही खा गए। आज की सुबह भी भोजन में महिनों बाद बैंगन की सब्जी दिखाई दी। बैंगन भी अच्छे और स्वादिष्ट थे। लेकिन दो समय अतिभोजन और उपर से बला की ऊमस दिन भर पसीने बहते रहे। जैसे-तैसे घर पहुँचा तो संदेश मिला कि पूर्वा बेटी भी आ रही है, फरीदाबाद से चल चुकी है। भाई के एक सप्ताह घर रहने की खबर जान कर वह भी तीन दिनों का अवकाश ले कर आ रही है। हमारा उत्सव तो दुगना हो गया। अगले सोमवार तक घर में पूरा उत्सव ही रहेगा। जब तक बेटे-बेटी घर में हैं। मैं और वैभव तुरंत उसे लेने के लिए रेलवे स्टेशन जाने की तैयारी में जुट गए।

अब खाएँ क्या? और पिएँ क्या?

ल  मेरे घर से कुछ ही दूर एक मकान में नकली घी निर्माण करते और ब्रांडेड सरस घी की पैकिंग में पैक करते हुए कुछ लोग पकड़े गए। यह ब्रांड राजस्थान सरकार द्वारा नियंत्रित सहकारी समिति का उत्पादन है। अब किस का विश्वास किया जाए? अब ब्रांड का भी विश्वास नहीं रहा। क्या है ऐसा जिस पर विश्वास किया जाए?
ल, सब्जियाँ, दूध, कोल्ड ड्रिंक, घी, खाद्य तेल, आटा, दाल, मसाले और मिठाई जो कुछ भी  हम खा रहे हैं, कुछ भी तो दुरुस्त नहीं। या तो वे नकली हैं या फिर मिलावटी। आमों में इस साल वैसा स्वाद नहीं था, सब के सब कैल्शियम कार्बाइड से पकाए हुए। नतीजा यह कि आम एक बार घर में आ गया तो एक सप्ताह तक दुबारा लाने की इच्छा तक नहीं होती। जाता है। कैल्शियम कार्बाइड में आंशिक रूप से आर्सेनिक और फास्फोरस  पाए जाते हैं। इस से एसिटिलीन गैस निकलती है, जो फलों को शीघ्रता से पका देती है। इस तरह पकाय हुआ फल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। केला सारे का सारा इसी से पकाया जा रहा है। अब उसे खाना भी बंद। गैस के प्रभाव में आकर फल को विकसित करने वाले हार्र्मोस तेजी से सक्रिय हो जाते हैं। कैल्शियम कार्बाइड का इस्तेमाल खाद्य पदार्थो में नहीं किया जाना चाहिए और इसे बच्चों की पहुंच से दूर रखा जाना चाहिए। इसकी सहायता से पकाया जाने वाला फल आकर्षक लगता है और उस पर रंग भी खूब निखरता है।
मैं बचपन में दूध पिया करता था। घर में भैंस थी। उस का स्वाद अभी भूला नहीं गया है। लेकिन उस स्वाद को छोड़ उस के आसपास का दूध भी अब कहीं नहीं मिलता। हम हर तीसरे दिन घर से डेढ़ किलोमीटर दूर दशहरा मैदान में गूजरों के यहाँ जा कर अपने सामने भैंस दुहा कर तीन किलो दूध ले आते हैं। उसी से काम चलता है। यह बाजार के दूध से बेहतर है। बाजार के दूध का कुछ भरोसा नहीं कहीं वह सिंथेटिक न हो? यूरिया, डिटरजेंट और खाद्य तेल से बना हुआ। रोज सुबह जब सब्जी मंडी से आने वाले सब्जी बेचने वाले फेरी लगाते हैं तो यह सोच कर परेशानी होने लगती है कि क्या लिया जाए। भाव तो अपनी जगह हैं। उन की गुणवत्ता का कुछ पता नहीं। पिछले एक माह में केवल दो सब्जियाँ थीं जिन में कुछ स्वाद और गुणवत्ता महसूस हुई। एक कद्दू और दूसरा क्हुळींजरा। कद्दू अक्सर तोड़ कर रख लिया जाता है और जैसे जैसे पकता जाता है बिकता जाता है। क्हुळींजरा बरसात में खेतों में कचरे की तरह उगता है जिसे फसल बचाने के लिए किसान उखाड़ फैंकते हैं। बेकार की चीज होने से यह अभी अपनी मूल शक्ल में मिल जाता है। बस इस के पत्ते को उबाल-निचोड़ कर ही सब्जी बनाई जा सकती है। बाकी सारी सब्जियां कीटनाशकों की शिकार हो चुकी हैं। कहते हैं ताजा और आकर्षक दिखाने के लिए सब्जियाँ रसायनों के घोल से रंगी जाती हैं। अब तो यह भी सुना है कि सब्जियों का आकार बढ़ाने के लिए उनमें आक्सीटोसिन हार्मोस के इंजेक्शन भी लगाए जा रहे हैं।
कुल मिला कर हमें जो मिल रहा है वह वो नहीं जो हमें दिख रहा है। हम खरीदते कुछ हैं और मिल कुछ रहा है। ऐसे में पत्नी जी की पुरानी शैली का रहन-सहन बहुत याद आ रहा है। आटे के लिए साल भर के गेहूँ खरीद कर रखो औऱ हर महिने जरूरत के अनुसार साफ कर पिसाते रहो। बीच बीच में कुछ मोटा अनाज मक्का, ज्वार और बाजरा भी प्रयोग करो। दालों के साबुत बीज खरीदो और दल कर दाल बनाओ। मसाले हल्दी, मिर्च और धनिया फसल  के समय साल भर का खरीदो और पिसवा कर स्टोर करो। तेल सीधे मिल से मंगवाओ। और घी उसे तो खाने के लिए अब डाक्टर भी मना कर रहे हैं। फिर भी जो भैंस का दूध हम सामने दुहा कर लाते हैं। उस से जरूरत का निकल आता है। चाय और कॉफी जरूर ब्रांडेड ला रहे हैं और अभी तक उन के मामले में कोई शिकायत नहीं मिली है। यह तो मैं इस लिए कर पा रहा हूँ कि पत्नी इन कामों के लिए पूरा वक्ती कामगार बनी है। लेकिन यह सब सब के लिए संभव नहीं है। फिर सब का गुजारा कैसे हो?
ह सब सरकारों को नियंत्रित करना चाहिए। लेकिन सरकार ने तो सब कुछ मुनाफे की अर्थ व्यवस्था पर छोड़ दिया है। आखिर उस मुनाफे का एक अंश राजनैतिक दलों को भी तो मिलता है जिस से चुनाव लड़ा जाता है और जिस से सरकार बनती है। सरकार के पास इन सब को नियंत्रित करने के लिए मशीनरी है। इंसपेक्टर हैं। लेकिन वे सरकार के कम और इन मुनाफाखोरों के ज्यादा वफादार हैं। आखिर सरकार उन्हें सिर्फ वेतन देती है। ये लोग उसे वेतन के अलावा सब कुछ दे सकते हैं और उन की इच्छानुसार काम न करने पर किसी कालापानी जैसी जगह पर उस का तबादला करवा देते हैं जो सरकार का मिनिस्टर ही करता है।  इस मुनाफे की अर्थव्यवस्था को बिना नियंत्रण छोड़ दिया जाए तो यह ऐसा ही व्यवहार करने लगती है। इस पर कठोर नियंत्रण आवश्यक है। लेकिन हमारी व्यवस्था कठोर तो क्या मुलायम नियंत्रण कर पाने में भी असमर्थ है। 
ब फिर क्या इलाज है? क्या इस मुनाफे की अर्थ व्यवस्था को ही छोड़ दिया जाए? छोड़ा जाए तो अपनाने के लिए हमारे पास कौन सी अर्थव्यस्था है?