@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 5 जुलाई 2010

कीचड़ सूखने का इंतजार ही किया जाए

ल रात शोभा (श्रीमती द्विवेदी) ने पूछा, गाड़ी में पेट्रोल तो है ना? मैं चौंका। एक तो पिछले ही दिनों पेट्रोल की कीमतें बढ़ी हैं फिर अक्सर वे ये सवाल तभी करती हैं जब वे मेरे साथ कार में ऐसी जगह की यात्रा करती हैं जहाँ एक-दो किलोमीटर में पेट्रोल पम्प न हो और कोई सवारी भी न मिलती हो। मैं ने तत्काल पूछा, क्यों? कहीं जाना है क्या? वे बोलीं, नहीं मैं तो इस लिए कह रही थी कि कल भारत बंद है, सुबह जरूरत पड़ेगी तो क्या करोगे? नहीं हो तो अभी जा कर भरवा लाओ। -कल तक के लिए पर्याप्त होगा। इतना कह कर मैं ने अपनी जान छुड़ाई। चलो इस बहाने हमें भारत बंद का तो पता लगा। वरना हमें तो सुबह अखबार या टीवी समाचार से ही यह पता लगता। वैसे भी कल किसी टीवी वाले को धोनी की शादी से ही फुरसत नहीं थी।
सुबह अखबार आया तो पता लगा कि बंद के कारण यातायात की अस्तव्यस्तता रहने से अधिवक्ता परिषद ने घोषणा कर दी है कि वे भी काम लंबित रखेंगे। हम कुछ रिलेक्स हो गए। हमें पता था कि आज कोई अदालत परेशान नहीं करेगी। क्यों कि अधिवक्ताओं के काम न करने से आज का दिन उन के काम के कोटे की गणना से अलग हो गया है। यह न्यायिक अधिकारियों के लिए बोनस का दिन है। इस दिन जितना काम वे अपने अपने चैंबर में करते हैं वह उन के कोटे को सुधार देता है। हम भी आराम से निबटे। बस भोजन करना शेष था कि बंगलूरू से बेटे का फोन आ गया। बता रहा था कि वह जल्दी ही नीचे जा कर कुछ नाश्ता ले आया है वरना दिन भर भोजन से वंचित रहना पड़ता। यूँ तो वह अपना भोजन खुद बनाता रहा है। लेकिन अभी इसे के लिए वहाँ पर्याप्त साधन नहीं जुटा पाने के कारण चाय आदि के अलावा वह बाजार पर ही निर्भर रहता है। उस ने बताया कि यहाँ सारी कंपनियाँ आज बंद रहेंगी। ट्रेफिक भी बंद रहेगा। सुबह सुबह ही पुलिस वालों की टोलियाँ सड़क पर आ निकली थीं। जिस किसी ने दुकान खोल दी थी उसे बंद करवा रहे थे। कह रहे थे अपना नुकसान करवाओगे और हमारे कलंक लगाओगे, कि पुलिस ने कुछ नहीं किया। मैं ने उसे कहा कि यह तो बड़ी अजीब बात है पुलिस बंद करवा रही है? तो उस का जवाब था कि यहाँ बीजेपी की सरकार जो है। 
म अदालत के लिए निकले तो ट्रेफिक रोज की तरह चलता नजर आया। हाँ ऑटो इक्का दुक्का नजर आ रहे थे। सिटी बसें नहीं थीं और दुकानें एक सिरे से बंद थीं। हम बड़े मजे में गाड़ी चलाते हुए अदालत पहुँचे तो दूर से हमारा पार्किंग पूरी तरह खाली देख प्रसन्नता हुई, कि आज किसी पेड़ की छाया के  नीचे कार पार्क कर सकेंगे। लेकिन यह खुशी पास जाने पर टूट गई। पुलिस वाले अस्पताल और अदालत के बीच वाली सड़क के किनारे वाले पार्किंग में गाड़ी पार्क करने ही नहीं दे रहे थे। हमने पार्किंग के लिए दूसरी जगह तलाशी तो सभी पार्किंग  पहले से भरे हुए थे। फिर परेशान हुए तो एक जूनियर साथी ने हमें सलाम ठोकी। हम ने गाड़ी रोक दी। उस ने कहा कि आज उस की कार अंदर पार्किंग में फँस गई है। मुझे पत्नी को अस्पताल ले जाना है। मैं गाड़ी से उतर गया और अपनी गाड़ी की चाबी उसे दे दी। मुझे पार्किंग तलाशने से मुक्ति मिली। 
दालत में जा कर अपना काम संभाला। अदालतों में गए। कुछ अदालतों ने मुकदमों में तारीखें बदल दी थीं। कुछ अदालतें जहाँ नए न्यायिक अधिकारी तबादला हो कर आए थे, तारीखें नहीं बदल रही थीं। शायद नए अधिकारी मुकदमों की पत्रावलियों से परिचित होना चाह रहे थे, या फिर वे कोटा की उस परंपरा से वाकिफ न थे, जिस के अनुसार अधिवक्ता परिषद की काम लंबित होने की चिट्ठी आने पर उन्हें प्रसन्न होना था। पर मैं जानता था कि उन की यह असामान्यता सिर्फ दोपहर के विश्राम तक ही टिकेगी। क्यों कि तब चाय पर वे पुराने अधिकारियों से मिलेंगे और उन से मिली सीख उन्हें सामान्य कर देगी। बंद के दिन भी कुछ तो मुवक्किल आ ही गए थे। कुछ उन से बातचीत की, कुछ उन्हें सलाहें दीं, कुछ टाइप का काम करवाया। एक नया मुकदमा मिला तो फीस भी मिली। इस के अलावा दो बार बैठ कर कॉफी भी पी। कुल मिला कर शाम के साढे़ चार बज गए। तब तक शहर में कुछ भी असामान्य होने की खबर नहीं थी। सब कुछ वैसे ही चल रहा था जैसे हर बंद में चलता है। दुकानें स्वतः ही बंद थीं। कुछ नुकसान होने के डर से और कुछ इस लिए कि व्यापारियों को रूटीन में सप्ताह में एक ही अवकाश मिलता है। जब कभी बंद की घोषणा होती है तो वे बड़े खुश होते हैं कि उन्हें एक दिन का अवकाश और मिला और पहले से ही पिकनिक का कार्यक्रम बना लेते हैं। फिर आज तो मौसम इस के लिए बहुत अनुकूल था। पिछले दो-तीन दिनों हुई बरसात ने वातावरण को भीगा-भीगा और कुछ कुछ सर्द तो कर ही दिया था। आज नगर के आस-पास के सभी पिकनिक स्पॉट आबाद थे। सभी महाराज भोजन बनाने के लिए पहले से बुक थे। 
शाम घर पहुँचने पर टीवी खोला तो न्यूज चैनलों पर बहसें चल रही थीं। विपक्ष इसे जनता का बंद साबित करने पर तुला हुआ था तो कांग्रेस कह रही थी कि विपक्ष सरकार में होता तो इस से भी बुरी हालत होती। विपक्षी दलों के प्रतिनिधि सोच रहे थे कि रोना ही यही है कि वे सरकार में नहीं हैं। यदि होते तो काँग्रेसी ये सब कर रहे होते जो उन्हें करना पड़ रहा है। जनता टीवी देखने में व्यस्त थी। हम सोच रहे थे कि गाड़ी कीचड़ में फँस गई है। निकाले नहीं निकल रही है। निकालने में एक और खतरा है कि कहीं टूट नहीं जाए। कोई एकाध पहिया कीचड़ में फंसा रह जाए तो और मुश्किल हो जाए। दूसरी कोई गाड़ी दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रही है कि इसे छोड़ उस में सफर किया जाए। अब ऐसे में क्या किया जाए?  कीचड़ सूखने का इंतजार ही किया जाए। कीचड़ सूखे शायद उस से पहले कोई अच्छा वाहन ही नजर आ जाए।

रविवार, 4 जुलाई 2010

जर्मनी की असली परीक्षा होगी स्पेन के साथ भिड़ंत में

फुटबॉल विश्वकप 2010 का आखिरी मुकाबला पराग्वे का स्पेन से था। स्पेन को पराग्वे के मुकाबले एक काफी मजबूत टीम माना जा रहा था और लोगों की आकांक्षाएँ ऐसी थीं कि स्पेन पराग्वे की अच्छी धुलाई करेगा। लेकिन हुआ ये कि पराग्वे पूरे मैच में स्पेन को गोल के लिए तरसाता रहा। जिस तरह से मैच का आरंभ हुआ था ऐसा लग रहा था कि कहीं पहला गोल करने में पराग्वे सफल न हो जाए। आरंभ में पराग्वे ने स्पेनी गोल पर अच्छे हमले किए। लेकिन स्पेन की मजबूत टीम जो शायद पराग्वे को आसान समझ कर पूरी ताकत और योजना के साथ नहीं खेल रही थी जल्दी ही होश में आ गई। स्पेनी खिलाड़ियों ने जब तालमेल के साथ खेलना आरंभ किया तो पराग्वे के लिए गोल पर हमले करना मुश्किल हो गया। पराग्वे के खिलाड़ी पूरी तरह रक्षात्मक हो गए। लेकिन जब वे रक्षा पर उतरे तो स्पेनी खिलाड़ियों को गोल तक गेंद पहुँचाना असंभव लगने लगा। पराग्वे के खिलाड़ियों ने स्पेन को पूरे मैच में छकाया और मौका पड़ने पर गोल पर हमले भी बोले जो स्पेनी खिलाड़ियों को आतंकित करते रहे। 
गोल के बाद जश्न मनाते स्पेनी खिलाड़ी
प इसी बात से पराग्वे की चुनौती का अनुमान कर सकते हैं कि विश्वकप की प्रबल दावेदार टीम को पराग्वे के खिलाड़ियों ने मैच का समय पूरा होने के आठ मिनट पहले तक गोल बनाने से वंचित रखा। स्पेनी इस मैच का पहला और अंतिम गोल मैच के बयासीवें मिनट में कर पाए। पराग्वे के खिलाड़ी पहले से जानते थे कि वे स्पेन को हरा नहीं सकेंगे। लेकिन जब स्पेन अपना पहला गोल करने में असफल रही तो उन का जोश बढ़ता गया और इसी ने स्पेनियों को बहुत परेशान किया। गोल हो जाने के बाद के आठ मिनटों में भी उन्हों ने स्पेनी खिलाड़ियों को चैन नहीं लेने दिया। ऐसा लग रहा था कि शायद मैच का निर्णय अतिरिक्त समय या पैनल्टी शूट से ही हो पाएगा। पराग्वे की हार के साथ ही लारिसा रिक्वेल का सपना भी टूटा। पर वे अपना करतब दिखाने के लिए और अवसर तलाश लेंगी।
हरहाल क्वार्टर फाइनल मुकाबले हो चुके हैं और सेमी फाइनल की टीमें निश्चित हो चुकी हैं। अब नीदरलेंड (हॉलेंड) का मुकाबला विश्वकप मैदान में बची रही एक मात्र गैर यूरोपीय दक्षिणी अमेरीकी उरुग्वे से है। ऐसा लग रहा है कि हॉलेंड को उरुग्वे से निपटने में अधिक मुश्किल नहीं होगी। लेकिन खुद हॉलेंड यही समझ बैठा तो उस के लिए मुश्किल हो सकती है और यह भी कि वह फाइनल खेलने से वंचित हो जाए। दूसरा मुकाबला निश्चित रूप से शानदार होने वाला है। जर्मन टीम विश्वकप के लिए जितना दावा जता रही है, स्पेन के दावे को उस से कम कर के नहीं आँका जा सकता। जर्मन  टीम का असली परीक्षण इसी सेमीफाइनल में होने वाला है। वैसे यह भी कहा जा रहा है कि जर्मनी और अर्जेंटीना के बीच हुए मुकाबले में कुछ गड़बड़ जरूर हुई है। अर्जेंटीना के खिलाड़ियों तक जर्मनी की एप्रोच की बातें भी चल रही हैं। लेकिन यह तो हमेशा होने वाली बातें हैं। यदि इन में सचाई हुई तो ये बातें निकल कर जल्दी ही निकल कर चौपाल पर आ जाएँगी। हम जुटते हैं दो दिन बाद सेमीफाइनल देखने की तैयारी में।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

जर्मनी एक अजेय टीम की तरह खेला, माराडोना का निर्वस्त्र प्रदर्शन का सपना चकनाचूर

जर्मनी की ओर से दो गोल बनाने वाले मिरोस्लाव कोसे
विश्वकप फुटबॉल के तीसरे क्वार्टर फाइनल मुकाबले में जर्मनी एक अजेय टीम की तरह खेला और अर्जेंटीना पर 4-0 से विजय हासिल की। खेल के आरंभ से ही जर्मन टीम ने आक्रामक रुख अपनाया और तीसरे मिनट में ही पहला गोल दाग दिया। एक गोल से पीछे हो कर भी माराडोना के अर्जेंटीनी खिलाड़ी ऐसे खेलते रहे जैसे मैदान के बाहर से माराडोना कोई जादू करेंगे और वे गोल करने लगेंगे और मैच जीत लिया जाएगा। पूरे मैच के दौरान कभी लगा ही नहीं कि अर्जेंटीनी टीम का एक भी खिलाड़ी जीतना चाहता है। ऐसा लगता था जैसे उन के पैरों में पत्थर बंधे हों और दिमागों पर काई छा चुकी हो। 
माराडोना
ब-जब भी गेंद अर्जेंटीनी खिलाड़ियों के कब्जे में आई तब-तब वे या तो अपने पाले में कब्जा बनाए रखने की कोशिश करते रहे या फिर जल्दी ही गेंद उन से छीन ली गई। जब भी एक खिलाड़ी को गेंद मिलती वह सोचने लगता कि उसे क्या करना है? इस के लिए वह पहले मैदान का निरीक्षण करता और फिर गेंद को आगे बढ़ाने का कदम उठाता इस बीच जर्मन खिलाड़ी उसे घेर चुके होते। जर्मन खिलाड़ी हमेशा गेंद के नजदीक नजर आए। वे पूरी तरह चाक चौबंद थे। किसी भी जर्मन खिलाड़ी के पास गेंद आने से पहले उसे पता होता था कि उसे आगे क्या कदम उठाना है। यदि कोई अर्जेंटीनी खिलाड़ी गेंद को ले कर आगे बढ़ता भी और गेंद उस से जरा भी दूर होती तो झट से कोई न कोई जर्मन खिलाड़ी उसे तुरंत अपने कब्जे में कर लेता। आज जर्मनों ने दिखा दिया कि फुटबॉल कैसे खेली जाती है। उन के खेल से लग रहा था जैसे उन्होंने ठान रखी है कि इस बार वे ही विश्वकप जीतेंगे। 
सेमीफाइनल में तीन टीमें प्रवेश पा चुकी हैं इन में एक उरुग्वे दक्षिणी अमेरीकी है। शेष हॉलेंड व जर्मनी दोनों युरोपियन टीमें हैं। एक क्वार्टर फाइनल और शेष है जिस में दक्षिण अमेरीकी पराग्वे और यूरोपियन स्पेन को आपस में भिड़ना है। हालांकि पराग्वे कभी स्पेन का उपनिवेश रह चुका है। इस कारण से लगता है इस मुकाबले में भावनाओं की भूमिका भी कम न होगी। पराग्वे दो बार फुटबॉल विश्व चैम्पियन रह चुका है। इस मैच को देखने वाले दर्शक मैदान में पराग्वे की उग्र समर्थक हसीना लारिसा रिक्वेल और उस के अपने खेल को समर्पण को देख सकते हैं। पराग्वे अर्जेंटीना और उरुग्वे के मध्य स्थित देश है। लगता है दक्षिण अमेरिका में निर्वस्त्र दौड़ एक फख्र की बात है। माराडोना का निर्वस्त्र दौड़ का सपना तो अपनी टीम की हार से चकनाचूर हो चुका है, लेकिन अभी पराग्वे की इस हसीना लारिसा रिक्वेल का यह सपना अभी बरकरार है। 
लारिसा रिक्वेल   

घाना नहीं रच सका इतिहास, आज के मैच होंगे रोचक

रुग्वे और घाना के बीच फुटबॉल क्वार्टर फाइनल मुकाबला सुबह होने तक चलता रहा। हम सोचते थे इस बार घाना सेमीफाइनल में प्रवेश कर यहाँ तक पहुँचने वाली पहली अफ्रीकी टीम बन जाएगी। लेकिन इतिहास रचते रचते रह गया। खेल का उत्तरार्ध आरंभ हुआ ही था कि उरुग्वे एक गोल बना कर बराबरी पर आ गई। यह बराबरी समय समाप्त होने तक बनी रही। अतिरिक्त समय के अंतिम क्षणों में घाना को एक पैनल्टी शूट मिला लेकिन बॉल गोल-पोल से टकरा कर ऊपर निकल गई। उरुग्वे का गोली बाद में बहुत देर तक गोल-पोल को चूमता रहा जैसे वह उन की टीम का बारहवाँ खिलाड़ी हो। क्यों न चूमता? आखिर उस की भूमिका कम न थी। फिर हुआ पैनल्टी शूट आउट। उरुग्वे के एक शूटर ने गलती की और बॉल गोल सीमा के बहुत ऊपर से निकली। लेकिन उन के गोली ने दो गोल बचा लिए और उरुग्वे घाना की चुनौती समाप्त करते हुए सेमीफाइनल प्रवेश पा  गया।
ब हम फुटबॉल तो क्या किसी ऐरे-गैरे खेल के भी विशेषज्ञ नहीं हैं जो इस मैच की समीक्षा करें। हम ने स्कूल में फुटबॉल खेलने की कोशिश जरूर की थी। रोजाना प्रेक्टिस पर भी जाते थे। पर टीम में स्थान न बना पाए। शायद टीम वालों को हमारे आकार का भय सताता रहा हो कि कहीं ऐसा न हो कि विपक्षी टीम के खिलाड़ी हमें ही फुटबॉल न समझ बैठें। फिर एक दिन इस फुटबॉल प्रेम का अंत हो गया। हुआ यूँ कि हम हैडर मारना चाहते थे, लेकिन फुटबॉल ने हमें अपनी साथी समझ लिया। माथे पर ऐसी चिपकी कि चक्कर आ गए। घायल हो कर घर लौटे तो दादा जी ने हिदायत दे डाली कि हम फुटबॉल न खेलेंगे।  उन के आदेश की कोई अपील भी तो न थी। अब फुटबॉल से ये जो दर्शकीय प्रेम बचा है उस का मुजाहिरा कैसे तो करें?
ब हम क्या कहें? कल हम चाहते थे कि ब्राजील जीत जाए लेकिन वह हार गया। फिर घाना पर विश्वास जमाया तो वह भी पैनल्टी शूट-आउट में पिट गया। घाना के खिलाड़ियों में जीत का माद्दा था और इच्छा भी। लेकिन अनुभव और प्रशिक्षण की कमी उन्हें ले डूबी। जैसे घाना के हालात हैं, उन में प्रशिक्षण सुविधाएँ मेरे विचार में उन्हें कम ही मिली होंगी। यदि इसी टीम को ये सब मिल जाए तो यह आने वाले मुकाबलों में बहुत सी टीमों के लिए चुनौती बन कर खड़ी हो सकती है। घाना हार भले ही गई हो, लेकिन खिलाड़ियों के खेल ने मेरे दर्शक का दिल जरूर जीत लिया। रात जाग कर मैच देखना नहीं अखरा।

ज अब आधा घंटा भी शेष नहीं रहा है। विश्वकप का सब से दिलचस्प मुकाबला आरंभ होने में।  जर्मनी और अर्जेंटीना दोनों ही टीमें कप की प्रबल दावेदार हैं। माराडोना तो अर्जेंटीना को कप मिलने पर निर्वस्त्र हो कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने पर उतारू हैं। कल तो अपनी पसंदीदा टीमों के हार जाने पर कतई निराशा नहीं हुई थी। लेकिन आज दुख अवश्य होगा। हम चाहते थे कि ये दोनों टीमें कम से कम सेमीफाइनल तक अवश्य पहुँचें। पर उन में से एक को आज दौड़ से बाहर होना होगा। दूसरा मैच पराग्वे और स्पेन के बीच है। यह मुकाबला भी दिलचस्प होने वाला है। आप भी जरूर देखिएगा। केवल टीमों और खिलाड़ियों के कारण ही नहीं, मैदान में उन के लारिसा रिक्वेल जैसे जोशीले समर्थकों के कारण भी।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

ब्राजील हार कर बाहर हुआ, हम उदास नहीं हैं। पर ब्राजील के चक्कर में रंगभेदी कहाए गए हैं

क्त ठहरता नहीं। अब देखिए न, अभी शाम सात बज कर अठारह मिनट पर पोस्ट प्रकाशित की थी....चलो आज कुछ फुटबोलियायें। सात बज कर तीस मिनट पर ब्राजील और हॉलेण्ड का मैच आरंभ हुआ। नौ बज कर बीस मिनट होते उस के पहले ही खत्म हो गया। हालाँकि हम ने कोई भविष्यवाणी नहीं की थी। पर गोरे-काले के हिसाब से हम ब्राजील की तरफ थे। ब्राजील हार गया। लेकिन हम कतई उदास नहीं हुए। होना भी नहीं चाहिए। खेल को खेल की भावना से खेलना और देखना चाहिए। यूँ हम ने जो गोरे-काले का भेद किया इस लिए कोई भी हमें नस्लवादी कह सकता है। पर हम नस्लवादी हैं नहीं। बस अपने जैसे लोगों के साथ जरूर हैं। अब उदास होने का कोई कारण भी तो नहीं था। ब्राजील वैसे ही पाँच बार फुटबॉल का विश्व चैंपियन रह चुका है। आखिर दूसरों को भी अवसर तो मिलना चाहिए न? वैसे ये मौका देने की थियरी ने काम किया तो अगला मैच जो घाना और उरुग्वे के बीच होने वाला है। उस में हमारी टीम लाभ में जा सकती है।

म ने कहा था कि हम ने मैच देखने का पूरा इंतजाम किया है कि बीच में कोई न आए। पर जो सोचते हैं वह होता कहाँ है? एक मुवक्किल को छह बजे आना था, वे आए सात बजे। खैर! उन को तो हमने पन्द्रह मिनट में विदा कर दिया और पिछली पोस्ट प्रकाशित कर दी। पर तभी सुप्रीमकोर्ट  हमारा सर पर आ खड़ा हुआ और हम रंगे हाथों पकड़े गए। हुआ यूँ कि हमने पिछली पोस्ट के लिए कुछ चित्र छाँटे थे, उन में माराडोना भी के भी थे और लारिसा रिक्वेल के भी। जब सुप्रीमकोर्ट यानी हमारी श्रीमती जी हमारे सर के पीछे थीं, तो डेस्कटॉप पर लारिसा भी थीं और वहाँ वह चित्र खुला था जो पिछले दिनों बहुचर्चित रहा है। उसे देखते ही सुप्रीमकोर्ट ने डाँट लगाई ये क्या गंदे-गंदे चित्र देखते रहते हो? जरा आटा (गेहूँ नहीं) पिसवा लाओ और देखो ये पोर्च की लाइट फ्यूज हो गई है एक नई सीएफएल लेते आना। हमारी जान जो फुटबॉल में अटकी पड़ी थी तुरंत फ्री हो गई। आखिर सुप्रीमकोर्ट के इस आदेश का कोई तोड़ हमारे पास नहीं था। कोई क्यूरेटिव पिटिशन तक का उपबंध इस कोर्ट के पास नहीं था। फिर आदेश डाँट से शुरू हुआ था। हमें तुरंत जाना पड़ा। गेहूँ का पीपा चक्की पर उतारा, सीएफएल ली और घर लौटे तो सुप्रीमकोर्ट सीरियल में अटका था। हम ने उन की जान सीरियल से छुड़ाई मैच देखने लगे तो ब्राजील एक गोल कर चुका था, हम प्रसन्न भए। ब्राजील के खिलाड़ी ऐसे खेल रहे थे जैसे फुटबॉल पर अपना नाम लिखा कर लाए हों। बेचारे हालेंडी उन के पैर तक बॉल पहुँचती भी थी तो मुश्किल से। खैर जल्दी ही आधा खेल खत्म हो गया। खाना तैयार हो चुका था। हम नहाने स्नानघर में घुस गए। 
निकले तो उत्तरार्ध आरंभ हो चुका था। पर नजारा बदल चुका था। ऐसा लगता था जैसे हॉलेण्डी पैरों में बिजली भर के लाए हों और ब्राजीलियों की बिजली गायब हो चुकी हो। उस के स्थान पर उन के पैरों में चक्कियाँ बांध दी गई हों। जल्दी ही एक गोल हॉलेण्डियों ने कर दिया। हमारे दिल की धड़कन बढ़ गई। सोचते थे, एक गोल बराबर कर दिया तो क्या? अभी उतार दिया जाएगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ हालेंडियों ने एक गोल और ठोक दिया। अन्त में ब्राजील सेमीफाइनल के बाहर हुई। हमने खिलाड़ियों के चेहरे देखना शुरु किया तो वैसे ही दिखे जैसे क्रिकेट मैच हारने के बाद भारतीय खिलाड़ियों के होते हैं। इस समानता को देख कर हम प्रसन्न हुए। आखिर हमने यूँ ही ब्राजील की टीम का पक्ष नहीं लिया था। हम ने उदासी को पास फटकने भी नहीं दिया।
ब बारह बजने का इंतजार है। जब अगला मैच होना है। हम जानते हैं कि घाना के चाँसेज बहुत अच्छे नहीं हैं। पर कुछ नहीं कह सकते। हो सकता है, पराग्वे उरुग्वे के खिलाड़ी अपनी हेकड़ी में रह जाएँ और घाना के खिलाड़ी गोल कर जाएँ। वैसे घाना जीता तो इतिहास रचेगा। पराग्वे उरुग्वे जीता तो कोई बात नहीं और हार गया तो भी कोई बात नहीं। आखिर वह दो बार फीफा विश्व चैम्पियन रह चुका है और दो बार ओलम्पिक चैम्पियन भी।
चलते-चलते, अभी-अभी  
उधर बज्ज़ पर प्रेतभंजक जी हमें रंगभेदी की ट्रॉफी से नवाज चुके हैं।

पुनश्चः
उरुग्वे और घाना के मैच के अर्धविराम के बीच से....
धर हम  रात बारह बजे वाला मैच देखने पहुँचे और हमारे फुटबॉल ज्ञान का भुरकस निकल पड़ा। हम सोचे थे मैच पराग्वे और घाना के बीच है पर निकला उरुग्वे और घाना के बीच। ये नाम भी एक जैसे क्यों होते हैं? बहुत ही कनफ्यूजियाते हैं। संतोष इस बात का है कि अर्धविराम के ठीक पहले गोल ठोक कर घाना एक गोल से आगे हो लिया है। लगता है इतिहास रचने के करीब है।

चलो आज कुछ फुटबोलियायें

फुटबाल विश्वकप अब मजेदार दौर में है। केवल आठ दावेदार रह गए हैं मैदान में। सब के सामने तीन मैच हैं। जिस ने ये तीन मैच जीत लिए वही सिरमौर होगा। पिछले दिनों शाम साढ़े सात बजे और रात बारह बजे मैच देखते देखते ऐसी आदत पड़ गई कि पड़त के दो दिन बहुत बुरे गुजरे। आज दिन में अदालत में एक वकील साहब कह रहे थे......स्साले केबल वाले ने ईएसपीएन ही गायब कर दिया तलाशे-तलाशे ही नहीं मिल रहा है। मैं ने कहा .... ईएसपीएन तो है बस उस की जगह बदल दी गई है। ठीक से तलाशा ही न होगा। कहने लगे ......मैं ने तो सारा टीवी स्केन कर डाला दो दिन से कहीं फुटबॉल मैच दिखाई ही नहीं दिया। ....... दिखाई कैसे देता? दो दिन से मैच थे ही नहीं। अब आज से क्वार्टर फाइनल शुरू हो रहे हैं। आज जरूर दिखेगा। और वहीं दिखेगा जहाँ पहले देख रहे थे। 
ज हमने दोनों मैच देखने की पूरी तैयारी कर ली है। सब मुवक्किलों से कह दिया है कि जिसे भी काम हो साढ़े सात के पहले आ जाए। वरना मुवक्किल न लग कर पूरे दुश्मन लगोगे। सही सलामत मुवक्किलों ने तो बात मान ली है। पर कोई अचानक ही आ टपके तो उस का क्या किया जाएगा। यह ऐन वक्त ही सोचा जाएगा। पहले से बनाई गई नीति अक्सर फुटबॉल मैच में जा कर फेल हो जाती है। वहाँ तुरतबुद्धि ही काम आती है। होता यह है कि पूरी योजना बना कर पूरी टीम के खिलाड़ी विपक्षी के  गोल तक फुटबॉल ले जाते हैं और ऐन मौके पर रक्षक गोल बचा ही नहीं लेता साथ ही अपनी टीम के खिलाड़ी को पास दे देता है और विपक्षी फुटबॉल को ऐसा पकड़ते हैं कि मिनट पूरा होने के पहले ही गोल कर डालते हैं। रणनीति धरी रह जाती है। मैं सोचता हूँ कम से कम मेरे साथ ऐसा न हो। मैच के दौरान कोई मुवक्किल आ जाए और जाए तब तक मैच ही पूरा हो ले। हाँ दूसरे मैच में इस तरह का कोई खतरा नहीं है। पर इस बात का पूरा खतरा है कि नींद आ जाए। उस की पैड़ बांधने को हम ने दिन में पन्द्रह मिनट की झपकी ले ली है। 
ज दो मैच हैं, पहला ब्राजील और हॉलेंड के बीच। यूँ हॉलेंड की टीम अच्छी है, ब्राजील को रोक सकती है। लेकिन हमारा मत ब्राजील के पक्ष में है। इसलिए नहीं कि वह टीम अच्छी नहीं है। टीम तो वह अच्छी है ही। पर उस के पक्ष में एक सब से मजबूत कारण ये है कि उस में काले खिलाड़ी अधिक संख्या में हैं। जब भी काले और गोरों के बीच मैच हो तो हम हमेशा कालों के साथ खड़े होते हैं। यह हम ने हमारे गुरूजी वकील सज्जनदास जी मोहता से सीखा। जब भी भारत का मैच वेस्टइंडीज और श्रीलंका के साथ होता था तो वे हमेशा वेस्टइंडीज या श्री लंका के साथ होते थे। यदि श्रीलंका और वेस्टइंडीज के बीच होता तो वे वेस्टइंडीज के साथ होते थे। कारण कि वेस्टइंडीजी श्रीलंकाइयों से अधिक काले हैं। पर उन का फारमूला हम पूरा न अपना पाए। जब भी भारत का मैच होता है तो अपुन का दिल फिसल जाता है। ये काले वाली थियरी गोल हो जाती है। तो पहले मैच में हम ब्राजील की तरफ होंगे।
दूसरा मैच घाना और पराग्वे के बीच है। एक तो पराग्वे के खिलाड़ी घाना वालों का मुकाबला कालेपन में नहीं कर सकते। दूसरा ये कि घाना अफ्रीका महाद्वीप की अकेली टीम मुकाबले में रह गई है। अफ्रीका सारी दुनिया के इंसानों की पैदाइश की जगह है। उस महाद्वीप की इकलौती बची टीम क्वार्टर फाइनल में बाहर हो जाए ये कतई अच्छा न लगेगा। हाँ, ये जरूर है कि बाहर हो भी जाए तो हम फुटबॉल देखना छोड़ न देंगे। वैसे भी  इस मैच को दुनिया के ज्यादातर मर्द देखने वाले हैं। आखिर पराग्वे की खूबसूरत मॉडल लारिसा रिक्वेल के जलवे पराग्वे के हर मैच के दौरान देखने को जो मिलते हैं। वे कम साहसी नहीं हैं। जहाँ फुटबॉल के नामी सितारे और अर्जेंटीना टीम के मौजूदा कोच माराडोना ने जब ये घोषणा की कि उन की टीम इस विश्वकप को हासिल कर सकी तो वे मादरजात सड़क पर दौड़ेंगे,  तो उस मुकाबले को केवल इसी हसीना ने झेला और जवाबी हमला किया कि पराग्वे विश्व चैंपियन बना तो वे भी मादरजात केवल शरीर को पराग्वे खिलाड़ियों की यूनिफॉर्म के रंग पुतवाकर स्ट्रीट में दौड़ लगाएँगी। अब हम नहीं चाहते कि इस हसीना को ऐसा करना पड़े। इस लिए हमारा वोट घाना के हक में रहेगा। काशः घाना आज के दूसरे मैच में जीत कर सेमीफाइनल खेले और इतिहास रचे।

..... थैंक्यू ब्लागवाणी !! वैरी, वैरी मच थैंक्यू !!!

यी रामकथा की सीता दुविधा में अभी तक अटकी पड़ी है। ब्लागवाणी चालू है लेकिन नए फीड नहीं ले रही है। जिस तरह की बातें सामने आ रही हैं उस से लगता है यदि ब्लागवाणी को वापस लौटना है तो भी कुछ समय तो इंतजार करना ही होगा। जब तक ब्लागवाणी मैदान में थी तब तक कोई किसी दूसरे संकलक को घास न डालता था। अंतर्जाल चालू होने के बाद जब तक ब्लागवाणी खोल कर न देख ले हिन्दी ब्लागर को चैन नहीं पड़ता था। वह थी ही ऐसी ही। हो भी क्यों न? हिन्दी को सैंकड़ों फोंट देने वाले, कम्प्यूटर और अंतर्जाल जगत में हि्न्दी की पैठ के लिए जी-जान से अपना समय, श्रम, कौशल और धन लगाने वाले मैथिलीशरण गुप्त के अद्वितीय योगदान का ही यह नतीजा था। पिछले तीन वर्षों में अंतर्जाल पर हिन्दी में जो काम हुआ है, उस में सर्वाधिक योगदान यदि किसी का है तो वह ब्लागवाणी का है।
केवल एक बार ही मैथिली जी और सिरिल गुप्त से मिलने का सौभाग्य मुझे मिला। उन्हें संपूर्ण रूप से समझ पाने के लिए यह मुलाकात पर्याप्त नहीं थी। लेकिन मैं इतना अवश्य समझ सका था कि केवल और केवल एक-दो या चार व्यक्तियों के आर्थिक योगदान से ब्लागवाणी जैसी निरन्तर विस्तार पाती गैरव्यवासायिक परियोजना को चला पाना संभव नहीं हो सकेगा। यदि उस का विस्तार नहीं होता तो वह भी अपनी सीमाओं में बंध कर रह जाती, और विस्तार हमेशा अधिक श्रम और अधिक पूंजी की मांग करता है। जो वैयक्तिक साधनों से जुटा पाना लगभग असंभव था। ऐसी परिस्थितियों में दो ही मार्ग शेष रह जाते हैं। एक तो यह कि उस का व्यवसायीकरण कर दिया जाए और दूसरा यह की उसे ऐसा संगठन चलाए जिस के सदस्य निरंतर आर्थिक योगदान करते रहें। दूसरे विकल्प की कोई गुंजाइश इसलिए नहीं कि स्थाई संगठन केवल वैचारिक हो सकते हैं। इसलिए केवल एक विकल्प शेष रहता है कि संकलक को व्यवसायिक बनाया जाए और यही शायद मैथिली जी और सिरिल गुप्त को स्वीकार नहीं था। यदि ब्लागवाणी पुनः आरंभ हो सकी तो उसे दीर्घजीवी होने के लिए व्यवसायिक रूप प्राप्त करना ही होगा।  ब्लागवाणी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी तो इस लिए कि वह थी और उस की वजह मैथिली जी का अनुभव और कौशल तथा सिरिल गुप्त का श्रम था। आज भी स्थिति यही है कि यदि इन दोनों के योगदान से ब्लागवाणी पुनः आरंभ होगी तो वह सर्वश्रेष्ठ हिन्दी संकलक होगी।
किसी भी विशाल वृक्ष के अभाव की कल्पना से सभी का हृदय थरथरा उठता है। यदि यह नहीं हुआ तो क्या होगा? जानवर कड़ी धूप में कहाँ आश्रय पाएंगे? गाडियों को फिर धूप में खड़ा करना होगा। कहाँ बुजुर्गों की चौपाल लगेगी? वृक्ष पर पलने वाले पंछी और कीट कहाँ जाएंगे? आदि आदि। जब एक दिन आंधी में वह वृक्ष गिर पड़ता है तो नयी परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ता है। तीन दिन पहले एक नीम का पुराना विशाल वृक्ष गिर पड़ा। पहले उस की शाखाओं की छंटाई हुई लोग उन्हें ले भागे। आज उस के तने को काट कर लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े किए गए जिस से अच्छी खासी इमारती लकड़ी प्राप्त हो गई। एक दो दिनों में उन्हें भी हटा दिया जाएगा। फिर वही विशाल नग्न भूमि प्राप्त हो जाएगी जो इस वृक्ष के लगाए जाने के पहले मौजूद थी। लेकिन अभी से आस पास के लोग विचार करने लगे हैं कि अब इस एक वृक्ष और पिछले वर्ष गिरे वृक्ष से रिक्त हुई भूमि पर कम से कम तीन पेड़ लगाए जा सकते हैं। निश्चित ही लोग वहाँ पेड़ लगा ही देंगे। कुछ वर्ष प्रतीक्षा करनी होगी, जब तक कि ये वृक्ष बड़े हो कर छाँह न देने लगें। 
ब्लागवाणी के अभाव को दो सप्ताह तक झेलना बहुत बुरा लगा। न जाने कितनी आत्माएँ उस के अभाव में तड़पती रहीं। साथ ही उन्हों ने पुराने कुछ संकलकों में आश्रय पाना आरंभ किया। पुराने संकलकों के यहाँ जो ब्लाग पंजीकृत नहीं थे वे होने लगे। इस बीच इंडली जैसा संकलक सामने आया। कुछ और कतार में हैं, कुछ निर्माण की अवस्था में भी।   इस से यह हुआ कि इन नए संकलकों से भी ब्लागों को पाठक मिलने लगे हैं। ब्लागवाणी के रुकने के बाद के पहले सप्ताह में ब्लागों पर पाठकों की आवक तेजी से गिरी थी। फिर कुछ सुधरने लगी। अब पिछले सप्ताह से पाठकों की आवक में तेजी से वृद्धि हुई है। अब स्थिति यह है कि हिन्दी ब्लागों को पहले से अधिक पाठक मिल रहे हैं। इस में भी ब्लागवाणी का योगदान कम नहीं है। यदि वह इस तरह यकायक दृश्य से गायब न हुई होती तो इन संकलकों तक हिन्दी ब्लाग पहुँचते ही नहीं और वे उन पाठकों से वंचित रहते जो उन के माध्यम  से हिन्दी ब्लागों तक पहुँचते हैं। इस नयी और अपेक्षाकृत अच्छी परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए ब्लागवाणी निश्चित रूप से श्रेय प्राप्त करने की अधिकारी है। मेरी कामना है कि ब्लागवाणी वापस लौटे एक नए और सुधरे हुए रूप के साथ, सभी हिन्दी ब्लाग संकलकों का सिरमौर बन कर। अंत में इतना ही और कि ..... थैंक्यू ब्लागवाणी !!  वैरी,  वैरी मच थैंक्यू !!!