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मंगलवार, 4 अगस्त 2009

पुरुष बहुत्वम् : पुरूष अनेक हैं।

पिछले पाँच आलेखों में साँख्य के बारे में जो कुछ लिखा गया उस में पुरुष कहीं नहीं था।  वस्तुतः  अब तक साँख्य को कहीं भी पुरुष की आवश्यकता नहीं हुई।  वह साँख्य के चौबीस तत्वों में कहीं भी सम्मिलित नहीं है।  यदि अब उसे सांख्य में लाया जाए तो अब तक जो विकास का जो मॉडल सामने आया वह गड़बड़ा जाएगा। 'प्रधान' या 'मूल प्रकृति' से जगत के विकास क्रम में पुरुष की उपस्थिति पूरी तरह असंगत है। परवर्ती साँख्य में पुरुष ने उपस्थित हो कर ठीक यही किया। इस संबंध में देवीप्रसाद चटोपाध्याय लिखते हैं .....
'प्रकृति' के ठीक प्रतिकूल, साँख्य में 'पुरुष' की स्थिति गौण थी, यह 'अ-प्रधान' था।  इसे आम तौर पर उदासीन भी कहा जाता था।  पुरुष का यह उपनाम हमें 'ब्रह्मसूत्र' पर लिखे भाष्यों (शंकर) में मिलता है। याहँ तक कि 'कारिका' में भी इस उपनाम का प्रयोग हुआ है।  इस से हमारे मन में  यह संदेह उठ सकता है कि यदि ये पुरुष इस विश्व की सृष्टि की वास्तविक प्रक्रिया के प्रति पूर्ण रूप से उदासीन थे और यदि पदार्थ मूल अविकसित पदार्थ से विकसित हो कर गोचर जगत बनने तक के विकासानुक्रम में इनकी कोई भूमिका नहीं थी तो फिर साँख्य के प्रतिपादकों को इस आत्मनिर्भर सत्य से अलग उन पुरुषों को मान्यता देने की आवश्यकता क्यों पड़ी।  वास्तविक परिस्थितियों में इन के लिए स्थान क्यों होना चाहिए? जैसा कि हम देखेंगे, इस का कारण केवल इतना था कि कुछेक दार्शनिक, इस 'प्रधानवाद' में विसंगतिपूर्ण  स्थिति होने के बावजूद पुरुष के सिद्धांत को मान्यता देना चाहते थे। इस के पीछे कुछ और कारण भी थे। 
शंकर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में लिखा......
"हम इन दोनों प्रणालियों (साँख्य और योग) के उन अंशों को सहर्ष स्वीकार करते हैं जो वेद विरुद्ध नहीं हैं।  उदाहरण के लिए उन्हों ने आत्मा (पुरुष) को सभी प्रकार के गुणों से मुक्त बता कर वेदों के अनुरूप विचार प्रस्तुत किए हैं।  वेदों में जीव (पुरुष) को मूलतः शुद्ध बताया गया है। उदाहरण के लिए 'वृहदोपनिषद'  ' क्यों कि इस जीव का किसी के साथ कोई संबंध नहीं है।'
शंकर की यह टिप्पणी जितनी दिखाई देती है उस से अधिक महत्वपूर्ण है। शंकर ने साँख्य की निंदा केवल इसलिए नहीं की थी कि वह वेदांत के विरुद्ध था बल्कि इसलिए भी की थी कि वह वेदांत के सच्चे अनुयायियों के उपदेशों के भी विरुद्ध था। तब फिर ऐसी प्रणाली में वेदांत के अनुरूप पुरुष के विवरण के लिए स्थान होना विचित्र बात थी। हाँ यह विचित्रता उस परिस्थिति में नहीं रहेगी जब कि यह मान लिया जाए कि वेदांत के अनुरूप आत्मा (पुरुष) के विवरण वाली बात साँख्य के बाद के प्रणेताओं ने ऐसे दार्शनिकों से ग्रहण की हो जो वास्तव में वेदांत के अनुयायी थे।  साँख्य कारिका के लेखक ईश्वरकृष्ण ने यही किया। वेदांत से उधार लिया गया पुरुष सिद्धांत साँख्य में ले आए जो साँख्य के मूल सिद्धांतों से मेल नहीं खा सका।

अब हम देखें कि कारिका में  पुरुष की स्थिति क्या है। साँख्य में  'पुरुष बहुत्वम'  कहा गया है अर्थात पुरुष अनेक हैं।साँख्य कारिका  के सूत्र-18 में कहा है.....
जन्ममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च।
पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रेगुण्यविपर्ययाच्चैव ।। 18 ।।
 "चूँकि सब के लिए जनम, मरण और जीवन के साधन (ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ) अलग हैं क्योंकि सब के कार्य सर्वव्याप्त और एक ही समय नहीं होते और चूँकि सब के अलग-अलग गुण हैं, इस से प्रत्यक्ष है कि पुरुष अनेक हैं।"
साँख्य कारिका के पुरुष न केवल अनेक हैं अपितु प्रत्येक जीवधारी को एक पुरुष की संज्ञा दे दी गई है। यह आत्मा की विशिष्टता नहीं हो सकती। वह जन्मता है और मरता है जिस के शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ हैं। यह आत्मा का तत्वमीमाँसीय दृष्टिकोण नहीं हो सकता,  और आत्मा के वेदांतिक दृष्टिकोण से पूरी तरह भिन्न है।  सांख्य कारिका का  पुरुष साधारण भौतिक शरीर वाले व्यक्ति में परिवर्तित हो कर रह गया है। प्रत्येक पुरुष का कोई शरीर नहीं है। वे शरीर से संबद्ध नहीं। उन का शरीरों  की किसी भी गतिविधि में कोई योगदान नहीं है। व्यक्तियों के जीवन में जो कुछ हो रहा है, उन से वे पूरी तरह उदासीन हैं। उन की कोई भूमिका नहीं। वे व्यक्ति के जीवन के केवल साक्षी मात्र हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे या तो साँख्य में बिन बुलाए अतिथि हैं या फिर किसी खास उद्देश्य से उन का प्रवेश इस प्रणाली में कराया गया है। (जारी)


शनिवार, 1 अगस्त 2009

परवर्ती साँख्य में 25वें तत्व 'पुरुष' का प्रवेश

हम ने पिछले आलेख में मूल साँख्य के 24 तत्वों के बारे में चर्चा की थी जो  1. प्रधान या प्रकृति 2. महत् या बुद्धि 3.अहंकार 4. मनस या मन 5. से 9. पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  10. से 14. पाँच कर्मेन्द्रियाँ  15 से 19 पाँच तन्मात्राएँ या सूक्ष्म भूत तथा 20 से 24 पाँच महाभूत, कुल 24 तत्व  हैं।

 बुद्धि और मन
यहाँ साँख्य में एक जैसे दो तत्व  दिखाई पड़ते हैं। एक बुद्धि या महत् और दूसरा मन या मस्तिष्क।  यह मन बुद्धि से पृथक तत्व है।  यह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच सामंजस्य रखते हुए बाह्य जगत से संकेत और सूचनाएं प्राप्त करता है, उन्हें निश्चित धारणाओं में परिवर्तित करता है और अनुभवकर्ता अहंकार को सूचित करता है।  साँख्य का यह मन अहंकार का उत्पाद है और खुद भी उत्पादित करने की क्षमता रखता है। लेकिन बुद्धि के बारे में यह कथन उचित नहीं होगा। साँख्य तत्व बुद्धि स्वयं तो प्रकृति का उत्पाद है, लेकिन वह उत्पादन की क्षमता से हीन है। 

 ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ और महाभूत
सात्विक अहंकार से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  श्रोत्र, त्वक, चक्षु, रसन और प्राण  हैं तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ वाक, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ हैं।  तामस अहंकार से उत्पन्न पाँच तन्मात्र अथवा सूक्ष्म भूत शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध हैं। पाँच तन्मात्राओं अथवा सूक्ष्मभूत से उत्पन्न पाँच स्थूलभूत या  महाभूत आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी हैं।

हम ने देखा कि अहंकार से सूक्ष्म और स्थूल भूतों की उत्पत्ति होती है। स्थूल-भूत सूक्ष्म-भूतों के विभिन्न योगों से उत्पन्न होते हैं।  जैसे शब्द से आकाश का जन्म होता है, शब्द और स्पर्श के योग से वायु या मरूत, रूप से तेज या अग्नि और शब्द, स्पर्श, रूप और रस से जल की उत्पत्ति होती है। सभी पाँच सूक्ष्म भूतों से महाभूत क्षिति या पृथ्वी की उत्पत्ति होती है।

पुरुष
अब तक हम ने मूल साँख्य के बारे में जाना जो बुद्ध के काल तक जाना जाता था। इस में पुरुष तत्व पूरी तरह से अनुपस्थित था। तब तक हम इसे एक भौतिकवादी दर्शन कह सकते हैं, जिस की आलोचना बादरायण ने ब्रह्मसूत्र में की। शंकर और रामानुज ने ब्रह्मसूत्र के अपने भाष्यों में भौतिकवादी दर्शन के रूप में ही साँख्य को  अपनी आलोचना का केन्द्र बनाया।  लेकिन इस काल में भारत और लगभग संपूर्ण पूर्व एशिया के मानव समाजों और उन के राजनैतिक ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे, जो दर्शन पद्धतियों पर अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रह सकते थे। इन पूर्व एशियाई समाजों में अब तक गणपद्धति की राजनैतिक व्यवस्था हुआ करती थी, जो परिवारों, कुलों और गोत्रों के प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन चलाती थी। अक्सर गणों की संपत्तियाँ सामूहिक होती थीं। उन का उपभोग गण के सदस्य आवश्यकतानुसार किया करते थे। यह एक तरह का बड़ा संयुक्त परिवार था। इस पद्धति में राजा नहीं हुआ करता था। गणाध्यक्ष या गणपति गण का प्रमुख होता था। लेकिन यह पद्धति कृषि के विकास को अवरुद्ध किए हुए थी।  विकास के लिए इस अवरोध का टूटना अवश्यंभावी था। वह टूटी, और गणों का स्थान राज्य लेने लगे।  इस से समाज में अनेक विकृतियाँ और उन के कारण क्षोभ उत्पन्न हुआ। सामूहिकता नष्ट हो रही थी जिस के प्रति आदर और मोह मौजूद था। इस सामुहिकता के प्रति आदर और मोह का संरक्षण बोद्धों ने एक अभिनव संगठन संघ के माध्यम से किया। यही कारण था कि उस वातावरण में बौद्ध संघ एक अल्पकाल में ही पूरे एशिया में फैल गए। 

गण-संघों के स्थान पर राज्यों की स्थापना दर्शनशास्त्र में एक ब्रह्म, एक ईश्वर और एक परम पुरुष की अवधारणा की आवश्यकता पर जोर दे रही थी इस का मूल वैदिक उपनिषदों में मौजूद था। साँख्य में इस के लिए कोई स्थान नहीं था। लेकिन इस तरह की किसी अवधारणा के अभाव में साँख्य का  नए सामाजिक -राजनैतिक वातावरण में जीवित रहना ही दूभर था।  यही वह बिन्दु था जहाँ मूल साँख्य में पुरुष का प्रवेश हुआ जिस ने परवर्ती साँख्य में 25वें तत्व के रुप में अपना स्थान बनाया।  लेकिन मूल साँख्य की पद्धति इतनी मजबूत और अभेद्य थी कि पुरुष ने उस में प्रवेश तो कर लिया, लेकिन उस के लिए वहाँ कोई भूमिका थी ही नहीं। वह साँख्य में प्रवेश के बाद भी परिवार में बाहरी अतिथि की तरह दर्शक मात्र ही  बना रहा। हम आगे परवर्ती साँख्य में पुरुष के बारे में चर्चा करेंगे।




शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

मूल साँख्य के चौबीस तत्व

मूल साँख्य को जानने के लिए हमने अपना आरंभ बिन्दु शंकर और रामानुज द्वारा ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करते हुए की गई साँख्य की आलोचना को चुना था।  यह आलोचना जिस मुख्य सूत्र की की गई थी वह इस तरह था....
प्रधानं त्रिगुणमचेतनं स्वतन्त्रं जगत्कारणम्
अर्थात् त्रिगुण प्रधान (आद्य प्रकृति) स्वतन्त्र रूप से जगत का कारण है।

लेकिन क्या त्रिगुण प्रधान अचेतन था? हम ने पिछले आलेख में देखा था कि सत्, रजस् और तमस् ये तीनों प्रधान (आद्य प्रकृति) के गुणधर्म नहीं अपितु उस के घटक हैं। जो प्रधान तीन घटकों का सामंजस्य़ हो वह किस प्रकार अचेतन कैसे हो सकता था? सांख्य हमें यह भी बताता है कि प्रधान इन तीनों घटकों की एक साम्यावस्था है जिस से उस के अचेतन होने की प्रतीति होती है। वस्तुतः वह अचेतन नहीं हो सकता।  अपितु उस में ये तीनों घटक अन्तर्क्रिया में लीन हैं। वे लगातार बदलते हैं और एक दूसरे का संतुलन बनाए रखते हैं। जब तक यह अन्तर्क्रिया तीनों घटकों में साम्यावस्था को बनाए रखती है तब तक ही प्रधान प्रधान बना रहता है। जैसे ही इन तीनों घटकों की अन्तर्क्रिया से यह सामंजस्य टूटता है, जगत के विकास की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। ये तीनों केवल प्रधान के ही घटक नहीं है अपितु प्रकृति के प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म कण के भी घटक हैं, जो उन्हें गतिमान और परिवर्तन शील बनाए रखते हैं।  आज विज्ञान यह प्रमाणित कर चुका है कि  पदार्थ के इलेक्ट्रॉन जैसे अतिसूक्ष्म कण भी निरंतर गति और परिवर्तन की स्थिति में रहते हैं।

प्रधान के साम्य के टूटने और जगत निर्माण की परिघटना की तुलना हम बिग-बैंग के आधुनिक सिद्धांत से कर सकते हैं। जिस में जगत के समूचे पदार्थ का एक सिंगुलरिटी में होना अभिकल्पित है। इस सिंगुलरिटी की प्रतीति भी अचेतन है। क्यों कि वहाँ कोई परिवर्तन नहीं है। इस कारण काल, व्योम और ऊर्जा कुछ भी विद्यमान नहीं है। बिग बैंग के पूर्व इस सिंगुलरिटी में क्या चल रहा होगा इस की कल्पना करना निरर्थक है। क्यों कि काल विद्यमान नहीं है, इस कारण से पूर्व शब्द का प्रयोग किया जाना संभव नहीं।  इस  आधुनिक सिंगुलरिटी में घटकों की कोई अभिकल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन साँख्य का प्रधान तीन घटकों का योग है। यही कारण है कि  उसे अचेतन माना जाना संभव नहीं है। उसे अंतर्गतिमय कहा जा सकता है जिस की प्रतीति अचेतन है। 


त्रिगुण-प्रधान साँख्य में वर्णित प्रथम तत्व है। इस में त्रिगुण के साम्य के टूटने से सत्व-गुण की प्रधानता वाला महत् अर्थात् बुद्धि जो साँख्य का दूसरा तत्व है, उत्पन्न हुआ।  बुद्धि प्रकृति से उत्पन्न होने से भौतिक  है  लेकिन उस का रूप मानसिक और बौद्धिक है। बुद्धि से  रजस् प्रधानता वाले तीसरे तत्व अर्थात अहंकार की उत्पत्ति हुई। जो स्वः की अनुभूति को प्रकट करता है। साँख्य के अनुसार अहंकार से तत्वों के दो समूह उत्पन्न हुए। सात्विक अहंकार से ग्यारह तत्वों का प्रथम समूह जिस में एक मनस या मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुईं। तामस अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ अथवा सूक्ष्मभूत उत्पन्न हुए और इन पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूतों की उत्पत्ति हुई। 

इस तरह मूल साँख्य में 1. प्रधान या प्रकृति 2. महत् या बुद्धि 3.अहंकार 4. मनस या मन 5. से 9. पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  10. से 14. पाँच कर्मेन्द्रियाँ  15 से 19 पाँच तन्मात्राएँ या सूक्ष्म भूत तथा 20 से 24 पाँच महाभूत, कुल 24 तत्व कहे गए हैं।

प्रथम तीन तत्वों 1. प्रधान या प्रकृति 2. महत् या बुद्धि 3.अहंकार से हम परिचय कर चुके हैं। अगली कड़ी में हम शेष 21 तत्वों के बारे में जानेंगे।

बुधवार, 29 जुलाई 2009

प्रकृति के तीन गुण सत्, रजस और तमस् क्या हैं?

गुण शब्द से हमें किसी एक पदार्थ की प्रतीति न हो कर, उस गुण को धारण करने वाले अनेक पदार्थों की एक साथ प्रतीति होती है। जैसे खारा कह देने से तमाम खारे पदार्थों की प्रतीति होती है, न कि केवल नमक की। इस तरह हम देखते हैं कि गुण का अर्थ है किसी पदार्थ का स्वभाव।  लेकिन साँख्य के त्रिगुण गुणवत्ता या स्वभाव नहीं हैं।  यहाँ वे प्रकृति के आवश्यक घटक हैं।  सत्व, रजस् और तमस् नाम के तीनों घटक प्रकृति और उस के प्रत्येक अंश में विद्यमान रहते हैं। इन तीनों के बिना किसी वास्तविक पदार्थ का अस्तित्व संभव नहीं है। किसी भी पदार्थ में इन तीन गुणों के न्यूनाधिक प्रभाव के कारण उस का चरित्र निर्धारित होता है।  हमें अन्य तत्वों के बारे में जानने के पूर्व साँख्य सिद्धांत के इन तीन गुणों के बारे में कुछ बात कर लेनी चाहिए। सत्व का संबंध  प्रसन्नता और उल्लास से है, रजस् का संबंध गति और क्रिया से है। वहीं तमस् का संबंध अज्ञान और निष्क्रीयता से है।
सत्व प्रकृति का ऐसा घटक  है जिस का सार पवित्रता, शुद्धता, सुंदरता और सूक्ष्मता है।  सत्व का संबंध चमक, प्रसन्नता, भारन्यूनता और उच्चता से है। सत्व अहंकार, मन और बुद्धि से जुड़ा है। चेतना के साथ इस का गहरा संबंध है।  परवर्ती साँख्य में यह कहा जाता है कि चेतना के साथ इस का गहरा संबंध अवश्य है लेकिन इस के अभाव में भी चेतना संभव है। यहाँ तक कि बिना प्रकृति के भी चेतना का अस्तित्व है। लेकिन यह कथन मूल साँख्य का प्रतीत नहीं होता है अपितु यह परवर्ती सांख्य में वेदान्त दर्शन का आरोपण मात्र प्रतीत होता है जो चेतना के स्वतंत्र अस्तित्व की अवधारणा प्रस्तुत करता है। 
रजस् प्रकृति का दूसरा घटक है जिस का संबंध पदार्थ की गति और कार्रवाई के साथ है। भौतिक वस्तुओं में गति रजस् का परिणाम हैं। जो गति पदार्थ के निर्जीव और सजीव दोनों ही रूपों में देखने को मिलती वह रजस् के कारण देखने को मिलती है। निर्जीव पदार्थों में गति और गतिविधि, विकास और ह्रास रजस् का परिणाम हैं वहीं जीवित पदार्थों में क्रियात्मकता, गति की निरंतरता और पीड़ा रजस के परिणाम हैं। 
तमस् प्रकृति का तीसरा घटक है जिस का संबंध जीवित और निर्जीव पदार्थों की जड़ता, स्थिरता और निष्क्रीयता के साथ है। निर्जीव पदार्थों में जहाँ यह गति और गतिविधि में अवरोध के रूप में प्रकट होता है वहीं जीवित प्राणियों और वनस्पतियों में यह अशिष्टता, लापरवाही, उदासीनता और निष्क्रियता के रूप में प्रकट होता है।  मनुष्यों में यह अज्ञानता, जड़ता और निष्क्रियता के रूप में विद्यमान है।
मूल-साँख्य के अनुसार प्रधान (आद्य प्रकृति)  में ये तीनों घटक साम्यावस्था में थे। आपसी अंतक्रिया के परिणाम से भंग हुई इस साम्यावस्था ने प्रकृति के विकास को आरंभ किया जिस से जगत (विश्व Universe) का वर्तमान स्वरूप संभव हुआ।  हम इस सिद्धान्त की तुलना आधुनिक भौतिक विज्ञान द्वारा प्रस्तुत विश्व के विकास (Evolution of Universe) के सर्वाधिक मान्य महाविस्फोट के सिद्धांत (Big-Bang theory) के साथ कर सकते हैं। दोनों ही सिद्धांतों में अद्भुत साम्य देखने को मिलता है। 
THE BIG-BANG
चित्रों को बड़ा कर देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें!

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

प्रकृति के तीन गुण सत्, रजस और तमस में असमानता से बुद्धि और अहंकार का विकास

सांख्य का मूल वैदिक साहित्य, उपनिषदों से ही आरंभ हो जाता है। बौद्ध ग्रंथों में उस के उल्लेख से उस की प्राचीनता की पुष्टि होती है, उस पर ईसा के जन्म के पहले और बाद में बहुत कुछ लिखा गया और लगातार कुछ न कुछ लिखा जाता रहा है। जिस से यह स्पष्ट होता है कि यह एक प्रभावशाली चिंतन प्रणाली रही है और इस का विकास भी हुआ है। इस के आद्य दार्शनिक कपिल कहे जाते हैं। पिछले आलेख में इसे समझने के लिए जिस पद्यति का उल्लेख किया गया था। हम आज उसी से प्रारंभ करते हैं, अर्थात ब्रह्मसूत्र से। ब्रह्मसूत्र में वेदांत को सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है और इसी प्रयास में साँख्य दर्शन की जम कर आलोचना की गई है। ब्रह्मसूत्र एक ऐसी रचना है जिसे बिना भाष्य के समझा जाना संभव नहीं है। इसलिए हम उस के दो प्रमुख भाष्यों शंकर और रामानुज भाष्यों का सहारा लेते हैं।

दोनों ही भाष्यकार कहते हैं कि साँख्य जगत का कारण स्वतंत्र रूप से अचेतन प्रधान को मानता है और इस कारण से वह अवैदिक है। इस आलोचना से हम साँख्य के उस प्रारंभिक रूप का अनुमान कर सकते हैं जिस में प्रधान को अर्थात आद्य निष्क्रिय प्रकृति अथवा अव्यक्त प्रकृति को ही जगत का कारण बताया जाता है। यह निश्चित रूप से आज के पदार्थवाद के समान है, जिस में एक महाणु के रूप में उपस्थित पदार्थ में महाविस्फोट (बिग-बैंग) से आज के विश्व के विकास का सिद्धान्त सर्वाधिक मान्यता पाया हुआ है। महाविस्फोट के इसी सिद्धांत के अनुरूप साँख्य की मान्यता है कि प्रकृति से जगत का विकास हुआ है। प्रकृति के बारे में साँख्य की मान्यता है कि यह त्रिगुणयुक्त है, अर्थात तीन गुणों सत, रज और तम से युक्त है। ये तीनों गुण प्रकृति से अभिन्न हैं। ये अव्यक्त प्रकृति में भी सम अवस्था में मौजूद थे। तीनों गुण प्रकृति से अभिन्न हैं तथा प्रकृति के प्रत्येक अंश में विद्यमान रहते हैं।

साँख्य में कहीं 24, कहीं 25 और कहीं 26 तत्वों का उल्लेख है। हम चौबीस तत्वों का यहाँ उल्लेख करेंगे। अव्यक्त प्रकृति, आद्य प्रकृति या जिसे प्रधान कहा गया है वह प्रथम तत्व है। इस आद्य प्रकृति के तीन गुणों में प्रारंभिक अन्तर्क्रिया के कारण उन की समता भंग हो जाने के कारण विकास की प्रक्रिया आरंभ हुई और अन्य 23 तत्वों की उत्पत्ति हुई। सद्गुण की प्रधानता से दूसरा तत्व महत् उत्पन्न हुआ। महत् प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण स्वयं पदार्थ का एक रूप है लेकिन सद्गुण की प्रधानता के कारण यह मानसिक और वैचारिक महत्ता रखता है जिसे बुद्धि कहा गया। बुद्धि मानव की सर्वोत्तम थाती है। इसी से मनुष्य निर्णय करने और वस्तुओं में भेद करने जैसी क्षमता रखता है। इसी से वह अनुभवों को संजोता है और निष्कर्ष पर पहुँचता है। इसी से वह स्वयं और पर में भेद करता है। रजोगुण की प्रधानता से तीसरे तत्व अहंकार की उत्पत्ति होना साँख्य मानता है। अहंकार से व्यक्ति अपने स्व की पहचान करता है और स्वयं को शेष प्रकृति से भिन्न समझ पाता है।

हम संक्षेप में इसे इस तरह समझ सकते हैं कि साँख्य सिद्धान्त के अनुसार आद्य अव्यक्त प्रकृति अथवा प्रधान के तीन गुणों में अंतर्क्रिया से उन में असमानता उत्पन्न हुई अथवा उन का साम्य भंग हुआ, जिस ने जगत के विकास को आरंभ किया। सद्गुण की प्रधानता से महत् अर्थात बुद्धि का और रजोगुण की प्रधानता से अहंकार का विकास हुआ।

आगे हम शेष 21 तत्वों और अंत में पच्चीसवें और छब्बीसवें तत्वों के बारे में जानेंगे।

रविवार, 26 जुलाई 2009

कैसे जानें? मूल साँख्य

अनवरत के आलेख कहाँ से आते हैं? विचार! में साँख्य दर्शन का उल्लेख हुआ था। तब मुझ से यह अपेक्षा की गई थी कि मैं साँख्य के बारे में कुछ लिखूँ। दर्शनशास्त्र मेरी रुचि का विषय अवश्य है, लेकिन दर्शनों का मेरा अध्ययन किसी एक या एकाधिक दर्शनों को संपूर्ण रूप से जानने और उन पर अपनी व्याख्या प्रस्तुत करने के उद्देश्य से नहीं रहा है। जगत की तमाम गतिविधियों को समझने की अपनी जिज्ञासा को शांत करने के दृष्टिकोण से ही मैं थोड़ा बहुत पढ़ता रहा। अपने किशोर काल से ही मेरा प्रयास यह जान ने का भी रहा कि आखिर यह दुनिया कैसे चलती रही है? जिस से यह भी जाना जा सके कि आगे यह कैसे चलेगी और इस की दिशा क्या होगी? साँख्य को भी मैं ने इसी दृष्टिकोण से जानने की चेष्ठा की। मैं यदि साँख्य के विषय पर कुछ लिख सकूंगा तो इतना ही कि मैं ने उसे किस तरह जाना है और कैसा पाया है? इस से अधिक लिख पाना शायद मेरी क्षमता के बाहर का भी हो।

जब मैं ने साँख्य के बारे में जानना चाहा तो सब से पहले यह जाना कि भारत के संदर्भ में यह एक महत्वपूर्ण और अत्यंत व्यापक प्रभाव वाला दर्शन रहा है। इस का आभास 'गार्बे' की इस टिप्पणी से होता है कि " ईसा पूर्व पहली शताब्दी से, महाभारत और मनु संहिता से आरंभ होने वाला संपूर्ण भारतीय साहित्य, विशेषकर पौराणिक कथाएँ और श्रुतियाँ, जहाँ तक दार्शनिक चिंतन का संबंध है, साँख्य विचारधाराओं से भरी पड़ी हैं।" सांख्य के प्रबलतम विरोधी शंकराचार्य को न चाहते हुए भी बार बार स्वीकार करना पड़ा कि साँख्य दर्शन के पक्ष में बहुत से प्रभावशाली तर्क हैं। मैं ने पहले भी कहा था कि मूल साँख्य के बारे में सच्ची प्रामाणिक सामग्री लगभग न के बराबर उपलब्ध है। सांख्य के संबंध में केवल दो ग्रंथ हमें मिलते हैं, जिन में एक 'साँख्य कारिका' और दूसरा 'साँख्य सूत्र' है। दोनों ही बहुत बाद के ग्रंथ हैं और साँख्य को अपने मूल शुद्ध रूप में प्रतिपादित करते दिखाई नहीं देते हैं। 'साँख्य सूत्र' में तो अनेक स्थान पर वेदांत का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है, कहीं कहीं तो सीधे वेदांत की शब्दावली का ही प्रयोग देखने को मिलता है। 'साँख्य सूत्र' की अपेक्षा 'सांख्य कारिका' अधिक प्राचीन ग्रंथ प्रमाणित होता है और विद्वान इसे ईसा की दूसरी शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी के बीच लिखा मानते हैं। इस में भी कुछ ऐसे दार्शनिक मतों का समावेश करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है जिन की व्युत्पत्ति वास्तव में वेदांत से हुई थी। इसी कारण से विद्वानों का मानना है कि मूल साँख्य के वर्णन के लिए आलोचनात्मक भाव से 'साँख्य कारिका' पर निर्भर करना गलत है।

अब स्थिति यह बनती है कि मूल साँख्य को कहाँ से तलाशा जाए? एक महत्वपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ चरक संहिता में भी सांख्य का वर्णन है। महाभारत में कुछ अंश ऐसे हैं जिन में मिथिला नरेश जनक को साँख्य दर्शन का ज्ञान कराए जाने का विवरण है। दास गुप्त ने कहा है कि 'साँख्य का यह विवरण चरक के विवरण से बहुत मेल खाता है, यह तथ्य चरक द्वारा की गई सांख्य की व्याख्या के पक्ष में जाता है।' असल में साँख्य अत्यन्त प्राचीन दर्शन है और आरंभ से ही इस में निरंतर कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहा है। महाभारत में साँख्य और योग को दो सनातन दर्शन कहा गया है जो सभी वेदों के समान थे। इस तरह वहाँ इन्हें वैदिक ज्ञान से पृथक किन्तु वेदों के समान माना गया है। कौटिल्य ने भी केवल तीन दार्शनिक मतों साँख्य, योग और लोकायत का ही उल्लेख किया है। प्रमाणों के आधार पर गार्बे ने साँख्य को प्राचीनतम भारतीय दर्शन घोषित किया। उन्हों ने सिद्ध किया कि साँख्य बौद्ध काल के पूर्व का था, बल्कि बौद्ध दर्शन इसी से विकसित हुआ। अश्वघोष ने स्पष्ट कहा कि बौद्ध मत की व्युत्पत्ति साँख्य दर्शन से हुई। बुद्ध के उपदेशक आडार कालाम और उद्दक (रामपुत्त) साँख्य मत के समर्थक थे। इन सब तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि सांख्य बुद्धकाल के पूर्व का दर्शन था।

ब्रह्मसूत्र के रचियता बादरायण ने वेदांत को स्थापित करने के प्रयास में साँख्य दर्शन का खंडन करने का सतत प्रयत्न किया और इसे वेदान्त दर्शन के लिए सब से बड़ी चुनौती समझा। बादरायण के इस ब्रह्मसूत्र या वेदान्त सूत्र में कुल 555 सूत्र हैं जिस में उपनिषदों के दर्शन को एक सुनियोजित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। दास गुप्त के अनुसार ये सूत्र ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में रचे गए। 555 सूत्रों में से कम से कम 60 सूत्रों में तो प्रधानवाद (साँख्य) का खंडन मौजूद है। इस तरह ब्रह्मसूत्र में जिस साँख्य मत का खंडन करने का प्रयत्न किया गया है उसी से मूल साँख्य के बारे में महत्वपूर्ण संकेत मिलते हैं। इस तरह मूल साँख्य के बारे में जानने के लिए विद्वानों ने विशेष रूप से देवीप्रसाद चटोपाध्याय ने ब्रह्मसूत्र में किए गए इस के खंडन की सहायता लेते हुए महाभारत, चरक संहिता, बाद के उपनिषदों और साँख्य कारिका का अध्ययन करते हुए मूल सांख्य के बारे में जानने का तरीका अपनाया। इस अध्ययन से जो नतीजे सामने आए उन पर हम आगे बात करेंगे।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

हम भी देखेंगे एनडीटीवी

अस्वस्थता में वकालत के दायित्वों के कारण मेरा भुर्ता बना हुआ है।  पर मुई बिलागिरी खींच ही लाती है। ज्यादा पोस्टें पढ़ ही नहीं पा रहे तो टिपियाई भी नगण्य हो कर रह गई है।  "चोर चोरी से जाए, पर हेराफेरी से न जाए"। चलो कुछ मुन्नी आलेखिकाऐं ही हो जाएँ...............

पता नहीं एनडीटीवी में और उन के एंकर कम ब्लागर रवीश कुमार जी में न जाने क्या खासियत है?  हर महिने हिन्दी ब्लागरी में उन की एँकरी का जिक्र हो जाता है।  मैं ने अपने टीवी पर एनडीटीवी तलाशा तो गायब था।  मैं ने केबल वाले से लड़ने का मूड बना लिया।  उसे एक गाली फैंकी.....बाटी सेक्या!* हमारे चर्चित वरिष्ठ हिन्दी ब्लागर और एँकर जी का चैनल ही सप्लाई नहीं करता है।  फिर सोचा उस की शक्ल बिगाड़ने के पहले दस्ती समस्वरण (tuning) कर के देखूँ। वहाँ एऩडीटीवी मिल गया। हमने लगाया कि तभी नाक झाड़ने का तकाज़ा हो चला। हम उठ कर वाश बेसिन तक जा कर आए। तब तक श्रीमती जी अपना वाला चैनल लगा चुकीं थीं।  हमारी हिम्मत न हुई कि इस सुप्रीमकोर्ट की अवमानना कर दें। हम श्रीमती जी के सोने की प्रतीक्षा करेंगे। अगर तब तक हम खुद न सो गए तो। वर्ना जुकाम रात को दो-तीन बार जगा ही देता है। तब एनडीटीवी और रवीश कुमार जी के दर्शन-श्रवण लाभ प्राप्त किए जाएँगे।  अब ये कोई जरूरी नहीं कि इस दर्शन-श्रवण लाभ को आप के साथ बांटा ही जाए।

*बाटी सेक्या! = [यह हमारे हाड़ौती की एक गाली है, जो उन लोगों को इंगित करती है जो किसी के मृत्यु की कामना करते हुए उस के तीसरे (अस्थिचयन) के दिन बाटी सेक कर खाने की कामना करते रहते हैं]