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शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008

गंदगी को मत हटाओ जिससे पता लगता रहे कि उसका उद्गम क्या है

  • गंदगी को आप हटाते रहें, और गंदगी करनेवाला गंदगी करता रहे। यह कब तक चलता रहेगा। आख़िर गंदगी करने वाले के बारे मैं सबको पता लगना चाहिए कि कौन इसे फैला रहा है?
  • अगर म्युनिसिपैलिटी इसे नहीं हटाती है, तो लोग ख़ुद ही उस रस्ते से निकालना बंद कर देंगे।
  • कीडे गंदगी से निकलते ही मर जाते हैं, गंदगी उनके जीवन के लिए जरुरी है

भड़ास को ब्लॉगर ने हटाया

भड़ास को ब्लॉगर द्वारा हटाया जा चुका है। इस पर बात करना बंद करें।
मैंने अभी देखा की कुछ और ब्लोग्स को ब्लॉगर से हटा देने का आव्हान किया गया है। इस बात की मुझे पहले ही आशंका थी।
इससे अब अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकने की संभावना हो गई है। यह एक और ख़राब स्थिति है। इससे कैसे निपटा जा सकता है , इस पर विमर्श आवश्यक हो गया है। सभी हिन्दी ब्लोग्गेर्स को इस पर विचार करना पड़ेगा।

१, मार्च २००८,

भड़ास को किसी ने नहीं हटाया

भड़ास को की सी ने नहीं हटाया। न ब्लॉगर ने और न ही चिट्ठा संकलकों ने।

इसमें कोई भी बात बुरी नहीं। सबके अपने अपने पाठक हैं। मगर ख़ुद ही अपने चिट्ठे पर उसे हटाने का नाटक भी खूब रहा। हम गच्चा खा गए। कोई बात नहीं मधु मास चल रहा है और कुछ लोग मदन मस्ती पर उतर आये हैं। उन्हें अपना काम करने दीजिये। बाकी लोग अपना काम करें।

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

आफ्टर लंच आन्ट्रॅप्रॅनर (Entrepreneur)

एक ही कैन्टीन हुआ करता था, अदालत परिसर के मेन गेट के पास के कोने में। टीन की दीवारें और टीन की ही छत। अदालत का विस्तार हुआ तो साथ ही सौंदर्यीकरण भी। कैन्टीन को आगे से हटा कर पीछे स्थान दिया गया। टीन टप्पर हटा कर पीछे लग गए। कैन्टीन के मालिक की मृत्यु हो गई। सब से बड़ा पुत्र नाबालिग ही था पर उस ने केन्टीन और परिवार चलाने की जिम्मेदारी संभाली। छोटे भाई धीरे-धीरे बड़े हो गए सब की शादियाँ हुईं। एक केन्टीन में ही पार्टीशन हो कर तीन हिस्से हो गए। आपस में ही व्यापारिक कम्पीटीशन होने लगा।

केन्टीन के इस बंटवारे से दुखी बड़ा पुत्र नशे की लत का शिकार हो गय़ा। वह विक्रय के लिए सर्वोत्तम माल तैयार करने और ग्राहकों को खींचने में सक्षम। लेकिन व्यापार में अक्षम। दिन भर सर्वाधिक बिक्री होने के बाद भी उस के हाथ गिनती के ही रुपए लगें। नौकर बीच में ही ग्राहकों से रुपया मार लें। पता लग जाने पर वह नौकरों से युद्ध पर उतर आए और धन्धे के औजार करछी-लोटा ही हथियार बन जाऐं। दूसरे दिन फिर सब कुछ सामान्य। कभी अति हो जाए तो लंच ऑवर के पहले नौकर काम छोड़ कर कोने में खड़े हड़ताली नजर आएं। रोज के लंच के ग्राहक समझौता करा कर अपनी चाय की जुगत करें। केन्टीन की चाय ऐसी कि ग्राहक को दूसरे की चाय ही पसंद न आए। आखिर उस की केन्टीन सिर्फ चाय-कॉफी की दुकान भर रह गई। कभी भाइयों से झगड़ा हो जाए और उन पर खार आए तो। चाय के साथ कचौड़ी, समौसे, सेव, लड्डू भी मिलने लगें और दुकान कुछ दिनों के लिए फिर कैंटीन नजर आने लगी।

कभी वह नौकरों से और कभी नौकर उस से परेशान। रोज रणभेरी बजती लेकिन युद्ध नहीं होता दोनों पक्ष एक दूसरे की जरुरत हैं। ग्राहक भी ऐसे ही हो गए हैं। बाईस की जगह बीस रुपए ही दे कर चल देते। वह भी उस्ताद कि उन्नीस की जगह बीस ही मार लेता। फिर भी हिसाब में ग्राहक ही लाभ में रहता।

कुछ सप्ताहों से एक परिवर्तन देखने को मिला। वह ग्राहकों से उलझने लगा। पूरे बाईस लेने लगा। कभी कभी एक चाय की संख्या बढ़ा कर पच्चीस भी वसूलने की फिराक में रहता। दुकान से भी पाँच के बजाय तीन, साढ़े तीन बजे ही खिसकने लगा। बाद में नौकर ही दुकान चलाते नजर आते। जब तक वह रहता सब नौकर कामचोर नजर आते। उस के जाते ही वे ऐसी दुकानदारी करते जैसे उन से अच्छा संचालक कोई नहीं।

आज जब शाम साढ़े तीन बजे उस के यहाँ चाय के लिए पहुँचे तो वह नहीं था। मैं ने उस के सब से पुराने नौकर से इशारे में पूछा तो उस ने इशारे में ही बताया कि वह जा चुका है। सीनियर नौकर जूनियरों पर मालिक की तरह हुक्म चला रहा था। बाकी दोनों नौकर दौड़-दौड़ कर हुक्म बजा रहे थे। ग्राहकों को भी शानदार सेवाएं मिल रही थीं और चाय की क्वालिटी भी उत्तम थी। मैं ने सीनियर को बुला कर बात की।

सीनियर ने बताया कि उनका मालिक तो तीन बजे बाद ही तब तक हो चुका कैश कलेक्शन ले कर जा चुका है। दूध, चाय, शक्कर, कॉफी आदि सब कुछ की कीमत अलग निकाल कर अपना मुनाफा ले कर जा चुका है। कुछ दूध, चाय, शक्कर, कॉफी छोड़ गया है। इन से माल बना कर बेचकर हम तीनों नौकरों को अपनी तनख्वाह निकालनी है। ज्यादा कमा लिया तो हम बाँट लेंगे।

कितना ज्यादा कमा लोगे? मैं ने पूछा। तो उस ने बताया कि तीनों पचास पचास रुपया तो बेशी कर ही लेंगे।

इस तरह चल रहा था उनका आफ्टर लंच आन्ट्रॅप्रॅनर (Entrepreneur)

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

कॉपीराइट को न जानना आप को कैद की सजा तक पहुँचा सकता है

इन दिनों हिन्दी ब्लॉगिंग में कॉपीराइट का चर्चा रहा। एक-दो चिट्ठाकार साथियों से बातचीत से ऐसा अनुभव हुआ कि अधिकांश चिट्ठाकारों को कॉपीराइट कानून के सम्बन्ध में प्रारंभिक जानकारी भी नहीं है। कोई भी मामला अदालत के सामने आने पर कानून हमेशा यह मानता है कि प्रत्येक कानून का सभी नागरिकों को ज्ञान है। यदि आप किसी कानून के उल्लंघन के बारे में अदालत के समक्ष यह दलील दें कि आप तो उस से अनभिज्ञ थे और अनजाने में आप उस का उल्लंघन कर के कोई अपराध कर बैठे हैं तो अदालत आप की इस दलील पर कोई ध्यान नहीं देगी और आप को अनजाने में किए गए अपराध की सजा भुगतनी पड़ेगी। हाँ, अदालत सजा देते समय उस की मात्रा और प्रकार के बारे में विचार करते समय इस तथ्य को जरुर ध्यान में रखेगी कि आप ने यह अपराध पहली बार किया है या फिर दोहराया है। पहली बार में सजा मामूली चेतावनी या अर्थदण्ड होगी तो दूसरी बार में जेल जाने का अवसर आना अवश्यंभावी है।
आप की जानकारी के लिए इतना बता दूँ कि किसी भी कॉपीराइट के उल्लंघन पर कम से कम छह माह की कैद जो तीन वर्ष तक की भी हो सकती है, साथ में अर्थदण्ड भी जरुर होगा जो पचास हजार रुपयों से कम का न होगा और जो दो लाख रुपयों तक का भी हो सकता है। इस सजा को अदालत पर्याप्त और विशिष्ठ कारणों से कम कर सकती है लेकिन उसे इन पर्याप्त और विशिष्ठ कारणों का अपने निर्णय में उल्लेख करना होगा।
सभी चिट्ठाकारों को कॉपीराइट कानून की प्रारंभिक जानकारी होना आवश्यक है। इस कारण से इस कानून से सम्बन्धित प्रारंभिक जानकारी "अनवरत" के सहयोगी ब्लॉग "तीसरा खंबा" पर कुछ कड़ियों में प्रस्तुत की जा रही है जो सप्ताह में एक-या दो बार प्रकाशित की जाऐंगी।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

लड़कियां क्यों उपलब्ध स्पेस का उपयोग नहीं करतीं?

आज हमें एक विवाह संगीत में जाना पड़ा। पहले विवाहों के समय एक एक हफ्ते तक महिलाओं का संगीत चलता रहता था। अब वह सब एक समारोह में सिमट गय़ा है। इस के साथ ही लोकरंजन की यह विधा नगरों से विदाई लेती नजर आती है, कस्बे उन का अनुकरण कर रहे हैं और गाँव भी पीछे नहीं हैं। वहाँ भी टीवी ने सब कुछ पहुँचा दिया है। अब लगता है महिलाओं से वे लोकगीत सुनना दूभर हो जाएगा जो विवाहों में सहज ही सुनाई दे जाते थे। खैर!

संगीत सभा को निमन्त्रण पत्र में महिला संगीत प्रदर्शित किया गया था। मेरे विचार से यह गलत शीर्षक था। इसे सीधे-सीधे विवाह संगीत लिखा जा सकता था।

वहाँ एक हॉल में ढ़ाई फुट ऊंचा डीजे मंच लगाया गया था। कोई पन्द्रह फुट लम्बा और दस फुट चौड़ा रहा होगा। रोशनियाँ नाच रही थीं, तेज गूँजती आवाज और वही कान में रुई का ढ़क्कन लगा कर सुनने योग्य तेज फिल्मी संगीत। बहुत सी लड़कियों ने इन रिकॉर्डेड गीतों पर नृत्य किए। सब लड़कियों ने अच्छे भाव दिखाए जिन में कठोर श्रम झलक रहा था। उन में से शायद ही कोई हो, जिसने किसी गुरु से नृत्य की शिक्षा ली हो। फिर भी उन के नृत्यों में बहुत परिपक्वता थी। ऐसा लग रहा था कि उन्होंने एकलव्य की कथा से बहुत कुछ सीखा है। यह महसूस किया कि वाकई लड़कियाँ लड़कों के मुकाबले शीघ्र परिपक्व हो जाती हैं, क्यों कि उन भावों को जो वे प्रदर्शित कर रहीं थीं, ठीक से समझे बिना प्रदर्शित करना कठिन था। सचमुच लड़कियाँ अन्दर से बहुत गहरी होती हैं।

मुझे एक बात अखरी, और मैं ने इस का उल्लेख एक-दो लोगों से किया भी। उन्होंने भी इसे नोट किया। मंच पर पाँच-पाँच वर्गफुट के छह वर्ग थे। तीन आगे, तीन पीछे। नृत्य करते समय तकरीबन सभी लड़कियाँ केवल बीच के दो वर्गों का ही उपयोग कर रही थीं। उनमें भी आगे पीछे के दो-दो फुट स्थान का भी वे उपयोग नहीं कर रही थीं। इस तरह उस पन्द्रह गुणा दस वर्गफुट के मंच में से केवल पांच फुट गुणा छह फुट मंच का ही वे उपयोग कर रही थीं। पूरे मंच के केवल मात्र 20 प्रतिशत हिस्से का। जब कि लड़के जब भी उस मंच पर नृत्य के लिए आए उपलब्ध समूची स्पेस का उपयोग कर रहे थे।

क्यों लड़कियां उन के पास उपलब्ध स्पेस का उपयोग नहीं कर पा रही थीं? मेरे लिए यह प्रश्न एक पहेली की तरह खड़ा था। मन हुआ कि किसी लड़की से पूछा जाए। पर उस समारोह में ऐसा कर पाना संभव नहीं हो सका।

मैं इस प्रश्न का उत्तर तलाशना चाहता हूँ। कुछ उत्तर मेरे पास हैं भी। क्या इसलिए कि न्यूनतम स्पेस में काम करने की उन की आदत ड़ाल दी गई है? या उन्हें इस बात का भय है कि वे मंच के किनारों से दूर रहें कहीं नृत्य में मग्न उन का कोई पैर मंच के नीचे न चला जाए और उन्हें कुछ समय का या जीवन भर का कष्ट दे जाए?

सही उत्तर क्या है? मैं अभी उस की तलाश में हूँ।

शायद आप में से कोई सही उत्तर सुझा पाए?

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

वह थी औरत (दूध मां का)

मुझे मेरे एक मित्र ने ही इस घटना का ब्यौरा दिया था। मस्तिष्क के किसी कोने में पड़े रहने के कारण हो सकता है इस में कुछ उलट फेर हो गया हो। लेकिन जिस तरह की बहसें छिड़ गई हैं उन में यह प्रासंगिक है।

वाई माधोपुर से गंगापुर सिटी के बीच ट्रेन के दूसरे दर्जे के डब्बे में किसी जवां मर्द ने एक महिला की छातियां दबा दीं और आगे खिसक लिया। बिलकुल ग्रामीण कामकाजी महिला, वैसी ही उसकी वेशभूषा, गौर वर्ण, सुगठित शरीर। महिला ने उस युवक पर निगाह रखी। उसे अपने से दूर न होने दिया। गंगापुर सिटी स्टेशन पर युवक दरवाजे की ओर बढ़ा, पीछे-पीछे वह महिला भी। दोनों आगे-पीछे नीचे प्लेटफॉर्म पर उतरे।

नीचे उतरते ही महिला ने एक हाथ से युवक का हाथ पकड़ा, दूसरे हाथ से अपनी अंगिया ऊँची कर छातियाँ उघाड़ दीं और जोर से कहने लगी -लल्ला। तेरी अम्मां जल्दी मर गई बेचारी, सो कसर रह गई दूध पिलाने की। अम्माँ को दूध पी लियो होतो तो छिछोरापन ना होतो। वो कसर आज पूरी कर देऊँ हूँ। पी ले दूध मेरो। आगे से कोई तेरी माँ को गाली ना देगो तेरी हरकत के कारन। तू ने तो सारे जग की मैयन की शान बिगार दीन्हीं।

युवक ने बहुत कोशिश की हाथ छुड़ाने की, पर हाथ तो लौह-शिकंजे में जकड़ गया था जैसे। प्लेटफॉर्म पर भीड़ जुट गई। युवक महिला के सामने गिड़गिड़ाने लगा। मैया छोड़ दे मोहे। गलती हो गई मोसे। आगे से नहीं होगी।
बहुत गिड़गिड़ाने पर महिला ने कहा- खा कसम तेरी मैया की।
-मैया कसम, कभी गलती नाहीं होगी।
-मेरे सर पर हाथ धर के खा, कसम।
युवक ने महिला के सर हाथ धर के कसम खाई - मैया कसम, आगे कभी गलती नाहीं होगी।
- मैं तेरी कौन?
-तू मेरी मैया।

हाँ भीड़ में जुटी महिलाओं की ओर इंगित कर कहा-और ये कौन तेरी?
-ये सब भी मेरी मैया।
तब उस महिला ने कहा। चल बेटा सामान उठा मेरा और मेरे कूँ मोटर में बिठा।

युवक ने महिला का सामान उठाया और चल दिया मैया को मोटर में बिठाने। पीछे पीछे था लोगों का हजूम।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

भाषा का संस्कार (पानी देना)

"पानी देना "
आज कहीं भी यह वाक्य सुन ने को मिल जाता है।
बचपन में एक बार भोजन करते समय तेज मिर्च लगने पर मैं एकाएक कह बैठा -अम्माँ, पानी देना।
दादी वहीं थी। पानी मिलना तो दूर वह डाँटने लगी- ऐसा नहीं बोलते।
मैं ने पूछा -क्यों।
तो, वे बोलीं - पानी मरने वाले को दिया जाता है।
उस के बाद इस शब्द का प्रयोग हमने नहीं किया।

आज इस बात की याद फिर आयी। शाम को शोभा (पत्नी) ने भोजन तैयार होने की सूचना दी। तो हम ऑफिस से उठे और कहा- हम हाथ मुंहँ धोकर ( शौच से निवृत्त हो कर) आते हैं। तब तक आप भोजन लगा दो। नहीं तो फिर कोई आ मरेगा।
पत्नी ने टोक दिया - ऐसा क्या बोलते हो? जरा शुभ-शुभ बोला करो।
मैं ने सफाई दी - इस में क्या गलत है? यह तो मुहावरा है।
-हो, मुहावरा। इस से भाषा तो खराब होती है।
मैं ने उसे सही बताते हुए अपनी गलती स्वीकार की। आइंदा सही बोलने का वायदा किया, और हाथ मुहँ धोने चल दिया।

वास्तव में परिवार में मिली इन छोटी-छोटी बातों से भाषा को संस्कार मिला। जीवन सहयात्री ने इसे बनाए रखने में सहयोग किया। अनेक ब्लॉगर साथियों को इस तरह के संस्कार नहीं मिले। वे इस अवसर से वंचित रह गए। सोचता हूँ, मैं ही उन्हें टोकना प्रारंभ कर दूँ। पर भय लगता है वे इसे अन्यथा ले कर कतराने लगे तो कहीं साथियाना व्यवहार ही न टूट जाऐ।