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मंगलवार, 12 जुलाई 2011

एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे

कोई भी नयी उन्नत तकनीक समाज को आगे बढ़ने में योगदान करती है। एक भाप के इंजन के आविष्कार ने दुनिया में से सामन्तवाद की समाप्ति का डंका बजा दिया था। इंग्लेण्ड की औद्योगिक क्रान्ति उसी का परिणाम थी। उसी ने सामन्तवाद के गर्भ में पल रहे पूंजीवाद को जन्म देने में दाई की भूमिका अदा की थी। पूंजीवाद उसी से बल पाकर आज दुनिया का सम्राट बन बैठा है। उस के चाकर लगातार यह घोषणा करते हैं कि अब इतिहास का अन्त हो चुका है। पूंजीवाद अब दुनिया की सचाई है जो कभी समाप्त नहीं हो सकती। इस का अर्थ है कि पूंजीवाद ने जो कष्ट मानवता को प्रदान किए हैं वे भी कभी समाप्त नहीं होंगे। कभी गरीबी नहीं मिटेगी, धरती पर से कभी भूख की समाप्ति नहीं होगी। दुनिया से कभी युद्ध समाप्त नहीं होंगे, वे सदा-सदा के लिए शोणित की नदियाँ बहाते रहेंगे। किसान उसी तरह से अपने खेतों में धूप,ताप, शीत, बरखा और ओले सहन करता रहेगा। मजदूर उसी तरह कारखानों में काम करते रहेंगे। इंसान उच्च से उच्च तकनीक के जानकार होते हुए भी पूंजीपतियों की चाकरी करता रहेगा। बुद्धिजीवी उसी की सेवा में लगे रह कर ईनाम पाते और सम्मानित होते रहेंगे। जो ऐसा नहीं करेगा वह न सम्मान का पात्र होगा और न ही जीवन साधनों का। कभी-कभी लगता है कि दमन का यह चक्र ऐसे ही चलता रहेगा। शायद मनुष्य समाज बना ही इसलिए है कि अधिकतर मनुष्य अपने ही जैसे चंद मनुष्यों के लिए दिन रात चक्की पीसते रहें।

ज हम जानते हैं कि इंसान ही खुद ही खुद को बदला है, उस ने दुनिया को बदला है और उसी ने समाज को भी बदला है। यह दुनिया वैसी नहीं है जैसी इंसान के अस्तित्व में आने के पहले थी। वही इकलौता प्राणी इस ग्रह में है जो अपना भोजन वैसा ही नहीं ग्रहण करता जैसा उसे वह प्रकृति में मिलता है। वह प्रकृति में मिलने वाली तमाम वस्तुओं को बदलता है और अपने लिए उपयोगी बनाता है। उस ने सूत और ऊन से कपड़े बुन लिया। उस ने फलों और मांस को पकाना सीखा, उस ने अनाज उगा कर अपने भविष्य के लिए संग्रह करना सीखा। यह उस ने बहुत पहले कर लिया था। आज तो वह पका पकाया भोजन भी शीतकों और बंद डिब्बों में लंबे समय तक रखने लगा है। बस निकाला और पेट भर लिया। इंसान की तरक्की रुकी नहीं है वह बदस्तूर जारी है। 

स ने एक समय पहिए और आग का आविष्कार किया। इन आविष्कारों से उस की दुनिया बदली। लेकिन समाज वैसे का वैसा जंगली ही रहा। लेकिन जिस दिन उस ने पशुओं को साधना सीखा उस दिन उस ने अपने समाज को बदलने की नींव डाल दी। उसे शत्रु कबीले के लोगों को अब मारने की आवश्यकता नहीं थी, वह उन की जान बख्श सकता था। उन्हें गुलाम बना कर अपने उपयोग में ले सकता था। कुछ मनुष्यों को कुछ जीवन और मिला। लेकिन उसी ने मनुष्य समाज में भेदभाव की नींव डाल दी। अब मनुष्य मनुष्य न हो कर मालिक और गुलाम होने लगे। पशुओं के साथ, गुलामों के श्रम और स्त्रियों की सूझबूझ ने खेती को जन्म दिया। गुलाम बंधे रह कर खेती का काम नहीं कर सकते थे। मालिकों को उन के बंधन खोलने पड़े और वे किसान हो गए। दास समाज के गर्भ में पल रहा भविष्य का सामंती समाज अस्तित्व में आया। हम देखते हैं कि मनुष्य ने अपने काम को सहज और सरल बनाने के लिए नए आविष्कार किए, नई तकनीकें ईजाद कीं और समाज आगे बढ़ता रहा खुद को बदलता रहा। ये तकनीकें वही, केवल वही ईजाद कर सकता था जो काम करता था। जो काम नहीं करता था उस के लिए तो सब कुछ पहले ही सहज और सरल था। उसे तो कुछ बदलने की जरूरत ही नहीं थी। बल्कि वह तो चाहता था कि जो कुछ जैसा है वैसा ही चलता रहे। इस लिए जिन्हों ने दास हो कर, किसान हो कर, श्रमिक हो कर काम किया उन्हीं ने तकनीक को ईजाद किया, दुनिया को बदला, इंसान को बदला और इंसानी समाज को बदला। इस दुनिया को बदलने का श्रेय केवल श्रमजीवियों को दिया जा सकता है, उन से अलग एक भी इंसान को नहीं। 

र क्या अब भी कुछ बदल रहा है? क्या तकनीक विकसित हो रही है? जी, दुनिया लगातार बदल रही है। तकनीक लगातार विकसित हो रही है। पूंजीवाद के विकास ने लोगों को इधर-उधर सारी दुनिया में फैला दिया। पहले एक परिवार संयुक्त रूप से साथ रहता था। आज उसी परिवार का एक सदस्य दुनिया के इस कोने में है तो दूसरा उस कोने में। एक सोने जा रहा है तो दूसरा सो कर उठ रहा है। लेकिन दुनिया भर में बिखरे लोगों ने जुड़ने के तकनीकें विकसित कर ली हैं और लगातार करते जा रहे हैं। आज की सूचना प्रोद्योगिकी ने इंसानी समाज को आपस में जो़ड़े रखने की  मुहिम चला रखी है। हों, इस प्रोद्योगिकि के मालिक भले ही पूंजीपति हों, लेकिन कमान तो वही श्रमजीवियों के हाथों में है। वे लगातार तकनीक को उन्नत बनाते जा रहे हैं। नित्य नए औजार सामने ला रहे हैं। हर बार एक नए औजार का आना बहुत सकून देता है। तकनीक का विकसित होना शांति और विश्वास प्रदान करता है। कि इतिहास का चक्का रुका नहीं है। दास युग और सामंती युग विदा ले गए तो यह मनुष्यों के शोणित से अपनी प्यास बुझाने वाला पूंजीवाद भी नहीं रहेगा। हम, और केवल हम लोग जो श्रमजीवी हैं, जो तकनीक को लगातार विकसित कर रहे हैं, एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे। 

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

चलो, उतरा बुखार फुटबॉल का ...........

हीने भर से बुखार था, आज जा कर उतरा। चलो, इस से भी फारिग हुए। पचपनवाँ बरस जी रहे हैं। शरीर में कुछ तो जवानी रोज कम हो ही रही है। हाँ रोज एक घंटे फुटबॉल खेली जाये तो शेष जवानी को कुछ बरस और रोका जा सकता है। अब खुद निक्कर-टी शर्ट पहन, जूतों में पैरों को कस कर मैदान में फुटबॉल तो खेल नहीं सकते, जिस, से शरीर में खूब खून का दौरा हो और जवानी कुछ बरस और मेहमान बनी रह सके। लेकिन अब ये तो किया ही जा सकता है कि टीवी पर फुटबॉल मैच देख कर जिस्म में खून के दौरे को बरकरार रखा जाए। महीने भर पहले यही कुछ करने का हमने मन बनाया। शाम का मैच तो दफ्तर और मुवक्किलों की भेंट चढ़ जाता था। हम केवर आधी रात को होने वाले मैंच देखते रहे। आखिर क्वार्टर फाईनल आ गए। अब बुखार में आनंद आने लगा था। 
धर देखा कि हिन्दी ब्लागीरी में कोई फुटबाल का नाम ही नहीं ले रहा है। ले रहा है तो ऐसे जैसे मुहल्ले में आए मंत्री को अनिच्छा से हाथ जोड़ सलाम  ठोक रहा हो। हमने सोचा हिन्दी ब्लागिंग की ऐसी किरकिरी तो न होने देंगे, कुछ तो भी लिखेंगे। अब हम खेल के पत्रकार तो थे नहीं, और कबड्डी के सिवा किसी दूसरे खेल के नियमित खिलाड़ी रहे हों ऐसा भी नहीं था। अब हम किस हैसियत से लिखते? हमें याद आया कि हम ये बुखार शुरू होते से ही दर्शक जरूर बने हुए हैं, और क्या एक दर्शक की कोई हैसियत नहीं होती। हमने विचारा तो पता लगा कि असल हैसियत तो वही बनाता है। वह हैसियत वाला हो या न हो पर सब की हैसियत बनाने वाला तो वही है। इधर रणजी के मैच देखे हैं हमने। उन में दर्शक नदारद होता है तो खिलाड़ियों की हैसियत भी उतनी ही नदारद होती है। हमने दर्शक की हैसियत से फुटबॉल पर लिखने का श्री गणेश कर डाला। देखा, और लिखा। जो पसंद आया वही लिखा। आप ने पढ़ ही लिया होगा कि क्या लिखा? न पढ़ा हो तो पढ़ लें वही हमारा इस बुखार का तापमान ग्राफ है।
ब कथा जब पूरी हो चुकी है तो पूर्णाहुति और आरती तो अवश्य ही होनी चाहिए ना? उस के बिना तो कोई यज्ञ, कोई समारोह सम्पन्न नहीं होता न? तो लीजिए आखिरी मैच का हाल ये रहा कि जिस टीम को अपने जीतने की क्षमता में विश्वास था उस ने पूरे मैच में धैर्य न खोया और आखिर जीत हासिल कर ली। मैं स्पेन की बात कर रहा हूँ। वे अपने आत्मविश्वास से जीते। जिस टीम के कप्तान को यह विश्वास हो कि वह गोल पर होने वाले हर प्रहार को रोकने की क्षमता रखता है। क्या उस की टीम के शेष 10 खिलाड़ी विपक्षी के गोल में गेंद नहीं डाल सकते? उन का गुरु (कोच) वह कितना शांत दिखाई देता था। उस के चेहरे पर हमेशा न खुशी न गम विराजमान रहते थे। लेकिन  जब मैच के अतिरिक्त समय के आखिरी क्षणों में जब उस के खिलाड़ियों ने गेंद जब विपक्षी गोल में डाल दी तो उस की आँखों में वही चमक थी जो कई वर्षों से चमकने के वक्त का इंतजार कर रही थी। कल के खेल में सब कुछ हुआ। शरीरों की बेहतरीन टक्करें हुईँ। शरीर घायल भी हुए। शरीरों ने अपनी पूरी ताकत तक लगा दी। लेकिन केवल ताकत की जीत नहीं हुई। जीत हुई उस ताकत को ठंड़े दिमाग से इस्तेमाल करने वालों की। टीम का कप्तान ऐसे फफक फफक कर रोने लगा जैसे उस के जीवन का इस से अधिक आनंद देने वाला क्षण जी रहा है जो फिर कभी उस के जीवन में नहीं आएगा। 
मैच से पहले गाने और नृत्य से खिलाड़ियों, आयोजकों और दर्शकों में उल्लास भर देने वाली शकीरा का जिक्र न किया जाए तो बात अधूरी रहेगी। प्रकृति किस तरह किसी एक को इतनी सारी दौलत से कैसे नवाजती है इस का शानदार उदाहरण हैं शकीरा। अद्वितीय सुंदरता से भरपूर शरीर और सौंदर्य। जैसे स्वर्ग से साक्षात मेनका या रंभा उतर आई हो। मधुर और जोशीली आवाज, उस पर थिरकता हुआ बदन। जिसे देखने के उपरांत  मनुष्य की सारी लालसाएँ और वासनाएँ तिरोहित हो जाएँ। हम ने तो उस की छायाएँ देखीं। जिन लोगों ने उसे साक्षात देखा होगा। सारा जीवन रोमाँच शायद ही विस्मृत कर पाएँ। 
टीम अपने देश पहुँची। अब वह देशाटन में लगी है। लाखों लोग खिलाड़ियों के स्वागत में उल्लसित हैं। जिधर निगाह दौड़ाओ उधर ही लाल-पीली जर्सी दिखाई पड़ती है। जैसे देश के फुटबॉल खिलाड़ियों का गणवेश संपूर्ण देश का गणवेश हो गया हो। हर कोई वही पहने दिखाई देता है। हर कोई महसूस कर रहा है कि उस का भी इस जीत में कुछ न कुछ योगदान है। बुजुर्गों की आँखें उन लड़कों को देख कर खुशी से छलक रही हैं। अधेड़ उन्हें गौरव से देख रहे हैं। जवानों के शरीरों में खून तेजी से दौड़ने लगा है। वे कुछ भी करने को तैयार हैं। लाल और पीले रंगों की ये बहार देख कर मेरे राजस्थान की रंगीनी फीकी पड़ने लगती है। मैं या आप यदि आज स्पेन में होते तो इस बात के प्रत्यक्षदर्शी होते कि जीवन की सब से बड़ी जीत कैसी दिखाई देती है? कैसी सुनाई देती है? उस का स्वाद कैसा होता है?
मेरा तो बुखार यहीं आरती के साथ उतर गया। साथ ही उस ऑक्टोपस पाल बाबा का भी। सुना है उन ने कुछ खा लिया है और वे अब इस खुशी को देखने के बाद अधिक दिनों इस धरती पर रहना नहीं चाहते। उन्हें सेवा निवृत्त कर दिया गया है। वे अब विश्राम पर चले गए हैं। बाबा ने जिस तरह सारे दुनिया के ज्योतिषियों की ज्योतिष को ठेंगा दिखाते हुए अपनी बैठक को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया उस का तो मैं भी कायल हो गया हूँ। वैसे मेरा जूनियर बता रहा था कि बाबा कुल 12 बार में नौ बार बाएं डब्बे पर बैठे। दाँए पर तो वे तीन बार गलती से जा बैठे थे। वैसे भी जिस के आठ हाथ हों उसका क्या दायाँ और क्या बायाँ? अब बाबा तो गए। उन के प्रशंसक कई दिनों तक लकीर पीटते रहेंगे। कई तो लाइब्रेरी में से उस की रिकॉर्डिंग निकाल निकाल कर पीटेंगे। मेरे ज्योतिषी दादा जी ने मुझे भी ज्योतिषी बनाने की कोशिश की थी। अच्छा हुआ डार्विन का जिस ने हमें ज्योतिषी न बनने दिया। नहीं तो अब ग्लानि होती कि इस से तो ऑक्टोपस बनना ज्यादा अच्छा था। 
च्छा तो अलविदा फुटबॉल बुखार! अलविदा! मैं सोच रहा हूँ कि मैं भी घर के किसी मर्तबान में एक ऑक्टोपस पाल ही लूँ। जब भी दुविधा होगी। तब बक्सों को ड़ाल कर उस से कहूँगा ...... किसी पर तो बैठ!








रविवार, 11 जुलाई 2010

जीत की क्षमता में विश्वास और जीतने की सामान्य इच्छा के ग्राफ को ऊपर बनाए रखने वाला बनेगा सरताज

स कुछ ही घंटे बाकी हैं, फिर विश्वकप फुटबॉल 2010 का खिताबी मुकाबला आरंभ होगा जो तय करेगा कि इस खिताब को पाने वाला आठवाँ देश कौन सा होगा। नीदरलैंड और स्पेन की टीमों के बीच होने वाला यह मुकाबला दिलचस्प होगा। दोनों ही देशों टीमें  कभी इस खिताब को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकी हैं। इस बार भी दोनों में से एक को यह अवसर खोना पड़ेगा।

र्षों बाद दमखम और कला-कुशलता दिखाने वाली उरुग्वे को जर्मनी के मुकाबले चौथे स्थान पर रहना पड़ा। जर्मनी जो विश्वकप की मजबूत दावेदार दिखाई पड़ रही थी, उस ने यह मैच जीत कर अपने सम्मान को बचाया। इस जीत के लिए भी जर्मनी को अपनी पूरी ताकत और कुशलता झोंकनी पड़ी। कल के मैच को देख कर यह कहा जा सकता है कि चौथे स्थान पर रहने वाली उरुग्वे की टीम कहीं भी जर्मनी से उन्नीस नहीं थी। यदि उस में कहीं कमी दिखाई दे रही थी तो वह थी जीतने की सामान्य इच्छा और अपनी जीत  सकने की क्षमता में प्रबल विश्वास। यदि किसी टीम के सभी खिलाड़ियों के बीच जीत की सामान्य इच्छा की कमी हो  और अपनी जीत सकने की क्षमता के प्रति प्रबल विश्वास न हो तो वह कितनी ही श्रेष्ठ टीम क्यों न हो लेकिन सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकती। यदि उरुग्वे को उठ कर निकलना है तो उसे ये दोनों चीजें हासिल करनी होंगी। 

ज के फाइनल मैच में मुकाबले में उतरने वाली दोनों टीमें अपनी जीत सकने की क्षमता के प्रति आश्वस्त दिखाई पड़ती हैं। उन में इच्छा की कमी भी नहीं दिखाई देती। यही कारण है कि हम एक शानदार मुकाबले की आशा कर सकते हैं। लेकिन मैच आरंभ होने के पहले और मैच के दौरान हर पल इस विश्वास और इच्छा के ग्राफ में लगातार परिवर्तन होता रहता है। आज जो भी टीम इस ग्राफ में उच्चता बनाए रखेगी वही खिताब पर कब्जा कर सकेगी।
तो आज रात 12.00 बजे भारतीय समयानुसार ईएसपीएन पर विश्व फुटबाल का यह सरताज मुकाबला देखना न भूलें। यदि आप अपने टीवी को चालीस मिनट पहले चालू करेंगे तो शकीरा के गायन और नृत्य का प्रदर्शन भी फुटबॉल मैदान में देख सकेंगे।




शनिवार, 10 जुलाई 2010

बहुत कुछ सीखा जा सकता है स्पेनी फुटबॉल टीम की रणनीति से

स्पेन ने जिस तरह से शानदार फुटबॉल का प्रदर्शन कर जर्मनी को हराते हुए विश्वकप के फाइनल में प्रवेश किया है वह सारे विश्व को एक गरिमामय खेल सीखने को आमंत्रित करता है। खेल के पहले लगता था कि जर्मनी ही जीत का हकदार है और वह किसी भी तरह से स्पेन को परास्त कर देगा। लेकिन यह हो नहीं सका। जर्मनी के मंसूबों को स्पेन ने पानी पिला दिया। 
टीम स्पेन
स्पेन के खेल में शालीनता थी। उन्होंने पूरे मैच में गेंद पर अपना कब्जा बनाए रखा। जर्मन टीम को स्पेन के कब्जे से गेंद छीनने के अवसर कम ही मिले। यह अच्छी रणनीति साबित हुई। क्यों कि जितना आप का कब्जा गेंद पर रहेगा उतने ही गोल खाने के अवसर कम होंगे और गोल करने के अधिक। गेंद पर कब्जा बनाए रख कर जर्मनी द्वारा अपने गोल पर प्रहार करने के अवसरों को न्यूनतम कर देना स्पेन की पहली रणनीति थी। 
दूसरी नीति स्पेन की यह थी कि जब भी अवसर मिले गेंद को गोल पर मारा जाए। इस से गोल पर प्रहार के अवसर बढ़ेंगे। जर्मनी की रक्षा कितनी ही मजबूत क्यों नहीं रही हो। लेकिन जब स्पेन ने प्रहार पर प्रहार किए तो यह निश्चित ही था कि कभी तो रक्षा पंक्ति से कोई चूक होती और गोल हो जाता। यही हुआ भी स्पेन ने खुद को मिले कॉर्नर पर एक ऐसा अवसर खोज ही लिया तब जर्मनी की रक्षा पंक्ति कुछ भी नहीं कर सकी। इसी ने स्पेन को फाइनल की राह दिखाई। 
गोल करने के बाद जश्न मनाते नीदरलेंड खिलाड़ी
फाइनल में स्पेन की विपक्षी टीम भी गेंद पर कब्जा बनाए रखने में कमजोर नहीं है। लेकिन मेरी राय में स्पेन से उन्नीस ही है। नीदरलैंड के खिलाड़ियों ने स्पेन के खेल से सीखा ही होगा और उन के कोच ने स्थितियों को नियंत्रित रखने के गुर भी बताए होंगे। स्पेन ने भी नीदरलैंड की संभावित तैयारियों को ध्यान में रखते हुए अपनी तैयारी अवश्य ही की होगी। निश्चित ही यह मैच कमजोर न होगा। आप तैयार रहें भारतीय समयानुसार रविवार की रात 12 बजे बाद अर्थात सोमवार की सुबह 0.00 बजे से विश्व के सर्वाधिक ख्यात खेल के विश्वकप का अंतिम खिताबी मैच देखने के लिए।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

खुद को साबित करने का अंतिम अवसर

उरुग्वे की मंत्रणा
हले दो बार विश्वकप  विजेता का खिताब प्राप्त कर चुकी उरुग्वे की टीम ने पिछले चालीस सालों का सबसे बेहतर प्रदर्शन कर सेमीफाइनल में प्रवेश पाया था। सेमीफाईनल में भी उन का प्रदर्शन कमजोर नहीं था। यदि नीदरलैंड के खिलाड़ी दो चमत्कारी गोल कर पाने में सफल न होते तो उरुग्वे फाइनल में होता और हो सकता था कि वह 2010 का विश्वकप विजेता होता। उरुग्वे के सितारा खिलाड़ी  डिएगो फॉरलान ने खुद कहा, 'हम वर्ल्ड कप के इतने करीब थे। हमने सुनहरा मौका गंवा दिया।' अब उसी टीमं को आज कुछ घंटों के बाद जर्मनी से मुकाबला कर एक बार अपने कौशल और ताकत का एक बार फिर से प्रदर्शन करते हुए अपने आप को साबित कर दिखाना है कि वे भी इस बार विश्वकप की मजबूत दावेदार थे।
जर्मन टीम
धर जर्मनी तो आरंभ से ही बहुत मजबूत नजर आ रही थी। अधिकांश पर्यवेक्षक और फुटबॉल के दीवानों का यही ख्याल था कि जर्मनी ही इस बार विश्वकप ले जाएगा। उस के खिलाड़ी सब से अधिक दमखम दिखा रहे थे। उन की गति और लय शानदार थी। ऐसा प्रतीत होता था कि लक्ष्य हासिल करने के पहले कोई उन्हें रोक नहीं सकता। लेकिन स्पेन के साथ खेलते हुए वे वैसे ही निस्तेज हुए जैसे सूरज उगते ही चंद्रमा की रोशनी और चमक फीकी पड़ जाती है।  निश्चय ही कभी भी फाइनल का चेहरा न देख पाने वाली जर्मन टीम के मंसूबों को सेमीफाइनल की हार कम न साली होगी। लेकिन आज का मैच उन्हें हार की इस  सालन से बाहर निकल कर खेलना होगा। वर्ना यह भी हो सकता है कि उरुग्वे उन्हें अपने कलात्मक प्रदर्शन से हरा दे और जर्मन खिलाड़ियों को शर्मिंदा होना पड़े।
स विश्वकप में अपने आप को साबित करने का यह अंतिम अवसर दोनों ही टीमें नहीं चूकना चाहेंगी। हम भी चाहते हैं कि तीसरे स्थान के लिए होने वाला यह मैच उतना ही आकर्षक हो जितना कि फाइनल संभावित हो सकता है। दर्शक इस मैच को अवश्य ही देखना चाहेंगे। वैसे भी इस विश्वकप में दक्षिण अमरीकी कलात्मकता इसी मैच में अंतिम बार देखने को मिलेगी। तो देखना न भूलें इस मैच को कल रात अर्थात 10 जुलाई को रात बारह बजे के उपरांत 11 जुलाई की सुबह 0.00 बजे से ईएसपीएन पर।

कोई जीते, कोई हारे, हमें निर्वस्त्र दौड़ने का सिर्फ बहाना चाहिए

 राग्वे की महशहूर मॉडल लारिसा रिक्वेल्म ने अपने देश की फुटबॉल टीम के विश्वकप में जीतने पर शरीर को रंग कर सड़क पर नग्न दौड़ने की घोषणा की थी। लेकिन उन के मंसूबे उस समय धक्का लगा जब पराग्वे की टीम को क्वार्टर फाईनल में ही पराजय का मुहँ देखना पड़ा। खेल के इस परिणाम से न केवल लारिसा के मंसूबे आहत हुए अपितु लारिसा को इस प्रदर्शन में देखने की इच्छा रखने वाले लोगों को भी बेहद निराशा हुई।
लेकिन जो कोई किसी काम को करना चाहता है उस पर किसी की जीत या हार का क्या असर हो सकता है? लारिसा फुटबॉल के इस विश्व प्रदर्शन में अपने शरीर को दिखाने का अवसर नहीं छोड़ना चाहतीं। वे बस समाचारों में बनी रहना चाहती हैं। उस के लिए वे अपनी घोषणा को संशोधित कर सकती हैं। उन्होंने ऐसा किया है। उन्हों ने घोषणा की है कि वे स्पेन के विश्वकप जीतने पर ऐसा करेंगी। (समाचार)
ब जिसे यह नग्न दौड़ लगानी ही है। वह स्पेन के हारने पर और नीदरलैंड के विश्व चैंपियन बनने पर भी ऐसा कर सकती है। आखिर उसे बहाना ही तो चाहिए।

सोमवार, 15 मार्च 2010

उपभोक्ताओं को अपने अधिकारों के लिए संगठित हो कर खुद आगे आना होगा

ज अट्ठाइसवाँ विश्व उपभोक्ता दिवस था। 1983 में कंजूमर्स इंटरनेशनल नाम की संस्था ने इसे आरंभ किया था। यह संस्था इसी वर्ष अपने जन्म का पचासवाँ वर्ष भी मना रही है। दुनिया में पैदा हुआ मानव समाज का प्रत्येक सदस्य एक उपभोक्ता है। इस संस्था के गठन का मूल मकसद यही था कि दुनिया भर के सभी उपभोक्ता यह जानें कि बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए उनके क्या हक हैं। साथ ही सभी देशों की सरकारें उपभोक्ताओं के अधिकारों का ख्याल रखें। प्रतिवर्ष 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता दिवस मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष उपभोक्ता दिवस एक नया नारा देती है। इस वर्ष का नारा है "हमारा धन हमारा अधिकार"। इस नारे के माध्यम से इस वर्ष वित्तीय सेवाओं के संदर्भ में उपभोक्ता अधिकारों पर ध्यान केन्द्रित किया जाएगा।
पभोक्ता आंदोलन के प्रभाव ने भारत सरकार को उपभोक्ता संरक्षण के लिए कानून बनाने के लिए बाध्य किया। इस तरह भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधनियम 1986 अस्तित्व में आया और उपभोक्ताओं के संरक्षण के लिए जिला स्तर पर उपभोक्ता प्रतितोष मंच, राज्य स्तर पर राज्य उपभोक्ता प्रतितोष आयोग और राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय उपभोक्ता प्रतितोष आयोग अस्तित्व में आए। तब से अब तक देशभर के जिला उपभोक्ता मंचों में दर्ज 28 लाख मामलों में से 25 लाख से अधिक मुकदमों का निपटारा किया जा चुका है। राजस्थान दूसरे स्थान पर है जहां 2 लाख 20 हजार से अधिक मामलें निपटाये जा चुके है।
राजस्थान राज्य उपभोक्ता प्रतितोष आयोग ने महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और कर्नाटक को पीछे छोड़ते हुए ने 40 हजार से अधिक मामलों का निस्तारण करके देश में प्रथम स्थान हासिल किया है। देश के विभिन्न राज्य आयोगों द्वारा अब तक करीब चार लाख मामलों का निस्तारण किया गया है और इनमें हर दस में से एक प्रकरण राजस्थान में निपटाया गया है। महाराष्ट्र द्वितीय, मध्यप्रदेश तृतीय और कर्नाटक चतुर्थ स्थान पर है यहां के राज्य आयोगों ने अब तक 30 से 32 हजार मुकदमों का निपटारा किया है। 31 जनवरी तक राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग में दर्ज 62972 मामलों में 55192 का निपटाया किया जा चुका है। इसी तरह देशभर के राज्य आयोगों में प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 496378 मामलें दायर किये गये जिनमें से 387974 का निपटारा किया जा चुका है। इस अवधि में उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक और लक्षद्वीप में सबसे कम मामलें दर्ज किए गए।
ये तो वे तथ्य हैं जो आंकड़ों के माध्यम से सामने आए हैं। लेकिन ग्राउंड लेवल पर क्या हाल हैं? यह केवल उपभोक्ता प्रतितोष मंच या आयोगों के कार्यस्थलों पर जा कर ही पता किया जा सकता है। कोटा में पिछले दो वर्षों तक जिला उपभोक्ता प्रतितोष मंच किसी न किसी कारण से कार्य करने में अक्षम रहा है। काम को गति देने के लिए अब झालावाड़ जिले के उपभोक्ता प्रतितोष मंच को इस की सहायता के लिए लगाया गया है जो माह में दो सप्ताह कोटा में रह कर काम करता है। फिर भी उपभोक्ता विवादों में निर्णय की गति संतोषजनक नहीं बन सकी है।
ज मैं उपभोक्ता प्रतितोष मंच गया तो वहाँ सदा की तरह मध्यान्ह अवकाश के पूर्व केवल कार्यालय का ही काम होता है। मैं उपभोक्ता प्रतितोष मंच के अध्यक्ष से मिलना चाहता था। लेकिन वे मध्यान्ह अवकाश तक मंच के कार्यालय में उपलब्ध नहीं थे। कार्यालय के कर्मचारियों को पता नहीं था कि आज विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस है। मंच के एक सदस्य अवश्य वहाँ मिले उन्हों ने बताया कि आज मंच की ओर से कोई विशेष कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया है और न ही मंच की किसी कार्यक्रम में भागीदारी है। वहाँ यह जानकारी मिली कि इस संबंध में जो भी कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं वे रसद विभाग द्वारा आयोजित किए जाते हैं। जिला रसद अधिकारी अपने कार्यालय में कंप्यूटर पर व्यस्त मिले। उन्हों ने बताया कि उन्हें तो बिलकुल फुरसत नहीं है। वे तो विधानसभा से आई प्रश्नावलियों के उत्तर तैयार करने के सब से मुश्किल कर्तव्य में उलझे पड़े हैं।
मैं ने जब उन्हें बताया कि आज विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस पर कुछ तो उपभोक्ता अधिकारों की जानकारी जनता तक पहुँचाने के लिए होना चाहिए था। उन्हों ने कहा कि एक स्कूल में इस विषय पर निबंध प्रतियोगिता आयोजित की गई है और रैली भी निकाली जाएगी। अब तक ये काम हो चुके होंगे। वे हों न हों पर कल अवश्य ही इन दोनों कामों के संपन्न हो जाने की खबरें स्थानीय अखबारों में अवश्य ही होंगी।
कुल मिला कर देश मे उपभोक्ता आंदोलन बहुत कमजोर है। यह तब तक आगे नहीं बढ़ सकता जब तक कि स्वैच्छिक उपभोक्ता संगठन मजबूत हो कर आगे नहीं आते। लोगों को खुद अपने अधिकारों के लिए आगे आना होगा। अपने अधिकारों के लिए लगातार आवाज उठाना होगी। आप टिकट की लाइन में लगे हैं या बिल भरने की बारी, जैसे ही आई कांच व जाली के पीछे बैठे शख्स ने गुटखा चबाते हुए कह दिया थोड़ी देर बाद आना और आप बगैर किसी प्रतिरोध के लाइन में ही खड़े रह गए तो आपके हित में कौन बोलेगा। न व्यक्तिगत स्तर पर प्रतिरोध होता है, न संगठित विरोध। हालांकि ठगे गए उपभोक्ता को न्याय दिलाने के लिए उपभोक्ता प्रतितोष मंचों की व्यवस्था है और अनुभव बताता है, जो भी वहां जाता है न्याय जरूर पाता है, लेकिन वहां तक जाने की जहमत तो उपभोक्ता को उठाना ही पड़ेगी। खाद्य पदार्थो में मिलावट जैसे संगीन मामले भी उपभोक्ता संरक्षण के दायरे में आते हैं। हाल ही में एक ब्रांडेड अचार में मरा चूहा निकलने पर जुर्माने का फैसला हुआ, लेकिन क्या उसके बाद भी उपभोक्ता जागे? क्या उस ब्रांड को लेकर विरोध के स्वर उभरे? यहाँ तक कि यहाँ ब्लाग जगत में भी उपभोक्ता हितों के बारे में आज भी सब से कम ही लिखा गया है।

रविवार, 24 जनवरी 2010

बीज ही वृक्ष है।

मेरे एक मित्र हैं, अरविंद भारद्वाज, आज कल राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच में वकालत करते हैं। वे कोटा से हैं और कोई पन्द्रह वर्ष पहले तक कोटा में ही वकालत करते थे। कुछ वर्ष पूर्व तक वे अपने पिता जी की स्मृति में एक आयोजन प्रतिवर्ष करते थे। एक बार उन्हों ने ऐसे ही अवसर पर एक आयोजन किया और एक संगोष्ठी रखी। इस संगोष्ठी का विषय कुछ अजीब सा था। शायद "भारतीय दर्शनों में ईश्वर" या कुछ इस से मिलता जुलता। कोटा के एक धार्मिक विद्वान पं. बद्रीनारायण शास्त्री को उस पर अपना पर्चा पढ़ना था और उस के उपरांत वक्तव्य देना था। उस के बाद कुछ विद्वानों को उस पर अपने वक्तव्य देने थे।

मैं संगोष्ठी में सही समय पर पहुँच गया। पंडित बद्रीनारायण शास्त्री ने अपना पर्चा पढ़ा और उस के उपरांत वक्तव्य आरंभ कर किया। जब बात भारतीय दर्शनों की थी तो षडदर्शनों को उल्लेख स्वाभाविक था। दुनिया भर के ही नहीं भारतीय विद्वानों का बहुमत सांख्य दर्शन को अनीश्वरवादी और नास्तिक दर्शन  मानते हैं। स्वयं बादरायण और शंकराचार्य ने सांख्य की आलोचना उसे नास्तिक दर्शन कहते हुए की है। पं. बद्रीनारायण शास्त्री जी को षडदर्शनों में सब से पहले सांख्य का उल्लेख करना पड़ा, क्यों कि वह भारत का सब से प्राचीन दर्शन है। शास्त्री जी कर्मकांडी ब्राह्मण और श्रीमद्भगवद्गीता में परम श्रद्धा रखने वाले। गीताकार ने कपिल को मुनि कहते हुए कृष्ण के मुख से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ। भागवत पुराण ने कपिल को ईश्वर का अवतार कह दिया। कपिल सांख्य के प्रवर्तक भी हैं और गीता का मुख्य आधार भी सांख्य दर्शन है।  संभवतः इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए उन्हों ने धारणा बनाई कि सांख्य दर्शन एक अनीश्वरवादी दर्शन नहीं हो सकता, स्वयं ब्रह्म का अवतार कपिल ऐसे दर्शन का प्रतिपादन बिलकुल नहीं सकते? इस धारणा के बनने के उपरांत वे संकट में पड़ गए।
खैर, शास्त्री जी का व्याख्यान केवल इस बात पर केंद्रित हो कर रह गया कि सांख्य एक ईश्वरवादी दर्शन है। अब यह तो रेत में से तेल निचोड़ने जैसा काम था।  शास्त्री जी तर्क पर तर्क देते चले गए कि ईश्वर का अस्तित्व है। उन्हों ने भरी सभा में इतने तर्क दिए कि सभा में बैठे लोगों में से अधिकांश में जो कि  लगभग सभी ईश्वर विश्वासी थे, यह संदेह पैदा हो गया कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है भी या नहीं? सभा की समाप्ति पर श्रोताओं में यह चर्चा का विषय रहा कि आखिर पं. बद्रीनारायण शास्त्री को यह क्या हुआ जो वे ईश्वर को साबित करने पर तुल पड़े और उन के हर तर्क के बाद लग रहा था कि उन का तर्क खोखला है। ऐसा लगता था जैसे ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं और लोग जबरन उसे साबित करने पर तुले हुए हैं।

मैं ने यह संस्मरण अनायास ही नहीं आप के सामने सामने रख दिया है। इन दिनों एक लहर सी आई हुई है। जिस में तर्कों के टीले परोस कर यह समझाने की कोशिश की जाती है कि अभी तक विज्ञान भी यह साबित नहीं कर पाया है कि ईश्वर नहीं है, इस लिए मानलेना चाहिए कि ईश्वर है। कल मुझे एक मेल मिला जिस में एक लिंक था। मैं उस लिंक पर गया तो वहाँ बहुत सी सामग्री थी जो ईश्वर के होने के तर्क उपलब्ध करवा रही थी। इधर हिन्दी ब्लाग जगत में भी कुछ ब्लाग यही प्रयत्न कर रहे हैं और रोज एकाधिक पोस्टें देखने को मिल जाती है जिस में ईश्वर या अल्लाह को साबित करने का प्रयत्न किया जाता है। इस सारी सामग्री का अर्थ एक ही निकलता है कि दुनिया में कोई भी चीज किसी के बनाए नहीं बन सकती। फिर यह जगत बिना किसी के बनाए कैसे बन सकता है, उसे बनाने वाली अवश्य ही कोई शक्ति है। वही शक्ति ईश्वर है। इसलिए सब को मान लेना चाहिए कि ईश्वर है।

मैं अक्सर एक प्रश्न से जूझता हूँ कि जब बिना बनाए कोई चीज हो ही नहीं सकती तो फिर ईश्वर को भी किसी ने बनाया होगा? तब यह उत्तर मिलता है कि ईश्वर या खुदा तो स्वयंभू है, खुद-ब-खुद है। वह अजन्मा है, इस लिए मर भी नहीं सकता। वह अनंत है। लेकिन इस तर्क ने मेरे सामने यह समस्या खड़ी कर दी कि यदि हम को अंतिम सिरे पर पहुँच कर यह मानना ही है कि कोई ईश्वर या खुदा या कोई चीज है जिस का खुद-ब-खुद अस्तित्व है तो फिर हमें उस की कल्पना करने की आवश्यकता क्यों है? हम इंद्रियों से और अब उपकरणों के माध्यम से परीक्षित और अनुभव किए जाने वाले इस अनंत जगत को जो कि उर्जा, पदार्थ, आकाश और समय व्यवस्था है उसे ही स्वयंभू और खुद-ब-खुद क्यों न मान लें? अद्वैत वेदांत भी यही कहता है कि असत् का तो कोई अस्तित्व विद्यमान नहीं और सत के अस्तित्व का कहीं अभाव नहीं। (नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत् -श्रीमद्भगवद्गीता) विशिष्ठाद्वैत भी यही कहता है कि बीज ही वृक्ष है। अर्थात् जो भी जगत का कारण था वही जगत है। संभवतः इस उक्ति में यह बात भी छुपी है कि बीज ही वृक्ष में परिवर्तित हो चुका है। इसी तरह जगत का कारण, कर्ता ही इस जगत में परिवर्तित हो चुका है। इस जगत का कण-कण उस से व्याप्त है। जगत ही अपनी समष्टि में कारण तथा कर्ता है, और  खंडित होने पर उस का अंश।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए

पिछले आलेख पर बड़े भाई ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी थी .....
"ज्ञानदत्त G.D. Pandey 1 December, 2009 4:31 PM   मन्दी? कहां है मन्दी? रेल यातायात डील करते समय मुझे मन्दी नहीं दीखती। कितना सीमेण्ट, कोयला, स्टील, उर्वरक ... सब चले जा रहा है अनवरत। और बहुत कुछ जा रहा है पूर्वान्चल/बिहार को! मुझे बताया गया कि ग्रोथ रेट सात परसेण्ट के आस-पास है। विपक्ष जोर लगा कर भी मंहगाई को सफल चुनावी मुद्दा नहीं बना पाया। सो मन्दी तो मिथक है। जिसे हम सब एक्स्प्लेनेशन के लिये पाल रहे हैं"


लेकिन उन लाखों लोगों से पूछें जो मंदी के नाम पर छंटनी के फलस्वरूप बेरोजगार कर दिए गए हैं। उन से पूछें जिन से उन के  माथे पर छंटनी की तलवार लटका कर आठ घंटों के स्थान पर चौदह और सोलह घंटे काम लिया जा रहा है या उन से कम वेतनों पर काम करने की नयी सेवा शर्तें तय करा ली गई हैं। उन विद्यार्थियों से पूछें जिन के कैंपस सेलेक्शन के बाद अभी तक नियुक्तियों का पता नहीं है। जहाँ नियुक्तियाँ हो भी रही हैं वहाँ वेतन लगभग आधे कर दिए गए हैं। एक सोफ्टवेयर इंजिनियर को छह से दस हजार प्रतिमाह की नौकरी के प्रस्ताव मिल रहे हैं। उन के लिए मंदी है। नहीं है तो फिर जनता को झाँसा दे कर लूटा जा रहा है।

ज्ञान जी ने जो उदाहरण दिए हैं वे सब रेलवे से संबद्ध हैं। भारतीय रेलवे आबादी और उस की जरूरतों के मुकाबले बहुत छोटी हो गई है। उस के पास सवारियाँ ढोने को कम गाड़ियाँ हैं। जो हैं उन्हें चलाने के लिए पर्याप्त रेलपथ नहीं हैं। गाड़ियों की सूची इतनी व्यस्त है कि एक जरा सी भी बाधा से कई दिनों तक का मामला खराब हो जाता है। इधर कोटा के आसपास जो थर्मल बिजलीघर हैं उन के बारे में पिछले दिनों खबर थी कि कोयला समय पर नहीं पहुँचा, केवल सात दिनों का स्टॉक रह गया। जो व्यवसाय समाज की आवश्यकता से बहुत न्यून हो जाएगा वहाँ मंदी क्या असर दिखाएगी? लेकिन जिन व्यवसायों में पिछले सालों में मुनाफा बरस रहा था। सारी फालतू पूँजी वहीं समेट दी गई। अतिउत्पादन से वहाँ मंदी आनी ही थी। नतीजा यह हुआ कि बहुत सी इकाइयाँ बैठ गई और उन में लगी पूँजी की कीमत नगण्य हो गई। यही तो मंदी का गणित है।


कुछ क्षेत्रों में तेजी से पूँजी का बहना, उस का संकेन्द्रण और अतिउत्पादन। बाकी सब क्षेत्रों में तो मंदी नहीं दिखाई देगी। वहाँ तो पूँजी का अभाव महंगाई को ही बढ़ाएगा। यही कारण है कि एक ओर मंदी का विशाल दानव दिखाई पड़ता है तो दूसरी ओर महंगाई की दानवी मुहँ बाए खड़ी हो जाती है। आज की अर्थव्यवस्था में जो उत्पादन की अराजकता है। वही तो इन संकटों की जन्मदाता है। एक वर्ष प्याज और टमाटर के भाव आसमान पर होते हैं तो अगले वर्ष उसी की खेती बहुसंख्यक किसान करते हैं और फिर अतिउत्पादन से दोनों सड़ने लगते हैं। लागत न मिलने पर किसान आत्महत्या पर मजबूर हो जाते हैं।
सीमेंट, कोयला, स्टील और उर्वरक ये सब जीवन के लिए आधारभूत वस्तुएं हैं। इन के उत्पादन में मुनाफा कम है और लागत के लिए विशाल पूंजी की आवश्यकता है। इतनी बड़ी पूँजी कौन लगाए? इनमें मंदी का क्या असर हो सकता है? एक बात और, मंदी के बहाने बढ़ाई गई बेरोजगारी, वेतनों में कमी और महंगाई। उपभोक्ताओं की जेब में पहुँचने वाली धनराशि को बड़ी मात्रा में कम करती है और बाजार सिकुड़ता है। यह मंदी के प्रभाव में और तेजी लाती है।


मंदी तो है। मेरा कहना तो यही था कि अर्थव्यवस्था के नियोजन से इस मंदी पर काबू पाया जा सकता है।  किन हम आग लगने पर कुआँ खोदने दौड़ते हैं। पहले से पानी की व्यवस्था नहीं रखते या फिर आग न लगने देने के साधन नहीं करते। क्या हमें वे नहीं करने चाहिए? बड़े भाई ने विपक्षी दलों द्वारा महंगाई के मुद्दे का लाभ न उठा सकने पर निराशा जाहिर की है, पर विपक्षी दल है कहाँ? सब पक्ष में ही खड़े हैं कोई खुल कर खड़ा है तो कोई पर्दे के पीछे। विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए।