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मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

बेहतर लेखन के सूत्रों की खोज ... साहित्य क्या है?

ह प्रश्न कि "बेहतर कैसे लिखा जाए?"    हमारे सामने है, इस का उत्तर भी हमें ही तलाशना होगा। इस का कोई बना बनाया सूत्र तो है नहीं कि उसे किसी पाठ की तरह रट लिया जाए। लेकिन हम चाहें तो कुछ न कुछ तलाश कर सकते हैं। चलिए उस का आरंभ करते हैं।  
मैं खुद मानता हूँ कि मेरा लेखन बेहतर नहीं है, उसे अत्यंत साधारण श्रेणी में ही रखा जा सकता है। मुझे कभी-कभी वाह-वाही भी मिलती है, लेकिन उस से मुझे कतई मुगालता नहीं होता कि मैं बेहतर लिख रहा हूँ। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि मैं बेहतर संवाद स्थापित कर लेता हूँ। बात साहित्य से आरंभ हुई थी कि ब्लागीरी में साहित्य नहीं है, और है तो वह यहाँ छापे से हो कर आया है। तो हम भी अपनी बेहतर लिखने की खोज को साहित्य से ही क्यों न आरंभ करें? अब ये साहित्य क्या है? साहित्य किसे कहा जा सकता है? इस को समझने का प्रयत्न करें। सब से पहले हम जानें कि यह शब्द कहाँ से आया? 
प्टे ने अपने संस्कृत हिन्दी कोष में 'साहित्यम्' के अर्थ दिए हैं - 1. साहचर्य, भाईचारा, मेल-मिलाप, सहयोगिता 2. साहित्यिक या आलंकारिक रचना, 3. रीति शास्त्र, काव्यकला 4. किसी वस्तु के उत्पादन या सम्पन्नता के लिए सामग्री का संग्रह।  
चार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं -'साहित्य' शब्द का व्यवहार नया नहीं है। बहुत पुराने जमाने से लोग इस का व्यवहार करते आ रहे हैं, समय की गति के साथ इस का अर्थ थोड़ा-थोड़ा बदलता जरूर आया है। यह शब्द संस्कृत के 'सहित' शब्द से बना, जिस का अर्थ है 'साथ-साथ'। 'साहित्य' शब्द का अर्थ इसलिए 'साथ-साथ रहने का भाव' हुआ।
गे वे लिखते हैं -दर्शन की पोथियों में एक क्रिया के साथ योग रहने को ही 'साहित्य' कहा गया है। अलंकार-शास्त्र में इसी अर्थ से मिलते-जुलते अर्थ में इस का प्रयोग हुआ है। वहाँ शब्द और अर्थ के साथ-साथ रहने के भाव (साहित्य) को 'काव्य' बताया गया है। परन्तु ऐसा तो कोई वाक्य हो नहीं सकता जिस में शब्द और अर्थ साथ-साथ न रहते हों। इसलिए 'साहित्य' शब्द को विशिष्ठ अर्थ में प्रयोग करने के लिए इतना और जोड़ दिया गया है कि "रमणीयता उत्पन्न करने में जब शब्द और अर्थ एक दूसरे से स्पर्धा करते हुए साथ-साथ आगे बढ़ते रहें, तो ऐसे 'परस्पर स्पर्धा' शब्द और अर्थ का जो साथ-साथ रहना होगा, वही साहित्य 'काव्य' कहा जा सकता है।"  ऐसा जान पड़ता है कि शुरु-शुरू में यह शब्द काव्य की परिभाषा बनाने के लिए ही व्यवहृत हुआ था और बाद में चल कर सभी रचनात्मक पुस्तकों के अर्थ में व्यवहृत होने लगा। पुराने जमाने में ही इसे 'सुकुमार वस्तु' समझा जाता है और जिस की तुलना में न्याय, व्याकरणादि शास्त्रों को 'कठिन' भाग माना जाता रहा है। कान्यकुब्ज राजा के दरबार में प्रसिद्ध कवि श्री हर्ष को विरोधी पंडित ने यही कह कर नीचा दिखलाना चाहा था कि वे 'सुकुमार वस्तु' के ज्ञाता हैं। 'सुकुमार वस्तु' से मतलब साहित्य से था। उत्तर में श्री हर्ष ने गर्वपूर्वक कहा था कि मैं 'सुकुमार' और 'कठोर' दोनों का ज्ञाता हूँ।
ब हम कुछ-कुछ समझ सकते हैं कि साहित्य क्या है? वह सब से पहले तो 'साथ साथ रहने का भाव' है, उस में शब्द और अर्थ साथ-साथ रहते हैं, यह 'सुकुमार' अर्थात् मनुष्य के मनोभावों को कोमलता से प्रभावित करने वाला होता है और अंत में हमें यह जान लेना चाहिए कि वह रचनात्मक होता है।
साहित्य पर बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। हम इस पर आगे भी और बात करेंगे, जो बेहतर लिखने के सूत्र खोजने में हमारी सहायक सिद्ध हो सके। आज के लिए इतना ही ...

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

इंतजार खत्म !! किताब हाज़िर है ........................ "शब्दों का सफ़र"

जिस किताब का अर्से से मुझे इंतजार था,  वह कल भोपाल पुस्तक मेले में पहुँच रही है।  
ज जब भाई अजित वडनेरकर ने बताया कि " शब्दों का सफर" पुस्तक श्रृंखला की पहली पुस्तक भोपाल में आयोजित राजकमल प्रकाशन के पुस्तक मेले में पहुँच रही है तो अपनी प्रसन्नता का वारापार नहीं रहा। अजित के इसी नाम के हिन्दी ब्लाग का कब से उपयोग करता आ रहा हूँ। लेकिन मन नहीं भरता। इच्छा होती है कि यह सब किताब के रूप में अपने कार्यालय की सब से नजदीक की शेल्फ पर हो। अजित भाई के श्रम ने यह दिन दिखाया। 'शब्दों का सफर' अब पुस्तक रुप में आ चुका है और बिना जंघशीर्ष साथ लिए मैं इसे अपने सफरी थैले में साथ रख कर ले जा सकता हूँ और यात्रा के समय का सदुपयोग कर सकता हूँ। कल पहली बार यह किताब भोपाल पुस्तक मेले में पहुंचने वाले लोगों को देखने को मिलेगी। जो कल नहीं पहुँच सकते हों वे इसे दो दिन और देख सकते हैं जब तक हिन्दी भवन, पॉलिटेक्नीक चौराहा, भोपाल में यह पुस्तक मेला उपलब्ध है। 

ल ही शाम 6.30 बजे पुस्तक मेला स्थल पर लेखक से मिलिए कार्यक्रम में अजित जी उपलब्ध होंगे। भोपाल और नजदीक के लोग तो इस अवसर पर वहाँ उपस्थित होंगे ही। क्या नज़ारा हो सकता है यह सोच कर ही मैं रोमांचित हो उठा हूँ। यह दुर्भाग्य ही है कि मैं भोपाल में नहीं हूँ। कल ही कोटा में मोहन न्यूज एजेंसी को बोलता हूँ कि राजकमल से इस पुस्तक की प्रतियाँ बिक्री के लिए मंगा लें और पहली प्रति मुझे विक्रय करें।  आप भी अपने नजदीक के पुस्तक विक्रेता को ऐसा ही कह सकते हैं। वैसे राजकमल की वेबसाइट पर आर्डर देकर भी इसे सीधे मंगाया जा सकता है।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भाया ! बैल बगाग्यो

पंडित श्याम शंकर जी व्यास अपने जमाने के जाने माने अध्यापक थे। उन के इकलौते पुत्र थे कमल किशोर व्यास।  उन्हें खूब मार पीट कर पढ़ाया गया।  पढ़े तो कमल जी व्यास खूब, विद्वान भी हो गए। पर परीक्षा में सफल होना नहीं लिखा था। हुए भी तो कभी डिविजन नहीं आया, किस्मत में तृतीय श्रेणी लिखी थी।  जैसे-तैसे संस्कृत में बी.ए, हुए। कुछ न हो तो मास्टर हो जाएँ यही सोच उन्हें बी.एस.टी.सी. करा दी गई। वे पंचायत समिति में तृतीय श्रेणी शिक्षक हो गए।  पंचायत समिति के अधीन सब प्राइमरी के स्कूल थे। वहाँ विद्वता की कोई कद्र न थी। गाँव में पोस्टिंग होती। हर दो साल बाद तबादला हो जाता। व्यास जी गाँव-गाँव घूम-घूम कर थक गए। 

व्यास जी के बीस बीघा जमीन थी बिलकुल कौरवान। पानी का नाम न था। खेती बरसात पर आधारित थी। व्यास जी उसे गाँव के किसान को मुनाफे पर दे देते और साल के शुरु में ही मुनाफे की रकम ले शहर आ जाते। बाँध बना और नहर निकली तो जमीन नहर की हो गई।  मुनाफा बढ़ गया।  गाँव-गाँव घूम कर थके कमल किशोर जी व्यास ने सोचा, इस गाँव-गाँव की मास्टरी से तो अच्छा है अपने गाँव स्थाई रूप से टिक कर खेती की जाए।

खेती का ताम-झाम बसाया गया। बढ़िया नागौरी बैल खरीदे गए। खेत हाँकने का वक्त आ गया। कमल किशोर व्यास जी खुद ही खेत हाँकने चल दिए। दो दिन हँकाई की, तीसरे दिन हँकाई कर रहे थे कि एक बैल नीचे गिरा और तड़पने लगा। अब व्यास जी परेशान।  अच्छे खासे बैल को न जाने क्या हुआ? बड़ी मुश्किल से महंगा बैल खरीदा था, इसे कुछ हो गया तो खेती का क्या होगा? दूर दूर तक जानवरों का अस्पताल नहीं ,बैल को कस्बे तक कैसे ले जाएँ? और डाक्टर को कहाँ ढूंढें और कैसे लाएँ?  बैल को वहीं तड़पता छोड़ पास के खेत में भागे, जहाँ दूसरा किसान खेत हाँक रहा था। उसे हाल सुनाया तो वह अपने खेत की हँकाई छोड़ इन के साथ भागा आया। किसान ने बैल को देखा और उस की बीमारी का निदान कर दिया। भाया यो तो बैल 'बगाग्यो' ।   व्यास जी की डिक्शनरी में तो ये शब्द था ही नहीं। वे सोच में पड़ गए ये कौन सी बीमारी आ गई? बैल जाने बचेगा, जाने मर जाएगा? 

किसान ने उन से कहा मास्साब शीशी भर मीठा तेल ल्याओ।  मास्टर जी भागे और अलसी के तेल की शीशी ले कर आए।  किसान ने शीशी का ढक्कन खोला और उसे बैल की गुदा में लगा दिया, ऐसे  कि जिस से उस का तेल गुदा में प्रवेश कर जाए। कुछ देर बाद शीशी को हटा लिया। व्यास जी महाराज का सारा ध्यान बैल की गुदा की तरफ था। तेल गुदा से वापस बाहर आने लगा मिनटों में बैल की गुदा में से तेल के साथ एक उड़ने वाला कीड़ा (जिसे हाड़ौती भाषा में बग्गी कहते हैं) निकला और उड़ गया। व्यास जी को तुरंत समझ आ गया कि 'बगाग्यो' शब्द का अर्थ क्या है। उन का संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन बेकार गया। 

पंडित कमल किशोर व्यास हाड़ौती का शब्दकोश तलाशने बैठे तो पता लगा कि ऐसा कोई शब्दकोश बना और छपा ही नहीं है । बस बैल की गुदा में बग्गी घुसी थी, इस कारण से बीमारी का नाम पड़ा 'बगाग्यो'।  यह तो वही हुआ "तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये"।