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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

मौजूदा जमाने के उसूल

ज के स्थानीय दैनिकों में समाचार है कि राज्य सरकार ने सफाई ठेकों पर महापौर की आपत्ति खारिज कर दी है और मुख्य नगरपालिक अधिकारी को  राजस्थान नगर पालिका अधिनियम की धारा 49 (2) पढ़ा कर निर्देश दिया है कि 75 लाख रुपए तक के ठेके देने पर वे स्वयं निर्णय कर सकते हैं। इस तरह इस समाचार ने जहाँ महौपौर के रुतबे को कम करने का काम किया है वहीं राज्य सरकार और महापौर के बीच एक अन्तर्विरोध उत्पन्न करने का काम भी किया है। यह दीगर बात है कि कानून जो कुछ कहता है, उसे इन समाचार पत्रों में समाचार लिखने वालों ने समझने का प्रयत्न ही नहीं किया। ऐसा लगा जैसे किसी ने एक प्रेस विज्ञप्ति बनाई और समाचार पत्रों ने उसे जैसे का तैसा प्रकाशित कर दिया। ऐसा अक्सर होता है, अक्सर नहीं हमेशा होता है। आखिर मुख्य नगरपालिक अधिकारी कम शक्तिशाली पदाधिकारी नहीं होता। नगर निगम की ओर से सब अखबारों को वही तो विज्ञापन प्रेषित करता है। इस से यह स्पष्ट है कि समाचार पत्र जनता के प्रति दायित्वपूर्ण होने का ढिंढोरा तो खूब पीटते हैं लेकिन वास्तव में वे भी अपने मालिकों का ही हित साधते हैं, वही उन की प्रमुख चिंता है। जो भी मालिकों के हित की अनदेखी कर पत्रकार होने का दायित्व निभाने की हिमाकत करता है वह जल्दी ही उस अखबार के दफ्तर के बाहर दिखाई देता है। 

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सला ये था कि वर्ष भर के लिए सफाई कर्मचारी उपलब्ध कराने के लिए ठेके होने थे। 121 ठेकेदार फर्मों ने निविदाएँ प्रस्तुत कीं, सभी की दर 135 रुपया प्रतिदिन प्रति श्रमिक है। समस्या यह खड़ी हुई कि जब सब निविदाओं की दरें एक जैसी हों तो ठेकेदारों का चुनाव कैसे किया जाए। तब नगर निगम की अफसरशाही ने तय हुआ कि लाटरी निकाल ली जाए। जिस की लाटरी निकल जाए उसे ही ठेका दे दिया जाए। लेकिन महापौर ने उस में आपत्ति यह दर्ज कर लाटरी निकालने को रोक दिया गया कि पहले सब निविदादाताओं द्वारा उन की निविदाओं में प्रदर्शित संसाधनों का भौतिक सत्यापन किया जाए। लेकिन भौतिक सत्यापन कराने को कोई ठेकेदार तैयार नहीं हुआ। शायद सभी ठेकेदारों ने संसाधन न होने पर भी दर्ज कर दिए थे। अब कहा जा रहा है कि शायद शनिवार को लाटरी निकाल कर ठेकेदारों को कृतार्थ कर दिया जाएगा। 
ब हम इस कृतार्थता पर  कुछ विचार करें उस से पहले  यह देखें कि आखिर 135 रुपए के आँकड़े में क्या है कि सभी ठेकेदारों ने इस से कम या अधिक राशि की निविदा प्रस्तुत नहीं की। राजस्थान राज्य सरकार ने अकुशल दैनिक मजदूर के लिए न्यूनतम वेतन 135 रुपए प्रतिदिन निर्धारित कर रखा है, इस से कम वेतन मजदूर को नहीं दिया जा सकता। इस तरह रुपए 135 से कम की निविदा प्रस्तुत ही नहीं की जा सकती थी। इस से अधिक की निविदा प्रस्तुत करने में निविदा के अमान्य होने का खतरा मौजूद था। अब आप समझ सकते हैं कि नगर निगम से प्रति श्रमिक प्रतिदिन जो 135 रुपया ठेकेदार को मिलेगा वह पूरा का पूरा श्रमिक को भुगतान कर दिया जाएगा। इस के बाद जो सेवा कर ठेकेदार को देना पड़ेगा, इन मजदूरों को लगाने पर होने वाला प्रशासनिक व्यय और अन्य खर्चे जो कि लगभग 40 रुपए प्रति श्रमिक और होंगे उन्हें ठेकेदार स्वयं भुगतेगा। इस के बाद नगर निगम के अफसरों और राजनेताओं को प्रसन्न रखने के खर्चे अलग हैं। सच में कोटा नगर में ऐसे ठेकेदार मौजूद हैं जो लगभग 50-60 रुपया प्रति श्रमिक अपनी जेब से खर्च कर के नगर की सफाई के लिए बलिदान देने को तैयार हैं। 


र सच इस के विपरीत है। होगा यह कि जितने श्रमिक कागज पर उपलब्ध कराए जाएंगे उन से 50-60 प्रतिशत ही वास्तव में उपलब्ध कराए जाएंगे। जो श्रमिक उपलब्ध कराए जाएंगे उन्हें मात्र 65-70 रुपए प्रतिदिन मजदूरी भुगतान की जाएगी। इस तरह जो राशि बचेगी वह सेवा कर से ले कर अन्य सभी प्रसन्नता करों में लगाई जाएगी। उसी में से ठेकेदार अपना मुनाफा निकालेगा। उपलब्ध कराए गए श्रमिकों को आधी मजदूरी मिलेगी तो वे भी केवल आधे समय, अर्थात केवल चार घंटे प्रतिदिन काम करेंगे। कागजों में नगर साफ होता रहेगा। एक दम चमचमाएगा। लेकिन यदि आप नगर में निकलेंगे तो स्थान स्थान पर गंदगी के ढेर दिखाई देंगे। जिस में गाएँ, कुत्ते और सुअर मुहँ मारते मिलेंगे। नगर बीमारियों के लिए पर्यटन स्थल बना रहेगा। इस से डाक्टरों और अस्पतालों की चाँदी होती रहेगी। जनता पहले की तरह इन सब को भुगतती रहेगी। विपक्षी सरकारी दल को कोसने का मौका पाएंगे। सरकारी दल कहेगा उन की सफाई व्यवस्था विपक्षी दल के जमाने से अच्छी थी। जनता दोनों को सुनेगी। पाँच बरस तक सुनती रहेगी। फिर चुनाव आएँगे तब वह यह सब भूल जाएगी और ये देखेगी कि नगर निगम के पार्षद के लिए कौन सा उम्मीदवार उन की जात का है, कौन उन का नजदीकी है। देखे भी क्यों न यदि चोरों में से एक को ही चुनना हो तो हर कोई अपना नजदीकी ही चुनेगा। कानून की चिंदियाँ उड़ती रहेंगी। पर क्या यह हमेशा चलता रह सकेगा? कभी जनता चोरों को पकड़ कर सजा नहीं देगी? एक पार्षद ने इन सवालों के जवाब में कहा -जब देगी तब देखेंगे, तब तक तो मौजूदा जमाने के उसूल पर ही चलना होगा।

रविवार, 12 सितंबर 2010

अखबारों में खबरें अधूरी क्यों होती हैं?

दैनिक भास्कर के कोटा संस्करण ने स्थानीय नगर निगम के बारे में खबर प्रकाशित की है, " तंगी में भी बदहाली" । यह किसी घटना से उपजा समाचार नहीं, अपितु नगर निगम कोटा की कार्य प्रणाली से संबद्ध कुछ सूचनाओँ से उत्पन्न की गई एक रिपोर्ट है। जिस का निष्कर्ष यह है कि नगर निगम के पास अपने कामों के लिए पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं। उसे बहुत सारे कर्मचारियों को ठेकेदारों के माध्यम से नियोजित करना पड़ता है। ठेकेदार दो तरह के हैं एक तो वे जिन्हें नगर निगम द्वारा निविदा के माध्यम से ठेका दिया गया है। दूसरी बहुद्देशीय सहकारी समितियाँ हैं जिन्हें बिना निविदा आमंत्रित किए काम दिया जा सकता है। समाचार कहता है कि निविदा ठेकेदारों को प्रत्येक कर्मचारी के लिए नगर निगम को 100 से 115 रुपए प्रतिदिन मजदूरी देनी होती है, जब कि बहुद्देशीय सहकारी समितियों के माध्यम से नियोजित 132 कर्मचारियों के निए नगर निगम को 172 से 178 रुपए प्रति कर्मचारी प्रतिदिन भुगतान करना पड़ता है। इस से नगर निगम को 29 लाख रुपए वार्षिक चूना लग रहा है। यह हालात तब हैं जब नगर निगम आर्थिक तंगी से गुजर रहा है। समाचार एक तरह से यह कह रहा है कि नगर निगम बहुद्देशीय सहकारी समितियों के माध्यम से कर्मचारी जुटा कर गलती कर रहा है और उसे यह काम भी निविदा के माध्यम से ठेकेदारों को देना चाहिए। इस समाचार में गलती से एक पंक्ति यह भी अंकित हो गई है कि " निगम में कार्यरत सफाई ठेका कर्मचारियों को न्यूनतम मजदूरी 100 रुपए रोजाना हासिल करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।"
स समाचार का शीर्षक ही भ्रामक है, जिस मे तंगी और दरियादिली शब्दों का उल्लेख किया गया है, समाचार की जमीनी हकीकत बिलकुल भिन्न है। आज से पचास वर्ष पहले नगरपालिका में एक भी ठेका कर्मचारी या दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं हुआ करता था। केवल स्थाई या मासिक रुप से वेतन प्राप्त करने वाले कर्मचारी होते थे। सफाई व्यवस्था आज के मुकाबले  बहुत अच्छी हुआ करती थी। गलियोँ और बाजारों की नालियों को साफ करने के लिए भिश्ती और झाड़ू वाला आया करता था। अन्य कामों  में भी इसी तरह के कर्मचारी नियुक्त थे। जनता पर टैक्सों की इतनी भरमार भी नहीं थी। नगर निगम के पास धन की कमी भी होती थी तो उस का प्रदर्शन नहीं किया जाता था अपितु पार्षद उस का मार्ग तलाश करते थे। लेकिन अब स्थिति बिलकुल बदल गई है। सफाई दिखाने भर की नजर आती है। नगरपालिकाएँ स्थाई कर्मचारियों की भर्ती नहीं करती हैं। वे इन्हें ठेकेदारों से प्राप्त करती है। ठेकेदार का काम सिर्फ कर्मचारी उपलब्ध कराना और उन्हें मजदूरी देना होता है। उन से काम लेना और उन पर नियंत्रण रखना नगरपालिकाओं का काम है। व्यवस्था में यह परिवर्तन क्यों आया यह एक बड़ा प्रश्न है। 
वास्तविकता यह है कि तब पार्षद और नगरपालिकाएँ नगर के प्रति अपना दायित्व समझती थीं। आज वह स्थिति नहीं है। आज जिस तरह चुनाव होते हैं उन में चुने जाने के लिए उम्मीदवारों को अत्य़धिक धन खर्च करना होता है। जिस पद के लिए वे चुने जाते हैं उसी के प्रभाव से वे उस धन से कई गुना धन की वसूली करते हैं।  वस्तुतः चुनाव में धन खर्च करना एक तरह का निवेश हो गया है जो सर्वाधिक लाभप्रद है। जो उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं। उन में से एक ही जीतता है बाकी हार जाते हैं। हारने वाले उम्मीदवारों का धन व्यर्थ चला जाता है। ठीक जुए की मेज की तरह जहाँ बैठने वाले जुआरियों में से एक सब का धन समेट कर चल देता है। दूसरे दिन भिर जुए की मेज लग जाती है। वस्तुतः चुनाव लड़ने का धन्धा दुनिया का सब से बड़ा जुआ बन गया है और यह वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था की देन है।
जदूरी के बारे में हम यह पढ़ते हैं कि यह अनेक प्रकार की होती है। एक न्यूनतम मजदूरी होती है जिसे सरकार यह मान कर चलती है कि यह व्यक्ति के जीवन निर्वाह के लिए केवल न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। अनेक बीच के स्तरों को पार करते हुए एक उचित मजदूरी होती है जो कि कर्मचारी को जीवन निर्वाह के सभी साधन उपलब्ध कराती है और उन के भविष्य का ख्याल भी रखती है। एक सरकारी या सार्वजनिक संस्था को अपने सभी कर्मचारियों को उचित मजदूरी देनी चाहिए। लेकिन हुआ यह है कि इन संस्थाओं के लिए काम करने वाले मजदूरों को उचित वेतन तो क्या न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। हो यह रहा है कि कर्मचारी उपलब्ध कराने के लिए ठेके उठा दिए जाते हैं जिन का मूल्य न्यूनतम मजदूरी के बराबर या उस से कुछ अधिक होता है। उन दरों को देखें तो पता लगेगा कि ठेकेदार अपनी जेब से कुछ पैसा लगा कर मजदूर उपलब्ध करवा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जितने मजदूर कागजों पर उपलब्ध कराए जाते हैं उन से आधे ही वास्तव में काम कर रहे होते हैं। वास्तव में उपलब्ध न कराए जाने वाले मजदूरों के लिए जो पैसा नगरपालिकाओं से उठाया जाता है उस में ठेकेदारों, पार्षदों, नगरपालिकाओं के अधिकारियों और पदाधिकारियों का हिस्सा शामिल होता है। 
सी व्यवस्था से देश चल रहा है। नगरपालिकाएँ तो उन का नमूना मात्र हैं, पंचायतें, राज्य और केंद्र सरकारें इसी तरह चल रही हैं। सारा देश और जनता इस बात को जानती है। लेकिन मौन रहती है। पर कब तक वह मौन रह सकेगी? शायद पाप का घड़ा फूटने तक या फिर पानी सर से गुजर जाने तक? मेरा मकसद यहाँ जनतंत्र के चौथे खंबे के काम की ओर ध्यान दिलाना था। यह समाचार लिखने वाले पत्रकार का क्या यह कर्तव्य नहीं था क्या कि वह ठेकेदारों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले कर्मचारियों की वास्तविक संख्या का भी पता लगाता और पार्षदों, ठेकेदारों, पदाधिकारियों और अफसरों के अंतर्सबंधों की खोज  करता औऱ उस के परिणामों को अपनी कलम के माध्यम से सब के सामने रखता। वह रखना भी चाहता तो शायद ऐसा नहीं कर सकता था। क्यों कि अखबार विज्ञापनों से चलते हैं। विज्ञापन इन्हीं ठेकेदारों, अफसरों, पदाधिकारियों और पार्षदों के माध्यम  से प्राप्त होते हैं और अखबार का मालिक इसी कारण से अपने पत्रकारों को इस से आगे बढ़ने की इजाजत नहीं दे सकता। एक प्रश्न यह हो सकता है कि ये खबरें छापी ही क्यों जाती हैं? अब ठेकेदारों को ज्यादा काम चाहिए वे चाहते हैं कि सहकारी समितियों के माध्यम से काम कर रहे लोगों के बजाय उन्हें काम मिले। तो इस तरह की खबरें बनती हैं, बनवाई और बनाई जाती हैं। 

सोमवार, 23 अगस्त 2010

सांसदो के साथ-साथ एम्मेले और कारपोरेटर लोगों की तनख़वाह भी बढ़ानी चाहिए

पेशे से मैं एक वकील हूँ, अपने मुवक्किलों की ओर से अदालत में पैरवी करता हूँ, उन्हें सलाह देता हूँ और इस के अलावा उन की ओर से कुछ अन्य कानूनी काम भी करता हूँ। मेरी आमदनी का जरीया मेरी वकालत ही है। मुकदमे लड़ने के अलावा जो काम हैं उन में से कम से कम आधे कामों के लिए मुझे फीस मिल जाती है जो चालू दर के  मुताबिक होती है। मुकदमे लड़ने के लिए मुझे जो फीस मिलती है वह मुकदमा शुरू होने के वक़्त तय होती है और मुकदमे के दौरान किस्तों में मिलती रहती है। लगभग आधी फीस मुकदमे के आख़िर में जा कर मिलती है। मुकदमे चार-पाँच साल की अवधि से ले कर बीस-तीस वर्ष की अवधि तक चलते रहते हैं। मुकदमा जितना लंबा चलता है, उस मुकदमे में मिलने वाली फीस की वास्तविक कीमत में मोर्चा लगता रहता है। मुकदमे की फीस में मेरे दफ्तर के खर्चे भी शामिल होते हैं जो तय की गई फीस के लगभग आधे के बराबर होते हैं। मैं कभी किसी लंबे चलने वाले मुकदमे के निपट जाने के बाद हिसाब करता हूँ तो पता लगता है फीस में मोर्चा ही रह गया लोहा तो खत्तम। दफ्तर का खर्चा जेब से लगा। लेकिन फिर भी सब कुछ चलता रहता है, रवायत की तरहा। जब किसी मुलाज़िम या  तनख़वाह लेने वाली जमातों की तन्ख़्वाह बढ़ाई जाती है तो बड़ी कोफ़्त होती है। मियाँ मीर तक़ी 'मीर' का ये शैर याद आने लगता है....
कोफ़्त से जान लब पर आई है
हम ने क्या चोट दिल पे खाई है
जिन सांसदों को हम ने चुन के संसद में भेजा, जब उन की तनख़्वाह बढ़ने की चर्चा होने लगी तो हमारी भी जान जलने लगी कि 'आखिर इन की तनख़्वाह क्यों बढ़ाई जा रही है?' ये जान तब तक जलती रही जब तक तनख़्वाह बढ़ नहीं गई। जब तनख्वाह बढ़ने की खबर पढ़ ली तो जान पर ठंडक पड़ी। जब पढ़ लिया कि बेचारों की तनख्वाह पचास हजार भी नहीं थी वह भी अब जा कर हुई है, तो उन पर दया आने लगी। उधर दिल्ली में रहने का खर्चा ही कितना है, कैसे अब तक अपना खर्चा चला रहे होंगे। वो तो ग़नीमत है के जो भी मिलने जाता है कुछ चावल गांठ में जरूर बांध ले जाता है वर्ना दि्ल्ली में रहने के लाले पड़ जाते। सुना है सरकार ने मकान मुहैया करा रखे हैं वर्ना तो किराए का मकान लेने में भी परेशानी आ जाती। एक तो कोई देता नहीं। (स्साला एमपी है बाद में खाली न करे तो, और किराया भी न दे तो क्या कल्लेंगे) ये भी सुना है के उन को रेल, मोटर हवाई जहाज का किराया भी सरकार देती है, वरना होता ये के एक बार दिल्ली चले जाते तो वापस घर कैसे लौटते? या घर आ जाते तो संसद में कैसे पहुँचते? गैरहाजरी लग जाती। शायद तनख्वाह भी कट जाती (मुझे नहीं मालूम कि गैर हाजरी लगने पर उन की तनख़्वाह कटती है या नहीं?)  मुलाज़िम लोगों का जब तनख़्वाह में ग़ुजारा नहीं होता, तो वे बख़्शीश पे ग़ुजारा करते हैं। ऐसा ही कोई जुग़ा़ड़ ये एमपी लोग भी जरूर किया करते होंगे, सब नहीं तो ज़्यादातर ज़रूर किया करते होंगे। 
ब आज कल जितनी महंगाई हो गई है उस में तो पचास हजार भी कहाँ लगेंगे। वे मुलायम और लालू यूँ ही थोड़े ही संसद में उठ-उठ कर पड़ रहे थे। आख़िर कोई तो वज़ह रही ही होगी। सुना है लालू जी ने तो फिर भी घास-वास खाने की आद़त डाल रक्खी है, बेचारे मुलायम क्या करेंगे? उन का ये उठ-उठ पड़ना वाक़ई वाज़िब था। अब खबर आ रही है कि वेतन बढ़ा कर अस्सी हज़ार से कम से कम एक रुपया तो अधिक कर ही दिया जाएगा। वाकई सरकार बड़ी ग़रीब नवाज है। अब लालू-मुलायम जैसों की सोच रही है तो कभी न कभी हमारे लिए सोचने का नंबर आ ही जाएगा, इस अहसास से ही गुदगुदी होने लगती है। तनख़्वाह इतनी कर दी जाए तो फिर सांसद लोगों की थोड़ी तो परेशानी कम हो ही जाएगी और वे शायद अपने वोटरों के बीच ज़्यादा आने लगेंगे। फिर अदालत में भी कुछ चक्कर ज़्यादा लगने लगेंगे। फिर हमें राशन कार्ड दुरुस्त करवाने को शायद कारपोरेटर  को तलाशना न पड़े सांसद जी से ही काम चला लिया करेंगे।  
मुझ से पूछो तो इन की तनख़्वाह कम से कम एक लाख जरूर कर दी जानी चाहिए। इस से बड़े फ़ायदे होंगे। कम तनख़्वाह वालों को अपनी-अपनी तनख़्वाह बढ़ाने में सुभीता हो जाएगा। वे सांसद जी से कह सकेंगे और वे टाल नहीं सकेंगे। अभी तो वे ये कह देते हैं कि हमें ही कितनी तनख़्वाह मिलती है? मैं तो कहता हूँ के एम्मेले लोगों और कारपोरेटरों की तनख़वाह भी बढ़ा देनी चाहिए। मुंसीपेल्टी के सड़क बुहारने वाले, और नाली में घुस कर कचरा निकालने वाले भी अपनी बोलने की आज़ादी का इस्तेमाल कर पाएँगे। अभी तो ठेकेदार उन को सरकारी न्यूनतम मजदूरी का आधा देता है। कहता है बाकी आधी में से मुझे कारपोरेटरों और मुंसीपेल्टी के अफ़सरों का घर जो चलाना पड़ता है। 

बुधवार, 5 मई 2010

मात्रात्मक परिवर्तन हो रहे हैं तो गुणात्मक भी होंगे

बेटी नौकरी करने के साथ अपना सारा काम खुद करती है। आवास की सफाई, खाना बनाना, कपड़े धोना, उन पर इस्त्री करना आदि आदि जो भी घर के काम हैं। उसे सफाई के लिए एक हेंडी वैक्यूम क्लीनर चाहिए था। मुझे पता नहीं था कहाँ मिलेगा। हम दोनों कल शाम बाजार निकले। कुछ जगह पूछताछ की। कार पहली बार उस गली से निकली थी। जिस में म्युजिक कैसेट बेचने वाले सरदार चरण सिंह की दुकान थी। मैं भी बहुत दिनों में उस तरफ आया था। मेरी इच्छा हुई कि मैं चरण सिंह से बात करूँ। वह दु्कान पर ही बैठा था, बिलकुल अकेला। मैं ने कार पार्क की औऱ उस की दुकान की तरफ बढ़ चला। 
कोई अठारह साल पहले मैं अदालत से घऱ लौटते समय अक्सर उस की दुकान पर चला जाया करता था। कुछ देर गप्पें होती थीं। नए कैसेट देखे जाते थे और कुछ खरीद भी लाता था। धीरे धीरे एक दोस्ती जैसा संबंध बन चला था। फिर कुछ ऐसा हुआ कि मैं व्यस्त हो गया। कैसेटों से अलमारी भऱ गई। और सब से बड़ी बात कि कंप्यूटर घऱ में आ गया। संगीत की जरूरत वह पूरी करने लगा। मेरा उस दुकान पर आना जाना कम होते होते बंद हो गया। लेकिन एक दूसरे के बारे में जानने की इच्छा बनी रही। चरण सिंह ने देखते ही पहचान लिया। बोलने लगा बहुत दिनों बाद दिखाई दिए? उस की दुकान बहुत बड़ी थी। उस के खुद के मकान के नीचे बनी हुई। उस ने आधा ग्राउंड फ्लोर घेरा हुआ था। अब दुकान में कैसेट कम और सीडी-डीवीडी अधिक नजर आ रही थीं। वह अब भी शायद शहर का सब से बड़ा म्यूजिक स्टोर है। एक जमाना था जब  पूरा शहर ही नहीं अपितु तीन जिलों के दुकानदार उस से बेचने के लिए माल खरीदने आते थे।  लेकिन कल वह उदास लगा। दिन के जिस वक्त मैं वहाँ पहुँचा था उस समय तो वहाँ बहुत भीड़ होनी चाहिए थी। लेकिन एक भी ग्राहक वहाँ नहीं था। मुझे यह सब बहुत अजीब लगा।
मैं ने चरण सिंह से पूछा -काम-धाम कैसा चल रहा है? कहने लगा -बस चल रहा है। अब कैसेट का बाजार नहीं रहा। सीडी-डीवीडी का प्रचलन भी कम हो चला है। पेन ड्राइव चल रहे हैं। कारों में भी वही लगे हैं। बस घर और धंधे के खर्चे निकाल लेते हैं। वक्त और बदलती तकनीक ने उस के धंधे के प्राण निचोड़ लिए थे। वरना एक जमाना था जब इसी कैसेट के धंधे ने गुलशन कुमार को जूस वाले से करोड़पति बना दिया था। मैं ने उस के बच्चों के बारे में पूछा तो बताया कि एक लड़के ने इस बार आईआईटी के लिए प्रवेश परीक्षा दी है, दूसरा बीकॉम कर रहा है और सीए बनना चाहता है। फिर कहने लगा - वकील साहब अब धंधों में कुछ नहीं रखा। इस से अच्छी तो नौकरी है। कम से कम यह तो निश्चिंतता रहती है कि महिने आखिर में तनख्वाह मिल जाती है। बस जब तक अपन हैं तब तक ये धंधा है। बच्चे ये सब नहीं करने वाले। वैसे भी अब नंबर एक के धंधे में बरकत नहीं रही। करो तो उसी धंधे में नंबर दो वाले उसे पीट देते हैं। हम उन से कंपीटीशन नहीं कर सकते। जो भी धंधा चल रहा है वह बड़ी पूंजी का चल रहा है। आम दुकानदार तो बस अपनी और नौकरों की मजदूरी निकाल रहा है और कुछ नहीं। 
मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ कि एक समय के सफल व्यवसायी की संताने अपने लिए नौकरी करने का मार्ग तलाश रही थी। यह आज आम बात हो गई है। छोटा व्यवसायी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है। वह लगातार उजरती मजदूर में बदलता जा रहा है। उजरती मजदूरों की संख्या बढ़ रही है। श्रम जीवी बढ़ रहे हैं। जो दुकानदार है वह भी यदि टैक्स चुंगी आदि नहीं चुराता तो उतना ही कमा रहा है जितना मजदूरी कर के कमाता। छोटा उद्योगपति नष्ट हो रहा है। लेकिन बड़े उद्योगपति पनप रहे हैं। उन की पूंजी लगातार बढ़ती जा रही है। मैं महसूस करता हूँ कि जिस गति से उजरती मजदूर बढ़ रहा है उसी गति से व्यवस्था अपना ओज खोती जा रही है। 
हुत दिनों के बाद चरण सिंह की दुकान पर गया था। बिना कुछ लिए कैसे निकलता।  दिन में कार के डेशबोर्ड पर एक कैसेट छूट गई थी। दिन में धूप से बंद कार की हवा का ताप इतना बढ़ा कि वह पिघल कर दोहरी हो गई। बेटी ने अपने पसंद की दो कैसेट खरीदी, मेरी कार के लिए। हम वहाँ से चल दिए। दो एक दुकानें देखने पर हेंडी वैक्यूम क्लीनर मिल ही गया। घर आ कर भोजन किया। आधी रात को बेटी की ट्रेन थी। उसे छोड़ कर रेल्वे स्टेशन के बाहर आया तो बूंदाबांदी हो चुकी थी। कुछ देर ठंडक महसूस हुई। फिर ऊमस बढ़ गई। बस एक माह की बात है फिर बरसात के आने की तैयारी शुरू हो जाएगी। मुझे लगा कि देश दुनिया में जो एक मात्रात्मक परिवर्तन हो रहा है वह जल्दी ही व्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन के लक्षण बताने लगेगा।

मंगलवार, 4 मई 2010

मैं वकील, एक आधुनिक उजरती मजदूर, अर्थात सर्वहारा ही हूँ।

पिछले आलेख में मैं ने एक कोशिश की थी कि मैं आम मजदूर और सर्वहारा में जो तात्विक भेद है उसे सब के सामने रख सकूँ। एक बार मैं फिर दोहरा रहा हूँ कि सर्वहारा का तात्पर्य उस 'आधुनिक उजरती मजदूर से है जिस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते और जो जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर है"।
ह परिभाषा अपने आप में बहुत स्पष्ट है। सब से पहले इस में आधुनिक शब्द का प्रयोग हुआ है। मजदूर तो सामंती समाज में भी हुआ करता था। बहुधा वह बंधक होता था। एक बंधुआ मजदूर अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं होता। वह एक ही स्वामी से बंधा होता है। उस का पूरा दिन और रात अपने स्वामी के लिए होती है।  सर्वहारा के लिए जिस मजदूर का उल्लेख हुआ है वह इस मजदूर से भिन्न है। यह मजदूर तो है लेकिन अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र है। दूसरे यह मजदूर आधुनिकतम  तकनीक पर काम करता है उस के निरंतर संपर्क में है। यह उजरती मजदूर है, अर्थात अपनी श्रम शक्ति को बेचता है। वह घंटों, दिनों के हिसाब से, अथवा काम के हिसाब से अपनी श्रम शक्ति को बाजार में बेचता है।  इस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं हैं। जीवन यापन के लिए इस के पास अपनी श्रम शक्ति को बेचने के अलावा और कोई अन्य बेहतर साधन नहीं है।  
मैं स्वयं अपना उदाहरण देना चाहूँगा। मैं एक वकील हूँ और किसी का कर्मचारी नहीं हूँ। अपनी मर्जी का स्वयं मालिक भी हूँ। लेकिन उस के बावजूद मैं एक उजरती मजदूर ही हूँ। रोज अपने दफ्तर में बैठता हूँ और समय से अदालत पहुँच जाता हूँ। ये दोनों स्थान मेरे लिए अपने श्रम को बेचने के बाजार हैं। किसी भी व्यक्ति को जब मेरे श्रम की आवश्यकता होती है तो वह मेरे पास आता है और सब से पहले यह देखता है कि मेरा श्रम उस के लिए उपयोगी हो सकता है अथवा नहीं। जब वह पाता है कि मेरा श्रम उसके उपयोगी हो सकता है तो वह मुझे बताता है कि मुझ से वह क्या काम लेना चाहता है। मैं उस काम का हिसाब और उस में लगने वाले श्रम का मूल्यांकन करता हूँ। वह मुझ से उस काम में लगने वाले श्रम का मूल्य पूछता है। मैं उसे  बताता हूँ तो वह फिर मोल-भाव करता है। यदि मुझे उस समय अपने श्रम को बेचने की अधिक आवश्यकता होती है तो मुझे अपना भाव कम करना होता है यदि परिस्थिति इस के विपरीत हुई, खऱीददार को मेरे श्रम की अधिक आवश्यकता हुई और मुझे अपने श्रम को बेचने की आवश्यकता कम तो मेरे श्रम के मूल्य में वृद्धि हो जाती है। इस तरह कुल मिला कर मैं एक  आधुनिक उजरती मजदूर ही हूँ।  मेरे पास आय का अर्थात जीवन यापन का कोई अन्य साधन नहीं है । इस तरह मैं एक सर्वहारा हूँ। मेरे प्रोफेशन में बहुत लोग ऐसे भी हैं जिन के पास जीवन यापन के अन्य साधन भी हैं। अनेक तो ऐसे भी हैं जिन के जीवन यापन के प्रधान साधन कुछ और हैं, वकालत का प्रोफेशन नहीं। निश्चित रूप से ऐसे लोग सर्वहारा नहीं हैं। लेकिन आज स्थिति यह है कि वकालत के प्रोफेशन में 60-70 प्रतिशत लोग वही हैं जिन के जीवन यापन का एक मात्र जरिया वकालत ही है और निश्चित रूप से वे सर्वहारा हैं। यही स्थिति डाक्टरों की है। इंजिनियरों में तो सर्वहाराओं की संख्या और भी अधिक है। 
स तरह हम पाते हैं कि पूंजीवाद ने चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और इंजिनियरों को भी आधुनिक उजरती मजदूरों में परिवर्तित कर दिया है। यह दूसरी बात है कि इन में बहुत कम, केवल चंद लोग हैं जो अपनी इस स्थिति को स्वीकार करने को तैयार होंगे। लेकिन उस से क्या? जैसे जैसे वर्तमान व्यवस्था का संकट बढ़ता जाता है, उन्हें इस वास्तविकता का बोध होता जाता है, वे स्वीकारने लगते हैं कि वे आधुनिक उजरती मजदूर अर्थात सर्वहारा हैं।