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मंगलवार, 12 जुलाई 2011

एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे

कोई भी नयी उन्नत तकनीक समाज को आगे बढ़ने में योगदान करती है। एक भाप के इंजन के आविष्कार ने दुनिया में से सामन्तवाद की समाप्ति का डंका बजा दिया था। इंग्लेण्ड की औद्योगिक क्रान्ति उसी का परिणाम थी। उसी ने सामन्तवाद के गर्भ में पल रहे पूंजीवाद को जन्म देने में दाई की भूमिका अदा की थी। पूंजीवाद उसी से बल पाकर आज दुनिया का सम्राट बन बैठा है। उस के चाकर लगातार यह घोषणा करते हैं कि अब इतिहास का अन्त हो चुका है। पूंजीवाद अब दुनिया की सचाई है जो कभी समाप्त नहीं हो सकती। इस का अर्थ है कि पूंजीवाद ने जो कष्ट मानवता को प्रदान किए हैं वे भी कभी समाप्त नहीं होंगे। कभी गरीबी नहीं मिटेगी, धरती पर से कभी भूख की समाप्ति नहीं होगी। दुनिया से कभी युद्ध समाप्त नहीं होंगे, वे सदा-सदा के लिए शोणित की नदियाँ बहाते रहेंगे। किसान उसी तरह से अपने खेतों में धूप,ताप, शीत, बरखा और ओले सहन करता रहेगा। मजदूर उसी तरह कारखानों में काम करते रहेंगे। इंसान उच्च से उच्च तकनीक के जानकार होते हुए भी पूंजीपतियों की चाकरी करता रहेगा। बुद्धिजीवी उसी की सेवा में लगे रह कर ईनाम पाते और सम्मानित होते रहेंगे। जो ऐसा नहीं करेगा वह न सम्मान का पात्र होगा और न ही जीवन साधनों का। कभी-कभी लगता है कि दमन का यह चक्र ऐसे ही चलता रहेगा। शायद मनुष्य समाज बना ही इसलिए है कि अधिकतर मनुष्य अपने ही जैसे चंद मनुष्यों के लिए दिन रात चक्की पीसते रहें।

ज हम जानते हैं कि इंसान ही खुद ही खुद को बदला है, उस ने दुनिया को बदला है और उसी ने समाज को भी बदला है। यह दुनिया वैसी नहीं है जैसी इंसान के अस्तित्व में आने के पहले थी। वही इकलौता प्राणी इस ग्रह में है जो अपना भोजन वैसा ही नहीं ग्रहण करता जैसा उसे वह प्रकृति में मिलता है। वह प्रकृति में मिलने वाली तमाम वस्तुओं को बदलता है और अपने लिए उपयोगी बनाता है। उस ने सूत और ऊन से कपड़े बुन लिया। उस ने फलों और मांस को पकाना सीखा, उस ने अनाज उगा कर अपने भविष्य के लिए संग्रह करना सीखा। यह उस ने बहुत पहले कर लिया था। आज तो वह पका पकाया भोजन भी शीतकों और बंद डिब्बों में लंबे समय तक रखने लगा है। बस निकाला और पेट भर लिया। इंसान की तरक्की रुकी नहीं है वह बदस्तूर जारी है। 

स ने एक समय पहिए और आग का आविष्कार किया। इन आविष्कारों से उस की दुनिया बदली। लेकिन समाज वैसे का वैसा जंगली ही रहा। लेकिन जिस दिन उस ने पशुओं को साधना सीखा उस दिन उस ने अपने समाज को बदलने की नींव डाल दी। उसे शत्रु कबीले के लोगों को अब मारने की आवश्यकता नहीं थी, वह उन की जान बख्श सकता था। उन्हें गुलाम बना कर अपने उपयोग में ले सकता था। कुछ मनुष्यों को कुछ जीवन और मिला। लेकिन उसी ने मनुष्य समाज में भेदभाव की नींव डाल दी। अब मनुष्य मनुष्य न हो कर मालिक और गुलाम होने लगे। पशुओं के साथ, गुलामों के श्रम और स्त्रियों की सूझबूझ ने खेती को जन्म दिया। गुलाम बंधे रह कर खेती का काम नहीं कर सकते थे। मालिकों को उन के बंधन खोलने पड़े और वे किसान हो गए। दास समाज के गर्भ में पल रहा भविष्य का सामंती समाज अस्तित्व में आया। हम देखते हैं कि मनुष्य ने अपने काम को सहज और सरल बनाने के लिए नए आविष्कार किए, नई तकनीकें ईजाद कीं और समाज आगे बढ़ता रहा खुद को बदलता रहा। ये तकनीकें वही, केवल वही ईजाद कर सकता था जो काम करता था। जो काम नहीं करता था उस के लिए तो सब कुछ पहले ही सहज और सरल था। उसे तो कुछ बदलने की जरूरत ही नहीं थी। बल्कि वह तो चाहता था कि जो कुछ जैसा है वैसा ही चलता रहे। इस लिए जिन्हों ने दास हो कर, किसान हो कर, श्रमिक हो कर काम किया उन्हीं ने तकनीक को ईजाद किया, दुनिया को बदला, इंसान को बदला और इंसानी समाज को बदला। इस दुनिया को बदलने का श्रेय केवल श्रमजीवियों को दिया जा सकता है, उन से अलग एक भी इंसान को नहीं। 

र क्या अब भी कुछ बदल रहा है? क्या तकनीक विकसित हो रही है? जी, दुनिया लगातार बदल रही है। तकनीक लगातार विकसित हो रही है। पूंजीवाद के विकास ने लोगों को इधर-उधर सारी दुनिया में फैला दिया। पहले एक परिवार संयुक्त रूप से साथ रहता था। आज उसी परिवार का एक सदस्य दुनिया के इस कोने में है तो दूसरा उस कोने में। एक सोने जा रहा है तो दूसरा सो कर उठ रहा है। लेकिन दुनिया भर में बिखरे लोगों ने जुड़ने के तकनीकें विकसित कर ली हैं और लगातार करते जा रहे हैं। आज की सूचना प्रोद्योगिकी ने इंसानी समाज को आपस में जो़ड़े रखने की  मुहिम चला रखी है। हों, इस प्रोद्योगिकि के मालिक भले ही पूंजीपति हों, लेकिन कमान तो वही श्रमजीवियों के हाथों में है। वे लगातार तकनीक को उन्नत बनाते जा रहे हैं। नित्य नए औजार सामने ला रहे हैं। हर बार एक नए औजार का आना बहुत सकून देता है। तकनीक का विकसित होना शांति और विश्वास प्रदान करता है। कि इतिहास का चक्का रुका नहीं है। दास युग और सामंती युग विदा ले गए तो यह मनुष्यों के शोणित से अपनी प्यास बुझाने वाला पूंजीवाद भी नहीं रहेगा। हम, और केवल हम लोग जो श्रमजीवी हैं, जो तकनीक को लगातार विकसित कर रहे हैं, एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे। 

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

तदर्थवाद देश को एक बड़े कूड़ेदान में तब्दील कर रहा है

र में बच्चों में झगड़ा हुआ, छोटा बड़े की पीठ पर चढ़ गया और कंधे पर काट लिया। बड़े का कंधा घायल हुआ, उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। जब घर के मुखिया से पूछा कि ये कैसे हुआ? तो वह कहने लगा -हमारे बच्चे तो ऐसे नहीं हैं। लगता है किसी ने षड़यंत्र किया है। 
रेल पर रेल चढ़ गई तकरीबन 70 लोगों की जानें गईं। कितने ही घायल हो कर अपंग हो गए, एक रेल इंजन और कितने ही डब्बे नष्ट हो गए। कितने ही अपने परिजनों की मृत्यु से बेसहारा हो गए।  लेकिन ममता दी भी यही कह रही हैं, षड़यंत्र औऱ तोड़-फोड़ की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। चार दशक पहले ऐसे ही सुनने को मिलता था कि यह सीआईए का षड़यंत्र है या केजीबी ने ऐसा किया है। हालाँकि इस हादसे के वक्त रेल मंत्री का यह बयान पूरी तरह बचकाना है।

लो मान भी लिया जाए कि यह षड़यंत्र है, तो क्या रेल प्रबंधकों की यह जिम्मेदारी नहीं कि वे ऐसे किसी भी तरह के षड़यंत्र से बचने की व्यवस्था रखें। लेकिन इस हादसे को षड़यंत्र का नाम देना पूरी तरह से अपनी जिम्मेदारी से तौबा करना है। बाद में इसे मानवीय भूल कहा जा सकता है, या फिर तकनीकी त्रुटि। तकनीकी त्रुटि भी अंततः मानवीय भूल ही होती है। क्यों कि वह भी मानवीय भूल या लापरवाही का नतीजा होती है। 
वास्तव में पिछले तीस वर्षों से देश जिस रास्ते पर चल रहा है उस के अंतर्गत हर स्थान पर मनुष्य को विस्थापित कर तकनीक को स्थान दिया गया है। जब कि यह देश जहाँ जनसंख्या दुनिया में सर्वाधिक घनी है और दुनिया की सर्वाधिक जनसंख्या वाला भूखंड होने जा रहा है। जहाँ दुनिया के सर्वाधिक बेरोजगार लोग निवास करते हैं जिन की संख्या लाखों  में  नहीं करोड़ों में है वहाँ तकनीक का विस्तार इस रीति से होना चाहिए था कि लोग बेरोजगार न हों, अपितु नए रोजगारों का सृजन हो। लेकिन हो इस का उलटा रहा है। 
कनीक पर अरबों रुपयों का खर्च हो रहा है और नतीजे के रूप में रोजगार पर लगे लोग बेरोजगार कर दिए जाते हैं। इस अनुसंधान पर करोड़ों रुपयों का खर्च हो रहा है कि कैसे कम से कम लोगों के नियोजन से उद्यम चलाए जा सकते हैं? जो उद्यम बिना मानवीय हाथों के नहीं चल सकते वहाँ और बुरी स्थिति है। सरकारें कंगाल हैं। उस का उदाहरण है, सरकारी विभागों में लाखों पद रिक्त पड़े हैं। रिक्त पदों के कारण जरूरी काम लंबित पड़े रहते हैं। नगरपालिकाओं में सफाई कर्मचारी नहीं हैं, सारा देश गंदगी से अटा पड़ा है, भौतिक और मानसिक दोनों तरह की। सरकार के पास विभागों में कर्मचारी कम हैं। बिजली कंपनियों में कर्मचारियों की कमी है। और रेल में वहाँ तो स्थिति और भी भयानक है। पिछले तीस बरसों में रेलों का लगातार विस्तार हुआ है। लगभग दुगनी से भी अधिक माल और सवारियाँ ढोई जा रही हैं लेकिन वहाँ नियोजित कर्मचारियों की संख्या आधी से भी कम रह गई है। 
सा लगता है कि दो या तीन खेमों वाली राजनैतिक प्रणाली में राजनेता जानता है कि पाँच साल बाद उसे फिर से सड़क पर आने है। वह सिर्फ तदर्थ रुप से काम करता है। यह तदर्थवाद देश को एक बड़े कूड़ेदान में तब्दील कर रहा है। वह देश को सिर्फ पाँच वर्ष के लिए चलाता है। आरंभिक वर्षों में जैसे चले चलाओ। अगले चुनाव के वक्त बताने लायक काम दिखाओ, जब चुनाव नजदीक आ जाएँ तो जनता के धन को वोट कबाड़ू योजनाओं में बरबाद करो। जब सरकार बदल कर नए दल या गठबंधन की आती है तो सब से पहले यही घोषणा करती है कि जाने वाली सरकार खजाना खाली छोड़ गई है।
मता दी के लिए रेल मत्रालय तदर्थ ही है, उन का पूरा ध्यान बंगाल पर है कैसे वहाँ तृणमूल दल का राज स्थापित हो। देश का तृणमूल भले ही सूखा और नष्ट होता रहे, किसी को उस की फिक्र नहीं। पर ऐसे में जब तृणमूल (Grass-root) का जीवन नष्ट होने की कगार पर चला जाए तो अपने जीवन की रक्षा के लिए उसे ही प्रयत्न करने होंगे। तमाम राजनैतिक दलों ने अब तक निराश किया है। अब जनता की एक बड़ी ताकत की आवश्यकता है जो इस देश को बदल सके, इस देश की जनता के जीवन और भविष्य के लिए। हम छोटे छोटे लोगों को ही उस ताकत को बनाना होगा। इस का उपाय यही है कि छोटे से छोटे स्तर पर जहाँ भी जितनी भी संख्या में हम संगठित हो सकते हों हों, अपने जीवन की रक्षा और उस की अक्षुणता के लिए। ये छोटे-छोटे संगठन ही किसी दिन बड़े और विशाल देशव्यापी संगठन का रूप धारण कर लेंगे।