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मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

दोराहा, निश्चय और समंजस


कोई पैंतीस बरस हुए, बुआ की पुत्री के विवाह में जाते हुए रास्ते में दुर्घटना हुई और पिताजी के दाहिने हाथ की कोहनी में गंभीर चोट लगी। रेडियस अस्थि का हेड अलग हो गया। हड्डी की किरचें मांस में घुस गईं। जिन्हें निकालने के लिए कुछ ही दिनों के अन्तराल से कुछ आपरेशन्स कराने पड़े। हमें जोधपुर में रुकना पड़ा। वहां विवाह में आए हुए अनेक परिजन थे जो विवाह के उपरान्त भी रुके थे। दिन भर क्या करते तो शाम को कहीं न कहीं घूमने निकल पड़ते। एक दिन भूतनाथ जाने की योजना बनी। तीसरे पहर जब सब लोग जाने के लिए घर से बाहर निकले उसी समय मुझे हाजत हुई और मैं यह कह कर फिर से घर में घुस गया। मुझे कहा गया कि वे भी रुकते हैं। लेकिन मैंने उन्हें कहा कि मैं पहुंच जाउंगा, मार्ग किसी न किसी से पूछ लूंगा। कोई दस मिनट बाद मैं घर से बाहर निकला बाजार में गंतव्य की दूरी और मार्ग पूछा तो पता लगा गंतव्य कम से कम चार-पांच किलोमीटर से कम नहीं है। सभी लोग कोई वाहन भाड़े पर लेकर गए हैं। मैंने भी एक साइकिल किराए पर ली और चल पड़ा।

रास्ता पूछते पूछते मैं शहर के बाहर आ गया। वहां पूछा तो किसी ने बताया कि यह जो रास्ता जा रहा है उसी पर चले जाओ भूतनाथ पहुंच जाओगे। मैं उसी पर चल पड़ा। कोई डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद रास्ता एक दोराहे में बदल गया। एक रास्ता ऊपर पहाड़ी की ओर जाता था, दूसरा सीधा जाता हुआ नीचे जाता था। मैंने आस पास नजरें दौड़ाईं लेकिन कोई भी न दिखाई दिया जिससे रास्ता पूछा जा सकता। अब मुझे ही निर्णय करना था कि किस मार्ग पर जाना है। भूतनाथ में झील है यह मैंने सुना था। मैंने विचार किया कि झील पहाड़ के ऊपर तो हो नहीं सकती। निश्चय ही नीचे जाने वाला मार्ग ही भूतनाथ जाता होगा। मैंने अपनी साइकिल उसी मार्ग पर बढ़ा दी।

कोई एक किलोमीटर चलने पर डामर की सड़क नीचे की ओर जाने लगी। अचानक सड़क के बीचों बीच जहां डामर हटा हुआ था, मैंने देखा कि वहां करीब आठ फुट का एक झाड़ उगा हुआ था। निश्चय ही वह कम से कम दो वर्ष से तो वहां अवश्य ही रहा होगा। मैं गलत रास्ते पर आ चुका था। वह एक पुराना बंद मार्ग था। बंद न होता तो वहां झाड़ न उगा होता। लेकिन अब वापस दोराहे तक लौटना और फिर दूसरे मार्ग पर जाना मुझे रुचिकर नहीं लग रहा था। मैंने विचार किया कि भले ही वह मार्ग कुछ वर्षों से बंद रहा हो, लेकिन डामर की सड़क है तो कहीं तो जाती होगी। मैं उसी मार्ग पर चलता रहा। कोई एक फर्लांग बाद ही सामने रेलवे लाइन दिखाई दी। मैं समझ गया कि रेलवे लाइन पर पहले यहां फाटक रहा होगा। फाटक बंद हो जाने से ही वह मार्ग बंद हो गया होगा। रेलवे लाइन के ठीक बाद ही उस के समानान्तर एक उच्च मार्ग जा रहा था। मैंने साइकिल को हाथों में उठा कर रेलवे लाइन पार की और उच्च मार्ग पर आ गया। पास ही उच्च मार्ग से एक सड़क निकल रही थी। वहीं एक बोर्ड लगा था- “कायलाना झील- एक कि.मी.”। मैं भूतनाथ नहीं जा सका था लेकिन कायलाना के नजदीक  था। मैं वहीं गया। झील देख कर मन प्रसन्न हो गया। बहुत दिनों से तैरा न था। कपड़े खोल कर मैं झील के शीतल और पारदर्शी जल में उतर गया और बहुत देर तक तैरता रहा। सारी गर्मी और थकान गायब हो गयी। घर पहुंचने पर मुझ से पूछा गया कि मैं कहां रह गया था? भूतनाथ क्यों न पहुंचा? मैं उन्हें सुनाने लगा कि मैं कायलाना झील में तैर कर आ रहा हूं।

मैं दो स्थानों पर असमंजस में था। पहली बार जब दोराहा पड़ा और दूसरी बार तब जब सड़क के बीच झाड़ को उगा पाया। दोनों बार मैंने निश्चय किया कि मुझे क्या करना है। दोनों बार मेरे निश्चय के उपरान्त जो स्थिति उत्पन्न हुई उसे समञ्जस की स्थिति कहा जा सकता है। हमारे जीवन में अनेक बार ऐसे दोराहे आते हैं, असमंजस की स्थिति उत्पन्न होती है। लेकिन वहीं हमें निर्णय करना होता है कि हम क्या करें? वापस लौट चलें या आगे बढ़ें? किसी भी एक मार्ग पर आगे बढ़ने का निर्णय ही समञ्जस उत्पन्न करता है।  ऐसे में हम जहां भी पहुंचें हम स्वयं को आगे बढ़ा हुआ ही पाएंगे, पीछे हटा हुआ नहीं।


संस्कृत में समञ्जस के अर्थ -उचित, तर्कसंगत, ठीक, योग्य, सही, सच, यथार्थ, स्पष्ट, बोधगम्य।