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सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

मोरबी का पुल हादसा

ल शाम गुजरात के मोरबी में हुई दुर्घटना आज टीवी पर छायी हुई है। दुर्घटना बहुत बड़ी है। अब तक 134 लोगों के मरने और 100 से अधिक के घायल होने की पुख्ता जानकारी है। लापता लोगों की जानकारी भी लापता है।



यह कोई 100 बरस पुराना पुल है। इसे मरम्मत के लिए कोई सात माह पहले बन्द किया गया था। मरम्मत का ठेका एक कंपनी को दिया था। जिसका काम इलेक्ट्रोनिक घड़ियाँ और अन्य इलेक्ट्रोनिक वस्तुओं के उत्पादन का काम है। पर मुनाफा कमाने के लिए कंपनियाँ कैसे भी काम कर लेती हैं। इस ठेके में मरम्मत और अगले अनेक वर्षों के लिए पुल की देखभाल और संचालन का काम भी सम्मिलित है। कंपनी उस पर प्रवेश के लिए 17 रुपए प्रति व्यक्ति भी वसूल कर रही है।

यह पुल मात्र साढ़े चार फुट के लगभग चौड़ा है। इस पर एक व्यक्ति पैदल आ रहा हो तो शेष स्थान बस इतना बचता है कि सामने से आने वाला दूसरा व्यक्ति बगल से निकल जाए। यदि दो व्यक्ति साथ चल रहे हों तो सामने से आने वाले व्यक्ति को जाने देने के लिए एक व्यक्ति को हट कर दूसरे के पीछे आना पड़ेगा। इस पुल को तीन दिन पहले खोल दिया गया। आश्चर्य की बात है कि पुल पर तीन दिन से एक बार में सैंकड़ों अर्थात 500 व्यक्ति उस पुल पर चढ़ रहे थे। जबकि पुल की क्षमता 100 व्यक्तियों द्वारा एक बार में उपयोग करने की है। ऐसा लगता है रखरखाव रखने वाली कंपनी ने पुल को यातायात के साधन के रूप में नहीं बल्कि एक पर्यटन स्थल के रूप में बदल दिया था और कमाई कर रही थी। यह तथ्य भी सामने आयी है कि मरम्मत के बाद पुल को चालू करने के पहले नगर पालिका से एनओसी प्राप्त करनी थी और नगर पालिका ने ऐसी अनुमति नहीं दी थी पुल उसके बिना ही उपयोग में लिया जा रहा था। इस का मुख्य कारण कारपोरेट द्वारा मुनाफे के लालच से जनता की असीम लूट ही है।


नगर पालिका की ड्यूटी थी कि यदि पुल को बिना अनुमति चालू कर दिया था तो उसके उपयोग को रुकवाती और यह सुनिश्चित करती कि एक बार में उस पर 100 से अधिक लोग न चढ़ सकें। नगर पालिका के पास स्टाफ होता है जो अवैध निर्माण और संचालन पर निगाह रखता है। पर देश भर के नगर निकायों के तमाम ऐसे निगरानी स्टाफ पूरी तरह से भ्रष्टाचार में ऊब डूब है। जो पांच दस प्रतिशत ईमानदार स्टाफ है वह ठेकेदारों और उनसे संबंधित राजनीतिक लोगों द्वारा प्रतिशोध लेने से भयभीत रहता है और ऐसी घटनाओं से आँख मूंद लेता है। इसी कारण हर शहर में अवैध इमारतों, निर्माणों की भरमार हो चुकी है। फुटपाथ तो दुकानदारों की बपौती है। उस पर उन्हीं का माल फैला रहता है। यहाँ तक कि फुटपाथ के बाद का स्थान पार्किंग से भरा रहता है। सड़क पर यातायात अक्सर फँसा रहता है। जनता यह सब बर्दाश्त करती रहती है।

लेकिन जब राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ लोगों की जाने लेने लगे तो जनता तत्काल उफनने लगती है। यह उफान भी सोडावाटरी होता है। तत्काल पुलिस ठेकेदार के कुछ कर्मचारियों को गिरफ्तार कर मुकदमा बनाती है। लेकिन पीछे पीछे भ्रष्टाचारी गठजोड़ काम करता रहता है। जो मुकदमे बनाए जाते हैं उनमें सबूत होते ही नहीं या फर्जी होते हैं। दसियों साल मुकदमा चलने के बाद सारे मुलजिम बरी हो जाते हैं। राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ बना रहता है।

गुजरात में सारा प्रशासन भाजपा के हाथों में है केन्द्र् में भी उनकी सरकार है। प्रधानमंत्री का मन भटक कर टूटे पुल के पीड़ितों के आसपास भटक रहा है जाँच की घोषणा कर दी गयी है। लेकिन कोई राजनेता यह नहीं कह रहा है कि ठेकेदार, पालिका और सरकारी कर्मचारियों के साथ साथ उनसे यह सब काम करवाने में लिप्त रहे राजनेता भी दंडित किए जाएंगे। कौन अपनी माँ को डाकिन कहता है।

दो चार दिन हल्ला रहेगा। फिर चुनाव होगा। परिणाम आ जाएंगे। अफसर कर्मचारी जिन पर मुकदमा किया जाएगा वे सब बरी हो जाएंगे। किसी राजनेता पर कोई आँच नहीं आएगी और जनता फिर सो कर खर्राटे लेने लगेगी या फिर हिन्दू मुसलमान करते हुए धर्म की अफीम की पिनक में डूब जाएगी।

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

कोई कारण नहीं कि जल्दी ही ... उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए

 देश में कुछ लोग हैं जो खुद को कानून से अपने आप को ऊपर समझते हैं। उन में ज्यादातर तो कारपोरेट्स हैं, वे समझते हैं कि देश उन के चलाए चलता है। वे जैसा चाहें वैसा कानून बनवाने की ताकत रखते हैं। राजनेताओं का एक हिस्सा सोचता है देश उन के चलाए चलता है। जनता ने उन्हें देश चलाने के लिए चुना है, लेकिन वे ये भी जानते हैं कि इस लायक वे कार्पोरेट्स की बदौलत ही हैं। कार्पोरेट्स के पास इतनी ताकत है कि वे किसी को भी किसी समय नालायक सिद्ध कर सकते हैं और सामने दूसरा कोई खड़ा कर सकते हैं। लेकिन जनता को किसी तरह उल्लू बना कर भुलावे में रखना इन दोनों के लिए निहायत जरूरी है। इस कारण एक तीसरे लोगों की श्रेणी की जरूरत होती है जो इस काम को आसान बनाते हैं। यह तीसरी श्रेणी भी यही समझती है कि वे कानून के ऊपर हैं, देश की सारी जनता पर चाहे कोई कानून चलता हो लेकिन उन पर नहीं चलता। वे पूरी तरह से कानून के परे लोग हैं,क्यों कि उन हैसियत ऐसी है जिस का इस दुनिया से कोई नाता नहीं है। वे दूसरी दुनिया के लोग हैं, ऐसी दुनिया के जो इस दुनिया को नियंत्रित करती है। वे लोग तो इस पृथ्वी ग्रह पर केवल इस लिए रहते हैं जिस से इस दुनिया के लोगों का सम्पर्क दूसरी दुनिया से बना रहे और उन के जरिए इस दुनिया के लोग उन्हें नियन्त्रित करने वाली दूसरी दुनिया से कुछ न कुछ फेवर प्राप्त करते रहें।

लेकिन कभी न कभी इन तीनों तरह के लोग कानून की गिरफ्त में आ ही जाते हैं। जब आते हैं तो पहले आँख दिखाते हैं, फिर कहते हैं कि उन्हें इस लिए बदनाम किया जा रहा है कि वे कुछ दूसरे बुरे लोगों की आलोचना करते हैं। फिर जब उन्हें लगता है कि अपराध के सबूतों को झुठलाना संभव न होगा, तो धीरे-धीर स्वीकार करते हैं। एक दिन मानते हैं कि वे उस नगर में थे। फिर ये मानते हैं कि उस गृह में भी थे। तीसरे दिन ये भी मानने लगते हैं कि उन की भेंट शिकायती बालिका से हुई भी थी। लेकिन इस से ज्यादा कुछ नहीं हुआ था।


ये जो धीरे-धीरे स्वीकार करना होता है न! इस सब की स्क्रिप्ट लायर्स के चैम्बर्स में लिखी जाती है। ठीक सोप ऑपेरा के स्क्रिप्ट लेखन की तरह। जब उन्हें लगता है कि दर्शक जनता ने उन की यह चाल भांप ली है तो अगले दिन की स्टोरी में ट्विस्ट मार देते हैं। ये वास्तव में कानून के भारी जानकारों की कानूनी जानकारी का भरपूर उपयोग कर के डिफेंस की तैयारी होती है। लेकिन यह भी सही है कि इस दुनिया में जनता की एकजुट आवाज से बड़ा कानूनदाँ कोई नहीं होता। यदि जनता ढीली न पड़े और लगातार मामले के पीछे पड़ी रहे तो कोई कारण नहीं कि धीरे धीरे तैयार किया जा रहा डिफेंस धराशाई हो जाए और अभियुक्त जो एंटीसिपेटरी बेल की आशा रखता है वह जेल के सींखचों के पीछे भी हो और जल्दी ही उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए। 

शनिवार, 16 जुलाई 2011

जो बदलाव चाहते हैं, उन्हें ही कुछ करना होगा

ड़े पूंजीपतियों, भूधरों, नौकरशाहों, ठेकेदारों, और इन सब की रक्षा में सन्नद्ध खड़े रहने वाले राजनेताओं के अलावा शायद ही कोई हो जो देश की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट हो। शेष हर कोई मौजूदा व्यवस्था में बदलाव चाहता है। सब लोग चाहते हैं कि भ्रष्टाचार की समाप्ति हो।  महंगाई पर लगाम लगे। गाँव, खेत के मजदूर चाहते हैं उन्हें वर्ष भर रोजगार और पूरी मजदूरी मिले। किसान चाहता है कि वह जो कुछ उपजाए उस का लाभकारी दाम मिले,  पर्याप्त पानी और चौबीसों घंटे बिजली मिले, बच्चों को गावों में कम से कम उच्च माध्यमिक स्तर तक की स्तरीय शिक्षा मिले। नजदीक में स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त हों। गाँव तक पक्की सड़क हो और आवागमन के सार्वजनिक साधन हों। नए उद्योग नगरों में खोले जाने के स्थान पर नगरों से 100-50 किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए जाएँ। ग्रामीणों के बच्चे नगरों के महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएँ तो उन्हें वहाँ सस्ते छात्रावास मिलें और उन से उच्च शिक्षा में कम शुल्क ली जाए। 

गरों के निवासी चाहते हैं कि उन के बच्चों को विद्यालयों में प्रवेश मिले। विद्यालयों में पढ़ाई के स्तर में समानता लाई जाए। सब को रोजगार मिले, मजदूरों को न्यूनतम वेतन की गारंटी हो, कोई नियोजक मजदूरों की मजूरी न दबाए। राशन अच्छा मिले, यातायात के सार्वजनिक साधन हों। जिन के पास मकान नहीं हैं उन्हें मकान बनाने को सस्ते भूखंड मिल जाएँ। खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट न हो। अस्पतालों में जेबकटी न हो। चिकित्सक, दवा विक्रेता और दवा कंपनियाँ उन्हें लूटें नहीं। बेंकों में लम्बी लम्बी लाइनें न लगें। सरकारी विभागों में पद खाली न रहें। रात्रि को सड़कों पर लगी बत्तियाँ रोशन रहें। नलों में पानी आता रहे। बिजली जाए नहीं। नियमित रूप से सफाई होती रहे, गंदगी इकट्ठी न हो। सड़कों पर आवारा जानवर इधर उधर मुहँ न मारते रहें। अपराध न के बराबर हों और हर अपराध करने वाले को सजा मिले। सभी मुकदमों में एक वर्ष में निर्णय हो जाए। अपील छह माह से कम समय में निर्णीत की जाए। बसों, रेलों में लोग लटके न जाएँ। जिसे यात्रा करना आवश्यक है उसे रेल-बस में स्थान मिल जाए। वह ऐजेंटों की जेबकटी का शिकार न हो। दफ्तरों से रिश्वतखोरी मिट जाए।  आमजनता के विभिन्न हिस्सों की चाहतें और भी हैं। और उन में से कोई भी नाजायज नहीं है।

लेकिन बदलाव का रास्ता नहीं सूझता। पहले लोग सोचते थे कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री चीजों को ठीक कर सकता है। लेकिन ईमानदार प्रधानमंत्री भी देख लिया। मुझे अपने ननिहाल का नदी पार वाला पठारी मैदान याद आ जाता है। जहाँ हजारों प्राकृतिक पत्थर पड़े दिखाई देते हैं, सब के सब गोलाई लिए हुए। लेकिन जिस पत्थर को हटा कर देखो उसी के नीचे अनेक बिच्छू दिखाई देते हैं। लोग सोचते थे कि वोट से सब कुछ बदल जाएगा। जैसे 1977  में आपातकाल के बाद बदला था वैसे ही बदल जाएगा। लेकिन वह बदलाव स्थाई नहीं रह पाया। मोरारजी दस सालों में देश की सारी बेरोजगारी मिटाने की गारंटी दे रहे थे। कोटा  यात्रा के दौरान उन दिनों नौजवानों के नेता महेन्द्र ने उन से कहा कि हमें आप की गारंटी पर विश्वास नहीं है, आप सिर्फ इतना बता दें कि ये बेरोजगारी मिटाएंगे  कैसे तो वे आग-बबूला हो कर बोले। तुम पढ़े लिखे नौजवान काम नहीं करना चाहते। बूट पालिश क्यों नहीं करते? महेन्द्र ने उन से पलट कर पूछा कि आप को पता भी है कि देश के कितने लोगों को वे जूते नसीब होते हैं जिन पर पालिश की जा सके? वे निरुत्तर थे। अफसरशाही का सारा लवाजमा महेन्द्र को देखता रह गया। मोरारजी कोटा से चले गए, सत्ता से गए और दुनिया से भी चले गए। बेरोजगारी कम होने के स्थान प बदस्तूर बढ़ती रही। महेन्द्र का नाम केन्द्र और राज्य के खुफिया विभाग वालों की सूची में चढ़ गया। अब तीस साल बाद भी सादी वर्दी वाले उन की खबर लेते रहते हैं। 

वोट की कहें तो जो सरकारें बैठी हैं उन्हें जनता के तीस प्रतिशत का भी वोट हासिल नहीं है। पच्चीस प्रतिशत के करीब तो वोट डालते ही नहीं हैं। वे सोचते हैं  'कोउ नृप होय हमें का हानि' जिन्हें लुटना है वे लूटे ही जाएंगे। जिन्हें लूटना है वे लूटते रहेंगे। बाकी में से बहुत से भिन्न भिन्न झंडों पर बँट जाते हैं। फिर चुनाव के वक्त ऐसी बयार बहती है कि लोग सोचते रह जाते हैं कि लक्स साबुन को वोट दिया जाए कि हमाम को। चुनाव हो लेते हैं। या तो वही चेहरे लौट आते हैं। चेहरे बदल भी जाएँ तो काम तो सब के एक जैसे बने रहते हैं। बदलाव और कुछ अच्छा होने के इंतजार में पाँच बरस बीत जाते हैं। फिर नौटंकी चालू हो जाती है। वोट से कुछ बदल भी जाए। कुछ अच्छा करने की नीयत वाले सत्ता में आसीन हो भी जाएँ तो वहाँ उन्हें कुछ करने नहीं दिया जाता। उसे नियमों कानूनों में फँसा दिया जाता है। वह उन से निकल कर कुछ करने पर अड़ भी जाए तो भी कुछ नहीं कर पाता। उस का साथ देने को कोई नहीं मिलता। अब हर कोई समझने लगा है कि सिर्फ वोट से कुछ न बदलेगा।  लेकिन बदलाव तो होना चाहिए। सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो? हमारे यहाँ कहते हैं कि बिना रोए माँ दूध नहीं पिलाती और बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता। तो भाई लोग, जो बदलाव चाहते हैं वे सोचते रहें कि कोई आसमान से टपकेगा और रातों रात सब कुछ बदल देगा। तो ऐसी आशा मिथ्या है। जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा।

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

राजनेता नहीं चाहिए

भ्रष्टाचार से देश का हर व्यक्ति व्यथित है। सामाजिक जीवन का कोई हिस्सा नहीं जो इस भ्रष्टाचार से आप्लावित न हो। स्थिति यह हो गई है कि जिस के पास धन है, वह फूला नहीं समाता। वह अकड़ कर कहता है -कौन सा काम है जो मैं नहीं करवा सकता। मुझे कोई बत्तीस बरस पहले की एक मामूली उद्योगपति की बात स्मरण हो आई जिस की राजधानी में एक बड़ी फ्लोर मिल थी। वह कुछ दिनों के लिए एक दैनिक के सम्पादक मित्र का मेहमान था। मैं उन दिनों कानून की पढ़ाई करता था और उस दैनिक में उपसंपादक हुआ करता था।  उस उद्योगपति ने मुझ से कहा था। कभी सरकार में कोई भी काम हो तो बताना। मैं ने उसे कहा सरकार तो बदल जाती है। उस का उत्तर था कि मैं अपने कुर्ते की एक जेब में सरकार का एमएलए रखता हूँ तो दूसरी जेब में विपक्ष का एमएलए। निश्चित रूप से पिछले बत्तीस वर्षों में इस स्थिति में गुणात्मक विकास ही हुआ है। आज का उद्योगपति एमएलए नहीं एमपी और मंत्री तक को अपनी जेबों में रखने क्षमता रखता है।
देश में जितना भ्रष्टाचार है उस की जन्मदाता यही उद्योगपति बिरादरी है। उन के इशारे पर कानून बनते हैं, यदि कानून उन के विरुद्ध बन भी जाएँ तो उन्हें उस की परवाह नहीं, वे जानते हैं कि सरकार उन के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करेगी। जिस के पास सब से अधिक धन है वह देश का सब से इज्जतदार व्यक्ति है, चाहे वह  कितना ही बेईमान क्यों न हो। जिस के पास पैसा नहीं है वह चाहे कितना ही ईमानदार क्यों हो उस की काहे की इज्जत, राशनकार्ड दफ्तर का बाबू उस की इज्जत उतार सकता है। उस की बेटी की शादी में यदि दहेज या बारात के सत्कार में कुछ कमी हो जाए तो कोई अनजान बाराती भी उस की इज्जत उतार सकता है। हमने आजादी के बाद समाज में ऐसे ही मूल्य विकसित होने दिए हैं। हम ने भ्रष्टाचारी को प्रतिष्ठा दी है और ईमानदार लोगों को ठुकराया है। शहर में सब से अधिक काला धन रखने वाला व्यक्ति साल में माता का एक जागरण करवा कर या मंदिर बनवा कर सब से बड़ा धर्मात्मा और ईमानदार बन जाता है, और ईमानदारी से काम करने वाले को मजा चखा सकता है। मुखौटा पहन कर सब से बड़ा वेश्यागामी रामलीला में हनुमान का अभिनय कर सकता है, और जनता की जैजैकार का भागी हो जाता है।
ह हमारा दोहरा चरित्र है। हम इस के आदी हो चुके हैं। हम इस से त्रस्त हैं, लेकिन इस किले में एक कील भी नहीं ठोकना चाहते। जब हमारी बारी आती है तो हम कहते है, हम कर भी क्या सकते हैं। एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। चने का ही भुरकस निकल जाता है। आखिर हम बाल-बच्चे वाले इंसान हैं। हमारा आत्मविश्वास डगमगा गया है, हम कहते हैं सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा, कभी कुछ ठीक नहीं हो सकता। चार दिन पहले ही जब मैं ने कहा था कि क्रिकेट विश्वकप जीत का सबक 'एकता और संघर्ष' जनता के लिए मुक्ति का मार्ग खोल सकता है तो उस आलेख पर एक मित्र की टिप्पणी थी कि आप मुझे निराशावादी कह सकते हैं लेकिन इस देश में कभी कुछ नहीं हो सकता।  उन मित्र की इस निराशा में भी एक बात जरूर थी, वे इस व्यवस्था के समर्थक तो नहीं थे।
र अब जब कि दो दिन पहले तक देश को क्रिकेट के नशे में डुबोने के भरपूर प्रयास किए जा रहे थे और देश भर उस नशे में डूबा दिखाई दे रहा था। अचानक अगले ही दिन वह उस नशे से मुक्त हो कर अण्णा हजारे के साथ खड़े होने की तैयारी कर रहा है। बहुत से लोगों ने अण्णा हजारे का नाम कल पहली बार सुना था और वे पूछ रहे थे कि ये कौन है? आज वे ही उस के साथ खड़े होने को इक्कट्ठे हो रहे हैं। गैर-राजनैतिक संगठन बनाने के लिए बैठकें कर रहे हैं। इस आलेख को लिखने के बीच ही एक मित्र का फोन आया कि परसों शाम बैठक है, आप को जरूर आना है। धन के कार्बन और राजनेताओं के गंधक/पोटाश ने देश के चप्पे-चप्पे पर जो बारूद बिछाया है वह एक स्थान पर इकट्ठा हो रहा है और कभी भी विस्फोट में बदल सकता है। अण्णा ने उस बारूद तक पहुंचने का मार्ग प्रस्तुत कर दिया है।
ब अण्णा अनशन पर बैठने जा रहे थे तो मन में यह शंका थी कि कुछ घंटों में ही कुर्सी तृष्णा वाले राजनेता जरूर उन का पीछा करेंगे। यह आशंका सही सिद्ध हुई। वे अपनी कमीज को सफेद साबित करने के लिए अण्णा से मिलने पहुँचे। लेकिन जनता ने उन्हें बाहर से ही विदा कर दिया। यह सही है कि हमारी संसदीय राजनीति के सानिध्य ने किसी दल को अछूता नहीं छोड़ा। वे जिसे हाथ लगाते हैं वह मैला हो जाता है। इस काम को सिर्फ जनता के संगठन ही पूरा कर सकते हैं। राजनेता इस काम की गति में अवरोध और प्रदूषण ही पैदा कर सकते हैं। फिलहाल जनता ने उन्हें कह दिया है  -राजनेता नहीं चाहिए।

रविवार, 16 जनवरी 2011

मुझे ज्ञानदत्त पाण्डे क्यों पसंद हैं?

पिछले दिनों अनवरत की पोस्टों पर आज ज्ञानदत्त जी पाण्डे की दो टिप्पणियाँ मिलीं। सारा पाप किसानों का पर उन की टिप्पणी थी,"सबसिडी की राजनीति का लाभ किसानों को कम, राजनेताओं को ज्यादा मिला।" बहुत पाठक इस पोस्ट पर आए, उन में से कुछ ने टिप्पणियाँ कीं।  लगभग सभी टिप्पणियों में किसान की दुर्दशा को स्वीकार किया गया और राजनीति को कोसा गया था। ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी भी इस से भिन्न नहीं है। मेरी पूरी पोस्ट में कहीं भी सबसिडी का उल्लेख नहीं था। लेकिन ज्ञानदत्त जी ने अपनी टिप्पणी में इस शब्द का प्रयोग किया और इस ने ही उन की टिप्पणी को विशिष्ठता प्रदान कर दी। यह तो उस पोस्ट की किस्मत थी कि ज्ञानदत्त जी की नजर उस पर बहुत देर से पड़ी। खुदा-न-खास्ता यह टिप्पणी उस पोस्ट पर सब से पहले आ गई होती तो बाद में आने वाली टिप्पणियों में मेरी पोस्ट का उल्लेख गायब हो जाता और 'सबसिडी' पर चर्चा आरंभ हो गई होती। 
वास्तविकता यह है कि हमारा किसान कभी भी शासन और राजनीति की धुरी नहीं रहा। उस के नाम पर राजनीति की जाती रही जिस की बागडोर या तो पूंजीपतियों के हाथ में रही या फिर जमींदारों के हाथों में। एक सामान्य किसान हमेशा ही पीछे रहा। किसानों के नाम पर हुए बड़े बड़े आंदोलनों में किसान को मुद्दा बनाया गया। लेकिन आंदोलन से जो हासिल हुआ उसे लाभ जमींदारों को हुआ और राजनेता आंदोलन की सीढ़ी पर चढ़ कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचे। जो नहीं पहुँच सके उन्हें अनेक सरकारी पद हासिल हो गए। किसान फिर भी छला गया। जब भी किसान को नुकसान हुआ उसे सबसिडी से राहत पहुँचाने की कोशिश की गई। सबसिडी की लड़ाई लड़ने वाले नेता वोटों के हकदार हो गए, कुछ वोट घोषणा करने वाले बटोर ले गए। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ कि खुद किसानों का कोई अपना संगठन नहीं है। जो भी किसान संगठन हैं, उन का नेतृत्व जमींदारों या फिर मध्यवर्ग के लोगों के पास रहा, जिस का उन्हों ने लाभ उठाया। इस तरह आज जरूरत इस बात की है कि किसान संगठित हों और किसान संगठनों का काम जनतांत्रिक तरीके से चले। अपने हकों की लड़ाई लड़ते हुए किसान शिक्षित हों, अपने मित्रों-शत्रुओं और  हितैषी बन कर अपना खुद का लाभ उठाने वालों की हकीकत समझने लगें।  फिर नेतृत्व भी उन्हीं किसानों में से निकल कर आए। तब हो सकता है कि किसान छला जाए।
सी तरह अनवरत की ताजा पोस्ट लाचार न्यायपालिका और शक्तिशाली व्यवस्थापिका पर ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी है कि 'लाचार न्यायपालिका? कुछ हजम नहीं हुआ!' उन की बात सही है, न्यायपालिका राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है, जनतंत्र में उसे राज्य का तीसरा खंबा कहा जाता है। उस की ऐसी स्थिति और उसी को लाचार कहा जाए तो यह बात आसानी से हजम होने लायक नहीं है। लेकिन न्यायपालिका वाकई लाचार हो गई है। यदि न हुई होती तो मुझे अपनी पोस्ट में यह बात कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि बात आसानी से हजम होने वाली होती तो भी मुझे उस पर लिखने की प्रेरणा नहीं होती। अब आप ही बताइए, महाराज अच्छा भोजन बनाते हैं, समय पर बनाते हैं। पर कितने लोगों के लिए वे समय पर अच्छा भोजन बना सकते हैं, उस की भी एक सीमा तो है ही। वे बीस, पचास या सौ लोगों के लिए ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं। लेकिन जब उन्हें हजार लोगों के लिए समय पर अच्छा भोजन तैयार करने के लिए कहा जाए तो क्या वे कर पाएंगे? नहीं, न? तब वे समय पर अच्छा भोजन तो क्या खराब भोजन भी नहीं दे सकते। जितने लोग अच्छे भोजन के इंतजार में होंगे उन में से आधों को तो भोजन ही नहीं मिलेगा, शेष में से अस्सी प्रतिशत कच्चा-पक्का पाएंगे। जो लपक-झपक में होशियार होंगे वे वहाँ भी अच्छा माल पा जाएंगे। यही हो रहा है न्यायपालिका के साथ। उस पर क्षमता से पाँच गुना अधिक बोझा है, यह उस की सब से पहली और सब से बड़ी लाचारी है। फिर कानून तो विधायिका बनाती है, न्यायपालिका उस की केवल व्याख्या करती है। यदि पुलिस किसी निरपराध पर इल्जाम लगाए और उसे बंद कर दे तो न्यायपालिका उसे जमानत पर छोड़ सकती है लेकिन मुकदमे की री लंबाई  नापे बिना कोई भी राहत नहीं दे सकती। पहली ही नजर में निरपराध लगने पर भी एक न्यायाधीश बिना जमानत के किसी को नहीं छोड़ सकता। लेकिन सरकार ऐसा कर सकती है, मुख्यमंत्री एक वास्तविक अपराधी के विरुद्ध भी मुकदमा वापस लेने का निर्णय कर सकती है, और करती है। क्या आप अक्सर ही अखबारों में नहीं पढ़ते कि राजनेताओं के विरुद्ध मुकदमे वापस लिए गए। इस पर अदालत कुछ नहीं कर सकती। उसे उन अपराधियों को छोड़ना ही पड़ता है। अब आप ही कहिए कि न्यायपालिका लाचार है या नहीं? 
कुछ भी हो, मुझे बड़े भाई ज्ञानदत्त पाण्डे बहुत पसंद हैं, वे वास्तव में 'मानसिक हलचल' के स्वामी हैं। वे केवल सोचते ही नहीं हैं, अपितु अपने सभी पाठकों को विचारणीय बिंदु प्रदान करते रहते हैं। अब आप ही कहिए कि आप की पोस्ट पर सब जी हुजूरी, पसंद है या नाइस कहते जाएँ, तो आप फूल कर कुप्पा भले ही हो सकते हैं लेकिन विचार और कर्म को आगे बढ़ाने की सड़क नहीं दिखा सकते। ज्ञानदत्त जी ऐसा करते हैं, वे खम ठोक कर अपनी बात कह जाते हैं और लोगों को विचार और कर्म के पथ पर आगे बढ़ने को बाध्य होना पड़ता है। बिना प्रतिवाद के वाद वाद ही बना रह जाता है सम्वाद की स्थिति नहीं बन सकती, एक नई चीज की व्युतपत्ति संभव नहीं है।