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मंगलवार, 18 जनवरी 2011

अदालतों की लाचारी

वकील जमील अहमद
म कोटा के वकील पिछले दिनों हड़ताल पर थे। लगभग डेढ़ माह के बाद कचहरी में काम आरंभ हुआ। एक बार जब कोई नियमित गतिविधि को लंबा विराम लगता है तो उसे फिर से नियमितता प्राप्त करने में समय लगता है। काम फिर से गति पकड़ने लगा था कि एक वरिष्ठ वकील के देहान्त के कारण आज फिर से काम की गति अवरुद्ध हुई। दोपहर बाद अदालत के कामों से फुरसत पा कर निकला ही था कि कोटा वरिष्ठ अभिभाषकों में सब से अधिक सक्रिय समझे जाने वाले जमील अहमद मुझे मिल गए। दो मिनट के लिए बात हुई। कहने लगे -मुश्किल से अदालती काम गति पकड़ने लगा था कि आज फिर से बाधा आ गई। मैं ने भी उन से सहमति जताई और कहा कि यदि कोई बाधा न हुई तो इस सप्ताह के अंत तक अदालतों का काम अपनी सामान्य गति पा लेगा। उन्हों ने कहा कि वे जिला जज के सामने एक मुकदमे में बहस के लिए उपस्थित हुए थे। लेकिन खुद जज साहब ने बहस सुनने से मना कर दिया और कहा कि आज तो शोकसभा हो गई है बहस तो नहीं सुनेंगे। दूसरे काम निपटाएंगे। मैं ने कहा -अदालतों के पास इतना अधिक काम है कि, जब भी इस तरह का विराम न्यायाधीशों को मिलता है तो वे लंबित पड़े कामों को निपटाने लगते हैं। 
बात निकली थी तो मैं ने उन्हें पूछा कि एक अदालत के पास मुकदमे कितने होने चाहिए? उन्हों ने कहा कि एक दिन की कार्य सूची में एक अदालत के पास दस दीवानी और दस फौजदारी मुकदमे ही होने चाहिए, तभी साफ सुथरा काम संभव है, न्याय किया जा सकता है। 
मुझे अपने सवाल का पूरा उत्तर नहीं मिला था। मैं ने तुरंत अगला सवाल दागा -एक मुकदमे में दो सुनवाइयों के बीच कितना अंतर होना चाहिए?  उन का उत्तर था कि हर मुकदमे में हर माह कम से कम एक सुनवाई तो अवश्य ही होनी चाहिए। मैं ने तुरंत ही हिसाब लगा कर बताया कि माह में बीस दिन अदालतों में काम होता है। इस तरह तो एक अदालत के पास कम से कम चार सौ और अधिक से अधिक पाँच सौ मुकदमे होने चाहिए, तभी ऐसा संभव है। जब कि हालत यह  है कि एक-एक अदालत के पास चार-चार, पाँच-पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं। 
मील अहमद जी का कहना था कि, इसी कारण से तो न्यायालय इतनी जल्दबाजी में होते हैं कि वे पूरी बात को सुनते तक नहीं। इस से न्याय पर प्रभाव पड़ रहा है। अदालतें सिर्फ आँकड़े बनाने में लगी हैं, न्याय ठीक से नहीं हो पा रहा है। होता भी है तो कोई उस से संतुष्ट नहीं है। लोगों को लगता है कि उन के साथ न्याय नहीं हो रहा है। जब कि एक सिद्धांत यह भी है कि न्याय होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना और महसूस भी होना चाहिए। 
ब आप ही सोचिए कि जब अदालतों के पास उन की सामान्य क्षमता से पाँच से दस गुना अधिक काम होगा तो वे किस तरह कर सकती हैं? एक बैंक क्लर्क को नौकरी से निकाल दिया गया था। उस का मुकदमा अदालत तक पहुँचने में तीन वर्ष लग गए। आज उस की पेशी थी। बैंक के वकील ने आज पहली बार उपस्थिति दे कर दावे का जवाब प्रस्तुत करने के लिए समय चाहा था। अदालत ने सुनवाई के लिए अगली पेशी जून या जुलाई में देने की पेशकश की थी। बहुत हुज्जत करने के बाद अप्रेल के अंतिम सप्ताह में हम सुनवाई निश्चित करा सके। .यह मुकदमा ऐसा है कि कम से कम पच्चीस सुनवाइयाँ इसे निपटाने में लगेंगी। यदि इसी तरह छह-छह माह में सुनवाई होती रही तो मुकदमा निपटने में कम से कम दस वर्ष तो लग जाएंगे। तब तक बैंक क्लर्क की सेवा निवृत्ति की आयु हो चुकी होगी। लेकिन इस मामले में अदालत करे भी तो क्या? न्यायालय के पास साढ़े चार हजार मुकदमे हैं। वह हर मुकदमे में छह माह बाद सुनवाई करे तो भी उसे प्रत्येक दिन कम से कम चालीस मुकदमे सुनवाई के लिए रखने होंगे। जिन में से अधिक से अधिक बीस की सुनवाई की जा सकती है वह भी तब जब कि किसी पक्ष को यह अहसास नहीं होगा कि उस के साथ न्याय हो रहा है। 
जितने मामले अदालतों में लंबित हैं उस के मुकाबले अदालतों की संख्या बीस प्रतिशत है। यही न्यायपालिका की सब से बड़ी और प्राथमिक लाचारी है। इस लाचारी की उत्पत्ति सरकारों के कारण है कि वे पर्याप्त संख्या में अदालतें स्थापित नहीं कर सकी हैं।

रविवार, 16 जनवरी 2011

मुझे ज्ञानदत्त पाण्डे क्यों पसंद हैं?

पिछले दिनों अनवरत की पोस्टों पर आज ज्ञानदत्त जी पाण्डे की दो टिप्पणियाँ मिलीं। सारा पाप किसानों का पर उन की टिप्पणी थी,"सबसिडी की राजनीति का लाभ किसानों को कम, राजनेताओं को ज्यादा मिला।" बहुत पाठक इस पोस्ट पर आए, उन में से कुछ ने टिप्पणियाँ कीं।  लगभग सभी टिप्पणियों में किसान की दुर्दशा को स्वीकार किया गया और राजनीति को कोसा गया था। ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी भी इस से भिन्न नहीं है। मेरी पूरी पोस्ट में कहीं भी सबसिडी का उल्लेख नहीं था। लेकिन ज्ञानदत्त जी ने अपनी टिप्पणी में इस शब्द का प्रयोग किया और इस ने ही उन की टिप्पणी को विशिष्ठता प्रदान कर दी। यह तो उस पोस्ट की किस्मत थी कि ज्ञानदत्त जी की नजर उस पर बहुत देर से पड़ी। खुदा-न-खास्ता यह टिप्पणी उस पोस्ट पर सब से पहले आ गई होती तो बाद में आने वाली टिप्पणियों में मेरी पोस्ट का उल्लेख गायब हो जाता और 'सबसिडी' पर चर्चा आरंभ हो गई होती। 
वास्तविकता यह है कि हमारा किसान कभी भी शासन और राजनीति की धुरी नहीं रहा। उस के नाम पर राजनीति की जाती रही जिस की बागडोर या तो पूंजीपतियों के हाथ में रही या फिर जमींदारों के हाथों में। एक सामान्य किसान हमेशा ही पीछे रहा। किसानों के नाम पर हुए बड़े बड़े आंदोलनों में किसान को मुद्दा बनाया गया। लेकिन आंदोलन से जो हासिल हुआ उसे लाभ जमींदारों को हुआ और राजनेता आंदोलन की सीढ़ी पर चढ़ कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचे। जो नहीं पहुँच सके उन्हें अनेक सरकारी पद हासिल हो गए। किसान फिर भी छला गया। जब भी किसान को नुकसान हुआ उसे सबसिडी से राहत पहुँचाने की कोशिश की गई। सबसिडी की लड़ाई लड़ने वाले नेता वोटों के हकदार हो गए, कुछ वोट घोषणा करने वाले बटोर ले गए। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ कि खुद किसानों का कोई अपना संगठन नहीं है। जो भी किसान संगठन हैं, उन का नेतृत्व जमींदारों या फिर मध्यवर्ग के लोगों के पास रहा, जिस का उन्हों ने लाभ उठाया। इस तरह आज जरूरत इस बात की है कि किसान संगठित हों और किसान संगठनों का काम जनतांत्रिक तरीके से चले। अपने हकों की लड़ाई लड़ते हुए किसान शिक्षित हों, अपने मित्रों-शत्रुओं और  हितैषी बन कर अपना खुद का लाभ उठाने वालों की हकीकत समझने लगें।  फिर नेतृत्व भी उन्हीं किसानों में से निकल कर आए। तब हो सकता है कि किसान छला जाए।
सी तरह अनवरत की ताजा पोस्ट लाचार न्यायपालिका और शक्तिशाली व्यवस्थापिका पर ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी है कि 'लाचार न्यायपालिका? कुछ हजम नहीं हुआ!' उन की बात सही है, न्यायपालिका राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है, जनतंत्र में उसे राज्य का तीसरा खंबा कहा जाता है। उस की ऐसी स्थिति और उसी को लाचार कहा जाए तो यह बात आसानी से हजम होने लायक नहीं है। लेकिन न्यायपालिका वाकई लाचार हो गई है। यदि न हुई होती तो मुझे अपनी पोस्ट में यह बात कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि बात आसानी से हजम होने वाली होती तो भी मुझे उस पर लिखने की प्रेरणा नहीं होती। अब आप ही बताइए, महाराज अच्छा भोजन बनाते हैं, समय पर बनाते हैं। पर कितने लोगों के लिए वे समय पर अच्छा भोजन बना सकते हैं, उस की भी एक सीमा तो है ही। वे बीस, पचास या सौ लोगों के लिए ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं। लेकिन जब उन्हें हजार लोगों के लिए समय पर अच्छा भोजन तैयार करने के लिए कहा जाए तो क्या वे कर पाएंगे? नहीं, न? तब वे समय पर अच्छा भोजन तो क्या खराब भोजन भी नहीं दे सकते। जितने लोग अच्छे भोजन के इंतजार में होंगे उन में से आधों को तो भोजन ही नहीं मिलेगा, शेष में से अस्सी प्रतिशत कच्चा-पक्का पाएंगे। जो लपक-झपक में होशियार होंगे वे वहाँ भी अच्छा माल पा जाएंगे। यही हो रहा है न्यायपालिका के साथ। उस पर क्षमता से पाँच गुना अधिक बोझा है, यह उस की सब से पहली और सब से बड़ी लाचारी है। फिर कानून तो विधायिका बनाती है, न्यायपालिका उस की केवल व्याख्या करती है। यदि पुलिस किसी निरपराध पर इल्जाम लगाए और उसे बंद कर दे तो न्यायपालिका उसे जमानत पर छोड़ सकती है लेकिन मुकदमे की री लंबाई  नापे बिना कोई भी राहत नहीं दे सकती। पहली ही नजर में निरपराध लगने पर भी एक न्यायाधीश बिना जमानत के किसी को नहीं छोड़ सकता। लेकिन सरकार ऐसा कर सकती है, मुख्यमंत्री एक वास्तविक अपराधी के विरुद्ध भी मुकदमा वापस लेने का निर्णय कर सकती है, और करती है। क्या आप अक्सर ही अखबारों में नहीं पढ़ते कि राजनेताओं के विरुद्ध मुकदमे वापस लिए गए। इस पर अदालत कुछ नहीं कर सकती। उसे उन अपराधियों को छोड़ना ही पड़ता है। अब आप ही कहिए कि न्यायपालिका लाचार है या नहीं? 
कुछ भी हो, मुझे बड़े भाई ज्ञानदत्त पाण्डे बहुत पसंद हैं, वे वास्तव में 'मानसिक हलचल' के स्वामी हैं। वे केवल सोचते ही नहीं हैं, अपितु अपने सभी पाठकों को विचारणीय बिंदु प्रदान करते रहते हैं। अब आप ही कहिए कि आप की पोस्ट पर सब जी हुजूरी, पसंद है या नाइस कहते जाएँ, तो आप फूल कर कुप्पा भले ही हो सकते हैं लेकिन विचार और कर्म को आगे बढ़ाने की सड़क नहीं दिखा सकते। ज्ञानदत्त जी ऐसा करते हैं, वे खम ठोक कर अपनी बात कह जाते हैं और लोगों को विचार और कर्म के पथ पर आगे बढ़ने को बाध्य होना पड़ता है। बिना प्रतिवाद के वाद वाद ही बना रह जाता है सम्वाद की स्थिति नहीं बन सकती, एक नई चीज की व्युतपत्ति संभव नहीं है।

शनिवार, 15 जनवरी 2011

लाचार न्यायपालिका और शक्तिशाली व्यवस्थापिका

दिसम्बर 13 को ही मेरे सहायक वकील नन्दलाल जी ने मुझे ताजा वाकया सुनाया। एक गरीब को पकड़ कर लाया गया था। उस पर आरोप था कि उस के पास से प्रतिबंधित लंबाई का धारदार चाकू बरामद हुआ है जो कि शस्त्र अधिनियम का उल्लंघन है। जैसे ही पुलिस ने मजिस्ट्रेट के पास उस की गिरफ्तारी के कागजात पेश किये गए जमानत पर छोड़े जाने का आदेश दे दिया गया। जब वे अपने मुवक्किल की ओर से बोलने लगे तो मजिस्ट्रेट ने कहा कि वकील साहब जमानत ले तो ली है अब क्या कहना है। तब उन्हों ने कहा, वह तो ठीक है, पर मुलजिम कुछ कहना चाहता है उस की बात तो सुनिए। तब मजिस्ट्रेट से अभियुक्त अपनी व्यथा कहने लगा....
'साSब! मजदूरी करता हूँ, कल बहुत थक गया था, थकान से रात को नींद भी नहीं आती। पगार मिली तो एक थैली दारू पी गया। घर लौट रहा था कि दरोगा जी मिले। मुझ से रुपये मांगने लगे। रुपये उन को दे देता तो घर पर क्या देता? मैं ने मना कर दिया। दरोगा जी ने थाने में बिठा लिया। घर खबर पहुँची तो बीबी थाने पहुँची मैं ने दरोगा जी के बजाये रुपये उसे दे दिए। दरोगा जी ने चाकू का झूठा मुकदमा बना दिया।'
जिस्ट्रेट ने वकील से कहा, आप जानते हैं मैं अभी कुछ नहीं कर सकता। मुकदमे की सुनवाई के समय इस बात को ध्यान में रखेंगे। 
धर उत्तर प्रदेश में बसपा विधायक पर बलात्कार करने का आरोप लगाने वाली दलित लड़की शीलू को विधायक द्वारा की गई चोरी की रिपोर्ट पर तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। वह महीने भर जेल में रही और विधायक मजे में खुला घूमता रहा। मामला मुख्यमंत्री की निगाह में आने और क्राइमब्रांच के अन्वेषण से बलात्कार का आरोप सही और लड़की पर चोरी का आरोप बचाव में की गई कार्यवाही पाए जाने पर मुख्यमंत्री मायावती ने अपने जन्मदिवस पर विधायक व उस के साथियों को गिरफ्तार करने और लड़की को रिहा करने का आदेश दिया। अब विधायक तथा उस के तीन साथी जेल में हैं और लड़की को रिहा कर दिया गया है। 
पीड़ित लड़की दलित थी, यदि वह दलित न हो कर सवर्ण होती तो भी क्या मायावती का निर्णय ऐसा ही होता? राज्य में कानून और व्यवस्था के लिए पुलिस, मजिस्ट्रेट और अदालतें हैं। लेकिन गलती से या जानबूझ कर गिरफ्तार निरपराध व्यक्ति को रिहा करने का आदेश सरकार तो दे सकती है लेकिन अदालत नहीं। क्या हमारी अदालतें इतनी ही मजबूर हैं कि वे प्रारंभिक स्तर पर कोई निर्णय नहीं ले सकतीं? जब ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती हैं तो सचमुच हमारी न्यायपालिका लाचार दिखाई पड़ने लगती है, और व्यवस्थापिका इतनी शक्तिशाली कि लोग उस की हाँ में हाँ मिलाते रहें। एक बात और कि इस मामले में शीलू भाग्यशाली निकली जो उसे महीने भर में ही राहत मिल गई लेकिन उन हजारों लोगों का क्या जो अपनी गरीबी और बेजुबानियत के कारण जेलों में यातनाएँ सह रहे हैं।