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मंगलवार, 5 सितंबर 2017

कुटाई वाले गुरूजी

पिताजी अध्यापक थे, और तगड़ी कुटाई वाले थे। स्कूल में अक्सर उन के हाथ मे डेढ़ फुट लंबा काले रंग का डंडा हुआ करता था। पर वो डराने के लिए होता था, मैंने कभी उस का प्रयोग किसी पर मारने के लिए करते उन्हें नहीं देखा। हाँ हाथों और लातों का वे जम कर प्रयोग करते थे। उन की ये कुटाई आसानी से शुरू नहीं होती थी। पर जब हो जाती थी तो दूसरे ही उन्हें रोकते थे उन का खुद का रुकना तो लगभग असंभव था। मैं एक बार स्कूल में उस कुटाई का शिकार हुआ था। उस का किस्सा फिर कभी शेयर करूंगा। पर घर पर तो साल में दो-एक बार अपनी पूजा हो ही जाती थी। वैसे उन में एक बात बहुत अच्छी थी कि वे ठहाके लगाने में कम न थे। यदि वे बाहर होते तो उन के लौटने की सूचना बाहर कहीं उन के ठहाके की आवाज से हो जाती थी। इधर घर में दादाजी और दादी जी के सिवा सब सतर्क हो जाते थे।

हुआ ये कि हम बाराँ में दादा दादी के साथ रहते थे, पिताजी मोड़क स्टेशन पर मिडिल स्कूल के हेड मास्टर थे और महीने में एक दो बार ही घर आ पाते थे। मुझे पेचिश हो गयी थी, जो कभी कभी कम हो जाती थी, पर मिटती नहीं थी। वैद्य मामाजी की सब दवाइयाँ असफल हो गयी थीं। पेचिश के कारण मुझ पर खाने पीने की इतनी पाबंदियाँ थीं कि मै तंग आ गया था। आखिर दादा जी ने पिताजी को डाँटा कि छोरे को चार माह से पेचिश हो रही है, खून आने लगा है, और तुझे कोई परवाह ही नहीं है। किसी डाक्टर को दिखा के, बैज्जी की दवाई बहुत हो गयी। छोरे के हाड ही नजर आने लगे हैं। आखिर पिताजी डाक्टर के यहाँ ले जाने को तैयार हुए।

उन दिनों दो डाक्टर पिताजी के शिष्य थे और बाराँ सरकारी अस्पताल में ही तैनात थे। घरों पर भी मरीज देखते थे। उन में एक डाक्टर बी.एल चौरसिया थे। उन के पास ले गए। डाक्टर चौरसिया अक्सर हाड़ौती में ही बोलते थे। पिताजी मुझे ले कर उन के पास पहुँचे। मेरी तकलीफ डाक्टर को बताई। तो डाक्टर बोला -बस गुरूजी अतनी सीक बात छे, टट्टी बन्द न होरी नै। अब्बाणू कराँ छा बन्द। (बस गुरूजी, इतनी सी बात है, टट्टी बन्द नही हो रही है। अभी कर देते हैं।)
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डाक्टर ने अपने पास वाली अलमारी खोली और सैंपल की दवा निकाली। चार गोली थी। कहा -देखो या गोळी एक अबाणू दे द्यो। एक रात में सोती बखत दे दीज्यो। जे खाल टट्टी बंद हो ज्या तो मत दीजो। अर न होव तो खाल रात मैं एक दे दीजो। बस काम खतम। (देखो ये गोली अभी दे दो, एक रात में सोते समय दे देना। जो कल टट्टी कल बंद  हो जाएँ तो ठीक नहीं तो एक कल रात को सोते समय दे देना। बस काम हो जाएगा।)

पिताजी ने डाक्टर को फीस देने के लिए जेब से रुपए निकाले।डाक्टर बोला- रैबादो गुरूजी, फीस तो अतनी दे दी कै दस जनम ताईं भी पूरी न होव। म्हूँ डाक्टर ही बणग्यो। थानँ अतनो मार्यो छे कै हाल ताइँ भी मोर का पापड़ा दूखे छे। पण एक बात छे थाँ ने म्हाँई आदमी बणा द्या। नै तो गनखड़ा की नाई गर्याळान मैं ई भैराता फरता। (रहने दो गुरूजी फीस तो आप इतनी दे चुके कि दस जनम तक भी समाप्त नहीं होगी। मुझे डाक्टर ही बना दिया। आपने इतना मारा है कि अभी तक पीठ की पेशियाँ दुखती हैं। पर एक बात है कि हमें आदमी बना दिया वर्ना कुत्तों की तरह गलियों में ही चक्कर लगाते रहते)

इतना कह कर डाक्टर चौरसिया ने जो कर ठहाका लगाया तो पिताजी ने उस का भरपूर साथ दिया। मैं तो उन दोनों को अचरज से देखता रह गया।

रविवार, 3 जुलाई 2011

पिता जी का जन्मदिन

मुझे पिताजी के साथ बहुत कम रहने का अवसर मिला। हुआ यूँ कि वे अध्यापक हुए तो बाराँ में उन का पदस्थापन हुआ। मुझे पता नहीं कि जब मैं पैदा हुआ तो उन का पदस्थापन कहाँ था। पर उस साल वे कुल 22 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापक थे। चाचा जी बारां में रह कर पढ़ते थे इसलिए माँ को बाराँ ही रहना पड़ता था। छह वर्ष में बाराँ जाना पहचाना नगर हो चुका था। वे अकेले ही कस्बे में रहते और साप्ताहिक अवकाश के दिन बाराँ आ जाते। जिस रात मेरा जन्म हुआ वे मेरी दादी को लेने गाँव गए हुए थे और माँ और चाचाजी अकेले थे। जब मैं दो ढाई वर्ष का हुआ तो एक मंदिर में पुजारी चाहिए था। मंदिर के मालिकान दादा जी को गाँव से ले आए, दादी और बुआ भी वहीं आ गईं। दादाजी का सारा परिवार वहीं आ गया था। मंदिर का काम पुजारी के अकेले के बस का न था। सारा परिवार उसी में जुटा रहता। पिताजी अक्सर नौकरी पर बाहर रहते। उन से सिर्फ अवकाशों में मुलाकात होती या फिर तब उन के साथ रहने का अवसर मिलता जब दीपावली के बाद वे माँ को और मुझे साथ ले जाते। गर्मी की छुट्टियाँ होते ही हम वापस बाराँ आ जाते। एक वर्ष वे शिक्षक प्रशिक्षण के लिए चले गए। कुछ वर्ष उन का पद स्थापन बाराँ में ही रहा तब उन के साथ रहने का अवसर मिला। 

वे कर्मयोगी थे। हर काम खुद कर लेते। भोजन बनाने का इतना शौक था कि कहीं कोई नया पकवान खाने को मिलता तो विधि पूछ कर आते और तब तक बनाने का प्रयत्न करते जब तक उसे श्रेष्ठता तक पकाना न सीख जाते। अक्सर अवकाश पर जब वे घर होते तो उन के कुछ मित्र भोजन पर आमंत्रित रहते, वे पकाते, अम्माँ मदद करतीं। हम परोसने आदि का काम करते। जब मैं बारह वर्ष का हुआ तो उन्हों ने मुझे भोजन बनाना सिखाया। सब से मुश्किल काम एक-दम  गोल चपाती बेलना था। जिसे वे बहुत खूबसूरती से करते थे। आटे का लोया चकले पर रखते और बेलन को ऐसा घुमाते कि एक बार में ही पूरी रोटी बेल देते, वह भी एकदम गोल। अम्माँ और घर की दूसरी महिलाएँ भी उतनी गोल चपाती न बेल पातीं। वे जिस भी विद्यालय में होते वहाँ सब से कनिष्ट होते हुए भी विद्यालय का सारा प्रशासन संभाल लेते। प्रधानाध्यापक प्रसन्न रहता, उसे कुछ करना ही न पड़ता। विद्यार्थी और उन के अभिभावक भी उन से प्रसन्न रहते। वे संस्कृत, गणित, अंग्रेजी, भूगोल के अच्छे शिक्षक होने के साथ वैद्य भी थे। विद्यालय में हमेशा एक प्राथमिक चिकित्सा का किट बना कर रखते और अक्सर उस का उपयोग करते। घर पर बहुत सी दवाएँ हमेशा रखते। परिजनों के साथ वे मित्रों आदि की चिकित्सा भी करते। दवाई की कीमत कभी न लेते। वे अच्छे स्काउट भी थे। अक्सर अपने क्षेत्र में लगने वाले प्रत्येक स्काउट केम्प के मुख्य संचालक होते।
नुशासनहीनता उन्हें बर्दाश्त न थी। इस कारण मुझे उन से अनेक बार पिटना पड़ा। पिटाई करते समय वे बहुत बेरहम हो जाते। फिर भी मुझे कभी उन से शिकायत न हुई। उन की आँखों में जो प्रेम होता था, वह सब कुछ भुला देता था। पिताजी मेरा जन्मदिन हमेशा मनाते, शंकर जी का अभिषेक कराते, ब्राह्मणों को भोजन कराते और उन के मित्रों को भी। मुझे भी कुछ न कुछ उपहार अवश्य ही मिलता था। कुछ बड़ा हुआ तो पिताजी के नौकरी पर बाहर रहने के कारण घर के बहुत से काम मुझे ही करने पड़ते। वे जब भी आते हमेशा दादी और दादाजी की सेवा में लगे रहते। मैं सोचता था कि पिताजी के सेवानिवृत्त हो जाने के उपरांत मैं भी पिताजी और अम्माँ की ऐसे ही सेवा करूंगा। लेकिन मुझे पिताजी के सेवानिवृत्त होने के पहले ही बाराँ छोड़ कर वकालत के लिए कोटा आना पड़ा। पिताजी ने मुझे ऐसा करने से रोका नहीं। बहुत बाद में मुझे यह अहसास हुआ कि वे मेरे इस फैसले से खुश न थे। सेवानिवृत्त होने पर वे बाराँ रहने लगे। तब वे स्वैच्छिक काम करना चाहते थे। लेकिन उन के पूर्व विद्यार्थियों ने उन से आग्रह किया कि वे कम से कम उन की बेटियों को अवश्य पढ़ाएँ। वे फिर पढ़ाने लगे। लड़कियाँ घर पढ़ने आतीं। उन का घर बेटियों से भरा रहने लगा। एक रात मुझे खबर मिली कि वे हमें छोड़ कर चले गए। तब उन की उम्र बासठ वर्ष की ही रही होगी। मुझे हमेशा यह अवसाद रहेगा कि मुझे उन की सेवा का अवसर न मिला। परिस्थितियाँ ऐसी रहीं कि माँ भी अभी तक मेरे साथ नहीं रह सकीं। 

कुछ दिन पूर्व आयोजन में हाडौ़ती/हिन्दी के ख्यात कवि/गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा से मुलाकात हुई। मैं जब भी उन से मिलता हूँ लगता है अपने पिताजी के सामीप्य में हूँ। जिस वर्ष मेरा जन्म हुआ था तब वे और पिताजी एक ही स्कूल में अध्यापक थे। वहाँ दोनों ने मिल कर अध्यापकों द्वारा ट्यूशन पढ़ाने की प्रथा को तोड़ा था और वे दोनों विद्यार्थियों को अपने घर बुला कर निशुल्क पढ़ाने लगे थे। हाड़ा जी साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में झालावाड़ से पधारे थे। कार्यक्रम के तुरंत बाद उन्हें झालावाड़ जाना था। मैं ने उन्हें अपनी कार में बस स्टेंड तक छोड़ने का प्रस्ताव किया। वे राजी हो गए। इस तरह मुझे कुछ घड़ी अपने पिता के एक साथी के साथ रहने का अवसर मिला। मुझे अहसास हुआ कि जैसे पिताजी भी कहीं समीप ही हैं। 

षाढ़ मास के शुक्लपक्ष की द्वितिया देश, दुनिया में रथयात्रा के रूप में मनाई जाती है। पिताजी का जन्म इसी दिन हुआ था। हम इस दिन को हमेशा पिताजी के जन्मदिन के रूप में मनाते।  इस दिन घर में चावल, अमरस बनते और पूरा परिवार इकट्ठे हो कर भोजन करता। आज भी हम ने घर में चावल, अमरस बना है साथ में अरहर की दाल है।  हम भोजन करते हुए पिताजी को स्मरण कर रहे हैं।

शनिवार, 25 जून 2011

एक और असहाय औरत

सा नहीं है कि ब्लाग जगत में वृद्धजनों की उपेक्षा और उन की समस्याओं पर विचार न हुआ हो। पहले भी समय समय पर विचार होता रहा है। हो सकता है कोई ब्लाग भी केवल वृद्धजनों पर बना हुआ हो।  लेकिन अनवरत की पोस्ट मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है और कैसी होगी, नई आजादी? के बाद इस विषय पर अनेक ब्लागों पर पोस्टें लिखी गई और एक बहस इस बात पर छिड़ गई कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। इस के पीछे क्या कारण हैं। हम इस विषय पर अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। लेकिन वे एकांगी ही होंगे। क्यों कि हम अपनी अपनी दृष्टि से उन पर विचार करेंगे। वास्तविकता तो यह है कि भारत एक विशाल देश है और इस देश में अनेक वर्ग हैं। हर वर्ग में इस समस्या के अनेक रूप हैं। लेकिन हर जगह पर कमोबेश हमें वृद्धजनों की उपेक्षा दिखाई पड़ती है। वास्तव में इस समस्या पर समाजशास्त्रीय शोध होना चाहिए। शोध में आए निष्कर्षों पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उस पर विचार करते हुए समस्या की जड़ों को खोजने का प्रयत्न होना चाहिए। इस दिशा में हो सकता है कुछ शोध हो भी रहे हों। यदि हम समस्या की जड़ों तक पहुँचें तो फिर उन्हें नष्ट करने का सामाजिक प्रयास किया जा सकता है। 

क्त दोनों पोस्टों में जिस घटना का उल्लेख किया गया है वह एक सामान्य निम्न मध्यवर्गीय परिवार के बीच घटित हुई थी। लेकिन इसी नगर में तीन दिन बाद ही एक दूसरी घटना सामने आई जो इस समस्या का दूसरा पहलू दिखा रहा है। आप को उस की बानगी दिखाए देते हैं ...

हुआ यूँ कि प्रभात  मजदूर वर्ग से है। उस ने कड़ी मेहनत से कमाई की और किसी तरह बचत करते हुए    यहाँ छावनी इलाके में एक दो मंजिला मकान बना लिया। भूतल के चार कमरों में किराएदार रखे हुए हैं और प्रथम तल उस के स्वयं के पास है। उस के तीन बेटियाँ और एक बेटा राजेश है। सभी बेटियाँ शादीशुदा हैं और भोपाल में रहती हैं। प्रभात भी अक्सर अपनी बेटियों के पास ही रहता है। कभी कभी कुछ समय के लिए कोटा आ कर रहता है। किराएदारों से किराया वसूलता है और वापस भोपाल चला जाता है। राजेश को शराब की लत लग गई। पिता ने उसे घर से निकाल दिया। राजेश उदयपुर जा कर मजदूरी करने लगा। वहाँ उसे शराब पीने से रोकने वाला कोई नहीं था। वह अधिक पीने लगा। धीरे-धीरे शराब ने उस के शरीर को इतना जर्जर कर दिया कि वह बीमार रहने लगा और आखिर डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया। इस बीच उस की पिता से बात हुई होगी तो पिता ने उसे कह दिया कि वह कोटा आ कर क्यों नहीं रहता है। हो सकता है उस ने पिता को शराब के कारण हुई अपनी असाध्य बीमारी के बारे में न बताया हो। 

चानक 13 वर्ष बाद राजेश अपनी पत्नी चंद्रिका के साथ कोटा पहुँच गया। उन के कोई संतान नहीं है। पिता ने बेटे-बहू को आया देख कर उन्हें घर में घुसने नहीं दिया और खुद मकान के ताला लगा कर कहीं निकल गया। हो सकता है वह बेटियों के पास भोपाल चला गया हो। दो दिन तक राजेश-चंद्रिका घर के बाहर ही बैठे रहे। इस बीच लगातार बारिश होती रही। दोनों ने सामने के मकान के छज्जे के नीचे पट्टी पर सोकर उन्हों ने रात गुजारी। सुबह जब तेज बारिश में दरवाजे के बाहर लोगों ने उन्हें बैठे देख पूछताछ की। उन्होंने लोगों सारा घटनाक्रम बताया दिया। उनका कहना था कि पिता जब तक मकान में घुसने नहीं देंगे, तब तक वो यहीं बैठे रहेंगे। इस पर लोगों ने पुलिस को सूचना दी। पुलिस बेटे-बहू को समझा कर थाने लेकर गई। वहां बेटे ने पिता के खिलाफ पुलिस को शिकायत दी है। पुलिस मामले की जांच कर रही है। फिलहाल पिता वापस नहीं लौटे है। पिता की तलाश जारी है। 

ह परिवार पहले वाले परिवार से भिन्न है। यहाँ बेटे को इकलौता होते हुए भी पिता ने घर से निकाल दिया। बेटा भी ऐसा गया कि उस ने 13 वर्ष तक घर का मुहँ नहीं देखा। शराब ने उस के शरीर को जब जर्जर कर दिया और डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया। उसे लगने लगा कि अब वह जीवित नहीं रहेगा तो अपनी पत्नी को ले कर अपने पिता के पास आ गया। उस की मंशा शायद यह रही हो कि अब उस की हालत देख कर उस के पिता उस पर रहम करेंगे और उस का इलाज ही करा देंगे। यदि इलाज न हो सका तो कम से कम उस के मरने के बाद उस की पत्नी को रहने का ठिकाना तो मिल ही जाएगा। यहाँ यह लग सकता है कि बेटा जब कुपथ पर चला गया तो घर से उसका निष्कासन करना सही था। लेकिन आज जब बेटा बीमारी से मरने बैठा है तो उसे घर में न घुसने देना कितना उचित है? एक पुत्र अपने पिता के संरक्षण में कुपथ पर कैसे चला गया?  पिता सिर्फ अपनी कमाई को जोड़ कर घर बनाता रहा और पुत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया और वह कुपथ पर गया तो उसे सुधारने का प्रयत्न किए बिना उस का घर से निष्कासन कर देना क्या उचित कहा जा सकता है? बेटे ने 13 वर्ष कैसे गुजारे किसी को पता नहीं। बेटे का विवाह बेटे ने स्वयं किया है या उस के पिता ने उस का विवाह निष्कासन के पहले कर दिया था, यह पता नहीं है। 

र इस सब में बेटे की पत्नी का क्या कसूर है? उस के पास तो इस के सिवा कोई सहारा नहीं है कि वह मजदूरी करे और अपना जीवन यापन करे। कम से कम कानून उसे अपने पति के पिता से कोई मदद प्राप्त करने का अधिकार प्रदान नहीं करता। चूंकि वह अपने ससुर के साथ नहीं रही है। इस कारण से घरेलू हिंसा कानून भी उस की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिर परिवार का क्या अर्थ रह गया है?

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

रक्षा न करने के अपराधी

स दिन मेरे निर्माणाधीन मकान में आरसीसी छत में कंक्रीट डाली जानी थी। मैं पहुँचा, तो  मजदूर आ चुके थे। वे सभी मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के भील आदिवासी थे। हमारे यहाँ उन्हें मामा कहते हैं और स्त्रियों को मामी। उन के बच्चे भी साथ थे। एक मामी ने एक बल्ली उठाई और पास में खड़े खंबे से तिरछा कर के बांध दिया। फिर उस बल्ली पर रस्सी का एक झूला बनाया और कपड़े से झोली डाल दी। उधर रेत में कपड़ा बिछा कर एक गोद का बच्चा लिटाया हुआ था। मामी ने उसे उठाया और झूले के पास बैठ कर उसे अपना दूध पिलाया और झोली में लिटा कर झुलाने लगी। कुछ ही मिनटों में वह सो गया। मामी उठ कर काम पर लग गई। दिन में काम करते हुए बीच-बीच में वह बच्चे को संभालती रही। ये वे लोग थे जिन की जरूरतें अधिक नहीं बढ़ी थीं। बस कुछ काम चलाने लायक कपड़े। सुबह शाम भोजन चाहिए था उन्हें कुछ वे बचा कर भी रखते थे, बुरे दिनों के लिए या फिर देस में जा कर खेती को कुछ सुधारने या घर को ठीक करने के लिए। वे अपने बच्चों से प्रेम करते हैं, शायद इतना कि वक्त आने पर अपने बच्चों के प्राणों की रक्षा के लिए शायद अपनी जान भी दे दें। यहाँ तक कि कभी तो औरों की रक्षा के लिए प्राण देते भी लोगों को देखा है। कम से कम उन के पास होते तो बच्चे को बाल भी बाकां न होने दें। 
कुत्ता मनुष्य के साथ रहने वाला प्राणी है। कुतिया चार-पाँच बच्चे एक साथ देती है। जब तक बच्चे खुद जीने लायक नहीं होते उन्हें अपने संरक्षण में रखती है, उन के पास किसी को फटकने तक नहीं देती। यहाँ तक कि उन कुत्तों को भी जिनमें शायद कोई उन बच्चों का पिता भी हो। धीरे-धीरे बच्चे खुद जीने लायक हो जाते हैं। इस बीच यदि उस के बच्चों पर कोई मुसीबत आए तो उस मुसीबत पर खुद मुसीबत बन कर टूट पड़ती है। उस हालत में गली के कुत्ते तो क्या इंसान भी उस कुतिया से खौफ खाने लगते हैं। उस से दूर हो कर निकलते हैं। लेकिन मनुष्य ... ?
जैसे-जैसे उस ने जीने के लिए साधन बनाना आरंभ किया, वैसे-वैसे शायद वह खुदगर्ज होता गया। आज इंसान अपने लिए जीता है। कमाता है, समाज में अपना मान बढ़ाता है, फिर उस मान की रक्षा करने में जुट जाता है। इस मान के लिए वह अपने ही बच्चों का कत्ल तक करने से नहीं चूकता। हम हर साल बहुत सारी मान-हत्याओं को अपने आस-पास होते देखते हैं। वह पिता जिस ने अपनी संतान को पाला-पोसा और बड़ा किया, वह माँ जिसने उसे गर्भ में नौ माह तक अपने खून से सींचा, प्रसव की पीड़ा सही, फिर अपना दूध पिलाया, उस के बाद उसे मनुष्यों की तरह जीना सिखाया वे ही इस मान के लिए अपनी संतान के शत्रु हो गए, उन्हें खुद ही मौत की नींद सुलाने को एकदम तैयार। आखिर यह मान इत्ती बड़ी चीज है क्या?
ब आरूषी की हत्या हुई तो कई दिनों तक मैं ने भी औरों की तरह टी.वी. देखने और अखबारों को पढ़ने में बहुत समय जाया किया।  पहले तीन दिनों की टीवी रिपोर्टें देखने के बाद मैं ने सवाल भी उठाया था कि क्या आरुषि के हत्यारों को सजा होगी?  मैं ने कहा था, "हो सकता है कि अपराधी के विरुद्ध अभियोजन भी हो। लेकिन सबूत इस कदर नष्ट किए जा चुके हैं कि उसे किसी भी अदालत में सजा दिया जाना अभी से असंभव प्रतीत होता है।" अब तो सब को पता है सबूत नष्ट किए जा चुके हैं, अब सीबीआई के मुताबिक शक की सुई खुद आरुषी के माता-पिता की और जाती है लेकिन पर्याप्त सबूत नहीं हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस ने तो पहले ही तलवार को गिरफ्तार कर लिया था, चाहे सबूत उन के पास भी न हों।
म मान लेते हैं कि तलवार दंपति ने आरुषी और हेमराज का खून नहीं किया। लेकिन क्या फिर वे दूध के धुले हैं? मैं और बातों में नहीं जाता। मैं सोचता हूँ, ये कैसे माँ बाप हैं। जिन के बगल के कमरे में इकलौती बेटी की हत्या हो गई, नौकर मारा गया, नौकर की लाश छत पर पहुँच गई और वे सोते पड़े रहे। यहाँ तक कि इस बीच इंटरनेट ऑपरेट भी हुआ। क्या दोनों नशे में मदहोश पड़े थे? ऐसे लोगों को क्या बच्चे पैदा करने का हक भी है। उन्हों ने मातृत्व और पितृत्व दोनों को कलंकित किया। हक न होते हुए भी संतान पैदा की। संतान को पालते रहे, लेकिन एक मूल्यवान वस्तु की तरह, सर पर लगी मान की कलगी की तरह। जिसे गंदी होते ही किसी कूडे़ दान में फैंक दिया जाता है। वे बच्चे की हत्या के अपराधी भले ही न हों लेकिन वे अपनी ही संतान की रक्षा न कर पाने के अपराधी तो हैं हीं। उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

ब्लागीरी को अपने काम और जीवन का सहयोगी बनाएँ

सोमवार से शोभा के बाऊजी, और जीजी हमारे बच्चों के नाना जी और नानीजी साथ हैं तो घर में रौनक है।  बच्चों के बाहर रहने से हम दोनों पति-पत्नी ही घर में रहते हैं। कोई भी आता है तो रौनक हो जाती है। बाऊजी अस्सी के होने जा रहे हैं, कोई सात बरस पहले उन्हें मधुमेह ने पकड़ लिया। वे स्वयं नामी ऐलोपैथिक चिकित्सक हैं और इलाके में बालरोग विशेषज्ञ के रूप में विख्यात भी। वे अपने शरीर में शर्करा की मात्रा नियंत्रित रखते हैं। फिर भी मधुमेह ने शरीर पर असर किया है। अब कमर के निचले हिस्से में सुन्नता का अनुभव करते हैं। उन की तंत्रिकाओँ में संचार की गति कुछ मंद हुई है। कोटा के एक ख्यात चिकित्सक को दिखाने आते हैं। इस बार जीजी को भी साथ ले कर आए। हम ने आग्रह किया तो रुक गए। पिछले दो दिनों से लोग उन से मिलने भी आ रहे हैं। लेकिन इन दो दिनों में ही उन्हें अटपटा लगने लगा है। अपने कस्बे में उन बाऊजी के पास सुबह से मरीज आने लगते हैं। वे परिवार के व्यवसायों पर निगरानी भी रखते हैं। जीजी भी सुबह से ही परिवार के घरेलू और खेती कामों पर  निगरानी रखती हैं और कुछ न कुछ करती रहती हैं। यहाँ काम उन के पास कुछ नहीं, केवल बातचीत करने और कुछ घूम आने के सिवा तो शायद वे कुछ बोरियत महसूस करने लगे हों। अब वे वापस घर जाने या जयपुर अपनी दूसरी बेटी से मिलने जाने की योजना बना रहे हैं। मुझे समय नहीं मिल रहा है, अन्यथा वे मुझे साथ ले ही गए होते। हो सकता है कल-परसों तक उन के साथ जयपुर जाना ही हो। सच है काम से विलगाव बोरियत पैदा करता है। 
रात को मैं और बाऊजी एक ही कमरे में सो रहे थे, कूलर चलता रह गया और कमरा अधिक ठंडा हो गया। मैं सुबह उठा तो आँखों के पास तनाव था जो कुछ देर बाद सिर दर्द में बदल गया। मैं ने शोभा से पेन किलर मांगा तो घर में था नहीं। बाजार जाने का वक्त नहीं था। मैं अदालत के लिए चल दिया। पान की दुकान पर रुका तो वहाँ खड़े लोगों में से एक ने अखबार पढ़ते हुए टिप्पणी की कि अब महंगाई रोकने के लिए मंदी पैदा करने के इंतजाम किए जा रहे हैं। दूसरे ने प्रतिटिप्पणी की -महंगाई कोई रुके है? आदमी तो बहुत हो गए। उतना उत्पादन है नहीं। बड़ी मुश्किल से मिलावट कर कर के तो जरूरत पूरी की जा रही है, वरना लोगों को कुछ मिले ही नहीं। अब सरकारी डेयरी के दूध-घी में मिलावट आ रही है। वैसे ही गाय-भैंसों के इंजेक्शन लगा कर तो दूध पैदा किया जा रहा है। एक तीसरे ने कहा कि सब्जियों और फलों के भी इंजेक्शन लग रहे हैं और वे सामान्य से बहुत बड़ी बड़ी साइज की आ रही हैं। मैं ने भी प्रतिटिप्पणी ठोकी -भाई जनसंख्या से निपटने का अच्छा तरीका है, सप्लाई भी पूरी और फिर मिलावट वैसे भी जनसंख्या वृद्धि में कमी तो लाएगी ही।
दालत पहुँचा, कुछ काम किया। मध्यांतर की चाय के वक्त सिर में दर्द असहनीय हो चला। मुवक्किल कुछ कहना चाह रहे थे और बात मेरे सिर से गुजर रही थी। आखिर मेरे एक कनिष्ठ वकील ने एनालजेसिक गोली दी। उसे लेने के पंद्रह मिनट में वापस काम के लायक हुआ। घऱ लौट कर कल के एक मुकदमे की तैयारी में लगा। अभी कुछ फुरसत पाई है तो सोने का समय हो चला है। कल पढ़ा था खुशदीप जी ने सप्ताह में दो पोस्टें ही लिखना तय किया है। अभी ऐसा ही एक ऐलान और पढ़ने को मिला। मुझे नहीं लगता कि पोस्टें लिखने में कमी करने से समस्याएँ कम हो जाएंगी। बात सिर्फ इतनी है कि हम रोजमर्रा के कामों  में बाधा पहुँचाए बिना और अपने आराम के समय में कटौती किए बिना ब्लागीरी कर सकें। इस के लिए हम यह कर सकते हैं कि हमारी ब्लागीरी को हम हमारे इन कामों की सहयोगी बनाएँ। जैसे तीसरा खंबा पर किया जाने वाला काम मेरे व्यवसाय से जुड़ा है और मुझे खुद को ताजा बनाए रखने में सहयोग करता है। अनवरत पर जो भी लिखता हूँ बिना किसी तनाव के लिखता हूँ। यह नहीं सोचता कि उसे लिख कर मुझे तुलसी, अज्ञेय या प्रेमचंद बनना है।

बुधवार, 25 नवंबर 2009

उमंगों की उम्र में कोई क्यों खुदकुशी कर लेता है?

खिर चौदह नवम्बर का दिन तय हुआ, बल्लभगढ़ पूर्वा के यहाँ जाने के लिए। पत्नी शोभा उत्साहित थी। उस ने बेटी के लिए अपने खुद के ब्रांडेड दळ के लड्डू और मठरी बनाई थीं। पिछली बार बेसन के लड्डू जो वह ले गई थी उस में घी के महक देने की शिकायत आई थी। जिसे डेयरी वाले तक पहुँचाया तो उस ने माफी चाही थी कि दीवाली की मांग पर घी पहले से तैयार कर पीपों में भर दिया  गया था इस कारण से महक गया। इस बार शोभा ने खुद कई दिनों तक दूध की मलाई को निकाल कर दही से जमाया और बिलो कर लूण्या-छाछ किया, फिर लूण्या को गर्म कर घी तैयार किया। मुझे बताया गया तब वह महक रहा था, उसी देसी घी की तरह जो हमने बचपन में अपने घर बिलो कर बनाया जाता था। इस घी से बने लड्डू। यह सब तैयारी 13 को ही हो चुकी थी आखिर 14 को सुबह छह बजे की जनशताब्दी से निकलना था। रात नौ बजे पाबला जी को यह समझ फोन मिलाया कि वे दिल्ली पहुँच चुके होंगे। लेकिन तब वे लेट हो चुकी ट्रेन में ही थे जो उस समय बल्लभगढ़ के आसपास ही चल रही थी।
 सुबह हम जल्दी उठे, पति-पत्नी ने स्नान किया, तैयार हुए और बैग उठा कर पास के ऑटो स्टेंड पहुँचे। सुबह के  पाँच बजे थे। तसल्ली की बात थी कि वहाँ दो ऑटो खड़े मिले। न मिलते तो हमारी तैयारी काफूर हो जाती फिर किसी पड़ौसी को तैयार कर 12 किलोमीटर स्टेशन तक छोड़ने को कहना पड़ता। खैर हम ट्रेन के रवाना होने के  बीस मिनट पहले ट्रेन के डिब्बे में थे। पूरी ट्रेन आरक्षित होने के बावजूद एक चौथाई सवारियाँ हमारे पहले ही वहाँ अपना स्थान घेर चुकी थीं। ट्रेन एक मिनट देरी से चली। अभी चंबल पुल भी पार न किया था कि माल बेचने वाले आरंभ हो गए। चाय, कॉफी, दूध और फ्रूटी पेय के अतिरिक्त कुछ न था जो हमारे लिए उपयुक्त होता। शिवभक्त शोभा शादी के पहले से ही सोमवार और प्रदोष का व्रत रखती हैं। हमने खूब कहा कि अब तो जैसा मिलना था वर मिल चुका, अब तो इन्हें छोड़ दे पर उस ने न छोड़ा। (शायद अगले जन्म में हम से अच्छे की चाहत हो)  हम ने सोचा कोई दूसरा इसी जनम में बुक हो गया तो हम तो इन के साथ से वंचित हो जाएंगे। सो हम भी करने लगे, देखें कैसे दूसरा कोई बुक होता है। उस दिन सोमवार नहीं शनिवार था लेकिन प्रदोष था। इस लिए आधुनिक और देसी खाद्यों का विक्रय करने वाले उन रेलवे के हॉकरों का हम पर कोई असर न हुआ।


ट्रेन तेजी से गंतव्य की ओर चली जा रही थी, आधी दूरी से कुछ अधिक ही दूरी तय भी कर चुकी थी। अचानक  हमारे ही कोच में हमारे सामने वाले दूसरे कोने में हंगामा हो गया और वह दृश्य सामने आ गया जो कभी देखा न था। इमर्जैंसी खिड़की के पास से जंजीर खींची गई, ट्रेन न रुकी तो उस के बाद वाले ने, फिर उस के बाद वाले ने एक साथ पाँच स्थानों से जंजीर खींची गई। फिर वेक्यूम पास होने की जोर की आवाज आई और उसका अनुसरण करती ब्रेक लगने की, ट्रेन बीच में खड़ी हो चुकी थी। इसी लाइन पर कुछ दिन पहले ही एक ट्रेन की जंजीर सिपाहियों ने मुलजिम के अपने कब्जे से भाग निकलने के कारण खींची थी और खड़ी ट्रेन को दूसरी ट्रेन ने टक्कर मार दी थी। गार्ड  और कुछ अन्य सवारियों को मृत्यु अपने साथ ले गई। मेरी कल्पना में वही चित्र उभरने लगा था।



हले पता लगा कोई बच्ची खिड़की से गिर गई है। आखिर खिड़की से कैसे गिर गई? खिड़की में तो जंगला लगा है। बताया गया कि वह इमर्जेंसी खिड़की थी और जंगला खिसका हुआ था। फिर भी इस सर्दी में मैं खुद आस पास के शीशे शीतल हवा के आने के कारण बंद करवा चुका था। एक छोटी बच्ची वाले ने उस खिड़की का शीशा कैसे खुला रखा था? समझ नहीं आ रहा था। मैं उठा और उस ओर गया जहाँ से बच्ची के गिरने की बात कही गई थी। वहाँ जा कर पता लगा गिरने वाली बच्ची कोई 20-22 साल की लड़की थी और मर्जी से खिड़की से कूद गई थी। उस का पिता उस के साथ था जो उस वक्त टॉयलट गया हुआ था। सीट पर लड़की का शॉल पड़ा था जो उस ने कूदने के पहले वहीं छोड़ दिया था। सीट पर एक लड़का बैठा था। उस से पूछा कि उसने नहीं पकड़ा उसे? उस के पीछे वाले यात्री ने बताया कि इसे तो कुछ पता नहीं यह तो सो रहा था। उस लड़के ने कहा कि मैं जाग रहा होता तो किसी हालत में उसे न कूदने देता, पकड़ लेता। लड़की के पिता का कहीं पता न था। ट्रेन पीछे चलने लगी थी।
कोई दो किलो मीटर पीछे चल कर रुकी। आसपास देखा गया। फिर सीटी बजा कर दुबारा पीछे चली एक किलोमीटर चल कर फिर खड़ी हो गई। वहाँ ट्रेक के किनारे मांस के बहुत ही महीन टुकड़े छिटके हुए दिखाई दे रहे थे। लोग ट्रेन से उतर कर देखने लगे किसी ने आ कर बताया कि लड़की नहीं बची। उस के शरीर के कुछ हिस्से पिछले डिब्बे के पहियों से चिपके हैं। गाड़ी फिर पीछे चलने लगी। इस बार रुकी तो कुछ ही देर में लोगों ने आ कर बताया कि लड़की की बॉडी मिल गई है। पिता आया और अपना सामान समेट कर वहीं उतर गया।

मैं अपनी सीट पर आया तो सहयात्री ने बताया कि पहले वह लड़की और उस का पिता इसी सीट पर आ कर बैठा था। लड़की पिता के साथ जाने को तैयार न थी और उतरने को जिद कर रही थी। फिर जब सीट वाले आए तो दोनों उठ कर चले गए। उन्हें फिर वहीं सीट मिली जहाँ इमरजेंसी खिड़की थी। डब्बे में यात्री कयास लगाने लगे कि क्यों लड़की कूदी होगी। एक खूबसूरत लड़की के आत्महत्या करने पर जितने कयास लगाए जा सकते थे लगाए गए। मैं सोच रहा था। समाज आखिर ऐसे कारण क्यों पैदा करता है कि उमंगों भरे दिनों में कोई जवान इस तरह खुदकुशी कर लेता है?
ट्रेन पूरे दो घंटे लेट हो चुकी थी। बल्लभगढ़ पहुँची तो पूर्वा के शनिवार का अर्ध कार्यदिवस समाप्त होने वाला था। उसे फोन किया तो बोली मैं खुद ही आप को स्टेशन के बाहर मुख्य सड़क पर मिलती हूँ। हम ट्रेन से उतर कर अपना सामान लाद सड़क तक पहुँचे तब तक पूर्वा भी आ पहुँची। हम पूर्वा के आवास की और जाने वाले शेयरिंग ऑटो में बैठे। उस ने मुश्किल से आठ मिनट में पूर्वा के आवास के नजदीक उतार दिया। 

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

संतानें पिता के नाम से ही क्यों पहचानी जाती हैं?

बुजुर्ग कहते हैं कि शाम का दूध पाचक होता है। जानवर दिन भर घूम कर चारा चरते हैं, तो यह मेहनत का दूध होता है और स्वास्थ्यवर्धक भी।  मैं इसी लिए शाम का दूध लेता हूँ।  डेयरी से रात को दूध घरों पर सप्लाई नहीं होता।  इसलिए खुद डेयरी जाना पड़ता है। आज शाम जब डेयरी पहुँचा तो डेयरी  के मालिक  मांगीलाल ने सवाल किया कि भीष्म को गंगा पुत्र क्यों कहते हैं। उसे पिता के नाम से क्यों नहीं जाना जाता है।  मैं ने कहा -गंगा ने शांतनु से विवाह के पूर्व वचन लिया था कि वह जो भी करेगी, उसे नहीं टोका जाएगा।  वह अपने पुत्रों को नदी में बहा देती थी। जब उस के आठवाँ पुत्र हुआ तो राजा  शांतनु ने उसे टोक दिया कि यह पुत्र तो मुझे दे दो। गंगा ने अपने इस पुत्र का नहीं बहाया, लेकिन शांतनु द्वारा वचन भंग कर देने के कारण वह पुत्र को साथ ले कर चली गई।  पुत्र के जवान होने पर गंगा ने उसे राजा को लौटा दिया। इसीलिए भीष्म को सिर्फ गंगापुत्र कहा गया, क्यों कि शांतनु को वह गंगा ने दिया था। उस की जिज्ञासा शांत हो गई। लेकिन मेरे सामने एक विकट प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि 'क्यों संतानें पिता के नाम से ही पहचानी जाती हैं, माता के नाम से क्यों नहीं?'

आखिर स्कूल में भर्ती के समय पिता का नाम पूछा और दर्ज किया जाता है। मतदाता सूची में पिता का नाम दर्ज किया जाता है। तमाम पहचान पत्रों में भी पिता का नाम ही दर्ज किया जाता है। घर में भी यही कहा जाता है कि वह अपने पिता का पुत्र है। क्यों हमेशा उस की पहचान को पिता के नाम से ही दर्ज किया जाता है?
इस विकट प्रश्न का जो जवाब मेरे मस्तिष्क ने दिया वह बहुत अजीब था। लेकिन लगता तार्किक है।  मैं ने डेयरी वाले से सवाल किया। तो उस ने इस का कोई जवाब नहीं दिया। उस के वहाँ मौजूद दोनों पुत्र भी खामोश ही रहे। आखिर मेरे मस्तिष्क ने जो उत्तर दिया था वह उन्हें सुना दिया।

माँ का तो सब को पता होता है कि उस ने संतान को जन्म दिया है। उस का प्रत्यक्ष प्रमाण भी होता है। लेकिन पिता का नहीं। क्यों कि उस की एक मात्र साक्ष्य केवल संतान की माता ही होती है। केवल और केवल वही बता सकती है कि उस की संतान का पिता कौन है? समाज में इस का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता कि पुत्र का पिता कौन है? समाज में यह स्थापित करने की आवश्यकता होती है कि संतान किस पिता की है। यही कारण है कि जब संतान पैदा होती है तो सब से पहले दाई (नर्स) यह बताती है कि फंला पिता के संतान हुई है। फिर थाली बजा कर या अन्य तरीकों से यह घोषणा की जाती है कि फलाँ व्यक्ति के संतान हुई है। संतान का पिता होने की घोषणा पर पिता किसी भी तरह से  उस का जन्मोत्सव मनाता है। वह लोगों को मिठाई बाँटता है। अपने मित्रों औऱ परिजनों को बुला कर भोजन कराता है और उपहार बांटता है। इस तरह यह स्थापित होता है कि उसे संतान हुई है।
मैं ने अपने मस्तिष्क द्वारा सुझाया यही उत्तर मांगीलाल को भी दिया। उस में आपत्ति करने का कोई कारण उसे नहीं दिखाई दिया, उस ने और वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने इस तर्क को सहज रुप से स्वीकार कर लिया।
अब आप ही बताएँ मेरे मस्तिष्क ने जो उत्तर सुझाया वह सही है कि नहीं। किसी के पास कोई और भी उत्तर हो तो वह भी बताएँ।