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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

पशुपालन का आरंभ : बेहतर जीवन की तलाश-2


बात आरंभ यहाँ से हुई थी कि आज मनुष्य जीवन को सब तरफ से आप्लावित करने वाली कंपनियों का उदय कब और क्यों कर हुआ? लेकिन हम ने आरंभ किया मनुष्य जीवन के आरंभिक काल में हो रहे परिवर्तनों से। हम ने देखा कि भोजनसंग्रह और शिकारी अवस्था के जांगल युग में अपने रोजमर्रा के कामों के बीच हुए अनुभवों और बेहतर जीवन की तलाश ने पशुओं को काबू करने और मुश्किल दिनों के लिए उन का संरक्षण करना आरंभ कर दिया था। इसी ने विजेता समूह में पराजित समूह के सदस्यों के जीवन का अंत करने की प्रवृत्ति को दास बनाने के प्रयत्न में बदलना आरंभ किया था। इस तरह वे अपना जीवन बेहतर बनाना चाहते थे। पराजित समूह के सदस्य के लिए जानबख्शी भी बहुत बड़ी राहत थी। इस तरह अब जो मानव समूह अस्तित्व में आया उस में और पहले वाले मानव समूह में एक बड़ा अंतर यह था कि पहले वाले समूह में केवल सदस्य थे जो किसी न किसी प्रकार से रक्त संबंधों से जुड़े थे और सदस्यों के बीच कोई भेद नहीं था। लेकिन जो नया समूह जन्म ले रहा था उस में सदस्यों के अतिरिक्त दास भी सम्मिलित थे। अब समूह वर्गीय हो चले थे। दासों को बन्धन में रहते हुए वही काम करना था जो समूह के सदस्य उन के लिए निर्धारित करते थे। ये काम समूह के मुख्य कामों के सहायक काम होते थे। इस के बदले समूह उन्हें मात्र इतना भोजन देता था कि वे किसी तरह जीवित रह सकें।

दीर्घ काल तक पशुओं का संरक्षण करते रह कर मनुष्य को सीखने को मिला कि एक पशुमाता अपनी संतान का अपने स्तनों के जिस दूध से पोषण करती है वह मनुष्य के लिए भी उतना ही पोषक है जितना कि पशु के लिए और उस का उपयोग समूह के सदस्यों के पोषण के लिए किया जा सकता है। आरंभ में मनुष्य ने पशुबालक की तरह ही पशुदुग्ध का सेवन करना सीखा होगा और अनुभव ने उसे सिखाया कि सीधे पशु-माता के स्तन को मुहँ लगाए बिना भी पशु-माताओं से दूध प्राप्त किया जा कर उस का उपयोग किया जा सकता है। मनुष्य जीवन के विकास में यह एक बड़ा परिवर्तन था। जिन पशुओं का वह मात्र खाद्य के रूप में संरक्षण कर रहा था उस पशु को जीवित रख कर भी उन से पोषक भोजन प्राप्त किया जा सकता था। इसी ज्ञान ने मनुष्य को पशु-संरक्षक से पशुपालक में बदलना आरंभ कर दिया। पशुपालन विकसित होने लगा। बेशक वनोपज-संग्रह और शिकार भी जारी रहा, लेकिन वह पशुपालन से अधिक जोखिम का काम था, पशुपालन के विकास के साथ ही उस का कम होना अवश्यंभावी था। मनुष्य ने यह भी जान लिया था कि पाले गए पशुओं की संख्या में स्वतः ही वृद्धि होती रहती है। मनुष्य को उन्हें हमेशा काबू कर पालतू बनाने की आवश्यकता नहीं है। शनैः शनैः मनुष्य वनोपज संग्राहक और शिकारी से पशुपालक होता गया। एक अवस्था वह भी आ गई जब वह मुख्यतः पशुपालक ही हो गया। पशुपालन से भोजन के लिए पशुओं की आवश्यकता की भी बड़ी मात्रा में पूर्ति संभव हो गयी। उस के लिए अब शिकार की जोखिम उठाना आवश्यक नहीं रह गया था। वनोपज संग्रह और शिकार अब अनुष्ठानिक कार्यों, शौक, आनंद, औषध आदि के लिए रह गए। जांगल युग समाप्त हो रहा था और मनुष्य सभ्यता के प्राथमिक दौर में प्रवेश कर चुका था। हालांकि यह युग भी मानव इतिहास में बर्बर युग के नाम से ही जाना जाता है। 

सामी और आर्य समूहों में पशुपालन मुख्य आजीविका हो चला था लेकिन अभी वे खेती के ज्ञान से बहुत दूर थे। मनुष्य जीवन पहाड़ों, गुफाओं और जंगलों से निकल कर घास के मैदानों में आ चुका था। चौपायों के पालन और उन की नस्ल बढ़ाते रहने से, समूहों के पास पशुओं के बड़े बड़े झुण्ड बनने लगे। उन के पास भोजन के लिए मांस और दूध की प्रचुरता हो गई। इस का बालकों के विकास पर अच्छा असर हो रहा था। घास के मैदानों में वे प्रकृति के नए रहस्यों से परिचित हो रहे थे कि कैसे पानी और धूप घास के जंगलों को पैदा करती रहती है? कैसे घास के बीज अँकुराते हैं और घास पैदा होती रहती है। कैसे मिट्टी से उपयोगी बर्तन बनाए जा सकते हैं, और कैसे उन्हें आग में तपा कर स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है? कैसे किसी खास स्थान की मिट्टी से धातुएँ प्राप्त की जा सकती हैं? जिन से उपयोगी वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है। एक लंबा काल इसी तरह जीते रहने के उपरान्त वे सोच भी नहीं सकते थे कि वे वापस उन्हीं पहाड़ों, गुफाओं और जंगलों में जा सकते हैं।

म देख सकते हैं कि जांगल युग में मनुष्य तत्काल उपभोग्य वस्तुएँ मुख्यतः प्रकृति से प्राप्त करता था। वह वे ही औजार तैयार कर पाता था जिन से प्राकृतिक वस्तुएँ प्रकृति से प्राप्त करने में मदद मिलती थी। इस से अगली पशुपालन की अवस्था में उस ने पशुओं में प्रजनन के माध्यम से प्रकृति की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने के तरीके सीखना आरंभ किया। मनुष्य अपने जीवन को बेहतर बना रहा था। लेकिन इस बेहतरी ने मनुष्य समूह में दो वर्ग उत्पन्न कर दिए थे, 'स्वामी' और 'दास'। पशुओं के रूप में संपत्ति ने जन्म ले लिया था। हालांकि इस संपत्ति का स्वामित्व अभी भी सामुहिक अर्थात संपूर्ण समूह का बना हुआ था। वह व्यक्तिगत नहीं हुई थी।  (क्रमशः) 


दास युग का आरम्भ : बेहतर जीवन की तलाश-1

सोमवार, 26 सितंबर 2011

दास युग का आरम्भ : बेहतर जीवन की तलाश-1

ज शर्मा जी नया एलईडी टीवी खरीद कर लाए हैं, मनोज ने नया लैपटॉप खरीदा है या फिर मोहता जी ने नई कार खरीदी है। जब भी इस तरह का कोई समाचार सुनने को मिलता है तो अनायास कोई भी यह प्रश्न कर उठता है। टीवी या लैपटॉप कौन सी कंपनी का लाया गया है, या कार कौन सी कंपनी की है? जैसे कंपनी का नाम पता लगते ही वस्तु की रूप-गुणादि का स्वतः ही पता लग जाएंगे। कंपनी का नाम वस्तुओं के उत्पादन के साथ अनिवार्य रूप से जु़ड़ चुका है। हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में चले जाएँ कंपनी हमारा पीछा छोड़ती दिखाई नहीं देती, वह परछाई की तरह मनुष्य का पीछा करती है। कंपनियों का जो स्वरूप आज मनुष्य समाज में सर्व व्यापक दिखाई देता है। लगभग छह सौ बरस पहले तक वह अनजाना था। आखिर पिछले छह सौ बरस पहले ऐसा क्या हुआ कि अचानक कंपनियों का उदय हुआ और थोड़े ही काल में उन्हों ने सारी दुनिया पर प्रभुत्व जमा लिया?

क जमाना था जब मनुष्य रोज की आवश्यकताओं को रोज पूरी करता था। भोजन के लिए जंगलों की उपज एकत्र करके लाना या शिकार करना ही इस के साधन थे। लेकिन इस तरह प्राप्त भोजन इतना ही होता था कि मनुष्य की प्रतिदिन की आवश्यकता को पूरा कर दे। न तो शिकार को बचा कर रखा जा सकता था और न ही जंगल से संग्रह की गई वनोपज को। भोजनसंग्रह और शिकारी अवस्था के उस जांगल युग में मनुष्य ने अपने शिकार पशुओं का व्यवहार समझने का अवसर प्राप्त हुआ। उस ने अनुभव से जाना कि कुछ जानवर ऐसे हैं जिन्हें शिकार किए बिना जीवित ही काबू किया जा सकता है। उन्हें घेर कर या बांध कर रखा जा सकता है, और शिकार न मिलने के कठिन दिनों में उन का उपयोग कर क्षुधापूर्ति की जा सकती है। यह मनुष्य समाज के विकासक्रम में आगे आने वाली महत्वपूर्ण अवस्था का पूर्वरूप था। जब पशु घेर कर या बान्ध कर रखे जाने लगे तो उन की सुरक्षा का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। काबू में किए गए पशु घेरा या बन्धन तोड़ कर स्वयं स्वतंत्र हो सकते थे, अन्य हिंस्र पशु भोजन की तलाश में उन पर हमला कर सकते थे, या कोई दूसरा मानव समूह उन पर कब्जा कर सकता था। मनुष्य को अपने समूह के सदस्यों के एक भाग को भोजन संग्रह और शिकार के काम से अलग कर इन काबू किए गए पशुओं की सुरक्षा में लगाना पड़ा। भोजन संग्रह और शिकार अभी मनुष्य के मुख्य काम थे और पशु संरक्षा के काम में लगाए गए स्त्री-पुरुष समूह के वे सदस्य थे जो इस के लिए कम योग्य या अयोग्य समझे जाते थे। लेकिन पशु संरक्षा का यह काम आरंभ करते समय मनुष्य को यह अनुमान तक नहीं था कि आगे आने वाले युग में भोजन संग्रह और शिकार गौण हो जाने वाला है और उस ने पशुओं को काबू करना सीख कर जीवन यापन के लिए एक नए, उन्नत और अधिक उपयोगी साधन के विकास की नींव रख दी है। 

भोजन संग्रह और शिकार युग में कभी कभी काम के दौरान दो मानव समूहों की भेंट भी हो जाती थी। यह भेंट वैसी नहीं होती थी जैसी आज दो देशों के राजनयिक या सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडलों की होती है। वह अनिवार्य रूप से हिंस्र होती थी। यह हिंसा होती थी संग्रह किए जाने वाले भोजन या शिकार पर कब्जे के लिए। यह भेंट कुछ कुछ आज कल किसी क्षेत्र में अवैध व्यापार करने वाली गेंगों के बीच होने वाली गैंगवार जैसी होती होगी। जब तक एक समूह को पूरी तरह नष्ट न कर दिया जाए या क्षेत्र से बहुत दूर न खदेड़ दिया जाए, तब तक दूसरे समूह के लोगों को कत्ल कर देने का सिलसिला खत्म न होता था। पशु संरक्षा के नए काम ने इन हिंसक मुलाकातों के अंत का मार्ग भी प्रशस्त किया। अब पशु संरक्षा के काम को आरंभ कर चुके समूहों को पशुओं की सार संभाल के लिए कुछ ऐसे लोगों की आवश्यकता महसूस हो रही थी जो बन्धन में रहकर काम कर सकें। उस काल तक एक समूह को पराजित कर देने के उपरान्त पराजित समूह के सभी सदस्यों की हत्या कर देने के और शेष बचे सदस्यों को भाग जाने देने के स्थान पर बन्दी बना कर उन से काम लेना अधिक उपयोगी था। पराजित समूह के शेष बचे सदस्यों के लिए भी लड़ कर जीवन का सदा के लिए अन्त कर देने के स्थान पर बन्दी बन कर जीवन बचाए रखना अधिक उपयोगी था, उस में स्वतंत्र जीवन की आस तो थी। मानव विकास का यह मोड़ अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इसे हम मनुष्य समाज के विकासक्रम में दास युग का प्रारंभ कह सकते हैं। (क्रमशः)

बुधवार, 12 जनवरी 2011

सारा पाप किसानों का

रित क्रांति किसान ले कर आया। लेकिन उस का श्रेय लिया सरकार ने कि उस के प्रयासों से किसानों ने रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग सीखा और अन्न की उपज बढ़ाई, देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हुआ। किसान सरकारों और रासायनिक खाद व कीटनाशक उत्पादित करने और उस का व्यापार कर उन के मुनाफे से अपनी थैलियाँ भरने वाली कंपनियों की वाणी पर विश्वास करता रहा और पथ पर आगे बढ़ता रहा। लेकिन इस वर्ष पड़ी तेज सर्दी के कारण जब फसलें पाला पड़ने से खराब हुईं तो किसान अपनी मेहनत को नष्ट होते देख परेशान हो उठा। खेती अब वैसी नहीं रही कि जिस में बीज घर का होता था और खाद पालतू जानवरों के गोबर से बनती थी। मामूली लागत और कड़ी मेहनत से फसल घर आ जाती थी। अब एक फसल के लिए भी किसान को बहुत अधिक धन लगाना पड़ता है। बीज, खाद, कीटनाशक, सिंचाई आदि सब कुछ के लिए भारी राशि खर्च करनी पड़ती है। अधिकांश किसान इन सब के लिए कर्ज ले कर धन जुटाते हैं। 
ब पाले ने न केवल फसल बर्बाद की अपितु किसान पर इतना कर्जे का बोझा डाल दिया कि जिसे वह चुका ही न सके। मध्यप्रदेश के दमोह जिले में इसी बर्बादी के कारण दो किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ऐसे में सरकार का फर्ज तो यह बनता था कि वह किसानों की इस प्राकृतिक आपदा से हुई हानि के का आकलन करे और कर्ज के बोझे से दबे किसानों को कुछ राहत पहुँचाए। किसानों की सरकार से यह अपेक्षा तब और भी बढ़ जाती है जब जिस जिले में यह बर्बादी हुई है, राज्य का कृषि मंत्री उसी जिले का हो। लेकिन कृषि मंत्री ने क्या किया? 
राज्य के कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया अपने गृह जिले पहुँचे और बजाय इस के कि वे किसानों को लगे घावों पर मरहम लगाएँ, उलटे पुराण कथा बाँचना आरंभ कर दी। उन्हों ने कहा कि "यह सब किसानों के पापों का फल है। खेती में रसायनों का इस्तेमाल बढ़ने से मिट्टी की सेहत खराब हुई है और उसकी प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो चुकी है। ऐसा होने से मिट्टी में नमी नहीं रहती और पाला अपना असर दिखा जाता है। वेद पुराणों में कामधेनु व कल्पवृक्ष का जिक्र है, मगर आज हम उनसे दूर हो चले हैं। इसलिए प्राकृतिक प्रकोप बढ़ा है। एक ओर जंगल कट गए हैं तो दूसरी ओर गाय का उपयोग कम हो रहा है। इस तरह संतुलन गड़बड़ा गया है, जिसके चलते यह सब हो रहा है" 
ह सही है कि कुसमरिया जी जैविक कृषि के भारी समर्थक हैं, वे चाहते हैं कि मध्यप्रदेश एक जैविक कृषि के लिए जाना जाए। लेकिन इस का अर्थ यह तो नहीं कि किसी व्यक्ति को जब चोट लगे तो उस पर नमक छिड़का जाए। उन्हों ने यह कहीं नहीं कहा कि उन के इस पाप में सरकारें भी भागीदार रही हैं जिन्हों ने रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया। उन्हों ने यह भी नहीं कहा कि राज्य सरकारों ने ऐसा इसलिए किया क्यों कि इन पदार्थों के उत्पादकों और व्यापारियों ने सरकार बनाने की संभावना रखने वाली राजनैतिक  दलों को चुनाव लड़ने के लिए चंदे दिए थे और व्यक्तिगत रूप से मंत्रियों और अफसरों को मालामाल कर दिया था। वे ऐसा कहने भी क्यों लगे? आखिर कोई अपने आप पर भी उंगली उठाता है? 

बुधवार, 21 जुलाई 2010

बहुत हो लिया पूर्व सैनिकों का कल्याण , अब ठेकेदारों के कल्याण का युग है

जरा नवभारत टाइम्स की ये खबर देखें....
स खबर में कहा गया है कि, "वर्तमान भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएएआई) द्वारा अधिकृत टोल प्लाजा पर काम कर रहे 25,000 पूर्व सैनिक  हैं, टोल प्लाजा पर साजो-सामान के साथ ही रणनीतिक सहयोग देने वाले ऐसे ही 10,000 पूर्व सैनिकों को अब इस काम पर से हटा कर बेरोजगार कर दिया जाएगा। अब इस काम को ठेके पर दे दिया जाएगा। एनएचएआई ने बीते 22 जून को इस फैसले के संबंध में एक आदेश पारित किया था। इस आदेश को लागू किए जाने के पहले चरण में देश भर के 50 टोल प्लाजा के लिए सरकारी टेंडर भी जारी कर दिए गए हैं। वर्ष 2004 से इन टोल प्लाजा पर पूर्व सैनिक काम कर रहे हैं। इन्हें नियोजित करने के बाद से टोल संग्रह की दर 15 फीसदी से बढ़कर 80 फीसदी तक हो गई है। देशभर की विभिन्न टोल प्लाजा से सरकार को 1700 करोड़ रुपये का रेवेन्यू मिलता है। इसके चलते पूर्व सैनिकों को एक सम्मानजनक रोजगार मिल रहा है। उन्हें वेतन के अतिरिक्त राजस्व का 10 फीसदी कमिशन भी मिलता है।
ब इस काम को ठेके पर दिया जाएगा।बहुराष्ट्रीय या उसी स्तर की कोई कंपनी यह काम करेगी। तब टोल टैक्स के काम को करने के लिए तमाम  असामाजिक तत्व भरती किए जाएँगे जिन्हें न्यूनतम वेतन भी दिया जाएगा या नहीं इस की कोई गारंटी नहीं है। लेकिन उन्हें पूरी छूट होगी कि वे निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन लोगों से भी टोल लें जिन पर यह नहीं लगता है। जनता को परेशान करें। उन्हें अपनी आय बढ़ाने के भी अवसर होंगे। फिर जो लाभ आज पूर्व सैनिकों को मिल रहा है वह मुनाफे के रूप में कंपनी के पास जाए या फिर कमीशन के माध्यम से नेताओं, अफसरों की जेब में जाए। हो सकता है राजनैतिक पार्टियों को चुनाव लड़ने का चंदा भी इसी मुनाफे से मिले वर्तमान शासक दल को इस लिए कि उन्होंने ठेके की यह व्यवस्था लागू की और दूसरों को इस लिए कि वे सत्ता में आ जाएँ तो इस व्यवस्था को चालू रखें। बेरोजगार पूर्व सैनिकों के परिवार भूखे मरें तो मरें, उस से क्या? आखिर हमारा भारतीय राज्य एक कल्याणकारी है, बहुत हो लिया पूर्व सैनिकों का कल्याण, अब ठेकेदारों के कल्याण का युग है।

हालाँकि एनएचएआई के इस फैसले का पूर्व सैनिक विरोध कर रहे हैं। पिछले दिनों रिटायर्ड कर्नल एच. एस. चौधरी के नेतृत्व में पूर्व सैनिकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी से मुलाकात की थी और इस पर रोक लगाने की मांग की थी। एंटनी ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वह सड़क व परिवहन मंत्री कमलनाथ से इस संबंध में चर्चा करेंगे। इन सैनिकों ने कमलनाथ से भी भेंट की और उनसे आग्रह किया कि पूर्व सैनिकों के परिवार के दो लाख सदस्यों को मुसीबत में डालने वाले अपने फैसले की वह फिर से समीक्षा करें।  पर ए.के. एंटनी और कमलनाथ क्या कर पाएंगे? यदि कुछ कर सके तो फिर नेताओँ अफसरों की जेबें कैसे भरेंगी?  अगला चुनाव लड़ने के लिए पार्टियों को चंदा कहाँ से मिलेगा? विपक्ष भी इस मामले में चुप है। आखिर उसे भी तो अगला चुनाव लड़ने के लिए चंदा चाहिए।