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बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

कहीं सर्दी कहीं वसंत

निवार को जोधपुर यात्रा के पहले की व्यस्तता का उल्लेख मैं ने पिछली पोस्ट में किया था। वह पोस्ट लिखने के उपरांत भी व्यस्तता जारी रही। यहाँ तक कि सोमवार को वापस कोटा पहुँचने के बाद भी  व्यस्तता के कारण यहाँ कोई पोस्ट नहीं लिख सका।  शनिवार को जोधपुर के लिए निकलने के पहले जल्दी से भोजन निपटाया और कॉफी पी। जल्दी से बस पकड़ने के लिए रिक्षा पकड़ा। बस जाने को तैयार खड़ी थी। अपने स्लीपर में घुस कर बाहर पैर लटका कर बैठा तो तेज शीत के बावजूद पसीना निकल रहा था। यह तीव्र गति से की गई भागदौड़ का नतीजा था। मैं कुछ देर वैसे ही बैठा रहा। पसीना सूखने के बाद जब कुछ ठंडी महसूस होने लगी तो स्लीपर में लेट गया तब तक बस कोटा नगर की सीमा से बाहर आ चुकी थी। बूंदी निकलने के बाद एक जगह बस रुकी। तब तक मुझे नींद नहीं आई थी। मैं ने लघुशंका से निवृत्त होने का अच्छा अवसर जान कर बस से नीचे उतरा। वहाँ बस के लगेज स्पेस में जोधपुर भेजे जाने के लिए ताजी कच्ची हल्दी के बोरे लादे जा रहे थे। लदान में करीब पंद्रह मिनट लगे। लेकिन वहाँ शीत महसूस नहीं हुई। पूरी तरह वासंती मौसम था। बस ने हॉर्न दिया तो फिर से बस में चढ़ कर स्लीपर में घुस लिया। इस बार नींद आ गई।
फिर बस के रुकने और अंदर के यात्रियों की हल चल से नींद खुली। बस किसी हाई-वे रेस्टोरेंट के बाहर खड़ी थी। सवारियाँ नीचे उतरने लगीं। मैं भी उतर लिया। मेरे लिए यह नया स्थान था। पता करने पर जानकारी मिली कि यह स्थान नसीराबाद से कोई बीस किलोमीटर पहले है। बहुत से ट्रक और दो बसें और खड़ी थीं। कुछ लोग चाय पी रहे थे। कुछ चाय बनने के इंतजार में थे। प्लास्टिक के बने कथित डिस्पोजेबल  लेकिन चरित्र में कतई अनडिसपोजेबल  गिलासों में चाय एक काउंटर से टोकन ले कर वितरित की जा रही थी। टोकन एक दुकान से पांच रुपए की एक चाय की दर से दिए जा रहे थे, वहाँ स्नेक्स उपलब्ध थे।  मैं ने कॉफी के टोकन के लिए पचास का नोट दिया तो ने पंद्रह रुपए काट लिए। मुझे यह कीमत बहुत अधिक लगी। मैं ने उस से पूछ लिया -ऐसा क्या है कॉफी में? उस ने कहा शुद्ध दूध में बनाएँगे। मुझे फिर  भी सौदा महंगा लगा। मैं ने टोकन लौटा कर पैसे वापस ले लिए। चाय पीना तो अठारह बरस पहले छोड़ चुका हूँ। फिर यह कॉफी पीने लगा। कुछ महंगी होती है लेकिन कम पीने में आती है। मैं सोचने लगा रात को एक बजे जब वापस बस में जा कर सोना ही है तो कॉफी क्यों पी जाए, वह भी इतनी महंगी। कोटा में हमें उतनी कॉफी के लिए मात्र चार या पांच रुपए  देने होते हैं।  ड्राइवर और बस स्टाफ एक केबिन में बैठे भोजन कर रहे थे। बस करीब तीस-पैंतीस मिनट वहाँ रुकने के बाद फिर चल पड़ी। इस स्थान पर भी शीत महसूस नहीं हुई। 
जोधपुर पहुँचने के पहले बस बिलाड़ा में रुकी। वहाँ भी शीत नहीं थी। जोधपुर में जैसे ही बस से उतरे शीत महसूस हुई। अजीब बात थी। कोटा में सर्दी थी और जोधपुर में भी लेकिन बीच में कहीं सर्दी महसूस नहीं हुई। बस में नींद ठीक से नहीं निकली थी। होटल जा कर कुछ देर आराम किया। फिर कॉफी मंगा कर पी और स्नानादि से निवृत्त हो कर होटल से निकलने को था कि बेयरे ने आकर बताया कि आप नाश्ता ले सकते हैं। मैं ने उसे एक पराठा लाने को कहा। तभी हरि शर्मा जी का फोन आ गया। कहने लगे ब्लागर बैठक अशोक उद्यान में रखी है। अधिक नहीं बस चार पाँच लोग होंगे।  वे बारह के लगभग मुझे लेने बार कौंसिल के ऑफिस पहुँचेंगे। मैं नाश्ता कर मौसम में ठंडक देख शर्ट पर एक जाकिट पहनी और बार कौंसिल के कार्यालय के लिए निकल लिया।

बार कौंसिल कार्यालय जोधपुर

बुधवार, 13 जनवरी 2010

शून्य से नीचे के तापमान पर 39000 बेघर रात बिताने को मजबर लोगों के शहर में कंपनियों ने जानबूझ कर कपड़े नष्ट किए

मरीका का न्यूयॉर्क नगर जहाँ आज का रात्रि का तापमान शून्य से चार डिग्री सैल्सियस कम रहा है और इस शीत में नगर के लगभग 39000 लोग घरों के बिना रात बिताने को मजबूर हैं वहाँ एच एण्ड एम और वालमार्ट कंपनियों ने अपने पूरी तरह से पहने जाने योग्य लेकिन बिकने से रह गए कपड़ों को नष्ट कर दिया।


स समाचार को न्यूयॉर्क टाइम्स को छह जनवरी के अंक में एक स्नातक विद्यार्थी सिंथिया मेग्नस ने उजागर किया। उस ने कचरे के थैलों में इन कपड़ों को बरामद किया जिन्हें जानबूझ कर इस लिए पहनने के अयोग्य बनाया गया था जिस से ये किसी व्यक्ति के काम में नहीं आ सकें। दोनों कंपनियों एच एण्ड एम और वालमार्ट के प्रतिनिधियों ने न्युयॉर्क टाइम्स को बताया कि उन की कंपनियाँ बिना बिके कपड़ों को दान कर देती हैं और यह घटना उन की सामान्य नीति को प्रदर्शित नहीं करती।
लेकिन अमरीका की पार्टी फॉर सोशलिज्म एण्ड लिबरेशन की वेबसाइट पर सिल्वियो रोड्रिक्स ने कहा है कि मौजूदा मुनाफा  कमाने वाली व्यवस्था की यह आम नीति है कि वे पहनने योग्य कपड़ों को नष्ट कर देते हैं, फसलों को जला देते हैं और आवास के योग्य मकानों को गिरने के लिए छोड़ देते हैं। यह सब तब होता है जब कि लोगों के पास पर्याप्त कपड़े नहीं हैं, खाने को खाद्य पदार्थ नहीं हैं और आश्रय के लिए आवास नहीं हैं।
रोड्रिक्स का कहना है कि एक उदात्त अर्थ व्यवस्था में इन चीजों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन वर्तमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक उदात्त व्यवस्था नहीं है। इस व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन मुनाफे के लिए होता है और वह उत्पादकों को एक दूसरे के सामने ला खड़ा करता है। जिस से अराजकता उत्पन्न होती है और उत्पादन इतना अधिक होता है कि जिसे बेचा नहीं जा सकता। जब किसी उत्पादन में मुनाफा नहीं रह जाता है तो उत्पादन को नष्ट किया जाता है, फैक्ट्रियाँ बंद कर दी जाती हैं, निर्माण रुक जाते हैं, खुदरा दुकानों के शटर गिर जाते हैं और कर्मचारियों से उन की नौकरियाँ छिन जाती हैं।

स तरह के संकट इस व्यवस्था में आम हो चले हैं। समय के साथ पूंजीपति उत्पादन से अपने हाथ खींच लेता है और संकट को गरीब श्रमजीवी जनता के मत्थे डाल देता है। माल को केवल तभी नष्ट नहीं किया जाता जब मंदी चरमोत्कर्ष पर होती है, अपितु छोटे संकटों से उबरने के लिए कम मात्रा में उत्पादन को निरंतर नष्ट किया जाता है। रोड्रिक्स का कहना है कि इस तरह उत्पादन को नष्ट करना मौजूदा व्यवस्था का मानवता के प्रति गंभीर अपराध है। अब वह समय आ गया है जब मौजूदा मनमानी और मुनाफे के लिए उत्पादन की अमानवीय व्यवस्था का अंत होना चाहिए और इस के स्थान पर नियोजित अर्थव्यवस्था स्थापित होनी चाहिए जिस में केवल कुछ लोगों के निजि हित बहुसंख्य जनता के हितों पर राज न कर सकें। 

रविवार, 10 जनवरी 2010

राजनीति और कूटनीति के सबक सीखती जनता

सुबह ग्यारह बजे कोर्ट परिसर के टाइपिस्टों की यूनियन के चुनाव थे। मुझे चुनाव में सहयोग करने के लिए ग्यारह बजे तक क्षार बाग पहुँच जाना था। लेकिन कई दिनों से टेलीफोन में हमिंग आ रही थी। दो दिनों से शाम से ही वह इतनी बढ़ जाती थी कि बात करना मुश्किल हो जाता था।  इसी लाइन पर ब्रॉडबैंड के पैरेलल एक टेलीफोन और था। जिस का उपयोग करने पर ब्रॉडबैंड का बाजा बज जाता था जो आसानी से बंद नहीं होता था। कल रात ही मैं ने शिकायत दर्ज करवा दी थी। सुबह साढ़े दस बजे जब क्षारबाग जाने के लिए निकलने वाला था तो टेलीफोन विभाग वालों का फोन आ गया। मैं ने यूनियन से अनुमति ली कि यदि मैं देरी से आऊँ तो चलेगा? उन्हों ने अनुमति दे दी। मैं ने दस वर्ष पहले मकान में बिछाई गई छिपी हुई लाइन का मोह छोड़ अपनी टेलीफोन लाइन टेलीफोन तक सीधी खुली प्रकार की लगवा दी और दोनों फोन उपकरण ब्रॉडबैंड के फिल्टर के बाद लगवा दिए।  दोनों उपकरण काम करने लगे। टेलीफोन को चैक किया तो हमिंग नहीं थी। मैं क्षार बाग चल दिया।

हाँ मत डालने का काम आरंभ हो चुका था। तीन बजे तक मत डालने का समय था। इस बीच आमोद-प्रमोद चलता रहा। पकौड़ियाँ बनवा कर खाई गईं। कुल 65 मतदाता थे। ढाई बजे तक सब ने मत डाल दिए। तो मतों की गिनती को तीन बजे तक रोकने का कोई अर्थ नहीं था। हमने मत गिने। तो जगदीश भाई केवल पंद्रह मतों से जीत गए। वे कम से कम पैंतालीस मतों से विजयी होने का विश्वास लिए हुए थे। वे कई वर्षों से अध्यक्ष चले आ रहे हैं। पर परिणाम ने बता दिया था कि परिवर्तन की बयार चल निकली है। 25 और 40 मतों का ध्रुवीकरण अच्छा नहीं था। किसी बात पर मतभेद यूनियन को सर्वसम्मत रीति से चलाने में बाधक हो सकता था। सभी मतदाताओं में राय बनने लगी कि 25 मत प्राप्त करने का भी कोई तो महत्व होना चाहिए। कार्यकारिणी में एक पद वरिष्ठ उपाध्यक्ष का और सृजित किया गया जिस पर सभी 65 मतदाताओं ने स्वीकृति की मुहर लगा दी। मैं चकित था कि अब राजनीति के साथ साधारण लोग भी कूटनीति को समझने लगे हैं।
स घटना ने समझाया कि कैसे किसी संस्था को चलाया जाना चाहिए। इस तरह अल्पमत वाले 25 लोग भी संतुष्ट हो गए थे। जिस से यूनियन के मामलों में सर्वसम्मति बनाने में आसानी होगी। क्षार बाग  किशोर सागर सरोवर की निचली ओर है। इस विशाल बाग के एक कोने में कोटा के पूर्व महाराजाओं की अंतिम शरणस्थली है जहाँ उन की स्मृति में कलात्मक छतरियाँ बनी हैं। यहीं कलादीर्घा और संग्रहालय हैं। इसी में  एक कृत्रिम झील  बनी है जो सदैव पानी से भरी रहती है। हम लोगों का मुकाम इसी झील के इस किनारे पर बने एक मंदिर परिसर में था जो बाग का ही एक भाग है। झील में पैडल बोटस्  थीं, बाग में घूमने वाले लोग उस का आनंद ले रहे थे। झील में 15 बत्तखें तैर रही थीं। कि किनारे पर एक कुत्ता आ खड़ा हुआ बत्तखों को देखने लगा। उसकी नजरों में शायद खोट देख कर सारी बत्तखें किनारे के नजदीक आ कर चिल्लाने लगीं। कुत्ता कुछ ही देर में वहाँ से हट गया। बत्तखें फिर से स्वच्छन्द तैरने लगीं। सभी इन दृश्यों का आनंद ले रहे थे कि भोजन तैयार हो गया। मैं ने भी सब के साथ भोजन किया और घर लौट आया।

र लौट कर फोन को जाँचा तो वहाँ फिर हमिंग थी और इतनी गहरी कि कुछ भी सुन पाना कठिन था।  साढ़े चार बजे थे। मैं ने टेलीफोन विभाग में संपर्क किया तो पता लगा अभी सहायक अभियंता बैठे हैं। कहने लगे फोन उपकरण बदलना पड़ेगा। यदि संभव हो तो आप आ कर बदल जाएँ। कल रविवार का अवकाश है। मैं पास ही टेलीफोन के दफ्तर गया और कुछ ही समय में बदल कर नया उपकरण ले आया। उसे लाइन पर लगाते ही हमिंग एकदम गायब हो गई। उपकरण को देखा तो  प्रसन्नता हुई कि यह मुक्तहस्त भी  है। अब मैं काम करते हुए भी बिना हाथ को या अपनी गर्दन को कोई तकलीफ दिए टेलीफोन का प्रयोग कर सकता हूँ। शाम को कुछ मुवक्किलों के साथ कुछ वकालती काम निपटा कर रात नौ बजे दूध लेने गया तो ठंडक कल से अधिक महसूस हुई। वापसी पर महसूस किया कि कोहरा जमने लगा है। स्वाभाविक निष्कर्ष निकाला कि शायद कल लगातार तीसरी सुबह फिर  अच्छा कोहरा देखने को मिलेगा। सुखद बात यह है कि कोहरा दिन के पूर्वार्ध में छट जाता है और शेष पूर्वार्ध में धूप खिली रहती है। जिस में बैठना, लेटना, खेलना और काम करना सुखद लगता है। आज की योजना ऐसी ही है। कल दोपहर के भोजन के बाद छत पर सुहानी धूप में शीत का आनंद लेते हुए काम किया जाए, और कुछ आराम भी।

चित्र  1- किशोर सागर सरोवर में बोटिंग, 2- क्षार बाग की छतरियाँ

शनिवार, 9 जनवरी 2010

कुहरे में लिपटा एक सर्द दिन


ब चार माह कुछ नहीं किया तो उस का कुछ तो वजन उठाना ही होगा। बृहस्पतिवार की रात एक मुकदमा तैयार करते 12 बज गए थे, तारीख बदल गई। फिर एक और काम को सुबह के लिए छोड़ना उचित न समझा, उसे निपटाते निपटाते सवा भी बज गए। फिर अनवरत पर टिपियाते हुए पौने दो। सुबह ही हो चुकी थी। ठंड से मुकाबले के लिए जीन्स थी पैरों में, लेकिन ठंड़ी इतनी हो गई थी कि पैरों को चुभने लगी थी। सोने गया तो सोचता रहा, कैसा बेवकूफ हूँ मैं भी, दफ्तर में ब्लोअर लगा है सिर्फ बटन चालू न कर सका। होता है, कभी कभी काम में यही होता है कि पैर दर्द कर रहा हो तो भी मुद्रा बदलने की तबियत नहीं करती, प्यास लगी हो तो पानी पीने के पहले सोचते हैं कि हाथ का काम निपटा लो। खैर, दो बजे सोने गए थे तो सुबह देर से उठना ही था। पर सात बजे ही उठ लिए। पत्नी ने कॉफी के लिए हाँक लगाई, तो हमने हाँ भर दी। वहीं बेड पर कॉफी पी गई। खिड़की से बाहर झाँका, तो सड़क पार पार्क की बाउंड्री और उस से लगे पेड़ धुंधले दिखाई दे रहे थे। पीछे कोहरे का महासागर लहलहारहा था। यह दृष्य कोटा के लिए तो अद्भुत ही है , जिस के दिखाई देने का अवसर साल में कुछ ही दिन होता है। इस बार तो कई सालों के बाद देखने को मिला।
चैनलों पर सुबह सुबह रोज दिल्ली दिखाई जाती है, कोहरे में डूबी हुई। हमें बिटिया की याद आने लगती है। वह फरीदाबाद में  पहली सर्दी झेल रही है, तीन सर्दियाँ मुम्बई की देखने के बाद। मुम्बई में उसे सिर्फ एक वर्ष एक कंबल खरीदना पड़ा था जो कुछ अधिक दिन काम न आया था।  सुबह कुछ काम आ गया तो घर से निकलते वही साढ़े ग्यारह बज चुके थे। कुहरा छंटा नहीं था। लेकिन कार चालीस की गति से चलाई जा सकती थी। पहली बार सड़क के किनारे अलाव दिखाई दिए, वह भी दिन में बारह के बजने के पहले। हवा ठंडी थी और नम भी। पान की दुकान के बाहर रिक्शे वाले गत्ते जला कर हाथ पैर गरम कर रहे थे। आज उन का माल ढोने का काम अभी नहीं लगा था।
क्षार बाग तालाब के पास से निकला तो सरोवर के बीचों-बीच रोज दिखाई पड़ने वाला जगमंदिर ऐसा दिखाई दे रहा था जैसे चित्रकार ने चित्र आरंभ करने के लिए केवल आउटलाइन बनाई हो। साफ-साफ दिखाई पड़ने वाला रामपुरा का इलाका कोहरे के पीछे गायब था। कोहरे में तालाब की सतह से कुछ ऊपर ठीक साईबेरिया तक से आए हुए पर्यटक पक्षी उड़ रहे थे। शायद कोहरे ने क्षुधा पूर्ति के लिए उन्हें अपने शिकार की तलाश में जल की सतह के बिलकुल नजदीक उड़ने को बाध्य कर दिया था। कैमरा पास न होने का अफसोस हुआ। होता तो कुछ दुर्लभ चित्र अवश्य ही मिलते।

दालत पूरी तरह से ठंडी थी। लोगों ने वहाँ भी जलाऊ कचरा तलाश लिया था और अलाव बनाए हुए थे। पहुँचते ही अदालत से बुलावा आ गया। कांम में लगे तो सर्दी हवा हो गई। कोहरा छंटने लगा। फिर एक बजते-बजते धूप निकल आई। जो धूप गर्मियों में शत्रु लगती है, आज उस का महत्व पता लग रहा था। अदालत परिसर में जहाँ जहाँ धूप थी वहाँ लोग खड़े नजर आ रहे थे। कुछ थे, जो  सर्दी को कोस रहे थे। शाम चार बजे एक अदालत में एक महिला जो मजिस्ट्रेट को बयान देने आई थी, बयान देने के पहले ही अचेत हो गई। एक और महिला उसे लगभग घसीट कर बाहर लाई। महिला वहाँ भी अचेत ही दीख पड़ी। मैं कहता कि शायद सर्दी से अचेत हुई है, तभी एक ने कहा कि पुलिस वाले कह रहे हैं कि नाटक कर रही है, बयान देने से बचने के लिए।  मेरे शब्द मेरे कंठ के नीचे ही दफ्न हो गए। फिर महिला पुलिस आ गई उसे उठा कर हवालात की तरफ ले गई। 
सुबह कलेवे में मैथी के पराठे और धनिया-टमाटर की चटनी थी, चटनी में ताजा गीली लाल मिर्च का इस्तेमाल होने से चिरमिराहट बढ़ गई थी। शाम के भोजन में मकई की रोटी और बथुई की कढ़ी और जुड़ गई। लगता है इस साल सर्दी बदन में लोहा भरने का काम कर रही है। हरी पत्ती भोजन में किसी बार गैर हाजिर नहीं होती। शाम का दफ्तर चला तो फिर तारीख बदल गया। आज पैरों में जीन्स के स्थान पर पतलून है। वह भी ठंडी हो चुकी है। अनवरत के लिए यह सब कुछ टिपियाना शुरू करने के पहले मैं ब्लोअर चला देता हूँ। पर इतना ही टिपियाने तक उस ने दफ्तर को इतना गर्म कर दिया है कि उसे बंद करने को उठना ही पड़ेगा। तो, मिलते हैं कल फिर से। अंग्रेजी कलेंडर में  दस नौ जनवरी की सुबह हो चुकी है।   आज सुबह दस बजे निकलना है। अदालत परिसर में बैठने वाले कोई अस्सी टाइपिस्टों ने यूनियन बना रखी है। उस के चुनाव होंगे। सोलह की कार्यकारिणी में से पन्द्रह निर्विरोध चुने जा चुके हैं। केवल अध्यक्ष के लिए चुनाव होने हैं। यह काम क्षार बाग में होगा। उसी  सरोवर के किनारे जहाँ जग मंदिर है और जहाँ आप्रवासी पक्षी सैंकड़ों की संख्या में डेरा जमाए हुए हैं।

बुधवार, 4 नवंबर 2009

रेलवे प्लेटफॉर्म पर ठण्ड में सात घंटे

बेटा वैभव की एमसीए पूरी हुए चार माह हो चुके हैं उस का कैंपस चयन हुआ था। लेकिन प्लेसमेंट के लिए पहले कॉलेज वाले अक्टूबर का समय दे रहे थे। जब अक्टूबर नजदीक आने लगा तो उन्हों ने जनवरी-फऱवरी का समय दे दिया। उस के लिए बैठा रहना कठिन हो गया। अनेक लोगों ने सलाह दी कि उसे बंगलूरु जाना चाहिए। वहाँ उसे इस से पहले भी नियोजन मिल सकता है। आखिर उस ने रेल में आरक्षण करवा लिया। उस की गाड़ी 2 नवम्बर को 22:50 पर थी। लेकिन जयपुर में इंडियन ऑयल कारपोरेशन के डिपो में लगी आग ने जयपुर-कोटा मार्ग को बाधित कर दिया। हमने जानकारी की तो पता चला कि गाड़ी अजमेर-चित्तौड़गढ़ होते हुए 3 नवम्बर को एक बजे कोटा पहुँचेगी। हमें अनुमान था कि गाड़ी में और देरी हो सकती है। इस कारण नेट पर जानकारी लेनी चाही तो वहाँ केवल यह जानकारी उपलब्ध थी कि गाड़ी को जयपुर-कोटा के बीच दूसरे मार्ग पर डाल दिया गया है। टेलीफोन कोई उठा नहीं रहा था। आखिर मैं और पत्नी शोभा रात्रि सवा बारह घर से निकल लिए और करीब पौन बजे स्टेशन पहुँचे। कार पार्क कर के जैसे ही प्लेटफॉर्म टिकट लेने पहुँचे तो पता लगा गाड़ी तीन बजे आने की संभावना है।

म असमंजस में थे कि दो घंटा यहाँ प्रतीक्षा की जाए या 12 किलोमीटर वापस घर जाया जाए? फिर वहीं प्लेटफॉर्म पर प्रतीक्षा करना उचित समझा। प्लेटफार्म पर बहुत सी सवारियाँ गाड़ी के इंतजार में थीं। हम ने भी एक बैंच खाली देख कर वहाँ अपना अड्डा़ जमाया। यह स्थान प्लेटफार्म के एक कोने में था और चारों ओर से खुला था। वहीं एक महिला भी इसी गाड़ी की प्रतीक्षा में थी। वह झारखंड से आयी थी यहाँ कोचिंग ले रही अपनी बेटी से मिल कर बंगलूरु जा रही थी। उसे छोड़ने के लिए तीन लड़के आए थे जो उस की बेटी के सहपाठी थे। कुछ ही देर में हमारे लिए सर्दी बढ़ गई हवा चलती तो लगता आज जरूर बीमार हो लेंगे। सब लोग सर्दी का कुछ न कुछ इंतजाम किए थे। मैं सफारी में और शोभा साधारण साड़ी ब्लाउज में चले आए थे, वैभव भी केवल टी-शर्ट पहने था। कोटा में दो तरह के इलाके हैं, तालाब के दक्षिण में मौसम गर्म होता है और उत्तर  में कम से कम तीन चार डिग्री ठंडा। हमारे निवास पर ठंड़ी बिलकुल नहीं थी।  यहाँ हवा हलकी सी भी चलती तो कंपकंपी छूटने लगती। अधिक चली तो वैभव को तो उस के बैग में से जरकिन निकलवा कर पहनवा दी, हालांकि वह मना करता रहा था। मुझे सर्दी का इलाज यही नजर आया कि बैंच पर बैठने के बजाय प्लेटफार्म पर चहल कदमी करते रहा जाए।

यपुर की ओर से आने वाली तमाम गाड़ियाँ पाँच से आठ घंटे देरी से चलना बताया जा रहा था। शेष सभी गाडियाँ समय पर थीं। यहाँ तक कि एक गाड़ी तो समय से करीब 35 मिनट पहले ही प्लेटफार्म पर आ गई और समय से पाँच मिनट पहले ही चल भी दी। हर घंटे चार-पांच गाड़ियाँ स्टेशन से छूट रही थीं। मुझे पहली बार इस बात का अहसास हुआ था कि कोटा इतना व्यस्त स्टेशन हो गया है। इस बीच पत्नी के सुझाव पर हम पिता-पुत्र ने एक बार कॉफी पी जो केवल गर्म थी वरना उसे कॉफी कहना कॉफी का अपमान होता। पत्नी कुछ परेशान दिखी पूछा तो पता लगा उसे शौच जाने की जरूरत है। स्टेशन के शौचालय पहुँचे तो वहाँ बड़े खूबसूरत रात्रि में चमकने वाले पट्ट पर अंकित था कि स्नानघर का एक रुपए में, शौचालय का 50 पैसे में और मूत्रालय का निशुल्क प्रयोग किया जा सकता था। मैं सोच में पड़ गया कि इसे 50 पैसे कैसे दूंगा। वह सिक्का तो कोटा के लिए कभी का अजनबी हो चुका है और रुपया ही इकाई हो चला है। शोभा को शौचालय का प्रयोग करना था। चौकीदार इतनी गहरी नींद में था कि उसे अच्छी तरह हिलाने पर भी वह फिर से सो गया। पत्नी निपट कर बाहर निकली तो मैं ने उसे पैसे देने के लिए जगाने लगा तो पास बैठा एक होमगार्ड ने कहा -पाँच रुपए? मैंने उसे कहा -वहाँ तो 50 पैसा लिखा है। उस ने बताया कि वह बोर्ड तो बाबा आदम के जमाने का है। मैं ने सोचा शायद तब का हो जब ज्ञानदत्त जी इस स्टेशन पर पदस्थापित रहे हों। मेरे पास पांच-दस का नोट-सिक्का न था। मैं ने सौ का नोट पकड़ाया तो होमगार्ड को लड़के को जगाना पड़ा। सौ का नोट पकड़ते ही उस की नींद तत्काल उड़ गई। उस ने टेबल की दराज में लगा ताला खोला और मुझे 95 रुपए वापस दिए। उस से पूछा कि उसे इतनी नींद कैसे आ रही है? तो बताने लगा कि वह चौबीस घंटे का नौकर है और उसे 2000 रुपए मात्र हर महिने मिलते हैं और ठेकेदार को कम से कम आठ सौ रुपए रोज की उगाही देनी होती है। इस से कम हो तो तनख्वाह में से काट लेता है। वह चौबीसों घंटे स्टेशन पर रहता है। बस दिन में दो-चार बार इस स्थान से इधर-उधऱ होता है तो स्टेशन का कोई भी कर्मी उस की जिम्मेदारी देख लेता है। वहीं कुर्सी टेबल पर ही वह नींद भी निकाल लेता है।

म वापस बैंच पर आ गए थे। तीन बजने को ही थे कि घोषणा हुई कि ट्रेन अब पाँच बजे आएगी। हवा तेज हो चली थी, ठंड बढ़ गई थी। उसी मात्रा में रेल पर गुस्सा आने लगा था कि क्या रेल वाले गाड़ी की देरी का अनुमान लगा कर नहीं बता सकते कि वह कितनी लेट हो सकती है। कम से कम यात्री तब तक अपने ठिकानों पर तो रह सकते थे। मैं फिर प्लेटफार्म पर लेफ्ट-राइट करने लगा। दीगर गा़ड़ियाँ आती-जाती रहीं। पाँच भी बज गए लेकिन गाड़ी अब भी नदारद थी। पास की महिला कंबल में सिकुड़े बैठी थी। अब देरी उस की भी बर्दाश्त के बाहर जा रही थी। उसे छोड़ने आए लड़कों को उस ने विदा कर दिया था।  उस ने बोला -भाई साहब जरा इन्क्वाइरी से तो पूछ आओ कि ट्रेन कब आएगी? आएगी भी कि नहीं?

मैं और वैभव पुल पार कर पूछताछ पर आए तो वहाँ पहले ही चार-पाँच  पूछताछ करने वाले थे और जवाब देने वाले एक स्त्री और एक पुरुष। स्त्री बुरी तरह झल्लाई हुई और गुस्से में थी और तीन चार पूछताछ वालों को बेवकूफ कह रही थी। जब सब लोगों ने पूछताछ कर ली तो मैं ने अपनी गाड़ी के बारे में पूछा तो उस का जवाब था -वहाँ डिस्प्ले बोर्ड पर देखो। मैं ने उसे कहा कि वहाँ तो तीन बार समय बढ़ चुका है। मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि यह अब इतना ही रहेगा या और दो चार-बार आगे बढ़ाया जाएगा? इस सवाल पर महिला और झल्ला गई बोली -जयपुर में पाँच दिन से आग लगी है वह तो बुझाई नहीं जा रही है। हम से गाड़ियों के बारे में पूछते हैं। आएगी तभी आएगी। मैंने उसे इतना ही कहा कि रेलवे को इधर से निकलने वाली गाड़ियों के बारे में सब पता है। वे इतना तो अनुमान कर ही सकते हैं कि कौन सी गाड़ी निकलने में कितना समय लेगी? वही बता दें। उस में घंटा आध घंटा देरी हो जाए तो कोई बात नहीं। वह फिर बोल उठी -हमारे पास जो सूचना आती है वह बता देते हैं। आप उद्घोषणा पर ध्यान रखिए। उस से अधिक कुछ पूछना ठीक न था। उसे कुछ  भी अनुमान न था। मैं ने डिस्प्ले बोर्ड पर निगाह दौड़ाई तो वहाँ हमारी गाड़ी पौने छह बजे आने की संभावना रोशन हो रही थी।

मैं ने वापस आ कर उस महिला को बताया कि वहाँ पौने छह के लिए लिखा है, पर यह केवल संभावना है। साढ़े पाँच बजे अचानक गाड़ी के कोच दर्शाने वाले बोर्डों पर हमारी गाड़ी का नंबर दिखा तो हम आशान्वित हो उठे कि अब गाड़ी पोने छह नहीं तो छह तक तो आ ही लेगी। हमने बैंच त्याग दी और जहाँ हमारा डिब्बा दिखाया जा रहा था वहाँ आ खड़े हुए। छह बजे तक कोच स्थिति दिखाई जाती रही। फिर बोर्ड बुझ गए। कुछ देर बाद गाड़ी आती दिखाई दी तो हम बिलकुल तन कर खड़े हो गए। पास आने पर पता लगा वह कोई अन्य पैसेंजर गाड़ी थी। वह आधे घंटे खड़ी रह कर चल दी। फिर पौने सात बजे फिर कोच स्थिति दिखने लगी। राम-राम करते गाड़ी पौने सात प्लेटफार्म पर लगी। वैभव को बैठाया। गाड़ी ने सात बीस पर स्टेशन छोड़ा तो हम ने वापस घर की तरफ प्रस्थान किया। तब तक सूरज बहुत ऊपर आ चुका था। ठंड से पैर और पीठ अकड़ चुकी थी। प्लेटफार्म पर टहलने के कारण पिंडलियाँ बुरी तरह दर्द कर रही थीं। शोभा से पूछा तो उस का भी यही हाल था। मैं ने उसे बताया कि घर पहुँचते ही अदरक वाली गर्म कॉफी पिएंगे उस के बाद एकोनाइट-200 की एक-एक खुराक खा कर सोएँगे। घर पहुँचने पर यह सब किया, फिर गृहणी तो घर संभालने में लगी। मैं ने दिन के काम की रूप रेखा देखी और पीछे के कमरे में कंबल ओढ़ कर सो गया। मुश्किल से दो घंटे सोया उस में भी चार बार फोन घनघनाहट ने व्यवधान किया लेकिन हमने उस की उपेक्षा की। अभी भी लग रहा है कि हम दोनों को सामान्य होने में एक-दो दिन लगेंगे। रात साढे़ ग्यारह पर वैभव ने फोन पर बताया कि गाड़ी दो घंटे और पीछे हो गई है और नागपुर के पहले किसी छोटे अनजान स्टेशन पर खड़ी है।