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गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

चुनाव परिणाम से उत्पन्न अवसाद

 ल शाम मेरे साथी ब्लागर अख़्तर खान अकेला अवसाद में थे। उसी अवसाद में उन्हों ने कल शाम पोस्ट लिखी। लेकिन अच्छा यह हुआ कि अवसाद की यह धुंध तात्कालिक थी, जो सुबह तक छंट गई और वे पुनः अपनी शैली में आ गए। अवसाद का कारण था अभिभाषक परिषद कोटा के वार्षिक चुनाव के परिणाम। चुनाव में इस बार कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। कोटा की अभिभाषक परिषद को ऐसी कार्यकारिणी चाहिए थी जो वकीलों और वकालत के व्यवसाय के हितों का सही प्रतिनिधित्व कर सके। लेकिन इस के उपयुक्त उम्मीदवार तलाश के बावजूद भी नहीं मिल रहे थे।  
पिछले दो वर्ष कोटा की वकालत के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण थे। इस बीच वकालत कम हुई और वकीलों की हड़तालें और कामबंदी अधिक। उस के कारण भी थे। कोटा राजस्थान का महत्वपूर्ण संभागीय मुख्यालय है। इस संभाग की भूमि उपजाऊ है। मध्य प्रदेश के पारयात्र पर्वत (विन्ध्याचल पर्वत का पश्चिमी भाग) से निकलने वाली पार्वती और चंबल और इस के बीच की सभी नदियाँ इसी संभाग में आ कर आपस में मिल जाती हैं, जिस के कारण जल संसाधन भरपूर हैं। जल की उपलब्धता के कारण इस संभाग में जनसंख्या घनत्व राजस्थान के सभी संभागों से अधिक है। कृषि उत्पादन भरपूर होता है, इस से व्यापार भी कम नहीं। संसाधनों के कारण यहाँ उद्योग भी लगे और कोटा नगर औद्योगिक हो गया। लेकिन हर वस्तु की भांति उद्योगों की भी एक आयु होती है। धीरे-धीरे उद्योग बूढ़े होते गए और मरते गए। 1997 में एक साथ पाँच बड़े उद्योग बंद हो गए। उन से बेरोजगारी का सैलाब उत्पन्न हुआ। लेकिन इस नगर की किस्मत अच्छी थी। इस बीच यहाँ के कुछ टेक्नोक्रेट्स ने आईआईटी, इंजिनियरिंग और चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश परीक्षाओं में सफलता के लिए कोचिंग देना आरंभ किया और उन्हें सफलता हासिल हुई हजारों छात्र यहाँ कोचिंग लेने आने लगे। अब नगर में बाहर से आने वाले साठ हजार से अधिक कोचिंग छात्र रहने लगे तो उद्योगों से बेरोजगार हुए लोग उन्हें सेवाएँ प्रदान करने में जुटे और बेरोजगारी का दंश कुछ कम हुआ। लोग इस नगर को औद्योगिक नगर के स्थान पर शिक्षा नगरी कहने लगे। हालांकि यह एक गलत तखल्लुस है। क्यों कि यह अभी भी शिक्षा का केन्द्र नहीं अपितु केवल प्रवेश परीक्षा में सफलता के लिए प्रशिक्षण का केंद्र है।
राजस्थान के राज्य प्रशासन में कोटा जैसे महत्वपूर्ण संभाग का हिस्सा भी महत्वपूर्ण होना चाहिए था। लेकिन राजस्थान के गठन के समय जयपुर राजधानी हुई, जोधपुर को उच्चन्यायालय मिला, अजमेर को राजस्व मंडल मिला, उदयपुर को कुछ अन्य मुख्यालय मिले लेकिन कोटा को कुछ नहीं मिला। राजधानी होने के कारण जयपुर को उच्चन्यायालय की पीठ भी मिल गई। कोटा लगातार अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहा। जनसंख्या घनत्व अधिक होने से राज्य प्रशासन के हर क्षेत्र में कोटा संभाग का काम अधिक है। यदि संभागों की दृष्टि से देखा जाए तो उच्चन्यायालय में सर्वाधिक मुकदमे कोटा संभाग के हैं। इस दृष्टि से यदि राजस्थान उच्चन्यायालय की एक और पीठ स्थापित होती है तो वह कोटा का अधिकार है। लेकिन राजनैतिक समीकरणों में कमजोर होने के कारण लगता है कि उस का यह अधिकार भी उदयपुर, बीकानेर या अजमेर न छीन ले जाए। इसी आशंका को देखते हुए कोटा ने उच्चन्यायालय की पीठ के लिए आंदोलन आरंभ कर दिया। कोटा के वकील 2009-10 में पाँच महिने हड़ताल पर रहे, उन्हें देख कर उदयपुर, बीकानेर के वकील भी इस से कुछ कम समय हड़ताल पर रहे। राज्य के एक बड़े हिस्से में न्यायिक प्रक्रिया बिलकुल बाधित रही, लेकिन राज्य सरकार को इस की तनिक भी चिंता न हुई। पाँच माह की काम बंदी के बाद जब उच्चन्यायालय की बैंच के लिए स्थान तय करने के लिए समिति गठित हो गई और मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया कि कोटा में राज्य उपभोक्ता आयोग की सर्किट बैंच, राजस्व मंडल की खंड पीठ स्थापित की जाएगी तथा वकीलों को मकान बनाने के लिए रियायती दर पर भूखंड दिए जाएंगे तो हड़ताल समाप्त हुई।  
लेकिन जब पूरा एक वर्ष जाने को हुआ और आश्वासन कोरे आश्वासन बने रहे तो वकीलों को फिर से संघर्ष के मैदान में उतरना पड़ा। नवम्बर में फिर से हड़ताल हुई। इस बीच आनन फानन में राज्य उपभोक्ता आयोग की सर्किट बैंच के आरंभ होने की तिथि तय कर दी गई। वकीलों को भूखंड आवंटित करने की प्रक्रिया आरंभ करने के लिए नगर विकास न्यास से पत्र अभिभाषक परिषद को मिल गया। लेकिन राजस्व न्यायालय की खंड पीठ के लिए बात करने को मुख्यमंत्री ने समय नहीं दिया। उन का कहना है कि पहले हड़ताल समाप्त की जाए तब वे बात करेंगे। वकील इस बात पर अड़ गए कि हड़ताल के जारी रहते बात क्यों नहीं की जा सकती है? अब हड़ताल जारी है। इस बीच चुनाव का समय आ गया। यह लगातार दूसरा वर्ष है जब अभिभाषक परिषद कोटा के चुनाव हड़ताल के दौरान हुए हैं। 
बात अख़्तर खान अकेला के क्षणिक अवसाद से आरंभ हुई थी। जब उन्हों ने उम्मीदवारी के लिए पर्चा दाखिल किया तो मैं समझता था कि वे इसे वापस ले लेंगे, लेकिन उन्हों ने वापस नहीं लिया। उन का सोचना था कि वे वकीलों के हर संघर्ष, हर काम में आगे रहे हैं और वकीलों तथा न्यायिक व्यवस्था की बेहतरी के लिए अच्छा काम कर सकते हैं, इस कारण से वकीलों को उन्हें परिषद का अध्यक्ष चुनना चाहिए। लेकिन यह सोच मतदाताओं की नहीं है। मतदाताओं का समूह अभी किसी भी क्षेत्र में काम के आधार पर संगठित ही नहीं होता। मतदान के लिए अनेक आधार होते हैं जो परंपरागत अधिक हैं। जिनमें उम्मीदवार की जाति, धर्म, किन समूहों से वह जुड़ा है आदि आदि हैं। काम और योग्यता के आधार पर मतदान करने वाले लोग भी देखते हैं कि उम्मीदवार में इन परंपरागत आधारों पर जीत के नजदीक पहुँचने की क्षमता भी है या नहीं। स्वयं अख़्तर यह जानते थे कि वे इस पर खरे नहीं हैं, उन्हों ने कभी लॉबिंग नहीं की। नतीजा यह हुआ कि उन्हें केवल आठ-नौ प्रतिशत मत प्राप्त हुए। यह उन की अपेक्षा से बहुत कम थे। उसी ने उन में यह अवसाद उत्पन्न किया। यह अवसाद उन की कल शाम आई ब्लागपोस्ट में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। आज सुबह जो पोस्टें आई हैं वे बताती हैं कि वे अवसाद से पूरी तरह निकल चुके हैं। मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि उन्हें कल शाम उन का अवसाद प्रदर्शित करने वाली पोस्ट को हटा लेना चाहिए। 
स चुनाव में भाग लेने से अख़्तर को कोई हानि नहीं हुई है। उन्हें चुनाव का अनुभव हुआ है और बहुत सारी वास्तविक सचाइयाँ उजागर हुई हैं। वे इस अनुभव से और अधिक परिपक्व हुए हैं। यदि इस अनुभव के साथ वे आगे बढ़ेंगे और सही दिशा में काम करेंगे तो वह वक्त भी आ सकता है कि वे अभिभाषक परिषद कोटा के अध्यक्ष बनें। यहाँ तक वे सामान्य जनता में भी लोकप्रियता प्राप्त कर उन का अनेक मंचों पर प्रतिनिधित्व करें। मेरी शुभकामनाएँ उन के साथ हैं।