@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: agriculture
agriculture लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
agriculture लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 18 अगस्त 2010

वे संघर्षो से हथियार बंद बलों के माध्यम से निपटने के आदी हो चुके हैं

ल मैं ने नगरों के विकास में पूंजी के अनियोजित निवेश से अवरुद्ध विकास की बात की थी। आज इसी विकास का एक और पक्ष जिस की आग में उत्तर प्रदेश जल रहा है। इस से पहले सिंगूर, नंदीग्राम औऱ दादरी में इस आग के दर्शन हम कर चुके हैं। वहीं लाल पट्टी जहाँ नक्सली-माओवादी सक्रिय हैं में भी यही विषय प्रमुख बना हुआ है। औद्योगिक और नगरीय विकास के लिए खेती की जमीनों का अधिग्रहण और जंगलों की वानस्पतिक और खनिज उपज को उद्योगपतियों के हवाले कर देना इस आग का मूल कारण है। 
म सभी जानते हैं कि औद्योगिकीकरण और नगरीयकरण विकास के लिए आवश्यक हैं। दुनिया की आबादी को इस विकास के बिना जीवित भी नहीं रखा जा सकता। भारत में आज भी औद्योगिकी करण बहुत पिछड़ा हुआ है और आधी से अधिक आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। भारत जैसे देश को यदि विकास की दौड़ में बनाए रखना है तो उस का औद्योगिकीकरण आवश्यक है। औद्योगिकीकरण के बिना देश की आबादी को जरूरत की चीजें मुहैया करा पाना संभव भी नहीं है। यही तर्क आज सरकारों और शासक वर्गों की ओर से दिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि किसान और माओवादियों के साथ खड़े आदिवासी इन जरूरतों और तर्कों को नहीं समझते हों। वे जानते हैं कि ये जरूरी है लेकिन फिर भी उस के लिए वे लड़ते हैं और सशस्त्र संघर्ष में उतर आते हैं। 
स लड़ाई की मूल वजह फिर वही है,  अनियंत्रित और अनियोजित विकास। विकास का अर्थ यह तो नहीं कि खेती पर निर्भर किसानों और जंगलों को अपना जीवन मानने वाले आदिवासियों की कीमत पर यह सब किया जाए। यह पहले से निश्चित है कि ओद्योगिक और नगरीय विकास तथा जांगल उपजों पर उद्योगों के अधिकार के साथ किसान और आदिवासी विस्थापित होंगे और बरबाद होंगे। कुछ रुपयों के पीछे उन्हें लगातार रोजगार देने वाली भूमि सदा के लिए नष्ट हो जाएगी। जंगल अब आदिवासियों के लिए पराया हो जाएगा। उद्योगों के उत्पादों के विपणन में जब खुला बाजार पद्धति को लागू कर दिया गया है उद्योगपति जब अपने माल को मनचाही कीमत पर बेच सकता है और उस के लिए मोल-भाव कर सकता है तो किसान अपनी जमीन के लिए क्यों नहीं कर सकता। उसे अपनी जमीन मनचाही कीमत पर बेचने का अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता? 
किसान की जमीन  की कीमत बढ़ा कर जमीन  के मालिकों के लिए तो हल निकल आएगा। लेकिन सिंगूर, नंदीग्राम, दादरी में और अब उत्तरप्रदेश में जो आंदोलन हुए हैं उन की ताकत यह जमीनों का मालिक किसान नहीं है। उस के पीछे की असली ताकत वे लोग हैं जो इन खेती की जमीनों पर काम करते हैं। भूमिधर किसानों को तो उन की जमीन की कीमत मिल जाएगी। लेकिन उन्हें क्या मिलेगा जो उन जमीनों पर अपना पसीना बहाते हैं। उन का रोजगार तो नष्ट हो रहा है। उन्हें तो उसी भीड़ में आ कर खड़ा होना पड़ेगा जो नगरों के चौराहों पर रोज सुबह काम की तलाश में खड़ी दिखाई पड़ती है और जिस में से बहुतों को दिन भर बिना काम के ही गुजारा चलाना पड़ता है। निश्चित रूप से विकास गति को बनाए रखने वाली सरकारों को सोचना होगा कि खेती की जमीनों और जंगलों से बेकार हो रहे इन मनुष्यों के लिए क्या किया जाए। जमीनों के अधिग्रहण और जंगलों की उपज पर अधिकार जमाने के पहले इनम मनुष्यों के लिए व्यवस्था बनाई जाये तो ये आंदोलन, खून खऱाबा और सशस्त्र संघर्ष दिखाई ही नहीं पड़ेंगे। पर मौजूदा आर्थिक व्यवस्था को जनता की जरूरतों से अधिक मतलब पूंजीपतियों के मुनाफों की होती है। वे संघर्षो से हथियार बंद बलों के माध्यम से निपटने के आदी हो चुके हैं। विकास होना चाहिए पूंजी दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़नी चाहिए। इंसान मरे तो मरे उस की उन्हें क्यों फिक्र होने लगी?

रविवार, 27 जून 2010

गाँव की सामान्य अर्थव्यवस्था - -एक ग्राम यात्रा

पिछली पोस्टों घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रादेवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है और घूंघट में दूरबीन और हेण्डपम्प का शीतल जल से आगे ....... 
 कोई दो सौ कदम चलने पर ही पोस्टमेन जी का घर आ गया। एक कमरा पक्का बना हुआ था, शेष वही कवेलूपोश। घर में आंगन था जिस में नीम का पेड़ लगा था। पास ही एक हेण्डपम्प था।  पेड़ के नीचे दो चारपाइयाँ बिछी थीं। एक बुनी हुई और दूसरी निवार से बुनने की प्रक्रिया में थी। हम बुनी हुई चारपाई पर बैठ गए। पोस्टमेन जी चाय बनाने को कहने लगे। मैं ने इनकार किया कि मैं तो बीस बरस से चाय नहीं पीता। उन्हों ने शरबत का आग्रह किया। मैं ने उस के लिए भी मना कर दिया। उन की पोती जल्दी से शीतल जल ले आई। पोस्टमेन जी बताने लगे कि वे रिटायर होने के बाद गाँव ही आ गए। यहाँ कुछ जमीन है उसे देखते हैं, खेती अच्छी हो जाती है। दो लड़कों ने गाँव में ही अपना स्कूल खोल रखा है, जिस में सैकण्डरी तक पढ़ाई होती है। खुद पढ़ाते हैं और गाँव के ही कुछ नौजवानों को जिन्होंने बी.एड. कर रखा है और सरकारी नौकरी नहीं लगी है स्कूल में अध्यापक रख लिया है। स्कूल अच्छा चल रहा है, यही कोई ढाई सौ विद्यार्थी हैं। दो लड़के कोटा में नौकरी करते हैं। वहाँ उन्हों ने नौकरी के दौरान मकान बना लिया था उस में रहते हैं। मुझे पोस्टमेन जी अपने जीवन से संतुष्ट दिखाई दिए। इस से अच्छी कोई बात नहीं हो सकती थी कि उन के चारों पुत्र रोजगार पर हैं, सब के विवाह हो चुके हैं। उन्हें पेंशन मिल रही है और खेती की जमीन पर खेती हो जाती है। 
चौपाल पर गाँव का एक बालक
मैं ने उन से पूछा -खेती में तो खटना पड़ता होगा?
वे बताने लगे -खेती में आजकल कुछ नहीं करना पड़ता। सभी काम मशीनों से हो जाते हैं जो करवा लिये जाते हैं। बस खाद-बीज-कीटनाशक की व्यवस्था करनी पड़ती है। रखवाली और अन्य कामों के लिए एक हाळी (वार्षिक मजदूरी पर खेती के कामों के लिए रखा मजदूर) रख लेते हैं। हंकाई-जुताई-बिजाई ट्रेक्टर वाला किराए पर कर देता है। फसल पकने पर कंबाइन आ जाता है जो काट कर अनाज निकाल कर बोरों में भर देता है। ट्रेक्टर किराए पर ले कर फसल मंडी में बेच आते हैं। निराई आदि के काम बीच में आ जाते हैं तो मजदूर मिल जाते हैं। उन्हों ने बताया कि गाँव में जितने भी लोगों के पास खुद की भूमि है वे सभी इसी तरह काम करते हैं। किसी के पास ट्रेक्टर और दूसरे साधन हैं तो वे  भी उन से काम करने के लिए मजदूर रख लेते हैं।  गाँव में जिन के पास भूमि है उन सब के पास बहुत समय है, वे केवल खेती का प्रबंधन करते हैं या फिर मौज-मस्ती में जीवन गुजारते हैं। 
-इस हिसाब से गाँव संपन्न दिखाई देना चाहिए, लेकिन वैसी संपन्नता दिखाई नहीं देती। अभी भी गांव के 70-80 प्रतिशत घरों पर पक्की छतें नहीं हैं। मैं ने पूछा।
पोस्टमेन जी बताने लगे। लोग खुद तो कुछ करते नहीं सब मजूरों और मशीनों पर कराते हैं। नतीजे में खेती में खर्चा बहुत हो जाता है बस गुजारे लायक ही बचता है। जो लोग खेती के साथ दूसरे व्यवसाय करने लगते हैं या जिन्हें नौकरियाँ मिल जाती हैं वे अवश्य संपन्न हो चले हैं, पर ऐसे लोग कम ही हैं। हाँ, जिन के पास खेती नहीं है और केवल मजदूरी पर निर्वाह कर रहे हैं उन के पास इसी कारण से काम की कमी नहीं रही है। जो अच्छा काम करते हैं उन्हें हमेशा काम मिल जाता है। वैसे साल भर काम नहीं रहता है। लेकिन जब काम नहीं मिलता है तब वे नरेगा आदि में चले जाते हैं। उन में से जिन में कोई ऐब नहीं है वे धन संग्रह भी कर पाए हैं। गाँव में स्थिति यह है कि किसी जमीन वाले को पैसे की जरूरत पड़ जाए तो ये मजदूरी करने वाले लोग तीन रुपया सैंकड़ा मासिक ब्याज पर उधार दे देते हैं। 
मैं ने अपने मोबाइल पर समय देखा पौने चार हो रहे थे। मुझे उसी दिन रातको जोधपुर के लिए निकलना था। यह तभी हो सकता था जब कि मैं कम से कम छह बजे तक कोटा अपने घर पहुँच सकता। मुझे लगा अब यहाँ से चलना चाहिए। मैं ने पोस्टमेन जी से विदा लेनी चाही लेकिन, वे मुझे मेरे मेजबान के घर तक छोड़ने आए।  मेजबान का घर मेहमानों से भरा था। कुछ सुस्ता रहे थे, कुछ बतियाने में लगे थे। लेकिन घर की महिलाओं और लड़कियाँ काम  में लगी थीं। रसोई में चाय बन रही थी। दो महिलाएँ हेण्डपम्प के पास बर्तन साफ करने में लगी थीं। मेहमानों के लिए चाय आई। मैं ने मना किया तो मेरे लिए तुरंत ही नींबू की शिकंजी बन कर आ गई। अब सब लोगों को भोजन कराने की तैयारी थी। जो कहीं और बन रहा था। मैं भोजन करने के लिए रुकता तो फिर जोधपुर न जा सकता था। मैं निकलने के लिए अपनी कार तक आया। उस की धूल झाड़ ही रहा था कि मेजबान का पुत्र वहाँ आ गया। भोजन बिलकुल तैयार है बस आधे घंटे में आप निपट लेंगे, मैं उस के आग्रह को न टाल सका। 
ह मुझे उस स्थान पर ले गया जहाँ भोजन बन रहा था और खिलाया जाना था। वह एक घर था जिस मेंकेवल दो कच्चे कमरेबने थे, शेष भूमि रिक्त थी। जो जानवरों को बांधने आदि के काम आती थी। वहीं भोजन बन रहा था। खाली भूमि को साफ कर दिया गया था जिस से वहाँ बैठा कर भोजन कराया जा सके। हम पाँच-छह लोग जिन्हें जाने की जल्दी थी बिठा दिए गए। भोजन में आलू-टमाटर की स्वादिष्ट सब्जी थी, कच्चे आम की आँच थी जिस में बेसन की नमकीन बूंदी डाली गई थी, इस के अलावा बेसन के चरपरे सेव थे और मीठी बूंदी थी जिसे हम यहाँ नुकती कहते हैं, गरमागरम पूरियाँ परोसी जा रही थीं। हाड़ौती का ठेठ परंपरागत मीनू था, यह। गर्मी के कारण भोजन स्वादिष्ट होने पर भी ठीक से न कर पाए। भोजन के उपरांत हम गाँव से लौट पड़े।

रविवार, 14 मार्च 2010

किसानों के लिए खुश-खबर : बिना सिंचाई प्रति हेक्टेयर 35-40 क्विंटल गेहूँ उपजाया

राजस्थान के टोंक जिले में पाँच वर्ष पहले जब किसान सिंचाई के लिए पानी की मांग के लिए आंदोलन कर रहे थे, तब राजमार्ग से अवरोध हटाने के लिए सरकार को गोलियाँ चलानी पड़ी थीं।  इस गोलीकांड में एक महिला सहित पाँच व्यक्तियों को अपनी जान देनी पड़ी थी। ये किसान अपने ही जिले में स्थित राजस्थान के दूसरे सब से बड़े बांध बीसलपुर के पानी को स्थानीय किसानों को सिंचाई के लिए उपलब्ध कराने की मांग कर रहे थे। राज्य सरकार सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराने के स्थान पर उसे राज्य की राजधानी जयपुर को पेयजल उपलब्ध कराने का निर्णय कर चुकी थी। यह निर्णय क्षेत्र के किसानों को नागवार गुजरा था।
से में जब राज्य में पानी के लिए बाकायदा जंग लड़ी जा चुकी हों, तब यह खबर आप को और किसानों को राहत पहुँचाने वाली है कि बिना सिंचाई के खेतों में गेहूँ उगाया जा सकता है और 35 से 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर फसल प्राप्त की जा सकती है।  कोटा के उम्मेदगंज कृषि अनुसंधान केन्द्र के कृषि वैज्ञानिकों ने यह कर दिखाया है।
स अनुसंधान केन्द्र ने इस वर्षएचआई-1531, एचआई-1500, एचडब्ल्यू-2004, डब्ल्यूएच-1098, एचडी-3071, आरडब्ल्यू-3688, एचडी 4672, एकेडीडब्ल्यू-4635, एमपी-1240, एचडी-3070 जैसी लगभग छत्तीस किस्म की गेहूँ की फसलें बोयीं और अपेक्षित परिणाम प्राप्त किए। बोयी गई फसलों की कटाई के उपरांत थ्रेशिंग हो चुकी है और छह सात बोरी प्रति बीघा उपज प्राप्त की है।
स अनुसंधान केन्द्र ने अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में पलेवा के बाद खेत की अच्छी तरह जुताई की। इसके बाद खेत में 40-40 किलो नत्रजन व फास्फोरस डाला और उस के बाद 15 से 20 अक्टूबर के बीच बुआई की।  इसके  उपरांत  इन फसलों की एक बार भी सिंचाई नहीं की गई। इन फसलों ने पकने में 125-130 दिन  लिए। जब कि गेहूँ की फसल को तीन बार सिंचाई करने के उपरांत केवल 50 से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज ही प्राप्त की जा सकती है। इस तरह यह प्रयोग उन किसानों के लिए रामबाण सिद्ध हुआ है जिन की भूमि को सिंचाई की सुविधा प्राप्त नहीं है या प्राप्त है तो कम बरसात के कारण सिंचाई स्रोत अनुपलब्ध हो जाने से वे गेहूँ की फसल बोने में संकोच करते हैं।