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शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

उन्हें जज नहीं, तोते चाहिए

ख़्तर खान अकेला (हालांकि फोटो बता रहा है कि वे अकेले नहीं) को आप द्रुतगामी ब्लागीर कह सकते हैं। वे वकील हैं और पत्रकारिता से जुड़े हैं। दिन भर अदालत में वकालत का काम करना और फिर दफ्तर करना। दफ्तर में जब भी वक़्त मिल जाए ब्लागीरी करना। ज़नाब ने 7 मार्च 2010 को अपने ब्लाग की पहली पोस्ट ठेली थी, आज यह पोस्ट लिखने तक उन की 1517वीं पोस्ट प्रकाशित हो चुकी थी। यदि वे दफ़्तर से निकल न चुके होंगे तो आज की तारीख में अभी और पोस्ट आने की संभावना पूरी पूरी है, यह पोस्ट लिखने तक यह संख्या 1518 ही नहीं 1520 भी हो सकती है। नवम्बर के 25 दिनों में पूरी 160 पोस्टें ठेली हैं ज़नाब ने। कब पाँच सौ, कब हजार और कब डेढ़ हजार पोस्टें डाल चुके पर चूँ तक भी नहीं की। कोई स्वनामधन्य होता तो अब तक के हर शतक पर एक-एक पोस्ट और ठेल कर ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएँ प्राप्त कर चुका होता। पर अख़्तर भाई हैं कि उन से कुछ कहो तो कभी मुस्कुरा कर और कभी हँस कर टल्ली मार जाते हैं। 
ब हम कोटा के वकील हड़ताल कुछ ज्यादा करते हैं। यह भी एक कारण है कि जो जो वकील ब्लागीर (मुझ समेत) हुआ सफल हो गया।  चार दिन पहले अख़्तर भाई ने लिखा, -कोटा के वकीलों की हड़ताल बनी मजबूरी। अब ये कोटा के वकीलों की मजबूरी थी या फिर हमारे मौजूदा नेताओं की। पर तीन दिन से अदालत में काम बंद है। आज मैं अदालत से जल्दी खिसक आया था। शाम होते होते पता लगा कि हड़ताल लंबी चलने वाली है, हो सकता है ये साल हड़ताल में पूरा हो जाए। इस साल की तरह फिर से हड़ताल को खत्म करने के लिए वकीलों के नेता बहाना तलाशने लगें।
ब हमारे यहाँ अभिभाषक परिषद के चुनाव हर साल होते हैं और विधान के मुताबिक 15 दिसंबर तक चुनाव होने जरूरी हैं और नए साल के पहले कार्यदिवस पर नयी कार्यकारिणी परिषद का कामकाज सम्भाल लेती है। इस बार प्रस्ताव आया कि चूँकि पिछले साल हमें चार माह की हड़ताल करनी पड़ी थी, मुख्य मंत्री ने कुछ आश्वासन दिए थे वे अब तक पूरे नहीं किये हैं। इस कारण से हमें लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है। मौजूदा कार्यकारिणी अच्छा संघर्ष चला रही है इस लिए संघर्ष के समापन तक चुनाव स्थगित कर दिया जाए। यूँ कहा जाता है कि वर्तमान कार्यकारिणी पर भाजपा के लोग शामिल हैं। पर ये इंदिरागांधी से सीधे प्रेरणा ले रहे थे। कि आपातकाल बता कर अपनी उमर बढ़वा लो। प्रस्ताव असंवैधानिक था और वकीलों की आमसभा ने उस पर बहस से ही इन्कार कर दिया। चुनाव होना तय हो गया। लेकिन कार्यकारिणी ने दूसरे दिन से ही तीन दिन की सांकेतिक हड़ताल की घोषणा कर दी। दबे स्वर में लोग कह रहे हैं कि कार्यकारिणी का सोच यह है कि पिछली ने चार माह हड़ताल कर के नयी कार्यकारिणी को सौंप गए थे। अब मौजूदा कार्यकारिणी नयी को हड़ताल का कार्यभार न सोंप कर जाएँ तो कहीं ऐसा न हो उन्हें ग़बन का आरोप झेलना पड़े। 
यूँ मुझे व्यक्तिगत तौर पर भारत के समाजवादी या हिन्दू राष्ट्र होने तक की हड़ताल मंजूर है। वकालत के अलावा और भी बहुत जरीए हैं खाने-कमाने के। पर आखिर हड़ताल से काम बंद होता है और पहले से ही चींटी की चाल से चल रही न्याय की गाड़ी और धीमी हो जाती है। मैं जब ये बात कहता हूँ तो वकील मित्र कहते हैं पहले ही कौन न्याय हो रहा है जो रुक जाएगा, नुकसान तो हमें हो रहा है, जेब में पैसे आने ही बंद हो जाते हैं। मैं उन्हें कहता हूँ कि वकालत की गाड़ी दौड़ाने का एक तरीका है। जितनी अदालतों में जज नहीं है वहाँ जजों की नियुक्ति के लिए लड़ो, अदालतों में पाँच-पाँच हजार मुकदमे इकट्ठे हो रहे हैं, अधिक अदालतें खोलने के लिए लड़ो। जल्दी फैसले होंगे तो अदालतों की साख बढ़ेगी, ज्यादा मुकदमे आएंगे। सरकारें फिजूल का बहाना बनाती है कि जजों के लिए काबिल लोग नहीं मिलते। वकीलों में तलाश करने जाएँ तो बहुत काबिल मिल जाएंगे। पर उन्हें काबिल वकील नहीं चाहिए। उन की परीक्षा ऐसी होती है कि कोई कामकाजी वकील उत्तीर्ण ही न हो। उन की परीक्षा ऐसी होती है कि वे ही उत्तीर्ण होते हैं जो साल-छह महीने से वकालत छोड़ कर सिर्फ किताबें रट रहा हो। उन्हें तोते चाहिए, जज नहीं। 
धर हड़ताल शुरू होने के पहले दिन से श्रीमती जी मायके चली गई हैं। मैं ने तो घर संभाल लिया है। आज हड़ताल समाप्त होने की खबर सुन कर वापस लौटने की उम्मीद थी। पर कल सुबह का अखबार जो कुछ बतायेगा उस से मैं ने तो उम्मीद छोड़ दी है। अब अख़्तर भाई इन दिनों क्या कर रहे हैं ये तो वही बताएंगे। चाहें तो आप पूछ कर देख लें।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

दिन भर व्यस्त रहा, लगता है कुछ दिन ऐसे ही चलेगा

ज हड़ताल समाप्ति के दूसरे दिन मैं अदालत सही समय पर तो नहीं, लेकिन साढ़े ग्यारह बजे पहुँच गया था। कार को पार्क करने के लिए स्थान भी मिल गया। लेकिन अदालत में निराशा ही हाथ लगी। एक अदालत में एक ही प्रकृति के ग्यारह मुकदमे लंबित थे। अस्थाई निषेधाक्षा के लिए बहस होनी थी। लेकिन अदालत जाने पर पता लगा कि अदालतों में मुकदमों की संख्या का समानीकरण करने के लिए बहुत से स्थानांतरित किए गए हैं उन में वे सभी शामिल हैं। इन ग्यारह मुकदमों में से सात एक अदालत में और चार दूसरी अदालत में स्थानांतरित कर दिए गए हैं। नई अदालत में जा कर उन मुकदमों को संभाला। इस से एक दिक्कत पैदा हो गई कि अब या तो सारे ग्यारह मुकदमों को एक ही अदालत में स्थानांतरित कराने के लिए आवेदन प्रस्तुत करना होगा। जिस में दो-चार माह वैसे ही निकल जाएंगे, या फिर दोनों अदालतों में मुकदमों अलग अलग सुनवाई होगी। इस से मुकदमों में भिन्न भिन्न तरह के निर्णय होने की संभावना हो जाएगी।। कुल मिला कर मुकदमों के निर्णय में देरी होना स्वाभाविक है।
श्रम न्यायालय का वही हाल रहा वहाँ लंबित तीन मुकदमों में तारीखें बदल गईँ। दो मुकदमे 1983 व 1984 से लंबित हैं। उन में तीन व्यक्तियों की सेवा समाप्ति का विवाद है। एक का पहले ही देहांत हो चुका है, शेष दो की सेवा निवृत्ति की तिथियां निकल चुकी हैं। प्रबंधन पक्ष के वकील के उपलब्ध न होने के कारण आज भी उन में बहस नहीं हो सकी। तीसरे मुकदमे में प्रबंधन पक्ष के वकील के पास उस की पत्रावली उपलब्ध नहीं होने से बहस नहीं हो सकी। श्रम न्यायालय ने एक सकारात्मक काम यह किया कि मुझे पिछले दस वर्षों में अदालत में आने वाले और निर्णीत होने वाले मुकदमों की संख्या का विवरण उपलब्ध करवा दिया। इस से सरकार के समक्ष यह मांग रखने में आसानी होगी कि कोटा में एक और अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। कल मिले कुछ ट्रेड यूनियन पदाधिकारी इस मामले को राज्य सरकार के समक्ष उठाने के लिए तैयार हो गए हैं। इस विषय पर आज अभिभाषक परिषद के अध्यक्ष से भी बात की जानी थी। पर वे उन की 103 वर्षीय माताजी का देहांत हो जाने के कारण अदालत नहीं आए थे। अब शायद पूरे बारह दिनों तक वे नहीं आ पाएंगे। कल उन के यहाँ शोक व्यक्त करने जाना होगा। संभव हुआ तो तभी उन से यह बात भी कर ली जाएगी।
अपने दफ्तर में व्यस्त मैं
दालत से घर लौटा तो पाँच बज चुके थे। घर की शाम की कॉफी का आनंद कुछ और ही होता है। उस के साथ अक्सर पत्नी से यह विचार विमर्श होता है कि शाम को भोजन में क्या होगा। हालाँकि हमेशा नतीजा यही होता है कि बनता वही है जो श्रीमती जी चाहती हैं। वे जो चाहती हैं वह सब्जियों की उपलब्धता पर अधिक निर्भर करता है। अक्सर मैं इस विचार-विमर्श से बचना चाहता हूँ। लेकिन बचने का कोई उपाय नहीं है।
शाम सात बजे से दफ्तर शुरू हुआ तो ठीक बारह बजे अपने मुवक्किलों से मुक्ति पाई है। फिर कल की पत्रावलियाँ देखने में एक बज गया। तब यह रोजनामचा लिखने बैठा हूँ। आज ब्लॉग पर कुछ खास नहीं लिख पाया। शाम को मिले समय में मुश्किल से अपने एक साथी का मुस्लिम विवाह पर नजरिया जो उन्होंने लिख भेजा था तीसरा खंबा पर अपलोड कर पाया हूँ। आज बहुत से ब्लाग जो पढ़ने योग्य थे वे भी पढ़ने से छूट गए। चार माह से हड़ताल कर बैठने के बाद अदालतों में काम आरंभ होने का नतीजा है यह। लगता है कुछ दिन और ऐसा ही सिलसिला बना रहेगा।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

ह़ड़ताल समाप्ति के बाद का पहला दिन

रात को सोचा था  'अब हड़ताल खत्म हो गई है, कल बिलकुल समय पर अदालत के लिए निकलना होगा'। पत्नी शोभा ने पूछा था -कल कितने बजे अदालत के लिए निकलना है? तो मैं ने बताया था -यही कोई साढ़े दस बजे। शोभा ने चेताया दस बजे की सोचोगे तब साढ़े दस घर से निकलोगे।
सुबह पाँच बजे नींद खुली। शोभा सो रही थी। मैं लघुशंका से निवृत्त हुआ और पानी पी कर वापस लौटा तो ठंड इतनी थी कि फिर से रजाई पकड़ ली। जल्दी ही निद्रा ने फिर पकड़ लिया। इस बार शोभा ने जगाया -चाय बना ली जाए। मैं  ने रजाई में से ही कहा -हाँ, बिलकुल। कॉफी की प्याली आ जाने पर ही रजाई से निकला पानी पीकर वापस रजाई में, वहीं बैठ बेड-कॉफी पी गई।
शौचादि से निवृत्त हो नैट टटोला तो पता लगा रात को सुबह साढ़े पाँच के लिए शिड्यूल की हुई पोस्ट ड्राफ्ट ब्लागर ने ड्राफ्ट में बदल दी है औऱ प्रकाशित होने से रह गई है। उसे मैनुअली प्रकाशित किया। तभी शोभा ने आ कर पूछा कपड़े धोने हों तो बता दो, कल नहीं धुलेंगे। मैं ने कहा -खुद ही देख लो। मैं जानता था कि कपड़े अधिक से अधिक एक जोड़ा ही बिना धुले होंगे। मैं ने सोचा था कि नौ बजे बाथरूम में घुस लूंगा। तब तक अदालत का बस्ता जाँच लिया जाए कि फाइलें वगैरा सामान पूरा तो है न। यह काम निपटता इतने बिजली चली गई। अंदेशा इस बात का था कि अघोषित बिजली कटौती हो सकती है इस लिए पूछताछ पर टेलीफोन कर पूछा तो जानकारी दी गई कि किसी फॉल्ट को ठीक किया जा रहा है, कुछ देर में आ जाएगी। वाकई दस मिनट में बिजली लौट आई। लेकिन तब तक बाथरूम कब्जाया जा चुका था। मुझे वह साढ़े दस बजे नसीब हुआ। मैं तैयार हो कर निकला तब सुबह के भोजन में कुछ ही देरी थी। मैं ने यह समय कार की धूल झाड़ने और जूते तैयार करने में लगा दिया। मैं अदालत पहुँचा तो बारह बजने में कुछ ही समय शेष था। पार्किंग पूरी भर चुकी थी। आखिर पूरी अदालत का चक्कर लगाने के बाद स्थान दिखाई दिया, वहीं कार टिका कर अपनी बैठक पर पहुँचा।
 मैं वाकई बहुत विलंब से था।


अदालत में लौटती रौनक

ज लगभग सभी वकील मेरे पहले ही आ चुके थे। एक अभियुक्त नहीं आ सकता था उस की हाजरी माफी की दरख्वास्त पर दस्तखत कर एक कनिष्ट को अदालत में भेजा और मैं एक आए हुए मुवक्किल के साथ श्रम न्यायालय चला गया। कुल मिला कर आज के साथ मुकदमों में से छह में एक बजे तक पेशी बदल चुकी थी। एक अदालत के जज ने बहस करने को कहा - मैं तैयार था लेकिन? लेकिन एक दूसरे वकील साहब तैयार न थे, वे पहली बार अदालत में उपस्थति दे रहे थे। आखिर उस में भी पेशी बदल गई। अदालत का काम समाप्त हो चुका था। फिर बैठक पर कुछ वकील इकट्ठे हो गए। कहने लगे काम को रफ्तार पकड़ने में समय तो लगेगा। शायद सोमवार से मुकाम पर आ जाए। ठीक वैसे ही जैसे किसी दुर्घटना के बाद रुकी हुई गाड़ियाँ समय पर चलने में तीन-चार दिन लगा देतीं हैं। मध्यान्ह की चाय हुई, फिर मित्रों के बीच कुछ कानूनी सवालों पर विचार विमर्श चलता रहा। फिर एक मित्र के साथ कॉफी पी गई। तभी मुझे ध्यान आया कि मोबाइल बिल आज जमा न हुआ तो आउटगोइंग बार हो सकती हैं। एक सप्ताह बाहर रहने से वह जमा होने से छूट गया था। मैं तुरंत अदालत से निकल लिया और बिल जमा कराता हुआ घर पहुँचा।
ह बुधवार का दिन था और शोभा के व्रत था। वह आम तौर पर रात आठ बजे व्रत खोलती है। शाम की चाय के बाद कहने लगी -भोजन कितने बजे होगा। मैं ने कहा -जब तैयार हो जाए।  -मुझे भूख लगने लगी है। -तो बना लो। वह रसोई की ओर चल दी। इतने में उस के लिए फोन था। एक मित्र पत्नी का। खड़े गणेश चलने का न्योता था। शोभा रसोई छोड़ तुरंत चलने को तैयार होने लगी। कुछ ही देर में वे लोग आ गए। हम भी उन के साथ खड़े गणेश पहुँच गए।  कार पार्क कर हम मंदिर तक पैदल गए।  मित्र की पत्नी व बेटी  और शोभा  पीछे चल रही थी। पत्नी अपना ज्ञान बांटने में लगी थी -गुरूवार को केला भोग नहीं लगाया जाता।  मैं ने सवाल रखा  -गुरूवार को पूर्णिमा हो और सत्यनारायण का व्रत रखे तो क्या केले का भोग न लगेगा?  प्रत्येक  देसी कर्मकांडी की तरह पत्नी के पास उस का भी जवाब था। कहने लगी -वह तो गुरुवार का व्रत करने वालों और केले के पेड़ की पूजा करने वालों के लिए है, सब के लिए थोड़े ही है। मैं सोच रहा था कि स्त्रियाँ किस तरह समाज के टोटेम युग की स्मृतियों और रिवाजों को अब तक बचाए हुए हैं। वर्ना इतिहासकारों और दार्शिनकों के लिए सबूत ही नहीं बचते। गणेश तो बहुत बाद की पैदाइश हैं। आम तौर पर बुधवार को लंबी कतार होती है वहाँ। दो-दो घंटे लग जाते हैं दर्शन में। पर आज कतार बहुत छोटी थी। मैं कतार में लग गया। हम कोई आध घंटे में वहाँ से निपट कर वापस हो लिए। मैं ने रास्ते में पूछा -तुम्हें तो भूख लगी थी न? कहने लगी - वह तो अब भी लगी है पर यहाँ आने को मना कैसे करती।


खड़े गणेश 

भोजन तैयार होने में घंटा भर लगा होगा। पहले मैं बैठ गया और जब तक वह रसोई से निपट कर लौटती तब तक दफ्तर में लोग आने लगे थे। मुझे भी कुछ आश्चर्य हुआ कि जिस दफ्तर में तीन माह की शाम अक्सर मैं अकेला होता था उस में अदालत खुलते ही रौनक होने लगी। बिलकुल आश्चर्यजनक रूप से मैं दफ्तर से साढ़े ग्यारह पर छूटा हूँ। इस बीच कुछ लोगों से इस बात पर भी चर्चा हुई कि कोटा में पाँच बरस पहले एक अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित हो जाना चाहिए था, जिस के न होने से इस न्यायालय के न्यायार्थियों के लिए न्याय का कोई अर्थ नहीं रह गया है। हर वर्ष जितने मुकदमे निर्णीत हो रहे हैं उस से दुगने आ रहे हैं। इस गति से लंबित मुकदमे तो बीस साल भी नहीं निबट सकते। आखिर कुछ श्रम संगठनों ने इस के लिए सरकार को प्रतिवेदन भेजने का निर्णय किया और न सरकार के न मानने पर आंदोलन आरंभ करने का इरादा भी जाहिर किया। तो यूँ रहा आज का दिन। इतना लिखते लिखते तारीख बदल गई है।

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

संघर्ष विराम हुआ, चलो काम पर चलें ......


खिर 130 दिन की हड़ताल पर विराम लगा। आज हुई अभिभाषक परिषद की आमसभा में प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित हुआ कि वर्तमान परिस्थितियों में संघर्ष को विराम दिया जाए। इस समय लगभग सभी राज्यों में हाईकोर्टों की बैंचें स्थापित किए जाने के लिए संघर्ष जारी है। अनेक राज्यों के अनेक संभागों के वकील अदालतों का बहिष्कार कर चुके हैं। कोटा के वकील भी पिछली 29 सितंबर से हड़ताल पर थे। इस बीच वकीलों ने अदालत में जा कर काम नहीं किया, जिस का नतीजा यह रहा कि अत्यंत आवश्यक आदेशों के अतिरिक्त कोई आदेश पारित नहीं किया जा सका। इन 130 दिनों में किसी मामले में कोई साक्ष्य रिकॉर्ड नहीं की गई। अदालतों का काम लगभग शतप्रतिशत बंद रहा।

स पूरे दौर में ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं कोटा मे रहा होऊँ और अदालत नहीं गया होऊँ। हाँ यह अवश्य रहा कि आम दिनों में जैसे सुबह साढ़े दस-ग्यारह बजे अदालत पहुँचने की आदत थी वह खराब हो गई। दो माह तक तो स्थिति यह थी कि अदालत परिसर के द्वार साढ़े दस बजे वकील बंद कर उस पर ताला डाल देते थे। दो बजे तक कोई भी अदालत परिसर के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता था। वकील जो पहुँच जाते थे वे भी परिसर में प्रवेश नहीं कर पाते थे। उन्हें सड़क पर या आस पास के परिसरों में बैठ कर इंतजार करना पड़ता था।  अधिकांश वकील  मुंशी आदि एक बजे के पहले अदालत जाने से कतराने लगे थे। मुझे खुद अदालत जाने की को कोई जल्दी नहीं रहती थी। आज भी मैं एक बजे अदालत पहुँच पाया था जब परिषद की आमसभा आरंभ होने वाली थी। इन दिनों अदालत से घर लौटने की जल्दी भी नहीं रहती थी।  शाम को अपने कार्यालय में कोई काम नहीं होता था। अक्सर पाँच बजे तक हम अदालत में ही जमे रहते थे।

ज जब परिषद ने हड़ताल स्थगित करने का निर्णय लिया तो तुरंत ही वकीलों को कल से काम पर नियमित होने की चिंता सताने लगी। मैं भी साढ़े तीन बजे ही अदालत से चल दिया। चार बजे घऱ पर था। आते ही कल के मुकदमों की फाइलें संभालीं। इस सप्ताह के मुकदमों पर निगाह डाली कि किसी मुकदमे की तैयारी में अधिक समय लगना है तो उस की तैयारी अभी से आरंभ कर दी जाए। अब मैं कल से पुनः काम पर लौटने के लिए तैयार हूँ। हालाँकि जानता हूँ कि अभी काम अपनी गति पर लौटने में एक-दो सप्ताह लेगा। बहुत से लोग जिन की सुनवाई के लिए जरूरत है उन्हें सूचना होने में समय लगेगा।  
भिभाषक परिषद ने तय किया है कि जब तक कोटा में हाईकोर्ट की बैंच स्थापित नहीं हो जाती है तब तक वे सप्ताह के अंतिम दिन अर्थात शनिवार को काम नहीं करेंगे। इस तरह अब काम का सप्ताह केवल पाँच दिनों का रहेगा। पहले केवल अंतिम शनिवार को काम का बहिष्कार रहा करता था। इस हड़ताल के दौरान मिले समय में मैं ने एक काम यह किया कि तीसरा खंबा पर 'भारत का विधिक इतिहास' लिखना आरंभ किया जिस की तीस कड़ियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इस तरह एक अकादमिक काम अंतर्जाल पर लाने का प्रयास आरंभ हो सका।

ब कल से काम पर जा रहे हैं। देखता हूँ अपनी ब्लागीरी के लिए कितना समय निकाल पाता हूँ।

रविवार, 13 दिसंबर 2009

एक पूरा छुट्टी का दिन : बहुत दिनों के बाद


ड़ताल 105 दिन पूरे कर चुकी है। इधर अभिभाषक परिषद के चुनाव जोरों पर है। उम्मीदवार सभी मतदाताओं से मिलने के प्रयत्न कर रहे हैं। अध्यक्ष और सचिव पद के उम्मीदवारों का घर-घर जाना पुरानी परंपरा बन चुका है। इस बार उपाध्यक्ष, पुस्तकालय सचिव और कार्यकारिणी सदस्य के उम्मीदवार भी घरों पर आए। अब पंद्रह दिसंबर तक, जब तक मतदान होगा, हड़ताल को शायद ही कोई स्मरण करे। हाँ, उस का इतना उल्लेख जरूर होगा कि कम से कम आने वाली कार्यकारिणी ऐसी अवश्य आए जो हड़ताल से जुड़े हाईकोर्ट की बैंच कोटा में खोले जाने के मामले को इस तरह से आगे बढ़ाए कि जल्द से जल्द हड़ताल से छुटकारा मिल सके। सब के अवचेतन में यह बात कहीं न कहीं अवश्य है और मतदान का बिंदु भी यही होगा। परिणाम बताएँगे कि लोग किसे योग्य पाते हैं। इस बार कोई भी, और बात चुनाव को प्रभावित नहीं कर सकेगी। न ग्रुप, न राजनैतिक संबद्धता, न रिश्तेदारी और न गुरूचेले का संबंध। यही होता है, जब पूरी बिरादरी एक संक्रमण में हो तो फैसले गुणावगुण पर होने लगते हैं।
ह अंदेशा तो है ही कि अब हड़ताल का अंत कुछ ही दिनों में होगा। हमें नए सिरे से अदालतों में काम के लिए तैयार होना  होगा, उस के लिए आवश्यक है कि हमारे दफ्तर तैयार रहें। उन में जो काम पिछड़ गया है वह लाइन पर ले आया जाए। सब पत्रावलियाँ यथास्थान हों। डायरी पूरी तरह से तैयार हो, उस में जो भी कमियाँ हैं पूरी कर ली जाएँ। जिन पत्रावलियों में मुतफर्रिक काम करने हैं, उन्हें कर लिया जाए। कल रात को जब तीसरा खंबा की पोस्ट शिड्यूल कर के उठा तो निश्चय यही था कि  ये सब काम  शनिवार को निपटा लिए जाएँ, जिस से रविवार पूरी तरह से आजाद रहे। लेकिन शुक्रवार का सोचा सब गड़बड़ हो जाता है, यदि उस के बाद  का दिन महीने का दूसरा शनिवार हो। सुबह की चाय पीते-पीते हुए अखबार देखने और उस के बाद नैट पर ब्लाग पढ़ने,कुछ टिप्पणियाँ करने में घड़ी ने नौ बजा दिए। स्नानादि से निपटा तब तक साढ़े दस बज रहे थे। दफ्तर में आ कर डायरी को कुछ ठीक किया ही था कि भोजन तैयार होने की आवाज आ गई। इस आवाज के बाद कुछ भी बर्दाश्त के बाहर होता है।
बैंगन के भर्ते और बथुई की कढ़ी के साथ गरम गरम चपातियाँ थीं। बस गुड़ की डली की कसर शेष थी। पता लगा वह रात ही समाप्त हुआ है। हमने चैन की सांस ली। पिछली बार जो गुड़ लाए थे। वह देसी तो था, पर दाने में कस र थी। वो मजा नहीं आ रहा था। उस से पीछा छूटा। सोचा चाहे दस दुकानें क्यों न छाननी पड़ें। आज दानेदार देसी गुड़ ढूंढ कर लाया ही जाएगा। भोजन कर के फिर से दफ्तर में आ कर बैठा तो पेट ने बदन के सारे लहू को भोजन पचाने में लगा दिया था। दिमाग को लहू की सप्लाई कम मिली तो वह ऊंधने लगा। आज धूप कुनकनी थी और हवा में ठंडक। चटाई-तकिया,अखबार और किताब ले कर छत पर गया। धूप में लेटे-लेटे सुडोकू हल करने लगा। आज की पहेली बहुत खूबसूरत थी। उसने अन्तिम दो अंकों तक छकाया। उसे पूरी करते-करते कुछ भी पढ़ने की हालत नहीं रही। आँखे बंद कीं तो नीन्द ने आ दबोचा। बीच में आ कर शोभा छत पर सुखाई गई मंगोड़ी संभाल गई। बदन गर्म होते ही धूप चुभने लगी। मैं ने डोर पर सूख रहा चादर अपने ऊपर डाल लिया। धूप की चुभन से बचाव हो गया। लेकिन कुछ ही देर में चादर के अंदर की हवा गरम हो गई। इस बार नींद टूटी तो बदन से भरपूर पसीना निकल रहा था। मैं ने चटाई समेटी और नीचे कमरे में आ लेटा। फिर नींद लग गई। आखिर दो बजे मोबाइल की घंटी ने उठाया।
प्रेमकुमार सिंह का फोन था। वे अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे हैं। जब भी कभी मुझे किसी फौजदारी मुकदमे में जरूरत होती है तो वे मेरे वकील होते हैं। सुलझे हुए व्यक्ति हैं। उन से तय था कि मेरे मुहल्ले के वकीलों से वे मेरे साथ मिलेंगे। तीन बजे का समय तय हुआ। मैं ने शोभा को बताया कि तीन बजे वे आ रहे हैं, कॉफी  उन के सात पियूँगा। उस ने तुरंत ही बना दी, क्या पता चुनावी जल्दी में हों और मुझे भी न पीने दें। खैर हुआ भी यही। उन के आते ही हम चल दिए। इलाके के कोई पच्चीस-तीस वकीलों के यहाँ घूम-मिल वापस अपने घर पहुँचते पहुँचते  साढ़े पाँच हो गए। उसी समय मेरी साली की बेटी श्रद्धा रविवार का अवकाश हमारे साथ बिताने आ गई। वह यहीं आईआईटी की कोचिंग कर रही है। उस का आना अच्छा लगा। मैं ने दीवान पर अधलेटे हो कर टीवी खोला, तो ट्वंटी-ट्वंटी आरंभ हो चुका था। मैं और श्रद्धा मैच देखने लगे। शोभा ने आ कर पूछा -खाने में क्या बनेगा? इस प्रश्न का उत्तर हमेशा प्रश्न होता है। ..... तुम्हारे पास क्या है? .... जवाब आया -मैथी।. ... तो पराठे बना लो, श्रद्धा ने भी मेरे मत का समर्थन किया। मैच के इंटरवल में अमिताभ कमेंट्री करने आते तब तक पराठे तैयार हो कर टेबल पर हाजिर थे।
राठों से निपटने के बाद मैच पूरा देखा। आखिर भारत ने मैच जीत  लिया। कंमेंटेटर बल्लेबाजों  की तारीफों के पुल बांधने लगे। हार जाता तो उन का पुलंदा बांधते। तभी कुछ और उम्मीदवार मिलने आए। इस बीच बेटे वैभव और बेटी पूर्वा से फोन पर बात हुई।  इस के बाद मैं दफ्तर में नहीं बैठ सका। फिर से जा कर सारेगामा का 1000वीं प्रस्तुति देखी।  अभी उठ कर वापस आया तो सोचा आज मैं ने क्या किया? जो कल सोचा था वह  काम तो आज बिलकुल नहीं कर पाया। बहुत दिनों बात एक पूरा दिन छुट्टी मनाई।  अब सोच रहा हूँ। शनिवार का काम कल जरूर निपटा दूंगा। शनिवार का सोचा रविवार को तो करना ही पड़ता है, वरना उस के पीछे एक नया सोमवार खड़ा होता है।


तेरी  मुक्ति   के  लिए,   कर  तू  ही   संघर्ष
ना सहाय कोई देवता, न कोई ईश विमर्श
  • शिवराम

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी

दि कोई पूछे कि भारत में सब से अधिक क्या होता है? तो सब से आसान उत्तर है, जी चुनाव!
बिलकुल सही है यहाँ चुनाव ही सब से अधिक होते हैं। शायद सब से मजबूत जनतंत्र की यही निशानी है, या फिर जनतंत्र है, यह साबित करने को यह सब करना होता है। अब देखिए ना, अभी मई में देश भर में लोकसभा के चुनाव हुए ही थे। पूरे दो माह तक देश इन की चपेट में रहा।  ये चुनाव निपटे ही  थे कि फिर से चुनाव के लिए मतदाता सूचियों में संशोधन का काम आरंभ हो गया। नवम्बर में नगर निगम के चुनाव जो होने थे। इस बार इस चुनाव में बहुत कुछ बदला गया। वार्डों का पुनर्सीमांकन किया गया। नए सिरे से पर्चियाँ डाल कर तय किया गया कि किस वार्ड से किस-किस तरह का आरक्षण रहेगा। ऐन वक्त पर यह भी तय हुआ कि इस बार मेयरक का चुनाव वार्ड पार्षद के स्थान पर सीधे जनता ही करेगी। इस जरा सी बात ने बहुत कुछ बदल दिया। पन्द्रह वर्ष से नगर निगम पर काबिज भाजपा को जनता ने विदा किया और मेयर कांग्रेसी चुन दिया। साथ में तीन चौथाई से अधिक वार्ड पार्षद भी कांग्रेस के चुन दिए।

स बीच कोटा के वकील 29 अगस्त को हड़ताल पर चले गए। हड़ताल एक सौ दस दिन पूरे कर के भी जारी है।  बून्दी और झालावाड़ जिलों के वकील भी इस हड़ताल में शामिल हैं। चाहते हैं कि कोटा में हाईकोर्ट की एक अदद बैंच स्थापित की जाए। एक चौथाई साल  हड़ताल चलते हो चुका है, लेकिन कोई नतीजा ही सामने नहीं है। जिस दिन नगर निगम के चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होनी थी उस के ठीक पहले मुख्यमंत्री ने बुलाया, बात की। वे सभी मांगें मानने को तैयार थे। लेकिन हाईकोर्ट के मामले में आश्वासन तो दूर मुहँ से कुछ भी निकालने को मना कर दिया। वे जोधपुर से हैं जहाँ हाईकोर्ट की मुख्य पीठ है। वहाँ के लोग जयपुर में स्थापित की गई बैंच को ही पिछले 32 साल में बर्दाश्त नहीं कर पाए तो एक और बैंच को कैसे बर्दाश्त कर पाएंगे। यह बात मुख्यमंत्री के मुहँ से निकले तो कैसे? आखिर उन्हें अगली बार फिर वहीं से चुनाव जो लड़ना है। मुख्यमंत्री और तमाम राजनेता चुनाव में व्यस्त हो गए। इधर हड़ताल जारी रही। 

चुनाव के दौरान ही केन्द्रीय विधि मंत्री से दिल्ली में प्रतिनिधि मंडल ने भेंट की उन्हें सब कुछ बताया। उन के मुख से केवल इतना ही निकला कि 2010 में हाईकोर्टों की बैंचें खोलने के प्रस्ताव हैं। इन में एक बैंच राजस्थान में स्थापित की जाएगी।  स्थापना कहाँ हो? इस के लिए तथ्यात्मक रिपोर्ट के साथ राज्य सरकार रिपोर्ट करेगी तब निर्णय हो सकेगा। वकीलों का आंदोलन फिर से वहीं आ गया था। गेंद फिर से राज्य सरकार के पाले में थी। चुनाव संपन्न हो गए।  उसी दौर में कोटा अभिभाषक परिषद के सदस्य और कोटा  ही विधायक चुने गए राजस्थान के विधिमंत्री से बात हुई तो कहने लगे अभी चुनाव में व्यस्त हूँ, चुनाव नतीजे निकलते ही आप लोगों से आ कर मिलता हूँ। हड़ताल चलती रही। जब हड़ताल आरंभ हुई थी तो  बार काऊंसिल के चुनाव  की तैयारी आरंभ हो चुकी थी और कहा जा रहा था कि हड़ताल तो चुनाव की वजह से हो रही है जिस से उम्मीदवारों को  प्रचार का अवसर मिल जाए। हड़ताल के बीच ही राजस्थान की बार कौंसिल के चुनाव हो लिए। डेढ़ माह बाद  ठीक दो दिन पहले उस के नतीजे भी आ चुके हैं। हड़ताल फिर भी जारी है।

ब अभिभाषक परिषद के चुनाव आ गए हैं। सब चुनाव टल सकते हैं लेकिन अभिभाषक परिषद के नहीं। विधान में लिखा है कि दिसम्बर की 15 तारीख तक किसी भी हाल में चुनाव संपन्न किए जाएंगे और जनवरी की 3 तारीख तक हर हाल में नयी कार्यकारिणी को कार्यभार सोंप दिया जाएगा। तब से ये दो तारीखें पत्थर की लकीर हो गई हैं। लोगों ने अपने अपने नामांकन भर दिए हैं। परिषद के अध्यक्ष के लिए नौ और सचिव के लिए ग्यारह उम्मीदवार मैदान में हैं। कल नामांकन वापसी का दिन है। उस के बाद ही पता लगेगा कि कितने उम्मीदवार मैदान में रह गए हैं। जिन उम्मीदवारों को चुनाव लड़ना ही है, उन्हों ने प्रचार आरंभ कर दिया है।  वकील जब शाम को घर लौटते हैं और पत्नियाँ उन की जेब तलाशी करती हैं तो वहाँ रुपयों की जगह उम्मीदवारों द्वारा याद्दाश्त के लिए दी गई पर्चियाँ  निकलती हैं। उन्हें भी पता लग चुका है कि चुनाव आ गया है। वे पूछती हैं। इस चुनाव के बाद तो कोई चुनाव नहीं है न? जवाब मिलता है  -नहीं, अब कम से कम एक-दो माह तो कोई चुनाव नहीं है, तो वे कहती हैं तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी।

सोमवार, 30 नवंबर 2009

मनुष्य अपनी ही बनाई व्यवस्था के सामने इतना विवश हो गया है?

न्यायालयों का बहिष्कार 90 दिन पूरे कर चुका है। इस बीच सारा काम अस्तव्यस्त हो चला है। बिना निपटाई हुई पत्रावलियाँ, कुछ नए काम, कुछ पुराने कामों से संबंधित छोटे-बड़े काम, डायरी आदि।  अपने काम के प्रति आलस्य का एक भाव घर कर चुका है। लेकिन लग रहा है कि जल्दी ही काम आरंभ हो लेगा। इसी भावना के तहत कल दफ्तर को ठीक से संभाला। सरसरी तौर पर देखी गई डाक को ठिकाने लगाया। पत्रावलियों को यथा-स्थान पहुँचाया। अभी भी बहुत सी पत्रावलियाँ देखे जाने की प्रतीक्षा में हैं। कुछ मुवक्किलों को रविवार का समय दिया था। सुबह उठ कर उसी की तैयारी में लगा। लेकिन तभी शोभा ने सूचना दी कि पीछे के पड़ौसी बता कर गए हैं कि ओम जी की माताजी का देहान्त हो गया है। ओम जी मेरे कॉलेज के सहपाठी रहे हैं और आज कल पड़ौसी। इन दिनों विद्यालय में प्राचार्य हैं।  उन के माता पिता दोनों वृद्ध हैं, पिता जी कुछ अधिक क्षीण और बीमार थे। समझा  जाता था कि वे अब मेहमान हैं, लेकिन उन के पहले ही माता जी चल दीं।


स समाचार ने दिन भर के काम की क्रमबद्धता में अचानक हलचल पैदा कर दी। मैं ने जानकारी की कि वहाँ अंतिम संस्कार के लिए रवानगी कब होगी, पता लगा कि कम से कम साढ़े दस तो बजेंगे, उन के बड़े भाई के आने की प्रतीक्षा है। मैं जानता हूँ कि माँ की उम्र कुछ भी क्यूँ न हो, और उन का जाना कितना ही तयशुदा क्यों न हो? फिर भी उन का चला जाना पुत्रों के लिए कुछ समय के लिए ही सही बहुत बड़ा आघात होता है। लेकिन मैं इस वक्त वहाँ जा कर कुछ नहीं कर सकूंगा सिवाय इस के कि लोगों से बेकार की बातों में उलझा रहूँ। संवेदना की इतनी बाढ़ आई हुई होगी की मेरा कुछ भी कहना नक्कारखाने में तूती की आवाज होगी। मैं ने अपने कामों को पुनर्क्रम देना आरंभ किया। मुवक्किलों को फोन किया कि वे दिन में न आ कर शाम को आएँ। शाम को एक पुस्तक के लोकार्पण में जाना था उसे निरस्त किया और अपने कार्यालय के काम निपटाता रहा। शोभा और मेरा प्रात- स्नान भी रुक गया था, सोचते थे वहाँ से आ कर करेंगे। शोभा के ठाकुर जी बिना स्नान रहें यह  उस से बर्दाश्त नहीं हुआ।  उस ने साढ़े दस बजते बजते स्नान कर लिया। सवा ग्यारह पर समाचार मिला कि जाने की तैयारी है। मैं उन के घर पहुँचा और साथ हो लिया।
 नेक लोग मिले। कई बहुत दिनों में। अभिवादन हुए। एक व्यवसायिक पड़ौसी कहने लगे  - आज कल आप घऱ के बाहर बहुत कम निकलते हैं, बहुत दिनों में मिले। उन की बात सही थी। मैं ने मुहल्ले के लोगों पर निगाह दौड़ाई तो पता लगा अधिकांश की स्थिति मेरी जैसी ही है। या तो वे घर के बाहर होते हैं या घर में,  परमुहल्ले में नहीं होते, एक दूसरे के साथ। मैं सोचने लगा कि ऐसा क्यों हो रहा है? मैं ने उन्हें कहा कि इस मोहल्ले में हम जो लोग रहते हैं सभी निम्न मध्यवर्गीय लोग हैं। जो लोग सरकारी या सार्वजनिक उपक्रम की सेवा में हैं या थे,  उन के अलावा जितने भी लोग हैं, वे सभी क्या पिछले तीन चार सालों से आर्थिक रूप से अपने आप को अपनी नौकरियों और व्यवसायों में सुरक्षित महसूस नहीं करते? और क्या इसी लिए वे खुद अपने को सुरक्षित बनाए रखने के लिए अधिकतर निष्फल प्रयत्न करते हुए अचानक बहुत व्यस्त नहीं हो गए हैं? मुझे उन का जवाब वही मिला जो अपेक्षित था।


ब तक हम गंतव्य तक पहुँच चुके थे। जानकार लोग काम में लग गए। बाकी डेढ़ घंटे तक फालतू थे, जब तक पंच-लकड़ी देने की स्थिति न आ जाए। वहाँ यही चर्चा आगे बढ़ी। बहुत लोगों से वही जवाब मिला जो पहले मिला था। बात निकली तो पता लगा कि इस स्थिति ने लोगों को निश्चिंत या कम निश्चिंत और  चिंतित व  प्रयत्नशील लोगों के दो खेमें में बांट दिया है। उन के रोज के व्यवहार में परिवर्तन आ चुका है। एक मंदी ने लोगों के जीवन को इतना प्रभावित कर दिया था। कि वे आपस में मिलने से महरूम हो गए थे। महंगाई की चर्चा भी छिड़ी, उस ने भी दोनों तरह के लोगों को अलग-अलग तरह से प्रभावित किया था। उन लोगों की बात भी हुई जो निजि संस्थानों में काम करते हैं। बहुत पैसा और श्रम लगा कर पढ़े लिखे नौजवान, जिन्हें बहुत प्रतिष्ठित वेतनों वाली नौकरियाँ मिल गई हैं, उन की भी बात हुई कि वे किस तरह काम में लगे होते हैं कि घर लौटने पर खाने और आराम करने को भी समय कम पड़ता है।
क ही बात थी कि कब मंदी में सुधार होगा? करोड़ों लोगों को इस ने प्रयत्नों के स्थान पर भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है। घर की महिलाएँ जो इस बात को समझ ही नहीं पा रही हैं अधिक देवोन्मुख होती जा रही हैं। पहले यह मंदी दूसरी बार आने में आठ-दस वर्ष का समय लेती थी। अब तो पहली का असर किसी तरह जाता है कि दूसरी मुहँ बाए खड़ी रहती है। इस ने बहुत से प्रश्न उत्तरों की तलाश के लिए और खड़े कर दिए थे। क्या इस मंदी का कोई इलाज नहीं है? क्या भावी पीढ़ियाँ इसी तरह इस का अभिशाप झेलती रहेंगी? मनुष्य क्या इतना विवश हो गया है अपनी ही बनाई हुई व्यवस्था के सामने?


गुरुवार, 24 सितंबर 2009

फुरसत पर डाका


पिछले महीने की इकत्तीस तारीख से कोटा के वकील हड़ताल पर चल रहे हैं। हम भी साथ साथ हैं। रोज अदालत जाते हैं। वहाँ कोई काम नहीं, बस धरने पर बैठो, या अपने पटरे पर, या फिर दोस्तों के साथ चाय-कॉफी की चुस्कियाँ मारो। क्या फर्क पड़ता है? पर दिनचर्या बिगड़ गई है। जब काम ही नहीं होना है तो रोज फाइलें कौन निकाले और देखे। फाइलें अलमारी में पड़े पड़े आराम फरमा रही हैं। मुवक्किल भी फोन से पूछ रहे हैं कि हम आएँ या बिना आए काम चल जाएगा? अभी अदालतें सख्ती नहीं कर रही, शायद दुगने-चौगुने काम के बोझ से मारी अदालतें भी हड़ताल से मिले आराम का लाभ उठा रही हैं। मुवक्किलों की भीड़ अदालत में कुछ कम है।  मुंशी जाते हैं, तारीख ले आते हैं। किसी मुवक्किल को जल्दी होती है तो उस की दरख्वास्त पेश कर देते हैं। किसी की जमानत करानी होती है तो मुंशी अर्जी पेश कर देता है, वही फार्म भर देता है। अदालतें हैं कि बिना वकीलों का तनाव झेले बने बनाए ढर्रे पर जमानत ले लेती है, मुलजिम बाहर आ जाता है। जिस ने थोड़ा भी संगीन अपराध किया हो वह मुश्किल में हैं, उस की जमानत अटकी है। पुराना खुर्राट मुंशी एक जूनियर वकील को सलाह देता हुआ हमने सुन लिया "वकील साहब! मुवक्किलों को तो जरूर बुलाया करो। आएंगे तो कुछ तो नामा-पानी कर जाएंगे। वरना हड़ताल में सब्जी कहाँ से आएगी। दीवानी और गैरफौजदारी मुकदमों में कोई कार्यवाही नहीं हो रही है।

भले ही हड़ताल हो पर पेट हड़ताल नहीं करता। बिजली, पानी टेलीफोन वाले भी उन के बिल नहीं रोकते। पर भला हो उन मुवक्किलों का जो हड़ताल के वक्त अपने वकीलों का खयाल रखते हैं, फीस दे जाते हैं, कुछ तो इतने उदार हैं कि इस वक्त में ज्यादा भी दे जाते हैं। शायद वकील साहब बुरे वक्त में पाए पैसे की लाज रख लें। कुछ ज्यादा तवज्जो उस के मुकदमे पर दें।

हड़ताल तो कोटा के वकील छह साल से करते आए हैं, महीने के आखिरी शनिवार को। चाहते हैं, कोटा में हाईकोर्ट की बैंच खुल जाए।  छह साल से एक हड़ताल चल रही है। किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। वह स्वैच्छिक अवकाश जैसी चीज बन गई है। लेकिन हड़ताल बदस्तूर जारी है। कभी तो बिल्ली के भाग से छींका टूटेगा। कभी तो हाईकोर्ट और उस की एक बैंच की कमर फाइलों के बोझ से दोहरी होने लगेगी। कभी तो सरकार सोचेगी ही कि और भी बैंचें बनाई जाएँ। वैसे भी बीस बीस जजों को दो जगह बिठाने से क्या फायदा? इस की जगह दस दस जजों को चार जगह बिठा दिया जाए तो जनता को तो सुविधा होगी ही। यह सीधे-सीधे डेमोक्रेसी के डीसेंट्रलाइजेशन का मामला बनता है। पर अभी हड़तालियों का ध्यान अपनी मांग के इस लोजीकल प्रेजेंटेशन की तरफ नहीं गया है।


काम के दिनों में फुरसत निकलती थी। सब समझते थे कि वकील साहब काम में व्यस्त हैं। इधर जब से हड़ताल का पता लगा है। पत्नी से ले कर दोस्तों तक को वकील साहब फुरसत में नजर आ  रहे हैं।  हर कोई हमारी फुरसत पर पिले पड़ा है। पत्नी को दिवाली की सफाई के काम में हाथ बंटवाना है. दोस्तों को कुछ खास काम निकलवाने हैं।  कुछ मुवक्किल भी इसी इंतजार में बैठे थे, वे भी चक्कर लगाने लगे हैं। शायद बहुत दिनों से क्यू में इंतजार कर रहे उन के काम की बारी आ जाए।  सब हमारी फुरसत पर निगाह जमाए बैठे हैं।  कब मौका मिले और हमारी फुरसत हथिया लें। मुश्किल से अब जा कर उन का मौका जो लगा  है। फुरसत पर डाका पड़ रहा है। इस डाके के लिए किसी थाने में रिपोर्ट, तफ्तीश और चालान का कायदा भी नहीं है।