@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Sheel's Story
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गुरुवार, 31 मार्च 2011

शील ने इत्मिनान से क्रिकेट मैच देखा

सुरेश के सुबह सो कर उठने के पहले अखबार आ जाता है। शील ही पहले उसे पढ़ती है। सुरेश यदि बीच में उठ जाए तो उसे कॉफी बना कर दे देती है और फिर अखबार पकड़ लेती है। जब तक पूरा न पढ़ लिया जाए, उसे नहीं छोड़ती। यह अपने शहर, देश दुनिया के बारे में ताजा होने का सब से अच्छा तरीका है। फिर उसे अक्सर यह भी तो देखना होता है कि उस दिन पूनम, प्रदोष या कृष्णपक्षीय चतुर्थी तो नहीं पड़ रही है या कोई ऐसा त्यौहार तो नहीं है जिस में व्रत या पूजा वगैरा करनी हो। कहीं ऐसा न हो कि उन में से कोई छूट जाए। सोने से ले कर दाल-चावल तक के भाव उसी से तो पता लगते हैं और किसी के मरने-गिरने की खबर भी। अखबार से उसे यह सब जानकारी सुबह-सुबह मिल जाती है और दिनचर्या तय करना आसान हो जाता है। उसी से उसे यह भी खबर लगती है कि आज अदालत में काम होगा या वकील लोग यूँ ही मुकदमों में तारीखें ले कर वापस लौटेंगे। पिछले दो-एक बरस से यह खूब होने लगा है। महीने में दो-चार दफ़े तो वकील हड़ताल कर ही देते हैं और साल में कम से कम एक बार लंबी हड़ताल  भी करते ही हैं। इस से वह जान जाती है कि सुरेश को दिन में आज कितनी फुरसत रहेगी? उसी हिसाब से वह सुरेश से करवाए जाने वाले बाहर के कामों की उसे याद दिलाती है। 
शील को सप्ताह भर से ढोल पीट रहे टीवी चैनलों से पता चल गया था कि बुधवार को क्रिकेट विश्व-कप का फाइनल मैच होने वाला है। वह समझ गई थी कि सुरेश की कोशिश रहेगी कि ढ़ाई बजे के पहले घर पहुँच जाए और बिस्तर पर बैठे-लेटे वह मैच का आनंद ले सके। पहले तो सुरेश को क्रिकेट का बहुत ज़ुनून होता था। लेकिन अब उस पर उतना ध्यान नहीं देता। आखिर दे भी कब तक? वह ऐसा करने लगे तो धंधा ही चौपट हो जाए। फिर भी अगर भारत की टीम खेल रही हो तो मैच देखने की उस की कोशिश जरूर रहती है। उसे सुबह के अखबार से ही पता लग गया था कि आज के मैच के लिए वकील लोग अदालतों में काम नहीं करेंगे। सुबह जब सुरेश कॉफी पी रहा था तो शील ने पूछ लिया "आज अदालत में काम कितना है?" सुरेश भी अब इस तरह के सवालों का आदी हो चला है। वह तुरंत ही भाँप गया कि उसे कुछ काम बताया जाने वाला है। उस ने केवल इतना ही उत्तर दिया "कोई अधिक काम नहीं है।" तब शील ने बताया कि अदालत में तो आज वकील काम ही नहीं करेंगे। 
-हाँ, काम तो नहीं करेंगे, लेकिन अदालत तो जाना पड़ेगा। जो मुकदमे आज लगे हैं उन में पेशी तो लानी पड़ेगी। तुम तो अपना काम बताओ जो मुझे करने के लिए कहने वाली हो। सुरेश ने कहा। 
शील बताने लगी - मैं सोचती थी कि पोस्ट ऑफिस जा कर पोस्ट मास्टर को नया पता दे आओ। कहीं ऐसा न हो बच्चों की डिग्रियाँ आएँ और लौट कर फिर से युनिवर्सिटी चली जाएँ। फिर वहाँ से निकालना बहुत मुश्किल काम होगा। बच्चों को ही आ कर लेनी होंगी। वैसे भी वे घर कितने दिन के लिए आते हैं। फिर जब आते हैं तो युनिवर्सिटी में अवकाश होता है। वो गुप्ता जी की लड़की उसकी डिग्री आज तक भी युनिवर्सिटी से नहीं ला पाई है। जब गुप्ता जी पत्नी सहित एलटीसी पर गए थे तब आई थी, डाकिए ने लौटा दी। 
शील कुछ देर के लिए रुकी तो सुरेश बोल उठा -अगला काम बताओ। एक वो आप के मिर्च वाले को फोन कर के पूछ लो कि वह मिर्चें कब ला कर देगा? गरमी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। अधिक देर हो गई तो उन्हें पीसने में परेशानी होगी। यदि वह एक दो दिनों में ला दे तो ठीक, वर्ना पोस्ट ऑफिस के नजदीक की दुकान पर अच्छी वाली मिर्चें हैं, आधा किलो लेते आना। बिलकुल खतम हो हो जाएंगी तो परेशानी आ जाएगी। गणगौर नजदीक है, गुणे तो बनाने पड़ेंगे। बिना मिर्च के तो बनने से रहे।
... और? सुरेश ने पूछा? 
..... यूआईटी हो कर भी आना। नयी आवासीय योजना में  प्लाटों के आवंटन के फार्म मिलने लगे हों तो वह भी लाना। गुल्लू कह रहा था कि इस बार जरूर भर देना चाहिए। यदि आवंटन मिल गया तो फायदा हो जाएगा। उसे वैसे भी इस बार प्रोपर्टी में इन्वेस्ट के लिए लोन लेना पड़ेगा। वर्ना बहुत सा पैसा सिर्फ इन्कमटैक्स में कट जाएगा। गुल्लू की सैलरी स्लिप ले जा कर लोन एजेंट को दिखा कर पूछ भी लेना कि उसे कितना लोन मिल सकता है। 
... और?  इस बार सुरेश ने पूछा तो यकायक शील हँस पड़ी। कहने लगी - आज के लिए इतना ही बहुत है, फिर अदालत जा कर आज की पेशियाँ भी तो लेनी हैं और  फिर मैच भी तो देखना है। आज शाम तुम्हें दूध लेने नहीं जाना है, मैं ने गाँव वाले से एक किलो ले लिया है। 
सुरेश कहने लगा -कभी कभी बहुत समझदारी करती हो। सच में, आज मैच शाम पाँच बजे क्रिटिकल हो जाता तो मैं नहीं ही जाता।
-कभी कभी क्यों जनाब? हमेशा क्यों नहीं कहते। क्या कभी मैं ने कोई बेवकूफी भी की है? 
सुरेश की कॉफी कभी की खत्म हो चुकी थी, तम्बाकू को चूने के साथ घिस कर सुपारी मिला कर भी फाँक चुका था। वह उठा टॉयलेट में घुसते हुए बोला -मुझे बता कर दिन थो़ड़े ही खराब करना है। शील फिर हँस पड़ी। स्नानादि से निवृत्त हो कर सुरेश ने भोजन किया और निकल गया। उस ने शील के बताए सारे काम कर डाले थे। अदालत पहुँचा तो दुपहर का अवकाश होने में पंद्रह मिनट ही शेष बचे थे। उसे रोज ही अपनी कार पार्क करने के लिए जगह तलाशनी पड़ती थी। कभी कभी तो इस तलाश में कार को एक किलोमीटर बेशी चलाना पड़ जाता था। पर आज तो सारी ही जगह खाली पड़ी थी। कार को एक पेड़ की छाँह भी मिल गई थी। वरना कई सप्ताह से कार दिन फर धूप में तपती रहती थी। ज्यादातर लोग अपना काम निपटा कर घरों को जा चुके थे। अदालत में सन्नाटा पसरा था। मुवक्किलों का तो नाम भी नहीं था। वहाँ या तो अदालतों के कर्मचारी थे या फिर कुछ वकील, मुंशी और टाइपिस्ट आदि ही बचे थे। उन में से भी कुछ जाने की तैयारी में थे। कुछ ने मैच की एक पारी यहीं बार एसोसिएशन के टीवी पर मैच देखना था। जब भीड़ मैच देखती है तो उस का आनंद कुछ और ही होता है। 
सुरेश ने जल्दी-जल्दी देखा कि उस के आज के मुकदमों की तारीख उस के जूनियर और मुंशी ले आए हैं या नहीं। देखा कि एक-दो ही मुकदमे रह गए हैं तो मुंशी को हिदायत दी कि लंच होने के पहले ही शेष तारीखें भी नोट कर ले और बस्ता गा़ड़ी में रख दे। मुंशी ने एक दो नोटिसों पर दस्तखत कराए, जिन्हें आज ही डिस्पैच करना था। कुछ और अदालती कागजों पर दस्तखत करने के बाद सुरेश अपनी लंच-टीम के साथ चाय के लिए निकल गया। उस ने साथियों से पूछा -मैच देखने की क्या तैयारी है? अधिकतर चाय के बाद घर जाने वाले थे। एक दो ने वहीं मैच देखना था। जगदीश कोई गाना गुनगुना रहा था। सुरेश ने पूछा -क्या गुनगुना रहे हो?
-कुछ नहीं, यार! हर कोई ऐरा-गैरा, नत्थू खैरा किरकेट पर गाना बना रहा है तो मैं ने सोचा मैं भी क्यूँ न बना दू? 
-फिर कुछ सूझा? सुरेश ने पूछा।
-हाँ, दो पंक्तियाँ तो सूझ गई हैं। पर गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं रही है। 
-तो दो ही सुना दो। गाना वर्डकप फाईनल शुरू होने तक तो बन ही जाएगा। पूरा तब सुन लेंगे। 
- तो सुन ही लो। जगदीश सचमुच गाने लगा ....

देखो देखो देखो S S S S S S S S ओ
किरकट का मैच देखो S S S S S S S S ओ
भारत-पाक भिड़ते देखो S S S S S S S S ओ
भूलो भूलो भूलो S S S S S S S S ओ
राष्ट्रमण्डल को भूलो S S S S S S S S ओ
धोनी-सहबाग-सचिन याद रखो S S S S S ओ
भूलो भूलो भूलो S S S S S S S S ओ
कलमाड़ी की कालिख भूलो S S S S S S ओ
देखो देखो देखो S S S S S S S S ओ
किरकट का मैच देखो S S S S S S S S ओ ...

सुरेश ने जगदीश को बाहों में भर लिया। उस्ताद आज तो मिर्जा और मीर भी तुम्हें दाद दे रहे होंगे। 

चाय से निपट कर सुरेश घर पहुँचा तो टीवी से मैच की आवाजें आ रही थीं। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि पंद्रह दिन पहले तक अपने फेवराइट सीरियल के समय शील उसे कहती थी कि वह मैच इंटरनेट पर देख ले।  आज अपने फेवराइट सीरियल के समय क्रिकेट मैच देख रही है। उस ने गेट खोल कर कार अंदर रखी। शील ने दरवाजा खोला और तुरंत अंदर जा बैठी। बेडरूम का टीवी चल रहा था। दो ओवर हो चुके थे। शील जम कर बेड पर बैठ कर मैच देखने लगी। सुरेश ने कपड़े बदले और वह भी बेड पर लेट कर मैच देखने लगा। 
शील ने पूरा मैच तन्मय हो कर देखा। आखिरी ओवर की पहली गेंद फेंकने के बाद जब सुरेश ने कहा कि अब भारत जीत गया। तो शील बोली -जीत गया, तो फिर अब गेंद क्यों फैंकी जा रही है? जब तक आखिरी पाक खिलाड़ी आउट न हो गया तब तक वह नहीं उठी। उठी तो सब से पहले घड़ी देखी। उस की प्रतिक्रिया थी -अरे! ग्यारह बज गए! मैं तो सोच रही थी अभी साढ़े नौ ही बजे होंगे।
सुरेश ने कहा -अब भोजन भी बना लो। वर्ना जीत की खुशी में भूखा ही सोना पड़ेगा। 
-भोजन मैं ने दो बजे के पहले ही बना लिया था। बस, गरम कर के लाती हूँ। 
सुरेश सोच रहा था ... तो ये वजह थी, कि शील ने बड़े इत्मिनान से मैच देखा।

सोमवार, 28 मार्च 2011

शील की कहानी - गैस खत्म

शील का ये तिरेपनवाँ साल है। हाँ, अब वह शील ही रह गई है। उस का पति सुरेश उसे इसी नाम से बुलाता है। यूँ उस के दादा ने उस का नाम शीलवती रखा था। शतभिषा नक्षत्र के तीसरे चरण में जो पैदा हुई थी। पर दादी को यह नाम लंबा लगता था वह उसे शीला कहने लगी। फिर स्कूल में भी यही नाम लिखवा दिया गया। सब लोग उसे शीला ही कहने लगे थे। विवाह के निमंत्रण में भी यही नाम छपा था। पर शादी के बाद पति ने उसे कहा कि वह उस के नाम से नहीं पुकारेगा, अच्छा नहीं लगता लेकिन दूसरा नाम क्या हो? इस पर पहले ही दिन दोनों के बीच बहस हो गई थी। फिर तय हुआ कि शील कहेगा। फिर ससुराल में यही नाम चल निकला। सब उसे शील ही कहने लगे। वह जब भी मायके जाती है तो उसे शीला कहा जाता है।  
शादी तो उस की तभी हो चुकी थी जब उस ने मेट्रिक की परीक्षा दी थी। ससुराल में उसे सिर्फ चार-पाँच साल बिताने पड़े। उन दिनों को याद करती है तो उसे अब भी रोना आ जाता है। फिर सुरेश ने घर छोड़ने की ठान ली। वह तो दिल्ली या मुंबई जैसी जगह जा कर पत्रकार बनना चाहता था। वह चला भी गया था। पर शायद शील के प्रेम की डोरी ही थी जो उसे वापस खींच लाई थी। उसे एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक में उप संपादक का काम मिला था। लेकिन जब वह रहने का स्थान तलाशने निकला तो महानगर की सचाई सामने आ गई थी। जितनी तनख्वाह उसे मिलनी थी वह अपने कस्बे के हिसाब से तो सही थी, लेकिन मुंबई में उस से क्या होता? आधा तो किराए में ही चला जाता। वह भी तब जब वह दो और लोगों के साथ अपना कमरा साँझा करता। यदि वह साँझे कमरे में रहता तो शील को अपने साथ कैसे रख सकता था। उस ने यह भी अनुमान लगाया कि कितने बरस बाद वह ऐसा स्थान ले सकता था जिस से शील को साथ रख सके। अनुमान आया सात बरस। सात बरस! इतने दिन वह शील के बिना कैसे रहेगा। वह इतने साल अपने पीहर में तो नहीं ही रह सकती, और ससुराल में? वहाँ तो इतने दिन में उस का दम कितनी ही बार घुट चुका होगा। सुरेश ने उसी दिन साप्ताहिक के दफ्तर को टा-टा कर दिया। चार दिन के काम की मजदूरी छोड़ कर वापसी की ट्रेन का टिकट लिया और अगली शाम वह ट्रेन में वापसी की यात्रा कर रहा था। शील सोचती है कि तब सुरेश ने यदि वह नौकरी न छोड़ी होती तो वह घुट कर ही सही जैसे-तैसे सात बरस काट ही लेती। ससुराल में दम घुटने लगता तो दम लेने को कुछ महिने अपने पीहर में काट लेती। लेकिन सुरेश अवश्य ही देश का शीर्ष पत्रकार होता। शायद किसी शीर्ष समाचार पत्र का प्रमुख संपादक। जरूर कोई टीवी चैनल उस का भी आधे घंटे का साप्ताहिक कार्यक्रम चला रहा होता। तब शील की हैसियत भी वैसी ही होती। 
सुरेश ने मुंबई से लौटते ही फैसला ले लिया कि जैसे ही उस की कानून की पढ़ाई पूरी होगी वह वकालत शुरू कर देगा। फिर देखेगा कि कोई नौकरी करनी है या नहीं। यदि कोई ढंग-ढांग की नौकरी मिली तो करेगा, नहीं तो वकालत कोई बुरी नहीं। कम से कम खुद-मुख्तार तो रहेगा। उस ने यही किया भी, जिस रात वह कानून का आखिरी पर्चा देकर घर लौटा उस के अगले ही दिन अल्ल सुबह वह वकील के दफ्तर में पहुँच गया और कहने लगा -मैं आ गया हूँ मुझे आप की फाइलें संभला दो। उसी दिन वह उन के साथ अदालत में था। तीन महीने परीक्षा का परिणाम आने में लगे और तीन माह सनद आने में। जिस दिन डाक से बार कौंसिल का लिफाफा मिला सुरेश ने सीधा अपने बॉस को ले जाकर दिया। उन्हों ने खोल कर देखा तो उस में वकालत की सनद जारी करने की सूचना थी। बॉस ने तीन दिन पहले ही सिल कर आया नया कोट अपने शरीर पर से उतार कर सुरेश को पहना दिया। उस दिन सुरेश काला कोट पहने ही घर लौटा था। वह दिन शील आज तक नहीं भूल सकती। उसे लगा था कि वह उस की आजादी की शुरुआत थी। 
सोचते-सोचते शील का ध्यान रसोई में गैस पर चढ़े ओवन में सिकने को रखी बाटियों की ओर गया। आज रविवार था और सुरेश अक्सर उसे कहता था रविवार को तो दाल बाटी बना लिया करे। आज उस ने सुरेश की यह बात मान ली थी। दाल तो उस ने नहीं बनाई लेकिन कढ़ी बना ली थी और ओवन में बाटियाँ सेकने को डाल दी थीं। उस ने ओवन का ढक्कन उठा कर देखा तो बाटियाँ जस की तस थीं। वह हैरान रह गई कि यह हुआ क्या? उस की निगाह गैस की ओर गई तो चूल्हा बुझा हुआ था। गैस टंकी को हिला कर देखा तो वह बिलकुल खाली थी। ओवन भले ही ठंडा हो गया हो पर उस के दिमाग तुरंत गरम हो गया। वह एक महीने से सुरेश को याद दिला रही थी कि गैस सिलेंडर ले आओ। लेकिन उसे फुरसत हो तब न। अब कैसे भोजन बनेगा? सुरेश तो अब तक बिना नहाए बैठा इंतजार कर रहा था कि कब शील उसे भोजन बनने की सूचना दे और कब वह स्नानघर में प्रवेश करे। उस की आदत जो है कि इधर स्नानघर से निकला कपड़े पहने, ठाकुर घर में घुस कर सैंकंडों में माथे पर टीका लगाया और तुरंत भोजन चाहिए। जरा भी देरी उस से बर्दाश्त नहीं होती। इस नए मुहल्ले में वह सिलेंडर भी किस से मांगेगी? यहाँ तो उसे कोई ठीक से जानता भी नहीं। सुरेश को भी नहीं कह सकती, उस के पास दफ्तर में कोई क्लाइंट जो बैठा है। 
ह सोच में ही पड़ी हुई थी कि सुरेश पानी पीने के लिए दफ्तर से अंदर आया। उस ने तपाक से कहा गैस खत्म हो गई है। सुरेश ने पूछा -खाना बना? -नहीं अभी कहाँ बस कढ़ी बनी है, बाटी सिकने को डाली ही थी। सुरेश भी सोचने लगा कि अब क्या किया जाएगा? गलती तो उसी की है। शील तो महीने भर से कह रही थी गैस लाने को। लेकिन उसे फुरसत मिले तो। एक दिन पहले फोन करना पड़ता है दूसरे दिन ऐजेंसी से लाना पड़ता है, वह भी दुपहर को जब उस का अदालत का समय होता है। वह देख ही रहा था कि किस दिन वह अदालत से दोपहर को निकल सकता है। कल ही उस ने ऐजेंसी को फोन किया था और उसे सोमवार को गैस लानी थी। लेकिन इस गैस को भी रविवार को ही खत्म होना था। एक छोटा सिलेंडर और था जिसे वह इमरजेंसी में काम ले सकता था। लेकिन उसे भी वह पिछले महीने शील की बहिन के बच्चों को दे आया था जो उसी शहर में कमरा ले कर पढ़ रहे थे। सुरेश को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि शील बोल पड़ी। अभी घर में बहुत नाश्ता पड़ा है, तुम तो नाश्ता कर लो। सुरेश समझ गया कि वह उसे ताना दे रही है। थोड़ी देर और गैस का कोई हल न हुआ तो साक्षात दुर्गा के दर्शन संभव हैं। सुरेश ने कहा -तुम जानती हो मुझे स्नान के पहले कहाँ भूख लगती है। तुम गुस्सा न करो, अभी कुछ न कुछ करता हूँ। 
तना कह कर वह फिर अपने दफ्तर में जा बैठा। क्लाइंट ने अपनी राम-कथा फिर जारी कर दी, जिस का मुकदमे से कोई ताल्लुक न था। पर वकील को सुननी तो सब पड़ती है वर्ना क्लाइंट समझता है उस की पूरी बात सुनी ही नहीं वकील वकालत कैसे करेगा? वह सुनता रहा। लेकिन अब एक भी शब्द उस के कानों तक नहीं पहुँच रहा था। उसे तो तुरंत गैस का इन्तजाम करना था। उसे कुछ ही दूर रहने वाले अपने एक शिष्य का ख्याल आया तो तुरंत फोन की ओर उस का हाथ बढ़ गया। यह सुखद ही था कि फोन पर शिष्य मिल गया था। उस के घर तो कोई भरा सिलेंडर उपलब्ध नहीं था, लेकिन इतना जरूर कह दिया था कि वह कुछ मिनटों में कोई न कोई इंतजाम कर के फोन करेगा। वह शील को बताना चाहता था। लेकिन उसे अपने गुरू का मंत्र याद आ गया कि कभी अधूरी सफलता का उल्लेख किसी से न करो। यह सही भी था। यदि वह शील को बताता कि गैस का इंतजाम अभी हुआ जाता है, और गैस का इंतजाम दो घंटे भी न हुआ तो दुर्गा के साथ काली के दर्शन होना भी स्वाभाविक था। वह चुपचाप अपने क्लाइंट की राम-कथा फिर सुनने लगा। हालाँकि उस का पूरा ध्यान फोन की तरफ था कि कब घंटी बजे और कब उसे राहत मिले। 
स मिनट में ही घंटी बज उठी। संदेश था कि तुरंत गैस ले जाओ। सुरेश ने क्लाइंट को भी अपने साथ उठाया और गाड़ी में बैठाया। शिष्य एक पडौ़सी के घर के बाहर ही दिखे। वहाँ दरवाजे पर गैस सिलेंडर तैयार था। वह सिलेंडर रखवा कर घर लौटा। रसोई में सिलेंडर बदल कर चूल्हा जलाने को माचिस तलाशी तो वहाँ पड़ी माचिस खाली थी। उस ने कमरे में टीवी देखने जा बैठी शील को आवाज दी -माचिस कहाँ है? शील तुरंत उठ कर रसोई में घुसी। सुरेश गैस के सामने से हट गया। शील ने लाइटर से गैस जलाई। एक ही प्रयास में गैस जल उठी। सुरेश को आश्चर्य हुआ कि लाइटर पहली ही बार में कैसे काम कर गया? वह तो खराब हो चुका था और सात-आठ बार दबाने पर एक बार बमुश्किल काम करता था। पर इस से क्या शील के चेहरे पर से भी तनाव की सारी रेखाएँ पल भर में गायब हो चुकी थीं, दबी-दबी मुस्कान भी दिखाई दे रही थी। सुरेश को तसल्ली हुई। वह फिर से दफ्तर में आ गया। क्लाइंट की राम-कथा समाप्ति के दौर में थी। वह सोच रहा था कि क्लाइंट के उठते ही वह सीधा स्नानघर में घुस लेगा।